भागवत में लिखा है, कलयुग आएगा तो ऐसे मिलेंगे संकेत...
यदुवंश के मृत व्यक्तियों का श्राद्ध अर्जुन ने विधिपूर्वक करवाया। भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवास स्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारिका डुबो दी।पिण्डदान के पश्चात स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आए। वहां सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया। हे परीक्षित्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद पर अभिषिक्त करके हिमालय की वीरयात्रा की।
परीक्षित ने शापित होने के कारण शुकदेवजी से जो कथा सुनी थी उसके नायक भगवान श्रीकृष्ण थे। नायक अपनी लीला समेट कर जा चुके हैं और परीक्षित के मन में अनेक छोटे-बड़े प्रश्न पुन: तैयार हो गए हैं। शुकदेवजी परीक्षित को समझा चुके हैं कि मैंने विस्तार से कृष्ण चरित्र सुनाया है और तुम जान गए होंगे कि धर्म क्या है? जीवन का आरंभ, मध्य और समापन कैसे होता है? इस प्रकार ग्यारहवें स्कंध का समापन होता है।
आइए, इसी के साथ भागवत की कथा अब बारहवें स्कंध में प्रवेश कर रही है। यहां कलयुग का वर्णन आएगा। शुकदेवजी ने जिस बारीकी से और विस्तार के साथ कलयुग का वर्णन किया है हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। अब जो चित्रण आएगा उससे हम अच्छी तरह से परिचित हैं, लेकिन हमें अब उससे सीखना है कि कलयुग की घटनाएं हमारे भीतर न जन्म लेने लगे। बाहर के दुनियादारी के जीवन में कलयुग का होना स्वाभाविक है। बारहवें स्कंध से हम यह सीखें कि हमारे भीतर कलयुग की स्थिति न बन जाए।
कलयुग तो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि भगवान जाएं और मैं आऊं। जब-जब जीवन से भगवान गए, कलयुग आया। भगवान कह रहे हैं अब मैं जा रहा हूं, आप कलयुग को पहचानिए, जानिए। द्वादश स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी कलयुग के बारे में जानकारी दे रहे हैं। कलयुग आएगा तो हमको दिखेगा जीवन का विपरीत घट रहा है। कलयुग में वो लोग जो नीचे बैठे हुए, ऊपर नजर आएंगे। कलयुग जब आएगा तो पापी व्यक्ति जो हैं वे पूजे जाएंगे। कलयुग जब आएगा तो अयोग्य लोग समर्थों पर राज करेंगे। कलयुग जब आएगा तो जो चोर होगा वह साहूकार के रूप में पूजा जाने लगेगा। जो जोर से बोलेगा उसकी बात सुनी जाएगी। भगवान कलयुग का लम्बा-चौड़ा वर्णन करते हैं और हम तो कलयुग को अच्छी तरह से परिचित हैं।
'समय-समय की बात है और समय-समय का योग, लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग।कलयुग में ऐसा होता है। जो पतीत है, जो चरित्र से गिरा है वह ऊपर चला जाता है। 'गिरने वाला तो छू गया बुलंदी आसमान की और जो संभलकर चल रहे थे वो रेंगते नजर आए इसका नाम कलयुग है। कलयुग में कौन किसकी मदद कर रहा है यह पता ही नहीं लगता। आपको जो सहयोगी दिख रहा है वह पीछे षडयंत्र कर रहा होगा। कलयुग में कौन आपसे प्रेम से बात कर रहा है यह ज्ञात ही नहीं होता। कलयुग में आपका शत्रु है या मित्र है यह भान ही नहीं होता। कलयुग में मनुष्य प्रेम प्रदर्शन के, एक-दूसरे से हिसाब-किताब चुकाने के नए-नए तरीके ढूंढ लेता है।
जानिए, कलयुग में कैसा होगा वैवाहिक जीवन?
शुकदेवजी कहते हैं- राजन् परीक्षित! ज्यों-ज्यों घोर कलयुग आता जाएगा, त्यों-त्यों धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्ति का लोप होता जाएगा। कलयुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा। विवाह संबंध के लिए कुल-शील-योग्यता आदि की परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवती की पारस्परिक रूचि से ही संबंध हो जाएगा।
आज जिस तरह से विवाह हो रहे हैं वो परिवार चलाने के लिए न होकर सिर्फ एक समझौता किया जा रहा है। भारत के परिवार अपने दाम्पत्य के कारण जाने गए। विवाह केवल स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं होता। इसमें वंश वृद्धि का भी एक भाव रहता है। पर आज महत्वाकांक्षा के युग में जब विवाह हो रहे हैं तो केवल स्त्री-पुरुष नहीं मिल रहे दो शिक्षाएं, दो महत्वाकांक्षाएं और दो अहंकार का मिलन हो रहा है। और इसीलिए विवाह संबंध बोझ बन गए हैं, तनावपूर्ण बन गए हैं। कलयुग में दाम्पत्य में स्त्री-पुरुष के संबंधों को भक्ति से संयुक्त रखना लाभकारी होगा।
शास्त्रों में व्यक्त है कि गृहस्थी में कर्म करते हुए भी भक्त को स्त्री, धन, नास्तिक तथा वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए। यहां सवाल उठता है कि भक्त का अधिकार क्या केवल पुरुषों को ही है जो उन्हें ही स्त्रियों का चरित्र सुनने से मना किया गया है। यदि कोई स्त्री भक्त हो तो वह क्या करे? शास्त्रों में स्त्री शब्द का प्रयोग प्रतीकात्मक ही है जिसे काम-वासना के रूप में लिया जाना चाहिए। जिस प्रकार पुरुष भक्तों को स्त्रियों का चरित्र नहीं सुनना चाहिए उसी प्रकार स्त्री भक्तों को भी पुरुषों का चरित्र सुनने से बचना चाहिए। इसी प्रकार आत्मविमुख स्त्री-पुरुषों के जीवन-प्रसंग तथा अपने प्रति शत्रुता का भाव रखने वाले स्त्री-पुरुष की बातें तथा धन-संचय-चर्चा भक्त को नहीं सुनना चाहिए।
काम-वासना के संस्कार प्रत्येक स्त्री-पुरुष के मन में जन्म-जन्मांतर से ही संचित हैं, जिनकी प्रसंग श्रवण से उद्वीप्त हो उठने की सम्भावना हो सकती है। जिसका मन काम-वासना में लिप्त हो, वह भला भगवान का भजन क्या करेगा। मन उधर गया कि लक्ष्य अंतर-जाग्रत भक्ति-शक्ति से हट गया। इस प्रकार बार-बार लक्ष्य काम-वासना की ओर ही जाते रहने से, भक्ति-शक्ति की क्रियाशीलता में अंतर आ सकता है। चिन्तन-श्रवण से काम की उत्पत्ति होती है तथा काम, प्रेम का विरोधी भाव है। प्रेम की पवित्रता इसी में है कि उसमें वासना का लेशमात्र भी समावेश न हो।
जानिए, कितने दिनों का होता है ब्रह्माजी का एक दिन?श्री शुकदेव ने कहा - परीक्षित! (तीसरे स्कंध में) परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूं। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो। इस प्रकार अब हम 12 वें स्कंध के चौथे अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं। परीक्षित देह छोडऩे वाले हैं। जाते-जाते शुकदेवजी उनको प्रलय के बारे में बता रहे हैं।एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के इस दिन को ही कल्प भी कहते हैं।
एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रह्मा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है। इसक नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अंदर समेट कर लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात शेषशायी भगवान नारायण भी शयन कर जाते हैं।इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो पराद्र्ध की आयु समाप्त हो जाती है।
तब महत्तत्व, अहंकार और पंचजन्मात्रा ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं। राजन्! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है।उस समय ब्रह्माण्ड के भीतर का सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सबकुछ जलमग्न हो जाता है। इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है, अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है।इस प्रकार प्रलय का वर्णन शुकदेवजी ने किया।
हमारे समझने की बात यह है कि प्रलय का अर्थ है ध्वंस और पुनर्निर्माण। जीवन में स्थितियों के साथ ऐसा ही होता है। जब हम असफल हो जाएं तो पुन: सफलता की तैयारियां करें। शुकदेवजी आगे समझा रहे हैं।जैसे व्यवहार में मनुष्य एक ही सोने को अनेकों रूपों में गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपों में मिलता है। इसी प्रकार व्यवहार में निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणी के द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान का भी अनेकों रूपों में वर्णन करते हैं।
बादल सूर्य से उत्पन्न होता है और सूर्य से ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्य के ही अंश नेत्रों के लिए सूर्य का दर्शन होने में बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहंकार भी ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, ब्रह्म से ही प्रकाशित होता और ब्रह्म के अंश जीव के लिए ब्रह्मस्वरूप के साक्षात्कार में बाधक बन बैठता है।
परीक्षित को शुकदेवजी ने चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया- नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है। हे परीक्षित! भगवान नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं।
'काया कसो कि बन बसो, हसो की साधौ मौन'
एक जगह तुलसीदास जी भी लिखते हैं कि कुछ भी कर लो मुक्ति और परमात्मा तब तक नहीं मिलता है जब तक की मन को साधा न जाए। वे कहते हैं कि 'काया कसो कि बन बसो, हसो की साधौ मौन। तुलसी मन साधे बिना, छुटे न पावा गौन ' यानी परमात्मा की प्राप्ति के लिए आप कुछ भी कर लो। शरीर को सुखाकर कस लो, यानी व्रत उपवास करो जिंदगी भर, या फिर वन में ही बस जाओ। खूब हंसों या एकदम मौन साध लो, मुक्ति तो तभी संभव है जब आप मन को साध लें। मन को साधे बिना कल्याण संभव नहीं है। श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को और शुकदेव जी भी राजा परीक्षत को यही समझा रह हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित को जीवन का सार समझाया है। सारे झगड़ों की जड़ हमारा मन ही है। बुद्धि में जब तक विवेक नहीं जागेगा तब तक वह मन के मत से ही चलेगी। परीक्षित! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपुर कर लो और स्वयं ही अपने अंतर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो। देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो। तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा।
तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे। तुम इस प्रकार अनुसंधान चिंतन करो कि मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूं। स्वयं के भीतर ही उतर जाओ, तुम्हें सारी सृष्टि खुद के भीतर दिखाई देने लगेगी। हमारे भीतर मृत्यु का जो भय बैठा हुआ है वह स्वयं ही दूर हो जाएगा। इस प्रकार तुम अपने आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो। तुम ये स्वीकार कर लो कि तुम उसी परमपिता परमात्मा के एक अंश हो और वह साक्षात तुम्हारे भीतर विराजमान है। उसे अपने भीतर ही खोज लो। संसार में बाहरी साधनों परमात्मा की खोज बहुत मुश्किल भी है और इसमें कई जन्मों को समय भी लग सकता है लेकिन अपने भीतर के परमात्मा को खोजने में तुम्हें कुछ ही क्षण लगेंगे। इसके लिए ध्यान में परमात्मा को केंद्र बनाओ और अपने भीतर के विषय विकार वाले सारे विचारों को निकाल फेंकों।
मन की मत सुनिए नहीं तो मुश्किल हो जाएगी
श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को और शुकदेव जी भी राजा परीक्षत को यही समझा रहे हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित को जीवन का सार समझाया है। सारे झगड़ों की जड़ हमारा मन ही है। बुद्धि में जब तक विवेक नहीं जागेगा तब तक वह मन के मत से ही चलेगी। परीक्षित! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपुर कर लो और स्वयं ही अपने अंतर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो। देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो। तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा।
तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे। तुम इस प्रकार अनुसंधान चिंतन करो कि मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूं। स्वयं के भीतर ही उतर जाओ, तुम्हें सारी सृष्टि खुद के भीतर दिखाई देने लगेगी। हमारे भीतर मृत्यु का जो भय बैठा हुआ है वह स्वयं ही दूर हो जाएगा। इस प्रकार तुम अपने आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो।
तुम ये स्वीकार कर लो कि तुम उसी परमपिता परमात्मा के एक अंश हो और वह साक्षात तुम्हारे भीतर विराजमान है। उसे अपने भीतर ही खोज लो। संसार में बाहरी साधनों परमात्मा की खोज बहुत मुश्किल भी है और इसमें कई जन्मों को समय भी लग सकता है लेकिन अपने भीतर के परमात्मा को खोजने में तुम्हें कुछ ही क्षण लगेंगे। इसके लिए ध्यान में परमात्मा को केंद्र बनाओ और अपने भीतर के विषय विकार वाले सारे विचारों को निकाल फेंकों।
सुख तब तक सुख नहीं जब तक कि.....
परीक्षित! जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बाण की गाँसी बना ली थी। उसे दूर से भगवान का लाल-लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया। जब वह पास आया, तब उसने देखा कि अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं। तब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिए डर के मारे काँपने लगा।
उसने कहा- हे भगवान! मैंने अनजाने में यह पाप किया है। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिए। मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया। आप मुझे अभी-अभी मार डालिए, क्योंकि मर जाने पर मैं फिर कभी आप जैसे महापुरुषों का ऐसा अपराध नहीं करूंगा।भगवान कृष्ण ने कहा- तू डर मत! यह तो तूने मेरे मन का काम किया है। जो मेरी आज्ञा से तू उस स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है।
जरा नाम का शिकारी भगवान की कृपा पा गया। भक्ति इसी का नाम है। हम भी जीवन को समेटने के अवसर पर एक बात समझ लें। सूत्रकार ने दु:ख से पहले सुख त्याग की बात कही है। यह सम्भव नहीं कि जीव दु:ख का त्याग कर दे तथा सुख भोग ले। यद्यपि प्रत्येक जीव जगत में सुख की ही कामना करता है, परन्तु पाता दु:ख ही है। बीच-बीच में उसे सुख का आभास अवश्य होता रहता है। सुख दु:ख का जोड़ा है। कभी सुख तो कभी दु:ख। न सदैव सुख रहता है, न दु:ख। जिसे सुख-दु:ख से अतीत अवस्था प्राप्त करने की जिज्ञासा हो, उसे दोनों का ही त्याग करना होगा। सुख का अर्थ न यहां सुख से है, न दु:ख का अर्थ दु:ख से है। अपितु सुखी होना तथा दु:खी होना है, क्योंकि सुख तब तक सुख नहीं जब तक कोई उससे सुखी न हो। इसी प्रकार दु:ख भी तब तक दु:ख नहीं जब तक कोई उसमें दु:ख का अनुभव न करे।
सुख तथा सुखी होने और दु:ख तथा दु:खी होने का यह अंतर विचारणीय है। भाव यह है कि नारदजी जब सुख-दु:ख के त्याग की बात कहते हैं तो उनका भाव सुखी तथा दु:खी न होने से है। सुख दु:ख तो प्रारब्धवशात आएंगे ही। उन्हें त्यागने का अधिकार मनुष्य के पास है ही नहीं। किन्तु, हां वह भक्ति के निरन्तर अभ्यास तथा परम-प्रेम-रूपा भक्ति की कृपा से, ऐसा चित्त अवश्य विकसित कर सकता है जो सुख से सुखी न हो तथा दु:ख से दु:खी न हो। यही सूत्रकार भक्त से आशा करते हैं।
अब रही बात इच्छा की, तो किसी की भी सब इच्छाएं पूरी हुई हैं क्या? यदि कभी भाग्यवश कोई पूरी होती भी है तो उससे पूर्व ही दस दूसरी उभर आती हैं। अभाव का भाव सदैव ही यथावत रहता है। इच्छा पूर्ति का केवल एक ही उपाय है कि कोई इच्छा रहे ही नहीं। यही पूर्णकामता है जो परम-प्रेम-रूपा भक्ति की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। उसी अवस्था की इच्छा करने को नारदजी कहते हैं। यह इच्छा पूरी होने पर अन्य सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं।
लाभ से अर्थ हानि-लाभ का विचार है जिसके फल की आशा रख कर ही जीव लाभ के लिए कर्म करता है। वह कर्म के मनोनुकूल फल को ही लाभ मानता है। किन्तु, लाभ अकेला कभी नहीं आता, उसके साथ सदैव हानि भी लगी रहती है। अपितु हानि तो लाभ से भी आ पहुंचती है। सुख दु:ख की भ्रान्ति हानि-लाभ का भी अर्थ है। फल की अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्ध के अधीन है, जो होना होगा।
नजरिया बदलिए तो नजारे अपने आप ही बदल जाएंगे
निंदा आपको भीतर से चाटती है। आपके सत्य, प्रेम, निष्ठा, सृजन हर चीज को खत्म करती है। निंदा को जीवों में दीपक की तरह माना गया है। यह हमें भीतर से खोखला करती है। हम निंदा में रस की अनुभूति करते हैं लेकिन यह रस भीतर हमारे लिए विष का काम करता है। हमारी अच्छाइयों को गलाता है, जलाता है। निंदा की आदत से बचिए। बुरा देखने, सुनने और बोलने तीनों कामों में हमारे अच्छे कर्मों और अमूल्य समय का नाश होता है। इससे बेहतर है कि जो अच्छा है उससे कुछ सीखें। उसी में अपने आप को डूबो दें। बुराई करना और सुनना दोनों कई लोगों के लिए आनंददायक काम है लेकिन यह केवल हमारी शक्ति का हृास और समय की बर्बादी है। एक घटना है, एक भैयाजी थे और वो इस बात के लिए मशहूर थे कि उनको किसी भी कार्यक्रम में बैठा दो वो कुछ न कुछ छांटकर आपकी निंदा करके बता ही देंगे। वो ढूंढ लेते थे कि गड़बड़ क्या है।
वे इस बात में दक्ष थे। लोग डरते थे कि कार्यक्रम में ये आए तो कुछ न कुछ खोट निकालकर जाएंगे, इनका निंदा का स्वभाव है। एक बार कुछ युवकों ने सोचा कि यह अंकलजी जो हैं हर कार्यक्रम में कुछ न कुछ छेड़ाखानी करते हैं। उन्होंने सोचा कि एक बार हम ऐसा कार्यक्रम करेंगे और इन अंकलजी को बुलाकर कहेंगे अब आप बताओ इसमें क्या खोट है। बड़ा परफेक्ट कार्यक्रम किया उन्होंने। हर चीज व्यस्थित और अंकलजी को बुलाया।अंकलजी ने आते ही अपना काम शुरू किया, आसपास देखना शुरू किया। एक- आधे घंटे में उनका स्वास्थ्य बिगडऩे लगा। जब कार्यक्रम अच्छे से निपट गया तो बच्चों ने पूछा अंकलजी! इस कार्यक्रम के बारे में आप बताएं। अंकजलजी ने सोचा पीछे से निकलो कुछ दिखा तो है ही नहीं। लेकिन बच्चों ने पकड़ लिया और पूछा अंकलजी बताएं आपको कुछ दिखता है ऐसा। अंकलजी क्या बताएं, उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या बोलें। पर अंकलजी का स्वभाव बन गया निंदा, जब बहुत ज्यादा दबाव डाला गया तब अंकलजी ने कहा- अब भला इतना अच्छा भी करना किस काम का। जब निंदा बस जाती है तो बड़ी मुश्किल से छुटती है।
आपने सुना होगा बहू कछ भी करे सासूजी उसमें खोट निकालती थी। बहू जब भी भोजन बनाती सासूजी ने तय कर लिया था कि आज यह खराब, इसमें यह नहीं डला, बेचारी परेशान हो गई। छह महीने तक सेवा करती रही, नई-नवेली थी। उसने सोचा एक दिन ऐसा भोजन बनाऊंगी जिसमें खोट न हो। ससुरजी से पूछा आपको तो मालूम होगा न इनको कैसा खाना पंसद है। ससुरजी ने कहा यदि मुझे मालूम होता तो क्या बात थी, यह तो तू ही जान तेरी। बेचारी परेशान हो गई। तमाम विधियां अपनाई उसने और एक दिन ऐसा स्वादिष्ट भोजन बनाया और रख दिया थाली में।
सचमुच भोजन ऐसा था कि ससुर ने कहा आज ये बोल नहीं पाएगी। देखते हैं आज सासूजी क्या करती है। जैसे ही सासू ने भी खाया तो ऐसा ही था निर्दोष। अब बहू ने सोचा कि अब देखते हैं क्या बोलती हैं।
तारीफ करने का तो सवाल ही नहीं था, चुप रही सासूजी। ससुरजी ने कहा आज तो भोजन बहुत अच्छा है, कुछ बोलो बहू को। सासूजी ने कहा- पहले ऐसा भोजन क्यों नहीं बनाती थी। अगर आप तय कर लें कि निंदा करना है तो यही आपका स्वभाव बन जाएगा। नजरिया बदलिए तो नजारे अपने आप ही बदल जाएंगे और जो नजरिया नहीं बदलना चाहते उनका कोई इलाज ही नहीं है। अहंकार इसलिए स्वभाव नहीं बनता कि आपसे बड़ा वाला आ जाए तो आप दो मिनट में चुप हो जाओगे। लेकिन निंदा का क्या करोगे और निंदा भगवान को इसलिए भी पसंद नहीं है। भगवान बोलते हैं कि सब मेरी कृति है जब आप किसी के नयन, नक्ष, चाल, ढाल, बोलचाल पर टिप्पणी कर रहे हैं तो आप भगवान की कृति का अपमान कर रहे हैं। यह इसका आध्यात्मिक अर्थ है। इसलिए निंदा घोर दुर्गुण है।
ये है पूजा का नियम जब भी करें पूजन ध्यान रखें
दिनभर जिसकी पूजा करते हो उसकी कृति का अपमान करना गलत है। कोई अपने माता-पिता को बुरा नहीं कहता है। बेटा कितना ही पढ़ा लिखा हो जाए और मां अगर कम पढ़ी लिखी है, सुदर्शना नहीं है तो भी वह उतना ही सम्मान करता है। मेरी कृति है, मुझे रचाया है मां ने। आप अपने परमात्मा की कृति की निंदा करेंगे तो आप उसकी ही निंदा करेंगे? यानी आप परमात्मा को कोस रहे हैं।सावधान हो जाइए, निंदा छोड़ दीजिए। लोग हमसे पूछते हैं पंडितजी निंदा कैसे छोड़ें।
हम कहते हैं एक सिद्धांत बना लीजिए निंदा छूट जाएगी। सिद्धांत यह कि जो व्यक्ति आपके सामने उपस्थित न हो उसकी चर्चा नहीं करेंगे। बात कर सकते हैं, टिप्पणी मत करिएगा। चर्चा तो करनी पड़ती है कि वह आ रहे हैं, वह जा रहे हैं। पर पीठ पीछे किसी पर टिप्पणी नहीं करें, आपसे निंदा छूट जाएगी। हालांकि दो-तीन दिन तबीयत खराब रहेगी। पहली बात सत्य बोलें, अहंकार न करें, निंदा न करें, जिन्हें निंदा की वृत्ति छोडऩा हो वे त्याग को अपनाएं। बिना आसक्ति-त्याग के, त्याग का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि तब जीव भौतिक दृष्टि से किसी कर्म का त्याग करके भी मानसिक स्तर पर उसी से जुड़ा रहता है तथा राग-द्वेष के संस्कार संचय करता, कामना को बल प्रदान करता है।
भावनायुक्त समर्पण में भी समर्पण का आधार परिपक्व नहीं होता, क्योंकि उसमें कुछ अनुभव तो होता ही नहीं, केवल भावना ही होती है। इसलिए अंतर में सूक्ष्म स्तर पर अहंकार बना रहता है। इसके लिए गीता में कर्म करने के उपरांत, कर्म फल भगवान को अर्पण कर देने का मार्ग सुझाया गया है। किन्तु कर्म करते समय जो मन में कामना होगी, उसका संस्कार तो संचित हो ही जाएगा। भगवान को कर्मफल अर्पण कर देने का अभिमान भी उदय हो सकता है। यही अभिमान आगे जाकर निंदा करवाता है।
चौथी बात नित्य पूजा करें। हमारे यहां पूजा को भी कार्यक्रम बना लिया है लोगों ने। जिसको जैसे टाईम मिला, खड़े हैं तो खड़े, बैठे हैं तो बैठे हैं। अनुशासन लाइए जीवन में। व्यक्ति श्रृंगार करता है तो क्रम होता है- पहले मुखड़ा सजाएगा, देह सजाएगा उल्टा कोई श्रृंगार नहीं करता। हर चीज का नियम है, पर आदमी पूजा का नियम नहीं पालता। पूजा करने का नियम है सबसे पहले सूर्य को अध्र्य दें, तुलसी को जल दें, गाय को घास दें उसके बाद स्वरूप पूजा करें, नित्य पाठ करें जो भी आप पाठ करते हैं एक चौपाई, एक मंत्र, लेकिन पाठ करें खड़े होकर, ग्रंथ को खोलकर छोटी सी किताब रख लीजिए।नित्यपाठ इसलिए कहते हैं कि चौबीस घंटे में एक बार घर में ग्रंथ खुलना चाहिए। ग्रंथ में परमात्मा बसता है। जैसे ही आप ग्रंथ खोलते हैं वह बाहर निकलता है, आपके घर में सुंगध देने के लिए। अब तो समय जब मिलता है तभी खुलता है हफ्ते में एक बार, महीन में एक बार। पाठ के साथ-साथ कभी कथा भी बाचें। थोड़ा इसे समझा जाए।
अगर आता हो बार-बार गुस्सा तो ऐसे दूर करें...
