Wednesday, December 12, 2012

Asafalta (असफलता)


जब भी असफल या निराश हों, सबसे पहले ये करें....
जब कभी हम परेशान होते हैं तो परेशानी दूर करने का निदान ढूंढ़ते हैं। ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा करते हुए एक काम और किया जाए। उस परेशानी के कारण को भी पकड़ें। यहां यह ध्यान रखें कि कारण दूसरों में न ढूंढे़।

जब भी हम निराश हों, असफल हों, दुखी हों तो सीधे अपने भीतर छलांग लगाएं और टटोलें कि इसके पीछे हम कहां हैं। अब जैसे-जैसे हम गहराई में उतरकर अपने पर ही काम करेंगे, हमारी मुलाकात हमारी इंद्रियों से होगी। इंद्रियां भी चूंकि एक नहीं हैं, इसलिए उनमें से उस एक को पकड़ो, जो सबसे ज्यादा ताकतवर है और विषयों से जुड़कर हमें परेशान कर रही है।

लेकिन उससे झगड़ा न किया जाए, क्योंकि उसकी शक्ति हमारी कमजोरी बनती है। उसका अनियंत्रण ही हमारी परेशानी का कारण है। जीवन में गुरु अपने शिष्यों की कमजोरियों को इंद्रियों के माध्यम से पकड़ते हैं और उसी कमजोरी को शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं।

इंद्रियों को हमारा दुश्मन बनाने की जगह दोस्त बनाने की कला एक सच्चा गुरु जानता है। इंद्रियों से जितना अधिक झगड़ा करेंगे, उतनी ही परेशानी हम और बढ़ा लेंगे। हम भीतर ही भीतर खुद से उलझने लग जाएंगे। इंद्रियां हमारी खुशी और परेशानी के लिए एक पुल की तरह हैं। वे एक रास्ते के माफिक हैं। हम उनसे झगड़ा करके पुल को ध्वस्त कर लेते हैं और रास्ते को ऊबड़-खाबड़ बना लेते हैं।

कोई कभी उनसे भी झगड़ा करता है, जो काम आने वाले लोग हों। इंद्रियां जितना काम बिगाड़ती हैं, उससे ज्यादा काम बना भी सकती हैं। इसलिए इंद्रियों को समझें तो सुख और दुख के कारण समझ में आ जाएंगे तथा निदान भी सही हो जाएगा।

असफलता और दुःख का सबसे बड़ा कारण यह है...
अधिकांश विवादों की जड़ में मैंहोता है। अहंकार समाधान कम, समस्याएं ज्यादा पैदा करता है। सफल से सफल लोग अहंकारी होने पर भले ही असफल न हुए हों, पर अशांत जरूर हो गए और अशांति अपने आप में एक असफलता है। अहंकार कैसे उल्टे-उल्टे काम कराता है, पता ही नहीं लगने देता है कि आदमी कब हंस रहा है और कब रो रहा है। चलिए, रावण की सभा में चलते हैं।

सुंदरकांड का वह दृश्य चल रहा था, जहां विश्वविजेता रावण के दरबार में हनुमानजी खड़े थे।

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयं बिषाद।।

हनुमानजी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हंसा। फिर पुत्रवध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया। यहां दो दृश्य एकसाथ चले हैं।

पहले तो रावण हंसा। इसके बाद उसे तत्काल विषाद, दुख हो गया था। उसे ऐसा लगता था कि दुनिया में कभी उसकी पराजय नहीं हो सकती। उसने तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह किसी के हाथों नहीं मारा जाएगा, मनुष्य और बंदरों को छोड़कर।

इतनी बड़ी उपलब्धि एक अहंकारी के लिए उसके अभिमान में वृद्धि करने के लिए काफी थी, लेकिन वह यह भूल गया था कि वरदान उसे मिला है, उसके बेटे को नहीं। अभिमानी रावण ने अपने बच्चों को भी खूब गलत मार्ग दिखाए थे।

