Thursday, August 4, 2011

Katha Gyan (कथा ज्ञान) Part 4

आदतें हमें नहीं, हम आदतों को पकड़ते हैं
इंसान को अगर खुद को बेहतर बनाना है और अपनी किसी बुराई को छोडऩा है तो उसे इस बात की शुरूवात खुद से ही करनी होगी। किसी और के भरोसे आप अपनी किसी बुराई को नहीं छोड़ सकते। बस जरूरत है तो केवल दृढ़ विश्वास की।

आइये चलते हैं एक ऐसी ही वास्तविक घटना की तरफ जो दृढ़ विश्वास और अटूट संकल्प की जरूरत बताती है-

एक बार भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे के पास एक शराबी युवक आया और हाथ जोड़कर कहने लगा कि गुरूजी मैं बहुत परेशान हूं। यह शराब मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। आप कुछ उपाए बताइए जिससे मुझे पीने की इस आदत से मुक्ति मिल सके।विनोबाजी ने कुद देर तक सोचा और फिर बोले- अच्छा बेटा तुम कल मेरे पास आना, किंतु मुझे बाहर से ही आवाज देकर बुलाना, मैं आ जाऊंगा युवक खुश होकर चला गया।

दिन वह फिर आया और विनोबाजी के कहे अनुसार उसने बाहर से ही उन्हें आवाज लगाई। तभी भीतर से विनोबाजी बोले- बेटा। मैं बाहर नहीं आ सकता। युवक ने इसका कारण पूछा, तो विनोबाजी ने कहा- यह खंबा मुझे पकड़े हुए है, मैं बाहर कैसे आऊं। ऐसी अजीब सी बात सुनकर युवक ने भीतर झांका, तो विनोबाजी स्वयं ही खंबे को पकड़े हुए थे। वह बोला- गुरुजी। खंबे को तो आप खुद ही पकड़े हुए हैं। जब आप इसे छोडेंगे, तभी तो खंबे से अलग होंगे न।युवक की बात सुनकर विनोबाजी ने कहा- यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि शराब छूट सकती है, किंतु तुम ही उसे छोडऩा नहीं चाहते। जब तुम शराब छोड़ दोगे तो शराब भी तुम्हें छोड़ देगी।उस दिन के बाद से उस युवक ने शराब को हाथ भी नहीं लगाया। वास्तव में दृढ़ निश्चय या इच्छाशक्ति, संकल्प से बुरी आदत को भी छोड़ा जा सकता है।

यदि व्यक्ति खुद अपनी बुरी आदतों से मुक्ति पाना चाहे और इसके लिए मन मजबूत कर संकल्प हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत उसे अच्छा बनने से नहीं रोक सकती।

मौत उम्र नहीं देखती... जब आना होता है आ ही जाती है
मनुष्य का पूरा जीवन एक पाठशाला है यहां हर वक्त किसी न किसी पहलु पर हमें कुछ न कुछ सीखने को जरूर मिलता है। जिदंगी का हर क्षण हमें कुछ न कुछ सीख जरूर देता है।

स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे। एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।

यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है? स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है। स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।

सच्चाई और कठिनाई का साथ... 'चोली दामन' का है!
ऐसा अक्सर देखा जाता है कि व्यक्ति जब किसी अच्छे काम की शुरुआत करता है तो लोग उसकी खूब खिंचाई या आलोचना करते हैं। इसीलिये उम्रदराज अक्सर कहते हैं कि अच्छाई का रास्ता बुराई से भी अधिक कठिनाइयों से भरा होता है। यहां तक कहा जाता है कि अच्छाई और सच्चाई क रास्ते पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। ऐसा ही कुछ हुआ उन सन्त के साथ जो समाज सुधार के नेक इरादे से काम करते थे, आइये चलते हैं एक रोचक प्रसंग की ओर...

इतिहास के मध्यकाल की बात है। जब समाज में में तरह-तरह की बुराइयां बढ़ रही थीं। समाज में नैतिकता और इंसानियत का दिनोंदिन पतन होता जा रहा था। राजतंत्र भ्रष्टाचारियों और विलासियों के हाथ की कठपुतली बन गया था। ऐसे में एक संत ने समाज सुधार का कार्य प्रारंभ किया। कुछ लोगों ने साथ दिया तो कुछ विरोधी भी हो गए। यहां तक समाज के कुछ भ्रष्ट लोगों ने उन संत के चरित्र को ही बदनाम करने की अफवाहें फेलाना शुरु कर दिया।

समाज में उन संत की बुराईयां सुनकर उनके शिष्य को बुरा लगा। शिष्य ने जाकर अपने गुरु से कहा कि गुरुदेव! आप तो भगवान के इतने करीब हैं, उनसे कहकर आपके बारे में हो रहे दुष्प्रचार को बंद क्यों नहीं करवा देते? जिन लोगों के लिये आप इतना कुछ कर रहे हैं उन्हें इसकी कद्र ही नहीं मालुम तो ऐसे लोगों के लिये समाज सुधार का काम करना ही बेकार है।

शिष्य की बातों को सुनकर वे संत मुस्कुराते हुए बोले- बेटा! तुम्हारे प्रश्र का जवाब में अवश्य दूंगा लेकिन पहले तुम यह हीरा लेकर बाजार जाओ, और शब्जी बाजार तथा जोहरी बाजार दोनों जगह जाकर इस हीरे की कीमत पूछ कर आओ। कुछ समय बाद शिष्य बाजार से लौटा और बोला- शब्जी बाजार में तो इस हीरे को कोई 1 हाजार से अधिक में खरीदने के लिये तैयार ही नहीं था, जबकि जौहरी बाजार में इस हीरे को कई जोहरी लाखों रुपये देकर हाथों-हाथ खरीदने के लिये तैयार थे।

संत हंसते हुए बोले- बेटा! तुमने जो प्रश्र पूछा था उसका सही जवाब इसी घटना में छुपा हुआ है। बेटा! अच्छे कार्य भी हीरे की तरह अनमोल होते हैं, लेकिन उनकी कीमत जौहरी के जैसा कोई पारखी श्रेष्ठ सज्जन व्यक्ति ही जान पाता है। साधारण इंसान अच्छे कर्मों की अहमियत नहीं जान पाते तथा बुराई के रास्ते पर चलने वाले लोग तो अच्छे कार्य करने वाले इंसान को अपना दुश्मन समझकर उसकी झूठी आलोचना या बुराई ही किया करते हैं।

... संत द्वारा अपने शिष्य को कही यह गहरी बात हमें भी हमेशा याद रखना चाहिये कि जब हम कुछ अच्छाई और सच्चाई का कार्य करने निकलें तो लोगों की निंदा की बिल्कुल भी परवाह नहीं करना चाहिये।

दो मित्र थे... एक ने धन, बल व नाम सब पा लिया, पर दूसरा??
सफलता सिर्फ जी तोड़ मेहनत पर ही निर्भर नहीं करती, बल्कि सफलता के पीछे और भी कई कारण होते हैं। पहला कारण आपके मन की भावना है और दूसरा कारण है-आपके कार्य करने का तरीका। यदि आपका मन सकारात्मक सोचने वाला और पवित्र है तो आपको कत समय में ही अधिक से अधिक सफलता मिलती जाती है।

ऐसा ही कुछ हुआ उन दो मित्रों में से एक के साथ जिसने कम मेहनत करकेभी धन, सम्मान, स्वास्थ्य और प्रसिद्धि सब कुछ प्राप्त कर लिया। जबकि दूसरा मित्र पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी हर क्षेत्र में कमजोर ही बना रहा।

आइये चलते हैं दो मित्रों सी जुड़ी उस घटना की और...

दो मित्र थे। एक तो पूरे दिन मेहनत करके पेट भरता था, दूसरा सिर्फ चार घंटे जमकर मेहनत करता और बाकी समय जरूरतमंदों की मददश् सेवा, योग-ध्यान, स्वाध्याय आदि कार्यों में लगाता। पहला व्यक्ति दिनों दिन कमजोर, उदास और बीमार रहने लगा जबकि सिर्फ 4 घंटे जमकर मेहनत करने वाला व्यक्ति दिनोंदिन बलवान, धनवान और सभी का प्यारा व प्रसिद्ध होता गया।

एक दिन अचानक दोनों मित्रों की मुलाकात हो गई। दोनों ने अपना-अपना हाल बताया। पहले ने दुखी होकर पूछा कि आखिर ऐसा क्यों कि मैं दिन भर मेहनत करने के बावजूद आज हर क्षेत्र में कमजोर और पिछड़ा हुआ हूं जबकि तुम सिर्फ 4 घंटे मेहनत करके भी जीवन के हर क्षेत्र में कामयाब हो गए?

सफल मित्र ने कम समय में खुद के कामयाब होने का राज बताते हुए कहा- देखो भाई! मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं, बताओ जब तुम सारे दिन काम करत रहते हो तो तुम्हारे मन में क्या चलता रहता है? असफल व्यक्ति ने कहा कि काम करते समय दिन भर उसके मन में तो सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की चिंता लगी रहती है। जवाब सुनकर सफल मित्र ने कहा कि यही तुम्हारी कमजोरी और असफलता का कारण है। अगर तुम्हें बलवान और कामयाब इंसान बनना है तो अपने मन को सकारात्मक और कार्य के प्रति एकाग्र बनाओ। जितनी देर काम करो पूरे मन से प्रशन्न होकर और कमाई की चिंता छोड़कर कार्य करो। और हां... थोड़ा समय निकाल कर जरूरतमंदों की मदद और सेवा-सहायता भी अवश्य करो, फिर देखना तुम्हारा भाग्य भी कैसे करवट लेता है।

मित्र के कहे अनुसार जैसे ही दूसरे कमजोर और असफल व्यक्ति ने अपना नजरिया सकारात्मक, प्रशन्न चित्त और सेवाभावी बना लिया तो कुछ ही दिनों में वह भी अपने मित्र की तरह ही बलवान, धनवान, सदा प्रशन्न रहने वाला तथा सभी का प्रिय व समाज में प्रतिष्ठित नागरिक बन गया।

ऐसे जज्बे को देखकर हैरत में पड़ जाएंगे आप भी!!

