Thursday, May 5, 2011

Dharm Gyan( धर्म ज्ञान) Part 3

अक्षय तृतीया से जुड़ी कुछ रोचक बातें
वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं। यह स्वयंसिद्ध मुहूर्त है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन किया गया दान, हवन, पूजन या साधना अक्षय(संपूर्ण) होता है। हिंदू धर्म शास्त्रों में अक्षय तृतीया तिथि से जुड़े और भी कई रोचक तथ्यों का वर्णन मिलता है। यह तथ्य इस प्रकार हैं-

- भारतीय कालगणना के अनुसार वर्ष में चार स्वयंसिद्ध अभिजीत मुहूर्त होते हैं, अक्षय तृतीया (आखा तीज) भी उन्हीं में से एक है। इसके अलावा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा), दशहरा और दीपावली के पूर्व की प्रदोष तिथि भी अभिजीत मुहूर्त हैं।

- धर्म ग्रंथों के अनुसार अक्षय तृतीया से ही त्रेतायुग का आरंभ भी माना जाता है।

- इस दिन से ही भगवान बद्रीनारायण के पट खुलते हैं।

- वर्ष में एक बार वृंदावन के श्री बांकेबिहारीजी के मंदिर में श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं।

- धर्म शास्त्रों के अनुसार इसी दिन भगवान नर-नारायण ने अवतार लिया था।

- भगवान विष्णु के अवतार श्रीपरशुरामजी का अवतार भी इसी दिन हुआ था।

- भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार भी इसी दिन माना जाता है।

- स्वयंसिद्ध मुहूर्त होने के कारण सबसे अधिक विवाह भी इसी दिन होते हैं।

- इस दिन शुभ एवं पवित्र कार्य करने से जीवन में सुख-शांति आती है। इस दिन गंगा स्नान का भी विशेष महत्व है।

- इसी शुभ घड़ी में भगवान विष्णु ने नर-नारायण अवतार लिया।

- इन पुण्य प्रसंगों के कारण लोक परंपराओं में भी हिंदू धर्म के चार धामों में से एक श्री बद्रीनारायण के पट इस दिन खुलते हैं।

- वृंदावन में श्री बांकेबिहारी के चरण दर्शन केवल इसी दिन होते हैं, सामान्य दिनों में भगवान पूरे वस्त्र धारण किए होते हैं।

वैसे 'अक्षय' शब्द का मतलब है- जिसका क्षय या नाश न हो। इस पर धर्म और अध्यात्म के नजरिए से विचार करें तो चूंकि सभी सांसारिक जीव या पदार्थ नाशवान हैं, यही कारण है कि मन में स्वाभाविक रूप से उनकी रक्षा या बचाने की चाह आसक्ति, स्वार्थ या लोभ को जन्म देती है, जो कलह या अशांति का कारण बनते हैं। यही कारण है कि अक्षय तृतीया के शुभ दिन ईश्वर स्मरण के साथ दान व धर्म मन में त्याग, परोपकार, प्रेम और करुणा की भावना जगाकर अक्षय शांति और सुख पाने का बेहतर उपाय बताया गया है, क्योंकि ईश्वर भी अक्षय, अनादि, अनंत माने गए हैं।

इस तिथि के संबंध में स्वयं गुरु गोरखनाथ ने कहा है कि भले ही अन्य सारे प्रयोग असफल हो जाएं, भले ही साधक नया हो, भले ही उसे स्पष्ट मंत्रों का उच्चारण ज्ञान न हो, फिर भी अक्षय तृतीया के अवसर पर उसे सफलता अवश्य मिलती है।

ये आसान उपाय देगें पुण्य के साथ भरपूर दौलत, कामयाबी व ख्याति

दान का परम पावन दिन है अक्षय तृतीया। यह एक ऐसा पर्व है जो ऐसे ही अच्छे कर्म करने की प्रेरणा देता है, जो स्वयं के साथ दूसरों को सुख देने वाले होते हैं। अक्षय तृतीया का यही संदेश है कि हम जीवन में ऐसे शुभ कार्य करें जिससे हमारा चरित्र और व्यक्तित्व बेहतर और श्रेष्ठ बनें और अक्षय यश प्राप्त हो। अक्षय होने के यही वास्तविक मायने हैं।

फिर भी अनेक धर्मावलंबी घर से बाहर या कार्य की व्यस्तता के चलते अक्षय तृतीया की पुण्य घड़ी में चाहकर भी दान और धर्म-कर्म से वंचित रहते जाते हैं। ऐसे ही लोगों के लिए धर्म परंपराओं के साथ-साथ यहां कुछ ऐसे छोटे-छोटे व्यावहारिक उपाय बताए जा रहे हैं, जो वैसा ही पुण्य, यश और सफलता देने वाले हैं, जो किसी धार्मिक विधान द्वारा प्राप्त होते हैं। डालते हैं एक नजर कि अक्षत तृतीया अपनाने के कौन-कौन से हैं ये छोटे उपाय -

- धर्म हो या सामाजिक दर्शन माता-पिता को भगवान का दर्जा दिया गया है। ईश्वर की तरह वे ही हमारे अस्तित्व के कारण हैं। इसलिए अक्षय तृतीया पर माता-पिता का आशीर्वाद जरूर प्राप्त करें। भगवत कृपा, माता-पिता का आशीर्वाद और दुआओं की ताकत कामयाबी की राह में आने वाली बड़ी से बड़ी बाधा और संकट को नष्ट करने वाली होती है। अगर आप किसी कारण से घर से दूर हों तो फोन या मोबाईल द्वारा संपर्क कर माता-पिता का स्नेह और विश्वास पाएं।

- शास्त्र और परंपराओं में गुरु का पद सबसे ऊपर बताया गया है। इसलिए अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर गुरु पूजन के साथ गुरु दक्षिणा भी देनी चाहिए। क्योंकि इस दिन मिलने वाला गुरु का आशीर्वाद भी अक्षय होगा।

- विवाहित महिलाओं को सुहाग सामग्री धारण कर जैसे सिंदूर, लाल धागा गले में पहनना चाहिए और काल के नियंत्रक देवता शिव के मंदिर में जाकर पति की लंबी आयु के लिए कामना करें। अविवाहित कन्याओं को भी भगवान शिव से मनोवांछित पति के लिए कामना करना चाहिए।

- अक्षय सुख-समृद्धि के लिए धन और वैभव की देवी महालक्ष्मी का पूजा अनुष्ठान करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से घर में धन-संपदा के द्वार खुल जाते हैं।

- यह दिन व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन में एक नई शुरूआत करने के लिए भी श्रेष्ठ है। कुछ ऐसे कार्य भी हैं जो पुण्य देने के साथ ही जीवन को बेहतर बनाते हैं।

- गाय, भैंस आदि को हरा चारा खिलाएं।

- जरूरतमंद, कमजोर और गरीब बच्चों की शिक्षा पर धन खर्च करें।

- व्यक्तिगत जीवन में रिश्तों और संबंधों में घुली पुरानी कटुता और विरोध को भुलाकर क्षमाभाव के साथ फिर से मिठास के साथ संबंधों की नई शुरुआत करें।

- इस दिन बुरी लतों जैसे धूम्रपान, शराब पीना आदि का त्याग कर दें।

- अच्छी आदतों को अपनाएं जैसे योग, अभ्यास, अध्ययन आदि।

- इस दिन धन का निवेश करें। नया कारोबार शुरू करें। शुभ और मंगल कार्य करें।

स्मार्ट बनने के बेजोड़ तरीके हैं शास्त्रों की ये बातें
इंसान तन और धन से कितना ही सबल और सक्षम हो, किंतु जीवन को सफल और सुखी बनाने के लिए मात्र किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि व्यावहारिक ज्ञान भी बहुत ही जरूरी है। जिसके तहत मानवीय व्यवहार की समझ और पहचान अहम होती है। इंसान के स्वभाव को जानने की इस कला से जीवन के लक्ष्यों को पाना आसान हो सकता है।

अगर आप भी सामाजिक या कार्यक्षेत्र में इसी व्यवहार कुशलता की कमी से असहज महसूस करते हैं, तो यहां बताई जा रही शास्त्रों में लिखी बातों से आप भी सीख सकते हैं कि किस तरह के व्यक्ति से कैसा व्यवहार कर अपना बनाना चाहिए? जानते हैं क्या है वह शास्त्रों की बातें -

लुब्धमर्थप्रदानेन श्लाघ्यमञ्जलिकर्मणा।

मूर्खं छन्दानुवृत्या च याथातथ्येन पण्डितम्।।

सद्भावेन हि तुष्यन्ति देवा: सत्पुरुषा द्विजा:।

इतरे खाद्यापानेन मानदानेन पण्डिता:।।

इसका सरल शब्दों में अर्थ है हाथ जोड़कर प्रणाम कर सज्जन या उदार व्यक्ति को, अर्थ यानी धन देकर लालची व्यक्ति को, तारीफ कर मूर्ख व्यक्ति को, ज्ञान की बातों द्वारा विद्वान को, अच्छे या सद्भावों से देवता, भले लोगों को, आम व्यक्ति को खान-पान से और मान-सम्मान द्वारा पण्डित को संतुष्ट करें या अपना बनाएं।

व्यावहारिक जीवन का सफर भी इन इंसानों के संपर्क में आकर ही चलता है। इसलिए इन बातों में नकारात्मक विचार या कुतर्क न ढूंढ व्यवहार कुशलता का मूल सूत्र अपनाकर जिंदगी में आने वाली हर बाधा को पार करते चलें। ऐसा ही व्यक्ति बोलचाल की भाषा में स्मार्ट कहलाता है।

जब होगा प्रलय, जल में घुल जाएगी पृथ्वी!
पिछले कुछ समय से दुनिया खत्म होने के दावे और अनुमान आए दिन सामने आ रहे हैं। विश्व के अलग-अलग हिस्सों में प्राकृतिक घटनाओं से होने वाली तबाही ऐसी बातों को और बल देती हैं। असल में ऐसी बातें दुर्घटनाओं से प्रभावित लोगों के मन दहशत बढ़ाती है, वहीं उससे दूर लोगों के मन में भी अनिश्चितता, भय, अविश्वास और संदेह पैदा करती है। ऐसे मनोभावों से बचने का बेहतर उपाय है स्वयं को कुदरत के नियमों के अनुरुप ढालें, न कि अपनी सुविधा के लिए तोडें।

बहरहाल, दुनिया की तबाही का कोई दिन निश्चित नहीं कहा जा सकता, किंतु जब भी ऐसा हो तो नजारा कैसा होगा? इसका अंदाजा आप स्वयं हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भागवत में बताई प्राकृतिक प्रलय के वक्त बनने वाली स्थितियों से लगा सकते हैं-

प्रलय का वक्त आने पर सौ साल तक बारिश नहीं होती। अन्न और पानी न होने से अकाल पड़ जाता है। सूर्य की भीषण गर्मी समुद्र, प्राणियों और पृथ्वी का रस सोख लेती है। इसे ही प्रतीक रूप में संकषर्ण भगवान के मुंह से निकलने वाली आग की लपटें बताया गया है। हवा के कारण यह आकाश से लेकर पाताल तक फैलती हैं।

इस प्रचण्ड ताप और गर्मी से पृथ्वी सहित पूरा ब्रह्माण्ड ही दहकने लगता है। इसके बाद गर्म हवा अनेक सालों तक चलती है। पूरे आसमान में धुंआ और धूल छा जाते हैं। जिसके बाद बने बादल आकाश में मण्डराते हुए फट पड़ते हैं। कई सालों तक भारी बारिश होती है।

इससे ब्रह्माण्ड में समाया सारा संसार जल में डूब जाता है। इस तरह पृथ्वी के गुण, गंध जल में मिल जाते हैं और पृथ्वी तबाह होकर अंत में जल में ही मिलकर जल रूप हो जाती है।

इस तरह जल, पृथ्वी सहित पंचभूत तत्व जो इस जगत का कारण माने गए हैं, एक-दूसरे में समा जाते हैं और मात्र प्रकृति ही शेष रह जाती है।

2 अलग-अलग देवता हैं श्री गणेश और गणपति!
हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रसंग है कि भगवान शिव के विवाह में सबसे पहले गणपति की पूजा हुई थी। इसमें सांसारिक नजरिए से एक जिज्ञासा यह पैदा होती है जब भगवान गणेश शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो उनके विवाह के पहले ही उनकी पूजा कैसे की गई? दरअसल लोक मान्यताओं में गणेश और गणपति एक ही देवता है। है। किंतु धर्म ग्रंथ में गणेश और गणपति को दो अलग-अलग रूप के बारे में बताया गया हैं। जानते हैं यह रोचक तथ्य -

शास्त्रों के अनुसार गणेश का अर्थ है - जगत के सभी प्राणियों का ईश्वर या स्वामी। इसी तरह गणपति का मतलब है - गणों यानि देवताओं का मुखिया या रक्षक।

गणपति को शिव, विष्णु की तरह ही स्वयंभू, अजन्मा, अनादि और अनंत यानि जिनका न जन्म हुआ न ही अंत है, माना गया है।

श्री गणेश इन गणपति का ही अवतार हैं। जैसे पुराणों में विष्णु का अवतार राम, कृष्ण, नृसिंह का अवतार बताया गया है। वैसे ही गणपति, गणेश रूप में जन्में और अलग-अलग युगों में अलग-अलग रूपों में पूजित हुए। विनायक, मोरेश्वर, धूम्रकेतु, गजानन कृतयुग, त्रेतायुग में पूजित गणपति के ही रूप है। यही कारण है कि काल अन्तर से श्री गणेश जन्म की भी अनेक कथाएं हैं।

सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पांच देवों की पूजा लोकप्रिय है। इनमें गणपति पंच देवों में प्रमुख माने गए हैं। इन सब बातों में एक बात साफ है कि गणपति हो या गणेश वास्तव मे दोनों ही उस शक्ति का नाम है जो हर कार्य में सिद्ध यानि कुशल और सफल बनाती है।

ये हैं सुनिश्चित सफलता के बेहतरीन फण्डे
सफलता के लिए महत्वाकांक्षा या जोश ही काफी नहीं होता, बल्कि सुनियोजित तैयारी भी जरूरी है। वरना अनुभवहीनता और अपरिपक्वता से नाकामयाबी का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए सफलता की पहली शर्त है - लक्ष्य। जिसे पाने के लिए जुनून होना जरूरी है, जिसके लिए जवानी सबसे बेहतर समय है।

अक्सर यह देखा जाता है कि आज युवा पीढ़ी बलवान या धनवान होने को ही निश्चित और आसान सफलता का कारण मानती है, जबकि लक्ष्य तक पहुंचना परिश्रम, समर्पण, आत्म अनुशासन और ईमानदारी के बिना संभव नहीं है। यही नहीं लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मन को साधना भी बेहद जरूरी है। सफलता के यही सूत्र और पुरुषार्थ की प्रेरणा आज के युवाओं को भगवान परशुराम के जीवन से भी मिलती है।

भगवान परशुराम के उत्तम चरित्र पर गौर करें तो पाते हैं कि भगवान परशुराम स्वयं विष्णु के अवतार थे। इसलिए स्वयं शक्ति संपन्न भी थे। किंतु जिस उद्देश्य से उनका अवतरण हुआ था, उसको पाने के लिए उन्होंने कठिन तप और पुरुषार्थ किया। परशुराम ने तपस्या के द्वारा अनेक शक्तियां प्राप्त की। जिनमें भगवान शिव की तपस्या से प्राप्त परशु अस्त्र प्रमुख है। जिसको पाने के बाद ही उनका नाम राम से परशुराम हो गया। इस तथ्य में भी युवाओं को संदेश यही है कि ऐसे सद्कर्म और पुरुषार्थ करें कि उनसे मिले सुफल आपको प्रतिष्ठित कर दें।

भगवान परशुराम के गुरु स्वयं संहार और सृजन के देवता भगवान शिव थे। युवा परशुराम भगवान शिव की घोर तपस्या और सेवा से अनेक अस्त्र-शस्त्र पाए। जिनमें प्रमुख हैं - ब्रह्मास्त्र, आग्रेयास्त्र, वायवास्त्र और रौदास्त्र सहित 41 अन्य अस्त्र। भगवान शिव से उन्होंने तंत्र-मंत्र और धनुर्विद्या भी पाई। इन्हीं सब अस्त्र-शस्त्र और विद्याओं का प्रयोग कर उन्होंने धर्म विरोधी बन चुके अनाचारी क्षत्रियों का अंत कर पृथ्वी को अत्याचारों से मुक्त किया।

भगवान परशुराम द्वारा प्राप्त यह अलग-अलग अस्त्र और विद्या युवाओं को संदेश देते है कि आप लक्ष्य से संबंधित हर विधा में दक्षता हासिल करें। अपने मन और मस्तिष्क को खुला रखकर यथासंभव अधिक से अधिक सीखनें की कोशिश करें। अपने आप को किसी सीमा में न बांधे। लेकिन यह भी आवश्यक है कि यह सब पाने के लिए आप भी भगवान शिव की तरह सर्वश्रेष्ठ गुरु के पास जाएं। हर युवा भी परशुराम की तरह आदर्श शिष्य बनने की प्रतिबद्धता रखें। ताकि आने वाली पीढ़ी भी आपकी सफलता को देखकर भगवान परशुराम के उत्तम चरित्र का स्मरण और अनुसरण कर सके।

क्यों परशुराम ने 21 बार ही किया क्षत्रियों का नाश?
भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम माने जाते हैं। भगवान परशुराम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने तत्कालीन अत्याचारी और निरंकुश क्षत्रियों का 21 बार संहार किया। लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान परशुराम ने आखिर 21 बार ही पृथ्वी से क्षत्रिय वंश का नाश क्यों किया? इसी का जवाब देती है एक पुराण कथा -

एक बार भगवान परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि के आश्रम में राजा कार्तवीर्य अर्जुन यानि सहस्त्रार्जुन आये। ऋषि जमदग्रि ने देवराज इन्द्र से प्राप्त कामधेनु गाय के दिव्य गुणों की सहायता से सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना के लिए भोजन और विश्राम का प्रबंध किया।

कामधेनु के ऐसे बेजोड़ गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में उस अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।

सहस्त्रार्जुन को खाली लौटना पड़ा। परम तपस्वी जमदग्रि ने अपने संत चरित्र के कारण सहस्त्रार्जुन का कोई विरोध नहीं किया और तप करते रहे। किंतु इस घटना के बाद जब पितृभक्त परशुराम का वहां आना हुआ तो उनकी माता ने सारी बात बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए।

पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया।

सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। इसी बीच मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने तपस्यारत ऋषि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर वध कर दिया। जब परशुराम तीर्थ से वापिस लौटे तो आश्रम में माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे।

यह देखकर परशुराम का बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहयवंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया। इस भू-लोक से इक्कीस बार क्षत्रियों का नाश कर उनके बहते रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में रक्त कुण्ड बन गए। जिससे उन्होंने अपने पिता का तर्पण भी किया।

परशुराम द्वारा तत्कालीन दुष्ट और अत्याचारी क्षत्रियों का अंत कर न केवल जगत को उनके आतंक से मुक्त कराया बल्कि इसके द्वारा एक लौकिक संदेश भी दे गए कि किसी भी व्यक्ति और समाज को असत्य, अन्याय और अत्याचार का निर्भय होकर, पुरुषार्थ और पराक्रम के साथ विरोध करना चाहिए। किंतु उसका उद्देश्य साथर्क होना चाहिए।

जानें ब्राह्मण परशुराम के महायोद्धा होने का रहस्य!
भगवान परशुराम का अवतरण अक्षय तृतीया की शुभ घड़ी में माना गया है। उनका जन्म भृगु वंशीय ब्राह्मण कुल में हुआ, जो सामान्यत: सात्विक गुण, आचरण, ज्ञान, तप और विद्या के ज्ञाता होते हैं। यही कारण है कि परशुराम में भी अपार ज्ञानशक्ति और तपोबल की धनी थे। किंतु उनकी एक खूबी ने ब्राह्मण कुल को नई पहचान दी। वह बेजोड़ खासियत थी कि वह क्षत्रियों की तरह बलवान, वीर और पराक्रमी होने के साथ अद्भुत अस्त्र-शस्त्रों के स्वामी व युद्ध कला में माहिर थे। जिसके द्वारा ही उन्होंने दुष्ट क्षत्रियों का अंत किया। भगवान परशुराम के एक ब्राह्मण होकर इसी क्षत्रिय आचरण और व्यवहार का रहस्य बताती है यह पौराणिक कथा -

प्राचीन काल में कन्नौज नगर में राजा गाधि का राज था। उन्होंने अपनी रूपवती कन्या सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषि के साथ किया। विवाह के बाद ऋषि भृगु अपने पुत्र और पुत्रवधू सत्यवती को आशीर्वाद देने के लिए वहां पहुंचे। ससुर भृगु ऋषि के कहने पर सत्यवती ने अपनी माता के पुत्रवती होने का वर मांगा। तब भृगु ऋषि ने सत्यवती को दो चरु पात्र दिए।

भृगु ऋषि ने सत्यवती को बताया कि इन चरुओं को तब ग्रहण करना जब तुम और तुम्हारी मां ऋतु स्नान कर ले। साथ ही तुम्हारी मां पुत्र की कामना से पीपल के पेड़ को अपनी बांहों में ले। इसी प्रकार तुम भी पुत्र की कामना से गूलर के पेड़ को अपनी बांहों में पकड़ों। ऋषि भृगु के जाने के बाद सत्यवती की मां को जब यह मालूम हुआ है सत्यवती ने अपने ससुर से श्रेष्ठ संतान होने के लिए चरु प्राप्त किया है तो उसके मन में कपट आ गया और श्रेष्ठ पुत्र की चाह में उसने अपने और सत्यवती के चरु पात्र की अदला-बदली कर दी।

जिससे सत्यवती ने अनजाने में अपनी माता के चरु को ग्रहण कर लिया। किंतु ऋषि भृगु ने अपनी ज्ञानशक्ति से सत्यवती की मां के इस बात को जान लिया। उन्होनें पुत्रवधू सत्यवती को बताया कि तुम्हारी माता के कपट के कारण तुमने अपनी मां के चरु का सेवन कर लिया है। इसलिए अब तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी क्षत्रिय जैसा व्यवहार करेगा।

इसी तरह से तुम्हारी मां का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मण का व्यवहार करेगा। किंतु सत्यवती ने अपने ससुर भृगु ऋषि से याचना कर यह अशीर्वाद पा लिया कि उसका पुत्र ब्राह्मण धर्म ही निभाएगा। किंतु पुत्र का पुत्र यानी पौत्र क्षत्रिय धर्म का पालन करेगा। यही कारण है कि सत्यवती के यहां ऋषि जमदग्रि का जन्म हुआ। ऋषि जमदग्रि की संतान भगवान परशुराम हुए। जिनका आचरण ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी क्षत्रियों की भांति रहा और उन्होंने दुराचारी हैहयवंशी क्षत्रियों से युद्ध कर उनका अंत कर दिया। भगवान परशुराम ने ऐसा कर न केवल ब्राह्मण धर्म की रक्षा की वरन इसमें जगत को सदा शुद्ध आचरण और वैचारिक पवित्रता को निडरता से अपनाने का भी संदेश छुपा है।

अगर चाहते हैं परिवार और रिश्ते रहें 'अक्षय' तो..
'अक्षय' और 'चिरंजीव' इन दो शब्दों का विशेष महत्व हिन्दू पंचांग के वैशाख शुक्ल तृतीया से जुड़ा है। क्योंकि यह तिथि अक्षय तृतीया और आठ चिरंजीवियों में एक भगवान परशुराम के अवतार के लिए भी जानी जाती है। असल में अक्षय या चिरंजीवी होने का संबंध मात्र धन या तन से नहीं है, बल्कि इसका सीधा संदेश ऐसे पवित्र व्यवहार, विचार और गुणों को अपनाने से है, जिनसे धर्म, परिवार, रिश्ते व इंसान भी अजर-अमर बन जाए।

भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम का दिव्य चरित्र भी ऐसे जीवन मूल्य सिखाता है। भगवान परशुराम ने जीवन में माता-पिता, परिवार, भातृ प्रेम और कर्तव्यों के प्रति सर्मपण के ऐसे ऊंचे आदर्श प्रस्तुत किए, जो आज भी व्यक्ति और समाज को अलगाव और बिखराव से बचाना सिखाते हैं। जानते हैं उनके जीवन से जुड़ा एक प्रसंग और उसमें छुपे ऐसे ही संदेशों को -

भगवान परशुराम के पिता भृगुवंशी ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका भी। ऋषि जमदग्नि बहुत तपस्वी और ओजस्वी थे। ऋषि जमदग्रि और रेणुका के पांच पुत्र रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्ववानस और परशुराम हुए। एक बार रेणुका स्नान के लिए नदी किनारे गई। संयोग से वहीं पर राजा चित्ररथ भी स्नान करने आया था, जो बहुत सुंदर और आकर्षक था। जिसे देखकर रेणुका भी आसक्त हो गई। ऋषि जमदग्नि ने अपने योगबल से अपनी पत्नी के इस आचरण को जान लिया।

ऋषि जमदग्नि ने पत्नी के ऐसे आचरण से आहत होकर अपने पुत्रों को अपनी मां का सिर काटने का आदेश दिया। किंतु परशुराम को छोड़कर किसी भी पुत्र ने मां से स्नेह के कारण वध करने से मना कर दिया। वहीं परशुराम ने पिता के आदेश पर अपनी मां का सिर काटकर अलग कर दिया।

ऋषि जमदग्रि ने आज्ञा का पालन न करने पर परशुराम को छोड़कर सभी पुत्रों को चेतनाशून्य हो जाने का शाप दे दिया। वहीं परशुराम को खुश होकर वर मांगने को कहा। तब परशुराम ने बुद्धिमत्ता के साथ वर मांगे।

परशुराम ने तीन वरदान मांगे - पहला अपनी माता को फिर से जीवन देने और माता को सिर कटने की पूरी घटना याद न रहने का वर मांगा। दूसरा अपने चारों भाईयों की चेतना फिर से लौट आए। तीसरा वरदान स्वयं के लिए मांगा, जिसके मुताबिक वह किसी भी शत्रु से या युद्ध में नहीं हारें और उनको लंबी आयु प्राप्त हो। ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र के इन वरदानों को सुनकर गदगद हो गए और उनकी कामना पूरी होने का आशीर्वाद दिया।

भगवान परशुराम के जीवन से जुड़ी यह घटना संकेत देती है कि किस तरह परिवार व रिश्तों के प्रति समर्पण व विश्वास रखा जाए। परशुराम द्वारा पिता के आदेश पर माता का सिर काट देना पितृभक्ति, पिता से माता का फिर से जीवन मांगना मातृभक्ति, भाईयों की चेतना फिर से वापस मांगना भातृप्रेम और स्वयं को अपराजित और चिरंजीवी होने का वरदान मांगना दूरदर्शिता और विवेकशील होने का प्रमाण है। जिसके द्वारा ही उन्होंने पिता की प्रसन्नता और आशीर्वाद पाया। ऐसी भावना ही किसी भी व्यक्ति के जीवन के लिए अहम होती है। जिनको जीवन में उतारने से कोई भी व्यक्ति समाज, परिवार और संबंधों को टूटने से बचा सकता है।