पांचवां है- मौन। चौबीस घंटे में पांच-सात मिनट मौन रखें। मौन का अर्थ है अपने से भी बात न करें। ध्यान रखिए मौन और चुप्पी में फर्क है। हम लोग चुप्पी रखते हैं और उसी को मौन मान लेते हैं। पति-पत्नी के बीच कुछ वार्तालाप हो जाए, कुछ खटपट हो जाए, बात नहीं करना हो तो बच्चों के माध्यम से बात की जाती है। बच्चे से बोल दिया पिताजी से कह देना यह ले आना, पिताजी ने कह दिया समय नहीं है। उनसे पूछो आज आप बात नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कह दिया आज अपना मौन है।
चुप्पी बाहर का मामला है और मौन भीतर घटता है। चुप्पी वाला मौन तो लोगों को दिनभर में दस-बारह बार हो जाता होगा। इसलिए दो मिनट, पांच मिनट एकदम मौन हो जाइए। मौन का एक लाभ होता है, हमारा क्रोध नियंत्रित हो जाता है। क्रोध भक्ति में बाधा है।
ध्यान के द्वारा विषय का संग होने से मन में विषय को प्राप्त करने, भोगने की कामना उत्पन्न हो जाती है और विघ्न उपस्थित होने पर क्रोध पैदा हो जाता है। यह क्रोध कोई नया पैदा नहीं होता, चित्त में प्रसुप्त क्रोध ही जाग्रत हो जाता है। यह तत्काल तो जीव के शरीर तथा मन को जलाता ही है और भी पुष्ट होकर विच्छिन्न अवस्था में लौटता है।
उस प्रकार बार-बार क्रोध करते रहने से क्रोध बलवान होता जाता है। जब जीव प्रबल क्रोध की पकड़ में होता है तो अपना 'मैं भूल जाता है। उसे कौन, क्या, कैसा, किस जगह का भी ध्यान नहीं रहता। बस साक्षात क्रोध रूप ही हो जाता है। इसका मूल कारण संग ही है जो प्रसुप्तावस्था से क्रोध को उदार बना देता है। योग और ध्यान के माध्यम से ही आप क्रोध से छुटकारा पा सकते हैं। योग और गुरुमंत्र का प्रभाव से क्रोध को कम किया जा सकता है। यदि अवसर मिले तो योग्य गुरु से दीक्षा अवश्य लें।
7 दिन पूरे होने को थे नाग राजा को डसने के लिए जा रहा था तब....
अब राजा परीक्षित का काल नजदीक है। तक्षक उन्हें अपने विष से भस्म करने वाला है। शौनकादि ऋषियों! मुनिपुत्र श्रृंगी ने क्रोधित होकर परीक्षित को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प परीक्षित को डसने के लिए उनके पास चला। रास्ते में उसने कश्यप नाम के एक ब्राह्मण को देखा। कश्यप ब्राह्मण सर्प विष की चिकित्सा करने में बड़े निपुण थे। तक्षक ने बहुत सा धन देकर कश्यप को वहीं से लौटा दिया, उन्हें राजा के पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मण के रूप में छिपकर राजा परीक्षित के पास गया, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था।चलिए आइए परीक्षितजी अपनी देह छोडऩे वाले हैं, तक्षक आने वाला है।
उस दृश्य पर पुन: विचार करें। सात दिन की अवधि पूरी हो रही है। तक्षक परीक्षित को डंसने के लिए आ रहा है। शुकदेवजी कह रहे हैं- परीक्षित अब मैं तुम्हें जीवन का अंतिम उपदेश दे रहा हूं। 7 दिन तक तुमने सबकुछ छोड़कर भागवत सुनी। अब मैं तुमसे अंतिम बात कर रहा हूं और यह भागवत का अंतिम उपदेश है। शुकदेव पूछ रहे हैं परीक्षित से कि एक बात बताओ तुम्हें तुम्हारी देह और आत्मा का भान हुआ या नहीं। क्या तुम्हें भागवत सुनने के बाद ऐसा लग रहा है कि तुम्हारी देह अलग है और तुम्हारी आत्मा अलग है।
वास्तव में कथा श्रवण का महत्व तभी है जब देह और आत्मा दोनों की अनुभूतियां अलग हों। अगर हम अनुभूति नहीं कर पा रहे हैं तो फिर हमारे कथा श्रवण में ही त्रुटि है। हम केवल कानों से कथा सुन रहे हैं, इसका भाव मन तक पहुंच ही नहीं रहा है। भाव और सार मन तक पहुंचें तो आत्मा की अनुभूति अलग होगी और देह की अलग। कथा समझा रही है कि देह नित्य नहीं है, आत्मा नित्य नहीं है। देह एक दिन खत्म हो जाएगी और आत्मा फिर कोई दूसरा चोला पहन लेगी।
भागवत सुने तो ये बात जरूर ध्यान रखें क्योंकि...
इस बात को स्वीकार कर लेना ही असली कथा श्रवण है। भागवत हमें यही अंतर समझा रही है। जिन्हें यह समझ आ जाता है वे परीक्षित की तरह निद्र्वद्व और निर्विकार हो जाते हैं लेकिन जो लोग सिर्फ इसे कथा का एक हिस्सा मानकर बैठ जाते हैं वो देह से ऊपर नहीं उठ पाते। भागवत कथा सुनने से क्या मिलता है इसे समझ लें। इस कथा को सुनने से हमारे मन में भक्ति जाग जाती है। इस भक्ति को गौणी भक्ति भी कहा गया है।भक्ति का एक स्वरूप गौणी भक्ति भी है। जो गौण हो, मुख्य नहीं हो वही गौणी भक्ति है। सामान्यतया जीव जगत व्यवहार करे अथवा प्रभु-भक्ति उसमें चित्त की संकुचितता तथा अहंकार बना रहता है, जिससे उसके अंतर में कर्मों तथा उपासनाओं के संस्कार संचित होते रहते हैं जबकि भक्ति का मूल उद्देश्य चित्त को निर्मलता प्रदान कर उसमें जगत का अनुभवात्मक वैराग्य भर देना तथा प्रभु के प्रति प्रेम भाव उदय करना है।
भक्ति का यह भाव ही हममे कथा श्रवण का रस अनुभूत कराता है। भक्ति जीवन में जरूरी है। यह संस्कारों को जन्म देती है। संस्कारों से विचारों में दिव्यता आती है, विचारों की दिव्यता ही हमारे व्यक्तित्व को निखारती है। भक्ति का रूप कोई भी हो लेकिन उसमें भाव, आस्था और विश्वास होने चाहिए। जब तक हमारी भक्ति में ये बातें नहीं होती तब तक भक्ति केवल एक स्वांग ही दिखाई देती है। असली भक्त प्रक्रिया पर नही भावो पर ध्यान केंद्रित करता है। कई लोग केवल प्रक्रिया को ही भक्ति मान बैठते हैं। भक्ति के लिए जो भी विधियां बनाई गई हैं वे केवल इसलिए हैं कि हमारे मन में उस काम के प्रति थोड़ी एकाग्रता रहे। जब तक एकाग्रता नहीं होगी, भाव नहीं जागगे।
भाव नहीं जागेंगे तो भक्ति में रस नहीं आएगा। निरस भक्ति भगवान को जागृत नहीं कर सकती। भक्ति जरूरी है और इसे हमारे जीवन में उतारना बहुत आवश्यक है। निर्गुण या सगुण कोई रूप हो, भगवान में आस्था होनी चाहिए। यह कार्य अहंकार युक्त गौणी-भक्ति से संभव नहीं। हम यह नहीं कहते कि जीव को जप नहीं करना चाहिए अथवा करना ठीक नहीं। किन्तु जब तक मन अहंकार मुक्त नहीं तथा वैराग्य युक्त नहीं, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। जब तक उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी ही क्यों न हो, प्रत्यक्ष, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी क्यों न हो, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती तब तक न तो यथार्थ में उसमें परम प्रेम उदय हो सकता है और न ही जगत के प्रति पूर्ण वैराग्य। क्योंकि भक्ति मार्ग प्रेम तथा समर्पण का मार्ग है।
क्या आप जानते हैं, इसलिए सुनाई जाती है भागवत कथा?
शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! तुम्हारी देह और आत्मा अलग-अलग है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं यहां से नहीं जा पाऊंगा और जब तक मैं यहां हूं तब तक तुम्हें तक्षक डसने नहीं आ सकता और वो आएगा नहीं तो तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। जिस उद्देश्य के लिए भागवत की रचना की गई है उसके लिए जरूरी है क्या तुम्हें देह और आत्मा का भान अलग-अलग हुआ।
असली गुरु वो ही है जो आपके लिए कुछ भी करने को तैयार हो। शुकदेवजी ने केवल परीक्षित को कथा ही नहीं सुनाई, उनसे कथा के प्रभाव के बारे में भी पूछ रहे हैं। जिस प्रयोजन से कथा कही गई थी वो पूरा हुआ या नहीं। परीक्षित को संसार और देह में जो आसक्ति थी, शुकदेवजी उनसे पूछ रहे हैं कि वो समाप्त हुई या नहीं। अगर अभी भी कोई आसक्ति शेष है तो फिर कथा सुनाना और सुनना दोनों ही व्यर्थ गए। शुकदेव जी जो कह रहे हैं उसके पीछे कई बातें हैं। एक तो वे जानना चाहते हैं कि परीक्षित ने पूरे मन से कथा श्रवण किया या नहीं, अगर कथा श्रवण किया तो फिर उसका कितना चिंतन किया, कितनी बातें समझीं और अब उसके व्यवहार, विचार और स्वभाव में क्या परिवर्तन आया है।
शुकदेवजी यह भी सोच रहे हैं कि परीक्षित ने तो पूरे मन से सुनी हो सकता है मुझसे भी कोई त्रुटि हो गई हो। मैं पूरे भाव से कथा नहीं सुना सका। इस बोध के कारण वे कह रहे हैं अगर तुम्हें देह और आत्मा का भान अलग-अलग न हुआ हो तो मैं यहां से नहीं जा पाऊंगा। मुझे यह बात परेशान करेगी कि मैं कथा कहने की जिम्मेदारी ठीक से निभा नहीं पाया। शुकदेवजी परीक्षित की ओर देख रहे हैं, परीक्षित का चेहरा भयमुक्त और निर्विकार है। उसे मृत्यु का सुनकर भी भय नहीं लग रहा है।
परीक्षित भगवान शुकदेव के पास खीसककर आते हैं, धीरे से उनको प्रणाम करते हैं और बोलते हैं- मैं अपनी देह से मुक्त हो गया हूं। आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैं आपको नमन करता हूं और मैं अपनी मृत्यु के स्वागत के लिए तैयार हूं। शुकदेव बोलते हैं मैं यहां से प्रस्थान करूंगा, मैं यहां से जाऊंगा तभी मृत्यु आ पाएगी। शुकदेवजी महाराज को विदा करते हैं और यहीं से कथा सूतजी के ऊपर आ गई।
जीवन में गुरु की भूमिका इतनी ही होती है, वो आपको तैयार करके, प्रशिक्षित करके चुनौती के सामने खड़ा कर देता है। चुनौती आपकी अपनी है, उसका सामना आपको ही करना है। गुरु उस समय आपके साथ ही रहे जरूरी नहीं। अगर पूरा प्रशिक्षण पा लेने के बाद भी आपको गुरु की जरूरत पड़े तो समझिए कि या तो आपने सीखने में या गुरु ने सिखाने में कोई भूल की है। शुकदेव जी परीक्षित को छोड़कर चल दिए। अब मृत्यु का इंतजार अकेले परीक्षित को करना है। वो इसके लिए पूरी तरह तैयार भी हैं। न तो अपनी देह के प्रति कोई आसक्ति रह गई है और न ही अपने परिवार के प्रति कोई मोह। राजपाट तो वो पहले ही छोड़ आए थे।
इसलिए कहते हैं इंतजार करना जरूरी होता है...
लोग भजन तो करते हैं, नियम भी पालते हैं, रोज के अपने कायदे भी बनाते हैं लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा अनिवार्य है उसमें चूक कर जाते हैं। हमारे मन में धैर्य का होना आवश्यक है। धैर्य के साथ मानसिक भक्ति बनी रहे। कितनी परेशानियां आए, कितनी ही मुश्किलें आएं, हमारा धैर्य नहीं टूटना चाहिए। धैर्य टूटा की भक्ति निष्फल हुई, समझो। एक पल का अधैर्य हमारे जीवनभर के तप को धूमिल कर सकता है। परमात्मा आपके धैर्य की परीक्षा लेता है जैसे भी हो अगर धैर्य संभला रहा तो फिर उसकी कृपा होना तय है।
एक कथा है।किसी गांव के मंदिर में एक पुजारी था। भगवान की सेवा करके गुजर-बसर चलता था। उसके दो बेटे थे। दोनों ही धार्मिक स्वभाव के थे लेकिन बड़ा बेटा थोड़ा जल्दबाज था, इसलिए ज्यादा प्रयास कर अधिक से अधिक फल प्राप्ति की इच्छा करता था। पिता उसे समझाते तो भी नहीं मानता। एक दिन कपता गुजर गए। मंदिर की सेवा दोनों भाइयों के हाथ में आ गई। छोटा भाई अपने बड़े भाई से बिलकुल विपरित था। हमेशा संतोष रखता। इंतजार करता, जो भी मिले उसे प्रभु प्रसाद समझकर अपना लेता। शिकायत नहीं करता। दोनों ने समय-समय की पूजा आपस में बांट ली। बड़ा भाई थोड़ा असंतोषी था, जल्दबाज था सो हमेशा कुछ अतिरिक्त करने के चक्कर में लगा रहता। सोचता मंदिर में ज्यादा से ज्यादा समय मैं ही बैठूं ताकि दक्षिणा का बड़ा हिस्सा मुझे मिले। छोटा भाई बड़े की हरकतों का कोई प्रत्युत्तर नहीं देता, वो सिर्फ उसे भगवान की मर्जी मानकर स्वीकार कर लेता।
उसे विश्वास था कि भगवान सब देख रहे हैं और एक दिन उसे उसके सब्र का फल अवश्य मिलेगा। मंदिर के पास ही एक नदी बहती थी। बारीश का मौसम था, एक दिन सुबह से मूसलाधार बारीश शुरू हो गई। दोनों भाई मंदिर में भगवान की प्रतिमा और कुछ मूल्यवान आभूषण को बाढ़ से बचाने के लिए गए। धीरे-धीरे बाढ़ का पानी मंदिर को डूबो रहा था और दोनों भाई शिखर की ओर चढ़ रहे थे। थोड़ी देर में बाढ़ का प्रवाह और बढ़ गया। दोनों भाइयों का विश्वास था कि भगवान उनकी रक्षा करेंगे। दोनों नाम जप करने लगे। आंखें मूंद लीं, होठों से भगवान का नाम बुदबुदाने लगे। बाढ़ का पानी तेजी से मंदिर के शिखर को छू रहा था। बड़े भाई की बेचैनी बढ़ रही थी, कैसे जान बचाए। छोटे ने धीरज बंधाया भइया, धैर्य रखों भगवान आते ही होंगे। नाम जप और ज्यादा ध्यान लगा कर करो। फिर आंखें मूंद ली, दोनों भाई नाम जपने लगे। लेकिन बड़े से रहा नहीं गया आंखें खोलकर देखा तो बाढ़ का पानी शिखर को आधा डूबो चुका था। छोटे ने फिर समझाया कि भइया धैर्य रखो अभी तो पानी काफी नीचे है। ध्यान लगाओ और भगवान को पुकारो, वो ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। दूर-दूर तक अथाह पानी है और नदी का बहाव भी तेज है, हम तैर नहीं पाएंगे।
अब पानी उनके पैरों को छूने लगा था, कुछ ही क्षणों में शिखर भी डूबने वाला था। छोटा आंखें बंदकर ध्यान में लगा हुआ था लेकिन बड़े से रहा नहीं गया। उसने आंखें खोली और देखा पानी उनके पैरों तक आ गया है तो बोला छोटे तू बैठा रह यहां, कोई भगवान आने वाला नहीं है, मैं तो जैसे तैसे तैर कर प्राण बचा लूंगा। इतना कहकर उसने शिखर को छोड़ दिया और पानी में कूद पड़ा। बहाव इतना तेज था कि पानी में कूदते ही वह बह गया। छोटे ने फिर आंखें बंद की जप शुरू किया, तभी एक नाव वाला गुजरा, उसने उसे अपनी नाव में शरण दी और सुरक्षित किनारे पर उतार दिया। बड़ा भाई अधैर्य के चलते प्राण गवां बैठा। बाढ़ खत्म हुई तो मंदिर भी अकेले उसका था और उससे मिलने वाली सारी दक्षिणा भी छोटे की ही थी। तभी तो कहा जाता है कि भक्ति में धैर्य का होना बहुत आवश्यक है।
मौत से डरने वालों का ऐसा होता है हाल...