आदमी का अहंकार स्वयं को और उसके आसपास के लोगों को परेशानी में डालता ही है। नतीजे में एक बेटा मारा गया और जो रावण सारी दुनिया को दुखी कर रहा था, वह अपनी ही सभा में स्वयं दुखी हो गया और माध्यम थे हनुमानजी।

असफल होने पर भी अपनी ये आदत ना छोड़ें...
उत्सव मनाना और सौभाग्य को आमंत्रित करना लगभग एक जैसा है। सफलता का उत्सव तो बहुत लोग मनाते हैं, लेकिन असफल होने पर भी उत्सव की वृत्ति न छोड़ें। भारतीय संस्कृति उत्सवों की ही संस्कृति है।
उत्सव का अर्थ यह नहीं होता कि खुशियों का बंटवारा कर लें, बल्कि उत्सव का अर्थ होता है, उत्साह को पैदा करना। सुख और दुख बांटो या न बांटो, उनके अपने फैलने के तरीके होते हैं, लेकिन उत्साह हमें भीतर से ही लाना पड़ेगा। उत्सव का अर्थ धूम-धड़ाका और भाग-दौड़ ही न मान लें।

सच तो यह है कि जिस दिन आप खूब शांति से बैठ जाते हैं, उस दिन आप भरपूर उत्सव में डूबे रहते हैं। तमाशे और उत्सव में यही फर्क है। जिंदगी की चलती हुई गाड़ी में उत्सव उस कील की तरह है, जिसके आसपास पहिया घूम रहा है। हम कहते हैं, वाहन चल रहा है।

दरअसल वाहन दो हिस्सों में बंटा है। उसका चलना उसके पहिये पर निर्भर है और पहिये का घूमना उसकी बीच की कील पर निर्भर है। कील रुकी रहती है, पहिया घूमता है और गाड़ी को चलता हुआ बताया जाता है। बस जिंदगी की गाड़ी भी ऐसी ही है। आप घूमते हुए पहिए पर ज्यादा न टिकें। उस रुकी हुई कील पर ध्यान दें, जिसे जीवन का केंद्र कहा गया है।

जो सचमुच उत्सव मनाना चाहते हैं, वे अपनी प्रशंसा को, उत्साह को उस कील पर टिकाएं। जो आयोजन, प्रयोजन कील पर केंद्रित होगा तो वह उत्सव होगा और जब वह पहिए पर आधारित होगा तो तमाशा होगा। जिसमें धूम-धड़ाका होगा, जिसमें शोर होगा। खामोशी से मनाया उत्सव जीवन को और संचारित तथा उत्साहित कर देता है।

असफलता से बचने के लिए जरूरी हैं ये तीन गुण...
सारे व्यावसायिक प्रयास कुल मिलाकर धन के आसपास केंद्रित रहते हैं। यह धन कमाने का दौर है। जब इसका नशा चढ़ता है, तो आदमी अच्छे और बुरे तरीके पर ध्यान नहीं देता।अपने व्यावसायिक जीवन में धन कमाने को तीन बातों से जोड़े रहिए- योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी।

ये त्रिगुण जिसके पास हैं, वह किसी भी व्यावसायिक व्यवस्था में शेर की तरह होगा। शेर का सामान्य अर्थ लिया जाता है हिंसक पशु, लेकिन यहां शेर से अर्थ समझा जाए जिसके पास नेतृत्व की, यानी राजा बनने की क्षमता।

एक पुरानी कहानी है। एक शेर का बच्च माता-पिता से बिछड़ भेड़ों के झुंड में शामिल हो गया। उनके साथ रह उसकी चाल-ढाल, रंग-ढंग सब बदल गए। संयोग से किसी शेर ने भेड़ों के उस काफिले पर हमला किया। भेडें भागीं, तो शेर का बच्च भी भागा। हमलावार शेर को समझ में आ गया।