अंधापन अभिशाप नहीं है। दोनों आंखों से दिखाई न देने के बावजूद जिंदगी बेहद खूबसूरत हो सकती है। कई बार तो दोनों आंखों से दिखाई देने वाले इंसान से भी अधिक अनोखी, अद्भुत एवं हैरतअंगेज कार्य करने में सक्षम बन सकती है। शरीर तो मात्र एक साधन है असली ताकत तो साहस और संकल्पबल में होती है। ये कोई दार्शनिक बातें भर नहीं है। इन बातों में आंखों देखी सच्चाई छुपी हुई है। आइये चलते हैं एक ऐसी सच्ची और वास्तविक घटना की ओर जो यह साबित कर देगी कि अंधापन अभिशाप नहीं है-

माइल्स हिल्टन बारबर की कहानी उन जांबाजों के समान है, जिसे सुनकर कोई भी हैरत में पड़ सकता है। 59 साल की उम्र पार कर चुके माइल्स हिल्टन इंग्लैड के डर्बिशायर के निवासी हैं। हिल्टन ने सन् 2006 के अप्रेल महिने में एक अद्भुत कारनामा कर दिखाया।

हिल्टन ने लंदन से ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर के बीच की 21, 500 कि . मी. की दूरी माइक्रोलाइट एयरक्राफ्ट से बगैर किसी सहायक के अकेले पूरी कर ली। जबकि हिल्टन शत-प्रतिशत अंधेपन के शिकार हैं। हिल्टन ये यह बेहद लंबी दूरी पूरे 55 दिनों में पूरी की, लेकिन एक पूर्ण अंधा व्यक्ति जिसे बगैर सहारे के एक-कदम चलने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता हो उसके द्वारा बगैर किसी सहायक के इतनी लंबी खतरों से भरी हुई हैरतअंगेज आसमानी यात्रा पूरा करना, वाकई काबिले तारीफ है।

माइल्स हिल्टन द्वारा किये गए ऐसे अद्भुत हैरतअंगेज कार्यो की लंबी श्रृंखला है। वे पैराशूट से सहारा और अंटार्कटिका जैसे दुर्गम क्षेत्रों को भी पार कर चुके हैं। हिमालय की ऊंची चोटियों की चढ़ाई करना भी हिल्टन के हैरतअंगेज कार्यों में शामिल है...।

अत: यदि कोई परिस्थितियों और परेशानियों को ही अपनी असफलता के लिये दोष देता हो तो उसे माइल्स हिल्टन जैसे जांबाजों की जिंदगी से अवश्य ही सबक लेना चाहिये।

ऐसी आग बहुत जलाती है... लेकिन पहले खुद को!

लोगों को अक्सर यह कहते सुना होगा कि जब तक मैं बदला नहीं ले लेता मेरे कलेजे को ठंडक नहीं पहुंचेगी। मेरा जितना अपमान और नुकसान हुआ है, जब तक सामने वाले का उतना ही बिगाड़ नहीं कर लूं मुझे चैन से नींद नहीं आएगी। ये ऐसी बातें हैं, जिनसे पता चलता है कि इंसान बदले की आग में खुद ही जल रहा है। कभी कभी बदले की भावना में आदमी इतना अंधा हो जाता है कि उसे ये ध्यान भी नहीं होता कि ऐसी भावना कहीं न कहीं उसे ही नुकसान पहुंचाएगी क्योंकि किसी के लिए प्रतिशोध की भावना कभी अच्छा फल नहीं देती। आइये चलते हैं ऐसी ही कथा की ओर जो बदले की भावना के नतीजों से रूबरू करवाती है......

एक आदमी ने बहुत बड़े भोज का आयोजन किया परोसने के क्रम में जब पापड़ रखने की बारी आई तो आखिरी पंक्ति के एक व्यक्ति के पास पहुंचते पहुंचते पापड़ के टुकड़े हो गए उस व्यक्ति को लगा कि यह सब जानबूझ करउसका अपमान करने के लिए किया गया है । इसी बात पर उसने बदला लेने की ठान ली।

कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति ने भी एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया और उस आदमी को भी बुलाया जिसके यहां वह भोजन करने गया था। पापड़ परोसते समय उसने जानबूझकर पापड़ के टुकड़े कर उस आदमी की थाली में रख दिए लेकिन उस आदमी ने इस बात पर अपनी कोई प्रतिक्रि या नहीं दी। तब उसने उससे पूछा कि मैने तुम्हें टूआ हुआ पापड़ दिया है तुम्हें इस बात का बुरा नहीं लगा तब वह बोला बिल्कुल नहीं वैसे भी पापड़ को तो तोड़ कर ही खाया जाता है आपने उसे पहले से ही तोड़कर मेरा काम आसान कर दिया है। उस व्यक्ति की बात सुनकर उस आदमी को अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ।

गरीब, अमीर और ढ़ोंगी लोगों का ऐसा ही हश्र होता है!

कहते हैं सभी को अपने कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है। कई बार तो इस जन्म के कर्मों का हिसाब यहीं चुक्ता हो जाता है। पिछले कर्मों ने ही आज की परिस्थितियों का निर्माण किया है तथा आज किये जा रहे कर्म ही इंसान का भविष्य गढ़ते हैं। कर्मों के परिणाम से आज तक कोई भी बच नहीं पाया है।

कर्मों के फल या परिणाम किस तरह हमारे सामने आते हैं इस बात को आसानी से जहन में उतारने के लिये आइये चलते हैं एक बेहद प्यारी कहानी की ओर...

एक बार देवमुनि नारदजी पृथ्वी भ्रमण के लिये आए। उन्हें एक बेहद गरीब व्यक्ति मिला जिसे पेट भरने लायक खाना भी नसीब नहीं हो रहा था। दूसरी तरफ बहुत अमीर व्यक्ति मिला जिससे अपनी दौलत संभालते भी नहीं बन रहा था। अमीर होकर भी वह अंशात था, उसे हर समय यही चिंता रहती कि कोई उसका नुकसान न कर दे। दौलत को और ज्यादा बढ़ाने की उधेड़-बुन में ही वह रात-दिन चिंतित रहता था।

नारदजी और आगे बढ़े तो उन्हें कुछ बनावटी व ढ़ोंगी साधुओं की मंडली मिली। उन्होंने नारदजी को पहचानकर घेर लिया और बोले- ''स्वर्ग में अकेले मजे करते हो! हम भी भगवान की पूजा-पाठ करते हैं, हमारे लिये भी स्वर्ग जैसे ठाट-बाट की व्यवस्था करो वरना चिमटे मार-मार कर हालत खराब कर देंगे। नारदजी जैसे-तैसे उनसे अपनी जान छुड़ाकर वहां से भागे और सीधे भगवान के पास पहुंचकर अपना हाल सुनाया। भगवान नारायण हंसे और बोले- '' देखो नारद! मैं हर मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल देता हूं। मेरे मन में आस्तिक और नास्तिक का भी भेद नहीं है। तुम अगली बार पृथ्वी पर जाओ तो उस गरीब आदमी से कहना कि - वह उपनी गरीबी से लड़े तथा खूब मेहनत और पुरुषार्थ करे, मैं निश्चित रूप से उसे सारे दुखों और गरीबी से मुक्त कर दूंगा।

उस अमीर व्यक्ति से कहना कि- इतनी सारी धन-दौलत तुम्हें समाज की भलाई में खर्च करने के लिये मिली है, उसे अच्छे कार्यो में लगाए ऐसा करने पर उसे भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ-साथ मानसिक शांति और परमानंद की प्रसाद भी मिल जाएगी।

और उन झूठे साधुओं की मंडली से कहना कि- त्यागी, धार्मिक और सज्जनों का वेश बनाकर अपने स्वार्थों को पूरा करने की फिराक में रहने वाले आलसियों तुम्हारी हर हाल में दुर्गति होगी। तुम्हें नर्क जैसे निकृष्टतम स्थानों पर अनंतकाल तक रहना पड़ेगा।

मुसीबत कोई भी हो... ऐसी तरकीब आना चाहिये!
एक सफल आदमी की पहचान है कि उसे हर परिस्थिति का सामना करना आना चाहिए। किसी मुसीबत में फंसने पर वहां से बच निकलने की कला हर आदमी को सीखनी चाहिए। और जिसे ये कला आती है वह दुनिया को जीतने का दम रखता है।

एक आदमी अपने वाक चातुर्य के लिए बड़ा जाना जाता था। एक बार वो कोई गलती करते पकड़ा गया और पुलिस के हत्थे चढ़ गया। उसे जज के सामने ले जाया गया। उसकी बहस सुनकर जज को गुस्सा आने लगा जज ने उस आदमी से कहा कि तुम बहुत चतुर मालूम होते हो, हर बात को अपनी बातों में उलझा देते हो।

जज ने उससे कहा कि तुम अब हर बात का जवाब हां या न में देना। वह व्यक्ति बोला जज साहब अगर आपको आपकी हर बात का जवाब हां या न में चाहिए तो आपने जो मुझे कसम दिलाई है कि मुझे यहां सब सच बोलना है उसे वापस ले लें। जज ने आश्चर्य से पूछा कि ऐसी कौनसी बात है जिसका उत्तर तुम मुझे हां या न में नहीं दे सकते। दौनों अपनी बात पर अड़ गए तब वह व्यक्ति जज से बोला कि ठीक है अगर आप मेरी बात का जवाब हां या न में दे पाए तो मैं आपके हर सवाल का जवाब हां या न में दे दूंगा।

जज बोला ठीक है। वह व्यक्ति बोला कि आप ये बताए कि आपने अपनी पत्नी को पीटना बन्द कर दिया। जज दुविधा में फंस गया हां कहने का मतलब था कि वह पहले अपनी पत्नी को मारता था। न कहने का मतलब की अब भी पीटता है।उससे कोई जवाब देते नहीं बना। जज ने उस आदमी को छोड़ दिया। अपने वाक चातुर्य के बल से वह आदमी जेल जाने से बच गया।

जानिए किसका कैसा अंजाम होता है?
कहते हैं सभी को अपने कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है। कई बार तो इस जन्म के कर्मों का हिसाब यहीं चुक्ता हो जाता है। पिछले कर्मों ने ही आज की परिस्थितियों का निर्माण किया है तथा आज किये जा रहे कर्म ही इंसान का भविष्य गढ़ते हैं। कर्मों के परिणाम से आज तक कोई भी बच नहीं पाया है।

कर्मों के फल या परिणाम किस तरह हमारे सामने आते हैं इस बात को आसानी से जहन में उतारने के लिये आइये चलते हैं एक बेहद प्यारी कहानी की ओर...

एक बार देवमुनि नारदजी पृथ्वी भ्रमण के लिये आए। उन्हें एक बेहद गरीब व्यक्ति मिला जिसे पेट भरने लायक खाना भी नसीब नहीं हो रहा था। दूसरी तरफ बहुत अमीर व्यक्ति मिला जिससे अपनी दौलत संभालते भी नहीं बन रहा था। अमीर होकर भी वह अंशात था, उसे हर समय यही चिंता रहती कि कोई उसका नुकसान न कर दे। दौलत को और ज्यादा बढ़ाने की उधेड़-बुन में ही वह रात-दिन चिंतित रहता था।

नारदजी और आगे बढ़े तो उन्हें कुछ बनावटी व ढ़ोंगी साधुओं की मंडली मिली। उन्होंने नारदजी को पहचानकर घेर लिया और बोले- ''स्वर्ग में अकेले मजे करते हो! हम भी भगवान की पूजा-पाठ करते हैं, हमारे लिये भी स्वर्ग जैसे ठाट-बाट की व्यवस्था करो वरना चिमटे मार-मार कर हालत खराब कर देंगे। नारदजी जैसे-तैसे उनसे अपनी जान छुड़ाकर वहां से भागे और सीधे भगवान के पास पहुंचकर अपना हाल सुनाया। भगवान नारायण हंसे और बोले- '' देखो नारद! मैं हर मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल देता हूं। मेरे मन में आस्तिक और नास्तिक का भी भेद नहीं है। तुम अगली बार पृथ्वी पर जाओ तो उस गरीब आदमी से कहना कि - वह उपनी गरीबी से लड़े तथा खूब मेहनत और पुरुषार्थ करे, मैं निश्चित रूप से उसे सारे दुखों और गरीबी से मुक्त कर दूंगा।

उस अमीर व्यक्ति से कहना कि- इतनी सारी धन-दौलत तुम्हें समाज की भलाई में खर्च करने के लिये मिली है, उसे अच्छे कार्यो में लगाए ऐसा करने पर उसे भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ-साथ मानसिक शांति और परमानंद की प्रसाद भी मिल जाएगी।

...और उन झूठे साधुओं की मंडली से कहना कि- त्यागी, धार्मिक और सज्जनों का वेश बनाकर अपने स्वार्थों को पूरा करने की फिराक में रहने वाले आलसियों तुम्हारी हर हाल में दुर्गति होगी। तुम्हें नर्क जैसे निकृष्टतम स्थानों पर अनंतकाल तक रहना पड़ेगा।

खुशी और सुकून का असली रहस्य- यह है

जो गृहस्थ में हैं उन्हें लगता है कि इस दुनियादारी में रहते हुए सच्ची खुशी और मन का सुकून नहीं मिल सकता, लेकिन ऐसी सोच में सच्चाई नहीं है। क्योंकि खुशी और शांति हालातों पर नहीं बल्कि खुद व्यक्ति के सही नजरिये पर निर्भर होती है।

इस बात को समझने के लिये आइए चलते हैं एक सुन्दर कथा की ओर....