सूतजी शौनकादिजी से बोल रहे हैं- सुनो अब समापन होने जा रहा है। मैं जो कथा तुम्हें सुना रहा था, शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे अब दृश्य ऐसा हो गया शुकदेवजी गए। परीक्षित अकेले हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परीक्षितजी ध्यान में बैठ गए। आंखें बंद की, अपनी ऊर्जा को ऊपर लिया, अपने प्राणों को नियंत्रण में किया। आज्ञा चक्र से उठकर ऊर्जा सहस्त्रार पर हैं और आदेश दिया अपने प्राण को मुक्त हो एकदम से प्राण मुक्त हुए, अब केवल देह रह गई। परीक्षितजी दूर खड़े अपनी देह को देख रहे हैं।
ये दृश्य बहुत कम लोग देख पाते हैं। कोई शांत मन से अपनी देह का मोह छोड़े मृत्यु के स्वागत में बैठा है। वो राजा परीक्षित सात दिन पहले जो चक्रवर्ती सम्राट थे। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद जिन्हें जीवन दान दिया था। मृत्यु के मुख से बचाकर लाए थे। महान पांडवों का वो वंशज था। दुनियाभर के वैभव, सुख और जिसने भोग किया। परमपराक्रमी और धर्म के तत्व को जानने वाला राजा परीक्षित आज सब कुछ छोड़कर अपनी मृत्यु के इंतजार में बैठ गया है। बिना डरे, बिना किसी असमंजस के। दुनिया में कई शूरवीरों को धूल चटा देने वाला योद्धा आज खाली हाथ मौत से मिलने के लिए बैठा है।आइए उस दृश्य को देखें। तक्षक ने जैसे ही प्रवेश किया, तकक्ष यानी मृत्यु आई है। आज तक्षक के रूप मृत्यु पहली बार अपने जीवन में शरमा गई। मृत्यु ने कहा- यह क्या हुआ मेरा तो सारा आतंक, मेरा सारा अभिमान, भय है और जिस व्यक्ति को मैं मारने आई हूं यह तो निर्भय खड़ा है, दूर खड़ा देख रहा है इसको कोई फर्क नहीं पड़ रहा है और मुस्कुराते हुए स्वागत किया जा रहा है।
आज मृत्यु शरमा गई। मौत का सारा आतंक किसमें है, भय में है। दुनिया में सारा आतंक भय के कारण है अगर आपके मन से भय दूर हो जाए तो सारा आतंक खुद-ब-खुद दूर हो जाएगा।एक गांव में हैजा फैला तो हजार लोग मर गए। गांव के बाहर एक फकीर बैठा था उसने देखा रात को त्राही-त्राही मची और छम-छम करती हुई एक काली सी औरत जा रही है। उसने पूछा देवी आप कौन हैं? वह बोली- मैं मृत्यु की देवी हूं। इस गांव में हजार लोग मारने आई थी कल फिर आऊंगी, क्योंकि हजार और मारना है।
फकीर ने कहा - कल देखेंगे। कल हुआ, पर मर गए दो हजार। जब वो जा रही थी तो फकीर ने उसको रोककर पूछा- तुमने तो कहा था हजार लोग मारने आओगी, पर संख्या तो दो हजार की हो गई। जिंदगी झूठ बोलती है यह तो सुना था पर मौत भी झूठ बोलती है यह आज देखा मैंने। तुमने हजार की जगह दो हजार मार दिए। मौत ने बड़ा सुंदर जवाब दिया- मैं तो हजार ही मारने आई थी और हजार का ही विधान था, बाकी जो एक्स्ट्रा एक हजार मरे वो मेरे डर के मारे मर गए। आदमी डर के मारे ही मर जाता है।
ऐसे लोगों से मौत भी हार जाती है क्योंकि...
परीक्षित बाहर खड़े होकर देख रहे हैं, आओ आपका स्वागत है, मैं तैयार हूं। और परीक्षित की देह को तक्षक ने जैसे ही डसा वो भस्म हो गई, लेकिन तब तक परीक्षित बाहर खड़े थे। वो जो शुकदेव ने तैयार किए थे, वो जो भागवत का शुकदेव था, वो जो भागवत का प्रताप था, वो दूर खड़ा अपनी मृत्यु को देख रहा है। स्वागत कर रहा है, सम्मान कर रहा है और कह रहा है मैंने देह और आत्मा का अंतर जान लिया है। यह कौन सी मृत्यु है, कौन तक्षक है जानते हैं आप। प्रतिकूल परिस्थितियां तक्षक है, जीवन का तनाव तक्षक है, जीवन में उलटे-सीधे काम तक्षक है और यह हमें डसता रहता है।
हमारी देह काली-पीली होती रहती है। जो अपनी आत्मा और देह का अंतर जान जाएंगे वे तनाव से, विषाद से, अवसाद से मुक्त हो जाएंगे।यह घटना कह रही है इसको इस रूप में समझना ही पड़ेगा। परीक्षित ने देह त्याग दी यहां आकर सूतजी कहते हैं कि भागवत का मुख्य प्रसंग समाप्त हो गया। जिसके लिए भागवत कही गई वो दृश्य समाप्त हो गया जो भागवत का नायक था वो संसार से चला गया। जो भागवत के प्रमुख वक्ता और श्रोता थे वो कथा का समापन कर रहे हैं तो भागवत यहां समापन की ओर जा रही है।
मृत्यु पर जीवन की विजय हुई। मरते-मरते परीक्षित के चेहरे पर प्रसन्नता के जो भाव थे वे म़त्यु को चुनौती देने वाले थे। आज मृत्यु बौनी साबित हुई। उसका भय जाता रहा। इस दृश्य को जिसने देखा वो आश्चर्य में पड़ा था। एक कथा के श्रवण से इतना परिवर्तन कैसे हो सकता है। देवता भी सब प्रसन्न हो गए। परीक्षित की दिग्विजय पर सब साधु-साधु कह रहे थे। लोग तो धरती के टूकड़े जीतते हैं तो उत्सव मनाते हैं ,लेकिन मौत का भय उन्हें भी रहता है, परीक्षित ने तो धरती की दिग्विजय की ही लेकिन आज तो साक्षात मृत्यु को भी हरा दिया। उसके भय को मिटा दिया। मृत्यु को मजा तब आता है जब जिसके वो प्राण हरण कर रही हो वो डरे लेकिन मरने वाला अगर उसका स्वागत करने लगे तो फिर मृत्यु की हार तो तय है ही, मर कर भी परीक्षित अमर हो गए। देवता तुल्य हो गए। शुकदेवजी का सारा प्रयास सफल रहा। कथा श्रवण निष्फल नहीं गया।
स्वर्ग लोक में मानो उत्सव हो गया हो। सारे देवता इतने प्रसन्न थे कि परीक्षित ने तो मर कर भी अमरत्व प्राप्त कर लिया, हम देवता तो अमृत के लिए मरे जा रहे हैं। इसने तो कानों से अमृत का पान किया। मृत्यु को जीत लिया। कैसा अद्भुत संयोग है। कोई अपनी मृत्यु का दोनों हाथ पसार कर स्वागत कर रहा है। तक्षक के रूप में आया काल भी हैरत में था। परीक्षित की देह तक्षक के विष से जल उठी है। प्राण निकले और सीधे अपने पूर्वजों की शरण में चल पड़े। परीक्षित ने देखा देह अब किसी काम की नहीं रही। निस्तेज, विष से जली हुई और धूल-धूसरित धरती पर पड़ी है। आसमान से देवता फूल बरसा रहे हैं, अप्सराएं नृत्य कर रही है। मृत्यु मानो महोत्सव बन गई है।
जनमजेय ने नाग यज्ञ किया और कर दिया सारे नागों का अंत क्योंकि...
जब जनमेजय ने सुना कि तक्षक ने मेरे पिताजी को डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने सारी धरती की सर्प जातियों को खत्म करने का प्रण ले लिया। देश-दुनिया के ब्राह्मणों को बुलाया गया। नाग दाह यज्ञ का आयोजन कराया गया। जैसे ही यज्ञ आरंभ हुआ नागों में हड़कंप मच गया। जैसे ही यज्ञ कुंड से अग्रि की लपटें उठने लगीं, ब्राह्मणों ने मंत्रों का उच्चारण शुरू किया, मंत्रों के प्रभाव से एक-एक करके नाग यज्ञकुंड में आकर गिरने लगे। चारों ओर यज्ञकुंड का धुआं और नागों के जलने की दुर्गंध वायु मंडल में फैल गई।
जन्मजेय का प्रण था जब तक उसके पिता को डसने वाले तक्षक नाग को भस्म न कर दूं यज्ञ बंद नहीं होगा। नागों के मारे जाने से नाग लोक में भी हाहाकार मच गया। प्रकृति का संतुलन बिगडऩे लगा। अब वह ब्राह्मणों के साथ विधिपूर्वक सर्पों का अग्निकुण्ड में हवन करने लगे। तक्षक ने देखा कि जनमेजय के सर्प सत्र की प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यंत भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया। मंत्रों का आकर्षण ऐसा था कि बड़े-बड़े नाग आकर हवनकुंड में गिरने लगे। देवताओं को भी चिंता सताने लगी। लेकिन जनमजेय को रोके कौन यह बड़ा सवाल था। जनमजेय बहुत क्रोध में था और वह अपने प्रतापी पिता की असमय मौत से आहत भी था। देवताओं और नागों में लगातार हलचल मची हुई थी।
जनमजेय को कैसे रोका जाए, नागों का विध्वंस कैसे बंद हो, देवता एक-दूसरे से प्रश्र कर रहे थे। तक्षत इंद्र की शरण में था इसलिए बच रहा था लेकिन शेष नाग प्रजातियां खत्म हो रही थीं। नागों के राजा वासुकी भी परेशान थे। बहुत सर्पों के भस्म होने पर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षितनन्दन राजा जनमेजय ने ब्राह्मणों से कहा कि अब तक तक्षक भस्म क्यों नहीं हो रहा है? ब्राह्मणों ने कहा तक्षक इस समय इन्द्र की शरण में चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। इंद्र के प्रभाव से तक्षक को मंत्र आकर्षित नहीं कर रहे हैं। शेष सारे नाग हवपकुंड में गिर कर जल रहे हैं।
ये दो काम कभी ना करें क्योंकि इनसे बर्बादी होती है
वर्तमान युग दिखावे का युग है। जो जैसा नहीं हो, वैसा दिखने का प्रयत्न करना, जो गुण नहीं हो अपने में वह गुण दिखाने का प्रयत्न करना, मन की बात मन में ही छुपाकर ऊपर से मीठी-मीठी बातें करना आदि सब दंभ के अंतर्गत है। इससे मिथ्या अभिमान को बल प्राप्त होता है। मन नहीं लग रहा हो, किन्तु लोगों को दिखाने के लिए, भक्त कहलाने की इच्छा से आंखें बंद करके बैठे रहना नम्र नहीं होते हुए भी नम्र दिखने का प्रयत्न करना सभी दंभ के अंतर्गत ही है। दंभ से चित्त चंचल होकर साधन भक्ति की निरन्तरता भंग हो जाती है।
जीवन प्रबंधन का तीसरा सूत्र है निंदा न करें। पर क्या करें निंदा में बड़ा रस आता है। निंदा नहीं की तो लोगों का पेट दुखने लगता है। फोकट की निंदा करने में और ज्यादा मजा आता है। निंदा तो दूर की बात समाज में कोई अपरिचित व्यक्ति हो, बाहर वाला हो तो समझ में आता है। हम तो देखते हैं अपने ही घर में कोई आयोजन हो, एक कमरे में 5-7 लोग बैठे हों और उसमें से दो गए तो शेष पांच पहला काम निंदा ही करेंगे। वह दो बाहर जाकर वही कर रहे होंगे, इसमें कोई नई बात नहीं है। सब लगे ही रहते हैं, निंदा में कितना स्वाद है। आत्मस्तुति और परनिंदा मनुष्य की दो बड़ी कमजोरियां हैं। निंदा जब जीवन में उतर जाती है तो स्वभाव बन जाती है, निंदा से बचिए।
निंदा आपको भीतर से चाटती है। आपके सत्य, प्रेम, निष्ठा, सृजन हर चीज को खत्म करती है। निंदा को जीवों में दीपक की तरह माना गया है। यह हमें भीतर से खोखला करती है। हम निंदा में रस की अनुभूति करते हैं लेकिन यह रस भीतर हमारे लिए विष का काम करता है। हमारी अच्छाइयों को गलाता है, जलाता है। निंदा की आदत से बचिए। बुरा देखने, सुनने और बोलने तीनों कामों में हमारे अच्छे कर्मों और अमूल्य समय का नाश होता है। इससे बेहतर है कि जो अच्छा है उससे कुछ सीखें। उसी में अपने आप को डूबो दें। बुराई करना और सुनना दोनों कई लोगों के लिए आनंददायक काम है लेकिन यह केवल हमारी शक्ति का हृास और समय की बर्बादी है।
ऐसे जीएं जिंदगी तो कभी दुखी नहीं होंगे
एकांत का मतलब है, अगर आप एकांत साधना चाहें जीवनसाथी के साथ तो एक काम करिएगा मोबाइल नाम की अपनी प्रियतमा को एकदम बंद करके उसे एक घंटे के लिए रख दीजिएगा। आपको विश्वास दिलाता हूं यदि आप परमात्मा का ध्यान रखकर कहते हैं तो आप मानकर चलिएगा दुनिया किसी के चले न चली है और न किसी के रूके रूकी है। यह चलती रहेगी, आप अपना एकांत साधिए। परिवार के लिए समय निकालिए, उनके साथ रहिए।संपर्क की वृत्ति को बनाए रखिएगा। संपर्क में दूसरी बात समय दीजिए बड़े-बूढ़ों को, बच्चों को। उस समय कोई चर्चा नहीं होगी, बस आपस में क्या चल रहा है, पूछिए स्वास्थ्य कैसा है, कैसा लगता है।
बूढ़े लोगों को उनकी पुरानी बातें करो तो उनको अच्छा लगता है। हम भी बूढ़े होंगे तब लोग आपसे पूछेंगे आपके समय में आप कैसा करते थे फिर आप उनको बताएंगे तो वो बहुत प्रसन्न होंगे। बुढ़ापे में उनको कुछ ऊर्जा प्रदान करिए, उनकी स्मृतियों को ताजा करिए।बूढ़े लोगों के पास क्यों नहीं बैठते लोग, एक तो बच्चों को यह रहता है कि दादा-दादी एक ही किस्सा 25 बार सुना चुके हैं और अब बैठाकर वही किस्सा सुनाएंगे। तो देखते ही भागते हैं लोग इधर-उधर, नहीं ऐसा मत करिए, समय दीजिए। आप अपने संपर्क से घर की वृद्धावस्था, बड़े लोगों को सुख प्रदान करें। घर में वृद्ध लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट हो इसका प्रयास करिएगा।आपने एक घटना सुनी होगी। एक घर में दादा-दादी बैठे हुए थे, पास में बच्चे बैठे हुए थे। बच्चे दादा-दादी से छिछोरापन कर रहे थे। बच्चों ने दादा-दादी से पूछा आप बताओ आपके समय और हमारे समय में कितना परिवर्तन आया। उन्होंने कहा- हां, बहुत बदल गया है वक्त, हम देख रहे हैं। बच्चे बोले- दादाजी आपकी दादीजी से शादी हुई तो आपने दादीजी को पहली बार कब देखा था। वे बोले भैया बहुत दिन तो पता नहीं लगा, वो काल ही अलग था। दादा बोलते हैं पहले बड़ी मुश्किल होती थी। दादा से बच्चों ने पूछा आप घर में रहते और आपको दादी को देखने की इच्छा होती तो आप क्या करते थे? दादा ने कहा भैया कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता था। बच्चों ने बोला दादाजी आप क्या करते थे, बताओ तो सही। दादाजी बोले हमने एक घंटी रखी हुई थी। बाहर बैठते तो घंटी बजाते, दादी आ जाती और हम उसको देख लेते। पोतों ने बोला दादाजी आप तो बड़े स्मार्ट थे।
दादाजी आप तो पुरूष थे, पुरूषप्रधान युग था तो आपने घंटी रख ली और घंटी बजा ली तो दादी आई और आपने देख लिया पर जब कभी दादीजी को आपको देखने की इच्छा हो तो दादी क्या करती होंगी। दादाजी बोले- वह थोड़ी-थोड़ी देर में आकर पूछती घंटी तो नहीं बजाई।आनंद अगर आप मनाना चाहें तो बुढ़ापे में भी मना सकते हैं। वो लोग परमात्मा की पूजा कर रहे हैं जो लोग अपने घर के बड़े-बूढ़ों को हंसा रहे हैं। हंसाइए, हम इनके अंश हैं इन्होंने रातें जाग-जागकर जीवन दिया है हमको। कल हम भी उस स्थिति में आएंगे। आज जो आप करेंगे वो कल पलटकर आपके ऊपर आ जाएगा। इसलिए घर के बड़ों को स्नेह दीजिए। परिवार में प्रेम बनाए रखिए। यह जीवन प्रबंधन का महत्वपूर्ण सूत्र है।
जानिए, क्या है सत्संग का सही अर्थ?
भक्त को प्रथम धैर्य प्रभु प्राप्ति के लिए नहीं वरन् संत की कृपा प्राप्त करने के लिए करना होती है। यह कार्य प्रभु प्राप्ति से कम कठिन तथा महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी संत की कृपा प्राप्त हो जाए तो समझो कि प्रभु प्राप्ति की आंतरिक यात्रा का प्रथम पड़ाव पूर्ण हो गया। संपर्क में तीन बातें हैं- समय दीजिएगा घर-परिवार में, सत्संग करिए।
सत्संग का अर्थ प्रतिदिन किसी विद्वान से मिलना नहीं है, कोई पुस्तक पढ़ लीजिए। आदत बना लीजिए एक पुस्तक आपके बगल में रहे, आपके बैग में रहे, आपके घर में रहे। सोने के पहले एक-आधा पन्ना पढ़ लें, दो लाइन पढ़ लें बस। कोई बात नहीं पांच साल में पुस्तक पूरी करिएगा। आपका एक अनुशासन बनना चाहिए कि आप कोई विचार उठा रहे हैं। कृष्ण ने उद्धव से जाते हुए कहा था कि उद्धव मुझे अफसोस है कि मुझे जीवन में अच्छे लोग नहीं मिले। जाते-जाते कह गए यदि कोई भूले से अच्छा आदमी आपके पास आए तो बाहों में भर लेना, दिल में उतार लेना। बड़ा मुश्किल है दुनिया में अच्छे आदमी को ढूंढऩा, नहीं मिलेंगे। आपको ऐसा लगता है कि आपने माता-पिता की सेवा कर ली, सत्संग भी कर लिया लेकिन चिंतन करके आपने जो भी कुछ किया है, रात को सोने से पहले स्वयं से एक बार पूछ लीजिएगा कि आज सबकुछ ठीक रहा।
ईमानदारी से पूछोगे तो एक थप्पड़ आपका जमीर आपको मारेगा, रोज थप्पड़ खाकर सोओगे। जरा खुद का थप्पड़ खाकर सोने का आनंद तो देखिए। आपका सद्चरित्र आपको लोरी गाकर, थपथपाकर सुलाएगा। यदि आपके जमीर ने, आपकी अंतरआत्मा ने कहा- हां आज तूने यह किया जो परमात्मा चाहता था। बस यह जीवन प्रबंधन के सात सूत्र हैं। अपने माता-पिता का आशीर्वाद प्राप्त करें। इस महाअनुष्ठान के समापन में प्रवेष कर रहे हैं। भागवत ने बार-बार यह मांग की है कि मैंने जो बताया है उसे स्मरण करते रहना।
इसलिए लगा था कृष्ण के बाएं पैर में तीर.....