पुरुषों के लिए घातक है ये 4 चिंताएं
हर इंसान जीवन में सुखों को पाने की हमेशा और हर संभव कोशिशें करता रहता है, फिर भी वह जीवन में अक्सर छोटे-बड़े किसी न किसी रूप में दु:खों से ज्यादा जूझता दिखाई देता है। इसी संघर्ष में वह अनेक बार बुरे समय को मात देता है, यही बात ताउम्र जीने का जज्बा भी बनाए रखती है। धर्म शास्त्रों के नजरिए से इंसानी जीवन में खासतौर पर पुरुषों के लिए चार बातें ऐसी हैं, जो चिंता का कारण बन जीवन के लिए घातक हो सकती है। कौन-सी हैं यह चार बातें? डालते हैं एक नजर -

प्रेम और विश्वास न करने वाली भार्या यानी पत्नी - सुखी दाम्पत्य जीवन आपसी भरोसे और प्रेम के बिना संभव नहीं। किसी विवाद, अनबन या मतभेद, इच्छाओं की पूर्ति के अभाव से अगर पत्नी मधुर संबध न रखे तो पुरुष के लिए यह बात गहरे दु:ख व चिंता का कारण बनी रहती है।

कार्य में विघ्र या संकट - हर पुरुष नौकरी, व्यवसाय या व्यापार में यथासंभव बेहतर नतीजों के लिए पुख्ता तैयारी और कार्य करता है। इसके बावजूद आजीविका पर संकट या स्वाभाविक कारणों से होने वाली हानि व नुकसान के कारण भविष्य की चिंता उस पर हावी रहती है।

छोटे व्यक्ति से अपमान - मान-मर्यादा से भरा जीवन हर इंसान को हमेशा ही सुख देता है। किंतु परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में जब कोई पुरुष पद, उम्र या आचरण में कमतर व्यक्ति से अपमानित हो तो उसकी चिंता अंदर ही अंदर घुटन बनाए रखती है।

पत्नी का भूखी रहना - यह बात ऊपरी तौर पर अनूठी और रोचक है, किंतु इसमें गुढ़ता है। सीधे शब्दों में पत्नी का भूखे रहना स्वाभाविक रूप से जीवन और स्वास्थ्य को लेकर चिंता का विषय है, किंतु इसके पीछे गृहस्थी को संतुलित रखने के संकेत भी है। गृहस्थी की गाड़ी ठीक से चलती रहे इसके लिए जरूरी है पुरुष अपनी जिम्मेदारियों को उठाए। खासतौर पर आजीविका को लेकर आलस्य से दूर रहे। वरना खान-पान की कमी से आई दरिद्रता पत्नी से अलगाव व विवाद का कारण बन गंभीर व स्थायी चिंता बन सकती है।

ये 5 अनमोल बातें बनाए हर काम में कुशल और सफल
हम अक्सर शास्त्रों, साहित्य या व्यावहारिक बोलचाल में पण्डित शब्द पढ़ते, सुनते और बोलते भी है। सामान्यत: इस शब्द का अर्थ ब्राह्मण जाति के लिए इस्तेमाल किया जाता है, यह व्यावहारिक रूप से पवित्र आचरण, व्यवहार और विचारों की ओर संकेत करता है। किंतु धर्मशास्त्रों में ही पण्डित होने का मूल भाव कुशल चरित्र और व्यक्तित्व से भी जोड़ा गया है।

व्यावहारिक रूप से कुशल होने के अनेक पहलू हो सकते हैं। अक्सर शारीरिक या मानसिक या धनोपार्जन की कुशलता इंसान को पहचान देती है। सांसारिक नजरिए से तो कुशलता के पैमाने और भी हो सकते हैं, किंतु धर्मशास्त्र में लिखी कुछ बातों पर गौर करें तो इंसानी जीवन के व्यवहार, कर्म और विचार से जुडे पांच पैमाने ऐसे हैं, जिनको पूरा करने पर कोई भी इंसान पण्डित या कुशल कहलाता है। चाहे फिर वह किसी भी धर्म या जाति का हो।

डालते हैं एक नजर कुशलता या पण्डित होने से जुड़ी इन पांच बातों पर -

- विनम्रता से सज्जन को अपना बनाना।

- तप से देवकृपा पाना।

- सद्कर्मो या अच्छे व्यवहार से सभी को वशीभूत करना यानी अपना बना लेना।

- धन से जुड़ी जिम्मेदारियों को उठाकर मर्यादाओं के साथ स्त्री को सुरक्षा देना और उसका प्रेम और विश्वास पाना।

- मीठे से बालक को प्रसन्न करना।

ये पांच बातें इंसान के पूरे जीवन से जुड़े अच्छे कर्म, व्यवहार और सोच की ओर संकेत करती हैं। जिनको अपनाकर आप भी जीवन को सही दिशा दे सकते हैं।

ये हैं घर बसाने के 8 तरीके
कर्तव्य और जिम्मेदारियों के पैमाने पर ही इंसान की सही परख और पहचान होती है। इन दायित्वों को समझ और आगे बढ़कर आत्मविश्वास व सक्षमता के साथ पूरा करने पर इंसान पद, सम्मान, भरोसा, सहयोग और प्रेम पाकर जीवन को सफल बना सकता है। व्यावहारिक जीवन में जिम्मेदारियों के निर्वहन का ही समय होता है - गृहस्थ जीवन। आम भाषा में इसे घर बसाना और चलाना भी कहते हैं।

हिन्दू धर्मशास्त्रों में इंसानी जीवन के लिए बताए वर्णाश्रम धर्म में भी शिक्षा के बाद गृहस्थ धर्म के पालन का ही महत्व है। इस धर्म के पालन के लिए विवाह संस्कार की परंपरा बताई गई है। हालांकि आधुनिक समय में विवाह की परंपराओं या जीवनसाथी को लेकर बड़े बदलाव दिखाई देते हैं। किंतु धर्मशास्त्रों में गृहस्थ जीवन में प्रवेश के लिए विवाह के आठ रूप बताए गए हैं।

यहां जानते हैं शास्त्रों में आए विवाह के ये आठ तरीके और उनके फायदे। इन तरीकों में से कुछ आधुनिक समय में भी देखे जाते हैं। डालते हैं एक नजर इस रोचक जानकारी पर -

ब्रह्मविवाह - इस रीति से विवाह में वर को घर बुलाकर सम्मान के साथ गहनों आदि से सजाकर कन्यादान किया जाता है। इससे जन्मी संतान से दोनों कुटुंब की 21 पीढिय़ां पवित्र होती है।

देव विवाह - यज्ञ, हवन के ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मण को कन्यादान करना देव विवाह होता है।

आर्ष विवाह - वर से एक जोड़ा गाय व बैल लेकर उसे कन्यादान करना आर्ष विवाह कहलाता है। इससे जन्मे पुत्र से अगली-पिछली तीन पीढिय़ां पवित्र होती है।

काय या प्राजापत्य विवाह - इस विवाह रीति में 'इस कन्या के साथ धर्म आचरण करो' ऐसा बोलकर पिता द्वारा विवाह की चाह रखने वाले वर को कन्यादान किया जाता है। इससे जन्मे पुत्र से आगे-पीछे की छ: पीढिय़ां पवित्र होती हैं।

असुर विवाह - इसमें कन्या के पिता या परिजन को धन देकर वर कन्या से विवाह करता है।

गान्धर्व विवाह - इस रीति से विवाह में वर व कन्या के बीच पहले से ही विवाह की आपसी सहमति होने के बाद विवाह होता है।

राक्षस विवाह - जब किसी कन्या की इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक अपहरण कर उससे विवाह किया जाता है, तो वह राक्षस विवाह माना जाता है।

पैशाच विवाह - कन्या के सोते समय उसका अपहरण कर उससे विवाह रचाना पैशाच विवाह होता है।


लक्ष्मी कृपा चाहें तो छोड़े ये 6 बुरी आदतें

धर्मशास्त्रों में बताई बातें असल में जीवन के अलग-अलग पहलूओं पर बताया गया ऐसा ज्ञान या निचोड़ है, जिससे तन, मन, विचार, आचरण से जुड़ा कोई भी विषय अछूता नहीं। यह जीवन को संयम और अनुशासन से रहने की सीख देते हैं। यही कारण है कि धर्म पालन इंसानी जीवन में सुख और शांति के लिए अहम माना गया है।

इसी नजरिए से जिंदगी को सुखी बनाने के लिए ही धन का महत्व बताया गया है। धन का अभाव यानी आर्थिक दरिद्रता किसी भी व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक और वैचारिक बल पर बुरा असर डालती है। यही कारण है कि हर व्यक्ति व्यावहारिक रूप ही नहीं धार्मिक दृष्टि से भी धन की देवी लक्ष्मी की प्रसन्नता चाहता है।

लक्ष्मी कृपा के लिए ही धर्म शास्त्रों में जो बातें जरूरी बताई गई है उनका संबंध भी जीवनशैली से जुड़ी छोटी-छोटी बातों से है, जिनके पीछे छुपे संदेशों को मूल भाव इंसान की दिनचर्या को साधना ही है, ताकि स्वस्थ्य, सबल और वक्त का पांबद बन सुख रूपी हर धन को पा सके।

यहां बताई जा रही हैं, ऐसी बुरी आदतें जिसके बारे में शास्त्र कहते हैं, इन आदतों के भगवान विष्णु में होने पर देवी लक्ष्मी उनको भी छोड़ देती है। डालते हैं एक नजर -

लिखा गया है कि -

कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं ब्रह्वाशिनं निष्ठुरवाक्यभाषिणम्।

सूर्योदये ह्यस्तमयेपि शायिनं विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिम्।।

सरल शब्दों में संकेत है इन छ: बुरी आदतों को छोडऩे का, जिनसे लक्ष्मी रूठ जाती है-

- मैले कपड़ पहनना

- दांत साफ न रखना

- ज्यादा भोजन करना

- कटु या कठोर वचन बोलना

- सूर्यादय और सूर्यास्त के समय भी सोते रहना

स्वाभाविक रूप से इन बातों से साफ है कि ऐसी आदतों से इंसान न केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ्य रह पाएगा न मानसिक रूप से ऊर्जावान, जो धन प्राप्ति के लिए अहम पुरुषार्थ या मेहनत के लिए बहुत ही जरूरी है।

ये 5 काम बना देते हैं पापी
धर्मशास्त्रों की सीखों में सुखी जीवन के सूत्र ढूंढे तो वे हैं - अच्छे कर्म, विचार और व्यवहार। किंतु आज की आपाधापी भरे जीवन में जरूरत, हितपूर्ति या अभाव के चलते भावना और संवेदना के स्तर पर जीवन मूल्य और नैतिकता किनारे होते दिखाई देते हैं।

असल में सत्य, दया, परोपकार से दूरी ही अशांत, कलह और पतन से भरे जीवन की शुरुआत होती है। सीधे शब्दों में कहें तो इंसान पाप कर्मों से जुड़ जाता है। किंतु स्वार्थ के वशीभूत इंसान को बुरे कर्मों का अहसास तब होता है, जब उसका बुरा असर व्यक्तिगत जीवन के साथ परिवार में संस्कारहीनता और समाज में अशांति के रूप में सामने आता है। फिर भी वह गलत को भी सही साबित करने के लिए छटपटाता है, किंतु उसका यह प्रयास अपयश को टाल नहीं पाता।

अगर आप मान-सम्मान, यश, सुखी और समृद्ध जीवन जीना चाहते हैं तो जानें शास्त्रों में बताई व्यावहारिक जीवन से जुड़ी कुछ ऐसी बातें, जो अच्छे-बुरे कर्मों की पहचान को आसान बनाती है -

लिखा गया है कि -

दाता दरिद्र: कृपणोर्थयुक्त: पुत्रोविधेय: कुजनस्य सेवा।

परापकारेषु नरस्य मृत्यु: प्रजायते दुश्चरितानि पञ्च।।

इसे सरल शब्दों में समझें तो यहां बताई पांच बातें इंसान को अपयश ही नहीं देती बल्कि पाप का भागी भी बना देती है -

दरिद्र होकर दाता होना - व्यावहारिक रूप से यहां दाता होने का अर्थ यही है कि आमद कम होने या धन अभाव होने पर भी शौक-मौज, अपव्यय या फिजूलखर्ची किये जाने से जीवन का निर्वाह और कठिन होगा। जिससे जरूरतों की पूर्ति के लिए इंसान अनैतिक कामों या पाप कर्मों की और जा सकता है।

धनवान होकर कंजूस होना - धन को जरूरतों पर भी खर्च न करने या कंजूसी की भावना धन की लालसा बढ़ाती है, जिससे व्यक्ति पैसा कमाने की चाह में गलत कामों को अपनाने से अपयश पाता है।

पुत्र का आज्ञाकारी न होना - बड़ों के गलत आचरण कुसंस्कारों के रूप में संतान के कर्म, व्यवहार में दिखाई देते हैं। जिसके बुरे नतीजों के दोषी स्वाभाविक रूप से माता-पिता ही बनते हैं। इसलिए संतान का अच्छे कर्म और विचारों के बीच ही पालन-पोषण करें।

दुष्ट लोगों की सेवा - अच्छी या बुरी संगति का असर जीवन पर होता है। इसलिए बुरे और दुर्जन लोगों का संग या सेवा निश्चित रूप से आपको भी अपराधी या पापी लोगों की फेहरिस्त में शामिल कर देगा।

किसी का अहित करते हुए मृत्यु होना - स्वार्थ के चलते या हितपूर्ति के लिए दूसरों का बुरा करते हुए चाहे वह शारीरिक, मानसिक या आर्थिक हानि हो, दुर्घटनावश मृत्यु होना और उन बुरे कर्मो का उजागर होना आपके साथ परिवार के भी अपशय और उपेक्षा का कारण बन जाता है।

तरक्की के लिए न अपनाएं ये 5 हथकंडे
जब इंसान का खराब वक्त आता है, तब उसकी यही चाहत और कोशिश होती है कि किसी भी तरह उससे बाहर निकल पाए, ताकि आगे तरक्की कर सके। यह सोच किसी भी तरह से गलत नहीं है। किंतु आज बढ़ती भौतिक सुखों की चकाचौंध इंसान के मन में बहुत कम वक्त में ज्यादा पाने की लालसा पैदा कर रही है। जिसके चलते आगे बढऩे के लिए कुछ गलत सोच व तरीकों को अपनाना भी बुद्धिमत्ता का पैमाना माने जाने लगा है।

धर्म शास्त्रों के नजरिए से तरक्की के लिए क्षणभर के लिए भी अपनाया गया गलत उपाय आखिर में पतन का कारण बन सकता है। जिससे उबरने के लिए उम्र और समय भी कम पड़ सकता है। यहां जानते हैं ऐसे कुछ काम जिनको तरक्की, स्वार्थ या क्षणिक सुख और लाभ के लिए कभी न अपनाएं तो बेहतर है-

मित्र से धोखा - अपने फायदे के लिए दोस्त से छल-कपट करना मित्रता को शत्रुता में बदलने का कारण बनती है। साथ ही बदनामी और अपयश का कारण भी।

पाप से धर्म कमाना- धर्म के नाम पर कर्म, व्यवहार, बोल, वेशभूषा द्वारा ऊपरी दिखावा कर धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाना या गुमराह कर लाभ लेना पाप माना गया है, जो आखिरकार जीवन के लिए संकट का कारण भी बन सकता है।

दूसरों को दु:खी कर धन अर्जन - अपने सुखों के लिए दूसरों के साथ छल, कपट, बेईमानी या अन्य किसी गलत तरीकों को अपनाकर धन संग्रह करना, धार्मिक नजरिए से न केवल पाप है, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी इसके घातक नतीजे विरोध और शत्रुता, कलह भरे जीवन के रूप में सामने आते हैं।

बिना मेहनत के विद्या अर्जन - कुशलता और कामयाबी के लिए संपूर्ण विद्या, व ज्ञान अहम होता है, जो समर्पण, परिश्रम के बिना असंभव है। किंतु तरक्की के लिए धन या किसी अन्य अनुचित तरीकों से शिक्षा या कौशलता का प्रमाण पत्र बिना मेहनत के पाना लंबे समय के लिए मान-सम्मान और तरक्की के लिए घातक ही साबित होता है।

कठोर व्यवहार से स्त्री को वश में करना - स्त्री से रिश्ता मां, बहन, पत्नी, बेटी किसी भी रूप में हो, प्रेम और स्नेह के साथ निभाने पर ही सुख देता है। किंतु स्त्री को कमतर मानकर, बुरी मानसिकता या भोग का साधन समझ बुरे व्यवहार से अधिकार या वश में करने की कोशिश अंतत: मान-प्रतिष्ठा को धूमिल ही नहीं करती, बल्कि जीवन को दु:खों से भर सकती है।

भारी सफलता के लिए हनुमान से सीखें शक्ति, गति व धैर्य के ये सूत्र
सफलता के लिए निश्चित लक्ष्य का होना तो जरूरी है, लेकिन लक्ष्य तय होने पर उससे जुड़े छोटे-छोटे लक्ष्यों को भी चरणबद्ध तरीके से हासिल करना अहम होता है। किंतु अनेक अवसरों पर जल्दी आगे बढऩे, जोश या उत्साह में अनेक व्यावहारिक बातें नजरअंदाज होती है या काफी समय और ऊर्जा लक्ष्य योजना के क्रियान्वयन के बजाय उस पर विचार में ही खर्च कर कर दिया जाता है। नतीजतन लक्ष्य से भटकाव या असफलता के हालात सामने आते हैं।

मकसद को पाने में ऐसी ही नाकामी से बचना है तो श्री हनुमान चरित्र का अनुसरण श्रेष्ठ माना गया है। लक्ष्य भेदन और कार्य संपादन के लिए जिस योजना, नीति, गति, शक्ति, ऊर्जा, समर्पण और धैर्य की जरूरत होती है, उसकी प्रेरणा श्री हनुमान के बेजोड़ चरित्र और प्रसंगों में मिलती है।

रामायण के प्रमुख प्रसंगों में सीता की खोज में श्री हनुमान का योगदान अहम था। जिसमें श्री हनुमान का न केवल अपने स्वामी श्रीराम के प्रति अगाध समर्पण सामने आता है, बल्कि निस्वार्थ सेवा का महानतम आदर्श भी दिखाई देता है।

सीता की खोज के दौरान जब वानरदल के साथ श्री हनुमान समुद्र तट पर पहुंचे तो लंका तक जाने के लिए जिस क्षमता व शक्ति की जरूरत थी, वह हनुमान के पास थी, जिसे वह शापवश भूल गए थे, किंतु जामवंत द्वारा याद दिलाने पर श्री हनुमान बिना किसी विलंब लंका की ओर रवाना हुए, जो कि प्रमुख लक्ष्य था। समुद्र पार करने के दौरान भी सिंहिका, सुरसा, मैनाक या लंकिनी जैसी अनेक बाधाओं, प्रलोभनों का सामना किया, किंतु हनुमान ने बिना प्रभावित हुए पूरे धैर्य, समर्पण के साथ माता सीता को खोज निकाला।

इसी तरह युद्ध के दौरान लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर संजीवनी बूटी लाने या सुषेन वैद्य को लक्ष्मण की प्राण रक्षा के लिए लाने की बात हो या फिर अहिरावण द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का अपहरण कर ले जाने की घटना। सभी प्रसंगों में श्री हनुमान ने बिना समय गंवाये अपनी अतुलनीय गति, शक्ति, बुद्धि और ऊर्जा के दम पर ही सफलता पाई।

सार रूप में श्री हनुमान के यह प्रसंग प्रेरित करते हैं कि जीवन में किसी लक्ष्य को पाना है तो समय व शक्ति का दुरूपयोग न करें, बल्कि वक्त और हालात के मुताबिक ढलकर संयम, धैर्य, समर्पण और ताकत के सही उपयोग द्वारा सफलता की बुलंदियों तक पहुंचे। इनके साथ ही गति और समय का भी संतुलन बनाए, क्योंकि सही वक्त पर मिली सफलता ही सार्थक होती है।

जब शनि होते हैं हाथी पर सवार.. तो हो जाता है कमाल!
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक सूर्य पुत्र शनि का स्वभाव क्रूर व तामसी माना गया है। शनिदेव का रंग भी काला माना गया है और डील-डौल भी सुंदर नहीं है। यही भी मान्यता है कि उनकी टेढ़ी नजर और चाल भी जीवन में दु:खों से खलबली मचा देती है। शनि दण्डाधिकारी के रूप में भी जाने जाते हैं यानी बुरे कर्मों का दण्ड नियत करने वाले भी शनिदेव है।

शनिदेव के रूप-रंग, कद-काठी, कार्य से जुड़ी इन नकारात्मक बातों से हर कोई शनि दशा से भयभीत होकर शनि दशा या उनके कोप से बचना चाहता है। किंतु शास्त्रों में ही लिखी बातें शनि को भाग्य विधाता यानी किस्मत को चमकाने वाले देवता भी बताती है। क्योंकि शनि की दशा हमेशा ही पीड़ादायक नहीं होती, बल्कि दूसरे ग्रहों से मित्रता और शत्रुता या कुण्डली में बने बुरे योग भी शनि के अच्छे-बुरे प्रभाव नियत करते हैं।

शनि दशा में अन्य ग्रहों के साथ शुभ योग होने पर शनि कृपा से इंसान खुशहाल हो सकता है। शनि के ऐसे ही कल्याणकारी रूप को शनि चालीसा की चौपाईयां भी उजागर करती है। जिसमें शनिदेव के अलग-अलग प्राणियों के वाहन विशेष की सवारी के फल बताए गए हैं। असल में यहां शनिदेव के इन प्राणियों को वाहन बनाकर आना और उनका जीवन पर अच्छे-बुरे प्रभाव का संबंध शनि के शुभ-अशुभ ग्रह योग की ओर ही संकेत करता है।

ज्योतिष शास्त्रों के मुताबिक शनि के एक ही वाहन की सवारी अलग-अलग लोगों के लिए शुभ और अशुभ भी हो सकती है। बहरहाल, शनि चालीसा की नीचे लिखी चौपाई से जानते हैं कि जिस व्यक्ति के जीवन में शनि के हाथी को वाहन बनाकर आने से शुभ फल मिलते हैं तो क्या होता है? लिखा है -

गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं।।

इस चौपाई का साफ मतलब है शनि देव जब हाथी पर सवार होकर आते हैं, तो अपार धन, सुख-संपदा, वैभव से इंसान का जीवन खुशहाल हो जाता है। हाथी लक्ष्मी का वाहन भी बताया गया है। इसलिए घर-परिवार से दरिद्रता दूर होकर सुख और शांति भी आती है।

इस तरह कह सकते हैं कि शनि दशा का ढैय्या या साढ़े साती हमेशा कष्ट देने वाली नहीं होती है।

कठिन लक्ष्य भी आसान बना दे ये 3 सटीक तरीके
हिन्दू धर्म पंचाग का वैशाख माह विष्णु भक्ति का पुण्य काल माना गया है। भगवान विष्णु का स्वरूप शांत, सौम्य, सत्वगुणी, आनंदमयी माना गया है। किंतु विष्णु अवतार से जुडें पौराणिक प्रसंग साफ करते हैं कि धर्म रक्षा और धर्म आचरण की सीख देने के लिए लिए युग और काल के मुताबिक भगवान विष्णु अलग-अलग स्वरूपों में प्रकट हुए।

वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी (16 मई) भी भगवान विष्णु के चौथे अवतार भगवान नृसिंह के प्राकट्य की पुण्य घड़ी मानी जाती है। यहां हम भगवान नृसिंह की कथा में छुपे उन छुपे संदेशों का बता रहे हैं, जो जीवन में सफलता की चाहत रखने वाले हर इंसान के लिए सटीक उपाय भी साबित हो सकते हैं -

नृसिंह अवतार की कथा है कि धर्म और ईश्वर विरोधी हिरण्यकशिपु द्वारा जब अपने ही विष्णु भक्त पुत्र को ईश्वर भक्ति से रोकने के लिए घोर अत्याचार किए गए, तब धर्म और भक्त की रक्षा के लिए भगवान विष्णु, नृसिंह यानी आधे सिंह और आधे मानव शरीर के असाधारण व उग्र स्वरुप में प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का अंत कर दिया।

इस नृसिंह कथा में तीन प्रमुख पात्र हैं - हिरण्यकशिपु, भक्त प्रह्लाद और भगवान नृसिंह। जिनसे जीवन को सही दिशा में ले जाने और लक्ष्य पाने के 3 गुर सीखे जा सकते हैं -

हिरण्यकशिपु - यह सबल, सक्षम होकर भी दंभ और अहंकार का प्रतीक है। घमण्ड ही सभी बुराईयों की जड़ माना गया है। जिससे कर्म, विचार और व्यवहार भी बदतर हो जाते हैं। संकेत है कि अगर आप जीवन को बेहतर और सफल बनाना है तो अहं को छोड़ सहज, सरल बन बडप्पन के साथ जीना सीखें।

भक्त प्रह्लाद - प्रह्लाद भक्ति, समर्पण, आत्मविश्वास और पुरुषार्थ का प्रतीक। संकेत है कि मकसद को पाने के लिए भक्ति की तरह ही मनोयोग जरूरी है। तमाम मुश्किल हालातों के बाद भी भक्त प्रह्लाद की तरह पूरे आत्मविश्वास और जज्बे के साथ लक्ष्य को पाने के लिए कटिबद्ध रहें। तभी भगवान नृसिंह कृपा की भांति सफलता की ऊंचाईयों और लक्ष्य को पाया जा सकता है।

भगवान नृसिंह - भगवान नृसिंह स्वरूप यही सिखाता है कि तन, मन और कर्म से हिरण्युकशिपु रूपी बुराईयों और कमजोरियों को निकालकर कर भक्त प्रह्लाद की तरह निडर बन जीवन को सफल बनाने के लिए अच्छाई की राह न छोड़े। बल्कि गुणी बन, मजबूत इच्छाशक्ति और भरोसे के साथ आगे बढते रहें। यहीं नहीं नृसिंह के असाधारण स्वरूप की तरह ही असाधारण कोशिशों से नामुमकिन लक्ष्य भी पाने को दृढ़ संकल्पित रहें।

नृसिंह जयंती 16 को, इसलिए हुआ था नृसिंह अवतार
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती का पर्व मनाया जाता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था। इस बार यह पर्व 16 मई, सोमवार को है।

इसलिए लिया था भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार

भगवान विष्णु ने अधर्म के नाश के लिए कई अवतार लिए तथा धर्म की स्थापना की। भगवान विष्णु ने दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए ही नृसिंह अवतार लिया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार दैत्यों का राजा हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान से भी अधिक बलवान मानता था। उसे मनुष्य, देवता, पक्षी, पशु, न दिन में, न रात में, न धरती पर, न आकाश में, न अस्त्र से, न शस्त्र से मरने का वरदान प्राप्त था।