प्रसिद्ध राजा अश्वघोष के मन में वैराग्य हो गया यानी संसार और दुनियादारी से उसे अरुचि हो गई। घर-परिवार को छोड़कर वे यहां-वहां ईश्वर और सच्ची शांति की खोज में भटकने लगे। कई दिनों के भूखे प्यासे अश्वघोष एक दिन भटकते हुए एक किसान के खेत पर पहुंचे। अश्वघोष ने देखा कि वह किसान बड़ा ही प्रशन्न, स्वस्थ व चेहरे से बड़ा ही संतुष्ट लग रहा था। अश्वघोष ने किसान से पूछा- ''मित्र तुम्हारी इस प्रशन्नता और संतुष्टि का राज क्या है? देखने में तो तुम थोड़े गरीब या सामान्य ही लगते हो। ''किसान ने जवाब दिया कि-'' सभी जगह ईश्वर के दर्शन और परिश्रम में ही परमात्मा का अनुभव करना ही मेरी इस प्रशन्नता और संतुष्टि का कारण है।''

अश्वघोष ने कहा-''मित्र उस ईश्वर के दर्शन और अनुभव मुझे भी करा दोगे तो मुझपर बड़ी कृपा होगी।'' अश्वघोष की इच्छा जानकर किसान ने कहा- ''ठीक है... पहले आप कुछ खा-पी लें, क्योंकि तुम कई दिनों के भूखे लग रहे हो।''

किसान ने घर से आई हुई रोटियां दो भागों में बांटीं। दोनों ने नमक मिर्ची की चटनी से रोटियां खाईं। फिर किसान ने उन्हें खेत में हल चलाने के लिये कहा। थोड़ी देर में ही श्रम से थके हुए और कई दिनों बाद मिले भोजन की तृप्ति के कारण राजा अश्वघोष को नींद आने लगी। किसान ने आम के पेड़ के नीचे छाया में उन्हें सुला दिया। जब राजा अश्वघोष सो कर उठे, तो उस दिन जो शांति और हलकेपन का अहसास हुआ वह महल की तमाम सुख-सुविधाओं में भी आज तक नहीं हुआ था।

....राजा को किसान से पूछे गए अपने प्रश्र का जवाब खुद ही मिल गया। जिसकी तलाश में राजा दर-दर भटक रहा था वह शांति का रहस्य राजा को मिल गया कि ईश्वर पर अटूट आस्था और परिश्रम ही सारी समस्याओं का हल है।

दुनिया जीतने के लिये चाहिये ऐसा जज्बा!!
कहते हैं कि धन-दौलत पाने पर अक्सर व्यक्ति का दिमाग ठिकाने पर नहीं रहता। इसी दुनिया में खुद हमने ही देखा है कि कितने ही लोग हैं जो सुख-समृद्धि पाते ही गलत रास्ते पर या अय्याशी, आलस्य और दिखावे के रास्ते पर चल पड़ते हैं, जबकि पद, पैसा और प्रतिष्ठा पाकर भी जिनके कदम नहीं लडख़ड़ाते वही लंबे समय तक कामयाबी के शिखर पर टिक पाते हैं।

पद-प्रतिष्ठा पाने पर भी व्यक्ति को कैसे धैर्य और संयम की जरूरत होती है, यह जानने के लिये आइये चलते हैं एक सुंदर कथा की ओर....

यह एक ऐतिहासिक और वास्तविक घटना है- नादिरशाह करनाल (हरियाणा) के मैदान में मुहम्मदशाह की सेना को पराजित करके दिल्दी पहुंचा। मुहम्मदशाह को हराने के बावजूद नादिरशाह ने शिष्टाचाार के नाते उसे अपने बास ही बैठाया। नादिरशाह को प्यास लगी तो उसने पानी मांगा। पुराने शाही ठाट-बाट की परंपरा के चलते पानी मांगने पर तुरंत वहां नगाड़ा बजने लगा जैसे वहां कोई बड़ा उत्सव मन रहा हो। दस-बारह सेवक पूरे राजसी अदब के साथ दौड़कर आए। किसी के पास पानी से भरा सोने का पात्र जो हीरे-मातियों से सजा था, किसी के पास रूमाल, किसी के पास केवड़ा....। नादिरशाह को यह सब नाटक और अनावश्यक दिखावा- आडम्बर देखकर बड़ा बेतुका लगा। चिढ़कर नादिरशाह ने अपने पर्सनल भिस्ती को आवाज लगाई। भिस्ती तत्काल दौड़कर आया तो नादिरशाह ने अपने सिर का लोहे का टोप आगे कर दिया और उसमे पानी लेकर अपनी प्यास बुझाकर असली यौद्धा सैनिक जैसा व्यवहार किया। नादिरशाह के इस व्यवहार को देखकर सारे दरबारी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। क्योंकि अभी तक उन्होंने शाही ठाट-बाट का बढ़-चढ़ कर दिखावा ही होते हुए देखा था।

वीर नादिरशाह दरबारियों के मन की बात समझ गया। वह बड़े ही गंभीर स्वर में मुहम्मदशाह और बाकी दरबारियों की और मुखातिब होकर बोला- '' यदि हम भी तुम्हारी तरह दिखावे और अय्यासी की जिंदगी जीने का शौक रखते तो विजेता बनकर ईरान से भारत तक नहीं पहुंच पाते। तुम पर हमारी जीत का अहम् कारण दिखावे से दूरी और सच्चे सैनिक का जीवन जीना ही है''

नादिरशाह की बात सुनकर मुहम्मदशाह और उसके अय्याश दरबारियों के सर शर्म जिल्लत से नीचे झुक गए।

.....इस कथा का सबसे कीमती सबक यही है कि विजेता बनने और फिर बने रहने के लिये व्यक्ति में संयम, सादगी और लगातार कठोर परिश्रम की खूबियों का होना बहुत अनिवार्य है।

क्या भाग्य में जो लिखा है, उतना ही मिलेगा?
किसी ने सत्य ही कहा है कि किस्मत और कुछ नहीं बल्कि कामचोर लोगों का पसंदीदा बहाना है। कुछ लोग होते हैं जो पूरी तरह से भाग्य पर ही निर्भर रहते हैं। न तो वह कभी अपने काम में सुधार लाते हैं और न ही कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं। उन्हें हमेशा यही लगता है कि जब जो चीज किस्मत में होगी मिल जाएगी। और यदि किस्मत में नहीं होगी तो नहीं मिलेगी। उनकी यही सोच उन्हें तरक्की नहीं करने देती और वे हर बात के लिए अपनी किस्मत को दोष देते हैं।

एक गांव में दो दोस्त रहते थे। एक का नाम मोहन था और दूसरे का सोहन। मोहन मेहनती था। वह हमेशा अपने खेतों में काम करता। खाली समय में भी वह कुछ न कुछ करता ही रहता था। जबकि सोहन आलसी था। वह भाग्य पर अधिक भरोसा करता था। उसने खेतों में काम करने के लिए नौकर रखे थें। वह सोचता था जितना किस्मत में लिखा है उतना तो मिल ही जाएगा। वह कभी-कभी ही खेतों में जाता था। पूरा दिन घर में रहता या फिर इधर-उधर घुमते रहता।वह मोहन से भी यही कहता था कि खेतों में काम करने के लिए नौकर रख ले और खुद आराम करो। भाग्य में जो लिखा है उतना ही मिलेगा। लेकिन मोहन हमेशा यही कहता कि कर्म भाग्य से भी ऊपर है। काम करेंगे तो उसका फल अवश्य ही मिलेगा।

सोहन कई-कई दिनों तक खेत पर नहीं जाता तो नौकर भी खेतों का ध्यान ठीक से नहीं रखते और अपनी मनमर्जी से काम करते। न तो ठीक से बुआई करते और न ही सिंचाई। जबकि मोहन दिन-रात खेतों में काम करता। थोड़े दिनों बाद जब फसल कटने का समय आया तब सोहन खेत पर गया। उसने वहां देखा कि समय पर सिंचाई न होने के कारण फसल मुरझा गई है। उसने अपन नौकरों को बहुत डांटा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वहीं दूसरी ओर मोहन के खेत में शानदार फसल लहलहा रही थी।
यह देखकर सोहन को मोहन की बात याद आने लगी। वह मोहन के पास गया और उससे माफी मांगी और वादा किया कि वह आगे से भाग्य पर निर्भर नहीं रहेगा। क्योंकि भाग्य भी उन्हीं लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं।

तरक्की... ऐसा करने से ही मिल सकती है
कई बार ऐसा होता है कि हम मन लगाकर ईमानदारी से अपना काम करते हैं इसके बाद भी हमारी तरक्की नहीं होती। जबकि जो व्यक्ति कई मामलों में हमसे कमतर होता है, उसकी तरक्की जल्दी हो जाती है। ऐसी स्थिति में हम खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं और अपने मालिक के प्रति घ्रणा से भर जाते हैं।

आइये चलते हैं एक सुन्दर सी कथा की ओर, जो काम और तरक्की के बीच के संबंधों और बारीक कारणों से पर्दा उठाती है...

किसी गांव में हरिया नाम का एक लकड़हारा रहता था। वह अपने मालिक के लिए रोज जंगल से लकडिय़ां काटकर लाता था। यह काम करते हुए उसे पांच साल हो चुके थे लेकिन मालिक ने न तो कभी उसकी तारीफ की और न ही वेतन बढ़ाया। थोड़े दिनों बाद उसके मालिक ने जंगल से लकडिय़ां काटकर लाने के लिए बुधिया नाम के एक और लकड़हारे को भी नौकरी दे दी। बुधिया अपने काम में बड़ा माहिर था। वह हरिया से ज्यादा लकडिय़ां काटकर लाता था। एक साल के अंदर ही मालिक ने उसका वेतन बढ़ा दिया। यह देखकर हरिया बहुत दु:खी हुआ और मालिक से इसका कारण पूछा।

मालिक ने कहा कि पांच साल पहले तुम जितने पेड़ काटते थे आज भी उतने ही काटते हो। तुम्हारे काम में कोई फर्क नहीं आया है जबकि बुधिया तुमसे ज्यादा पेड़ काटकर लाता है। यदि तुम भी कल से ज्यादा पेड़ काटकर लाओगे तो तुम्हारा वेतन भी बढ़ जाएगा। हरिया ने सोचा कि बुधिया भी उतनी ही देर काम करता थे जितनी देर मैं। तो भी वह ज्यादा पेड़ कैसे काट लेता है। यह सोचकर वह बुधिया के पास गया और उससे इसका कारण पूछा। बुधिया ने बताया कि वह कल काटने वाले पेड़ को एक दिन पहले ही चुन लेता है ताकि दूसरे दिन इस काम में वक्त खराब न हो। इसके अलावा रोज कुल्हाड़ी में धार भी करता है इससे पेड़ जल्दी कट जाते हैं और कम समय में ज्यादा काम हो जाता है।

जानिए कैसे थे पांच सबसे अनमोल रत्न!
हीरे, मोती, नग, माणिक....जाने कितने ही प्रकार के बेशकीमती रत्न इस धरती पर पाए जाते हैं। कोहेनूर हीरे से लेकर, सूर्य और चंद्र मणियों तक जाने कितने ही बहुमूल्य रत्नों के नाम लिये जाते हैं। लेकिन कुछ रत्न ऐसे होते हैं जिनको दुनिया के सबसे कीमती यानी अनमोल रत्न कहा जा सकता है।

क्या आप जानते हैं कि दुनिया के सबसे ज्यादा कीमती रत्न कौन से हैं? आइये चलते हैं एक बड़ी प्यारी कथा की ओर जो रत्नों की कीमत की परिभाषा ही बदल देगी....