अंतिम में तो भागवत ने यह कहा है कि भक्तों आप परमात्मा को याद करो तो जमकर करो, कृष्णजी ने जो भी किया जमकर किया। इसको कहते हैं शत-प्रतिशत। भक्ति को गुंजाइश में मत छोड़ दीजिएगा। भागवत का समापन करने जा रहे हैं। मैं आपसे निवेदन कर रहा हूं, भागवत बार-बार यह कह रही है कुछ छोड़ मत देना। एक दुर्गुण को अनुमति दी और युधिष्ठिर ने जुआ खेलने का निर्णय लिया और परिणाम आप जानते हैं।
कृष्णजी के जीवन की कथा आपको याद होगी। कोई कहता है दुर्वासा ऋ षि, कोई कहता है और ऋषि आए। ऋषि ने आकर यशोदा माँ से कहा तेरी गोद में यह गोपाल अच्छा लग रहा है। मेरे पास ऐसा मलहम है कि जो तू अपने बच्चे के शरीर पर लेप कर देगी तो इसको किसी शस्त्र और अस्त्र का प्रहार नहीं लगेगा। यशोदा माँ ने मलहम लेकर लगाया तो कहते हैं बाएं पैर की पगथली के आते-आते मलहम खत्म हो गया। माँ बाएं पैर की पगथली पर मलहम नहीं लगा पाई तो कृष्ण की सारी देह तो सुरक्षित हो गई केवल बाएं पैर की पगथली रह गई और इसी पर वह तीर लगा और कृष्ण चले गए। बस, इतना सा हिस्सा शरीर का छूट गया और जीवन का दांव लग जाएगा। कुछ छोडि़एगा मत। इतना सा छूटा और आप गए काम से। दुर्र्योधन को पांडव मारने के लिए दौड़ रहे थे, भीम ने शपथ ली थी कि इसकी जंघाओं को तोड़ दूंगा। गांधारी को पता लगा तो उसने कहा मेरे पुत्र को बुलाओ और उसको सूचना दो कि वह वस्त्र पहनकर नहीं आए। गांधारी को वरदान था कि जिस समय वह पट्टी खोलकर किसी को देखेगी उसकी देह लोहे की हो जाएगी, वज्र की हो जाएगी। अपने पुत्र को सूचना दी निर्वस्त्र आना।
दुर्योधन अपनी माँ के पास निर्वस्त्र जा रहा था। बीच में ही कृष्णजी मिल गए। उनको सब सूचनाएं थीं कि क्या हो रहा है। उन्होंने कहा- कहां जा रहे हो भाई इस तरह से। उसने कहा माँ ने बुलाया है। अरे! मां ने बुलाया ऐसे? माँ ने आदेश दिया है ऐसे आने का। कृष्ण ने कहा- माँ तो बुढ़ी है, तुझे तो अक्ल होना चाहिए। कोई जवान बेटा माँ के सामने ऐसा जाता है। कम से कम जंघाओं पर पत्ते लपेट ले। दुर्योधन ने कृष्ण को देखा कि यह सलाह दे रहे हैं या कुछ और बात है। कृष्ण बोले नहीं-नहीं सही बात कर रहा हूं, तेरे हित की बात कर रहा हूं, मर्यादा की बात कर रहा हूं। उसने जंघाओं पर केले के पत्ते लपेट लिए, माँ के सामने गया।
कैसे हुआ पापी दुर्योधन के जीवन का अंत?
कृष्ण ने कहा- माँ तो बुढ़ी है, तुझे तो अक्ल होना चाहिए। कोई जवान बेटा माँ के सामने ऐसा जाता है। कम से कम जंघाओं पर पत्ते लपेट ले। दुर्योधन ने कृष्ण को देखा कि यह सलाह दे रहे हैं या कुछ और बात है। कृष्ण बोले नहीं-नहीं सही बात कर रहा हूं, तेरे हित की बात कर रहा हूं, मर्यादा की बात कर रहा हूं। उसने जंघाओं पर केले के पत्ते लपेट लिए, माँ के सामने गया।
गांधारी ने पट्टी हटाई और जैसे ही दुर्योधन को देखा तो एकदम से चिल्लाई यह तूने क्या किया। मैंने तुझे आदेश दिया था कि निर्वस्त्र होकर आना और तू ऐसे आ गया। मैं पहली बार जिसे देखती वो वज्र का हो जाता। तू पूरा वज्र का हो गया पर वो हिस्सा तूने जंघाओं पर पत्ते लपेट लिए, तुझे यह सलाह किसने दी? वह बोला उनका आशीर्वाद है। गांधारी ने सिर पीट लिया। अब शाप नहीं दे, तो क्या करे बेचारी। जब दुर्योधन युद्ध कर रहा था, दुर्योधन को
कुछ नहीं हो रहा और भीम थक गया। चारों पांडव खड़े थे, अंतिम युद्ध हो रहा था। धूल में लोट लगा रहा था दुर्योधन और मारे जा रहा था भीम, पर दुर्योधन को कुछ हो ही नहीं रहा था। तब भगवान से सबने कहा भीम तो थक गया है और पलटकर एक भी गदा दुर्योधन ने लगा दी तो भीम यहीं समाप्त हो जाएगा। हम जीतकर भी हार जाएंगे। भगवान देखते रहे-देखते रहे, खूब पीट लिए भीम।
तब भगवान ने इशारा किया अर्जुन को कि जरा जंघाएं ठोंक दो। बस ऐसा इशारा किया और भीम को तो याद था जरासंध को जब मरवाया था भगवान ने। जैसे ही ईशारा हुआ, उसकी जंघाओं पर प्रहार हुआ और वह समाप्त हुआ। शरीर का इतना सा हिस्सा रह गया और जीवन का मोल चुकाना पड़ा। जीवन में कुछ छोडि़एगा मत। जब भी कोई काम करें, जमकर करें।
इतना सा छूटा सफलता संदिग्ध हो गई। इसलिए भक्ति पूर्णता मांगती है और निष्कामता से पूर्णता आएगी। यह ग्रंथ आपसे मांग कर रहा है पूर्णता में ही परमात्मा है। परमात्मा को अधूरे, अपूर्ण काम पसंद नहीं हैं। यहां एक बात समझ ली जाए। श्रीकृष्ण पाण्डवों के जीवन में गुरु के रूप में थे। हमें यही सीखना चाहिए कि गुरु का जीवन में बड़ा महत्व होता है।
सफलता के लिए जरुरी है इन दो बातों को याद रखना
गुरु बनाने के संबंध में एक लोकोक्ति प्रचलित है कि गुरु कीजै जान के, पानी पीजै छान के।। यह लोकोक्ति अपने आप में कोई स्पष्ट तात्पर्य नहीं बताती, क्योंकि गुरु बनाया नहीं जाता वे तो अनेकों पूर्व जन्मों के संस्कारवश मिल जाते हैं। निश्चित वार, तिथि, घड़ी में वे दीक्षा देकर साधक को कृतार्थ कर शिष्य बनाते हैं। शिष्य बनाते ही शिष्य के भार को वे वहन कर लेते हैं, गुरु शब्द में यह सार्थकता निहित है। अयोग्य शिष्य के पाप या पुण्य के भागीदारी गुरु भार वहन करते ही हो जाते हैं। माता-पिता के संस्कारों की भांति गुरु के संस्कार भी शिष्य में उतरते हैं। नित्य सतत् आध्यात्मिक साधना में लीन गुरु ही भार वहन करने में समर्थ होता है, क्योंकि वह अपने तथा शिष्य के कर्मों को ज्ञानाग्नि में नित्य दुग्ध करता जाता है।
इसी प्रकार गुरु के कर्मों का शिष्य भी भागीदार होता है। अतएव आवश्यक है कि गुरु शिष्य दोनों आध्यात्मिक पथ को नित्य साधन से आलोकित करते जाएं। आज के वातावरण में महापुरुषों पर विश्वास जमना कठिन है। भ्रम जाता नहीं, संस्कार जागते नहीं, साधन, पूजन, तप इत्यादि कर्म निष्काम होते नहीं, ऐसे में अध्यात्म पथ पर चला कैसे जाए, यह एक गंभीर और अहम सवाल है।
पूर्व में चले आ रहे महापुरुषों की गाथाएं व चरित्र हमारे सामने हैं। उनकी वाणियां हैं, उनके आचरण और वाणियों का प्रतिपालन करने के प्रयत्न से वासना नष्ट करने में सहायता मिलेगी। वासना के नष्ट होने से संत का सान्निध्य इस जन्म में या अगले जन्म में मिल सकता है। वर्तमान जन्म के अंतिम निमिष में अगले जन्मों का क्रम निश्चित हो जाता है।
गुरु साधन या अन्य आध्यात्मिक क्रियाओं की दीक्षा या शिक्षा देकर उस अभ्यास में पटुकर कर देते हैं कि अंतिम निमिष में मोझा की ओर बढ़ जाता है या अपनी अनन्त यात्रा में, उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ भगवान श्रीकृष्ण से प्राप्त प्रमाणिकता शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोअभिजायते योगभ्रष्ट पवित्रात्मा श्रीमांत के घर में जन्म लेता है और पूर्वाभ्यास के वशीभूत विरक्त हो योग संसिद्ध हो परमगति को प्राप्त करता है।
प्रत्येक साधन या उपासना पद्धतियों में गुरु का स्थान सर्वोपरि निरुपित किया गया है। न काटे जाने के कारण व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से ईश्वरीय शक्ति कार्य करती है उसे गुरु कहा जाता है। उसे ज्ञान होता है ईश्वर या परमात्मा सभी जगह व्याप्त है, महापुरुष उसे प्रगट में व्याप्त देखता है, इसी महात्मा से साधक आत्मसंतुष्ट रहने की शक्ति प्राप्त करता है।
यहां गुरु के संबंध में विश्वास को महाभारत में एकलव्य की कथा वर्णित है। विश्वास और अभ्यास से द्रौणाचार्य को गुरु मानकर एकलव्य नियमित शिष्यों की योग्यता से बहुत ऊपर उठ गया था। सफलता के लिए ये दोनों ही बातें याद रखना जरुरी है क्योंकि ये प्रवीणता प्रमाण है। गुरु ही वह परम शक्ति होती है जो शिष्य के लक्ष्य को स्पष्ट करती है। साधक आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
जानिए, क्यों सुनाई जाती है भागवत?
महात्म्य- यहां एक बार फिर भागवत का महात्म्य बताया है। महात्म्य में वज्रनाभ और परीक्षित राजा की संक्षेप में कहानी आई है। परीक्षित कौरवों का अंतिम राजा था और वज्रनाभ यदुवंशियों का अंतिम राजा। दोनों एक-दूसरे के वंश की बात करते हैं। दोनों एक दूसरे की बात का समापन करते हैं। यहां धीरे-धीरे भागवत समाप्त हो रही है और भागवत के अंत में श्रोता और वक्ता के लक्षण बताते हुए दोनों को सावधान करते हुए समापन किया जा रहा है। भागवत कह रही है आप भागवत में उतरे हैं सावधान रहिएगा।
श्रोता और वक्ता यह ध्यान रखें जिस उद्देश्य के लिए आपने भागवत में प्रवेश किया उस उद्देश्य को छोडि़एगा नहीं। भगवान साक्षात रूप से तैयार हैं आपके जीवन में आने के लिए। भगवान ने भागवत में दो बातें मांगी हैं आरंभ में भी और अतं में भी। मुझे आपका चित्त चाहिए, भागवत में चित्त मांगा गया है। उसी भागवत में आगे भी लिखा है कि मुझे आपका वित्त भी चाहिए। ऐसा कहते हैं कि तन की शुद्धि स्नान से, मन की शुद्धि ध्यान से और धन की शुद्धि दान से। भागवत कहती है खूब दान करिएगा, लेकिन घबराइएगा नहीं।
भागवत आपसे जिस चित्त और वित्त की मांग कर रही है भागवत के समापन पर, चित्त तो आप दे रहे हैं, जो आपके भीतर है। लेकिन जो वित्त आपसे मांगा जा रहा है, हमारी सारी पूंजी क्या है आज आप इस भागवत समापन पर कम से कम इतना जरूर चढ़ाएं। भागवत आपसे मांग रही है कि आप अपनी अशांति चढ़ा दीजिएगा, आपका दुर्गुण चढ़ा दीजिए, आपका विषाद सौंप दीजिए इस पर, आपका दु:ख सौंप दीजिएगा, आपका काम, आपका क्रोध, आपका मद, आपका लोभ छोड़ दें इस पर। दुनिया गोल है, जीवन छोटा है पता नहीं कब और कहां मिलेंगे। भगवान कहते हैं एक हाथ से सौदा कर लो दुर्गुण का और एक हाथ से मुझे ले लो।
अब इससे सस्ता सौदा क्या हो सकता है? आपको कुछ भी नहीं देना भगवान के लिए। यह तो भ्रम है कि हजारों चढ़ाएं, लाखों चढ़ाएं तो भगवान मिलता है। आपका जो भी दुर्गुण है आप सौंप दीजिए भागवत तैयार है। आपके जीवन की अशांति दे दीजिए स्वीकार है।
वक्ता को भागवत ने आदेश दिया है कि श्रोताओं की अशांति, उसका विषाद, उसकी निराशा, उसकी थकान, उसकी बैचेनी, उसकी परेशानी और उसके जीवन का दु:ख लेकर जाना तब भागवत संपन्न होती है।
कीचड़ उनके पास था मेरे हाथ गुलाल, जो भी जिसके पास था उसने दिया उछाल
भागवत आपसे जिस चित्त और वित्त की मांग कर रही है भागवत के समापन पर, चित्त तो आप दे रहे हैं, जो आपके भीतर है। लेकिन जो वित्त आपसे मांगा जा रहा है, हमारी सारी पूंजी क्या है आज आप इस भागवत समापन पर कम से कम इतना जरूर चढ़ाएं। भागवत आपसे मांग रही है कि आप अपनी अशांति चढ़ा दीजिएगा, आपका दुर्गुण चढ़ा दीजिए, आपका विषाद सौंप दीजिए इस पर, आपका दु:ख सौंप दीजिएगा, आपका काम, आपका क्रोध, आपका मद, आपका लोभ छोड़ दें इस पर। दुनिया गोल है, जीवन छोटा है पता नहीं कब और कहां मिलेंगे। भगवान कहते हैं एक हाथ से सौदा कर लो दुर्गुण का और एक हाथ से मुझे ले लो। अब इससे सस्ता सौदा क्या हो सकता है? आपको कुछ भी नहीं देना भगवान के लिए।
यह तो भ्रम है कि हजारों चढ़ाएं, लाखों चढ़ाएं तो भगवान मिलता है। आपका जो भी दुर्गुण है आप सौंप दीजिए भागवत तैयार है। आपके जीवन की अशांति दे दीजिए स्वीकार है।वक्ता को भागवत ने आदेश दिया है कि श्रोताओं की अशांति, उसका विषाद, उसकी निराशा, उसकी थकान, उसकी बैचेनी, उसकी परेशानी और उसके जीवन का दु:ख लेकर जाना तब भागवत संपन्न होती है।भगवान से प्रार्थना करता हूं कि आपके जीवन में यश हो, मंगल हो। आपका निजी जीवन बहुत सुखी हो। आपके पारिवारिक जीवन में शांति हो, जो काम आप करते हों उसमें आपका विकास हो। जिस क्षेत्र में आप रहते हों उसकी प्रगति हो। आपको मनोवांछित की पूर्ति हो, आपका मंगल हो, यश हो।
आपको कीर्ति की प्राप्ति हो और सबसे बड़ी बात परमात्मा की प्राप्ति हो। यह संयोग से नहीं घटता, यह सौभाग्य से घटता है। भगवान से प्रार्थना करते हैं हम कि सचमुच जो वसुदेव का विश्वास हैं, देवकी की दौलत हैं, जो बलराम का बल हैं, कृपा के सिंधु है, सबके बंधु हैं, गोपियों के मनबसिया है, राधा के रसिया हैं, जो भीष्म का भरोसा हैं, अर्जुन की आस्था हैं, कंस का काल हैं, जो जरासंध का महाकाल हैं, जो देवकी की दौलत हैं, जो यशोदा का यश हैं, भारत का भाग्य हैं, नंद का आनंद हैं और पं. विजयशंकर का परमानंद है वो आपके जीवन में भी परमानंद बनकर उतरे। एक छोटी सी कथा को ध्यान में रखिएगा। एक गुरूजी अपने शिष्यों के साथ सत्संग कर रहे थे। रोज नाशपाती के बारे में जानकारी देते कि नाशपाती ऐसा फल है, नाशपाती को खाओ तो ऐसा स्वाद है।
दो तीन दिन तक लगातार प्रवचन दिए और एक दिन वो आए तो भक्तों ने देखा उनके हाथ में टोकरी थी जिसमें नाशपाती थी। उन्होंने नाशपाती सबको बांट दी और कहा खाओ मेरे सामने, सबने खा ली और उन्होंने सबसे पूछा- मैंने तीन दिन तक विस्तार से नाशपाती का वर्णन किया। यह नाशपाती तुमने खाई तो तुमको कैसा लगा। एक शिष्य ने खड़े होकर कहा महाराजजी यह तो खाने के बाद ही पता लगा कि आपने जो वर्णन किया यह तो उससे भी अच्छी नाशपाती थी। वर्णन से कुछ नहीं वो तो स्वाद से पता लगा। लेकिन एक और बात एक शिष्य ने खड़े होकर कही कि हमें यह जो नाशपाती इतनी अच्छी लगी यह बात हम आपसे कह रहे हैं इसके लिए हमारा आग्रह है कि आप भी नाशपाती खाकर देखिए गुरूजी तभी पता लगेगा कि हमें कितनी अच्छी लगी।
मेरा आपसे निवेदन है कि मैंने भागवत पर आपको इतना बताया पर जब तक आप अपने निजी जीवन में भागवत को चखेंगे नहीं आपको इसके स्वाद का पता नहीं लगेगा। जैसे ही चखा तो आप कहोगे अरे पंडितजी ने जो पढ़ाई थी उससे तो लाख दर्जा आनंद आया। उनको तो लिखना ही नहीं आई। इसमें जो है वह कमाल है। इसका स्वाद लीजिएगा, मैं ग्रंथ को समेटने जा रहा हूं। इसके पृष्ठ जब बंद कर रहा हूं आप अपने जीवन के पृष्ठ खोलिए उस पर भागवत लीखिए, पढि़ए और जीएं। भागवत से आप आज बहुत लेकर जाएं और एक बात तय कर लीजिए यदि भागवत से वो लेकर गए जो लेकर जाना था, संसार का कायदा है कीचड़ उनके पास था मेरे हाथ गुलाल, जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल। आपके पास जो है उसको समाज में बांटिएगा, विदाई ले रहे हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
यदुवंश के मृत व्यक्तियों का श्राद्ध अर्जुन ने विधिपूर्वक करवाया। भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवास स्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारिका डुबो दी।पिण्डदान के पश्चात स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आए। वहां सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया। हे परीक्षित्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद पर अभिषिक्त करके हिमालय की वीरयात्रा की।
परीक्षित ने शापित होने के कारण शुकदेवजी से जो कथा सुनी थी उसके नायक भगवान श्रीकृष्ण थे। नायक अपनी लीला समेट कर जा चुके हैं और परीक्षित के मन में अनेक छोटे-बड़े प्रश्न पुन: तैयार हो गए हैं। शुकदेवजी परीक्षित को समझा चुके हैं कि मैंने विस्तार से कृष्ण चरित्र सुनाया है और तुम जान गए होंगे कि धर्म क्या है? जीवन का आरंभ, मध्य और समापन कैसे होता है? इस प्रकार ग्यारहवें स्कंध का समापन होता है।
आइए, इसी के साथ भागवत की कथा अब बारहवें स्कंध में प्रवेश कर रही है। यहां कलयुग का वर्णन आएगा। शुकदेवजी ने जिस बारीकी से और विस्तार के साथ कलयुग का वर्णन किया है हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। अब जो चित्रण आएगा उससे हम अच्छी तरह से परिचित हैं, लेकिन हमें अब उससे सीखना है कि कलयुग की घटनाएं हमारे भीतर न जन्म लेने लगे। बाहर के दुनियादारी के जीवन में कलयुग का होना स्वाभाविक है। बारहवें स्कंध से हम यह सीखें कि हमारे भीतर कलयुग की स्थिति न बन जाए।
कलयुग तो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि भगवान जाएं और मैं आऊं। जब-जब जीवन से भगवान गए, कलयुग आया। भगवान कह रहे हैं अब मैं जा रहा हूं, आप कलयुग को पहचानिए, जानिए। द्वादश स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी कलयुग के बारे में जानकारी दे रहे हैं। कलयुग आएगा तो हमको दिखेगा जीवन का विपरीत घट रहा है। कलयुग में वो लोग जो नीचे बैठे हुए, ऊपर नजर आएंगे। कलयुग जब आएगा तो पापी व्यक्ति जो हैं वे पूजे जाएंगे। कलयुग जब आएगा तो अयोग्य लोग समर्थों पर राज करेंगे। कलयुग जब आएगा तो जो चोर होगा वह साहूकार के रूप में पूजा जाने लगेगा। जो जोर से बोलेगा उसकी बात सुनी जाएगी। भगवान कलयुग का लम्बा-चौड़ा वर्णन करते हैं और हम तो कलयुग को अच्छी तरह से परिचित हैं।
'समय-समय की बात है और समय-समय का योग, लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग।कलयुग में ऐसा होता है। जो पतीत है, जो चरित्र से गिरा है वह ऊपर चला जाता है। 'गिरने वाला तो छू गया बुलंदी आसमान की और जो संभलकर चल रहे थे वो रेंगते नजर आए इसका नाम कलयुग है। कलयुग में कौन किसकी मदद कर रहा है यह पता ही नहीं लगता। आपको जो सहयोगी दिख रहा है वह पीछे षडयंत्र कर रहा होगा। कलयुग में कौन आपसे प्रेम से बात कर रहा है यह ज्ञात ही नहीं होता। कलयुग में आपका शत्रु है या मित्र है यह भान ही नहीं होता। कलयुग में मनुष्य प्रेम प्रदर्शन के, एक-दूसरे से हिसाब-किताब चुकाने के नए-नए तरीके ढूंढ लेता है।
जानिए, कलयुग में कैसा होगा वैवाहिक जीवन?