उसके राज में जो भी भगवान विष्णु की पूजा करता था उसको दंड दिया जाता था। उसके पुत्र का नाम प्रह्लाद था। प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। यह बात जब हिरण्यकशिपु का पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया लेकिन फिर भी जब प्रह्लाद नहीं माना तो हिरण्यकशिपु ने उसे मृत्युदंड दे दिया। लेकिन हर बार भगवान विष्णु के चमत्कार से वह बच गया।

हिरण्यकशिपु की बहन होलिका, जिसे अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था, वह प्रह्लाद को लेकर धधकती हुई अग्नि में बैठ गई। तब भी भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। जब हिरण्यकशिपु स्वयं प्रह्लाद को मारने ही वाला था तब भगवान विष्णु नृसिंह का अवतार लेकर खंबे से प्रकट हुए और उन्होंने अपने नाखुनों से हिरण्यकशिपु का वध कर दिया।


इसलिए जरूर करें शिव मंदिर में कछुए के दर्शन
शिव कल्याणकारी देवता माने गए हैं। उनका स्वरूप, गुण, गण, शक्तियां, परिवार, पहनावा, अस्त्र-शस्त्र यहां तक कि वाहन भी शुभ और मंगलकारी ही हैं। यही कारण है कि शिवालय ऐसा पावन स्थान होता है, जहां पर शिव उपासना समस्त दु:ख और संताप से छुटकारा मिल जाता है।

शिव मंदिर में शिवलिंग सहित हर देव मूर्ति या चिन्ह सुखी जीवन के कुछ संदेश जरूर देते हैं। बस जरूरत है इनमें छुपे संकेतों को समझने और उनको अपनाने की। जिससे देव दर्शन भी सार्थक बन जाए। जब हम शिवालय जाते हैं तो वहां मूर्तियों के क्रम में नंदी के बाद कछुए की मूर्ति के दर्शन करते हैं। इस कछुए का रुख शिव की ओर होता है। कछुए के शिव की ओर ही बढऩे के पीछे भी छुपे संदेश है। डालते हैं इस पर एक नजर -

जिस तरह शिव मंदिर में नंदी हमारे शरीर को परोपकार, संयम और धर्म की राह पर चलने के लिए प्रेरित करने वाला माना गया है। ठीक उसी तरह शिव मंदिर में कछुआ मन को संयम, संतुलन और सही दिशा में गति सिखाने वाला माना गया है। कछुए के कवच की तरह हमारे मन को भी हमेशा शुद्ध और पवित्र कार्य करने के लिए ही मजबूत यानि दृढ़ संकल्पित बनाना चाहिए। मन को कर्म से दूर कर मारना नहीं, बल्कि हमेशा अच्छे कार्य करने के लिए तैयार रखना चाहिए। खासतौर पर नि:स्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई, दु:ख और पीड़ा को दूर करने के लिए आगे रहना चाहिए यानी मन की गति बनाए रखना जरूरी है।

सरल शब्दों में मन स्वार्थ और शारीरिक सुखों के विचारों में न डूबा रहे, बल्कि मन को साधने के लिए दूसरों के लिए भावना, संवेदना रखकर कल्याण के भाव रखना भी जरूरी है। यही कारण है कि कछुआ मंगलकारी देव शिव की ओर जाता है, न कि नंदी की ओर, जो शरीर के द्वारा आत्म सुख की ओर जाने का प्रतीक है। सरल अर्थ में नंदी शारीरिक कर्म का और कछुआ मानसिक चिंतन का प्रेरक है।

इसलिए अध्यात्म का आनंद पाने के लिए मानसिक चिंतन को सही दिशा देना चाहिए और यह करने के लिए धर्म, अध्यात्म और शिव भक्ति से जुड़ें।

कूर्म जयंती 17 को, क्यों हुआ था कूर्म अवतार?
वैशाख मास की पूर्णिमा पर कूर्म जयंती का पर्व मनाया जाता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भगवान विष्णु ने कूर्म(कछुए) का अवतार लिया था तथा समुद्र मंथन में सहायता की थी। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार को कच्छप अवतार भी कहते हैं। इस बार यह पर्व 17 मई, मंगलवार को है।

इसलिए लिए हुआ कूर्म अवतार
एक बार महर्षि दुर्वासा ने देवताओं के राजा इंद्र को श्राप देकर श्रीहीन कर दिया। इंद्र जब भगवान विष्णु के पास गए तो उन्होंने समुद्र मंथन करने के लिए कहा। तब इंद्र भगवान विष्णु के कहे अनुसार दैत्यों व देवताओं के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए तैयार हो गए। समुद्र मंथन करने के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी एवं नागराज वासुकि को नेती बनाया गया। देवताओं और दैत्यों ने अपना मतभेद भुलाकर मंदराचल को उखाड़ा और उसे समुद्र की ओर ले चले लेकिन वे उसे अधिक दूर तक नहीं ले जा सके। तब भगवान विष्णु ने मंदराचल को समुद्र तट पर रख दिया। देवता और दैत्यों ने मंदराचल को समुद्र में डालकर नागराज वासुकि को नेती बनाया। किंतु मंदराचल के नीचे कोई आधार नहीं होने के कारण वह समुद्र में डुबने लगा। यह देखकर भगवान विष्णु विशाल कूर्म (कछुए) का रूप धारण कर समुद्र में मंदराचल के आधार बन गए। भगवान कूर्म की विशाल पीठ पर मंदराचल तेजी से घुमने लगा और इस प्रकार समुद्र मंथन का संपन्न हुआ।

करिश्माई शख्सियत बनना है... यह काम न चूकें
सनातन धर्म में व्रत-त्यौहार, उपवास पर धार्मिक विधि-विधानों के साथ दान की भी एक अहम पंरपरा मानी गई है। सरल शब्दों में तो दान का भाव देना ही माना जाता है। विद्या, धन, वस्त्र, अन्न, कन्या, गौ सहित अनेक तरह के दान धार्मिक महत्व के नजरिए से पुण्यदायी माने गए हैं। किंतु शास्त्रों की ही बातों पर गौर करें तो व्यावहारिक जीवन के लिए भी ऐसे दान के गहरे और गूढ़ फायदे हैं। डालते हैं इन पर एक नजर -

- दान से संचय करने की लालसा खत्म होती है। यही भाव मन से स्वार्थ भावना को मिटाकर परिवार और समाज में रहने वाले अन्य लोगों के लिए सेवा और समर्पण को प्रेरित करता है।

- दान से अहंकार या घमण्ड मिटने लग जाता है। दरअसल, जरूरतों की पूर्ति या स्वार्थ इंसान में अधिक से अधिक सुख-सुविधा या धन को बंटोरने की चाहत पैदा करता है। जिसके चलते वह दूसरों को कटु बोल और व्यवहार से आहत भी करता है, तो कभी हीन और कमतर बताकर उपेक्षित। किंतु दान में छुपा छोडऩे का भाव इस दोष को दूर रखता है।

- दान रिश्तों में मधुरता, भावना और संवेदना को बनाए रखता है। किसी खास अवसर जैसे त्यौहार, उत्सव पर किया गया दान छोटे-बड़े, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी के भाव को खत्म करता है। दान कैसा भी और किसी को भी किया गया हो, वह संबंध और भावनाओं को मजबूत बनाता है।

-दान से स्वभाव विनम्र बनता है। जब दान बिना किसी दिखावे, पाखण्ड या प्रतिष्ठा की चाहत के बिना किया जाता है, तो ऐसा दान व्यक्ति के स्वभाव में विनम्रता और शांति लाता है। क्योंकि ऐसा दान अहं की भावना से दूर होता है।

- दान परंपराओं और संस्कारों को सिंचते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी इंसान के साथ प्राणियों का भी समाज के लिए महत्व बताते हैं। गोदान, कन्यादान ऐसे ही दान के कुछ रूप है।

- दान भाव से चरित्र और आचरण उजला होता है। जिससे व्यक्तित्व में भी जादुई बदलाव इंसान का मान-सम्मान, रुतबा व हैसियत मजबूत बनाते हैं। जिसके लिए जरूरी नहीं कि वह शरीर या धन से सबल हो।

इस तरह दान मात्र धार्मिक परंपरा ही नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा सूत्र है जो इंसानी व्यक्तित्व, चरित्र का विकास करने के साथ-साथ कु टुंब, समाज, इंसान और कुदरत को एक-दूसरे से जोड़ता है।


बुद्ध पूर्णिमा 17 को, बुद्ध के उपदेशों को जीवन में उतारें
वैशाख मास की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन बुद्ध जयंती का पर्व भी मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 17 मई, मंगलवार को है। बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भगवान विष्णु के ही अवतार थे ऐसी मान्यता है परंतु पुराणों में वर्णित भगवान बुद्धदेव का प्राकट्य गया के समीप कीकट में हुआ बताया गया है और उनके पिता का नाम अजन बताया गया है। यह प्रसंग पुराण वर्णित बुद्धावतार का ही है।

उनके स्वरूप को लेकर भी हिन्दू तथा बौद्ध मतों में कुछ भिन्नता व कटुता है। बौद्ध मत के अनुसार महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में नेपाल की तराई में लुम्बिनी में हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। अपने शुरुआती दिनों में रोगी, बूढ़ा और मृत शरीर को देखकर उन्हें वितृष्णा हुई। राजपरिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने जीवन की सारी सुविधाओं का त्याग कर सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हेतु बोधगया में कठोर तप किया और बुद्ध कहलाए।

उनके समकालीन शक्तिशाली मगध साम्राज्य के शासक बिम्बिसार तथा अजातशत्रु ने बुद्ध के संघ का अनुसरण किया। बाद में सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को श्रीलंका, जापान, तिब्बत तथा चीन तक फैलाया। ज्ञान प्राप्ति पश्चात भगवान बुद्ध ने राजगीर, वैशाली, लौरिया तथा सारनाथ में अपना जीवन बिताया। उन्होने सारनाथ में अंतिम उपदेश देकर अपना शरीर त्याग दिया। आज बौद्ध धर्म दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।

आज महात्मा बुद्ध जयन्ती है। गौतम बुद्ध ने ध्यान और समाधी के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर वे अनमोल सूत्र दिये जो बेशकीमती कोहेनूर हीरे से भी असंख्य गुना ज्यादा कीमती हैं। तो आइये जाने वे सूत्र क्या हैं....

गौतम बुद्ध के निम्नलिखित चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया। 1. इस संसार में दु:ख है। 2. इस दु:ख का
एक कारण है। 3. यह कारण इच्छा या वासना है। 4. वासना को नष्ट करके इस दु:ख को दूर किया जा सकता है। आवागमन के बंधन से बचने तथा जीवन में आने वाले सारे दुखों को हमेशा के लिये समाप्त करने के लिए मनुष्य को अष्टांगिक मार्ग का अनुकरण करना चाहिए। इस अष्टांगिक मार्ग में निम्नलिखित 8 बातें सम्मिलित है:

1. सम्यक् दृष्टि- यानी अपना नजरिया सही रखना।

2. सम्यक् संकल्प- यानी श्रेष्ठ और सात्विक जीवन के लिये सदैव वचन बद्ध रहना।

3. सम्यक् वाक्- अर्थात् अपनी वाणी का सदुपयोग करते हुए सदैव सत्य और मंगलकारी वाणी ही बोलना।

4.सम्यक् कर्म-यानी सदैव श्रेष्ठ कर्म ही करना।

5.सम्यक्आजीव-अर्थात् हमेशा ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलकर ही अपनी रोजी-रोटी कमाना।

6.सम्यक् व्यायाम या यत्न- यानी जिंदगी को श्रेष्ठता के लक्ष्य की ले जाने के लिये हर संभव प्रयास करना।

7.सम्यक् स्मृति- यानी अपने जीवन के मूल उद्देश्य परम ज्ञान की प्राप्ति को सदैव याद रखना।

8.सम्यक् समाधि- अर्थात् शाश्वत व पवित्र लक्ष्य पर ही एकाग्र रहना।

महात्मा बुद्ध ने जीवन में सरलता एवं सादगी पर बल दिया। उनके अनुसार समाज में ऊंच-नीच की भावना का कोई महत्व नहीं है। उनका कहना था कि पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए किसी व्यक्ति का उच्च जाति में जन्म लेना आवश्यक नहीं है। इसीलिए उन्होंने बिना भेदभाव के उन सभी व्यक्तियों को बौद्ध संघ का सदस्य बनाया जो संघ में शामिल होना चाहते थे।

दबदबा बनाना है तो न बोलें ऐसी बातें
इंसान की जीभ ऐसा अंग है, जो मात्र खान-पान ही नहीं बल्कि जीवन में सफलता का स्वाद चखाने में भी अहम योगदान देती है। क्योंकि इसका संबंध वाणी और भाषा से है, जिससे इंसान के संस्कार भी उजागर होते हैं। बोल से जाहिर व्यक्तित्व भी दूसरों के मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालकर आपकी छबि को नकारात्मक या सकारात्मक बनाता है। यही कारण है कि धर्मशास्त्र हो या साहित्य सभी में वाणी, शब्द और भाषा की मिठास और मर्यादा का महत्व बताया गया है।

हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण भी व्यावहारिक जीवन में वाणी दोष से बचने के लिए खासतौर पर चार बातों से दूर रहने की सीख देता है। जिनको इंसान दैनिक जीवन में जाने-अनजाने लाभ की मानसिकता से अपना तो लेता है, किंतु उनके बुरे परिणाम अपयश और अपमान का कारण बन सकते हैं।

अगर आप भी कामयाब, सुखी और शांत जीवन की कामना रखते हैं तो घर, कुंटुब, कार्यक्षेत्र में यहां बताई जा रही चार तरह की बातें न करें। धार्मिक नजरिए से यह वाणी के पाप भी माने गए हैं -

- असंगत प्रलाप यानी बेतुकी बातें करना

- असत्य यानी झूठ बोलना

- अप्रिय यानी कटु, तीखा बोलना या ताने मारना

- चुगलखोरी यानी पीठ पीछे किसी के बारे में तोड़-मरोड़कर बातें बनाना या शिकायत करना।

ये 4 बुरे विचार .. बर्बाद कर देते हैं ज़िंदगी
व्यावहारिक जीवन में यह तय है कि हर इंसान किसी न किसी रूप में जाने-अनजाने पाप का भागी बनता है। जिसके पीछे कर्म, बोल और व्यवहार होते हैं। ऐसी स्थिति में सुखी व शांत वही रह सकता है जो अपनी कमजोरियां और दोषों के प्रति सावधान रहें। इसके बावजूद भी बुरे कर्म या बोल के दोषी बनने पर उसे मानकर यथासंभव प्रायश्चित द्वारा जीवन में सुख-चैन बरकरार रखा जा सकता है।

इसी सिलसिले में धर्मशास्त्रों में मानसिक शांति और सुख से ज़िंदगी बिताने के लिए ऐसी बुरी सोच से बचने की नसीहत दी गई है, जो इंसान को भावना, संवेदना, नैतिकता, ईमान और सत्य आचरण से दूर कर देती है। यह सोच आदतों में इस तरह शामिल हो जाती हैं कि उसे बार-बार दोहराकर भी गलती का एहसास नहीं होता। किंतु जब उसके बुरे परिणाम सामने आते हैं तो पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता।

हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण में ऐसे ही चार मानसिक या वैचारिक दोषों का जिक्र किया गया है, जो इंसान के लिए अपार दु:ख, मानसिक अशांति और कलह का कारण बनते हैं। पुराण के मुताबिक यह मानसिक महापाप है और ऐसी बुरी सोच से नरक यानी गहरा दु:ख भोगना पड़ता हैं। डालते हैं इन पर एक नजर -

- परायी स्त्री को पाने का संकल्प या चाहत करना।

- पराये धन का अपहरण यानी पाने या अधिकार करने की लालसा।

- मन में किसी भी विषय, व्यक्ति या उद्देश्य को लेकर बुरा या अनिष्ट चिन्तन।

- बुरे या न करने योग्य कामों में शामिल होने का कुविचार।

जान प्यारी है तो बदन को रखें इन कामों से दूर..
जान है तो जहान है, यह सूत्र सभी जानते और समझते हैं, किंतु बहुत कम लोग अलग-अलग कारणों से इसमें छुपे संदेश को अपनाकर स्वस्थ्य और सुखी जीवन गुजार पाते हैं। खासतौर पर आज के भागदौड़ भरे जीवन में जरूरतें और जिम्मेदारियों के चलते स्वास्थ्य अनदेखा हो जाता है, जो प्राण यानी जान के लिए बहुत अहम है।

दरअसल, जान यानी प्राण मात्र खान-पान पर ही निर्भर नहीं बल्कि ध्यान, योग, विचार, अध्ययन, चिंतन भी इसे ऊर्जा देते हैं। किंतु बाहरी तौर पर शरीर ही वह साधन है जो सारी क्रियाओं को अंजाम देता है। इसलिए शास्त्रों में सांसारिक दृष्टि से सुखों की प्राप्ति के लिए शारीरिक परिश्रम और पुरूषार्थ का भी महत्व बताया गया है। जिसके लिए न केवल आलस्य से दूर रहना बल्कि ऐसे शारीरिक कामों से दूर रहने की नसीहत दी गई है, जो जीवन के लिए संकट भी साबित हो सकते हैं।

हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण में खासतौर पर ऐसे चार कामों से शरीर को दूर रखने की सीख दी गई है। ये शारीरिक पाप कर्म भी माने गए हैं। जानते हैं कौन से हैं ये चार बुरे काम?..

न खाने योग्य आहार खाना - माना जाता है कि शुद्ध आहार से विचार और व्यवहार भी पवित्र बनते हैं। इसलिए संकेत यही है कि यथासंभव सादा, शाकाहार और ताजा भोजन ग्रहण करना अच्छी सेहत के लिए फायदेमंद होता है। इसके विपरीत दूषित या अपवित्र भोजन को ग्रहण करना स्वास्थ्य और जीवन के लिए घातक होता है।

प्राणियों की हिंसा - धर्मशास्त्रों में अहिंसा को सुखी जीवन का आधार माना गया है, जो संवेदना, दया और भावना को बरकरार रख प्राणियों का एक-दूसरे से जोड़ती है। विज्ञान के नजरिए से भी सुखी जीवन के लिए प्रकृति और प्राणियों का गहरा संबंध जरूरी है। किंतु इंसानी जीवन के हित पूर्ति के लिए प्राणियों को मारना प्राकृतिक असंतुलन पैदा कर मानव जीवन के लिए गहरा संकट बनता है।

बेकार के कामों में शामिल होना - आलस्य, समय काटने या अकर्मण्यता की हालात में निरर्थक, बुरे और सुखद नतीजे न देने वाले कार्य करना समय और ऊर्जा को नष्ट करता है। जिससे जीवन में दु:ख, असफलता और निराशा से दो-चार होना पड़ता है।

दूसरों का धन हड़पना - लोभ, लालसा, स्वार्थ या द्वेषता के चलते दूसरों के धन पर कब्जा करना या किसी भी रूप में धनहानि अंतत: गहरे दु:ख, अपयश यहां तक कि इससे पैदा शत्रुता के चलते जीवन के लिए खतरा बन सकता है।

जब देवी की फेंकी घातक गेंद कहर बनकर टूटी...
हिन्दू धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में शिव साकार और निराकार दोनों ही रूप में पूजनीय है। शिव को अनादि, अनंत भी माना गया है। पंचदेवों के रूप में शिव जहां कल्याणकारी देवता माने गए हैं तो वहीं त्रिदेव शक्तियों में वह दुष्ट वृत्तियों के विनाशक के रूप में भी पूजनीय है।

शास्त्रों में बताई शिवलिंग प्राकट्य के प्रसंग भी निराकार स्वरूप शिवलिंग की शक्तियों और उपासना का महत्व स्पष्ट करते हैं। शिव की शक्ति और स्वरूप की अपार महिमा है कि शिव ही नहीं उनके अनेक अवतार भी धर्म परंपराओं में संकटमोचक माने गए हैं। जिनमें हनुमान, भैरव लोक प्रसिद्ध है।

हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण में शिव के ऐसे ही अनेक गुणों, शक्तियों और रूपों के बारे में लिखा गया है। इनमें शिव के निराकार स्वरूप शिवलिंग पूजा समस्त सांसारिक कामनाओं को पूरा करने और दु:ख-संताप का अंत करने वाली बताई गई है। यही नहीं शिवलिंग के दर्शन मात्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला बताया गया है। शिवलिंग की ऐसी ही महिमा बताते हुए एक रोचक प्रसंग शिव पुराण में आया है। जिसमें शिव के एक अद्भुत शिवलिंग की स्थापना का रहस्य भी है। जानते हैं यह दिलचस्प प्रसंग और कौन-सा है वह शिवलिंग?..

एक बार दो असुरों विदल और उत्पल ने तप कर ब्रह्मदेव से यह वर पाया कि उनकी किसी पुरुष के हाथों मृत्यु न होगी। इसके बाद दोनों असुरों ने देवताओं पर आक्रमण कर बुरी तरह से हरा दिया। पराजित देवगणों ने ब्रह्मदेव के सामने अपना दु:ख प्रगट किया। तब ब्रह्मदेव ने सभी देवताओं को यह बताया कि शिवलीला से दोनों असुरो का देवी के हाथों अंत होगा।

इसी शिवलीला के चलते नारद ने दोनों दैत्यों के आगे पार्वती की सुंदरता का बखान किया। यह सुनकर दोनों उस स्थान पर पहुंचे जहां माता पार्वती गेंद से खेल रही थी। उनके रूप से मोहित दोनों दुष्ट दैत्य वेश बदलकर देवी के करीब पहुंचे। किंतु महादेव ने उनकी आंखों को देखकर यह जान लिया कि वह दैत्य हैं। शिव ने देवी की ओर संकेत किया।

देवी शिव का इशारा समझ गई और उन्होनें बिना देरी किए अपनी गेंद से दोनों राक्षसों पर घातक प्रहार किया। जिससे चोट खाकर विदल और उत्पल नामक दैत्य धराशायी होकर मृत्यु को प्राप्त हुए और उस गेंद ने शिवलिंग रूप ले लिया।

शिवपुराण के मुताबिक यही शिवलिंग गेंद यानी कन्दुक के नाम से कन्दुकेश्वर लिंग के रूप में काशी में स्थित है, जो सभी बुरी वृत्तियों का नाशक व समस्त सांसारिक सुख और मोक्ष देने वाला माना गया है।

6 गुण... जो हैं यश और सफलता का राज
आज का दौर प्रतियोगिता का युग माना जाता है। जाहिर है प्रतियोगिता किसी न किसी रूप में प्रतिद्वंदिता या विरोधी भाव को भी जन्म देने वाली होती है। जिसके चलते आगे बढऩे या निकलने के लिए कई अवसरों पर तमाम तरह के ऐसे हथकंडे या छोटे रास्ते भी अपनाए जाते हैं, जो नैतिक या मानवीय संबंधों के स्तर पर गलत होते हैं। इन तरीकों से कामयाबी मिलती भी है, लेकिन वह बरकरार रहेगी यह सुनिश्चित नहीं होता, बल्कि ऐसी सफलता मन को अशांत भी करती है।

क्या कोई ऐसा तरीका संभव है, जिनसे मिली सफलता का विरोधी भी सम्मान करे और स्वीकार करें, यही नहीं उन तरीकों से कामयाबी का सिलसिला चलता रहे और मन भी शांत और सुखी रहे?