बहुत पुरानी मगर वास्तविक घटना है, महर्षि कपिल रोज गंगा नदी में नहाने के लिये जाते थे। जिस रास्ते से वे जाते उसमें एक बूढ़ी महिला का घर आता था। वह बूढ़ी विधवा ब्राह्मणी या तो चरखा कातती मिलती या ईश्वर के ध्यान में डूबी हुई। उस वृद्ध विधवा को देखकर महर्षि कपिल को एक दिन उस पर दया आ गई।

वे उसके पास पहुंच कर बोले- '' बहिन! मैं इस आश्रम का कुलपति हूं। मेरे कई शिष्य राजा और उसके परिवार के हैं। अगर तुम कहो तो में राजा से कहकर तुम्हारी आर्थिक मदद करवा दूं। तुम्हारी यह कठोर गरीबी मुझसे देखी नहीं जाती।'' विधवा ब्राह्मणी ने महर्षि का बड़ा आभार माना और बोली- '' देव! आपका हार्दिक धन्यवाद , पर आपने मुझे पहचानने में भूल की है। क्योंकि न तो मैं गरीब-दरिद्र हूं और न ही बेसहारा हूं। मेरे पास 5 ऐसे रत्न हैं जिनके बल पर मैं चाहूं तो राजाओं से भी बढ़कर वैभव-विलास खड़ा कर सकती हूं।'' कपिल मुनि ने बड़े ही आश्चर्य से पूछा- '' भद्रे! कहां हैं वे पांच रत्न, क्या मैं उनको देख सकता हूं?''

ब्राह्मणी ने कपिल मुनि को बड़े आदर-सम्मान के साथ आसन पर बैठाया। ....इतनी ही देर में पांच सुन्दर, स्वस्थ, विनम्र बच्चे घर में आए। पहले माँ को प्रणाम किया एवं कपिल मुनि को पहचान कर साष्टांग प्रणाम किया। बेहद साधारण कपड़ों में भी वे सद्गुणों के तेज के कारण राजकुमारों से भी बढ़कर लग रहे थे। गुरुकुल से लोटे उन पांचों बालकों के गुण पारखी कपिल ने बगैर बताए ही जान लिये।

महर्षि ने ब्राह्मणी को प्रणाम करते हुए कहा- ''भद्रे! तुमने सच कहा था तुम्हारे पास बेश कीमती अनमोल रत्न हैं, जिस घर में ऐसे ऐसे गुणवान और संस्कारी बच्चे होंगे वहां दरिद्रता और असहायता हो ही कैसे सकते हैं। तुम्हारे योग्य बच्चे चाहें तो कुछ ही समय में धन-समृद्धि और वैभव के पहाड़ खड़े कर सकते हैं।''

पैनी नजर और एकनिष्ठा ने उसे बनाया सफल

बड़े खुशनसीब होते हैं वे जिनका सपना पूरा हो जाता है। वरना तो ज्यादातर लोगों को यही कह कर अपने मन को समझाना होता है कि- किसी को मुकम्मिल जंहा नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आंसमा नहीं मिलता। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। मंजिल के मिलने के पीछे लक का हाथ तो होता है, पर एक सीमा तक ही, वरना चाह और कोशिश अगर सच्ची हो तो कायनात भी साथ देती है।

अगर आपको जीवन में सफल बनना है तो अपने लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है। आपकी पूरी नजर आपके लक्ष्य पर होनी चाहिए। तभी आपकी सफलता निश्चित हाती है। आइये चलते हैं एक वाकये की ओर...

एक मोबाइल कम्पनी में इन्टरव्यू के लिए के लिए कुछ लोग बैठै थे सभी एक दूसरे के साथ चर्चाओं में मशगूल थे तभी माइक पर एक खट खट की आवाज आई। किसी ने उस आवाज पर ध्यान नहीं दिया और अपनी बातों में उसी तरह मगन रहे। उसी जगह भीड़ से अलग एक युवक भी बैठा था। आवाज को सुनकर वह उठा और अन्दर केबिन में चला गया। थोड़ी देर बाद वह युवक मुस्कुराता हुआ बाहर निकला सभी उसे देखकर हैरान हुए तब उसने सबको अपना नियुक्ति पत्र दिखाया । यह देख सभी को गुस्सा आया और एक आदमी उस युवक से बोला कि हम सब तुमसे पहले यहां पर आए हैं तो तुम्हें अन्दर कैसे बुला लिया। युवक बोला कि आप सब नाराज न हों आप सभी के लिए संकेत आया था पर आप सभी अपनी बातें में मशगूल थे। उन लोगों को जिस जगह पर किसी की आवश्यकता थी वे सारे गुण मेरे अन्दर मौजूद मिले इस लिए उन्होंने मुझे रख लिया।

कहानी बताती है कि सफलता के लिए आपका लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है तभी आपको सफलता प्राप्त हो सकती है।

है न काबिले तारीफ जज्बा!
कहते हैं कि चाह अगर सच्ची हो तो मंजिल तक पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता। जरूरत है उस तीव्र प्यास की जो सीधे आत्मा को परमात्मा से जोड़ देती है। ऐसे एक नहीं बल्कि सैकड़ों उदाहदण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य जब कुछ पाने के लिये अपने जीवन की बाजी लगाने को तैयार हो जाता है तो अपने मकसद में कामयाबी अवश्य ही मिलती है। इस बात की हकीकत और गहराई को समझने के लिये आइये चलते हैं एक सच्चे घटना प्रसंग की ओर...

एक गांव में एक फकीर रहता था। गांव के बच्चों को सत्य, प्रेम और दूसरों की मदद करने की शिक्षा देना ही उसका प्रतिदिन का पसंदीदा कार्य था। खाली वक्त में वह किसी एकांत स्थान पर जाकर ईश्वर का ध्यान करता और जिंदगी में आए अनेक दुखों को भुलाकर भगवान को हमेशा धन्यवाद ही देता रहता। वह अपना पेट भरने के लिये गांव में घर-घर जाकर भिक्षा

मांगता और पेट भरने के लिये पर्याप्त होने पर वापस लौट आता।

रोज की तरह ही एक दिन वह गांव में भिक्षा मांग रहा था। एक घर से दूसरे घर जाते हुए वह बिना देखे ही बस यही पुकारता कि- भगवान तेरी जय हो। एक घर से दूसरे की ओर जाने में वह भूल ही गया कि वह जहां खड़े होकर भिक्षा के लिये पुकार रहा है वह किसी का घर नहीं बल्कि गांव की एक मात्र बहुत पुरानी मस्जिद है। उसकी आदत थी कि वह हमेशा अपना सिर झुकाकर ही रखता था इसलिये उसे पता ही नहीं चला कि वह मस्जिद के सामने खड़ा होकर भीख मांग रहा है। उस रास्ते से गुजरते हुए व्यक्ति ने उसे देखा तो फकीर के पास आकर बोला- बाबा क्या आपको दिखाई नहीं देता कि यह किसी का घर नहीं बल्कि मस्जिद है यहां तुम्हें कौन भिक्षा देगा। जाओ- जाओ किसी के घर जाकर मांगों जो अवश्य कुछ खाने को मिल जाएगा।

उस राहगीर की बात सुनकर उस फकीर के दिमाग में अचानक बिजली सी कोंध गई। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। फकीर सोचने लगा कि यह मस्जिद तो खुद ईश्वर का ही घर है, क्या यहां आकर भी मेरी झोली खाली रह जाएगी। जब एक सामान्य सा मनुष्य इतनी दया दिखाता है कि कुछ न कुछ तो दे ही देता है तो क्या इस संसार के मालिक को मुझ पर दया नहीं आएगी। कहते हैं कि यही सोचता हुआ वह फकीर मस्जिद के सामने ही बैठ गया। उसकी आंखों से लगातार आंसू बहते जा रहे थे, सुबह से रात हो गई लेकिन वह फकीर अपनी जगह से हिला तक नहीं। यहां तक कि पूरे तीन दिन हो गए लोंगों ने उसे खूब समझाने की कोशिश कर ली लेकिन वह बगैर जवाब दिये बस मस्जिद के भीतर ही देखता रहता। उसकी आंखों में आंसू थे लेकिन चेहरे पर हंसी थी उसे लगा जैसे आज उसकी असली आंखें खुल गईं। और कहते हैं कि चोथें दिन सुबह-सुबह वहां एक चमत्कार घटित हो गया। बिजली सी चमक गई एक तेज रोशनी हुई और उस फकीर को जाने ऐसा क्या मिल गया कि वह तो बस नाचने लगा, झूमने लगा। लोग कहते हैं कि उस दिन के बाद से उस फकीर में कई चमत्कारी शक्तियां आ गईं थी। उसके छूने मात्र से लोगों के दु:ख, दर्द और बीमारियां मिट जाती थीं।

यह भी सबसे बड़ा 'पाप' है!
पाप-पु ण्य के कई बातें कही जाती है। कुछ लोग जिसे पाप मानते हैं, दूसरे उसे ही उचित या सही ठहरा देते हैं। जो बात किसी के लिये उसका कर्तव्य और धर्म है वह सिकी के लिये घोर पाप या नीच कृत्य हो सकता है।

सरल और थोड़े से शब्दों में यदि पाप की परिभाषा देना हो तो कहा जा सकता है कि- अपने स्वार्थ यानी मतलब के लिये किसी को धोखा देना, उसका हक हड़पना, गुमराह करना और उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाना ही दुनिया का सबसे बड़ा पाप कर्म है।

आइये चलते हैं कि एक बेहद सुन्दर कथा की ओर जो पाप के एक नए ही रूप से आपका परिचय कराती है....