उसने भेड़ों को छोड़ा और उस शेर के बच्चे को पकड़ा। पानी में चेहरा दिखाया और कहा- तू मेरे जैसा है। तू शेर है, सबसे अलग, सबसे ऊपर। हमारे साथ ऐसा ही होना चाहिए। हमारे त्रिगुण हमें आईना दिखाते हैं कि हमें योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना है।

संस्थानों में अनेक लोगों की भीड़ होगी, पर हमें सबसे अलग रहना है। जो धन हम कमा रहे हैं वह तभी शुद्ध होगा और हमें अपनी सफलता के साथ शांति भी देगा। शास्त्रों में लिखा है- सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं पर स्मृतम्। योर्थै शुचिहिं स शुचिर्न मृद्वारिशुचि: शुचि:।। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि सर्वोपरि है।

वास्तव में वही शुद्ध है जो धन से शुद्ध है। जल और मिट्टी की शुद्धि कोई शुद्धि नहीं है। धन कमाने के मामले में हमारे ये त्रिगुण हमें बार-बार सामान्य लोगों की भीड़ से अलग, विशिष्ट बनाएंगे। अब जो समय है वह माचिस से आग जलाने का नहीं रहा। अब तो अपने व्यक्तित्व के तेज से प्रकाश फैलाने का वक्त है।

किसी भी संस्थान में इंसानों का ढेर होगा। उसमें यदि पूरे और सलामत आप दिखना चाहें तो लगातार अपने इन त्रिगुणों पर टिके रहिए और योग-प्राणायाम को थोड़ा समय जरूर दीजिए। यह बात सच है कि अपने विषय में सच्चई से कुछ कहना प्राय: कठिन होता है, क्योंकि स्वयं के अंदर दोष देखना सभी को अप्रिय लगता है, लेकिन आपके द्वारा अपने दोषों का अनदेखा करना दूसरों को अप्रिय लगता है।

असफलता का डर दूर करने के लिए जरूरी है ये बातें...
उस परमशक्ति, परमात्मा की अनुभूति होने पर व्यक्ति के मन में पहली इच्छा यह आती है कि यदि मैंने पा लिया है उसे, तो वह दूसरों को भी जरूर मिले। मैंने रसपान कर लिया है तो दूसरे भी प्यासे न रहें। लेकिन संसार की उपलब्धियां बांटने में कष्ट होता है।

इस समय संसार में दो बातों के लिए आदमी प्रयासरत और बेताब है- सफलता और प्रसिद्धि। कामयाब आदमी ख्याति जरूर बांटता है। इससे अहंकार को पुष्टि मिलती है। बिना सफल हुए भी कुछ लोग ख्यात होना चाहते हैं, फिर वे कुख्यात बनने की ओर बढ़ जाते हैं।

सफलता को तो लोग फिर भी आपस में बांट लेते हैं, लेकिन प्रसिद्धि का बंटवारा दौलत के बंटवारे से भी अधिक कठिन हो जाता है। बाप-बेटे, भाई-भाई, पति-पत्नी के रिश्ते भी ख्याति के बंटवारे के मामले में ईष्र्या में डूब जाते हैं।

जीवन में सफलता और प्रसिद्धि आने पर उदारता का स्वभाव और बढ़ा देना चाहिए। बिना उदार भाव के ये दोनों आपको ही खा जाएंगी। अपने उदार भाव को अधिक प्रदर्शन में न रखें। जो इसे थोड़ा रहस्यमयी रखेंगे, उन्हें अहंकार से बचने में सुविधा होगी। उदारता हमारे भीतर के बड़प्पन को संवार रही है। जब सेवा करें तो उसे रहस्यमयी न रखें, उसमें पूरा खुलापन रखें।

जिन्हें परमात्मा की अनुभूति होती है, उनके लिए सफलता और सेवा के अर्थ भिन्न हो जाते हैं। वे बांटने को उतावले होते हैं। हमें मिला तो दूसरों को भी मिले, उनका हर कृत्य इस भाव से भरा रहता है। ऐसे लोग सांसारिक वस्तुओं को बांटने में भी संकोच नहीं करते हैं। यह भी प्रेम का एक रूप होगा।