इस जिज्ञासा का हल शास्त्रों में लिखी कुछ अनमोल बातों में मिलता है। जिनके मुताबिक कर्म ही सफलता का सबसे बड़ा सूत्र है। लेकिन सफलता पाने और उसको कायम रखने के लिए कर्म के साथ 6 गुण ऐसे सटीक उपाय है, जो किसी भी विपरीत स्थिति से उबार कर ससम्मान सफल बना देते हैं। डालते हैं इन छ: गुणों पर एक नजर और जानें उनका व्यावहारिक पहलू -

उद्योग - मेहनत यानी परिश्रम का भाव जिसके साथ इच्छा शक्ति व संकल्प शक्ति शामिल होती है, जो लक्ष्य तक सफलतापूर्वक पहुंचाती है।

साहस - निडर, निर्भय होकर कर्म करते हुए लक्ष्य को पाने का जज्बा। जिससे नकारात्मक बातों का कोई स्थान नहीं होता।

धैर्य - लक्ष्य, योजना के मुताबिक नतीजे न मिलने, असफलता या हालात विपरीत होने पर भी मानसिक, शारीरिक और व्यावहारिक रूप से लक्ष्य से न भटकना और शांत रहकर सफलता को सुनिश्चत करने के प्रयास जारी रखना।

बुद्धि - बुद्धि बल कामयाबी का अहम अंग है। जिससे तमाम दुविधाओं, असुविधाओं, परेशानियों और समस्याओं का हल आसान होता है। यहीं नहीं अधिक सक्षम और सबल प्रतियोगी भी पस्त हो सकता है।

शक्ति - लक्ष्य भेद और सफलता के लिए बेहद जरूरी है ताकतवर होना। यह शक्ति मानसिक, शारीरिक और ज्ञान के रूप में होती है। भावनात्मक, आध्यात्मिक शक्ति भी निर्णायक होती है।

पराक्रम - जुझारूपन या मारक यानी लड़ाकू क्षमता। जिसके पीछे भाव यही होता है कि कामयाबी पाना है तो किसी भी स्थिति में हार नहीं मानने का संकल्प और दृढ़ता बनाए रखी जाए।

सफलता की चाहत रखने वाले हर इंसान में कर्म के साथ ये छ: गुण जरूर होना चाहिए। ये कामयाबी के साथ अपार यश और सम्मान भी लाते हैं।

अगर पुरुष न भूले ये 3 बातें...तो अटूट रहे दोस्ती
मित्रता की अहमियत समझने के लिए अनेक पहलू हो सकते हैं, लेकिन मोटे तौर पर समझना चाहे तों मित्रता, प्रेम और विश्वास का ही दूसरा नाम है, जिसके दम पर कोई व्यक्ति दु:ख और डर का भी सामना आसानी से कर लेता है। यहां तक कि सच्चा मित्र उतना ही भरोसेमंद होता है जितना माता, पत्नी, भाई और पुत्र।

सच्ची मित्रता नि:स्वार्थ होती है। शास्त्रों में भी मित्रता के अनेक प्रसंग इस बात को साबित भी करते हैं। जिनमें कृष्ण-सुदामा की मित्रता हर काल में आदर्श है। किंतु आज के दौर में मित्रता की बात करें तो यह भी देखा जाता है कि किसी स्वार्थ या विशेष कारण से मित्रता बनती और बिगड़ती है। जिसके कारण प्रेम और भावना ऊपरी या सतही होती है। जिससे स्वार्थ के टकराव से दोस्ती में कटुता आने में वक्त नहीं लगता और नतीजे में मिलते हैं दु:ख और कलह।

अगर आप भी सच्ची मित्रता का सुख चाहते हैं या अलगाव, मतभेदों या गलतफहमियों के कारण मित्रता में दरार से बचना चाहते हैं तो खासतौर पर पुरुष शास्त्रों में बताए इन 3 व्यावहारिक दोषों से जरूर बचें। जानें क्या है ये दोष -

द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ खेलना - द्यूत या जुआ असल में लोभ और लालच का कारण है। यह लत रिश्तों की मर्यादा और भावना को भंग कर देता है। जिससे कटुता आना स्वाभाविक है।

आर्थिक लेने यानी धन का व्यवहार - संकेत यही है कि मित्र से धन का लेन-देन साफ हो। मदद के रूप में मित्र से पाए धन को किसी विवशता के अलावा, लौटाने में आनाकानी या किसी भागीदारी में धन के हिसाब-किताब में खोट मित्रता में विश्वास खण्डित कर शत्रुता भी पैदा कर सकती है।

मित्र की स्त्री पर अप्रत्यक्ष दृष्टि या दर्शन - मित्र की स्त्री के प्रति गलत सोच, नजर, भाव या व्यवहार धार्मिक दृष्टि से पाप कर्म है ही, यह व्यावहारिक रूप से भी विश्वास भंग करने वाले दोष हैं, जो मित्रता का सबसे बड़ा आधार है।

सावधान!!! अगर आप में भी है यह दोष..
इंसान का अच्छा स्वभाव, व्यवहार और कर्म ही अंतत: सफल और सुखी जीवन का कारण होते हैं। किंतु यह भी सत्य है कि हर व्यक्ति के विचार और स्वभाव में गुण-दोष होते हैं, जो व्यवहार और कर्म को नियत करते हैं। जहां गुण मान-प्रतिष्ठा और यश देते हैं, वहीं दोष से अपयश ही नहीं मिलता, बल्कि कुछ दोष तो गुणों को भी दफन कर देते हैं।

ईर्ष्या, डाह या जलन भी इंसान का ऐसा ही वैचारिक दोष है। ईर्ष्या इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है। जिससे इंसान अपनी ही बुरी सोच की आग में अंदर ही अंदर खुद ही जलकर बर्बाद हो सकता है। यह बुरी लत की तरह अंतत: बुरे नतीजों से पहचान, प्रतिष्ठा को नुकसान ही नहीं पहुंचाती, बल्कि अविश्वास का कारण बनती है।

यही कारण है कि हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में ईर्ष्या, दाह या जलन को बुराई बताकर इससे यथासंभव दूर रहने की सीख दी गई है। चूंकि आज के दौर का सुख-सुविधाओं की चकाचौंध भरा जीवन हर किसी के मन को डांवाडोल कर सत्य, दया, परोपकार जैसी धर्म की राह से भटका देता है। इस नजरिए से यहां बताई जा रही बात न केवल आज के दौर के लिए सार्थक है, बल्कि सावधान करने की चेतावनी भी है। जानते हैं कि इंसान को किन-किन विषयों को लेकर ईर्ष्या का भाव मन में नहीं लाना चाहिए -

लिखा गया है कि -

य ईर्षु: परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये।

सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तक:।।

सरल शब्दों में अर्थ है कि किसी के सुख, सौभाग्य, पराक्रम, धन, रूप, कुलीनता और मान-सम्मान को देखकर ईष्र्या करने का दोष लाइलाज बीमारी है।

इसमें सुखी जीवन का सूत्र यही है कि दूसरों के सुखों को देखकर अपने प्राप्त सुखों को खोते रहना भी अभाव और दरिद्रता को खुला निमंत्रण है। इसलिए ईर्ष्या के बजाय अपने कर्म, काबिलियत और विचार शक्ति पर भरोसा रख सुखों को बंटोरते रहें।

आगे बढऩे का यह भी है एक लाजवाब तरीका..!
सामान्यत: शरीर को हानि न पहुंचाना ही अहिंसा का अर्थ समझा जाता है। जबकि धर्मशास्त्रों के नजरिए से अहिंसा शरीर की ही नहीं बल्कि मन, विचार और वाणी से भी होती है। यही कारण है कि दुनिया के सभी धर्म हर तरह की हिंसा को नकारते हैं। मानवीय जीवन के लिये अहिंसा उतनी ही अहम मानी गई है, जितना सत्य का पालन।

इस संबंध में व्यावहारिक नजरिए से खासतौर पर आज की युवा पीढ़ी की बात करें तो उनमें सफलता के लिए जोश व उत्साह देखा जाता है, जो उनको कामयाब भी बनाते हैं। किंतु अनेक युवा वाणी, विचार या व्यवहार में आक्रामकता यानी हिंसा को भी सफलता का सूत्र मानते हैं। जबकि ऐसे रास्ते अपनाना जीवन के लिए घातक भी हो सकते हैं। युवाओं में हिंसा का यह भाव अक्सर तब सामने आता है, जब बहुत कुछ जल्द पाने की लालसा हो, असफल हो जाए या संयम खो दें। इससे बचने का ही सटीक उपाय धर्म में अहिंसा का बताया गया है। अहिंसा जीवन में तरक्की के लिए किस तरह फायदेमंद हो सकती है, जानते हैं -

- अहिंसा की बात करने वाला अक्सर डरपोक या भीरू मान लिया जाता है। असल में अहिंसा आपको निर्भय करती है। क्योंकि वह बदले का भाव पैदा ही नहीं होने देती।

- परिवार में बोल, व्यवहार या विचारों में अहिंसा का भाव कलह को दूर करता है, जो मेलजोल और विश्वास बनाए रखता है। जिससे आप सकारात्मक ऊर्जा से भरे होते हैं।

- अहिंसा का भाव आपको मानसिक दोषों से दूर रखता है। मन अपने लक्ष्य के प्रति अधिक स्थिर और एकाग्र होता है।

- सामाजिक स्तर पर भी अहिंसा आपसी प्रेम, सौहार्द्र और भरोसा बढ़ाती है।

- अहिंसा आपको तनाव, बैचेनी और बेकार की उलझनों से बचाती है।

व्यावहारिक जीवन के नजरिए से अनेक लोगों को यह असंभव लगता है कि मन, वचन या कर्म की हिंसा से पूरी तरह से बचा जा सकता है। लेकिन दुनिया के धर्म इतिहास में देव अवतारों से लेकर महापुरुषों तक के प्रसंग साबित करते हैं अहिंसा से सफलता और सम्मान पाना संभव ही नहीं आसान भी है।


इसलिए शिव कहलाते हैं पशुपति
हिन्दू शैव ग्रंथों के मुताबिक भगवान शिव कल्याणकारी हैं। शिव लीला ही सृष्टि, रक्षा और विनाश करने वाली है। वह अनादि, अनन्त हैं यानी उनका न जन्म हुआ है, न अंत होता है। उनका स्वरूप साकार भी है और निराकार भी।

शिव को ऐसी शक्तियों और स्वरूप के कारण अनेक नामों से पुकारा और स्मरण किया जाता है। इन नामों में पशुपति भी प्रमुख है। शिव के इस नाम के पीछे का रहस्य शिव पुराण में बताया गया है। डालते हैं एक नजर -

शिव पुराण के मुताबिक भगवान ब्रह्मदेव से लेकर सभी सांसारिक जीव शिव के पशु हैं। इनके जीवन, पालन और नियंत्रण करने वाले भगवान शिव हैं। इन पशुओं के पति यानी स्वामी होने से ही शिव पशुपति हैं।

भगवान शिव ही इन पशुओं को माया और विषयों द्वारा बंधन में बांधते हैं। इनके द्वारा शिव ब्रह्मा सहित सभी जीवों को कर्म से जोड़ते हैं। पशुपति द्वारा ही बुद्धि से अहंकार से इन्द्रियां व पंचभूत बनते हैं, जिससे देह बनती हैं। जिसमें बुद्धि कर्तव्य और अहंकार अभिमान नियत करता है। साथ ही चित्त में चेतना, मन में संकल्प, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अपने विषय और कर्मेन्दियों द्वारा अपने नियत कर्म पशुपति की आज्ञा से ही संभव है।

पशुपति ही आराधना और भक्ति से प्रसन्न होकर ब्रह्म से लेकर कीट आदि पशु सभी को जन्म-मरण और सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त करते हैं।

शिव के आदेश से होते हैं ये काम..
शिव पुराण शिव के अद्भुत स्वरूप और शक्तियों को उजागर करता है। इसके मुताबिक शिव ही परब्रह्म हैं। उनके द्वारा ही सृष्टि की रचना, पालन और संहार होता है। यही कारण है कि शिव के आदेश का सभी देवता पालन करते हैं। ऐसी ही शक्तियों से शिव महादेव भी पुकारें जाते हैं।

शिव पुराण के मुताबिक शिव के आदेश से ही अलग-अलग देवता सृष्टि संचालन से जुड़े अलग-अलग कार्य करते हैं। यहां जानते हैं शिव आज्ञा से कौन-से देवता कौन सा कार्य करते हैं -

इन्द्र - देवताओं की रक्षा और राक्षसों का नाश।

वरुण देव - जल की रक्षा और दोषी प्राणियों को बंधन में बांधना।

कुबेर - धन-सम्पत्ति और ज्ञान देना।

शेष - पृथ्वी को धारण करना।

ब्रह्माजी - सृष्टि रचना।

विष्णु - अपनी तीन मूर्तियों द्वारा विश्व के पालन के साथ सृर्जन और संहार भी करते हैं।

सूर्यदेव - अपने तीन अंशों द्वारा जगत पालन, बारिश का आदेश व वर्षा कराना।

चन्द्रदेव - अनेक तरह की औषधियों को पोषित करना और जीवों को प्रसन्न करना।

इन प्रमुख देवताओं के अलावा अन्य देवता जैसे, आदित्य, अश्विनी कुमार, वसु, रुद्र, नागगण सहित मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियां, सागर, पर्वत, जंगल, वेद, मंत्र, ब्रह्माण्ड, भूत, वर्तमान, भविष्य सहित काल के अलग-अलग रूप जो सुने और नजर आते है शिव के आदेश से ही क्रिया करते हैं।

सूर्यदेव इन 12 रूपों में देते हैं अद्भुत शक्ति और ऊर्जा
सूर्य की महिमा बताने वाले हिन्दू धर्मग्रंथ भविष्यपुराण के मुताबिक सूर्यदेव ही सर्वशक्तिमान ईश्वर है। सूर्य से ही सृष्टि रचना हुई। आदित्य को ही पूरे जगत का आधार और सर्वव्यापक माना गया है। सूर्यदेव को आदित्य भी पुकारा जाता है।

माना गया है कि आदित्य के कारण ही सारे देवता और जगत की शक्ति व ऊर्जा संभव है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी सूर्यदेव को पूजते हैं। अग्रि में किया गया होम भी सूर्य को प्राप्त होता है। सूर्यदेव के कारण ही मिली बारिश और अन्न जगत में प्राण फूंकते हैं। सारी कालगणना का आधार भी सूर्य हैं।

सूर्य की अद्भुत शक्तियों और गुणों के बिना संसार के सारी क्रिया और व्यवहार का नाश हो जाता है। धार्मिक महत्व की दृष्टि से सूर्यनारायण अपनी ऐसी शक्तियों द्वारा 12 रूपों में जगत का कल्याण करते हैं। ये द्वादश यानी बारह आदित्य के रूप में भी जाने जाते हैं। हिन्दू पंचांग के बारह माहों में सूर्य के ये अलग-अलग 12 रूप अपनी ऊर्जा और शक्ति से जगत का पालन-पोषण करते हैं। जानते हैं सूर्य के कल्याणकारी बारह नाम और बारह आदित्य के माहवार नाम -

सूर्य के बारह नाम हैं - आदित्य, सविता, सूर्य, मिहिर, अर्क, प्रतापन, मार्तण्ड, भास्कर, भानु, चित्रभानु, दिवाकर और रवि। इसी तरह सूर्य के ये बारह रूप अलग-अलग माहों में उदय होते हैं।

चैत्र माह - विष्णु

वैशाख - अर्यमा

ज्येष्ठ - विवस्वान

आषाढ़ - अंशुमान

श्रावण - पर्जन्य

भाद्रपद - वरुण

आश्विन - इन्द्र

कार्तिक - धाता

मार्गशीर्ष - मित्र

पौष - पूषा

माघ - भग

फाल्गुन - त्वष्टा

जानें शनिदेव से जुड़ी कुछ खास बातें!
हिन्दू पंचांग के ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि पर शनिदेव का जन्म उत्सव मनाया जाता है, जो शनि जयंती के रूप में प्रसिद्ध है। इस दिन शनि भक्ति शनि ढैय्या, साढ़े साती, महादशा या कुण्डली में बने शनि के बुरे प्रभाव से मिले दु:ख, दारिद्र, कष्ट, संताप, संकट को दूर करने के लिए बहुत असरदार मानी गई है।

शास्त्रों के मुताबिक शनिदेव पीड़ादायक ही नहीं, बल्कि भाग्य विधाता भी है। यही नहीं शास्त्रों में बताए शनिदेव के परिवार के अन्य सदस्य भी हमारे सुख-दु:ख को नियत करते हैं। इसलिए शनि जयंती के ही अवसर पर हम यहां जानते हैं शनिदेव और उनके कुटुंब से जुड़ी कुछ खास बातें -

- शनि के पिता और माता सूर्यदेव और छाया है।

- शनि के भाई-बहन यमराज, यमुना और भद्रा है। यमराज मृत्युदेव, यमुना नदी को पवित्र व पापनाशिनी और भद्रा क्रूर स्वभाव की होकर विशेष काल और अवसरों पर अशुभ फल देने वाली बताई गई है।

- शनि शिव को अपना गुरु बनाया और तप द्वारा शिव को प्रसन्न कर शक्तिशाली बने।

- शनि का रंग कृष्ण या श्याम वर्ण सरल शब्दों में कहें तो काला माना गया है।

- शनि का जन्म क्षेत्र - सौराष्ट क्षेत्र में शिंगणापुर माना गया है।

- शनि का स्वभाव क्रूर किंतु गंभीर, तपस्वी, महात्यागी बताया गया है।

- शनि, कोणस्थ, पिप्पलाश्रय, सौरि, शनैश्चर, कृष्ण, रोद्रान्तक, मंद, पिंगल, बभ्रु नामों से भी जाने जाते हैं।

- शनि के जिन ग्रहों और देवताओं से मित्रता है, उनमें श्री हनुमान, भैरव, बुध और राहु प्रमुख है।

- ज्योतिष शास्त्रों के मुताबिक कुम्भ और मकर शनि की प्रिय राशियां है।

- शनि को भू-लोक का दण्डाधिकारी व रात का स्वामी भी माना गया है।

- शनि का शुभ प्रभाव अध्यात्म, राजनीति और कानून संबंधी विषयों में दक्ष बनाता है।

- शनि की प्रसन्नता के लिए काले रंग की वस्तुएं जैसे काला कपड़ा, तिल, उड़द, लोहे का दान या चढ़ावा शुभ होता है। वहीं गुड़, खट्टे पदार्थ या तेल भी शनि को प्रसन्न करता है।

- शनि की महादशा 19 वर्ष की होती है। शनि को अनुकूल करने के लिये नीलम रत्न धारण करना प्रभावी माना गया है।

- शनि के बुरे प्रभाव से डायबिटिज, गुर्दा रोग, त्वचा रोग, मानसिक रोग, कैंसर और वात रोग होते हैं। जिनसे राहत का उपाय शनि की वस्तुओं का दान है।

इन दस नामों से पूजे शनिदेव को
शनिदेव सभी को उसके बुरे कर्मों का दण्ड देते हैं। शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए कई स्तुतियां, मंत्र व स्तोत्र की रचना की गई है, जिनका स्मरण करने से शनि दोष कम होता है और शनिदेव प्रसन्न होते हैं। धर्म शास्त्रों में शनि के अनेक नाम बताए गए हैं। अगर इन नामों का नित्य जप किया जाए तो शनिदेव अपने भक्त की हर परेशानी दूर कर देते हैं। ये प्रमुख 10 नाम इस प्रकार हैं-

कोणस्थ पिंगलो बभ्रु: कृष्णो रौद्रोन्तको यम:।

सौरि: शनैश्चरो मंद: पिप्पलादेन संस्तुत:।।

अर्थात: 1- कोणस्थ, 2- पिंगल, 3- बभ्रु, 4- कृष्ण, 5- रौद्रान्तक, 6- यम, 7, सौरि, 8- शनैश्चर, 9- मंद व 10- पिप्पलाद। इन दस नामों से शनिदेव का स्मरण करने से सभी शनि दोष दूर हो जाते हैं।

ऐसी ताकत से शत्रु भी हो जाए पस्त..
सांसारिक जीवन में सामान्यत: ताकत का पैमाना शारीरिक, आर्थिक सबलता को मान लिया जाता है। जबकि धर्म की राह पर चलकर प्रेम, स्नेह, भलाई, सद्भाव और सभी के हित की भावना रखने वाले सज्जन, सद्गुणी इंसान भी कमजोर या कमतर मानकर उपेक्षित कर दिए जाते हैं। जबकि धर्मशास्त्रों की नजरिए से ऐसे लोग शारीरिक रूप से बलवान और धनवान लोगों से भी अधिक ताकतवर होते हैं। क्योंकि बुद्धि और वैचारिक शक्ति के बिना शरीर और धन की ताकत एक सीमा के बाद बेमानी हो जाती है।

हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत के मुताबिक ऐसे ही बुद्धिमान इंसानों के स्वभाव और चरित्र में ताकत का ऐसा सूत्र छिपा होता है, जिसे कमजोरी मान लिया जाता है, जबकि व्यावहारिक रूप से जीवन में उतारने पर वही गुण बलवान और कमजोर दोनों की ही सबसे बड़ी ताकत बन सकता है।

यह अद्भुत गुण है - क्षमाभाव। इस संबंध में महाभारत में लिखा गया है कि -

एक: क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपद्यते।

यदेनं क्षमया युक्तशक्तं मन्यते जन:।

सोस्य दोषो न मन्तव्य: क्षमा हि परमं बलम्।

क्षमा गुणो ह्यशक्तानां भूषणं क्षमा।।

सरल शब्दों में सार है कि क्षमा करने वाले इंसान को कमजोर माना जाता है। जबकि असल में यह इंसान का दोष नहीं बहुत बड़ी ताकत होती है। कमजोरी को ताकत बनाने के लिए क्षमा सबसे बड़ा गुण है। वहीं बलवान व्यक्ति का क्षमा भाव उसका सम्मान, यश और ताकत बढ़ा देता है।

दरअसल, क्षमा ही शांति का एकमात्र बेहतर तरीका है। जबकि क्षमाभाव का अभाव दूसरों को दोषी मानकर कलह और अशांति का कारण बन जाता है। यही कारण है कि क्षमा एक ऐसा उपाय भी माना गया है कि जिसके कारण विरोधी भी बिना किसी हिंसा के पस्त हो जाता है। यह ऐसे शस्त्र की भांति काम करता है जिसका वार भी अचूक होता है।

इसलिए हर इंसान को जीवन में शांति, सुख और सफलता के लिए इस गुण को अपनाने की हरसंभव कोशिश जरूर करना चाहिए।

चैन से सोना है तो जानें ये 5 बातें..
मानव शरीर ईश्वर की अद्भुत रचना माना जाता है। इस शरीर में जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले सारे बदलाव चमत्कार ही होते हैं। क्योंकि शरीर की ऊर्जा व इसमें अलग-अलग रूपों में पाई जाने वाली शक्ति असीम और अनंत मानी गई है। जिसको पहचानने और सही उपयोग करने पर इंसान के लिए कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। इसमें होने वाली सारी क्रियाएं प्रकृति और उसके नियमों के मुताबिक ढलने में सक्षम होती है।

मानव शरीर की ऐसी ही सबसे अहम क्रिया है - नींद, शयन या सोना। नींद शरीर के लिए उतनी ही जरूरी है, जितना भोजन या पानी। सुखी और खुशहाल जीवन गुजारने के लिए जरूरी यही होता है कि शरीर की इस क्रिया को कुदरत से तालमेल बैठाकर चला जाए। किंतु भागदौड़ भरे जीवन में कर्म, वचन और व्यवहार के दोष और असंतुलित जीवनशैली शयन क्रिया में खलल डालते हैं। इससे शरीर समस्या, दु:ख और रोग का घर बन जाता है।

हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में भी जीवन और व्यवहार से जुड़े ऐसे ही पांच कारण बताए गए हैं, जिससे इंसान सो नहीं पाता। अगर आप चैन की नींद सोना चाहते हैं तो इन कारणों को जानें और साधें अपने जीवन को -

महाभारत में लिखा गया है कि -

अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्।

हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागरा:।।

सरल शब्दों में इस श्लोक का अर्थ समझें तो नीचे बताए पांच कारणों से इंसान रात में भी जागने का रोगी हो जाता है -

- पहला अपने से अधिक शक्तिशाली और मजबूत व्यक्ति से विरोध या मतभेद हो जाए तो टकराव की उधेड़बुन में मन-मस्तिष्क रात में भी बेचैन रहता है। इसके हल के लिए प्रेम, विश्वास और सहयोग का रास्ता चुनें।

- दूसरा अभावग्रस्त या सुख-साधनों से वंचित इंसान चिंता से जागता रहता है। संतोष और मेहनत का भाव उतारना इस समस्या से निजात दिलाता है।

- तीसरा जीवन जीने के सुख-साधन छिन जाने पर व्यक्ति सो नहीं पाता। इसके लिए धैर्यवान और आशावादी बनें।

- चौथा काम भाव यानी काम वासना से पीडि़त व्यक्ति। इससे बचने के लिए जीवन में संयम रखकर सोने से पहले अच्छे विचारों व देव स्मरण करें।

- पांचवा चोरी करने वाला। चोरी शब्द अन्य अर्थो में यह भी संकेत देता है कि आलस्य यानी कामचोरी या कर्महीनता भी सुकून भरी नींद छिनने वाली होती है। इसके लिये अकर्मण्यता और लालच से बचें।

यह है शनि की नजर से श्री गणेश का मस्तक कटने का रहस्य!
हिन्दू धर्म ग्रंथों के मुताबिक भगवान गणेश शिव पुत्र हैं। श्री गणेश के जन्म और गजमुख बनने से जुड़ी भी अलग-अलग पौराणिक कथाएं हैँ। गजमुख यानी हाथी का मस्तक लगने से ही गणेश का नाम गजानन भी हुआ। ऐसी ही पुराण कथा के मुताबिक जब भगवान कृष्ण ने गणेश रूप में शिव पुत्र बनकर जन्म लिया तो उनके दर्शन के लिए आए कृष्ण भक्त शनि की शापित नजर से गणेश का मस्तक कट गया।

आखिर शनि की दृष्टि से ही शिव पुत्र का मस्तक क्यों कटा? इससे जुड़ा रहस्य उजागर करती है एक पौराणिक कथा -

एक बार भगवान शिव ने माली और सुमाली को मारने से सूर्यदेव पर क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से वार किया। त्रिशूल की घातक मार से सूर्यदेव बेहोश हो कर धराशायी हो गए।

घोर तपस्वी महर्षि कश्यप को अपने पुत्र सूर्य को ऐसी स्थिति में देखकर बहुत शोक हुआ। सूर्य के आहत होने और महर्षि कश्यप के दु:ख से पूरा जगत अंधकार और शोक में डूब गया।

तब महातपस्वी महर्षि कश्यप ने भगवान शिव को यह शाप दिया कि जिस तरह उनके पुत्र की छाती त्रिशूल से भेदने के कारण मुझे दु:ख प्राप्त हुआ। उसी तरह तुमको भी पुत्र के मस्तक कटने से दु:ख और शोक प्राप्त होगा।

शापित होने पर शिव का आवेश भी शांत हुआ और उन्होंने ब्रह्मशक्ति से फिर से सूर्यदेव में प्राण फूंक दिये।

सूर्य के होश में आते ही पूरे जगत से अंधकार दूर हो गया और देव, प्राणी सभी सुखी हो गए। किंतु महर्षि कश्यप द्वारा दिए गए शाप के कारण जब श्रीकृष्ण स्वरूप गणेश के जन्म के समय सूर्यपुत्र शनि पहुंचे तो उनकी तीक्ष्ण दृष्टि से बाल गणेश का मस्तक कट गया। जिसके बाद शिव द्वारा श्री गणेश को हाथी का सिर लगाकर मंगलमूर्ति और प्रथम पूज्य होने का आशीर्वाद दिया।

ऐसा इंसान बन जाता है सबसे बड़ा धनी!
हिन्दू धर्म ग्रंथों में धन के अर्थ का दायरा सिर्फ रुपया-पैसा, संपत्ति, मूल्यवान धातुओं जैसे भौतिक रूप तक ही सीमित नहीं है। बल्कि सुखी जीवन नियत करने वाले तन, मन और कर्म से जुड़े अनेक विषय धन का ही रूप माने गए हैं। जिनका महत्व धन से भी ज्यादा है। मसलन स्वास्थ्य, चरित्र आदि। लेकिन धन और इसके अलग-अलग रूपों में सबसे बेहतर धन कौन-सा होता है? जो जीवन में हमेशा सुख का कारण बने। जानें इसी प्रश्र का जवाब -

हिन्दू धर्मशास्त्र में धन के इन रूपों में सबसे अच्छा धन - ज्ञान यानी नॉलेज माना गया है, जो हर स्थिति में इंसान के लिए संकटमोचक ही नहीं बल्कि अपार सुखों का कारण बनता है। ज्ञान ही ऐसा बल है जिसके द्वारा इंसान सुख हो या दु:ख हर हालात में अनुशासित, संतुलित, शांत व प्रसन्न रह सकता है। ऐसा व्यक्ति ही सबसे धनी भी माना गया है।

चूंकि इंसान और जानवर में बुद्धि और विवेक का ही फर्क होता है। जिनके द्वारा इंसान भूत, वर्तमान और भविष्य पर विचार कर सुखद नतीजे पा सकता है। इस बुद्धि कौशल और पवित्रता के लिए ज्ञान अहम है। जिसके द्वारा मन विकल्पों से भ्रमित व संशय से भरा नहीं होता और ज्ञान से मिली संकल्प शक्ति ही सुनिश्चित कामयाबी का सूत्र बनता है। दूसरे पहलू से ज्ञान पाना भी बुद्धि के सही उपयोग के बिना संभव नहीं।

सार यही है कि ज्ञान ही वह सर्वश्रेष्ठ धन है जिसके द्वारा उन सभी धनों को पाना मुमकीन होता है, जो व्यावहारिक जीवन में सुख, यश, सम्मान और कामयाबी देते हैं।