स्वामी विवेकानंद अपने अमेरिका प्रवास से विदाई ले रहे थे। उनके भाषणों ने पूरे अमेरिका में धूम मचा रखी थी। सभागार सुनने वालों से खचाखच भरे होते थे। उनके व्याख्यानों में बम छूटते थे। लोगों के अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक धारणाओं को स्वामी जी अपने अचूक तर्कों और वैज्ञानिक विश्लेषणों से तहस-नहस कर देते थे। आज इस बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि ईसाइयों के देश में यह अकेला हिन्दू संन्यासी कितने साहस और पौरुष के साथ भारतीय अध्यात्म की पताका फहरा रहा था।

ईसाई श्रोताओं के बीच हमारा यह योद्धा संन्यासी जोर से उद्घोष करता है-'' पश्चाताप मत करो( कन्फेशन), पश्चाताप मत करो.....यदि आवश्यक हो तो उसे थूक दो, परंतु आगे बढ़ो! बढ़ते चलो !! पश्चाताप के द्वारा अपने को बंधनों में डालो। अपने पवित्र, चिरमुक्त तथा परमात्मा के साकार रूप आत्मा को जानकर पाप के बोझ जैसा कुछ जो भी, उसे फेंक डालो। किसी को भी पापी कहने वाला खुद ईश्वर की निंदा करता है। तुम सभी सम्मोहित हो, इससे बाहर निकलो। याद रखो कि तुम सभी ईश्वर की दिव्य संतानें हो, अपनी महानता और दिव्यता को सदैव याद रखो। और उस दिव्यता के अनुरूप ही तुम्हारा जीवन होना चाहिये।''

स्वामी विवेकानंद के इन महान तेजस्वी विचारों का ही कमाल था कि उनके आध्यात्मिक विचार तेज गति से सारे संसार में फेल गए।

डंडे मारे बैल को...निशान पड़े संत की पीठ पर!
धर्म में एक बड़ी अच्छी बात कही गई है- 'आत्मवत सर्वभूतेषू' यानी कि सभी में चाहे वह पशु-पक्षी हो या मनुष्य हो उनमें अपना ही रूप देखना। अध्यात्म भी यही कहता है कि ऊपर से देखने पर पैड की डालियां भले ही अलग-अलग नज़र आती हों, लेकिन मूल रुप से यानी कि जड़ों से वे एक-दूसरे के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी होती है। ठीक वैसे ही सृष्टि से सभी प्राणी आपस अभिन्न रूप में जुड़े होते हैं।

सभी का सभी के साथ कितना गहरा और अटूट रिश्ता है इस बात को एक उदाहरण के द्वारा और भी आसानी समझने के लिये आइये चलते हैं एक सुंदर कथा की ओर.....

प्रसिद्ध संत केवलराम एक बार बैलगाड़ी में बैठ कर किसी गांव कथा करने क लिये जा रहे थे। वे जिस गांव के लिये बैलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे उसकी दूरी काफी ज्यादा थी। पूरे 12 घंटों की यात्रा थी इसीलिये केवलराम जी के मन में समय का कुछ सदुपयोग करने का विचार आया। संत ने यात्रा के साथ-साथ गाड़ीवन यानी बैलगाड़ी चलाने वाले को 'श्रीकृष्ण चरित कथामृत' की कथा सुनाने लगे।

कथा इतनी रसभरी थी कि गाड़ीवान पूरी तरह से कथा में खो गया। अचानाक उसका ध्यान गया कि बैल बहुत धीमी गति से चलने लगे हैं। बैलों की धमी चाल को देखकर गाड़ीवान को गुस्सा आ गया और अपने स्वभाव के अनुसार ही उसने एक बैल की पीठ पर जोर-जोर से 2-4 डन्डे जड़ दिये। लेकिन इतने में ही एक अजीब घटना हुई। जैसे ही गाड़ीवान ने बैल की पीठ पर सोटे मारे गाड़ी मे बैठे हुए संत केवलरामजी अपनी जगह से अचानक गिर पड़े और कराहने लगे। अचानक हुई संत की इस हालत को देखकर गाड़ीवान आश्चर्य और घबराहट से भर गया। वह दौड़कर संत के पास पहुंचा तो यह देख कर उसकी आंखें फटी की फटी रह गई कि बैल को मारे गए डन्डों की चोट के निशान उन संत की पीठ पर भी बन गए हैं। गाड़ीवान का ध्यान गया कि संत केवलराम एकटक उस बैल को ही देखे जा रहे थे।

....सभी को अपना ही रूप मानने की ज्ञान भरी बातें तो गाड़ीवान ने कई बार सुन रखी थी लेकिन उसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखकर संत की अद्भुत करुणा और अपनेपन के आगे उसने बारम्बार प्रणाम किया और अपने कर्म के लिये बेहद दुखी होकर क्षमायाचना भी की।

चार्ल्र्स डार्विन...मौत खड़ी थी सामने पर डर का नहीं था नामोनिशान!
दुनिया में शायद ही कोई ऐसा धर्म होगा जिसमें स्वर्ग-नर्क की मान्यता न हो। सभी ने अपने आदर्शों, मान्यताओं और आस्था-विश्वास के अनुसार ही स्वर्ग-नर्क या जन्नत-जहन्नुम की कल्पना कर रखी है। इसे धर्म की कमजोरी माने या खूबी, लेकिन यह बात सच है कि स्वर्ग-नर्क की इस मान्यता का कुछ स्वार्थी लोगों ने धर्म की आड़ में बहुत दुरुपयोग किया है।

स्वर्ग का लालच दिखाकर किसी का तन-मन और धन हड़पना हो या नर्क का डर बताकर भोले व्यक्तियों या अंध श्रद्धालुओं के मन में भय पैदा करना और दान-दक्षिणा के बहाने उसे लूटना.... दोनों ही तरीके पूरी तरह से अधार्मिक और अनैतिक ही कहे जाएंगे।

आइये चलते हैं एक वास्तविक रोचक घटना की ओर जो स्वर्ग-नर्क की असलियत से पर्दा उठाती है....

दुनियाभर में चार्ल्र्स डार्विक को विकासवाद के जनक के रूप में जाना जाता है। जब उनकी जिंदगी का अंतिम समय आया यानी जब मरणासन्न हुए, तो घर वालों ने एक पादरी को बुलाया और कहा-'' फादर! इनकी आत्मा को शांति मिल सके इसके लिये जो भी धार्मिक संस्कार होता है वह कर दीजिये।''

पादरी डार्विन के सिद्धांतों और मान्यताओं से परिचित थे, इसलिये बोले-'' यह महोदय जीवन भर नास्तिक रहे। नास्तिक को स्वर्ग नहीं मिल सकता। पहले ये आस्तिक होने की आस्था प्रकट करें तथा वचन दें तभी कुछ किया जा सकता है''

पादरी की बातों से बेहद दुखी होकर डार्विन की छोटी बेटी ने कहा - '' मेरे पिता जीवन भर एक संत की तरह बेहद सादगी और सात्विक तरीके से रहे हैं, क्या उनको भी स्वर्ग और मन की शांति नहीं मिलेगी?

अपनी प्यारी बेटी को दुखी देखकर मरने की हालत में पड़े हुए होकर भी श्रीमान् डार्विन सहाब जैसे-तैसे बोले- '' पादरियों के ऐसे मनगढंत झूठे स्वर्ग से तो नर्क में रहना ही ज्यादा अच्छा है। बेटी तुम ऐसे व्यक्तियों की बातों की चिंता मत करो जो अंधविश्वास और काल्पनिक श्रृद्धा को जरिया बनाकर अपनी दुकान चलाना चाहते हैं। जिन्हें खुद ही भगवान का अता-पता मालूम नहीं वे दूसरों को आत्म शांति और स्वर्ग भला कैसे दिलवा सकते हैं।''

इस घटना के बाद कुछ दिनों तक श्रीमान डार्विन और जिंदा रहे लेकिन अंतिम सांस तक वे मौत के डर से कोसों दूर रहे और स्वर्ग पाने के लिये कर्मकांड करने को धन और समय की बर्बादी ही बताते रहे। ऐसे स्वर्ग से तो नर्क अच्छा।

50 साल से वो इस बुरी आदत को छोडऩे की कोशिश कर रहा था
आदत मन से जुड़ी एक विशेष स्थिति को कहा जाता है। और जग जाहिर है कि मन सबसे बड़ा रहस्य का पिटारा है। आदत के बारे में कहा जाता है कि उसे पकड़ा तो जा सकता है लेकिन छोडऩा उतना ही कठिन होता है। आदत से परेशान होकर व्यक्ति संकल्प लेता है कसमें खाता है लेकिन जिस आवेश में आकर उसने कसम खाई थी, उसके शांत होते ही महाचालाक मन फिर से आदत को दोहराने की तरकीब निकाल ही लेता है। हजारों-लाखों में कोई एक होगा जो दृढ़ संकल्प करता भी है और हर हाल में उसे पूरा भी करता है। आदत कितनी ताकतवर होती है यह जानने के लिये आइये चलते हैं एक बेहद छोटी व बहुत सुन्दर कथा की ओर...

ओशो के नाम से विश्वभर में विख्यात महान दार्शनिक, विचारक और संत आचार्य रजनीश के पास एक दुखी और परेशान व्यक्ति आया। उसे देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह लगभग 70-75 साल की आयु पार कर चुका था। मोका मिलते ही वह बड़ा दुखी होकर बोला- ''आचार्य जी! मेने सुना है कि आपने कई लोगों की जिंदगियां बदल दी हैं, मुझ पर भी दया कीजिये। वैसे तो मेरी लगभग पूरी उम्र ही खत्म होने को आई है, लेकिन मैं नहीं चाहता कि इस बोझ को लेकर में मरूं। असल में मेरी समस्या यह है कि मैं भांग-गांजे की लत का शिकार हूं। मैंने इसे छोडऩे की हर संभव कोशिश कर ली लेकिन यह आदत मुझसे छूटने को तैयार ही नहीं है। मुझे पूरे 50 साल हो गए इसे छोडऩे की कोशिश करते-करते, अब तो मैं हार चुका हूं। मरने से पहले मेरी यही इच्छा है कि कम से कम मरने के पहिले तो मैं बेदाग हो जाऊं, किसी तरह इस आदत से छूट जाऊं।''

आचार्य रजनीश उस वृद्ध व्यक्ति की पूरी बात सुनकर मुस्कुराए और बड़े स्नेह व प्रेम से बोले-'' मित्र अगर तुम्हें लगता है कि आदत ने तुम्हें पकड़ रखा है, तुमने आदत को नहीं पकड़ रखा तो फिर कभी कुछ नहीं हो सकता। 50 ही क्या 50 जन्म कोशिश करने के बाद भी तुम किसी आदत से मुक्त नहीं हो पाओगे। क्योंकि तुम सिर्फ उसे छोड़ सकते हो जिसको तुमने पकड़ा हो। अगर तुम्हे लगता है कि आदत ने ही तुम्हे पकड़ रखा तब तो यह आदत की मर्जी पर निर्भर हुआ कि वह चाहे तो तुम्हे छोड़े या न चाहे तो न भी छोड़े।

एक बात और सुन लो कि अगर तुम वाकई मरने से पहले नशे की आदत को छोडऩा चाहते हो तो सबसे पहले तो तुम इस कोशिश को छोड़ो। जो कोशिश तुम पिछले 50 सालों से कर रहे हो उसे छोड़ ही दो तभी कुछ हो सकता है। क्योंकि तुम्हारे मन को नशे से ज्यादा मज़ा तो इस छोडऩे की कोशिश में आने लगा है।

छोडऩा मुश्किल है, तुम छोडऩे की फिक्र छोड़ ही दो। हां पकडऩे पर ध्यान दो तो अवश्य कुछ भला हो सकता है। जो भी कुछ अच्छा हो उसे पकड़ते जाओ। अच्छा पकड़ते-पकड़ते तुम्हे याद ही नहीं रहेगा कि अच्छाई की भीड़ में एक बुराई जाने कबकी पीछे छूट चुकी है।''