असफल होना नहीं चाहते तो इस एक आदत से बचें...
अपनी प्रशंसा अपने मुख से करना सीधे-सीधे अहंकार का अंकुरण करना है। सफलता को पचाना भी बड़ी ताकत का काम है। हम लोग अपने जीवन में जरा भी सफल होते हैं, तो सबसे पहले इसे शोर और प्रदर्शन में तब्दील करते हैं। सुंदरकांड में हनुमानजी महाराज हमें सिखा रहे हैं कि सफल होने पर थोड़ा खामोश हो जाइए। हमारी सफलता की कहानी कोई दूसरा बयान करे, तो कामयाबी में चार चांद लगना ही है।

लंका जलाकर और सीताजी को संदेश देने के बाद उनका रामजी की ओर लौटना सफलता की चरम सीमा थी। वह चाहते तो अपने इस काम को स्वयं श्रीरामजी के सामने बयान कर सकते थे। जैसा हम लोगों के साथ होता है, हम लोग अपनी सफलता की कहानी स्वयं दूसरों को न सुनाएं, तो कइयों का तो पेट दुखने लगता है। लेकिन हनुमानजी जो करके आए, उसकी गाथा श्रीरामजी को जामवंत सुना रहे थे।

तुलसीदासजी को लिखना पड़ा-

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुं मुख न जाइ सो बरनी।।

पवनतनय के चरित्र सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।

हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जामवंत ने हनुमानजी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्रीरघुनाथजी को सुनाए।।

आगे लिखा गया है- सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियं लाए।। सुनने पर कृपानिधि श्रीरामचंद्रजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमानजी को फिर हृदय से लगा लिया। परमात्मा के हृदय में स्थान मिल जाना अपने प्रयासों का सबसे बड़ा पुरस्कार है।

बड़े लक्ष्य पाना हो तो गणेश जी से बात सीखें...
केवल मनुष्य ही ऐसा होता है जिसके पास श्रेष्ठ से श्रेष्ठ और तुच्छ से तुच्छ दोनों एक समान होता है। उसके पास विचारों की चरम ऊंचाई है, तो आचरण की निम्नतम गति भी है। उठेगा तो इतना ऊंचा उठ जाएगा कि देवत्व लांघ ले और गिरेगा तो इतना नीचे गिर जाएगा कि पशु भी शर्मिदा हो जाएं।

भारत के पास श्रेष्ठतम शास्त्र रहे हैं, एक से बढ़कर एक महापुरुष आए इस धरती पर, अवतारों ने जीवन जीने की कला सिखा दी, फिर भी लोग चूकते गए। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह रहा कि हमने विवेक-शून्य होकर इनका उपयोग किया।

जिस दिन हम विवेकहीन हो जाते हैं, हमारा आधार ही खिसक जाता है। हम धार्मिक भावनाओं में इतने बह गए कि सही-गलत ही भूल गए। भावुकता उत्तेजना बन गई। यथार्थ का धरातल विवेक मांगता है। बड़े लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कल्पनाशक्ति और दूरदर्शिता जरूरी है। पर बिना विवेक के ये भी घातक हैं। विचार जब ओवरफ्लो होते हैं, तो भाव बन जाते हैं। यह भावना का बहाव ही बहा ले जाता है। कोई बांध चाहिए जो इस बहाव का सदुपयोग कर ले। इसीलिए हिंदुओं ने गणेशजी को खूब पूजा है। वह विवेक के देवता हैं।

स्पष्ट है कि उन्हें अकारण ही प्रथम पूज्य नहीं बनाया गया है। उनका विवेक शुभ से जुड़ा है और जब भी कोई कार्य शुभ से आरंभ होगा, विवेक से गुजरेगा तो उसे शत-प्रतिशत सफल होना ही है। इसलिए हर कार्य से पहले गणपति की आराधना होती है। गणोश उत्सव इस धरती पर लोक-देवताओं से जुड़े कई अद्भुत प्रयोगों में से एक है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK




No comments:

Post a Comment