शुकदेवजी कहते हैं- राजन् परीक्षित! ज्यों-ज्यों घोर कलयुग आता जाएगा, त्यों-त्यों धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्ति का लोप होता जाएगा। कलयुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा। विवाह संबंध के लिए कुल-शील-योग्यता आदि की परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवती की पारस्परिक रूचि से ही संबंध हो जाएगा।
आज जिस तरह से विवाह हो रहे हैं वो परिवार चलाने के लिए न होकर सिर्फ एक समझौता किया जा रहा है। भारत के परिवार अपने दाम्पत्य के कारण जाने गए। विवाह केवल स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं होता। इसमें वंश वृद्धि का भी एक भाव रहता है। पर आज महत्वाकांक्षा के युग में जब विवाह हो रहे हैं तो केवल स्त्री-पुरुष नहीं मिल रहे दो शिक्षाएं, दो महत्वाकांक्षाएं और दो अहंकार का मिलन हो रहा है। और इसीलिए विवाह संबंध बोझ बन गए हैं, तनावपूर्ण बन गए हैं। कलयुग में दाम्पत्य में स्त्री-पुरुष के संबंधों को भक्ति से संयुक्त रखना लाभकारी होगा।
शास्त्रों में व्यक्त है कि गृहस्थी में कर्म करते हुए भी भक्त को स्त्री, धन, नास्तिक तथा वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए। यहां सवाल उठता है कि भक्त का अधिकार क्या केवल पुरुषों को ही है जो उन्हें ही स्त्रियों का चरित्र सुनने से मना किया गया है। यदि कोई स्त्री भक्त हो तो वह क्या करे? शास्त्रों में स्त्री शब्द का प्रयोग प्रतीकात्मक ही है जिसे काम-वासना के रूप में लिया जाना चाहिए। जिस प्रकार पुरुष भक्तों को स्त्रियों का चरित्र नहीं सुनना चाहिए उसी प्रकार स्त्री भक्तों को भी पुरुषों का चरित्र सुनने से बचना चाहिए। इसी प्रकार आत्मविमुख स्त्री-पुरुषों के जीवन-प्रसंग तथा अपने प्रति शत्रुता का भाव रखने वाले स्त्री-पुरुष की बातें तथा धन-संचय-चर्चा भक्त को नहीं सुनना चाहिए।
काम-वासना के संस्कार प्रत्येक स्त्री-पुरुष के मन में जन्म-जन्मांतर से ही संचित हैं, जिनकी प्रसंग श्रवण से उद्वीप्त हो उठने की सम्भावना हो सकती है। जिसका मन काम-वासना में लिप्त हो, वह भला भगवान का भजन क्या करेगा। मन उधर गया कि लक्ष्य अंतर-जाग्रत भक्ति-शक्ति से हट गया। इस प्रकार बार-बार लक्ष्य काम-वासना की ओर ही जाते रहने से, भक्ति-शक्ति की क्रियाशीलता में अंतर आ सकता है। चिन्तन-श्रवण से काम की उत्पत्ति होती है तथा काम, प्रेम का विरोधी भाव है। प्रेम की पवित्रता इसी में है कि उसमें वासना का लेशमात्र भी समावेश न हो।
जानिए, कितने दिनों का होता है ब्रह्माजी का एक दिन?श्री शुकदेव ने कहा - परीक्षित! (तीसरे स्कंध में) परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूं। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो। इस प्रकार अब हम 12 वें स्कंध के चौथे अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं। परीक्षित देह छोडऩे वाले हैं। जाते-जाते शुकदेवजी उनको प्रलय के बारे में बता रहे हैं।एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के इस दिन को ही कल्प भी कहते हैं।
एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रह्मा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है। इसक नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अंदर समेट कर लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात शेषशायी भगवान नारायण भी शयन कर जाते हैं।इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो पराद्र्ध की आयु समाप्त हो जाती है।
तब महत्तत्व, अहंकार और पंचजन्मात्रा ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं। राजन्! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है।उस समय ब्रह्माण्ड के भीतर का सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सबकुछ जलमग्न हो जाता है। इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है, अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है।इस प्रकार प्रलय का वर्णन शुकदेवजी ने किया।
हमारे समझने की बात यह है कि प्रलय का अर्थ है ध्वंस और पुनर्निर्माण। जीवन में स्थितियों के साथ ऐसा ही होता है। जब हम असफल हो जाएं तो पुन: सफलता की तैयारियां करें। शुकदेवजी आगे समझा रहे हैं।जैसे व्यवहार में मनुष्य एक ही सोने को अनेकों रूपों में गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपों में मिलता है। इसी प्रकार व्यवहार में निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणी के द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान का भी अनेकों रूपों में वर्णन करते हैं।
बादल सूर्य से उत्पन्न होता है और सूर्य से ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्य के ही अंश नेत्रों के लिए सूर्य का दर्शन होने में बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहंकार भी ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, ब्रह्म से ही प्रकाशित होता और ब्रह्म के अंश जीव के लिए ब्रह्मस्वरूप के साक्षात्कार में बाधक बन बैठता है।
परीक्षित को शुकदेवजी ने चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया- नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है। हे परीक्षित! भगवान नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं।
'काया कसो कि बन बसो, हसो की साधौ मौन'
एक जगह तुलसीदास जी भी लिखते हैं कि कुछ भी कर लो मुक्ति और परमात्मा तब तक नहीं मिलता है जब तक की मन को साधा न जाए। वे कहते हैं कि 'काया कसो कि बन बसो, हसो की साधौ मौन। तुलसी मन साधे बिना, छुटे न पावा गौन ' यानी परमात्मा की प्राप्ति के लिए आप कुछ भी कर लो। शरीर को सुखाकर कस लो, यानी व्रत उपवास करो जिंदगी भर, या फिर वन में ही बस जाओ। खूब हंसों या एकदम मौन साध लो, मुक्ति तो तभी संभव है जब आप मन को साध लें। मन को साधे बिना कल्याण संभव नहीं है। श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को और शुकदेव जी भी राजा परीक्षत को यही समझा रह हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित को जीवन का सार समझाया है। सारे झगड़ों की जड़ हमारा मन ही है। बुद्धि में जब तक विवेक नहीं जागेगा तब तक वह मन के मत से ही चलेगी। परीक्षित! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपुर कर लो और स्वयं ही अपने अंतर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो। देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो। तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा।
तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे। तुम इस प्रकार अनुसंधान चिंतन करो कि मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूं। स्वयं के भीतर ही उतर जाओ, तुम्हें सारी सृष्टि खुद के भीतर दिखाई देने लगेगी। हमारे भीतर मृत्यु का जो भय बैठा हुआ है वह स्वयं ही दूर हो जाएगा। इस प्रकार तुम अपने आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो। तुम ये स्वीकार कर लो कि तुम उसी परमपिता परमात्मा के एक अंश हो और वह साक्षात तुम्हारे भीतर विराजमान है। उसे अपने भीतर ही खोज लो। संसार में बाहरी साधनों परमात्मा की खोज बहुत मुश्किल भी है और इसमें कई जन्मों को समय भी लग सकता है लेकिन अपने भीतर के परमात्मा को खोजने में तुम्हें कुछ ही क्षण लगेंगे। इसके लिए ध्यान में परमात्मा को केंद्र बनाओ और अपने भीतर के विषय विकार वाले सारे विचारों को निकाल फेंकों।
मन की मत सुनिए नहीं तो मुश्किल हो जाएगी
श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को और शुकदेव जी भी राजा परीक्षत को यही समझा रहे हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित को जीवन का सार समझाया है। सारे झगड़ों की जड़ हमारा मन ही है। बुद्धि में जब तक विवेक नहीं जागेगा तब तक वह मन के मत से ही चलेगी। परीक्षित! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपुर कर लो और स्वयं ही अपने अंतर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो। देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो। तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा।
तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे। तुम इस प्रकार अनुसंधान चिंतन करो कि मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूं। स्वयं के भीतर ही उतर जाओ, तुम्हें सारी सृष्टि खुद के भीतर दिखाई देने लगेगी। हमारे भीतर मृत्यु का जो भय बैठा हुआ है वह स्वयं ही दूर हो जाएगा। इस प्रकार तुम अपने आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो।
तुम ये स्वीकार कर लो कि तुम उसी परमपिता परमात्मा के एक अंश हो और वह साक्षात तुम्हारे भीतर विराजमान है। उसे अपने भीतर ही खोज लो। संसार में बाहरी साधनों परमात्मा की खोज बहुत मुश्किल भी है और इसमें कई जन्मों को समय भी लग सकता है लेकिन अपने भीतर के परमात्मा को खोजने में तुम्हें कुछ ही क्षण लगेंगे। इसके लिए ध्यान में परमात्मा को केंद्र बनाओ और अपने भीतर के विषय विकार वाले सारे विचारों को निकाल फेंकों।
सुख तब तक सुख नहीं जब तक कि.....
परीक्षित! जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बाण की गाँसी बना ली थी। उसे दूर से भगवान का लाल-लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया। जब वह पास आया, तब उसने देखा कि अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं। तब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिए डर के मारे काँपने लगा।
उसने कहा- हे भगवान! मैंने अनजाने में यह पाप किया है। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिए। मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया। आप मुझे अभी-अभी मार डालिए, क्योंकि मर जाने पर मैं फिर कभी आप जैसे महापुरुषों का ऐसा अपराध नहीं करूंगा।भगवान कृष्ण ने कहा- तू डर मत! यह तो तूने मेरे मन का काम किया है। जो मेरी आज्ञा से तू उस स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है।
जरा नाम का शिकारी भगवान की कृपा पा गया। भक्ति इसी का नाम है। हम भी जीवन को समेटने के अवसर पर एक बात समझ लें। सूत्रकार ने दु:ख से पहले सुख त्याग की बात कही है। यह सम्भव नहीं कि जीव दु:ख का त्याग कर दे तथा सुख भोग ले। यद्यपि प्रत्येक जीव जगत में सुख की ही कामना करता है, परन्तु पाता दु:ख ही है। बीच-बीच में उसे सुख का आभास अवश्य होता रहता है। सुख दु:ख का जोड़ा है। कभी सुख तो कभी दु:ख। न सदैव सुख रहता है, न दु:ख। जिसे सुख-दु:ख से अतीत अवस्था प्राप्त करने की जिज्ञासा हो, उसे दोनों का ही त्याग करना होगा। सुख का अर्थ न यहां सुख से है, न दु:ख का अर्थ दु:ख से है। अपितु सुखी होना तथा दु:खी होना है, क्योंकि सुख तब तक सुख नहीं जब तक कोई उससे सुखी न हो। इसी प्रकार दु:ख भी तब तक दु:ख नहीं जब तक कोई उसमें दु:ख का अनुभव न करे।
सुख तथा सुखी होने और दु:ख तथा दु:खी होने का यह अंतर विचारणीय है। भाव यह है कि नारदजी जब सुख-दु:ख के त्याग की बात कहते हैं तो उनका भाव सुखी तथा दु:खी न होने से है। सुख दु:ख तो प्रारब्धवशात आएंगे ही। उन्हें त्यागने का अधिकार मनुष्य के पास है ही नहीं। किन्तु, हां वह भक्ति के निरन्तर अभ्यास तथा परम-प्रेम-रूपा भक्ति की कृपा से, ऐसा चित्त अवश्य विकसित कर सकता है जो सुख से सुखी न हो तथा दु:ख से दु:खी न हो। यही सूत्रकार भक्त से आशा करते हैं।
अब रही बात इच्छा की, तो किसी की भी सब इच्छाएं पूरी हुई हैं क्या? यदि कभी भाग्यवश कोई पूरी होती भी है तो उससे पूर्व ही दस दूसरी उभर आती हैं। अभाव का भाव सदैव ही यथावत रहता है। इच्छा पूर्ति का केवल एक ही उपाय है कि कोई इच्छा रहे ही नहीं। यही पूर्णकामता है जो परम-प्रेम-रूपा भक्ति की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। उसी अवस्था की इच्छा करने को नारदजी कहते हैं। यह इच्छा पूरी होने पर अन्य सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं।
लाभ से अर्थ हानि-लाभ का विचार है जिसके फल की आशा रख कर ही जीव लाभ के लिए कर्म करता है। वह कर्म के मनोनुकूल फल को ही लाभ मानता है। किन्तु, लाभ अकेला कभी नहीं आता, उसके साथ सदैव हानि भी लगी रहती है। अपितु हानि तो लाभ से भी आ पहुंचती है। सुख दु:ख की भ्रान्ति हानि-लाभ का भी अर्थ है। फल की अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्ध के अधीन है, जो होना होगा।
नजरिया बदलिए तो नजारे अपने आप ही बदल जाएंगे
निंदा आपको भीतर से चाटती है। आपके सत्य, प्रेम, निष्ठा, सृजन हर चीज को खत्म करती है। निंदा को जीवों में दीपक की तरह माना गया है। यह हमें भीतर से खोखला करती है। हम निंदा में रस की अनुभूति करते हैं लेकिन यह रस भीतर हमारे लिए विष का काम करता है। हमारी अच्छाइयों को गलाता है, जलाता है। निंदा की आदत से बचिए। बुरा देखने, सुनने और बोलने तीनों कामों में हमारे अच्छे कर्मों और अमूल्य समय का नाश होता है। इससे बेहतर है कि जो अच्छा है उससे कुछ सीखें। उसी में अपने आप को डूबो दें। बुराई करना और सुनना दोनों कई लोगों के लिए आनंददायक काम है लेकिन यह केवल हमारी शक्ति का हृास और समय की बर्बादी है। एक घटना है, एक भैयाजी थे और वो इस बात के लिए मशहूर थे कि उनको किसी भी कार्यक्रम में बैठा दो वो कुछ न कुछ छांटकर आपकी निंदा करके बता ही देंगे। वो ढूंढ लेते थे कि गड़बड़ क्या है।
वे इस बात में दक्ष थे। लोग डरते थे कि कार्यक्रम में ये आए तो कुछ न कुछ खोट निकालकर जाएंगे, इनका निंदा का स्वभाव है। एक बार कुछ युवकों ने सोचा कि यह अंकलजी जो हैं हर कार्यक्रम में कुछ न कुछ छेड़ाखानी करते हैं। उन्होंने सोचा कि एक बार हम ऐसा कार्यक्रम करेंगे और इन अंकलजी को बुलाकर कहेंगे अब आप बताओ इसमें क्या खोट है। बड़ा परफेक्ट कार्यक्रम किया उन्होंने। हर चीज व्यस्थित और अंकलजी को बुलाया।अंकलजी ने आते ही अपना काम शुरू किया, आसपास देखना शुरू किया। एक- आधे घंटे में उनका स्वास्थ्य बिगडऩे लगा। जब कार्यक्रम अच्छे से निपट गया तो बच्चों ने पूछा अंकलजी! इस कार्यक्रम के बारे में आप बताएं। अंकजलजी ने सोचा पीछे से निकलो कुछ दिखा तो है ही नहीं। लेकिन बच्चों ने पकड़ लिया और पूछा अंकलजी बताएं आपको कुछ दिखता है ऐसा। अंकलजी क्या बताएं, उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या बोलें। पर अंकलजी का स्वभाव बन गया निंदा, जब बहुत ज्यादा दबाव डाला गया तब अंकलजी ने कहा- अब भला इतना अच्छा भी करना किस काम का। जब निंदा बस जाती है तो बड़ी मुश्किल से छुटती है।
आपने सुना होगा बहू कछ भी करे सासूजी उसमें खोट निकालती थी। बहू जब भी भोजन बनाती सासूजी ने तय कर लिया था कि आज यह खराब, इसमें यह नहीं डला, बेचारी परेशान हो गई। छह महीने तक सेवा करती रही, नई-नवेली थी। उसने सोचा एक दिन ऐसा भोजन बनाऊंगी जिसमें खोट न हो। ससुरजी से पूछा आपको तो मालूम होगा न इनको कैसा खाना पंसद है। ससुरजी ने कहा यदि मुझे मालूम होता तो क्या बात थी, यह तो तू ही जान तेरी। बेचारी परेशान हो गई। तमाम विधियां अपनाई उसने और एक दिन ऐसा स्वादिष्ट भोजन बनाया और रख दिया थाली में।
सचमुच भोजन ऐसा था कि ससुर ने कहा आज ये बोल नहीं पाएगी। देखते हैं आज सासूजी क्या करती है। जैसे ही सासू ने भी खाया तो ऐसा ही था निर्दोष। अब बहू ने सोचा कि अब देखते हैं क्या बोलती हैं।
तारीफ करने का तो सवाल ही नहीं था, चुप रही सासूजी। ससुरजी ने कहा आज तो भोजन बहुत अच्छा है, कुछ बोलो बहू को। सासूजी ने कहा- पहले ऐसा भोजन क्यों नहीं बनाती थी। अगर आप तय कर लें कि निंदा करना है तो यही आपका स्वभाव बन जाएगा। नजरिया बदलिए तो नजारे अपने आप ही बदल जाएंगे और जो नजरिया नहीं बदलना चाहते उनका कोई इलाज ही नहीं है। अहंकार इसलिए स्वभाव नहीं बनता कि आपसे बड़ा वाला आ जाए तो आप दो मिनट में चुप हो जाओगे। लेकिन निंदा का क्या करोगे और निंदा भगवान को इसलिए भी पसंद नहीं है। भगवान बोलते हैं कि सब मेरी कृति है जब आप किसी के नयन, नक्ष, चाल, ढाल, बोलचाल पर टिप्पणी कर रहे हैं तो आप भगवान की कृति का अपमान कर रहे हैं। यह इसका आध्यात्मिक अर्थ है। इसलिए निंदा घोर दुर्गुण है।
ये है पूजा का नियम जब भी करें पूजन ध्यान रखें
दिनभर जिसकी पूजा करते हो उसकी कृति का अपमान करना गलत है। कोई अपने माता-पिता को बुरा नहीं कहता है। बेटा कितना ही पढ़ा लिखा हो जाए और मां अगर कम पढ़ी लिखी है, सुदर्शना नहीं है तो भी वह उतना ही सम्मान करता है। मेरी कृति है, मुझे रचाया है मां ने। आप अपने परमात्मा की कृति की निंदा करेंगे तो आप उसकी ही निंदा करेंगे? यानी आप परमात्मा को कोस रहे हैं।सावधान हो जाइए, निंदा छोड़ दीजिए। लोग हमसे पूछते हैं पंडितजी निंदा कैसे छोड़ें।
हम कहते हैं एक सिद्धांत बना लीजिए निंदा छूट जाएगी। सिद्धांत यह कि जो व्यक्ति आपके सामने उपस्थित न हो उसकी चर्चा नहीं करेंगे। बात कर सकते हैं, टिप्पणी मत करिएगा। चर्चा तो करनी पड़ती है कि वह आ रहे हैं, वह जा रहे हैं। पर पीठ पीछे किसी पर टिप्पणी नहीं करें, आपसे निंदा छूट जाएगी। हालांकि दो-तीन दिन तबीयत खराब रहेगी। पहली बात सत्य बोलें, अहंकार न करें, निंदा न करें, जिन्हें निंदा की वृत्ति छोडऩा हो वे त्याग को अपनाएं। बिना आसक्ति-त्याग के, त्याग का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि तब जीव भौतिक दृष्टि से किसी कर्म का त्याग करके भी मानसिक स्तर पर उसी से जुड़ा रहता है तथा राग-द्वेष के संस्कार संचय करता, कामना को बल प्रदान करता है।
भावनायुक्त समर्पण में भी समर्पण का आधार परिपक्व नहीं होता, क्योंकि उसमें कुछ अनुभव तो होता ही नहीं, केवल भावना ही होती है। इसलिए अंतर में सूक्ष्म स्तर पर अहंकार बना रहता है। इसके लिए गीता में कर्म करने के उपरांत, कर्म फल भगवान को अर्पण कर देने का मार्ग सुझाया गया है। किन्तु कर्म करते समय जो मन में कामना होगी, उसका संस्कार तो संचित हो ही जाएगा। भगवान को कर्मफल अर्पण कर देने का अभिमान भी उदय हो सकता है। यही अभिमान आगे जाकर निंदा करवाता है।
चौथी बात नित्य पूजा करें। हमारे यहां पूजा को भी कार्यक्रम बना लिया है लोगों ने। जिसको जैसे टाईम मिला, खड़े हैं तो खड़े, बैठे हैं तो बैठे हैं। अनुशासन लाइए जीवन में। व्यक्ति श्रृंगार करता है तो क्रम होता है- पहले मुखड़ा सजाएगा, देह सजाएगा उल्टा कोई श्रृंगार नहीं करता। हर चीज का नियम है, पर आदमी पूजा का नियम नहीं पालता। पूजा करने का नियम है सबसे पहले सूर्य को अध्र्य दें, तुलसी को जल दें, गाय को घास दें उसके बाद स्वरूप पूजा करें, नित्य पाठ करें जो भी आप पाठ करते हैं एक चौपाई, एक मंत्र, लेकिन पाठ करें खड़े होकर, ग्रंथ को खोलकर छोटी सी किताब रख लीजिए।नित्यपाठ इसलिए कहते हैं कि चौबीस घंटे में एक बार घर में ग्रंथ खुलना चाहिए। ग्रंथ में परमात्मा बसता है। जैसे ही आप ग्रंथ खोलते हैं वह बाहर निकलता है, आपके घर में सुंगध देने के लिए। अब तो समय जब मिलता है तभी खुलता है हफ्ते में एक बार, महीन में एक बार। पाठ के साथ-साथ कभी कथा भी बाचें। थोड़ा इसे समझा जाए।
अगर आता हो बार-बार गुस्सा तो ऐसे दूर करें...