आचार्य रजनीश की बातों में उस वृद्ध व्यक्ति का बड़ा कीमती सूत्र हाथ लग गया, वह अपनी आदत छोड पाया या नहीं यह तो वही जाने लेकिन इतना अवश्य है कि वह उस छोडऩे-पकडऩे की उधेड़बुन से उसी वक्त मुक्त हो गया हल्का हो गया। शायद कोई ग्रंथि थी जो आज मिट गई। वह बड़ा प्रशन्न होकर लोट गया।

प्रेमी या दोस्त...सच्चा है कि कच्चा...ऐसे पहचाने!
हमारे मन का स्वभाव ऐसा है कि वह मीठा बोलने वालों को ही ज्यादा पंसंद करता है। अच्छे-बुरे से मन को कुछ लेना-देना नहीं। असली दोस्त की पहचान में भी इसी कारण से इंसान से भूल हो जाती है। व्यक्ति मीठा बोलने वाले मनोरंजक व्यक्ति को ही अपना पक्का दोस्त समझ बैठते हैं, जबकि असलियत में ऐसा कुछ होता नहीं।

इस विषय में कबीरदास जी ने बहुत सही बात कही है-
''निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटि छवाय।
बिन पानी बिन साबुने, निर्मल करे सुभाय।।''

इसीलिये कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ तो करेगा ही लेकिन बगैर किसी लाग-लपेट के आपकी बुराईयों को उजागर करेगा और उनको दूर करने में आपकी मदद भी करता है।

ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती का द्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था।

अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए।

अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा। जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नियती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती।

तब तक पूजा-पाठ व प्रार्थना का कोई असर नहीं होगा!
धर्म में आस्था रखने वाले यानि आस्तिक लोगों को भी भगवान से शिकायत करते हुए देखा जाता है। कई लोग हैं जो ईश्वर से कभी-कभी नाराज हो जाते हैं। ऐसे धार्मिक लोगों को लगता है कि वे हमेशा पूरे नियम-कायदे से पूजा-पाठ, प्रार्थना और व्रत-उपवास करते हैं, लेकिन फिर भी उनके जीवन से दु:ख नहीं जाते, यहां तक की मन में शांति तक नहीं है।

ऐसे में यह प्रश्र उठता है कि इंसान की पूजा-पाठ और प्रार्थना ईश्वर तक क्यों नहीं पहुंचती? या, क्या ईश्वर इतना निष्ठुर और कठोर है जो अपने भक्तों को दु:ख और अंशांति से छुटकारा नहीं दिलाना चाहता?

पूजा-पाठ, प्रार्थना और भक्ति के बावजूद व्यक्ति के जीवन में अंशाति क्यों बनी रहती है? ऐसे ही गहरे प्रश्रों के हल खोजने के लिये आइये चलते हैं एक बेहद सुन्दर सच्ची कथा की ओर...

प्रसिद्ध राजा प्रसून के जीवन की घटना है। अपने गुरु के विचारों से प्रभावित होकर राजा ने राज्य का त्याग कर दिया, साधु-संन्यासियों के जैसे गेरुए कपड़े पहनकर हाथ में कमंडलु और भिक्षा पात्र लेकर निकल पड़े। शाम होने पर नियत से भजन-कीर्तन, जप-तप और पूजा-पाठ करते। यही सब कुछ करते हुए एक लंबा समय गुजर गया, लेकिन राजा प्रसून के मन को वह शांति नहीं मिली जिसके लिये उसने अपना राज-पाट छोड़ा था। राजा दुखी होकर एक दिन अपने गुरु के पास पहुंचा और अपनी मन की तकलीफ सुनाने लगा। राजा की सारी बात सुनने के बाद गुरु हंसे और बोले - ''जब तुम राजा थे और अपने उद्यान का निरीक्षण करते थे, तब अपने माली से पौधे के किस हिस्से का विशेष ध्यान रखने को कहते थे?'' अपने गुरु की बात ध्यान से सुनकर राजा प्रसून बोला - ''गुरुदेव! वैसे तो पौधे का हर हिस्सा महत्वपूर्ण होता है, लेकिन फिर भी यदि जड़ों का ठीक से ध्यान न रखा जाए तो पूरा पौधा ही सूख जाएगा।''

राजा का जवाब सुनकर गुरु प्रशन्न हुए और बोले - ''वत्स! पूजा-पाठ, जप-तप, कर्मकांड और यह साधु-सन्यासियों का पहनावा भी सिर्फ फूल-पत्तियां ही हैं, असली जड़ तो आत्मा है। यदि इस आत्मा का ही आत्मा का ही परिष् कार यानी कि शुद्धिकरण नहीं हुआ तो बाहर की सारी क्रियाएं सिर्फ आडम्बर बन कर ही रह जाते हैं। आत्मा की पवित्रता का ध्यान न रखने के कारण ही बाहरी कर्मकांड बेकार चला जाता है।''

इस सच्ची व बेहद कीमती सुन्दर कथा का सार यही है कि यदि मनुष्य का प्रयास अपनी आत्मा के निखार और जागरण में लगे तो ही उसके जीवन में सच्चा सुख-शांति और स्थाई समृद्धि आ सकती है। अन्यथा बाहरी पूजा-पाठ यानी कर्मकांड सिर्फ मनोरंजन का साधन मात्र ही बन जाते हैं।

वाह! धनवान हो तो एंड्रयू कारनेगी जैसा...
दुनिया के इतिहास में एक से बढ़कर एक धनवान और समृद्ध व्यक्ति हुए हैं। लेकिन उनमें से धन की सार्थकता बहुत थोड़े से ही लोग समझ पाते हैं। अक्सर देखने में आता है कि धनवान बनने के बाद व् यक्ति अहंकारी, स्वार्थी और ऐशो-आराम के रास्ते पर चल पड़ता है। बहुत थोड़े ही इंसान ऐसे होते हैं जो पद, पैसा और प्रतिष्ठा पाने के बाद इस शक्ति को शालीनता से संम्हाल पाते हैं।

पानी की तरह बहने के स्वाभाव वाला धन-वैभव कभी किसी एक स्थान पर टिकता नहीं है। मेहनत, सौभाग्य या संयोग से धन-समृद्धि पा लेने के बाद जो इस शक्ति का सार्थक प्रयोग कर लेते हैं, इतिहास में उन्हीं नाम सदियों बाद भी चमकता-दमकता रहता है और अनेकों को प्रेरणा देता रहता है।

आइये चलते हैं ऐसी ही एक शख्सियत- एंड्रयू कारनेगी के जीवन से जुड़ी कुछ बेहद प्रेरणादायक घटनाओं की ओर, जो 100 वर्षों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी असंख्यों लोगों को गहरी प्रेरणा दे रही हैं...

अपने समय में दुनिया के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति के रूप में विख्यात-एंड्रयू कारनेगी का जन्म एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ। पिता रुई के कारखाने में कारीगर और मां जूते की सिलाई का काम करके जैसे-तैसे परिवार को चला पाते थे। ऐसी कठिन परिस्थियों में उधार की पुस्तकों से एंड्रयू कारनेगी ने अपनी पढ़ाई पूरी की और कड़ी मेहनत और लगन से टेलीग्राफ ऑपरेटर के पद पर पहुंचे। ठीक-ठाक नोकरी पा जाने के बाद भी कड़ी मेहनत का सिलसिला रुका नहीं बल्कि तब तक चलता रहा जब तक कि वे सफलता और समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर नहीं पहुंच गए। गहन परिश्रम और अदम्य इच्छाशक्ति ने उन्हें दुनिया की विशालतम स्टील कंपनी का मालिक बना दिया।

प्रशंसा की बात यह है कि जब उनके समय के दूसरे धनपति, अपनी धन-दौलत को अनाप-शनाप कामों और ऐशो-आराम में बहा रहे थे, तब एंड्रयू कारनेगी ने अपनी आधे से ज्यादा संपत्ति इंग्लैंड, अमेरिका, यूरोप व ऑस्ट्रेलिया में नि:शुल्क पुस्तकालयों व विश्वविद्यालयों को स्थापित करने में खर्च कर दी।

वे कहा करते थे- ''धन के अभाव में शिक्षा प्राप्त करने में उन्हें जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ा, वे नहीं चाहते गरीबी के कारण किसी जुरुरतमंद को शिक्षा से वङ्क्षचत रहना पड़े।''

आज के दौर में जो लोग सिर्फ अपना सुख, अपना नाम और अपना ही अपना स्वार्थ खोजते और साधते फिरते हैं, उनके लिये एंड्रयू कारनेगी का दिव्य जीवन सैकड़ों साल बीत जाने के बाद आज भी गहरा और प्रखर सबक है।

सिर्फ आंखें बंद कर लेने से अंधेरा नहीं हो जाता!
योग में रुचि रखने वालों को यह बात अच्छी तरह से ज्ञात होगी कि योग की दुनिया को सम्पन्न बनाने में जितना योगदान महर्षि पतंजलि का है उतनी ही भूमिका नाथ संप्रदाय के अग्रणी गोरखनाथ जी की भी है। योग और साधना के विभिन्न आयामों के क्षेत्र में गोरखनाथ ने जितना योगदान दिया है उतना सायद ही किसी दूसरे परवर्ती योगी या साधक ने दिया हो। अष्टांग योग से लेकर हठयोग तक योग के हर छोटे बड़े पहलुओं पर गोरखनाथ जी ने भरपूर प्रकाश डाला है। उनकी गोरखवाणी में योग के ऐसे-ऐसे कीमती सूत्र भरे पड़े हैं जिनपर चलकर कोई भी सच्चा साधक नर से नारायण बन सकता है। एक बार की घटना है कि गोरखनाथ जी के पास एक व्यक्ति आया और आकर अपने जीवन की कठिनाइयों और दुखों का वर्णन करने लगा। उसने कहा कि वह अपने जीवन से इतना दुखी और त्रस्त हो चुका है कि सिवाय आत्महत्या करने के अलावा उसके पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं बचा है।

गोरखनाथ जी पहले तो थोड़ा मुस्कुराए और फिर गंभीर होकर बोले जिस काम को करने का तुम कह रहे हो वह किसी के भी द्वारा संभव नहीं है। जिन परेशानियों से भागकर तुम मृत्यु को गले लगाने की सोच रहे हो वे तो मौत के बाद भी तुम्हारे साथ ही बनी रहेंगी। तुम आत्महत्या कर ही कैसे सकते हो? तुम तो सिर्फ अपने कीमती और बेकसूर शरीर को खत्म कर सकते हो जिससे कि कुछ होने वाला नहीं है। तुम अपनी जिंदगी का सफर जंहा से अधूरा छोड़ोगे तुम्हारी आत्मा को फिर से नया शरीर धारण करके फिर वहीं से सफर का प्रारंभ करना पड़ेगा। इसलिये आत्महत्या करने की इस मूर्खतापूर्ण इच्छा को तत्काल त्याग दो, क्योंकि यहां इस संसार में कोई भी आत्महत्या कर ही नहीं सकता। हां अपने कीमती शरीर को नष्ट करने की मूर्खता अवश्य कर सकता है।

लोग क्या कहते हैं, इसकी फिक्र छोड़ दें क्योंकि...
ऐसा अक्सर देखा जाता है कि व्यक्ति जब किसी अच्छे काम की शुरुआत करता है तो लोग उसकी खूब खिंचाई या आलोचना करते हैं। इसीलिये उम्रदराज अक्सर कहते हैं कि अच्छाई का रास्ता बुराई से भी अधिक कठिनाइयों से भरा होता है। यहां तक कहा जाता है कि अच्छाई और सच्चाई के रास्ते पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। ऐसा ही कुछ हुआ एक सन्त के साथ जो समाज सुधार के नेक इरादे से काम कर रहे थे, आइये चलते हैं एक वास्तविक व रोचक प्रसंग की ओर...