ऐसी भक्ति है सफल व सुखी जीवन का सरल उपाय
भक्ति इंसान के जीवन में असाधारण बदलाव व ऊर्जा लाने वाली होती है। भक्ति के मूल भाव समर्पण और सेवा को व्यावहारिक जीवन में उतारे तो शांति, सुख और सफलता सुनिश्चित हो जाती है। मसलन कर्म और रिश्तों में भी भक्ति के मूल भाव आ जाए तो इंसान मनचाही ऊंचाईयों को पा सकता है।

बहरहाल, बात करें आज के तेज रफ्तार के जीवन की तो अशांत और असफल जीवन का एक कारण देव स्मरण से दूरी है। जिससे निजात पाने का बेहतर तरीका भक्ति से जुडऩा हो सकता है। किंतु भौतिक सुखों की बढ़ती चकाचौंध में पैदा होने वाली इच्छाएं और सुखों की लालसा में इंसान देव स्मरण को अनेक अवसरों पर अहमियत नहीं देता। क्योंकि सुखों को पाने के लिए इंसान के मन, विचार, व्यवहार ही नहीं माहौल भी ऐसा होता है कि ईश्वर स्मरण का स्वाभाविक भाव पैदा हीं नहीं होता।

यहां जानते हैं आज के ऐसे ही माहौल में भक्ति और सांसारिक जीवन के बीच संतुलन लाने का सही तरीका। असल में दु:खों की जड़ इच्छाएं होती है। इच्छाओं के बढऩे के साथ दु:ख भी बढ़ते हैं। क्योंकि इच्छाओं के पूरा करने की चाहत मे कर्म और आचरण में दोष भी आते हैं। इसके अलावा एक इच्छा पूरा होने पर नई कामनाएं भी पैदा होती है। यही कारण है कि दु:ख को कम करने के लिए कामनाओं को कम करना जरूरी बताया गया है।

कामनाओं को कम करना संतोष और संयम से संभव है। सुखों की लालसा और विषयों से दूर होकर संतोष का भाव मन, वचन, कर्म में उतरते ही इंसान धर्म भाव और ईश्वर भक्ति से जुडऩे लगता है। जिसमें उसे सत्संग, अच्छे विचार, ज्ञान से जुडऩे का मौका मिलता है।

इस तरह भक्ति, सद्भावों से सुखों की लालसा का अंत कर कर्म, वचन और व्यवहार के दोष और विकारों को दूर कर देती है। भक्ति ऐसा रास्ता है, जिस पर चलकर अभावग्रस्त और दु:खी इंसान भी सुख और सफलता पा सकता है। वहीं अगर सुख-साधन संपन्न, प्रतिष्ठित व्यक्ति के जीवन में भक्ति नहीं होती तो अशांति और दु:ख भी उसके आस-पास मण्डराते हैं।

निरोगी जीवन और लंबी उम्र का राज हैं ये छोटी-छोटी बातें!
स्वस्थ तन होने पर मन अभावों में भी खुश रह सकता है, लेकिन रोगी देह अपार सुखों में भी दु:ख का कारण बन जाती है। यही कारण है कि शास्त्रों में स्वास्थ्य को धन से भी अधिक महत्व दिया गया है। क्योंकि खराब सेहत आपकी आर्थिक हालात बिगाड़ सकती है। इसलिए अच्छी सेहत के लिए सबसे जरूरी है सधी हुई दिनचर्या और जीवनशैली।

बस, यही दोष आज के भागते-दौड़ते जीवन का हिस्सा बनता जा रहा है। जिसने तमाम तरह के रोगों से जीवन को बेबस करने वाली बीमारियों को भी पैदा किया है। जिन पर काबू पाना हर इंसान के अपने हाथों में संभव है। किंतु वह जरूरतों और जिम्मेदारियों की विवशता से न चाहकर भी दिनचर्या अनुशासित नहीं रख पाता।

निरोगी जीवन की इसी चाहत को शास्त्रों में लिखी दिनचर्या से जुड़ी हुई कुछ अहम किंतु व्यावहारिक रूप से अपनाने में आसान बातों को ध्यान रख पूरा किया जा सकता है। यथासंभव इन बातों को अपनाने पर आप अनेक रोगों से बच सकते हैं -

लिखा गया है कि -

अत्यम्बुपानं कठिनाशनं च धातुक्षयो वेगविधारणं च।

दिवाशयो जागरणं च रात्रौ षड्भिन निवसन्ति रोगा:।।

सरल शब्दों में दिनचर्या में लापरवाही के छ: कारण आपको गंभीर रोगों का शिकार बना सकते हैं। ये छ: कारण है -

- अधिक मात्रा में पानी पीना

- भारी यानी गरिष्ठ भोजन करना

- धातु क्षीणता या वीर्य स्खलन

- मल-मूल का वेग रोकना

- दिन में सोना

- रात में जागना

शास्त्रों में बताई इन बातों को अपनाकर आप स्वस्थ्य रहकर लंबी आयु पा सकते हैं।

सफलता के शिखर पर पहुंचा देगीं ये 6 खूबियां
इंसान जब किसी काम का आरंभ करता है तो सफलता और नतीजों को लेकर मन-मस्तिष्क में किसी न किसी रूप में भय, संशय पैदा होते हैं। हर क्षेत्र से जुड़ा व्यक्ति इस मनोदशा से गुजरता है। विद्यार्थी, कारोबारी, कर्मचारी, धर्म-अध्यात्म से जुड़ा इंसान उतार-चढ़ाव, सफलता-असफलता के दौर का सामना करता ही है। क्या ऐसा संभव है जिससे काम का आगाज ही बेहतर न हो बल्कि सफलता में संदेह और बाधा की गुजांइश न रहे।

हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में जीवन से जुड़े ऐसे ही भय-संशय से बाहर निकलने के अहम सूत्र छुपे हैं। खासतौर पर काम में सफलता के ये सूत्र आज के दौर में भी सार्थक साबित होते हैं। जानते हैं काम और सफलता के लिए किन गुणों को अपनाए जाएं -

लिखा गया है कि -

उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो धृति: स्मृति:।

समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तु।।

जानते हैं इसका सरल अर्थ और व्यावहारिक पहलू। संदेश है कि कार्य को शुरू करने और उसमें तरक्की के लिए नीचे लिखे गुणों का होना बहुत जरूरी है -

उद्योग - किसी भी काम में सफलता के लिए जरूरी है पुरुषार्थ, परिश्रम के लिए मन पक्का कर लिया जाए। अनमने मन से कार्य करना संदेह पैदा करता है।

दक्षता - जिस कार्य को शुरू करें उससे संबंधित ज्ञान और अनुभव जरूर बंटोरे यानी कार्य-कुशलता के बिना सफलता की राह कठिन होती है।

धैर्य - काम के दौरान विचारों और भावनाओं पर काबू रखना अहम होता है। वरना किसी समय उत्तेजना या उकसावा आपको राह से भटका सकता है।

संयम - काम में हमेशा अच्छे ही नहीं बुरे नतीजे भी मिलते हैं। इसलिए मानसिक संयम रखकर अच्छे नतीजों में अति उत्साहित और बुरे नतीजों में निराश होकर योजना से भटके नहीं।

सावधानी - हर काम में प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा या प्रतिद्वंदिता का सामना जरूर करना होता है। इसलिए नुकसान से बचने के लिए हर कदम पर माहौल और अपने साथ दूसरों के गुण-दोषों पर नजर रखें।

स्मृति - काम से जुड़ी पिछली भूलों को याद रख फिर से न दोहराएं, अहम लक्ष्यों को याद रखें, साथ ही बुरे अनुभवों को विस्मृत करें।

सोच-विचार - भूत-वर्तमान-भविष्य को सामने रखते हुए पूरी समझबूझ से कार्य से जुड़े फैसले लें।

इस कमजोरी से बुद्धिमान भी बन जाता है बुद्धू!
यह बात सही है कि बुद्धि और ज्ञान इंसान की समझ को बल देते हैं। जिससे अच्छा-बुरा, लाभ-हानि या सही-गलत के बीच फर्क करना आसान होता है। सही निर्णय क्षमता से ही इंसान गलतियों से बचकर सफलतापूर्वक अपने तय मकसद को पा सकता है। वहीं दूसरी ओर बुद्धि बल या अज्ञानता के कारण समझबूझ की कमी से कोई भी इंसान कितना ही साधन संपन्न हो लक्ष्य को पाने में मात खा सकता है।

क्या आप जानते हैं मानवीय स्वभाव से जुड़े दोषों में से एक ऐसा भी दोष है, जिससे बुद्धिमान और नासमझ के बीच का फर्क खत्म हो जाता है? जी हां, यह दोष है इंद्रिय असंयम। अज्ञानतावश ज्ञानेंद्रियों की क्रियाओं जैसे रस, रूप, गंध, स्पर्श, श्रवण और कर्मेन्द्रियों पर संयम न रख पाना इतना अचंभित नहीं करता, किंतु ज्ञानी होने पर भी इन इंद्रियों को वश में न कर पाना बुद्धिदोष माना जाता है, जो किसी इंसान को अज्ञानी लोगों की कतार में शामिल कर देता है।

हिन्दू धर्म ग्रंथ धर्मशास्त्रों और श्रीमद्भवतगीता में भी इस बात की ओर इशारा और सावधान करने के लिए कुछ बाते लिखी गई है।

गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि -

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरषस्य विपश्र्चित:।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:।।

जिसका सरल शब्दों में संदेश यही है कि अस्थिर या चंचल स्वभाव वाली इन्द्रियां परिश्रमी बुद्धिमान इंसान का मन भी बलपूर्वक डांवाडोल कर देती है।

इसी तरह अन्य शास्त्रों में लिखा है कि -

बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति।

इसमें संदेश है कि इन्द्रियों पर बहुत ही काबू में रखें। क्योंकि शक्तिशाली इंद्रियों के आगे ज्ञानी व्यक्ति भी पस्त हो सकता है।

इन बातों का अर्थ यह कतई नहीं है कि इंसानी जीवन में संयम या अनुशासन व्यर्थ है। बल्कि यही सचेत करना है कि हर इंसान में यह कमजोरी होती है। जिसे दूर करने के लिए ही हमेशा अच्छे माहौल, अच्छे विचारों, अच्छे दृश्यों व अच्छे बोलों को व्यावहारिक जीवन में अपनाएं। जिससे अपने आप को हर स्थिति का सामना करने के लिए संयमी और ताकतवर बना सकें।

प्रकृति से ऐसा प्यार ही है सच्ची शिव भक्ति..
हिन्दू धार्मिक मान्यताओं में संपूर्ण प्रकृति शिव का ही स्वरूप मानी गई है। विशेष रूप से वेद भगवान शिव की विराटता, व्यापकता, शक्तियों और महिमा का रहस्य बताते हैं। जिसमें शिव को अनादि, अनंत, जगत की हर रचना का कारण, स्थिति और विनाशक मानकर स्तुति की गई है। वेदों में भी प्रकृति पूजा का ही महत्व व गुणगान है। इसलिए माना भी गया है कि वेद ही शिव है और शिव ही वेद है। इस तरह वेद प्रकृति प्रेम के रूप में शिव भक्ति का ज्ञान भी देते हैं।

वैसे शिव शब्द का अर्थ भी कल्याण ही है और व्यावहारिक नजरिए से विचार करें तो जगत के जीवों का कल्याण प्रकृति से जुड़े बिना संभव नहीं है। प्रकृति और जगत का मूल पंचतत्व जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी माने गए हैं। इन तत्वों में किसी भी रूप और स्तर पर आया दोष घातक होते हैं। यही कारण है कि शिव के बिना हर जीव शव के समान भी माना गया है। इसलिए मंगल की कामना से ही शिव की साकार और निराकार दोनों ही रूप में उपासना का महत्व भी है।

दूसरी ओर धर्मग्रंथों और पौराणिक मान्यताओं में बताए शिव के प्रसंगों, शक्ति, स्वरूप, भक्ति और उपासना के उपायों पर विचार करें तो यह साफ हो जाता है कि प्रकृति और शिव एक-दूसरे के ही पर्याय हैं। मसलन शिव और उनके परिवार के अन्य सदस्यों के वाहनों में चूहे, शेर, सर्प, मयूर, नंदी कमजोर से लेकर शक्तिशाली और खूबसूरत से लेकर जहरीले जीव प्राकृतिक शत्रुता के बाद भी शिव कृपा व कल्याण भाव से ही जगत को मेलजोल व प्रेम का सूत्र सिखाते हैं। इस कारण वे पूजनीय भी हैं। इसमें प्रकृति के सभी जीवों के प्रति प्रेम का संदेश भी है।

इसी तरह शिव का निवास कैलास पर्वत, गंगा को जटा में धारण करना, शिव उपासना में खासतौर पर वनस्पतियों, फूल, पत्तों, जल यहां तक कि नशीले या विषैले फल-फूलों का चढ़ावा प्रकृति से जुड़ी हर रचना पर्वत, सागर, वन, वृक्ष, जल, वायु आदि को सहेजने और प्रेम का संदेश है। यहीं नहीं शिव भक्ति का महत्व सावन माह के उस विशेष काल में है, जबकि वर्षा ऋतु में प्रकृति की सुंदरता चरम पर होती है।

सार यही है कि मात्र व्यक्तिगत कामनाओं की पूर्ति से शिव भक्ति के धार्मिक उपायों को अपना लेना ही सच्ची शिव उपासना नहीं, बल्कि शिव शब्द के ही मूल भाव कल्याण को जीवन में उतारकर नि:स्वार्थ बन प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा द्वारा प्रकृति और प्राणियों के बीच अटूट संबंध और संतुलन को कायम रखना ही सच्ची शिव भक्ति होगी।

अगर मन को घेरे रहती है बुरी सोच और निराशा तो..
मन का स्वभाव चंचल माना गया है। यही कारण है कि इच्छा के पूरी होने या न होने पर दूसरी इच्छा जाग जाती है। यही सिलसिला आगे चलता रहता है। लेकिन मन की यह चंचलता और अस्थिरता इंसानी स्वभाव और विचारों में दोष भी पैदा करती है।

मन की इसी चंचलता के कारण आए दोष को बढ़ाती है बाहरी वातावरण की नकारात्मक बातें। जिससे कई अवसरों पर इंसान बुरे और निराशाजनक विचारों का शिकार होता है। जिसके चलते वह हर बात में नकारात्मक पक्ष ही ढूंढने लगता है। एक अवस्था ऐसी भी आती है, जिसमें वह बुरी सोच से मिले बुरे नतीजों से बाहर निकलने के लिए जूझता है। इसलिए समय रहते अगर इस दोष पर नियंत्रण न किया जाए तो यह गंभीर निराशा और पतन का कारण बन सकता है।

जीवन में स्वभाववश या परिस्थितियों से पैदा हुई ऐसी ही समस्या का हल हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवतगीता में लिखे एक श्लोक से मिल सकता है। जानें क्या है यह बुरी और निराशाभरी सोच से बाहर आने का सूत्र -

लिखा गया है कि -

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

सरल शब्दों में समझें तो इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने संकेत दिया है कि बुरे और नकारात्मक विचारों को रोकने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि हर व्यक्ति को पक्के इरादों के साथ इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह हर हालात, बात और विचारों में अच्छे, शुभ और सकारात्मक पक्ष को ढूंढेगा और स्वीकार करेगा। जिसके लिए अभ्यास जरूरी है।

इस अभ्यास में दु:ख, कष्टों और बुरी यादों के साथ बुरे विचार, दृश्यों और बातों से दूर रहने का संकल्प रख मन को मजबूत बनाएं। शुभ और मंगल से जुड़ने का ऐसा अभ्यास ही मन को सकारात्मक ऊर्जा से भरकर हमेशा स्वस्थ्य और सबल बनाए रखेगा।

जानिए गणेश के इन मंगलकारी 12 नामों का अर्थ
हिन्दू धर्म में भगवान गणेश को शिव व पार्वती नंदन यानी पुत्र के रूप में पूजनीय है। वहीं पौराणिक मान्यताओं में भगवान गणेश पंच देवों के रूप में बताए गए परब्रह्म के अलग-अलग रूपों में एक हैं। वे पंचदेवों में प्रथम पूजनीय भी हैं। ये पंचदेव हैं - शक्ति, शिव, सूर्य, विष्णु और गणेश। इस तरह परब्रह्म स्वरूप भगवान गणेश भी आदिदेव माने गए हैं।

भगवान गणेश का यही आदि स्वरूप विघ्रहर्ता, मंगलकारी, देव-दानवों द्वारा भी पूजित और हर युग में अलग-अलग रूपों में जगत के संकटों का नाश करने वाला माना गया है। आदिदेव भगवान गणेश को इन अद्भुत गुणों और शक्तियों के कारण ही अनेक नाम से स्मरण किया जाता है।

श्री गणेश के इन मंगलकारी नामों में विशेष तौर पर यहां बताए जा रहे 12 नाम धार्मिक रस्मों, उपासना, पूजा-पाठ के साथ जीवन से जुड़े हर शुभ कार्य की शुरुआत में लेने पर सुनिश्चित सफलता देने वाले माने गए हैं। लेकिन अनेक धर्मावलंबी श्री गणेश के इन नामों के पीछे छुपे अर्थ से परिचित नहीं है। इसलिए यहां संक्षिप्त रूप में बताया जा रहा है इन नामों का शाब्दिक अर्थ। जिनको जानकर गणेश का स्मरण भाव भरा और आनंदमयी होकर शुभ फलदायी हो जाएगा।

भगवान गणेश के ये नाम और उनका अर्थ इस प्रकार है। पहले जानें इनका शास्त्रोक्त रूप -

सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलो गजकर्णक:।

लम्बोदरश्च विकटो विघ्रनाशो विनायक:।।

धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:।

यहां श्री गणेश के बताए 12 नामों में उनके स्वरूप, शक्ति और गुणों की महिमा हैं। जाने इनका सरल अर्थ -

सुमुख - मनोहर या सुंदर मुखमण्डल वाले

एकदन्त - एक दांत वाले

कपिल - कपिल रंग के, जो कपिला यानी गो से बना होकर छुपे अर्थों में गाय की तरह कल्याणकारी होने का संकेत है।

गजकर्ण - हाथी की तरह कान वाले

लम्बोदर - लंबे या बड़े पेट वाले

विकट - इसका शाब्दिक अर्थ होता है भयानक किंतु यहां पर विघ्रनाश के अर्थ में श्री गणेश को विकट या भयंकर माना गया है।

विघ्रनाशक - विघ्रनाश करने वाले।

विनायक - विनायक शब्द में वि यानि विघ्र और नायक यानी स्वामी। शास्त्रों के मुताबिक जगत की मर्यादाहीनता पर नियंत्रण के लिए श्री गणेश को विघ्रकर्ता की शक्तियों का स्वामी यानी विनायक भी माना गया है। जिनकी पूजा से ही विघ्रनाश होता है और वह विघ्रहर्ता भी कहलाते हैं।

धूम्रकेतु - धुएं के रंग की ध्वजाधारी देवता।

गणाध्यक्ष - गणों के स्वामी। इसके अनेक अर्थ हैं, मसलन गण जैसे देवता, नर, असुर, नाग या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के स्वामी। दूसरा, गण यानी समूह रूपी जगत के पालनकर्ता। तीसरा संसार में गण यानी गिन सकने वाले हर पदार्थ के स्वामी। चौथा शिवगणों के स्वामी आदि।

भालचन्द्र - मस्तक पर चन्द्रमा धारण करने वाले

गजानन - हाथी जैसे मुख वाले।

4 गणेश मूर्तियां..जिनकी पूजा से जमकर बरसती है लक्ष्मी!
बुद्धि का सदुपयोग ही जीवन में धन के साथ सुख-समृद्धि देने वाला होता है। शास्त्रों में भी धन को सुख पाने का अहम जरिया माना गया है। इस तरह बुद्धि और धन का संयोग ही किसी व्यक्ति या स्थान को खुशहाल और शक्तिशाली बना देता है। बुद्धि और धन से इंसान सुखी और शांत तो स्थान विशेष दरिद्रता से मुक्त रहता है।

इसलिए हिन्दू धर्मशास्त्रों में सुखी जीवन, दीर्घायु और धन सुख के लिए ही बुद्धिदाता श्री गणेश व मां लक्ष्मी की उपासना का महत्व है। इसी कड़ी में श्री गणेश भक्ति से ही लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए भगवान गणेश की 4 विशेष मूर्तियों की पूजा बहुत ही शुभ मानी गई है। इन खास पदार्थो की मूर्तियां अपार धनलाभ देने वाली मानी गई है।

यहां जानते हैं श्री गणेश की इन 4 मूर्तियों के बारे में -

हरिद्रा गणपति - हल्दी से बनी गणेश मूर्ति बहुत ही मंगलकारी मानी गई है। खासतौर पर इसे लक्ष्मी का रूप माना गया है। पुराणों के मुताबिक धनलक्ष्मी देने वाली सोने की गणेश प्रतिमा न होने पर उसकी जगह हल्दी से बनी गणेश प्रतिमा की पूजा का महत्व बताया गया है।

श्वेतार्क गणेश - सफेद आंकडे की जड़ में बनी गणेश की प्रतिमा अपार सुख-सौभाग्य देने वाली ही नहीं चमत्कारी रूप से मनचाहे फल देने वाली भी मानी गई है। रविवार या पुष्य नक्षत्र में मिली अंगूठे के आकार की इस गणेश मूर्ति की पूजा लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये बहुत ही शुभ है।

गोमय गणेश मूर्ति - हिन्दू धर्म परंपराओं में गो मातृशक्ति और पवित्र मानी गई है। यहां तक कि गाय के गोबर यानी गोमय में लक्ष्मी का वास माना गया है। यही कारण है कि गोमय से बनी गणेश मूर्ति की पूजा घर में अपार धन लाभ देने वाली मानी गई है।

काष्ठ या लकड़ी के गणेश - हिन्दू धर्म में अनेक पेड़-पौधे पूजनीय और पवित्र माने गए हैं। इसलिए प्राकृतिक रूप में लकड़ी धार्मिक दृष्टि से भी बहुत पवित्र मानी गई है। पवित्रता में ही लक्ष्मी का वास माना गया है। इसी कारण धार्मिक मान्यताओं में काष्ठ यानी लकड़ी से बने भगवान गणेश की मूर्ति को घर के बाहरी दरवाजे के ऊपरी हिस्से में स्थापित कर पूजने पर घर में मंगल होने के साथ ही श्री यानी लक्ष्मी का वास बना रहता है।

कटु सत्य! जो बताए धन कमाना है बहुत जरूरी..
परिवार और रिश्ते अटूट विश्वास, प्रेम और भावनाओं के बंधन होते हैं। किंतु अगर रिश्तों की यह डोर किसी भी कारण से टूटती है, तो मन को गंभीर रूप से आहत भी कर सकती है। यही कारण है हर इंसान घर-परिवार में मेलजोल, स्नेह, सहयोग व खुशहाली के लिए भरसक कोशिश करता है। इन उपायों में धनार्जन भी एक है।

आज के दौर में अनेक युवा ऐसे भी देखे जाते हैं, जो भरपूर सुख-सुविधाओं के बीच रहते धनार्जन के महत्व को गंभीरता से समझ नहीं पाते। वहीं दूसरी ओर आजीविका के अभाव में भी अनेक युवा टूटकर निराशा के कारण धर्नाजन को लेकर उदासीन होने लगते हैं।

शास्त्रों में धन कमाने और संग्रह को लेकर ही एक ऐसी बात की ओर इशारा किया गया जो व्यावहारिक रूप से कड़वा सच नजर आती है, किंतु हर इंसान को जीवन में धन के अभाव में इस बात का छोटे या बड़े रूप में सामना कर पड़ सकता है। इसलिए यह बात जानकर हर युवा सकारात्मक भाव से स्वयं के साथ परिवार के अच्छे भविष्य के लिए धनार्जन की हर संभव कोशिश करे।

लिखा गया है कि -

यावत् वित्तो पार्जन शक्त: तावत् निजपरिवारो रक्त:।

तदनु जरया जर्जरदेहे वार्तां कोपि न पृच्छति गेहे।।

इसका सरल शब्दों में अर्थ है कि इंसान में जब तक धन कमाने की क्षमता होती है, परिजनों का स्नेह और प्रेम बना रहता है। किंतु जब इंसान उम्रदराज या वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है, धन अर्जन में सशक्त न होने से अपनों से ही किसी न किसी रूप में उपेक्षित या तिरस्कृत होने लगता है।

हालांकि यह सच्चाई हर इंसान के जीवन से जुड़ी है। किंतु जीवन में कर्म व धन के सही प्रबंधन द्वारा इस इस कटु सत्य को मीठे अनुभवों में भी बदलना संभव है।

इन 24 देवशक्तियों का स्मरण हैं गायत्री उपासना
धर्मग्रंथों के मुताबिक गायत्री ही वह शक्ति है जो पूरी सृष्टि की रचना, स्थिति या पालन और संहार का कारण है। ज्ञान शक्ति रूप वेदों की जननी भी गायत्री शक्ति ही मानी गई है। वेदों में गायत्री शक्ति ही प्राण, आयु, शक्ति, तेज, कीर्ति और धन देने वाली मानी गई है। इस तरह शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक व भौतिक शक्तियों की प्राप्ति के लिए गायत्री उपासना सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।

यही कारण है कि जगतजननी और शक्तिस्वरुपा माता गायत्री की उपासना से मिलने वाला अनेक देव शक्तियों का शुभ प्रभाव अनिष्ट और अंमगल से रक्षा करता है। गायत्री उपासना के लिए गायत्री मंत्र बहुत ही चमत्कारी और शक्तिशाली माना गया है। शास्त्रों के मुताबिक इस मंत्र के 24 अक्षर 24 महाशक्तियों के प्रतीक होकर शक्ति बीज हैं। मार्कण्डेय पुराण में भी अलग-अलग देवताओं द्वारा अपने तेज से अवतरित शक्ति का वर्णन मिलता है। इन देवशक्तियों का स्मरण मात्र एक गायत्री के महामंत्र द्वारा संभव हो जाता है।

यही कारण है कि इसे महामन्त्र पुकारा जाता है, जो शरीर की अनेक शक्तियों को जाग्रत करता है, जिससे उपासक ऊर्जावान, दीर्घ और निरोगी जीवन प्राप्त करता है। अगर आपको अलग-अलग देवी देवताओं की उपासना की जानकारी नहीं है या किसी कारणवश हर रोज अलग-अलग देव उपासना में कठिनाई का सामना करत हैं, तो मात्र गायत्री मंत्र का स्मरण कर सभी देव उपासनों का शुभ फल पा सकते हँ। इसलिए यहां क्रम से जानें कि गायत्री मंत्र के 24 अक्षरो में किन-किन देवताओं का स्मरण हो जाता है -

गणेश, नृसिंह, विष्णु, शिव, कृष्ण, राधा, लक्ष्मी, अग्रि, इन्द्र, सरस्वती, दुर्गा, हनुमान, पृथ्वी, सूर्य, राम, सीता, चन्द्रमा, यम, ब्रह्मा, वरुण, नारायण, ह्यग्रीव, हंस, तुलसी।

ये देवशक्तियां स्वजाग्रत, आत्मिक और भौतिक शक्तियों से संपन्न मानी गई है। इसलिए इनकी उपासना इंसान पर भी वैसा ही शुभ प्रभाव डालती है।

ऐसी बेजोड़ सिद्धी व शक्तियां देती है मां गायत्री और गंगा
जीवन में पावनता और शक्ति का संयोग हमेशा सुखद होता है। इससे शरीर से लेकर सांसारिक स्तर पर व्यक्ति के साथ समाज भी सुखी होता है। जिस तरह स्वच्छता के बिना शरीर रोगी होकर शक्तिहीन हो जाता है। उसी तरह संस्कार और आचरण में गंदगी सांसारिक कलह का कारण बनती है। जिससे धर्म और संस्कार की जड़े कमजोर होती है। इसलिए शक्ति और पवित्रता एक-दूसरे के बिना निरर्थक मानी गई है।

हिन्दू धर्म में माता गायत्री और गंगा की उपासना, स्मरण और भक्ति बेजोड़ शक्ति और पावनता की कामना को पूरा करने का ही श्रेष्ठ और सरल मार्ग माना गया है। दोनों ही मातृशक्तियों की उपासना का विशेष दिन भी हिन्दू माह ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी (इस बार 11 जून) को गंगा और गायत्री जयंती के रूप में मनाया जाता है।

शास्त्रों में गायत्री मंत्र में समाई चौबीस शक्तियों में मंदाकिनी यानी गंगा भी एक मानी गई है। इसलिए अगर गंगा और गायत्री उपासना के सांसारिक और आध्यात्मिक फल पर नजर डालें तो अनेक समानता दिखाई देती हैं। जानते हैं मां गंगा और गायत्री शक्ति से जुड़ी कुछ विशेष बातें -

गायत्री शक्ति मन को पवित्र कर कलह, दु:खों और बुरी लतों से छुटकारा देती है। वहीं गंगा तन पवित्र करने के साथ पापमुक्त करने वाली है। गायत्री साधना जीवित प्राणी को भी तारने वाली मानी गई है। वहीं गंगा मृत आत्मा को भी मोक्ष प्रदान करने वाली मानी गई है।

जहां भगीरथ के घोर तप से गंगा स्वर्ग से जमीन पर अवतरित होकर संसार के लिए सुखदायी बनी। उसी तरह ब्रह्मदेव के प्रयासों से गायत्री शक्ति जगत के लिए कल्याणकारी बनी। विश्वमित्र द्वारा तप से पाई यही गायत्री महाशक्ति विष्णु अवतार श्री राम के माध्यम से जगत के लिए संकटमोचक बनी।

मां गायत्री के हाथों में गंगाजल भरे कमण्डल के ही दर्शन होते हैं। इसलिए गायत्री साधना के लिए गंगा तट का भी बहुत महत्व माना गया है। सार यही है कि गंगा स्नान से पाई पवित्रता और पाप नाश से ही उपासक में गायत्री की शक्ति का अवतरण होता है और उसका मन पावन और कलहमुक्त होकर ईश्वरीय शक्ति के अनुभव या साक्षात्कार की दशा में पहुंच जाता है। जिसमें उपासक दिव्य और चमत्कारिक व्यक्तित्व और सिद्धियों का स्वामी बन सकता है।

जोरदार सफलता के लिए ऐसे इंसान को बनाएं साथी
जीवन में सफलता की कवायद हो या बुरे वक्त से संघर्ष, समस्याओं से छुटकारा पाना हो या भावनात्मक सहयोग की जरूरत हो, हर स्थिति में इंसान की संगत बड़ी निर्णायक साबित होती है। अच्छी संगत इंसान को गलत दिशा में भटकने से बचाती है, वहीं बुरे लोगों के साथ से विचारों और व्यवहार में पैदा हुए दोष पतन का कारण बन जाते हैं।

अच्छी संगत किस तरह से जीवन के बुरे समय में सफलता, सहयोग और सुख लाती है? इस बात की अहमियत हिन्दू धर्मशास्त्र वाल्मीकी रामायण से अच्छी तरह समझी जा सकती है। असल में रामायण का हर प्रसंग जीवन को अनुशासित करने का बेहतरीन सूत्र है।

वाल्मीकी रामायण के ही एक प्रसंग के मुताबिक रावण द्वारा सीता के अपहरण के बाद श्री राम-लक्ष्मण द्वारा सीता की खोज के दौरान कबन्ध नामक राक्षस ने दोनों भाईयों को जो उपाय सुझाया वह व्यावहारिक जीवन में बुरे समय से पार पाने और सफलता के लिए भी प्रेरणादायी है। जानें कबन्ध ने श्री राम-लक्ष्मण को क्या सुझाया? -

वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि -

गच्छ शीघ्रमितो वीर सुग्रीवं तं महाबलम्।
वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाद्य राघव।।

इस श्लोक में कबन्ध द्वारा राम-लक्ष्मण से सीता की खोज में सफलता पाने के लिए तुरंत ही महाबली सुग्रीव के पास जाकर उनसे मित्रता का सुझाव दिया गया। क्योंकि सुग्रीव भी पराक्रमी, बुद्धिमान, निडर, कार्य कुशल, विनम्र और धैर्यवान थे और वैसी ही दशा से गुजर रहे थे।

इस श्लोक में छुपा सूत्र यही है कि व्यावहारिक जीवन में बुरे वक्त या आगे बढऩे के लिए गुणी व बलवान की संगत फायदेमंद साबित हो सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि स्वार्थ के वशीभूत हो मित्रता की जाए। बल्कि गुणी और बलवान की शक्ति बुरे वक्त से गुजर रहे इंसान की कमजोर हुई ताकत और गुणों में जान फूंक देती है। जिससे बड़ी से बड़ी समस्या और बाधाओं से निपटना आसान हो जाता है। ठीक श्री राम की सुग्रीव की सहायता से लंका विजय और सुग्रीव के राम की सहायता से बाली के अत्याचार से मुक्ति की तरह।

इसी सूत्र से भक्ति और अध्यात्म क्षेत्र में अपनाएं तो देव शक्तियों की साधना आपकी शक्ति भी जाग्रत कर देती है। ऐसी शक्ति से आप हर दु:ख और कष्टों को मात दे सकते हैं। रामायण का यह बेहतरीन सूत्र जीवन के हर क्षेत्र में भी अपनाया जा सकता है।

सुख और तरक्की के लिए विवेक का सही उपयोग कर नि:स्वार्थ भाव, विश्वास और आत्मसम्मान के साथ शक्ति संपन्न से हाथ मिलाना सूझबूझ भरा फैसला साबित हो सकता है।

इसलिए प्रदोष काल में बहुत शुभ है शिव आराधना
भगवान शिव की उपासना और व्रत के विशेष काल और दिन में प्रदोष तिथि का बहुत महत्व है। प्रदोष काल यानी वह समय विशेष जहां दिन और रात का मिलन होता है। जिसमें शिव पूजा का फल सभी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने वाला माना गया है। यही कारण है कि यह दिन, तिथि और व्रत प्रदोष के नाम से ही प्रसिद्ध है। प्रदोष व्रत हर हिन्दू माह के शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के तेरहवें दिन या त्रयोदशी तिथि के दिन रखा जाता है। कुछ मान्यताओं में द्वादशी एवं त्रयोदशी की तिथि को भी प्रदोष तिथि माना गया है।

इसी प्रदोष तिथि के बारे में कामनापूर्ति की पूजा पंरपराओं से परे क्या आप जानते हैं कि शिव आराधना के लिए प्रदोष काल का इतना महत्व क्यों है? यहां बताया जा रहा है इससे जुड़ा धार्मिक व व्यावहारिक पक्ष -

हिन्दू धर्मग्रंथों में भगवान शिव को तमोगुणी व विनाशक शक्तियों का स्वामी भी माना गया है। रात्रि भी तमोगुणी यानी तम या अंधकार भरी होती है। जिसमें तामसी या बुरी शक्तियां हावी मानी जाती हैं, जो सांसारिक जीवों के लिए अशुभ व पीड़ादायी मानी गई है। लोक भाषा में इन शक्तियों को ही भूत-पिशाच पुकारा जाता है, शास्त्रों में शिव को इन भूतगणों का ही स्वामी और भूतभावन बताया गया है। जिन पर शिव का पूरा नियंत्रण होता है। इसलिए प्रदोष काल में शिव की पूजा इन बुरी शक्तियों के प्रभाव से बचाने वाली होती है।

इस बात के व्यावहारिक पक्ष को समझें तो असल में दिन के वक्त सूर्य की ऊर्जा और प्रकाश से तन ऊर्जावान बना रहता है, रोग पैदा करने वाले जीव भी निष्क्रिय होते हैं। शरीर के स्वस्थ होने से मन व आत्मा में सत् यानी अच्छे विचारों के प्रवाह से बुरे या तामसी भावों का असर नहीं होता। शैव ग्रंथों में सूर्य को शिव का ही रूप माना गया है और शिव रूप वेद में भी सूर्य को जगत की आत्मा माना गया है। इस तरह सूर्य रूप शिव के प्रभाव से दिन में बुरी शक्तियां कमजोर हो जाती हैं।

वहीं दिन ढलते ही सत्वगुणी प्रकाश के जाने और तमोगुणी अंधकार के आने से तन, मन के भावों में बदलाव आता है। बुरे और तामसी भावों के हावी होने से मन, विचार और व्यवहार के दोष भयंकर कलह और संताप पैदा करते हैं। यही दोष पैशाचिक प्रवृत्ति माने जाते हैं। जिन पर प्रभावी और तुरंत नियंत्रण के लिए ही रात्रि के आरंभ में यानी प्रदोष काल में आसान उपायों से प्रसन्न होने वाले देवता और भूतों के स्वामी शिव यानी आशुतोष की पूजा बहुत ही शुभ और संकटनाशक मानी गई है।

इसी भाव और श्रद्धा से यह मान्यता भी प्रचलित है कि शिव रात्रि के स्वामी हैं और प्रदोष काल यानी शाम के वक्त शिव कल्याण भाव से भ्रमण पर निकलते हैं। यहीं नहीं पौराणिक मान्यता भी है कि ज्योर्तिलिंग का प्राकट्य भी अर्द्धरात्रि में माना गया है। संकेत यही है कि अशुभ और बुराई से बचना है तो शुभ और कल्याण भावों से जुड़ें।

इतनी इच्छाएं पूरी कर दे..सिर्फ एक शिव नाम!
शिव चरित्र अंनत, अपार, विराट और व्यापक है। शिव इस महिमा, गुण, शक्तियों के कारण अनगिनत नाम और स्वरूप में पूजनीय है। शिव भक्ति से जुड़ी धार्मिक आस्था और श्रद्धा में भी शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है।

भोलेनाथ भी एक ऐसा ही नाम है। इसके पीछे शिव स्वरूप की सरलता, सहजता नहीं बल्कि शिव उपासना के सरल और आसान उपायों से मिलने वाली शिव कृपा भी यह नाम सार्थक करती है। शिव कृपा का यह विश्वास ही हर शिव भक्त के लिए सुखों का भंडार खोल देता है। शास्त्रों के मुताबिक सांसारिक जीवन से जुड़ी ऐसी कोई कामना नहीं जो शिव उपासना से पूरी न हो।

शास्त्रों में लिखी बातें उजागर करती हैं कि शिव भक्ति में मात्र शिव नाम स्मरण ही सारे सांसारिक सुखों को देने वाला है। विशेष रूप से शास्त्रों में बताए शिव उपासना के विशेष दिनों, तिथि और काल को नहीं चूकना चाहिए। यहां शास्त्रों में लिखी शिव से की गई कामनापूर्ति की स्तुति से जानें कि एक शिव नाम कौन-कौन सी इच्छाओं को पूरा कर देता है?-

दु:स्वप्नदु:शकुन दुर्गतिदौर्मनस्य,

दुर्भिक्षदु‌र्व्यसन दुस्सहदुर्यशांसि।

उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्ति,

व्याधीश्चनाशयतुमे जगतातमीश:॥

इसका सरल अर्थ यही है कि -

संपूर्ण जगत के स्वामी भगवान शिव मेरे सभी बुरे सपनों, अपशकुन, दुर्गति, मन की बुरी भावनाएं, भूखमरी, बुरी लत, भय, चिंता और संताप, अशांति और उत्पात, ग्रह दोष और सारी बीमारियों से रक्षा करे। शिवस्तुति कर की गई यह कामनाएं जाहिर करती है कि शिव इन सभी सांसारिक दु:खों का नाश और सुख की कामनाओं को पूरा करते हैं।

चूहे नहीं शेर पर सवारी करते हैं इस रूप में गणेश!!!
भगवान गणेश मंगलमूर्ति माने गए हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों में भगवान गणेश को एक ही ईश्वर के पांच अलग-अलग रुपों यानी पंचदेवों में विघ्रहर्ता देवता माना गया है। इस तरह श्री गणेश भी अनादि, अजर परमात्मा का ही रूप माने गए हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में में भगवान शिव द्वारा भी गणेश उपासना के प्रसंग आए हैं।

श्री गणेश के परब्रह्म स्वरूप और महिमा को ही प्रमाणित करते हैं शास्त्रों में बताए अलग-अलग युगों में श्री गणेश के चार विघ्रनाशक अवतार। इनमें कृतयुग में विनायक, त्रेतायुग में मयूरेश्वर, द्वापर युग में गजानन और कलियुग में धूम्रकेतु नाम से गणेश पूजनीय माने गए हैं।

सामान्यत: हर धर्मावलंबी श्री गणेश के स्वरूप से जुड़ी ऐसी ही विशेष बातों में गणेश का वाहन मूषक या चूहा जानते और मानते हैं। किंतु ऊपर बताए अलग-अलग युगों के अवतारों में श्री गणेश के विनायक अवतार से जुड़ी रोचक बात यही है कि उनका वाहन चूहा नहीं बल्कि सिंह यानी शेर है।

श्री गणेश के सिंह पर विराजित इसी स्वरूप का वर्णन करते हुए ही शास्त्रों में लिखा गया है कि -

सिंहारूढो दशभुज: कृते नाम्रा विनायक:।

तेजोरूपी महाकाय: सर्वेषां वरदो वशी।।

जिसका सरल अर्थ है कि कृतयुग यानी सतयुग श्री गणेश का वाहन सिंह है, वे दशभुजाधारी, तेज कांतिमान, विशाल शरीर वाले सभी को अभय और वरदान देने वाले हैं।

इस तरह स्पष्ट है कि भगवान गणेश चूहे पर ही नहीं शेर पर भी सवारी करते हैं।

इसलिए हनुमान सुमिरन से होते हैं रोग और पीड़ा छूमंतर
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री हनुमान चालीसा की एक चौपाई है -

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥

श्री हनुमान चालीसा की यह चौपाई संकटमोचक श्री हनुमान और उनकी भक्ति के रोग और पीड़ा नाशक होने के करिश्माई फल की महिमा बताती है। धर्मग्रंथों में बताए श्री हनुमान के ऐसे दिव्य चरित्र, गुण और अतुलनीय शक्तियां ही युग-युगान्तर से धर्मावलंबियों के मन में श्री हनुमान भक्ति के लिए श्रद्धा, भक्ति और विश्वास जगाती है। यह भरोसा ही रोग और शोक दूर करने में भी निर्णायक होता है।

वहीं धार्मिक आस्था और भक्ति के साथ ही अगर व्यावहारिक रूप से इस बात पर विचार करें कि कैसे हनुमान भक्ति से स्वस्थ्य और पीड़ामुक्त जीवन मिलता है? तो इसका जवाब भी श्री हनुमान चरित्र और गुणों में मिल जाता है। जानते हैं यही रहस्य -

शास्त्रों के मुताबिक श्री हनुमान जितेन्द्रिय और प्रजापत्य ब्रह्मचारी है। श्री हनुमान का यह बेजोड़ गुण ही सांसारिक प्राणी के लिए हमेशा रोग और दु:ख से मुक्त रहने का श्रेष्ठ सूत्र माना गया है। इस दिव्य गुण के कारण ही श्री हनुमान भक्ति और उपासना के नियमों में पवित्रता, मर्यादा और संयम का पालन अहम माना गया है।

श्री हनुमान के इन गुणों और भक्ति के नियम किसी भी इंसान को इंद्रिय संयम के संकल्प से जोड़ते हैं। इंद्रिय संयम द्वारा इंसान बुरे संग, गलत खान-पान, कुविचार, बुरे व्यवहार के साथ बुरा बोलने, सुनने और देखने से दूर रहता है।

वहीं दूसरी ओर मात्र शरीर द्वारा ही नहीं बल्कि मन और विचारों के द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत सरल शब्दों में संयम के पालन से सद्भभाव, सद्गुणों व अच्छी प्रवृत्तियों के जीवन में उतरने से जीवनशैली व दिनचर्या अनुशासित होती है। निरोग रहने के लिए यही बातें महत्वपूर्ण होती है। जब इंसान तन और मन से स्वस्थ व दोष रहित होता है तो जाहिर है वह शारीरिक, मानसिक व व्यावहारिक जीवन के कष्टों से मुक्त रहता है।

यही कारण है निरोगी, सुखी और शांत जीवन के लिए हनुमान का स्मरण रख संयम और अनुशासन को जीवन में अपनाना बहुत ही शुभ है।

ये 8 बुराईयां पैदा करता है गुस्सा!
मानव स्वभाव में क्रोध विकार यानी दोष माना गया है। यह ऐसा गंभीर दोष है, जिसके रहते बुद्धि, ज्ञान और विवेक खो जाते हैं। नतीजतन इंसान मानसिक शांति तो खो ही देता है, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी अशांत और असंतुलित होने से व्यक्तिगत असफलता व हानि के साथ दूसरों की उपेक्षा, असहयोग से भी दो-चार होता है। क्रोध पर काबू करने का एक आसान उपाय मन को शांत और संतुलित रखने के अभ्यास से संभव है। आवेश या उत्तेजना को रोकने के लिए सहनशीलता बेहतर उपाय है।

शास्त्रों में भी क्रोध रूपी दोष को रोग की तरह माना गया है। जिस पर वक्त रहते नियंत्रण रखना न सीखा जाए तो यह अनेक ऐसे स्वाभाविक दोष पैदा कर देता है। जो इंसान की प्रतिष्ठा को धूमिल कर देते हैं। जिससे उबरना बेहद कठिन और संघर्षभरा भी हो सकता है।

अगर आप भी जीवन में यश, सम्मान, सुख, सहयोग और प्रेम चाहते है तो आवेश से दूर रहने के साथ ही हिन्दू धर्मग्रंथ वाल्मीकी रामायण में बताई क्रोध से पैदा इन आठ बुराईयों से बचें। जानें यह 8 दोष -

चुगली - जिस इंसान के प्रति क्रोध के कारण द्वेषभाव पैदा होता है। बदले के भाव से उसके बारे में दूसरों तक गलत रूप में बातों को पहुंचाना।

साहस - साहस हांलाकि गुण होता है, लेकिन क्रोध के कारण साहस नकारात्मक रूप में सामने आता है, जिसमें अहित भाव होता है।

द्रोह - क्रोध के कारण द्रोह या विरोधी भावना पैदा होती है।

ईर्ष्या - क्रोध से पैदा ईर्ष्या या डाह से दूसरों के गुण या शक्तियां भी बुरे लगते हैं।

दोषदर्शन - दूसरों की अच्छाईयां नजर न आकर बात, व्यवहार और विचार में दोष ही दिखाई देते हैं।

अर्थदूषण - किसी की बातों के गलत अर्थ निकालना, जिससे गंभीर मतभेद पैदा होते हैं।

वाणी की कठोरता - क्रोध से वाणी कठोर यानी कटु हो जाती है, जो रिश्तों और संबंधों के बिगाड़ का कारण है।

दण्ड की कठोरता - क्रोध से क्रूरता पैदा होती है। दया या करुणा का अभाव भावना और संवेदनाहीन बनाता है। ऐसी स्थिति दूसरों को कठोर दण्ड या सजा देने के लिये उकसाती है।

भूल से भी न बने इस पाप के भागी!
हर बुरा भाव पाप की जड़ है। चाहे वह भाव तन, मन, व्यवहार या विचार से जुड़ा हो। धर्मशास्त्रों में इंसानी प्रकृति और व्यवहार के आधार पर अनेक पाप कर्म बताए गए हैं। जिन पर विचार करें तो हर इंसान हर रोज कहीं न कहीं किसी रूप में पाप का भागी बनता है।

चूंकि साधारण इंसान ऊपरी तौर पर नजर आने वाली सही और गलत बातों या कामों से पाप-पुण्य का भेद समझता है। किंतु हित या लाभ के चलते अनेक अवसरों पर मन, विचार, भावों के स्तर पर किए पाप पर विचार नहीं करता।

इन पाप भावों से बचने के लिये जीवन में कठोर अनुशासन जरूरी होता है, जो सांसारिक जीवन का निर्वाह करते हुए कड़ी परीक्षा के समान है। यही कारण है कि शास्त्रों में ईश्वर स्मरण जाने-अनजाने हुए पापकर्मों या दोषों से छुटकारे का श्रेष्ठ उपाय माना गया है। क्योंकि भक्ति हमेशा सद्गुणों और सद्कर्मो से जोड़ दोषमुक्त करती है।

पापों कर्मों की इस कड़ी में यहां जिक्र कर रहे हैं उस पाप की जिससे बचने में हर इंसान की भलाई है। यहीं नहीं यह ऐसा पाप है जिससे इंसान व्यवहारिक कोशिशों से बच सकता है। यह पाप है - दरिद्रता या अभाव।

दरिद्रता मात्र धन की नहीं तन और विचारों की भी पाप मानी गई है। किंतु यहां जीवन के लिये धन के महत्व को समझते हुए धन के नजरिए से दरिद्रता पर विचार करें तो शास्त्रों में लिखा गया है कि -

दारिद्रयं पातकं लोके कस्तच्छंसितुमर्हति।

जिसका सरल अर्थ है कि दरिद्रता पाप है। कोई भी अभाव की प्रशंसा नहीं करता। दरअसल, अगर कोई इंसान धन की कमी से जूझता है तो उसका जिम्मेदार भी वही होता है। क्योंकि आलस्य या बुरे आचरण व बुरे कर्म से धन बर्बाद हो जाता है। शास्त्रों में भी लक्ष्मी का वास उसी स्थान या व्यक्ति के पास बताया गया है, जो हर तरह से पाप मुक्त हो।

यही कारण है कि दरिद्रता रूपी पाप से छुटकारे के लिए एक बेहतर सूत्र यही बताया गया है कि -

भव क्रियापरो नित्यम्।

यानी हमेशा काम करने में ही जुटे रहो। बेकार न बैठो। मेहनत, व्यवसाय, सेवा या जैसा भी काम कर सकना संभव हो पवित्र भाव से करें। इससे अभाव दूर होंगे यानी लक्ष्मी की प्रसन्नता स्वत: ही प्राप्त हो जाएगी।

ये है सुखी रहने का सबसे अच्छा व सरल सूत्र
जीवन में सुख पाने के लिए जब एक कमी को पूरा करते हैं तो दूसरा अभाव महसूस होने लगता है। यह सिलसिला ताउम्र चलता है। जिसके कारण ही सुख-सुविधाओं के बीच रहते हुए भी इंसान कमियों के बारे में सोचकर छोटे-बड़ें दु:खों से घिरा रहता है। यह स्थिति तब और गंभीर हो सकती है, जब दूसरों के सुखों के कारण अपने सुख कमतर महसूस होने लगे।

मानव को ऐसी ही पीड़ा से दूर रख लंबे और सुखी जीवन के लिए धर्मशास्त्रों में बहुत ही अच्छे और सरल सूत्र बताए गए हैं, जो छोटे-बड़े हर इंसान को दु:खों से दूरी बनाने में मदद करते हैं। इन सूत्रों को विचारों में उतारकर व्यवहार में लाया जाय तो इंसान हमेशा सुखी रह सकता है। जानते हैं यह सूत्र-

धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में बताया गया है कि -

संतुष्ट: सततम् जिसका सरल अर्थ मतलब है हमेशा संतुष्ट रहें।

इसी तरह दूसरे श्लोक के मुताबिक -

संतुष्टो येन केनचित् यानी जिस तरह से भी रहना पड़े संतोष के साथ रहें। हर कष्ट, कमी या विपरीत हालात में संतुष्ट रहें।

सार है कि संतोष ही सबसे बड़ा सुख है व असंतोष गहरा दु:ख। चूंकि दूसरों की तरक्की या सुख भी इंसान के दु:ख, असंतोष या ईर्ष्या का कारण होते हैं। इसलिए ऐसी प्रवृत्ति और स्वभाव से छुटकारा पाने का सबसे अच्छा उपाय संतोष ही है। संतोषी स्वभाव बनाने के लिए भी यह अभ्यास जरूरी है कि दूसरों की खुशियों और सुखों पर प्रसन्न हों। साथ ही किसी के दु:ख या अभाव में सहानुभूति व करुणा के भाव रख विचार करना भी स्वयं को मिले सुखों का महत्व महसूस कराता है और ईश्वर की कृपा भी।

संतोष और ईश्वर कृपा का यह भाव ही सुखी व प्रसन्न जीवन के साथ लंबी उम्र का कारण बनता है।

बुरे वक्त में ऐसे संभले..
जीवन में इंसान जो चाहता है, वह मिल जाए यह जरूरी नहीं। क्योंकि स्थान और समय के बदलाव के कारण इंसान को ऐसे हालात में भी रहना पड़ सकता है, जो कठिन या दु:खदायी हो। जिससे पूरी योजना या विचार बेमानी हो जाते हैं। यह समस्या किसी भी इंसान के साथ संभव है।

जीवन के ऐसे उतार-चढ़ाव भरे सफर में विपरीत हालात से बाहर आने और खुद को संभालने का बेहतर उपाय हिन्दू धर्मशास्त्र वाल्मीकी रामायण में पाया जा सकता है।

बाली द्वारा रामबाण लगने के बाद मृत्यु के पूर्व अपने पुत्र अंगद को दी गई शिक्षा व्यावहारिक जीवन के लिये भी बहुत कारगर साबित हो सकती है -

लिखा है कि -

देशकालौ भजस्वाद्य क्षममाण: प्रियाप्रिये।

सुखदु:खसह: काले सुग्रीववशगो भव।।

अर्थ है कि - देशकाल को समझो। कब, कहां और कैसा व्यवहार करना है, इस बारे में सही निर्णय लेकर आचरण करो। पसंद-नापसंद, सुख-दु:ख को सहन कर क्षमाभाव के साथ जीवन बिताओ और सुग्रीव के साथ रहो।

बस, यही सीख हर इंसान के लिए बुरा वक्त काटकर अच्छा समय लौटा सकती है। अच्छे-बुरे हालात में बेचैन हुए बिना पूरे धैर्य के साथ मन को बाधंकर मानसिक दृढ़ता के साथ जीएं।

अच्छे गुरु में होते हैं ये 3 गुण!
धर्म अच्छे सद्गुण और सद्कर्म को जीवन में अपनाने की सीख देता है। इस पर अगर गुरु का आशीर्वाद मिल जाए तो फिर कठिन से कठिन लक्ष्यों को पाना भी आसान हो जाता है। शास्त्रों में गुरु की महिमा और स्थान सर्वोपरि बताया गया है। किंतु शास्त्रों में ही कलियुग में पाप कर्मों का बोलबाला होगा, बताया गया है। आज के दौर में फैली व्यक्तिगत और सामाजिक अशांति और कलह इस बात को साबित भी करती है।

ऐसे वक्त में अच्छे गुरु से जुडऩा ही सबसे बड़ा सौभाग्य माना जाएगा। इसलिए अगर एक साधारण इंसान अगर धार्मिक या आध्यात्मिक गुरु की शरण लेकर जीवन में अशांति और सुख लाना चाहता है तो श्रद्धा के साथ ही धर्मग्रंथों में बताई गुरु चरित्र से जुड़ी कुछ खास बातों पर भी जरूर विचार करें।

वाल्मीकी रामायण में सुग्रीव द्वारा वानर दलों को सीता खोज के लिए दिए मार्गदर्शन के प्रसंग में श्रेष्ठ गुरु के गुणों की ओर संकेत मिलता है -

लिखा गया है -

वन्दितव्यास्तत: सिद्धास्तपसा वीतकल्मषा:।

प्रष्टव्या चापि सीताया: प्रवृत्तिर्विनान्वितै:।

अर्थ है निष्पाप, सिद्ध व तपस्वियों को नमन कर विनम्रता से सीता का पता पूछना। व्यावहारिक दृष्टि से इस बात में श्रेष्ठ गुरुओं की तीन विशेषताएं सामने आती है। पहली वह पापरहित हो, दूसरा स्थापित यानी कामयाब व अनुभवी हो, तीसरी तपस्वी यानी संकल्पित और संयमित हो। ऐसे गुरु के अधीन ही शिष्य भी लक्ष्य प्राप्ति का सारा ज्ञान पाकर और जिज्ञासा के समाधान द्वारा सफलताओं को पा सकता है। ठीक सीता की सफलतापूर्वक खोज और लंकाविजय की तरह।

भरनी है कामयाबी की लंबी उड़ान तो भूलें ऐसी बातें
बुरे समय की मार से मिले दु:ख मन को गहरे आहत करते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि समय ही इन दु:खों से निजात दे सकता है। किंतु इंसान अनेक बार किसी दु:ख में इतना डूब जाता है कि वह बीती बुरी यादों से बाहर नहीं आ पाने से व्यावहारिक जीवन में नुकसान उठाता है।

जीवन में ऐसे ठहराव से छुटकारा पाकर कामयाबी की ओर बढऩे के लिए वेद में बहुत ही अच्छा सूत्र बताया गया है। जिसको अगर गंभीरता पूर्वक मन-मस्तिष्क में बैठा लिया जाए तो आगे बढऩे की रुकावटें दूर हो जाती है।

वेद में लिखा गया है कि -

मा गतानामा दीधीथा:

सरल अर्थ है कि बीते हुए के लिए दु:ख करना छोड़ दें। क्योंकि सभी कुछ काल के वश में है। इसलिए जो होना है सुनिश्चत है, उसे रोकना संभव नहीं।

यही कारण है कि समय की गति को समझकर बीते दु:ख को भूलकर और आने वाले समय के लिये भी हर तरह से तैयार होकर पूरे मनोबल से आगे बढ़ा जाए तो बड़ी से बड़ी कामयाबी भी संभव है।

क्यों 'ॐ' से शुरू होते हैं मंत्र?
देव उपासना में तरह-तरह के मंत्र बोलें जाते हैं। लेकिन सभी मंत्रों में एक शुभ अक्षर समान रूप से बोला जाता है। वह है ॐ यानी प्रणव। वैदिक, पौराणिक या बीज मंत्रों की शुरुआत ऊँकार से होती है। असल में मंत्रों के आगे ॐ लगाने के पीछे का रहस्य धर्मशास्त्रों में मिलता है। डालते हैं इस पर एक नजर-

शास्त्रों के मुताबिक पूरी प्रकृति तीन गुणों से बनी है। ये तीन गुण है - रज, सत और तम। वहीं ॐ को एकाक्षर ब्रह्म माना गया है, जो पूरी प्रकृति की रचना, स्थिति और संहार का कारण है। इस तरह इन तीनों गुणों का ईश्वर ॐ है। चूंकि भगवान गणेश भी परब्रह्म का ही स्वरूप हैं। उनके नाम का एक अर्थ गणों के ईश ही नहीं गुणों का ईश भी है।

इस कारण ॐ को प्रणवाकार गणेश की मूर्ति भी माना गया है। श्री गणेश मंगलमूर्ति होकर प्रथम पूजनीय देवता भी हैं। इसलिए ॐ यानी प्रणव को श्री गणेश का प्रत्यक्ष रूप मानकर वेदमंत्रों के आगे विशेष रूप से लगाकर उच्चारण किया जाता है। जिसमें मंत्रों के आगे श्री गणेश की प्रतिष्ठा, ध्यान और नाम जप का भाव होता है, जो पूरे संसार के लिये बहुत ही मंगलकारी, शुभ और शांति देने वाला होता है।

ऐसे झुकने से बढ़ जाती है उम्र!
इंसान के जीवन में मान-सम्मान का महत्व प्राणों के बराबर ही माना गया है। जिस तरह प्राण चले जाने पर शरीर निष्क्रिय हो जाता है। उसी तरह अपमान होने या सम्मान छिन जाने पर जीवित इंसान भी प्राणहीन महसूस करता है। इसलिए उम्र, गुण, ज्ञान में बड़ों के सम्मान के साथ ही छोटों को स्नेह और विश्वास रूपी सम्मान देने से हिचकना नहीं चाहिए।

यही कारण है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में सुखी जीवन के लिये मात्र सम्मान बंटोरने के लिये ही कर्म, व्यवहार की सीख नहीं दी गई, बल्कि उससे भी अधिक महत्व सम्मान देने का बताया गया है।

इसी कड़ी में हिन्दू संस्कृति में बड़ों का सम्मान व सेवा का व्यवहार व संस्कार में बहुत महत्व बताया गया है। तमाम हिन्दू धर्मग्रंथ जैसे रामायण, महाभारत आदि में बड़ों के सम्मान को सर्वोपरि बताया गया है। जिनमें माता-पिता, गुरु, भाई और सभी बुजूर्गों के सम्मान के प्रसंगों में बड़ों से मिला आशीर्वाद संकटमोचक तक बताया गया है।

इसी संबंध में शास्त्रों में लिखी बात साफ करती है कि बड़ों के सम्मान से क्या लाभ हो सकते हैं -

लिखा गया है कि -

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

सरल अर्थ समझें तो बताया गया है कि जो व्यक्ति हर रोज बड़े-बुजूर्गों को सम्मान में प्रणाम, चरणस्पर्श कर सेवा करता है। उसकी उम्र, विद्या, यश और बल में बढ़ती जाती है।

असल में बड़ों के सम्मान से आयु, यश, बल और विद्या बढऩे के पीछे मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक कारण भी है। चूंकि सम्मान देते समय समय खुशी का भाव प्रकट होता है, जो देने और लेने वाले के साथ ही आस-पास के लोगों को भी प्रसन्नता देता है। आयु बढ़ाने में प्रसन्नता ही बहुत महत्वपूर्ण होती है। परिवार के नजरिए से सम्मान भाव आपसी प्रेम, विश्वास बढ़ाने वाला और कलह को दूर रखने वाला है।

वहीं सम्मान देना व्यक्ति का गुणी और संस्कारित होने का प्रमाण होने से दूसरे भी उसे सम्मान देते हैं। यही नहीं ऐसे व्यक्ति को गुणी और ज्ञानी लोगों का संग और आशीर्वाद प्राप्त होता है। अच्छे और गुणी लोगों का संग जीवन में बहुत बड़ी शक्ति होता है।

इस तरह बड़ों का सम्मान आयु, यश, बल और ज्ञान के रूप में बहुत ही सुख और लाभ देता है।

पुरुष को हमेशा खुश रखती हैं ये 3 बातें
जीवन में सुख बंटोरने के लिये तन, मन और धन से जुड़ी अनेक बातें अहम होती है। गुण, योग्यता, व्यवहार, स्वभाव, कर्म, व्यवहार, पैसा सुखों को नियत करते हैं। इनमें कमी या दोष इंसान के दु:खों का कारण बन सकते हैं। शास्त्रों में इंसान खासतौर पर पुरुष को दु:खों से दूर रखने के लिये ही ऐसे तीन सूत्र बताए गए हैं, जिनको कोई पुरुष व्यावहारिक जीवन में ध्यान रखकर अपनाए तो वह हमेशा सुख पाता है।

यहां जानते है कि पुरुषों के लिए वह तीन खास सूत्र कौन-से हैं। शास्त्रों में लिखा है कि -

उत्तमै: सह साङ्गत्यं पण्डितै: सह सत्कथाम्।

अलुब्धै: सह मित्रत्वं कुर्वाणो नावसीदति।

जानते हैं इस बात का सरल और व्यावहारिक अर्थ -

कहा गया है कि पुरुष 3 बातों के कारण कभी दु:खी नहीं होता। ये तीन बाते हैं -

पहली अच्छे स्वभाव वाले सज्जनों की संगति। दूसरी ज्ञानी, विद्वानों से सत्कथा यानी अच्छी बातें सुनना और तीसरी ऐसे व्यक्ति से मित्रता जो लोभी न हो।

सार यही है कि चूंकि संगति का प्रभाव ही अच्छा या बुरा बनाता है। इसलिए अगर कोई पुरुष अच्छे स्वभाव वाले व्यक्ति का संग करता है तो उसका स्वभाव, चरित्र और गुण भी उत्तम होते हैं। यही श्रेष्ठता जीवन में उसके लिये किसी भी वक्त और स्थान को अनुकूल बना देती है। इस तरह समय और स्थान के हिसाब से ढल जाना ही हमेशा सुख का कारण बनता है।

सरताज बना देती हैं ये 5 शक्तियां!
शक्ति आत्मविश्वास और ऊर्जा बढ़ाती है, जिनसे सफलता की ऊंचाईयों को छूना आसान हो जाता है। शक्ति की इसी अहमियत को जानकर हर इंसान शक्ति संपन्न बनने के प्रयास करता है। जिसके लिये या तो वह खुद अपनी शक्तियों के बूते या फिर किसी शक्ति संपन्न से जुड़कर सबल बनने की कवायद करता है।

शास्त्रों में व्यावहारिक जीवन में शक्ति के इसी महत्व को जानकर इंसान के लिये जरूरी शक्तियों के पांच रूप बताए गए हैं। जिनको पाने पर हर इंसान किसी भी लक्ष्य को पा सकता है। जानते हैं शक्ति के ये पांच रूप -

हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत के मुताबिक हर इंसान में पांच बल जीवन को सुखद बनाते हैं -

बाहुबल - शारीरिक ताकत यानी शरीर हष्टपुष्ट और स्वस्थ रखना। इसे कनिष्ठ बल भी कहा गया है।

राज्य बल - इसके तहत किसी मंत्री का मिलना या पहचान भी बल माना गया है। जिसे आधुनिक संदर्भ में समझें तो शासन में पहुंच या उससे जुड़े रुतबेदार व्यक्ति की पहचान या सहयोग भी इंसान की ताकत बन जाती है।

कुटुम्ब बल - प्रतिष्ठित कुल या कुटुंब का होना भी इंसान की शक्ति होती है। जिसके द्वारा वह मान-सम्मान और यश पाता है।

धन बल - इंसान के जीवन के लिये धन भी शक्ति है, जिसके बिना जरूरतों, जिम्मेदारियों को पूरा करना कठिन हो जाता है। किंतु धनवान होने पर इंसान के लिये यही काम आसान हो सकते हैं।

बुद्धि बल - यह बल सभी बलों में श्रेष्ठ और अहम माना गया है। बुद्धि के अभाव में शरीर, राज्य, कुटुंब या धन से सक्षमता भी निरर्थक हो जाती है। बुद्धि ही ऐसी ताकत है, जिससे हर कठिन हालात पर काबू पाया जा सकता है।

जानें, किस देवता से क्या मांगे?
हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं की संख्या 33 करोड़ मानी गई है। असल में इस बात के पीछे ईश्वर से जुड़ी वही धारणा, आस्था और श्रद्धा है, जिसके तहत प्रकृति के कण-कण में भगवान का वास माना जाता है।

शास्त्रों में बताए पांच प्रमुख देवता भी परब्रह्म माने जाकर अनंत, अनादी माने गए हैं। इस तरह देखा जाए तो ईश्वर अगणनीय यानी भगवान की गिनती संभव नहीं है। किंतु इस ईश्वर की ही अलग-अलग रूप और शक्तियां अलग-अलग देवताओं के रूप में पूजनीय है। सांसारिक जीवन से जुड़ी अनेक इच्छाओं को पूरा करने के लिये इन देवताओं को पूजा जाता है।

कामनापूर्ति के लिये की गई देव उपासना में किस देवता से क्या मांगना चाहिए? शास्त्रों में लिखी इन श्लोकों से साफ हो जाता है -

आरोग्यं भास्करादिच्छ्रयमिच्छेद्भहतानाशवान।

ईश्वराज्ज्ञानमन्विच्छेन्मोक्षमिच्छेज्जनार्दनात्।।

दुर्गादिभिस्तथा रक्षां भैरवाद्यैस्तु दुर्गमम्।

विद्यासारं सरस्वत्या लक्ष्म्या चैश्र्ववर्धनम्।।

पार्वत्या चैव सौभाग्यं शच्या कल्याणसंततिम्।

स्कन्दात् प्रजाभिवृद्धिं च सर्वं चैव कल्याणसंततिम्।।

सरल अर्थ है - सूर्य से स्वास्थ्य, देवीशक्तियों से सुरक्षा, शिव से विवेक, ज्ञान अग्रिदेव से सुख-समृद्धि, सरस्वती से कला व विद्या, जनार्दन से मुक्ति, लक्ष्मी से धन-ऐश्वर्य, भैरव से मुश्किलों से छुटकारा, माता पार्वती से सौभाग्य, इन्द और शची से सुख, कार्तिकेय यानी स्कन्द से संतान सुख और भगवान श्री गणेश से सभी सांसारिक सुखों की प्रार्थना करने से मनोवांछित फल मिलता है।

इस तरह कोई भी इंसान इच्छा विशेष के मुताबिक देव पूजा कर जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।

श्री गणेश के 'लंबोदर' नाम का है यह रहस्य!
भगवान श्री गणेश दिव्य स्वरूप और शक्तियों के स्वामी है। श्री गणेश की उपासना न केवल धार्मिक दृष्टि से शुभ फल देती है। बल्कि उनके स्वरूप और शक्तियों से जुड़ा हर विषय व्यावहारिक जीवन के लिये भी बहुत ही प्रेरणादायी है।

इसी कड़ी में श्री गणेश को उनके विशेष शारीरिक डील-डौल के कारण लम्बोदर नाम से भी पुकारा जाता है। जिसका सरल अर्थ है लम्बे उदर यानी पेट वाले। श्री गणेश के लंबे पेट होने के पीछे एक रोचक धार्मिक मान्यता यह भी है कि अपने माता-पिता भगवान शंकर और पार्वती से मिले वेद ज्ञान व संगीत, नृत्य और कलाओं को सीखने व अपनाने से श्री गणेश का उदर अनेक विद्याओं का भण्डार होने से लंबा हो गया।

वहीं व्यावहारिक नजरिए से श्री गणेश के लंबोदर नाम से जुड़े संदेशों को समझें तो श्री गणेश का लंबा पेट संकेत करता है कि जिस तरह पेट के कार्य पाचन द्वारा शरीर स्वस्थ्य व ऊर्जावान बनता है, उसी तरह जीवन को सुखद बनाना है तो व्यावहारिक जीवन में उठते-बैठते जाने-अनजाने लोगों से मिले कटु या अप्रिय बातों और व्यवहार को सहन करना यानी पचाना सीखें।

इसके विपरीत बुरी बातों और व्यवहार को याद रख घुटते रहना या प्रतिक्रिया में कटु बोल या व्यवहार आपके लिये अधिक दु:ख और संकट का कारण बन सकता है। चूंकि श्री गणेश विघ्रों के नाशक हैं, इसलिए श्री गणेश उपासना के वक्त लंबोदर नाम स्मरण कर जीवन से जुड़ी इस अच्छी सीख को भी जेहन में रखें।

ये 4 सुख देती है लक्ष्मी की प्रसन्नता!
पौराणिक कथा के मुताबिक महालक्ष्मी समुद्र मंथन से प्रकट हुई और भगवान विष्णु को अपना स्वामी बनाया। धार्मिक मान्यताओं में देवी लक्ष्मी को सुख, ऐश्वर्य, धन, वैभव, श्री की अधिष्ठात्री माना गया है।

वहीं भगवान विष्णु सत्व बल यानी शांति और सद्गुणी शक्तियों के स्वामी माने गए हैं। विष्णु-लक्ष्मी के योग को व्यावहारिक नजरिए से विचार करें तो संकेत यही मिलता है कि सद्गुणों और सद्कर्मों से ही सुखी और वैभवशाली जीवन संभव है। भगवान विष्णु और लक्ष्मी की उपासना का फल भी यही माना गया है।

इसी संबंध में विष्णु प्रिया लक्ष्मी आराधना से मिलने वाले फलों को सांसारिक जीवन के नजरिये से जानें तो उन फलों को चार भागों में बांटा जा सकता है। ये चारों ही फल ही इंसानी जीवन के अहम अंग है। जानते हैं लक्ष्मी कृपा से मिलने वाले ये चार फल -

धन - जीवन के दायित्वों को निभाने और जरूरतों की पूर्ति के लिये धन बहुत अहम माना गया है। शास्त्रों में भी धन को सुख का साधन बताया गया है।

पद - जीवन में ऊंचाई पर पहुंचना हर इंसान की कामना होती है, लक्ष्मी उपासना ऐसे ही ऊंचे मुकाम पर पहुंचाने का काम करती है।

यश - जीवन में पद पाना ही काफी नहीं बल्कि उसके साथ यश, सम्मान और प्रतिष्ठा भी अहम होती है, जो लक्ष्मी पूजा से प्राप्त होती है।

भौतिक सुख-सुविधा - धन, पद और यश के साथ-साथ भौतिक सुविधाओं, वस्तुओं और पदार्थों के भोग की कामना भी हर इंसान करता है। यह इच्छा लक्ष्मी कृपा से पूरी होती है।

इस छोटे-से मंत्र में है श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का स्मरण
हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण के भक्त वत्सल यानी भक्तों पर स्नेह लुटाने वाले देव स्वरूप की महिमा बताई गई है, जो यह साबित करती है कि भगवान श्रीकृष्ण भक्ति भाव के भूखे हैं, न कि बिन भक्ति समर्पित तरह-तरह की सुंदर और मंहगी सामग्रियों के।

गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपह्रतमश्रामि प्रयतात्मन:।।

जिसका सरल शब्दों में अर्थ है मेरे लिये निस्वार्थ और प्रेम भाव से चढ़ाए गए फूल, फल और जल आदि को मैं बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेता हूं।

ऐसे ही भक्तप्रेमी भगवान के स्मरण के लिये शास्त्रों में एक मंत्र बताया गया है। इस मंत्र के पांच चरण भगवान कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन कराते हैं। इस मंत्र के स्मरण से पहले स्नान से पवित्र होकर श्रीकृष्ण को गंध, फूल चढ़ाकर माखन का भोग लगाएं और नीचे लिखा मंत्र जप कर धूप, दीप से आरती करें। इस मंत्र जप से कृष्ण पूजा और आरती अपार सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य और वैभव देने वाली होती है। जानते हैं यह मंत्र -

ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

शास्त्रों के मुताबिक इस मंत्र के पहले पद क्लीं से पृथ्वी, दूसरे पद कृष्णाय से जल, तीसरे पद गोविन्दाय से अग्रि, चौथे पद गोपीजनवल्लभाय से वायु और पांचवे पद स्वाहा से आकाश की रचना हुई। इस तरह यह श्रीकृष्ण के विराटस्वरूप का मंत्र रूप में स्मरण है।

काम का यह तरीका सुनिश्चित कर देता है सफलता!
काम ही सुख और सफलता का सबसे बेहतर उपाय है। किंतु ऐसा काम ही ही वास्तविक और लंबा सुख देता है, जो निस्वार्थ भाव से किया जाए, क्योंकि ऐसा करने से अपेक्षा और आसक्ति न होने से मन में कलह पैदा नहीं होता।

सुख और सफल जीवन में कर्म की इसी अहमियत को भगवान श्रीकृष्ण ने पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता में कर्मयोग के सिद्धांत के जरिए जगत को बताया। जिससे हर इंसान सांसारिक जीवन को दु:ख और परेशानियों से मुक्त रह गुजार सके।

भगवान श्रीकृष्ण के इसी कर्मयोग सिद्धांत को सरल शब्दों में जानते हैं। जिससे धर्म और अध्यात्म से दूर इंसान भी समझ और अपना सके।

असल में सांसारिक जीवन के नजरिए से युद्ध की तरह संघर्ष से भरे जीवन में हर इंसान के सामने ऐसी बुरी स्थितियां भी आती है, जब मानसिक दशा अर्जुन की तरह हो जाती है। जिससे अनेक मौकों पर हथियार डाल कर्म से परे भी हो जाता है।

ऐसी ही स्थिति में कर्मयोग औषधी का काम कर ऊर्जावान बनाता है। यह सिखाता है कि कर्म करो और फल की आसक्ति को छोड़ो। किंतु इस संबंध में तीन अलग-अलग स्वभाव के इंसान जिनको रज, तम और सत गुणी माना जाता है तीन तर्क देते हैं -

- तमोगुणी का विचार होता है जब फल या नतीजे छोडऩा ही है तो कर्म क्यों करें?

- रजोगुणी सोचता है काम कर उससे मिलने वाले फल का लाभ व हक मेरा हो।

- जबकि सतोगुणी सोचता है कि काम करें किंतु फल या परिणामों पर अपना अधिकार न समझें।

इन तीन विचारों में सत्वगुणी का नजरिया ही कर्म योग माना जाता है। क्योंकि ऐसे इंसान की सोच होती है कि वह ऐसा काम करें, जिसमें स्वार्थ पूर्ति या उनके नतीजों के लाभ पाने की आसक्ति या भाव न हो। यही नहीं इसी सोच में तमोगुणी के काम से बचने और रजोगुणी के फल पर अधिकार की सोच दूर रहती है। यही स्थिति निष्काम कर्म के लिये प्रेरित करती है। जिससे इंसान हर स्थिति में सुख और सफलता प्राप्त करता चला जाता है।

बिना मंदिर और मंत्र के ऐसे भी होती है भगवान की पूजा!!
अक्सर ईश्वर में विश्वास करने वाले देव पूजा के लिये देवालय जाते हैं। वहां देव उपासना के लिये मंत्र स्मरण या स्तुति पाठ भी करते हैं। अनेक लोग ऐसे हैं जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, जिनको नास्तिक भी कहा जाता है। वहीं ईश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोग व्यस्तता के चलते देव आराधना का समय निकाल नहीं पाते।

ईश्वर उपासना से दूर रहने वाले ऐसे लोगों के लिये ही यहां बताया जा रहा है एक ऐसा व्यावहारिक सूत्र जिसके लिये अगर आप देव उपासना के लिये मंदिर में न भी जा पाएं तो देव पूजा का सुख और फल पाया जा सकता है।

हिन्दू धर्मग्रंथ गीता में लिखा है कि -

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:।

जिसका सरल अर्थ यही है कि स्वाभाविक कामों के रूप में भगवान की उपासना करते हुए मनुष्य सिद्ध बन सकता है।

संकेत यही है कि व्यावहारिक जीवन में अहं या मोह के कारण इंसान अनेक गलतियां करते हुए गलत बातें और व्यवहार के द्वारा दोष का भागी ही नहीं बनता किंतु अच्छे संग और देव स्मरण से भी दूर होता है। इसलिए इंसान सुख पाने के लिये अगर देव स्मरण न भी करें, लेकिन अहंकार और मोह को छोड़कर अपने कर्तव्यों और कर्म को पूरा करता चले तो यह भी भगवान की पूजा ही मानी गई है।

सार यही है कि कर्म को ही पूजा मानकर चलने वाले व्यक्ति पर भगवान भी प्रसन्न रहते हैं।

3 अनमोल सुख! जो हैं सिर्फ भगवान की देन
इंसान जीवन में सुख-सुविधाओं से जीने के लिये अनेक वस्तुओं व सामग्रियों को सहेजने में बहुत ही ध्यान देता है। उसका मन उन चीजों से इतना गहरा जुड़ जाता है कि उनका थोड़ा नुकसान या हानि भी उसको बेचैन और परेशान कर देती है। किंतु सांसारिक जीवन से जुड़ी ऐसी बातों की कद्र नहीं करता, जो ईश्वर कृपा के बिना संभव नहीं। जिन पर अगर हर इंसान विचार करे तो दु:खों से हमेशा मुक्त रह सकता है।

शास्त्रों के मुताबिक इंसान को ईश्वर कृपा से ही तीन अनमोल बातें प्राप्त होती है। जिसका महत्व हर इंसान को समझना चाहिए। ये तीन दुर्लभ बाते हैं -

मनुष्य जन्म - शास्त्रों के मुताबिक भगवान की कृपा और पुण्य कर्म ही मनुष्य जन्म का कारण होते हैं। इसलिए सुखी जीवन के लिये अच्छे काम, सोच और व्यवहार को ही अपनाना चाहिए।

मोक्ष या जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति की चाह - इस कामना से इंसान बुरे कामों से दूर होकर संयम, नियम और अनुशासन से जीवन गुजारता है। यह इच्छा ईश्वर शक्ति और प्रेरणा से ही जागने वाली मानी गई है।

सद्गुरु का साथ - सांसारिक जीवन में गुरु कृपा बहुत ही निर्णायक सबित होती है। एक अच्छे गुरु की कृपा इंसान को जमीन से उठाकर ऊंचाईयों पर पहुंचा सकती है। जीवन के हर कठिन हालात गुरु कृपा और सीख से आसान बन जाते हैं।

मन को ऐसे बनाएं मजबूत
मन का स्वभाव चंचल माना गया है। किंतु यह मन ही मोह में बांधता है और मुक्ति भी करने वाला होता है। मन अगर साफ और स्थिर हो तो इंसान सफलता की ऊंचाईयों पर पहुंच जाता है, वहीं बुरे भाव से भरी, चंचल या अस्थिर मनोदशा व्यक्ति का पतन कर देती है।