पांचवां है- मौन। चौबीस घंटे में पांच-सात मिनट मौन रखें। मौन का अर्थ है अपने से भी बात न करें। ध्यान रखिए मौन और चुप्पी में फर्क है। हम लोग चुप्पी रखते हैं और उसी को मौन मान लेते हैं। पति-पत्नी के बीच कुछ वार्तालाप हो जाए, कुछ खटपट हो जाए, बात नहीं करना हो तो बच्चों के माध्यम से बात की जाती है। बच्चे से बोल दिया पिताजी से कह देना यह ले आना, पिताजी ने कह दिया समय नहीं है। उनसे पूछो आज आप बात नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कह दिया आज अपना मौन है।
चुप्पी बाहर का मामला है और मौन भीतर घटता है। चुप्पी वाला मौन तो लोगों को दिनभर में दस-बारह बार हो जाता होगा। इसलिए दो मिनट, पांच मिनट एकदम मौन हो जाइए। मौन का एक लाभ होता है, हमारा क्रोध नियंत्रित हो जाता है। क्रोध भक्ति में बाधा है।
ध्यान के द्वारा विषय का संग होने से मन में विषय को प्राप्त करने, भोगने की कामना उत्पन्न हो जाती है और विघ्न उपस्थित होने पर क्रोध पैदा हो जाता है। यह क्रोध कोई नया पैदा नहीं होता, चित्त में प्रसुप्त क्रोध ही जाग्रत हो जाता है। यह तत्काल तो जीव के शरीर तथा मन को जलाता ही है और भी पुष्ट होकर विच्छिन्न अवस्था में लौटता है।
उस प्रकार बार-बार क्रोध करते रहने से क्रोध बलवान होता जाता है। जब जीव प्रबल क्रोध की पकड़ में होता है तो अपना 'मैं भूल जाता है। उसे कौन, क्या, कैसा, किस जगह का भी ध्यान नहीं रहता। बस साक्षात क्रोध रूप ही हो जाता है। इसका मूल कारण संग ही है जो प्रसुप्तावस्था से क्रोध को उदार बना देता है। योग और ध्यान के माध्यम से ही आप क्रोध से छुटकारा पा सकते हैं। योग और गुरुमंत्र का प्रभाव से क्रोध को कम किया जा सकता है। यदि अवसर मिले तो योग्य गुरु से दीक्षा अवश्य लें।
7 दिन पूरे होने को थे नाग राजा को डसने के लिए जा रहा था तब....
अब राजा परीक्षित का काल नजदीक है। तक्षक उन्हें अपने विष से भस्म करने वाला है। शौनकादि ऋषियों! मुनिपुत्र श्रृंगी ने क्रोधित होकर परीक्षित को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प परीक्षित को डसने के लिए उनके पास चला। रास्ते में उसने कश्यप नाम के एक ब्राह्मण को देखा। कश्यप ब्राह्मण सर्प विष की चिकित्सा करने में बड़े निपुण थे। तक्षक ने बहुत सा धन देकर कश्यप को वहीं से लौटा दिया, उन्हें राजा के पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मण के रूप में छिपकर राजा परीक्षित के पास गया, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था।चलिए आइए परीक्षितजी अपनी देह छोडऩे वाले हैं, तक्षक आने वाला है।
उस दृश्य पर पुन: विचार करें। सात दिन की अवधि पूरी हो रही है। तक्षक परीक्षित को डंसने के लिए आ रहा है। शुकदेवजी कह रहे हैं- परीक्षित अब मैं तुम्हें जीवन का अंतिम उपदेश दे रहा हूं। 7 दिन तक तुमने सबकुछ छोड़कर भागवत सुनी। अब मैं तुमसे अंतिम बात कर रहा हूं और यह भागवत का अंतिम उपदेश है। शुकदेव पूछ रहे हैं परीक्षित से कि एक बात बताओ तुम्हें तुम्हारी देह और आत्मा का भान हुआ या नहीं। क्या तुम्हें भागवत सुनने के बाद ऐसा लग रहा है कि तुम्हारी देह अलग है और तुम्हारी आत्मा अलग है।
वास्तव में कथा श्रवण का महत्व तभी है जब देह और आत्मा दोनों की अनुभूतियां अलग हों। अगर हम अनुभूति नहीं कर पा रहे हैं तो फिर हमारे कथा श्रवण में ही त्रुटि है। हम केवल कानों से कथा सुन रहे हैं, इसका भाव मन तक पहुंच ही नहीं रहा है। भाव और सार मन तक पहुंचें तो आत्मा की अनुभूति अलग होगी और देह की अलग। कथा समझा रही है कि देह नित्य नहीं है, आत्मा नित्य नहीं है। देह एक दिन खत्म हो जाएगी और आत्मा फिर कोई दूसरा चोला पहन लेगी।
भागवत सुने तो ये बात जरूर ध्यान रखें क्योंकि...
इस बात को स्वीकार कर लेना ही असली कथा श्रवण है। भागवत हमें यही अंतर समझा रही है। जिन्हें यह समझ आ जाता है वे परीक्षित की तरह निद्र्वद्व और निर्विकार हो जाते हैं लेकिन जो लोग सिर्फ इसे कथा का एक हिस्सा मानकर बैठ जाते हैं वो देह से ऊपर नहीं उठ पाते। भागवत कथा सुनने से क्या मिलता है इसे समझ लें। इस कथा को सुनने से हमारे मन में भक्ति जाग जाती है। इस भक्ति को गौणी भक्ति भी कहा गया है।भक्ति का एक स्वरूप गौणी भक्ति भी है। जो गौण हो, मुख्य नहीं हो वही गौणी भक्ति है। सामान्यतया जीव जगत व्यवहार करे अथवा प्रभु-भक्ति उसमें चित्त की संकुचितता तथा अहंकार बना रहता है, जिससे उसके अंतर में कर्मों तथा उपासनाओं के संस्कार संचित होते रहते हैं जबकि भक्ति का मूल उद्देश्य चित्त को निर्मलता प्रदान कर उसमें जगत का अनुभवात्मक वैराग्य भर देना तथा प्रभु के प्रति प्रेम भाव उदय करना है।
भक्ति का यह भाव ही हममे कथा श्रवण का रस अनुभूत कराता है। भक्ति जीवन में जरूरी है। यह संस्कारों को जन्म देती है। संस्कारों से विचारों में दिव्यता आती है, विचारों की दिव्यता ही हमारे व्यक्तित्व को निखारती है। भक्ति का रूप कोई भी हो लेकिन उसमें भाव, आस्था और विश्वास होने चाहिए। जब तक हमारी भक्ति में ये बातें नहीं होती तब तक भक्ति केवल एक स्वांग ही दिखाई देती है। असली भक्त प्रक्रिया पर नही भावो पर ध्यान केंद्रित करता है। कई लोग केवल प्रक्रिया को ही भक्ति मान बैठते हैं। भक्ति के लिए जो भी विधियां बनाई गई हैं वे केवल इसलिए हैं कि हमारे मन में उस काम के प्रति थोड़ी एकाग्रता रहे। जब तक एकाग्रता नहीं होगी, भाव नहीं जागगे।
भाव नहीं जागेंगे तो भक्ति में रस नहीं आएगा। निरस भक्ति भगवान को जागृत नहीं कर सकती। भक्ति जरूरी है और इसे हमारे जीवन में उतारना बहुत आवश्यक है। निर्गुण या सगुण कोई रूप हो, भगवान में आस्था होनी चाहिए। यह कार्य अहंकार युक्त गौणी-भक्ति से संभव नहीं। हम यह नहीं कहते कि जीव को जप नहीं करना चाहिए अथवा करना ठीक नहीं। किन्तु जब तक मन अहंकार मुक्त नहीं तथा वैराग्य युक्त नहीं, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। जब तक उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी ही क्यों न हो, प्रत्यक्ष, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी क्यों न हो, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती तब तक न तो यथार्थ में उसमें परम प्रेम उदय हो सकता है और न ही जगत के प्रति पूर्ण वैराग्य। क्योंकि भक्ति मार्ग प्रेम तथा समर्पण का मार्ग है।
क्या आप जानते हैं, इसलिए सुनाई जाती है भागवत कथा?
शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! तुम्हारी देह और आत्मा अलग-अलग है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं यहां से नहीं जा पाऊंगा और जब तक मैं यहां हूं तब तक तुम्हें तक्षक डसने नहीं आ सकता और वो आएगा नहीं तो तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। जिस उद्देश्य के लिए भागवत की रचना की गई है उसके लिए जरूरी है क्या तुम्हें देह और आत्मा का भान अलग-अलग हुआ।
असली गुरु वो ही है जो आपके लिए कुछ भी करने को तैयार हो। शुकदेवजी ने केवल परीक्षित को कथा ही नहीं सुनाई, उनसे कथा के प्रभाव के बारे में भी पूछ रहे हैं। जिस प्रयोजन से कथा कही गई थी वो पूरा हुआ या नहीं। परीक्षित को संसार और देह में जो आसक्ति थी, शुकदेवजी उनसे पूछ रहे हैं कि वो समाप्त हुई या नहीं। अगर अभी भी कोई आसक्ति शेष है तो फिर कथा सुनाना और सुनना दोनों ही व्यर्थ गए। शुकदेव जी जो कह रहे हैं उसके पीछे कई बातें हैं। एक तो वे जानना चाहते हैं कि परीक्षित ने पूरे मन से कथा श्रवण किया या नहीं, अगर कथा श्रवण किया तो फिर उसका कितना चिंतन किया, कितनी बातें समझीं और अब उसके व्यवहार, विचार और स्वभाव में क्या परिवर्तन आया है।
शुकदेवजी यह भी सोच रहे हैं कि परीक्षित ने तो पूरे मन से सुनी हो सकता है मुझसे भी कोई त्रुटि हो गई हो। मैं पूरे भाव से कथा नहीं सुना सका। इस बोध के कारण वे कह रहे हैं अगर तुम्हें देह और आत्मा का भान अलग-अलग न हुआ हो तो मैं यहां से नहीं जा पाऊंगा। मुझे यह बात परेशान करेगी कि मैं कथा कहने की जिम्मेदारी ठीक से निभा नहीं पाया। शुकदेवजी परीक्षित की ओर देख रहे हैं, परीक्षित का चेहरा भयमुक्त और निर्विकार है। उसे मृत्यु का सुनकर भी भय नहीं लग रहा है।
परीक्षित भगवान शुकदेव के पास खीसककर आते हैं, धीरे से उनको प्रणाम करते हैं और बोलते हैं- मैं अपनी देह से मुक्त हो गया हूं। आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैं आपको नमन करता हूं और मैं अपनी मृत्यु के स्वागत के लिए तैयार हूं। शुकदेव बोलते हैं मैं यहां से प्रस्थान करूंगा, मैं यहां से जाऊंगा तभी मृत्यु आ पाएगी। शुकदेवजी महाराज को विदा करते हैं और यहीं से कथा सूतजी के ऊपर आ गई।
जीवन में गुरु की भूमिका इतनी ही होती है, वो आपको तैयार करके, प्रशिक्षित करके चुनौती के सामने खड़ा कर देता है। चुनौती आपकी अपनी है, उसका सामना आपको ही करना है। गुरु उस समय आपके साथ ही रहे जरूरी नहीं। अगर पूरा प्रशिक्षण पा लेने के बाद भी आपको गुरु की जरूरत पड़े तो समझिए कि या तो आपने सीखने में या गुरु ने सिखाने में कोई भूल की है। शुकदेव जी परीक्षित को छोड़कर चल दिए। अब मृत्यु का इंतजार अकेले परीक्षित को करना है। वो इसके लिए पूरी तरह तैयार भी हैं। न तो अपनी देह के प्रति कोई आसक्ति रह गई है और न ही अपने परिवार के प्रति कोई मोह। राजपाट तो वो पहले ही छोड़ आए थे।
इसलिए कहते हैं इंतजार करना जरूरी होता है...
लोग भजन तो करते हैं, नियम भी पालते हैं, रोज के अपने कायदे भी बनाते हैं लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा अनिवार्य है उसमें चूक कर जाते हैं। हमारे मन में धैर्य का होना आवश्यक है। धैर्य के साथ मानसिक भक्ति बनी रहे। कितनी परेशानियां आए, कितनी ही मुश्किलें आएं, हमारा धैर्य नहीं टूटना चाहिए। धैर्य टूटा की भक्ति निष्फल हुई, समझो। एक पल का अधैर्य हमारे जीवनभर के तप को धूमिल कर सकता है। परमात्मा आपके धैर्य की परीक्षा लेता है जैसे भी हो अगर धैर्य संभला रहा तो फिर उसकी कृपा होना तय है।
एक कथा है।किसी गांव के मंदिर में एक पुजारी था। भगवान की सेवा करके गुजर-बसर चलता था। उसके दो बेटे थे। दोनों ही धार्मिक स्वभाव के थे लेकिन बड़ा बेटा थोड़ा जल्दबाज था, इसलिए ज्यादा प्रयास कर अधिक से अधिक फल प्राप्ति की इच्छा करता था। पिता उसे समझाते तो भी नहीं मानता। एक दिन कपता गुजर गए। मंदिर की सेवा दोनों भाइयों के हाथ में आ गई। छोटा भाई अपने बड़े भाई से बिलकुल विपरित था। हमेशा संतोष रखता। इंतजार करता, जो भी मिले उसे प्रभु प्रसाद समझकर अपना लेता। शिकायत नहीं करता। दोनों ने समय-समय की पूजा आपस में बांट ली। बड़ा भाई थोड़ा असंतोषी था, जल्दबाज था सो हमेशा कुछ अतिरिक्त करने के चक्कर में लगा रहता। सोचता मंदिर में ज्यादा से ज्यादा समय मैं ही बैठूं ताकि दक्षिणा का बड़ा हिस्सा मुझे मिले। छोटा भाई बड़े की हरकतों का कोई प्रत्युत्तर नहीं देता, वो सिर्फ उसे भगवान की मर्जी मानकर स्वीकार कर लेता।
उसे विश्वास था कि भगवान सब देख रहे हैं और एक दिन उसे उसके सब्र का फल अवश्य मिलेगा। मंदिर के पास ही एक नदी बहती थी। बारीश का मौसम था, एक दिन सुबह से मूसलाधार बारीश शुरू हो गई। दोनों भाई मंदिर में भगवान की प्रतिमा और कुछ मूल्यवान आभूषण को बाढ़ से बचाने के लिए गए। धीरे-धीरे बाढ़ का पानी मंदिर को डूबो रहा था और दोनों भाई शिखर की ओर चढ़ रहे थे। थोड़ी देर में बाढ़ का प्रवाह और बढ़ गया। दोनों भाइयों का विश्वास था कि भगवान उनकी रक्षा करेंगे। दोनों नाम जप करने लगे। आंखें मूंद लीं, होठों से भगवान का नाम बुदबुदाने लगे। बाढ़ का पानी तेजी से मंदिर के शिखर को छू रहा था। बड़े भाई की बेचैनी बढ़ रही थी, कैसे जान बचाए। छोटे ने धीरज बंधाया भइया, धैर्य रखों भगवान आते ही होंगे। नाम जप और ज्यादा ध्यान लगा कर करो। फिर आंखें मूंद ली, दोनों भाई नाम जपने लगे। लेकिन बड़े से रहा नहीं गया आंखें खोलकर देखा तो बाढ़ का पानी शिखर को आधा डूबो चुका था। छोटे ने फिर समझाया कि भइया धैर्य रखो अभी तो पानी काफी नीचे है। ध्यान लगाओ और भगवान को पुकारो, वो ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। दूर-दूर तक अथाह पानी है और नदी का बहाव भी तेज है, हम तैर नहीं पाएंगे।
अब पानी उनके पैरों को छूने लगा था, कुछ ही क्षणों में शिखर भी डूबने वाला था। छोटा आंखें बंदकर ध्यान में लगा हुआ था लेकिन बड़े से रहा नहीं गया। उसने आंखें खोली और देखा पानी उनके पैरों तक आ गया है तो बोला छोटे तू बैठा रह यहां, कोई भगवान आने वाला नहीं है, मैं तो जैसे तैसे तैर कर प्राण बचा लूंगा। इतना कहकर उसने शिखर को छोड़ दिया और पानी में कूद पड़ा। बहाव इतना तेज था कि पानी में कूदते ही वह बह गया। छोटे ने फिर आंखें बंद की जप शुरू किया, तभी एक नाव वाला गुजरा, उसने उसे अपनी नाव में शरण दी और सुरक्षित किनारे पर उतार दिया। बड़ा भाई अधैर्य के चलते प्राण गवां बैठा। बाढ़ खत्म हुई तो मंदिर भी अकेले उसका था और उससे मिलने वाली सारी दक्षिणा भी छोटे की ही थी। तभी तो कहा जाता है कि भक्ति में धैर्य का होना बहुत आवश्यक है।
मौत से डरने वालों का ऐसा होता है हाल...
सूतजी शौनकादिजी से बोल रहे हैं- सुनो अब समापन होने जा रहा है। मैं जो कथा तुम्हें सुना रहा था, शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे अब दृश्य ऐसा हो गया शुकदेवजी गए। परीक्षित अकेले हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परीक्षितजी ध्यान में बैठ गए। आंखें बंद की, अपनी ऊर्जा को ऊपर लिया, अपने प्राणों को नियंत्रण में किया। आज्ञा चक्र से उठकर ऊर्जा सहस्त्रार पर हैं और आदेश दिया अपने प्राण को मुक्त हो एकदम से प्राण मुक्त हुए, अब केवल देह रह गई। परीक्षितजी दूर खड़े अपनी देह को देख रहे हैं।
ये दृश्य बहुत कम लोग देख पाते हैं। कोई शांत मन से अपनी देह का मोह छोड़े मृत्यु के स्वागत में बैठा है। वो राजा परीक्षित सात दिन पहले जो चक्रवर्ती सम्राट थे। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद जिन्हें जीवन दान दिया था। मृत्यु के मुख से बचाकर लाए थे। महान पांडवों का वो वंशज था। दुनियाभर के वैभव, सुख और जिसने भोग किया। परमपराक्रमी और धर्म के तत्व को जानने वाला राजा परीक्षित आज सब कुछ छोड़कर अपनी मृत्यु के इंतजार में बैठ गया है। बिना डरे, बिना किसी असमंजस के। दुनिया में कई शूरवीरों को धूल चटा देने वाला योद्धा आज खाली हाथ मौत से मिलने के लिए बैठा है।आइए उस दृश्य को देखें। तक्षक ने जैसे ही प्रवेश किया, तकक्ष यानी मृत्यु आई है। आज तक्षक के रूप मृत्यु पहली बार अपने जीवन में शरमा गई। मृत्यु ने कहा- यह क्या हुआ मेरा तो सारा आतंक, मेरा सारा अभिमान, भय है और जिस व्यक्ति को मैं मारने आई हूं यह तो निर्भय खड़ा है, दूर खड़ा देख रहा है इसको कोई फर्क नहीं पड़ रहा है और मुस्कुराते हुए स्वागत किया जा रहा है।
आज मृत्यु शरमा गई। मौत का सारा आतंक किसमें है, भय में है। दुनिया में सारा आतंक भय के कारण है अगर आपके मन से भय दूर हो जाए तो सारा आतंक खुद-ब-खुद दूर हो जाएगा।एक गांव में हैजा फैला तो हजार लोग मर गए। गांव के बाहर एक फकीर बैठा था उसने देखा रात को त्राही-त्राही मची और छम-छम करती हुई एक काली सी औरत जा रही है। उसने पूछा देवी आप कौन हैं? वह बोली- मैं मृत्यु की देवी हूं। इस गांव में हजार लोग मारने आई थी कल फिर आऊंगी, क्योंकि हजार और मारना है।
फकीर ने कहा - कल देखेंगे। कल हुआ, पर मर गए दो हजार। जब वो जा रही थी तो फकीर ने उसको रोककर पूछा- तुमने तो कहा था हजार लोग मारने आओगी, पर संख्या तो दो हजार की हो गई। जिंदगी झूठ बोलती है यह तो सुना था पर मौत भी झूठ बोलती है यह आज देखा मैंने। तुमने हजार की जगह दो हजार मार दिए। मौत ने बड़ा सुंदर जवाब दिया- मैं तो हजार ही मारने आई थी और हजार का ही विधान था, बाकी जो एक्स्ट्रा एक हजार मरे वो मेरे डर के मारे मर गए। आदमी डर के मारे ही मर जाता है।
ऐसे लोगों से मौत भी हार जाती है क्योंकि...