इतिहास के मध्यकाल की बात है। जब समाज में में तरह-तरह की बुराइयां बढ़ रही थीं। समाज में नैतिकता और इंसानियत का दिनोंदिन पतन होता जा रहा था। राजतंत्र भ्रष्टाचारियों और विलासियों के हाथ की कठपुतली बन गया था। ऐसे में एक संत ने समाज सुधार का कार्य प्रारंभ किया। कुछ लोगों ने साथ दिया तो कुछ विरोधी भी हो गए। यहां तक समाज के कुछ भ्रष्ट लोगों ने उन संत के चरित्र को ही बदनाम करने की अफवाहें फेलाना शुरु कर दिया।

समाज में उन संत की बुराईयां सुनकर उनके शिष्य को बुरा लगा। शिष्य ने जाकर अपने गुरु से कहा कि गुरुदेव! आप तो भगवान के इतने करीब हैं, उनसे कहकर आपके बारे में हो रहे दुष्प्रचार को बंद क्यों नहीं करवा देते? जिन लोगों के लिये आप इतना कुछ कर रहे हैं उन्हें इसकी कद्र ही नहीं मालुम तो ऐसे लोगों के लिये समाज सुधार का काम करना ही बेकार है।

शिष्य की बातों को सुनकर वे संत मुस्कुराते हुए बोले- बेटा! तुम्हारे प्रश्र का जवाब में अवश्य दूंगा लेकिन पहले तुम यह हीरा लेकर बाजार जाओ, और शब्जी बाजार तथा जोहरी बाजार दोनों जगह जाकर इस हीरे की कीमत पूछ कर आओ। कुछ समय बाद शिष्य बाजार से लौटा और बोला- शब्जी बाजार में तो इस हीरे को कोई 1 हाजार से अधिक में खरीदने के लिये तैयार ही नहीं था, जबकि जौहरी बाजार में इस हीरे को कई जोहरी लाखों रुपये देकर हाथों-हाथ खरीदने के लिये तैयार थे।

संत हंसते हुए बोले- बेटा! तुमने जो प्रश्र पूछा था उसका सही जवाब इसी घटना में छुपा हुआ है। बेटा! अच्छे कार्य भी हीरे की तरह अनमोल होते हैं, लेकिन उनकी कीमत जौहरी के जैसा कोई पारखी श्रेष्ठ सज्जन व्यक्ति ही जान पाता है। साधारण इंसान अच्छे कर्मों की अहमियत नहीं जान पाते तथा बुराई के रास्ते पर चलने वाले लोग तो अच्छे कार्य करने वाले इंसान को अपना दुश्मन समझकर उसकी झूठी आलोचना या बुराई ही किया करते हैं।

... संत द्वारा अपने शिष्य को कही यह गहरी बात हमें भी हमेशा याद रखना चाहिये कि जब हम कुछ अच्छाई और सच्चाई का कार्य करने निकलें तो लोगों की निंदा की बिल्कुल भी परवाह नहीं करना चाहिये।

लीला-पुरुषोत्तम हैं श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण ने जन्म के साथ ही लीला आरंभ कर दी थी और जीवन-भर लोकहित में लीलाएं करते रहे.। यही कारण है कि वह बन गए लीला पुरुषोत्तम। श्रीराम एवं श्रीकृष्ण दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं, परंतु दोनों की प्रकृति और आचरण में काफी भिन्नता है। श्रीराम ने कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मर्यादा का अतिक्त्रमण नहीं किया। वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। वहीं श्रीकृष्ण का अवतरण विपरीत परिस्थितियों में हुआ। माता देवकी और पिता वसुदेव अत्याचारी कंस के कारागार में बंदी थे। अपने अविर्भावसे स्वधाम-गमनतक श्रीकृष्ण ने इतनी विविधता के साथ तमाम लीलाएं कीं कि वे बन गए लीला-पुरुषोत्तम।

अनंत लीला-विलास
पौराणिक ग्रंथों व कथाओं में भगवान श्रीकृष्ण का लीला-विलास अनंत है। जन्म लेते ही चतुर्भुज-रूपमें प्रकट होकर फिर छोटा बालक बन जाना, कारागार के पहरेदारों का सो जाना तथा पिता वसुदेवजीकी हथकडी-बेडी एवं दरवाजों का स्वयं खुल जाना, यमुना में बाढ आने पर भी रातोंरात बालक श्रीकृष्ण का गोकुल पहुंच जाना, सामान्य बातें नहीं थीं।
अपनी छठी के दिन ही राक्षसी पूतना का शिशु श्रीकृष्ण ने संहार कर दिया। यशोदा माता को मुख के अंदर ब्रह्मांड दिखलाना, ब्रह्माजीको सबक सिखाने के लिए गोप-बालक और बछडों की नवीन सृष्टि करना, अक्रूरजी को मार्ग और जल के अंदर एक ही साथ दोनों जगह एक ही रूप में दर्शन देना तथा बालकृष्ण द्वारा काकासुरकी गर्दन मरोडकर उसे फेंक देना आश्चर्यजनक था। बचपन से ही श्रीकृष्ण ने अपनी बाल लीला में कंस द्वारा भेजे गए राक्षसों का वध करना शुरू कर दिया।तृणावर्त,केशी,अरिष्टासुर,बकासुर,प्रलंबासुर,धेनुकासुर जैसे बलवान राक्षसों को उन्होंने मार डाला। हयासुर,नरक, जंभ, पीठ, मुर आदि असुरों का भी उन्होंने ही संहार किया। बाल्यावस्था में ही कालियानाग के सहस्त्र फणों पर नृत्य करके उसे यमुना जी से भगा दिया। मात्र सात वर्ष की अवस्था में गिरिराज गोर्वधन को अपने बाएं हाथ की छोटी अंगुली पर धारण करके मूसलाधार वर्षा से ब्रजवासियों की रक्षा की तथा देवराज इंद्र का घमंड चूर कर डाला।

चीरहरण-लीला के माध्यम से श्रीकृष्ण [ब्रह्म] ने गोपियों [जीवात्माओं] को यह समझा दिया कि जब तक जीव अज्ञान के आवरण में रहेगा, तब तक परमात्मा से उसका मिलन न हो सकेगा। इस लीला का एक अन्य अभिप्राय जीव का देहाभिमान समाप्त करना है। श्रीकृष्ण की रासलीला का भी बडा गूढ अर्थ है। इसमें भोग-विलास जरा-सा भी नहीं है। रासलीला करके उन्होंने यह संकेत कर दिया कि जब जीव गोपी-भाव धारण करके अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण [ईश्वर] को समर्पित कर देता है, तब वह उन सर्वेश्वर का कृपापात्र बन जाता है।
मथुरा में भी लीला
मथुरा लौटकर श्रीकृष्ण ने कंस का वध करके माता-पिता को कारागार से मुक्त कराया। माता देवकी के आग्रह पर उन्होंने कंस के द्वारा मारे गए उनके छह पुत्रों को उनसे पुन:मिलवाया। गुरु संदीपनि मुनि के मृत पुत्र को यमलोक से लाकर उसे वापस सौंप दिया। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसे असंभव कायरें को आज तक कोई अन्य संभव नहीं कर पाया। जरासंधके वध के पीछे भी श्रीकृष्ण की ही लीला थी, जब उन्होंने ब्रज में सोते हुए पुरवासियों को सहसा द्वारका पहुंचा दिया। इसी तरह जब पांडव द्यूतक्त्रीडा में सब कुछ हार गए, तब दु:शासन द्रौपदी को राजसभा के बीच खींच लाया और चीरहरण करने लगा। द्रौपदी की पुकार सुनकर श्रीकृष्ण ने उसके सम्मान की रक्षा की लीला रची।

महाभारत के युद्ध में पांडव श्रीकृष्ण की लीला के कारण ही विजयी हुए। युद्ध के पूर्व किंकक त्व्यविमूढ अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाकर तथा गीता सुनाकर श्रीकृष्ण ने न सिर्फ उनका मनोबल बढाया, बल्कि सारथी बनकर उनकी विजय का मार्ग भी प्रशस्त किया। पांडव-वंश की रक्षा करने के उद्देश्य से अभिमन्यु की पत्‍‌नी उत्तरा के पुत्र को जीवन-दान दिया।

श्रीमद्भागवत महापुराणमें लिखा है कि भगवान श्रीकृष्ण ने जिस देह से एक सौ पच्चीस वर्ष तक लोकहित में विविध लीलाएं कीं, वह देह भी अंत में किसी को नहीं मिली।

श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। जगद्गुरु बनकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुए हमें गीता के रूप में जो उपदेश दिए हैं, वे सदा समाज का मार्गदर्शन करते रहेंगे। वे नि:संदेह लीला-पुरुषोत्तम ही हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण की स्तुति में कहा गया है-

नमोदेवादि देवाय कृष्णाय परमात्मने।परित्राणाय भक्तानांलीलया व पुधारिणे।अर्थात हे देवताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण, आप साक्षात् परमात्मा हैं। भक्तों के रक्षार्थलीलाएं करने हेतु आप शरीर [अवतार] ग्रहण करते हैं।

किस्मत में जो लिखा है, उसे पाना हमारे हाथ में है
किस्मत एक ऐसी चीज है जिस पर कुछ लोग बहुत ज्यादा भरोसा करते हैं और कुछ बिल्कुल भी नहीं। कई लोग हर चीज को किस्मत के भरोसे ही छोड़ देते हैं। किस्मत को मानना अलग विषय है और उसी पर टिक जाना एकदम अलग बात।

जो लोग सिर्फ किस्मत को ही सबकुछ मानकर बैठ जाते हैं वे अक्सर असफल हो जाते हैं। तकदीर में जो लिखा है वो तो होना ही है लेकिन जो होगा, वो हमें किस हद तक प्रभावित करेगा यह बात हमारे कर्म तय करते हैं।

एक राजा के दो बेटे थे। दोनों ही होनहार थे, राजा को दोनों ही बेटे समान लगते थे। उसके आगे समस्या यह थी कि वो अपना उत्तराधिकारी किसे घोषित करे, क्योंकि दोनों में ही उसे कोई कमी नजर नहीं आती थी। राजा परेशान रहने लगा। एक मंत्री ने राजा की मनोदशा का ताड़ लिया। उसने जोर देकर पूछा तो राजा ने अपनी चिंता का कारण बता दिया। मंत्री ने राजा को एक युक्ति सुझाई।

उसने राजा से कहा कि दोनों राजकुमारों को राजज्योतिषी के पास भेजना चाहिए, वे ही इस बात का निर्णय कर देंगे कि कौन सा राजकुमार भविष्य में राजा बनने के लायक है। राजा ने ऐसा ही किया। दोनों राजकुमारों को ज्योतिषी के पास भेजा। ज्योतिषी ने दोनों की कुंडली देखी, हाथ की रेखाएं देखीं और घोषणा की कि दोनों ही राजा बनने योग्य हैं। दोनों की कुंडली में राजसी सुख लिखा है। दोनों की रेखाएं भी राजसी जीवन की ओर संकेत कर रही हैं।

दोनों ही खुश हो गए लेकिन राजा की दुविधा जस की तस थी। दोनों की कुंडली में अगर राजयोग है, तो फिर राजा किसे बनाया जाए। ज्योतिषी ने जवाब दिया, आप थोड़े दिन, इंतजार करें, राज पद का दावेदार राजकुमार आप खुद ही चुन लेंगे। राज योग की बात सुन दोनों राजकुमारों पर अलग-अलग असर हुआ।

बड़े राजकुमार ने सोचा कि राजा बनना ही है तो राजसी जीवन की आदत डाल ली जाए, क्योंकि जीवनभर फिर राजा बनकर रहना है। वो पूरी तरह विलासिता में डूब गया। वहीं छोटे ने सोचा कि जब राज योग लिखा ही है तो क्यों ना राजा के कर्तव्य देख लिए जाएं। उसने प्रजा के बीच जाकर रहना शुरू कर दिया, उनकी समस्याओं का निपटारा किया, उनकी रक्षा की व्यवस्था की।

राजकीय काम देखने लगा। राजा तक यह सूचना पहुंची कि जनता छोटे राजकुमार को राजा के रूप में देखना चाहती है। राजा ने उसे अपना युवराज घोषित कर दिया। इस बात से तिलमिलाया बड़ा राजकुमार राज ज्योतिषी के पास पहुंचकर शिकायत करने लगा। ज्योतिषी ने उसे समझाया कि राज सुख तुम दोनों की कुंडली में है लेकिन तुमने ये जानकर भी अपने कर्तव्य और कर्म का मार्ग नहीं पकड़ा।

तुमने यह मान लिया कि तुम ही राजा बनोगे और विलासिता में डूब गए। जबकि छोटे राजकुमार ने भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए उसके अनुसार कर्म किया तो वो राजा चुन लिया गया। तुम भी राज सुख भोग रहे हो, जीवन भर भोगोगे भी लेकिन राजा बनने की तैयारी तुमने नहीं की, वो तैयारी तुम्हारे छोटे भाई ने की इसलिए राजा ने उसे युवराज बनाया।

ये है हमारे दुख का असली कारण...
कई बार हम योजनाएं बनाते हैं लेकिन काम फिर भी बिगड़ ही जाता है। जिस तरह के परिणामों की अपेक्षा हम करते हैं उससे अलग ही या उल्टे ही परिणाम हमें मिलते हैं। कई लोग सोचते हैं कि हमने तो सारी योजनाएं ठीक बनाई थीं, उस पर काम भी किया था फिर परिणाम क्यों नहीं मिले।

इसका जवाब है हमने योजनाएं तो बनाई लेकिन भविष्य में ऐसा ही होगा, जैसा हम सोच रहे हैं, यह मानना गलत है। भविष्य की गर्त में क्या छिपा है कोई नहीं जानता, हम सिर्फ कर्म करें, अगर हम अपने हर कर्म से ज्यादा फायदे की अपेक्षा करेंगे तो यह बात हमें सिर्फ पीड़ा ही देगी। हम कर्म करें, लेकिन उससे अपेक्षा को निकाल दें।

एक नगर सेठ था। उसने एक आलीशान महल बनवाया। बड़ी धनराशि खर्च करके तैयार किए गए महल के रंगरोगन का काम चल रहा था। सेठ महल के बाहर खड़ा-खड़ा कारीगरों को निर्देश दे रहा था। सेठ ने मुख्य कारीगर से कहा कि इस महल पर ऐसे रंगों से बेल-बूटे बनाओ कि मेरी सात पुश्तों तक इसके रंग फीका ना पड़े। कारीगर भी उसके बताएं अनुसार काम कर रहे थे। तभी वहां से एक संत गुजरे।

उन्होंने सेठ की बातें सुनीं, सेठ को देखकर मुस्कुराए और चले गए। सेठ को यह बात अजीब लगी। उसी दिन दोपहर को सेठ अपने घर में भोजन कर रहा था, उसके चार साल के बच्चे ने उसकी थाली को ठोकर मार दी। सेठ की पत्नी ने उसे डांटा तो सेठ ने कहा कि इसे मत डांट, यह तो कुल का चिराग है। हमारी पीढिय़ां इसी से चलेंगी। तभी वहां वही संत भिक्षा मांगने पहुंचे। उन्होंने सेठ की बात सुनी और मुस्कुराकर चल दिए। सेठ को फिर अजीब लगा। सेठ से रहा नहीं गया। वह संत के पीछे चल दिया।

एक जगह एकांत में जाकर उसने संत से पूछा आपने दो बार मेरी बात सुनी और दोनों बार मुस्कुराकर चल दिए। ऐसा क्यों? संत ने कहा तुम्हें भविष्य का कुछ पता नहीं और तुम जानें क्या-क्या योजना बना रहे हो। तुम जिस महल पर सात पुश्तों तक दिखने वाली बेल-बूटे बनवा रहे हो, वह तुम सात दिन भी नहीं देख पाओगे, क्योंकि आज से सातवें दिन तुम्हारी मौत हो जाएगी।

यही सोचकर मैं मुस्कुरा दिया। सेठ का दिल बैठ गया, आंखों में आंसू आ गए। उसने पूछा फिर आप दूसरी बार क्यों मुस्कुराए मेरे घर आकर। संत ने कहा जिस बेटे ने तुम्हारी थाली को ठोकर मारी और तुमने उसका ठुकराया हुआ खाना भी बड़े प्रेम से खाया, वो तुम्हारे कुल का नाश कर देगा। वो पिछले जन्म की तुम्हारी पत्नी का प्रेमी है, जो इस जन्म में तुम्हारा बेटा बना है।

उसे ही तुम इतने प्यार से रख रहे हो, वो तुम्हारी सारी कमाई बुरे कामों में उड़ा देगा। सेठ जोरों से रोने लगा, संत ने उसे समझाया कि तुमने अपने लिए योजनाएं तो बहुत अच्छी बनाई लेकिन उन योजनाओं से तुम परिणाम भी अपने अनुकूल चाहते हो, जो कि गलत है। परिणाम तो नियति के हाथों में है। हमारे हाथों में नहीं।

प्रेम नहीं करोगे तो जानोगे कैसे?
एक बार की बात है एक प्रेमी को किसी महलों में रहने वाली लड़की से प्यार हो गया। जब ये बात उसके परिवार वालों को पता चली तो उन्होंने उस लड़के के मरवाने के लिए कुछ गुंडों को भेजा। जब उस लड़की तक यह खबर पहुंची कि उसके प्रेमी को मरवाने की साजिश रची गई है तो उसने सबका विरोध किया। विरोध करने पर जब उसके घरवालों ने उस पर पहरे लगवा दिए तो वो अपने प्रेमी को बचाने के लिए पहरों को तोड़कर जब उस जगह पर पहुंची जहां उसके प्रेमी के सिर पर बंदुक रखे कुछ लोग खड़े थे। तब लड़की दौड़कर उसके प्रेमी के आगे खड़ी हो गई और बोली मुझे मार डालो। उसके बाद इसे मार देना तब उसे मारने वाले लोगों में से एक व्यक्ति बोला लड़की तू मौत को गले लगाने के लिए इतनी उतावली क्यों हो रही है।

तब उसने कहा कि मैं जानती हूं कि जिंदगी से बढ़कर कुछ भी नहीं है लेकिन मैं मानती हूं कि प्रेम ही मेरे लिए सबकुछ है क्योंकि बिना प्रेम के जीवन कुछ भी नहीं। जो एक बार सचमुच प्रेम के अर्थ को समझ लेता है।

उसे महसूस कर लेता है। उसकी पवित्रता को समझ लेता है। उसके मूल्यों को जान लेता है। बिना प्रेम के जीवन कुछ भी नहीं प्रेम से जीवन है बिना प्रेम जीवन नहीं। इसका कारण यही है कि प्रेम संसार का नहीं प्रेम तो ईश्वर का अंग है। जो प्रेम की गहराई को समझने लगता है। वह यह जानता है कि प्रेम जो सच्चाई वो कहीं और नहीं। प्रेम में जो ताकत है वह और कहीं नहीं इसीलिए मेरा प्रेम ही मर जाए उससे अच्छा है कि मैं ही अपने प्राण त्याग दूं। लेकिन तुम मुझे मार सकते हो क्योंकि शायद तुमने कभी किसी से प्रेम नहीं किया। इसीलिए तुम मेरी भावनाओं को जानोगे कैसे? इसीलिए शायद जिस दिन तुम्हे प्रेम की अनुभुति हो उस दिन तुम मेरी मौत का प्रायश्चित कर लोगे।

रिश्तों को सहेजें, यही सबसे बड़ी पूंजी है
कभी-कभी हम रिश्तों की गहराई को समझ नहीं पाते हैं। कई रिश्ते हमारे लिए मामूली होते है, कई रिश्तों को पहचान नहीं पाते लेकिन वो हमारे जीवन में कभी ना कभी कोई महत्ववपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जो लोग रिश्तों का मान नहीं रखते वे अक्सर बाद में पछताते हैं। जिंदगी में कोई भी रिश्ता हो उसका मान जरूर रखें। अन्यथा बाद में वे पछताते हैं।

एक लोक कथा है। एक गांव में दो परिवार रहते थे। दोनों परिवारों मे से एक में बेटा-बहू, सास-ससुर रहते थे। बहू सास-सुसर की जरा भी कद्र नहीं करती थी। परिवार में हमेशा कलह का माहौल रहता था। बूढ़े सास-ससुर कलह के कारण अक्सर अपने पड़ोसी के यहां जाकर बैठ जाते।

उस परिवार में केवल एक विधवा औरत और उसके दो बच्चे रहते थे। गरीबी में गुजारा होता था लेकिन वह कभी किसी के अपने घर आने से नाराज नहीं होती। जितना बन पड़ता उन बूढ़ों की सेवा करती। एक दिन वह बूढ़ा मर गया।

अंतिम संस्कार के बाद उसके उत्तर कार्य किए जाने थे लेकिन बहू ने एक तांत्रिक को बुलाकर क्रिया करवाई कि उसके ससुर का प्रेत अब दोबारा घर ना लौटे। ना पिंडदान किया, ना उत्तर कार्य।

बूढ़े आदमी का प्रेत भटकता हुआ, पड़ोस की विधवा औरत के घर पहुंचा और पेड़ पर बैठ गया। विधवा को अपने पड़ोस की बहू का ससुर के प्रति ऐसा व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उसने रोज एक रोटी बूढ़े आदमी के नाम से अपने आंगन के पेड़ के नीचे रखने लगी। प्रेत वही रोटी खाने लगा।

कई दिन बीत गए। एक दिन विधवा औरत ने पेड़ ने नीचे रोटी नहीं रखी। प्रेत इंतजार करता रहा। उसने घर के भीतर जाकर देखा तो औरत का बेटा बीमार हो गया है। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। प्रेत ने माया से कुछ सोने की अशर्फियों से भरी एक थैली, मकान की छत पर रख दी। फिर विधवा औरत को बुलाकर बताया। उसने वो धन लेने से इंकार किया तो प्रेत ने समझाया कि तुमने तो रिश्तों का मान रखा है। मेरे अपने बहू-बेटे ने मेरी कद्र नहीं की। तुम ने पराई होते हुए भी मेरा ध्यान रखा। इसलिए इस धन पर तुम्हारा अधिकार है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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