व्यावहारिक जीवन में मन की अच्छी या बुरी स्थिति सुख-दु:ख का कारण बनती है। चूंकि हर इंसान सदा सुखी रहना चाहता है, किंतु भटकता मन इस कामना में बाधा बनता है। इसलिए सुख में बाधा बने मन को अगर चंचलता से बचाना है तो हिन्दू धर्मग्रंथ गीता में बताया यह सूत्र कारगर हो सकता है-

लिखा है कि -

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

सार है कि चंचल मन को रोकना कठिन है। किंतु अभ्यास और वैराग्य भाव से इस पर काबू पाया जा सकता है।

व्यावहारिक रूप से संकेत है कि अगर मन को स्थिर और शुद्ध बनाना है तो एक लक्ष्य साधें। अच्छे विचारों के साथ उस मकसद को पाने के लिये ध्यान लगाया जाए। इस दौरान विपरीत या नकारात्मक विचारों से मन कितना भी भटके सही सोच के साथ लक्ष्य पर ही ध्यान साधें रखें। बाकी सभी बुरी भावनाओं पर ध्यान ही न दिया जाए यानी वैराग्य भाव बना लें।

इस तरह एक स्थिति में मन की स्थिर हो जाएगा। मन को पवित्र बनाने के लिये बहुत जरूरी है कि लगातार अच्छे विचारों का मनन और चिंतन किया जाए। जिससे मन से बुरे विचार और भाव अपने आप ही निकल जाएंगे।

अपना लें श्री हनुमान की यह खास खूबी, खुल जाएगा भाग्य
श्री हनुमान सर्वगुण और शक्ति संपन्न देवता के रूप में पूजनीय हैं। पवनपुत्र होकर जन्म से ही श्री हनुमान को ऐसी अद्भुत शक्तियां और गुण प्राप्त हुए जो अतुलनीय और अद्भुत थे। श्री हनुमान बल, बुद्धि, ज्ञान, पराक्रम, संयम, पुरुषार्थ, भक्ति, सेवा, प्रेम जैसे अनेक गुण व शक्तियों में अग्रणी और विलक्षण माने जाते हैं।

ऐसे अद्भुत बल और शक्तियों के कारण ही श्री हनुमान चिरंजीवी होकर युग-युगान्तर से भक्तों के हृदय में विश्वास और ऊर्जा का संचार करते रहे हैं। रामायण, महाभारत में आए श्री हनुमान के प्रसंगों में से व्यावहारिक जीवन में सफलता और सौभाग्य पाने का कोई एक सूत्र ढूंढना चाहे तो यहां बताई जा रही श्री हनुमान चरित्र की यह खास बात आपके सभी भ्रम, संशय को दूर कर सीधे सफलता और सुख की राह पर ले जाएगी -

श्री हनुमान का यह खास गुण है कि उन्होनें हमेशा सार्थकता को ही चुना, निरर्थक में समय और शक्ति न गंवाई। यही कारण है श्री हनुमान ने हर काम सही समय पर ही संपन्न नहीं किया, बल्कि शक्ति का इस्तेमाल भी सही वक्त पर किया। जिससे वह हर बार सफल हुए।

हर इंसान को भी श्री हनुमान का यह गुण अपनाते हुए सही कामों में वक्त, मेहनत, बुद्धि और धन का इस्तेमाल करना चाहिए। यही नहीं हष्ट-पुष्ट शरीर और अच्छी सेहत के लिये पवित्रता को अपनाना चाहिए। ऐसा कर आप सफल ही नहीं होगें, बल्कि अपार यश-सम्मान, सौभाग्य के साथ लंबी उम्र को प्राप्त करेंगे।

बुद्धि को धार और बेजोड़ शक्तियां देता है गायत्री मंत्र
गायत्री वेदमाता है। धार्मिक दृष्टि से गायत्री उपासना सभी पापों का नाश करने वाली, आध्यात्मिक सुखों से लेकर भौतिक सुखों को देने वाली मानी गई है। गायत्री साधना में गायत्री मंत्र का महत्व है। इस मंत्र के चौबीस अक्षर न केवल 24 देवी-देवताओं के स्मरण के बीज हैं, बल्कि ये बीज अक्षर वेद, धर्मशास्त्र में बताए अद्भुत ज्ञान का आधार भी हैं।

वेदों में गायत्री मंत्र जप से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, ब्रह्मचर्य के रूप में मिलने वाले सात फल बताए गए हैं। असल में गायत्री मंत्र ईश्वर का चिंतन, ईश्वरीय भाव को अपनाने और बुद्धि की पवित्रता की प्रार्थना है।

यहां जानते हैं, इसी अद्भुत मंत्र का सरल अर्थ -

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो न: प्रचोदयात्।

ॐ - ईश्वर

भू: - प्राणस्वरूप

भुव: - दु:खनाशक

स्व: - सुख स्वरूप

तत् - उस

सवितु: - तेजस्वी

वरेण्यं - श्रेष्ठ

भर्ग: - पापनाशक

देवस्य - दिव्य

धीमहि - धारण करे

धियो - बुद्धि

यो - जो

न: - हमारी

प्रचोदयात् - प्रेरित करे

सभी को जोडऩे पर अर्थ है - उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।

शिवालय में जरूर करें गणेश और हनुमान दर्शन, क्योंकि..
शिव मंदिर में शिवलिंग ही नहीं उनके आस-पास शिव परिवार के साथ-साथ रुद्र अवतार श्री हनुमान भी विराजित होते हैं। शिव पुत्र श्री गणेश की भी विशेष रूप से पूजा की जाती है। चूंकि शिव का अर्थ ही कल्याण बताया गया है। इसलिए शिव मंदिर में श्री गणेश और श्री हनुमान की पूजा-उपासना के पीछे कल्याण भाव से भरा व्यावहारिक जीवन से जुड़ा संदेश है।

अगर आप भी सुख-सौभाग्य चाहते हैं तो शिवालय में श्रीगणेश-हनुमान के दर्शन से जुड़ी इन बातों को जरूर अपनाएं। दरअसल, श्री गणेश उपासना बुद्धि और सुख देने वाली मानी गई है। श्री गणेश के स्वरूप में भी अंकुश - धैर्य व संयम, कमल फूल, किताब और लड्डू व्यावहारिक जीवन के लिये क्रमश: पावनता, ज्ञान, बड़प्पन व व्यवहार-स्वभाव में मिठास का संदेश देते हैं।

इसी तरह शिवालय में श्री हनुमान दर्शन से सेवा और ब्रह्मचर्य यानी संयम की सीख लें। श्री हनुमान बुद्धि ही नहीं बल्कि धैर्य और संयम द्वारा पाए अद्भुत बल से ऊर्जावान और सक्रिय रहकर हर लक्ष्य को भेदने में सफल रहे।

सार देखें तो श्री गणेश-हनुमान दर्शन से बुद्धि, बल के सदुपयोग और संयम की सीख मिलती है। जिस पर चलकर ही शिवमय होना यानी सुख-सौभाग्य रूपी कल्याण को प्राप्त होना संभव है।

चमत्कारी हैं शिव के ये नाम!
शिव ऐसे देवता है कि जिनकी भक्ति और पूजा साकार और निराकार दोनों रूप में होती है। दूसरें शब्दों में शिव मूर्त या सगुण और अमूर्त या निर्गुण रूप में पूजे जाते हैं।

शिव ऐसे स्वरूप, अलग-अलग गुण और शक्तियों के कारण अनेक नामों से प्रसिद्ध हैं। जानते हैं ये नाम और अद्भुत स्वरूप -

शिव का साकार रूप सदाशिव नाम से प्रसिद्ध है। इसी तरह शिव की पंचमूर्तियां - ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात से पूजनीय है, जो खासतौर पर पंचवक्त्र पूजा में पंचानन रूप का पूजन किया जाता है।

शास्त्रों में भगवान शिव की अष्टमूर्ति पूजा का भी महत्व बताया गया है। यह अष्टमूर्ति है - शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव जो क्रम से पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्र रूप में स्थित मूर्ति मानी गई है।

साम्ब-सदाशिव, अर्द्धनारीश्वर, महामृत्युञ्जय, पशुपति, उमा-महेश्वर, पञ्चवक्त्र, कृत्तिवासा, दक्षिणामूर्ति, योगीश्वर और महेश्वर नाम से भी शिव के अद्भुत और शक्ति संपन्न स्वरूप पूजनीय है।

रुद्र भगवान शिव का परब्रह्म स्वरूप है, जो सृष्टि रचना, पालन और संहार शक्ति के नियंत्रक माने गए हैं। रुद्र शक्ति के साथ शिव घोरा के नाम से भी प्रसिद्ध है। रुद्र रूप माया से परे ईश्वर का वास्तविक स्वरूप और शक्ति मानी गई है।

इन बातों के आगे धन की रंगत भी पड़ जाती है फ़ीकी!
धन इंसान के अनेक दोष या कमियां छुपा सकता है। विशेष तौर पर भौतिक सुख-सुविधाओं से भरे आज के दौर में धनवान होना व्यावहारिक जीवन में अनेक तरह से लाभदायक सिद्ध होता है। परंतु सच यह है कि धन का प्रभाव दूसरों से पहले पहले इंसान के स्वयं के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है। जिसके चलते इंसान के मनोभाव, व्यवहार और विचार में बदलाव आता है।

यह बदलाव सकारात्मक रूप से सुख, किंतु नकारात्मक रूप में दु:ख का कारण बन सकता है। इस तरह समझा जाए तो धन सुख, यश, सम्मान और ऊंचा कद तो दे सकता है, किंतु यह भी साफ है कि हर स्थिति में यह सुख का कारण नहीं होता।

यही कारण है कि शास्त्रों में सांसारिक जीवन को मात्र धन अर्जन के विचारों से न जीने के स्थान पर कुछ ऐसी बातों को मन, व्यवहार और कर्म से जोडऩे का महत्व बताया गया है, जिनसे हर हाल में इंसान को मान-सम्मान, सुख, प्रतिष्ठा, प्रेम और सहयोग प्राप्त होता है। इन बातों के लिए धनवान होना भी जरूरी नहीं बल्कि धन के अभाव में भी यह बातें खुशहाल बनाती है।

जानते हैं कौन-से हैं ये गुण जिसके आगे धन या धनवान का रुतबा भी बेदम साबित होता है। शास्त्रों के मुताबिक ये बातें या गुण देवीय संपत्ति हैं।

निडरता, पराक्रम, विवेक, धैर्य-संयम, ज्ञान, परोपकार, विनम्रता, प्रेम, दया, न्याय, परिश्रम, अहिंसा का भाव ऐसे देवीय गुण हैं, जिनसे मिलने वाले सुखों के आगे हर भौतिक सुख कमतर या बेमानी हो जातें हैं। इसलिए धन से अधिक इन गुणों को अर्जित करने का प्रयास जरूर करना चाहिए।

ऐसी लक्ष्मी से पुरुष उठाता है अमीरी का आनंद
धन, दौलत या पैसों का इंसान के जीवन से गहरा संबंध है। धर्म और व्यवहार दोनों नजरिए से धन इंसान की जरूरतों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये ही अहम नहीं है, बल्कि धन अर्जन के सकारात्मक पक्ष पर विचार करें तो यह इंसान को गुण, ज्ञान और पुरूषार्थ से जोड़ता है, जिससे इंसान का जीवन हर तरह के कलह और अशांति से दूर रह सकता है।

धर्मशास्त्रों में धन की इसी महिमा के कारण धन को लक्ष्मी का रूप बताया गया है। यही नहीं इंसान के जीवन में, खासतौर पर पुरुष के जीवन के लिये लक्ष्मी के एक ऐसे रूप का महत्व बताया गया है। जिसके जीवन में होने पर पुरुष न खत्म होने वाली अमीरी का आनंद पाता है।

जी हां, यह लक्ष्मी रूप है स्त्री। माता, बहन, पत्नी हर रूप में स्त्री, पुरुष के लिये सुख का कारण बनती है। शास्त्र और हिन्दू संस्कृति में स्त्री को साक्षात् लक्ष्मी माना गया है।

ऐसा मानने के पीछे बताए गए व्यावहारिक कारण भी यह साबित करते हैं। पैसा या धन बेजान और अस्थिर होता है, परंतु बुद्धिमान, सद्गुणी और सहयोगी स्त्री साक्षात और जीवित लक्ष्मी के रूप में पुरुष का सौभाग्य बन जाती है। हालांकि समय और काल के विपरीत होने पर स्त्री के नकारात्मक पक्ष सामने आ सकते हैं। किंतु सच यही है कि स्त्री के लिये हमेशा सम्मान, आदर और सहयोग का भाव रखने पर वह हमेशा शुभ और मंगल करने वाली मानी गई है।

यही कारण है कि स्त्री को लक्ष्मी का अवतार माना गया है। खासतौर पर पुरुष चाहे वह धनहीन ही क्यों न हो, जीवन में सद्गुणी, प्रेम और ममता से भरी समर्पित और सहयोगी स्त्री से मिले सुखों की अमीरी का आनंद धन या दौलत से अर्जित संपन्नता से भी अधिक उठाता है।

सिर्फ एक सूत्र! जो बना देगा विद्वान भी, धनवान भी...
इंसान के मन-मस्तिष्क में हर क्षण जल्द से जल्द आगे बढऩे, सुख पाने के साधन बंटोरने या आने वाले कल को सुरक्षित रखने जैसे तमाम विचारों की कवायद चलती रहती है। इस बात को सरल शब्दों में समझें तो हर व्यक्ति सुखी व सफल जीवन चाहता है, जो अशांति और दु:खों से मुक्त हो।

मगर इंसान की सुख की यह चाहत हमेशा सफल नहीं होती। क्योंकि समय का उतार-चढ़ाव ऐसा संभव नहीं होने देता। किंतु शास्त्रों में समय के साथ तालमेल बनाकर सुख-दु:ख दोनों ही स्थितियों में संतुलन बनाने के लिये कुछ ऐसे सूत्र बताए गए हैं। जिससे सुखों को पाने के लिये जरूरी गुण और योग्यताओं को पाना संभव हो जाता है।

शास्त्रों के मुताबिक तीन बातें इंसान के सुखों का कारण बनती हैं। पहला ज्ञान, दूसरा श्री या सुख-समृद्धि व ऐश्वर्य और तीसरा - मान-सम्मान। इन तीन बातों को हासिल करने के लिये ही एक ही सूत्र कारगर और असरदार माना गया है। जिसे कोई भी इंसान अपनाए तो वह ज्ञान, धन और और सम्मान का अधिकारी बन सकता है।

यह सूत्र है - तप। जिसको व्यावहारिक अर्थ में लें तो श्रम या मेहनत ही वह उपाय है, जो सफलता की ओर ले जाता है। क्योंकि अगर कोई इंसान आगे बढऩे के लिये मेहनत और परिश्रम के लिये कमर कस ले तो वह सच्चाई और ईमानदारी के भाव से भरा होता है। सरल शब्दों में कहें तो वह संकल्पित हो जाता है। बस यही दृढ संकल्प मनचाहे लक्ष्य तक पहुंचना आसान बना देता है।

इस तरह लक्ष्य प्राप्ति की कोशिश या सफलता इंसान को भरपूर ज्ञान, धन, ऐश्वर्य और मान-सम्मान दिलाती है। सरल भाषा में कहें तो मेहनत ही वह सूत्र है जो इंसान को विद्वान, धनवान और प्रतिष्ठित बना सकती है।

यह भी है सुनिश्चित सफलता का एक राज!
सफलता पाने के लिये अपनाए जाने वाले उपायों में देव स्मरण को भी शामिल किया जाए तो यह उपाय अन्य साधनों से भी अधिक कारगर साबित होता है। क्योंकि देव स्मरण और आस्था से सफलता पाने की कोशिशों के दौरान आत्मविश्वास और संकल्प भाव कमजोर नहीं होते। जबकि अन्य साधनों की थोड़ी ऊंच-नीच आपको गहराई से विचलित कर सकती है।

कामयाबी की बाधाओं को दूर करने वाले देवता के रूप में भगवान श्री गणेश जगत प्रसिद्ध है। मात्र उनकी उपासना ही मंगलकारी नहीं बल्कि उनके स्वरूप से जुड़े संदेश भी सफलता के सूत्र हैं। भगवान श्री गणेश का ऐसा ही एक स्वरूप भालचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध है।

भालचन्द्र का शाब्दिक अर्थ है भाल यानी मस्तक पर चंद्र धारण करने वाले। श्री गणेश के इस नाम में सफल जीवन का संदेश है। चूंकि शास्त्रों में चन्द्रमा को सभी जीवों के मन का नियंत्रक माना गया है। वहीं गणेश बुद्धि दाता हैं। मस्तक भी बुद्धि केन्द्र है। श्री गणेश ने मस्तक पर चन्द्र को धारण किया है। चन्द्र की प्रकृति शीतल व शांत होती है।

इस तरह संकेत है कि सफलता और जिम्मेदारियों को निभाने के लिये मस्तिष्क को शांत रख बुरी और नकारात्मक सोच से बचाया जाए। मानसिक धैर्य, संयम व सूझबूझ ही कामयाबी और दायित्वों की राह में आने वाले हर उतार-चढ़ाव में दक्षता के साथ आगे बढऩे में मददगार साबित होते हैं।

श्री गणेश उपासना के दौरान भालचन्द्र स्वरूप का ध्यान कर सुनिश्चित सफलता का यही सूत्र अपनाना चाहिए।

राज करना है तो समझें हनुमान की यह छोटी सी सीख..
इंसानी जीवन संघर्ष से भरा होता है। सफलतम हो या असफल इंसान, दोनों को अपने वजूद को बनाए रखने के लिये जद्दोजहद करना ही होती है। हां, इसका रूप अलग-अलग जरूर हो सकता है।

संघर्ष का यह सिलसिला परिवार को खुशहाल बनाने से लेकर कार्यक्षेत्र में आगे बढऩे के दौरान चलता ही रहता है। परिवार के मुखिया के रूप में जिम्मेदारियों को उठाना हो या कार्यक्षेत्र में ऊंचे पद पर बैठकर प्रबंधन का दायित्व पूरा करना हो, दोनों ही स्थितियों में प्रशासनिक कुशलता अहम होती है। जिसके लिए ऊपरी तौर पर तो सभी को साथ लेकर चलने का सूत्र बेहतर माना जाता है।

सभी के साथ समन्वय और संतुलन बनाने की यह बात मौखिक रूप से तो बड़ी आसान लगती है, किंतु व्यावहारिक रूप से उतनी ही कठिन भी होती है। इसी जटिल कार्य को आसान बनाने का सूत्र हिन्दू धर्मग्रंथ वाल्मीकी रामायण में श्री हनुमान द्वारा सुग्रीव को बताया गया। जिसे राजा या शासन करने वाला कोई भी व्यक्ति अपनाएं तो गृहस्थी या कार्यक्षेत्र में सफलता पा सकता है।

वाल्मीकी रामायण के मुताबिक श्रीराम-लक्ष्मण को देखकर सुग्रीव के मन में पैदा भय-संशय को दूर करने के लिये श्री हनुमान द्वारा यह बात कही गई-

बुद्धिविज्ञानसम्पन्न इङ्गितै: सर्वमाचर:।

नह्यबुद्धिं गतो राजा सर्वभूतानि शास्ति हि।।

सरल शब्दों में अर्थ यही है कि राजा बुद्धि और बल के बूते ही पूरी प्रजा पर सफलतापूर्वक शासन कर सकता है। जिसके लिये बहुत जरूरी है कि बुद्धि और विवेक के उपयोग से दूसरों के भाव, स्वभाव और व्यवहार को समझें और उसके मुताबिक निर्णय लेकर काम करें।

यही बात गृहस्थी और कार्यक्षेत्र में समान रूप से लागू होती है। घर में पारिवारिक सदस्यों के स्वभाव, गुणों, आदतों और कार्यक्षेत्र में अधीनस्थों के कार्य, योग्यता, प्रकृति, गुण, मनोभाव और व्यवहार की बुद्धि व निरपेक्ष भाव से परख कर सही कार्ययोजना द्वारा लक्ष्य और सफलता को हासिल करें और कुशल प्रबंधक बन अधीनस्थों के साथ स्वयं भी तरक्की की राह पर आगे बढें।

जानिए, मौत के बाद कैसा होता है आत्मा का सफर...
यह एक रहस्य ही है कि मौत के बाद की दुनिया कैसी है। शरीर छोडऩे के बाद आत्मा कहां जाती है और क्या इस दुनिया के अलावा भी कोई दुनिया है जहां इंसान को मृत्यु के बाद कर्मफल भोगने पड़ते हैं। किस्से कहानियों में नर्क की यातनाएं और स्वर्ग के सुखों के बारे में जो सुना है वह कितना सच है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा की यात्रा अनंत है और यह शरीर केवल इसके लिए एक साधन है। बिलकुल कपड़े की तरह। आत्मा जब एक शरीर छोड़ती है, तो फिर कहीं ओर वह दूसरा शरीर भी धारण करती है। ये बात भलीभांति सुनी और समझी हुई है लेकिन एक शरीर से दूसरे शरीर तक की यात्रा में आत्मा को किन-किन घटनाओं से गुजरना पड़ता है, यह सबसे अधिक रोमांच और जिज्ञासा का विषय है।

हिंदू धर्म ग्रंथों में आत्मा की अनंत यात्रा का विवरण कई तरह से मिलता है। भागवत पुराण, महाभारत, गरूड़ पुराण, केनोपनिषद, कठोपनिषद, विष्णु पुराण, हरिवशंपुराण, अग्रिपुराण जैसे ग्रंथों में इन बातों का बहुत जानकारी परक विवरण मिलता है।

मौत के क्षण : क्या होता है जब आत्मा शरीर को छोड़ती है
गरूड़ पुराण कहता है कि जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो उसे दो यमदूत लेने आते हैं। जैसे हमारे कर्म होते हैं उसी तरह वो हमें ले जाते हैं। अगर मरने वाला सज्जन है, पुण्यात्मा है तो उसके प्राण निकलने में कोई पीड़ा नहीं होती है लेकिन अगर वो दुराचारी या पापी हो तो उसे बहुत तरह से पीड़ा सहनी पड़ती है। पुण्यात्मा को सम्मान से और दुरात्मा को दंड देते हुए ले जाया जाता है। गरूड़ पुराण में यह उल्लेख भी मिलता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को यमदूत केवल 24 घंटों के लिए ही ले जाते हैं।

इन 24 घंटों में उसे पूरे जन्म की घटनाओं में ले जाया जाता है। उसे दिखाया जाता है कि उसने कितने पाप और कितने पुण्य किए हैं। इसके बाद आत्मा को फिर उसी घर में छोड़ दिया जाता है जहां उसने शरीर का त्याग किया था। इसके बाद 13 दिन के उत्तर कार्यों तक वह वहीं रहता है। 13 दिन बाद वह फिर यमलोक की यात्रा करता है।

आत्मा की गतियां
वेदों, गरूड़ पुराण और कुछ उपनिषदों के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की आठ तरह की दशा होती है, जिसे गति भी कहते हैं। इसे मूलत: दो भागों में बांटा जाता है पहला अगति और दूसरा गति। अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है। गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है। अगति के चार प्रकार हैं क्षिणोदर्क, भूमोदर्क, तृतीय अगति और चतुर्थ अगति।

क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है, भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है, तृतीय अगति में नीच या पशु जीवन और चतुर्थ गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है। वहीं गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं और जीव अपने कर्मों के अनुसार गति के चार लोकों ब्रह्मलोक, देवलोक, पितृ लोक और नर्क लोक में स्थान पाता है।

आत्मा का मार्ग
आत्मा की यात्रा का मार्ग पुराणों में आत्मा की यात्रा के तीन मार्ग माने गए हैं। जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्याग कर उत्तर कार्यों के बाद यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे तीन मार्ग मिलते हैं। उसके कर्मों के अनुसार उसे कोई एक मार्ग यात्रा के लिए दिया जाता है।

ये तीन मार्ग है अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए है। धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।

कितने तरह के होते हैं नर्क
मुख्य नरक 36 हैं। उनमें भी अवीचि, कुम्भीपाक और महारौरव ये तीन मुख्यतम हैं। ये तीनों नरक समस्त नरकों या नरक लोक के अध: मध्य और ऊध्र्व भाग में स्थित हैं। 36 नरकों में से एक-एक के चार-चार उप नरक हैं। इस प्रकार मुख्य नरकों की कुल संख्या 354140 है।

सीख लें 7 अंकों का यह जादू..! जीवनभर पाएंगे भरपूर सुख
व्यावहारिक जीवन में बुद्धिमान होने के बावजूद भी इंसान पशुवत व्यवहार करते देखा जाता है, किंतु पशुओं के स्वाभाविक खान-पान, दिनचर्या या जीवनशैली में बदलाव नहीं होता। यही कारण है कि बुद्धि को इंसान और पशु के बीच सबसे बड़ा फर्क भी माना जाता है। दरअसल, इस बात से यह भी साफ है कि बुद्धि का उपयोग ही अच्छे-बुरे कर्मों द्वारा इंसान के सुख-दु:ख नियत करता है।

बुद्धि ईश्वर की वह देन है, जो हर इंसान को प्राप्त होती है। किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक इस बुद्धि का पोषण ज्ञान के साथ अनुभव और व्यवहार द्वारा भी होता है। ज्ञान, पुण्य कर्म और विचार बुद्धि को धार देते हैं। वहीं ज्ञान का अभाव, बुरे या पाप कर्मो से बुद्धि का नाश होता है।

हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में सुखी जीवन के लिये ही बुद्धि के सही उपयोग से सुख की मंजिल तय करने के लिये ऐसा अंक गणित भी बताया गया है, जिसे सीखकर हर इंसान सांसारिक जीवन के संघर्ष में सफलता पा सकता है।

लिखा गया है कि -

एकया द्वे विनिनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिवशे कुरु।

पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखो भव।।

इस श्लोक में जीवन में कर्म, व्यवहार और नीति में बुद्धि के उपयोग द्वारा सुख बंटोरने के लिये 1 से लेकर 7 अलग-अलग सूत्रों को उजागर किया गया है। सरल शब्दों में जानते हैं यह अंक गणित -

एक यानी बुद्धि से दो यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय कर चार यानी साम, दाम, दण्ड, भेद द्वारा तीन यानी दुश्मन, दोस्त और तटस्थ को काबू में करें।

इनके साथ-साथ पांच यानी पांच इन्द्रियों के संयम द्वारा छ: यानी छ: नीतियों सन्धि- मेलजोल या मित्रता, विग्रह - संधि विच्छेद या मित्रता के रिश्ते न रखना, यान - सही मौके पर वार, आसन - विपरीत हालात में शांत रहना, द्वैधीभाव - ऊपर से मित्रता अंदर से शत्रुता का भाव और समाश्रय - सक्षम व सबल की पनाह लेना, समझें और जानें।

साथ ही सात यानी स्त्री, जूआ, मृगया यानी शिकार, नशा, कटु वचन, कठोर दण्ड और गलत तरीके से धन कमाने के बुरे गुण और कर्म को छोडऩा कठिन और विरोधी स्थितियों में किसी भी इंसान के लिये सुख का कारण बन जाते हैं।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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