परीक्षित बाहर खड़े होकर देख रहे हैं, आओ आपका स्वागत है, मैं तैयार हूं। और परीक्षित की देह को तक्षक ने जैसे ही डसा वो भस्म हो गई, लेकिन तब तक परीक्षित बाहर खड़े थे। वो जो शुकदेव ने तैयार किए थे, वो जो भागवत का शुकदेव था, वो जो भागवत का प्रताप था, वो दूर खड़ा अपनी मृत्यु को देख रहा है। स्वागत कर रहा है, सम्मान कर रहा है और कह रहा है मैंने देह और आत्मा का अंतर जान लिया है। यह कौन सी मृत्यु है, कौन तक्षक है जानते हैं आप। प्रतिकूल परिस्थितियां तक्षक है, जीवन का तनाव तक्षक है, जीवन में उलटे-सीधे काम तक्षक है और यह हमें डसता रहता है।
हमारी देह काली-पीली होती रहती है। जो अपनी आत्मा और देह का अंतर जान जाएंगे वे तनाव से, विषाद से, अवसाद से मुक्त हो जाएंगे।यह घटना कह रही है इसको इस रूप में समझना ही पड़ेगा। परीक्षित ने देह त्याग दी यहां आकर सूतजी कहते हैं कि भागवत का मुख्य प्रसंग समाप्त हो गया। जिसके लिए भागवत कही गई वो दृश्य समाप्त हो गया जो भागवत का नायक था वो संसार से चला गया। जो भागवत के प्रमुख वक्ता और श्रोता थे वो कथा का समापन कर रहे हैं तो भागवत यहां समापन की ओर जा रही है।
मृत्यु पर जीवन की विजय हुई। मरते-मरते परीक्षित के चेहरे पर प्रसन्नता के जो भाव थे वे म़त्यु को चुनौती देने वाले थे। आज मृत्यु बौनी साबित हुई। उसका भय जाता रहा। इस दृश्य को जिसने देखा वो आश्चर्य में पड़ा था। एक कथा के श्रवण से इतना परिवर्तन कैसे हो सकता है। देवता भी सब प्रसन्न हो गए। परीक्षित की दिग्विजय पर सब साधु-साधु कह रहे थे। लोग तो धरती के टूकड़े जीतते हैं तो उत्सव मनाते हैं ,लेकिन मौत का भय उन्हें भी रहता है, परीक्षित ने तो धरती की दिग्विजय की ही लेकिन आज तो साक्षात मृत्यु को भी हरा दिया। उसके भय को मिटा दिया। मृत्यु को मजा तब आता है जब जिसके वो प्राण हरण कर रही हो वो डरे लेकिन मरने वाला अगर उसका स्वागत करने लगे तो फिर मृत्यु की हार तो तय है ही, मर कर भी परीक्षित अमर हो गए। देवता तुल्य हो गए। शुकदेवजी का सारा प्रयास सफल रहा। कथा श्रवण निष्फल नहीं गया।
स्वर्ग लोक में मानो उत्सव हो गया हो। सारे देवता इतने प्रसन्न थे कि परीक्षित ने तो मर कर भी अमरत्व प्राप्त कर लिया, हम देवता तो अमृत के लिए मरे जा रहे हैं। इसने तो कानों से अमृत का पान किया। मृत्यु को जीत लिया। कैसा अद्भुत संयोग है। कोई अपनी मृत्यु का दोनों हाथ पसार कर स्वागत कर रहा है। तक्षक के रूप में आया काल भी हैरत में था। परीक्षित की देह तक्षक के विष से जल उठी है। प्राण निकले और सीधे अपने पूर्वजों की शरण में चल पड़े। परीक्षित ने देखा देह अब किसी काम की नहीं रही। निस्तेज, विष से जली हुई और धूल-धूसरित धरती पर पड़ी है। आसमान से देवता फूल बरसा रहे हैं, अप्सराएं नृत्य कर रही है। मृत्यु मानो महोत्सव बन गई है।
जनमजेय ने नाग यज्ञ किया और कर दिया सारे नागों का अंत क्योंकि...
जब जनमेजय ने सुना कि तक्षक ने मेरे पिताजी को डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने सारी धरती की सर्प जातियों को खत्म करने का प्रण ले लिया। देश-दुनिया के ब्राह्मणों को बुलाया गया। नाग दाह यज्ञ का आयोजन कराया गया। जैसे ही यज्ञ आरंभ हुआ नागों में हड़कंप मच गया। जैसे ही यज्ञ कुंड से अग्रि की लपटें उठने लगीं, ब्राह्मणों ने मंत्रों का उच्चारण शुरू किया, मंत्रों के प्रभाव से एक-एक करके नाग यज्ञकुंड में आकर गिरने लगे। चारों ओर यज्ञकुंड का धुआं और नागों के जलने की दुर्गंध वायु मंडल में फैल गई।
जन्मजेय का प्रण था जब तक उसके पिता को डसने वाले तक्षक नाग को भस्म न कर दूं यज्ञ बंद नहीं होगा। नागों के मारे जाने से नाग लोक में भी हाहाकार मच गया। प्रकृति का संतुलन बिगडऩे लगा। अब वह ब्राह्मणों के साथ विधिपूर्वक सर्पों का अग्निकुण्ड में हवन करने लगे। तक्षक ने देखा कि जनमेजय के सर्प सत्र की प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यंत भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया। मंत्रों का आकर्षण ऐसा था कि बड़े-बड़े नाग आकर हवनकुंड में गिरने लगे। देवताओं को भी चिंता सताने लगी। लेकिन जनमजेय को रोके कौन यह बड़ा सवाल था। जनमजेय बहुत क्रोध में था और वह अपने प्रतापी पिता की असमय मौत से आहत भी था। देवताओं और नागों में लगातार हलचल मची हुई थी।
जनमजेय को कैसे रोका जाए, नागों का विध्वंस कैसे बंद हो, देवता एक-दूसरे से प्रश्र कर रहे थे। तक्षत इंद्र की शरण में था इसलिए बच रहा था लेकिन शेष नाग प्रजातियां खत्म हो रही थीं। नागों के राजा वासुकी भी परेशान थे। बहुत सर्पों के भस्म होने पर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षितनन्दन राजा जनमेजय ने ब्राह्मणों से कहा कि अब तक तक्षक भस्म क्यों नहीं हो रहा है? ब्राह्मणों ने कहा तक्षक इस समय इन्द्र की शरण में चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। इंद्र के प्रभाव से तक्षक को मंत्र आकर्षित नहीं कर रहे हैं। शेष सारे नाग हवपकुंड में गिर कर जल रहे हैं।
ये दो काम कभी ना करें क्योंकि इनसे बर्बादी होती है
वर्तमान युग दिखावे का युग है। जो जैसा नहीं हो, वैसा दिखने का प्रयत्न करना, जो गुण नहीं हो अपने में वह गुण दिखाने का प्रयत्न करना, मन की बात मन में ही छुपाकर ऊपर से मीठी-मीठी बातें करना आदि सब दंभ के अंतर्गत है। इससे मिथ्या अभिमान को बल प्राप्त होता है। मन नहीं लग रहा हो, किन्तु लोगों को दिखाने के लिए, भक्त कहलाने की इच्छा से आंखें बंद करके बैठे रहना नम्र नहीं होते हुए भी नम्र दिखने का प्रयत्न करना सभी दंभ के अंतर्गत ही है। दंभ से चित्त चंचल होकर साधन भक्ति की निरन्तरता भंग हो जाती है।
जीवन प्रबंधन का तीसरा सूत्र है निंदा न करें। पर क्या करें निंदा में बड़ा रस आता है। निंदा नहीं की तो लोगों का पेट दुखने लगता है। फोकट की निंदा करने में और ज्यादा मजा आता है। निंदा तो दूर की बात समाज में कोई अपरिचित व्यक्ति हो, बाहर वाला हो तो समझ में आता है। हम तो देखते हैं अपने ही घर में कोई आयोजन हो, एक कमरे में 5-7 लोग बैठे हों और उसमें से दो गए तो शेष पांच पहला काम निंदा ही करेंगे। वह दो बाहर जाकर वही कर रहे होंगे, इसमें कोई नई बात नहीं है। सब लगे ही रहते हैं, निंदा में कितना स्वाद है। आत्मस्तुति और परनिंदा मनुष्य की दो बड़ी कमजोरियां हैं। निंदा जब जीवन में उतर जाती है तो स्वभाव बन जाती है, निंदा से बचिए।
निंदा आपको भीतर से चाटती है। आपके सत्य, प्रेम, निष्ठा, सृजन हर चीज को खत्म करती है। निंदा को जीवों में दीपक की तरह माना गया है। यह हमें भीतर से खोखला करती है। हम निंदा में रस की अनुभूति करते हैं लेकिन यह रस भीतर हमारे लिए विष का काम करता है। हमारी अच्छाइयों को गलाता है, जलाता है। निंदा की आदत से बचिए। बुरा देखने, सुनने और बोलने तीनों कामों में हमारे अच्छे कर्मों और अमूल्य समय का नाश होता है। इससे बेहतर है कि जो अच्छा है उससे कुछ सीखें। उसी में अपने आप को डूबो दें। बुराई करना और सुनना दोनों कई लोगों के लिए आनंददायक काम है लेकिन यह केवल हमारी शक्ति का हृास और समय की बर्बादी है।
ऐसे जीएं जिंदगी तो कभी दुखी नहीं होंगे
एकांत का मतलब है, अगर आप एकांत साधना चाहें जीवनसाथी के साथ तो एक काम करिएगा मोबाइल नाम की अपनी प्रियतमा को एकदम बंद करके उसे एक घंटे के लिए रख दीजिएगा। आपको विश्वास दिलाता हूं यदि आप परमात्मा का ध्यान रखकर कहते हैं तो आप मानकर चलिएगा दुनिया किसी के चले न चली है और न किसी के रूके रूकी है। यह चलती रहेगी, आप अपना एकांत साधिए। परिवार के लिए समय निकालिए, उनके साथ रहिए।संपर्क की वृत्ति को बनाए रखिएगा। संपर्क में दूसरी बात समय दीजिए बड़े-बूढ़ों को, बच्चों को। उस समय कोई चर्चा नहीं होगी, बस आपस में क्या चल रहा है, पूछिए स्वास्थ्य कैसा है, कैसा लगता है।
बूढ़े लोगों को उनकी पुरानी बातें करो तो उनको अच्छा लगता है। हम भी बूढ़े होंगे तब लोग आपसे पूछेंगे आपके समय में आप कैसा करते थे फिर आप उनको बताएंगे तो वो बहुत प्रसन्न होंगे। बुढ़ापे में उनको कुछ ऊर्जा प्रदान करिए, उनकी स्मृतियों को ताजा करिए।बूढ़े लोगों के पास क्यों नहीं बैठते लोग, एक तो बच्चों को यह रहता है कि दादा-दादी एक ही किस्सा 25 बार सुना चुके हैं और अब बैठाकर वही किस्सा सुनाएंगे। तो देखते ही भागते हैं लोग इधर-उधर, नहीं ऐसा मत करिए, समय दीजिए। आप अपने संपर्क से घर की वृद्धावस्था, बड़े लोगों को सुख प्रदान करें। घर में वृद्ध लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट हो इसका प्रयास करिएगा।आपने एक घटना सुनी होगी। एक घर में दादा-दादी बैठे हुए थे, पास में बच्चे बैठे हुए थे। बच्चे दादा-दादी से छिछोरापन कर रहे थे। बच्चों ने दादा-दादी से पूछा आप बताओ आपके समय और हमारे समय में कितना परिवर्तन आया। उन्होंने कहा- हां, बहुत बदल गया है वक्त, हम देख रहे हैं। बच्चे बोले- दादाजी आपकी दादीजी से शादी हुई तो आपने दादीजी को पहली बार कब देखा था। वे बोले भैया बहुत दिन तो पता नहीं लगा, वो काल ही अलग था। दादा बोलते हैं पहले बड़ी मुश्किल होती थी। दादा से बच्चों ने पूछा आप घर में रहते और आपको दादी को देखने की इच्छा होती तो आप क्या करते थे? दादा ने कहा भैया कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता था। बच्चों ने बोला दादाजी आप क्या करते थे, बताओ तो सही। दादाजी बोले हमने एक घंटी रखी हुई थी। बाहर बैठते तो घंटी बजाते, दादी आ जाती और हम उसको देख लेते। पोतों ने बोला दादाजी आप तो बड़े स्मार्ट थे।
दादाजी आप तो पुरूष थे, पुरूषप्रधान युग था तो आपने घंटी रख ली और घंटी बजा ली तो दादी आई और आपने देख लिया पर जब कभी दादीजी को आपको देखने की इच्छा हो तो दादी क्या करती होंगी। दादाजी बोले- वह थोड़ी-थोड़ी देर में आकर पूछती घंटी तो नहीं बजाई।आनंद अगर आप मनाना चाहें तो बुढ़ापे में भी मना सकते हैं। वो लोग परमात्मा की पूजा कर रहे हैं जो लोग अपने घर के बड़े-बूढ़ों को हंसा रहे हैं। हंसाइए, हम इनके अंश हैं इन्होंने रातें जाग-जागकर जीवन दिया है हमको। कल हम भी उस स्थिति में आएंगे। आज जो आप करेंगे वो कल पलटकर आपके ऊपर आ जाएगा। इसलिए घर के बड़ों को स्नेह दीजिए। परिवार में प्रेम बनाए रखिए। यह जीवन प्रबंधन का महत्वपूर्ण सूत्र है।
जानिए, क्या है सत्संग का सही अर्थ?
भक्त को प्रथम धैर्य प्रभु प्राप्ति के लिए नहीं वरन् संत की कृपा प्राप्त करने के लिए करना होती है। यह कार्य प्रभु प्राप्ति से कम कठिन तथा महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी संत की कृपा प्राप्त हो जाए तो समझो कि प्रभु प्राप्ति की आंतरिक यात्रा का प्रथम पड़ाव पूर्ण हो गया। संपर्क में तीन बातें हैं- समय दीजिएगा घर-परिवार में, सत्संग करिए।
सत्संग का अर्थ प्रतिदिन किसी विद्वान से मिलना नहीं है, कोई पुस्तक पढ़ लीजिए। आदत बना लीजिए एक पुस्तक आपके बगल में रहे, आपके बैग में रहे, आपके घर में रहे। सोने के पहले एक-आधा पन्ना पढ़ लें, दो लाइन पढ़ लें बस। कोई बात नहीं पांच साल में पुस्तक पूरी करिएगा। आपका एक अनुशासन बनना चाहिए कि आप कोई विचार उठा रहे हैं। कृष्ण ने उद्धव से जाते हुए कहा था कि उद्धव मुझे अफसोस है कि मुझे जीवन में अच्छे लोग नहीं मिले। जाते-जाते कह गए यदि कोई भूले से अच्छा आदमी आपके पास आए तो बाहों में भर लेना, दिल में उतार लेना। बड़ा मुश्किल है दुनिया में अच्छे आदमी को ढूंढऩा, नहीं मिलेंगे। आपको ऐसा लगता है कि आपने माता-पिता की सेवा कर ली, सत्संग भी कर लिया लेकिन चिंतन करके आपने जो भी कुछ किया है, रात को सोने से पहले स्वयं से एक बार पूछ लीजिएगा कि आज सबकुछ ठीक रहा।
ईमानदारी से पूछोगे तो एक थप्पड़ आपका जमीर आपको मारेगा, रोज थप्पड़ खाकर सोओगे। जरा खुद का थप्पड़ खाकर सोने का आनंद तो देखिए। आपका सद्चरित्र आपको लोरी गाकर, थपथपाकर सुलाएगा। यदि आपके जमीर ने, आपकी अंतरआत्मा ने कहा- हां आज तूने यह किया जो परमात्मा चाहता था। बस यह जीवन प्रबंधन के सात सूत्र हैं। अपने माता-पिता का आशीर्वाद प्राप्त करें। इस महाअनुष्ठान के समापन में प्रवेष कर रहे हैं। भागवत ने बार-बार यह मांग की है कि मैंने जो बताया है उसे स्मरण करते रहना।
इसलिए लगा था कृष्ण के बाएं पैर में तीर.....
अंतिम में तो भागवत ने यह कहा है कि भक्तों आप परमात्मा को याद करो तो जमकर करो, कृष्णजी ने जो भी किया जमकर किया। इसको कहते हैं शत-प्रतिशत। भक्ति को गुंजाइश में मत छोड़ दीजिएगा। भागवत का समापन करने जा रहे हैं। मैं आपसे निवेदन कर रहा हूं, भागवत बार-बार यह कह रही है कुछ छोड़ मत देना। एक दुर्गुण को अनुमति दी और युधिष्ठिर ने जुआ खेलने का निर्णय लिया और परिणाम आप जानते हैं।
कृष्णजी के जीवन की कथा आपको याद होगी। कोई कहता है दुर्वासा ऋ षि, कोई कहता है और ऋषि आए। ऋषि ने आकर यशोदा माँ से कहा तेरी गोद में यह गोपाल अच्छा लग रहा है। मेरे पास ऐसा मलहम है कि जो तू अपने बच्चे के शरीर पर लेप कर देगी तो इसको किसी शस्त्र और अस्त्र का प्रहार नहीं लगेगा। यशोदा माँ ने मलहम लेकर लगाया तो कहते हैं बाएं पैर की पगथली के आते-आते मलहम खत्म हो गया। माँ बाएं पैर की पगथली पर मलहम नहीं लगा पाई तो कृष्ण की सारी देह तो सुरक्षित हो गई केवल बाएं पैर की पगथली रह गई और इसी पर वह तीर लगा और कृष्ण चले गए। बस, इतना सा हिस्सा शरीर का छूट गया और जीवन का दांव लग जाएगा। कुछ छोडि़एगा मत। इतना सा छूटा और आप गए काम से। दुर्र्योधन को पांडव मारने के लिए दौड़ रहे थे, भीम ने शपथ ली थी कि इसकी जंघाओं को तोड़ दूंगा। गांधारी को पता लगा तो उसने कहा मेरे पुत्र को बुलाओ और उसको सूचना दो कि वह वस्त्र पहनकर नहीं आए। गांधारी को वरदान था कि जिस समय वह पट्टी खोलकर किसी को देखेगी उसकी देह लोहे की हो जाएगी, वज्र की हो जाएगी। अपने पुत्र को सूचना दी निर्वस्त्र आना।
दुर्योधन अपनी माँ के पास निर्वस्त्र जा रहा था। बीच में ही कृष्णजी मिल गए। उनको सब सूचनाएं थीं कि क्या हो रहा है। उन्होंने कहा- कहां जा रहे हो भाई इस तरह से। उसने कहा माँ ने बुलाया है। अरे! मां ने बुलाया ऐसे? माँ ने आदेश दिया है ऐसे आने का। कृष्ण ने कहा- माँ तो बुढ़ी है, तुझे तो अक्ल होना चाहिए। कोई जवान बेटा माँ के सामने ऐसा जाता है। कम से कम जंघाओं पर पत्ते लपेट ले। दुर्योधन ने कृष्ण को देखा कि यह सलाह दे रहे हैं या कुछ और बात है। कृष्ण बोले नहीं-नहीं सही बात कर रहा हूं, तेरे हित की बात कर रहा हूं, मर्यादा की बात कर रहा हूं। उसने जंघाओं पर केले के पत्ते लपेट लिए, माँ के सामने गया।
कैसे हुआ पापी दुर्योधन के जीवन का अंत?
कृष्ण ने कहा- माँ तो बुढ़ी है, तुझे तो अक्ल होना चाहिए। कोई जवान बेटा माँ के सामने ऐसा जाता है। कम से कम जंघाओं पर पत्ते लपेट ले। दुर्योधन ने कृष्ण को देखा कि यह सलाह दे रहे हैं या कुछ और बात है। कृष्ण बोले नहीं-नहीं सही बात कर रहा हूं, तेरे हित की बात कर रहा हूं, मर्यादा की बात कर रहा हूं। उसने जंघाओं पर केले के पत्ते लपेट लिए, माँ के सामने गया।
गांधारी ने पट्टी हटाई और जैसे ही दुर्योधन को देखा तो एकदम से चिल्लाई यह तूने क्या किया। मैंने तुझे आदेश दिया था कि निर्वस्त्र होकर आना और तू ऐसे आ गया। मैं पहली बार जिसे देखती वो वज्र का हो जाता। तू पूरा वज्र का हो गया पर वो हिस्सा तूने जंघाओं पर पत्ते लपेट लिए, तुझे यह सलाह किसने दी? वह बोला उनका आशीर्वाद है। गांधारी ने सिर पीट लिया। अब शाप नहीं दे, तो क्या करे बेचारी। जब दुर्योधन युद्ध कर रहा था, दुर्योधन को
कुछ नहीं हो रहा और भीम थक गया। चारों पांडव खड़े थे, अंतिम युद्ध हो रहा था। धूल में लोट लगा रहा था दुर्योधन और मारे जा रहा था भीम, पर दुर्योधन को कुछ हो ही नहीं रहा था। तब भगवान से सबने कहा भीम तो थक गया है और पलटकर एक भी गदा दुर्योधन ने लगा दी तो भीम यहीं समाप्त हो जाएगा। हम जीतकर भी हार जाएंगे। भगवान देखते रहे-देखते रहे, खूब पीट लिए भीम।
तब भगवान ने इशारा किया अर्जुन को कि जरा जंघाएं ठोंक दो। बस ऐसा इशारा किया और भीम को तो याद था जरासंध को जब मरवाया था भगवान ने। जैसे ही ईशारा हुआ, उसकी जंघाओं पर प्रहार हुआ और वह समाप्त हुआ। शरीर का इतना सा हिस्सा रह गया और जीवन का मोल चुकाना पड़ा। जीवन में कुछ छोडि़एगा मत। जब भी कोई काम करें, जमकर करें।
इतना सा छूटा सफलता संदिग्ध हो गई। इसलिए भक्ति पूर्णता मांगती है और निष्कामता से पूर्णता आएगी। यह ग्रंथ आपसे मांग कर रहा है पूर्णता में ही परमात्मा है। परमात्मा को अधूरे, अपूर्ण काम पसंद नहीं हैं। यहां एक बात समझ ली जाए। श्रीकृष्ण पाण्डवों के जीवन में गुरु के रूप में थे। हमें यही सीखना चाहिए कि गुरु का जीवन में बड़ा महत्व होता है।
सफलता के लिए जरुरी है इन दो बातों को याद रखना
गुरु बनाने के संबंध में एक लोकोक्ति प्रचलित है कि गुरु कीजै जान के, पानी पीजै छान के।। यह लोकोक्ति अपने आप में कोई स्पष्ट तात्पर्य नहीं बताती, क्योंकि गुरु बनाया नहीं जाता वे तो अनेकों पूर्व जन्मों के संस्कारवश मिल जाते हैं। निश्चित वार, तिथि, घड़ी में वे दीक्षा देकर साधक को कृतार्थ कर शिष्य बनाते हैं। शिष्य बनाते ही शिष्य के भार को वे वहन कर लेते हैं, गुरु शब्द में यह सार्थकता निहित है। अयोग्य शिष्य के पाप या पुण्य के भागीदारी गुरु भार वहन करते ही हो जाते हैं। माता-पिता के संस्कारों की भांति गुरु के संस्कार भी शिष्य में उतरते हैं। नित्य सतत् आध्यात्मिक साधना में लीन गुरु ही भार वहन करने में समर्थ होता है, क्योंकि वह अपने तथा शिष्य के कर्मों को ज्ञानाग्नि में नित्य दुग्ध करता जाता है।
इसी प्रकार गुरु के कर्मों का शिष्य भी भागीदार होता है। अतएव आवश्यक है कि गुरु शिष्य दोनों आध्यात्मिक पथ को नित्य साधन से आलोकित करते जाएं। आज के वातावरण में महापुरुषों पर विश्वास जमना कठिन है। भ्रम जाता नहीं, संस्कार जागते नहीं, साधन, पूजन, तप इत्यादि कर्म निष्काम होते नहीं, ऐसे में अध्यात्म पथ पर चला कैसे जाए, यह एक गंभीर और अहम सवाल है।
पूर्व में चले आ रहे महापुरुषों की गाथाएं व चरित्र हमारे सामने हैं। उनकी वाणियां हैं, उनके आचरण और वाणियों का प्रतिपालन करने के प्रयत्न से वासना नष्ट करने में सहायता मिलेगी। वासना के नष्ट होने से संत का सान्निध्य इस जन्म में या अगले जन्म में मिल सकता है। वर्तमान जन्म के अंतिम निमिष में अगले जन्मों का क्रम निश्चित हो जाता है।
गुरु साधन या अन्य आध्यात्मिक क्रियाओं की दीक्षा या शिक्षा देकर उस अभ्यास में पटुकर कर देते हैं कि अंतिम निमिष में मोझा की ओर बढ़ जाता है या अपनी अनन्त यात्रा में, उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ भगवान श्रीकृष्ण से प्राप्त प्रमाणिकता शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोअभिजायते योगभ्रष्ट पवित्रात्मा श्रीमांत के घर में जन्म लेता है और पूर्वाभ्यास के वशीभूत विरक्त हो योग संसिद्ध हो परमगति को प्राप्त करता है।
प्रत्येक साधन या उपासना पद्धतियों में गुरु का स्थान सर्वोपरि निरुपित किया गया है। न काटे जाने के कारण व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से ईश्वरीय शक्ति कार्य करती है उसे गुरु कहा जाता है। उसे ज्ञान होता है ईश्वर या परमात्मा सभी जगह व्याप्त है, महापुरुष उसे प्रगट में व्याप्त देखता है, इसी महात्मा से साधक आत्मसंतुष्ट रहने की शक्ति प्राप्त करता है।
यहां गुरु के संबंध में विश्वास को महाभारत में एकलव्य की कथा वर्णित है। विश्वास और अभ्यास से द्रौणाचार्य को गुरु मानकर एकलव्य नियमित शिष्यों की योग्यता से बहुत ऊपर उठ गया था। सफलता के लिए ये दोनों ही बातें याद रखना जरुरी है क्योंकि ये प्रवीणता प्रमाण है। गुरु ही वह परम शक्ति होती है जो शिष्य के लक्ष्य को स्पष्ट करती है। साधक आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
जानिए, क्यों सुनाई जाती है भागवत?
महात्म्य- यहां एक बार फिर भागवत का महात्म्य बताया है। महात्म्य में वज्रनाभ और परीक्षित राजा की संक्षेप में कहानी आई है। परीक्षित कौरवों का अंतिम राजा था और वज्रनाभ यदुवंशियों का अंतिम राजा। दोनों एक-दूसरे के वंश की बात करते हैं। दोनों एक दूसरे की बात का समापन करते हैं। यहां धीरे-धीरे भागवत समाप्त हो रही है और भागवत के अंत में श्रोता और वक्ता के लक्षण बताते हुए दोनों को सावधान करते हुए समापन किया जा रहा है। भागवत कह रही है आप भागवत में उतरे हैं सावधान रहिएगा।
श्रोता और वक्ता यह ध्यान रखें जिस उद्देश्य के लिए आपने भागवत में प्रवेश किया उस उद्देश्य को छोडि़एगा नहीं। भगवान साक्षात रूप से तैयार हैं आपके जीवन में आने के लिए। भगवान ने भागवत में दो बातें मांगी हैं आरंभ में भी और अतं में भी। मुझे आपका चित्त चाहिए, भागवत में चित्त मांगा गया है। उसी भागवत में आगे भी लिखा है कि मुझे आपका वित्त भी चाहिए। ऐसा कहते हैं कि तन की शुद्धि स्नान से, मन की शुद्धि ध्यान से और धन की शुद्धि दान से। भागवत कहती है खूब दान करिएगा, लेकिन घबराइएगा नहीं।
भागवत आपसे जिस चित्त और वित्त की मांग कर रही है भागवत के समापन पर, चित्त तो आप दे रहे हैं, जो आपके भीतर है। लेकिन जो वित्त आपसे मांगा जा रहा है, हमारी सारी पूंजी क्या है आज आप इस भागवत समापन पर कम से कम इतना जरूर चढ़ाएं। भागवत आपसे मांग रही है कि आप अपनी अशांति चढ़ा दीजिएगा, आपका दुर्गुण चढ़ा दीजिए, आपका विषाद सौंप दीजिए इस पर, आपका दु:ख सौंप दीजिएगा, आपका काम, आपका क्रोध, आपका मद, आपका लोभ छोड़ दें इस पर। दुनिया गोल है, जीवन छोटा है पता नहीं कब और कहां मिलेंगे। भगवान कहते हैं एक हाथ से सौदा कर लो दुर्गुण का और एक हाथ से मुझे ले लो।
अब इससे सस्ता सौदा क्या हो सकता है? आपको कुछ भी नहीं देना भगवान के लिए। यह तो भ्रम है कि हजारों चढ़ाएं, लाखों चढ़ाएं तो भगवान मिलता है। आपका जो भी दुर्गुण है आप सौंप दीजिए भागवत तैयार है। आपके जीवन की अशांति दे दीजिए स्वीकार है।
वक्ता को भागवत ने आदेश दिया है कि श्रोताओं की अशांति, उसका विषाद, उसकी निराशा, उसकी थकान, उसकी बैचेनी, उसकी परेशानी और उसके जीवन का दु:ख लेकर जाना तब भागवत संपन्न होती है।
कीचड़ उनके पास था मेरे हाथ गुलाल, जो भी जिसके पास था उसने दिया उछाल
भागवत आपसे जिस चित्त और वित्त की मांग कर रही है भागवत के समापन पर, चित्त तो आप दे रहे हैं, जो आपके भीतर है। लेकिन जो वित्त आपसे मांगा जा रहा है, हमारी सारी पूंजी क्या है आज आप इस भागवत समापन पर कम से कम इतना जरूर चढ़ाएं। भागवत आपसे मांग रही है कि आप अपनी अशांति चढ़ा दीजिएगा, आपका दुर्गुण चढ़ा दीजिए, आपका विषाद सौंप दीजिए इस पर, आपका दु:ख सौंप दीजिएगा, आपका काम, आपका क्रोध, आपका मद, आपका लोभ छोड़ दें इस पर। दुनिया गोल है, जीवन छोटा है पता नहीं कब और कहां मिलेंगे। भगवान कहते हैं एक हाथ से सौदा कर लो दुर्गुण का और एक हाथ से मुझे ले लो। अब इससे सस्ता सौदा क्या हो सकता है? आपको कुछ भी नहीं देना भगवान के लिए।
यह तो भ्रम है कि हजारों चढ़ाएं, लाखों चढ़ाएं तो भगवान मिलता है। आपका जो भी दुर्गुण है आप सौंप दीजिए भागवत तैयार है। आपके जीवन की अशांति दे दीजिए स्वीकार है।वक्ता को भागवत ने आदेश दिया है कि श्रोताओं की अशांति, उसका विषाद, उसकी निराशा, उसकी थकान, उसकी बैचेनी, उसकी परेशानी और उसके जीवन का दु:ख लेकर जाना तब भागवत संपन्न होती है।भगवान से प्रार्थना करता हूं कि आपके जीवन में यश हो, मंगल हो। आपका निजी जीवन बहुत सुखी हो। आपके पारिवारिक जीवन में शांति हो, जो काम आप करते हों उसमें आपका विकास हो। जिस क्षेत्र में आप रहते हों उसकी प्रगति हो। आपको मनोवांछित की पूर्ति हो, आपका मंगल हो, यश हो।
आपको कीर्ति की प्राप्ति हो और सबसे बड़ी बात परमात्मा की प्राप्ति हो। यह संयोग से नहीं घटता, यह सौभाग्य से घटता है। भगवान से प्रार्थना करते हैं हम कि सचमुच जो वसुदेव का विश्वास हैं, देवकी की दौलत हैं, जो बलराम का बल हैं, कृपा के सिंधु है, सबके बंधु हैं, गोपियों के मनबसिया है, राधा के रसिया हैं, जो भीष्म का भरोसा हैं, अर्जुन की आस्था हैं, कंस का काल हैं, जो जरासंध का महाकाल हैं, जो देवकी की दौलत हैं, जो यशोदा का यश हैं, भारत का भाग्य हैं, नंद का आनंद हैं और पं. विजयशंकर का परमानंद है वो आपके जीवन में भी परमानंद बनकर उतरे। एक छोटी सी कथा को ध्यान में रखिएगा। एक गुरूजी अपने शिष्यों के साथ सत्संग कर रहे थे। रोज नाशपाती के बारे में जानकारी देते कि नाशपाती ऐसा फल है, नाशपाती को खाओ तो ऐसा स्वाद है।
दो तीन दिन तक लगातार प्रवचन दिए और एक दिन वो आए तो भक्तों ने देखा उनके हाथ में टोकरी थी जिसमें नाशपाती थी। उन्होंने नाशपाती सबको बांट दी और कहा खाओ मेरे सामने, सबने खा ली और उन्होंने सबसे पूछा- मैंने तीन दिन तक विस्तार से नाशपाती का वर्णन किया। यह नाशपाती तुमने खाई तो तुमको कैसा लगा। एक शिष्य ने खड़े होकर कहा महाराजजी यह तो खाने के बाद ही पता लगा कि आपने जो वर्णन किया यह तो उससे भी अच्छी नाशपाती थी। वर्णन से कुछ नहीं वो तो स्वाद से पता लगा। लेकिन एक और बात एक शिष्य ने खड़े होकर कही कि हमें यह जो नाशपाती इतनी अच्छी लगी यह बात हम आपसे कह रहे हैं इसके लिए हमारा आग्रह है कि आप भी नाशपाती खाकर देखिए गुरूजी तभी पता लगेगा कि हमें कितनी अच्छी लगी।
मेरा आपसे निवेदन है कि मैंने भागवत पर आपको इतना बताया पर जब तक आप अपने निजी जीवन में भागवत को चखेंगे नहीं आपको इसके स्वाद का पता नहीं लगेगा। जैसे ही चखा तो आप कहोगे अरे पंडितजी ने जो पढ़ाई थी उससे तो लाख दर्जा आनंद आया। उनको तो लिखना ही नहीं आई। इसमें जो है वह कमाल है। इसका स्वाद लीजिएगा, मैं ग्रंथ को समेटने जा रहा हूं। इसके पृष्ठ जब बंद कर रहा हूं आप अपने जीवन के पृष्ठ खोलिए उस पर भागवत लीखिए, पढि़ए और जीएं। भागवत से आप आज बहुत लेकर जाएं और एक बात तय कर लीजिए यदि भागवत से वो लेकर गए जो लेकर जाना था, संसार का कायदा है कीचड़ उनके पास था मेरे हाथ गुलाल, जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल। आपके पास जो है उसको समाज में बांटिएगा, विदाई ले रहे हैं।
इन दो लोगों की बात कभी नहीं टालना चाहिए....
भागवत के अनुसार भगवान ने अपने गुरु ऋषि सांदीपनि के पुत्र को यमराज से मांगा था। वह भी उस पुत्र को जो बहुत पहले मारा जा चुका था, दूसरी बार अपनी माता की आज्ञा से भाइयों को जीवित किया। सृष्टि के नियम बदल दिए। अगर हम भागवत को समझे तो ये घटना इन दो बातों की ओर संकेत करती है जो स्पष्ट है। पहला जीवन में गुरु और माता का महत्व। गुरु विद्यार्थी को माता की तरह संवारता है और माता बच्चे की पहली गुरु होती है। दोनों का पद समान है, दोनों की महिमा भी एक सी है। दोनों का जीवन में समान महत्व है और दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है। कृष्ण ने अपने जीवन में उन दोनों के महत्व को भलीभांति समझा है।
गुरु से शिक्षा ली, शिक्षा अमूल्य थी सो उसका मूल्य भी ऐसा चुकाया जो इतिहास बन गया। गुरु के मृत पुत्र को सालों बाद यमराज से ले आए। फिर माता के उन पुत्रों को जीवित कर दिया जिन्हें कंस ने मार दिया था। माता ने कृष्ण के लिए लाखों कष्ट सहे। अपने सात पुत्रों को अपनी आंखों के सामने मरते देखा। अब कृष्ण की बारी थी, अपनी माता के उस ऋण को चुकाने की। माता ने इच्छा की और कृष्ण ने उसे क्षण भर में पूरा कर दिया। माता-पिता और गुरु के लिए जीवन में अगर कुछ भी करना पड़े, उसे कर दीजिए। उनके लिए किया गया कोई कार्य निष्फल नहीं जाता।
जानिए, श्रीकृष्ण ने क्यों माना है मेडिटेशन को जरुरी?
भागवत में भगवान कृष्ण ने ध्यान यानी मेडिटेशन पर अपने गहरे विचार व्यक्त किए हैं। वैसे इन दिनों ध्यान फैशन का विषय हो गया है। वैष्णव लोगों ने कर्मकाण्ड पर खूब ध्यान दिया है लेकिन वे ध्यान को केवल योगियों का विषय मानते रहे। लेकिन भागवत में भगवान ने भक्तों के लिए ध्यान को भी महत्वपूर्ण बताया है।उद्धवजी ने प्रभु से पूछा- हे भगवन! आप यह बतलाइए कि आपका किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करें हम लोग।
भगवान कृष्ण बोले- भाई उद्धव! पहले आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाएं। हाथों को अपनी गोद में रख लें और दृष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमावे। इसके बाद पूरक, कुंभक और रेचक तथा रेचक, कुंभक और पूरक- इन प्राणायामों के द्वारा नाडिय़ों का शोधन करे। प्रणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिए।
हृदय में कमल नालगत पतले सूत के समान ऊँकार का चिंतन करे, प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाए। प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ऊँकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। मेरा ऐसा स्वरूप ध्यान के लिए बड़ा ही मंगलमय है। मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडोल है। रोम-रोम से शांति टपकती है। मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुंदर है। घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं। बड़ी ही सुंदर और मनोहर गर्दन है। मुख पर मंद-मंद मुसकान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं।
वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर तीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिन्ह वक्ष:स्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा एवं पदम धारण किए हुए हैं। गले में कौस्तुभ मणि, अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यंत सुंदर एवं हृदयहारी है। मेरे इस रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिए।इस चैतन्य अवस्था में साधक को शरीर और आत्मा के बीच भेदात्मक दृष्टि बनाए रखने में सहायता मिलती है।
इसीलिए कहते हैं जैसी करनी वैसी भरनी
भागवत के अनुसार कर्मों के फल भी निश्चित है। कर्म बीज है जो बोया गया तो वृक्ष बनेगा, फूल व फल लगेंगे ही, तब क्या? फल भोगना है या उनका त्याग कर निद्र्वंद्व होना है। यह निश्चयात्मकता तब ही हो सकती है जब सद्कर्म किए जाएं।
अन्यथा कर्म बंधन के कारण हैं। उनके बंधन में न आना ही कुशलता है। पाप और पुण्य कर्म दोनों फल देते हैं जो दु:ख व सुख के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इसी जीवन में और अतिशेष भावी जन्मों में।व्यक्ति फल की इच्छा त्यागकर कर्म ईश्वर अर्पण करके करता है, स्मरण रहे ईश्वर को सद्कर्म-सद्वस्तु या श्रेष्ठ कर्म या श्रेष्ठ वस्तु ही अर्पण की जाती है। जिसमें किसी को हानि नहीं, किसी की हिंसा नहीं, किसी से राग नहीं, द्वेष नहीं होता है। ईश्वर-अर्पण में पूर्ण शुद्धता होती है। फल की कामना भी नहीं।
'कर्मव्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन। मा कर्मफल हेतु र्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
तेरा अधिकार कर्म करने मात्र तक सीमित है, फल के लिए कदापि नहीं। तू स्वयं कर्म के फल हेतु क्यों बनता है और कर्म छोड़कर अकर्मण्य होने की भी इच्छा मत कर। अकर्मण्य बनना नहीं है, व्यक्ति बन भी नहीं सकता तो फिर सद्कर्म कर ईश्वर के ऊपर उसके फल छोडऩे के अतिरिक्त कोई अन्य बुद्धिमत्ता नहीं। व्यक्ति के जीवन में अकर्मण्यता जैसी कोई अवस्था नहीं होती है। क्योंकि वह कुछ न कुछ कर्म तो करेगा ही। अगर कर्म नहीं करेगा तो सांस कैसे लेगा, जल कैसे पिएगा, भोजन कैसे करेगा? व्यक्ति जब तक जीवित रहता है तब तक कर्म जारी रहता है। भगवान कहते हैं कि जब कर्म करने ही हैं तो कुछ अच्छे ही करो।
सद्कर्मों से लाभ होगा, धन-ऐश्वर्य, सम्पन्नता और मेरा सान्निध्य भी मिलेगा। बिना सद्कर्म के कोई गति नहीं है। अच्छे काम करोगे तो आगे भी अच्छी गति पाओगे। किन्तु ऐसी बुद्धि आए कैसे, बने कैसे? यह बुद्धि बुद्धि-योग का विषय है, बुद्धि सदैव तर्क करती है। बुद्धि ही वास्तव में मन की नियन्ता है। मोह इसे कलुशित करता है। विभिन्न अर्थवादों से अस्थिर बुद्धि जब स्थिर होगी तब समाहित अवस्था में बुद्धि आ सकेगी, इस समाहित स्थिति में संकल्प-विकल्प रहित शान्त-मन वाला मनुष्य हो सकेगा।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष