Thursday, July 3, 2025

गुरु पूर्णिमा (Guru Purnima)




गुरु पूर्णिमा 10 जुलाई को, करें गुरु का सम्मान व पूजा
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। हिंदू धर्म में इस पूर्णिमा का विशेष महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। कौरव, पाण्डव आदि सभी इन्हें गुरु मानते थे इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है। इस बार गुरु पूर्णिमा  10 जुलाई,बृहस्पतिवार को है।

इस दिन गुरु की पूजा कर सम्मान करने की परंपरा प्रचलित है। हिंदू धर्म में गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है तथा जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार करता है इसलिए यह कहा गया है-

गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:।।

अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।

गुरु पूर्णिमा अर्थात सद्गुरु के पूजन का पर्व। गुरु की पूजा, गुरु का आदर किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है अपितु गुरु के देह के अंदर जो विदेही आत्मा है, परब्रह्म परमात्मा है उसका आदर है, ज्ञान का आदर है, ज्ञान का पूजन है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।

गुरु की कृपा पाने का दिन है गुरु पूर्णिमा
हिंदू धर्म में सदैव गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को नवजीवन प्रदान करता है उन्हें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरु के महात्मय को समझने के लिए ही प्रतिवर्ष आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। इस बार गुरु पूर्णिमा का पर्व 10 जुलाई, शुक्रवार को है।

गुरु शब्द में ही गुरु का महिमा का वर्णन है। गु का अर्थ है अंधकार और रु का अर्थ है प्रकाश। इसलिए गुरु का अर्थ है अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला यानी गुरु ही शिष्य को जीवन में सफलता के लिए उचित मार्गदर्शन करता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो व्यक्ति गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करता है उसका जीवन सफल हो जाता है। महर्षि वेदव्यास ने भविष्योत्तर पुराण में गुरु पूर्णिमा के बारे में लिखा है, उसके अनुसार -

मम जन्मदिने सम्यक् पूजनीय: प्रयत्नत:। 
आषाढ़ शुक्ल पक्षेतु पूर्णिमायां गुरौ तथा।।

पूजनीयो विशेषण वस्त्राभरणधेनुभि:। 
फलपुष्पादिना सम्यगरत्नकांचन भोजनै:।।

दक्षिणाभि: सुपुष्टाभिर्मत्स्वरूप प्रपूजयेत। 
एवं कृते त्वया विप्र मत्स्वरूपस्य दर्शनम्।।

अर्थात- आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को मेरा जन्म दिवस है। इसे गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन पूरी श्रृद्धा के साथ गुरु को सुंदर वस्त्र, आभूषण, गाय, फल, पुष्प, रत्न, स्वर्ण मुद्रा आदि समर्पित कर उनका पूजन करना चाहिए। ऐसा करने से गुरुदेव में मेरे ही स्वरूप के दर्शन होते हैं।

जीवन को सुखी बनाने के लिए गुरु पूर्णिमा (10 जुलाई) पर क्या खास करें
जीवन को दिव्य बनानेवाली पूनम गुरुपूनम का अन्य सभी पूनमों से ज्यादा महत्त्व है क्योंकि इसमें तप, श्रद्धा के साथ ज्ञान की विशेषता है। समाज जिधर मुड़ता है उस चीज का विशेष प्रचार होता है। फिल्मों की तरफ समाज मुड़ा तो बच्चे-बच्चियाँ अभिनेता-अभिनेत्रियाँ बनने की धुन में लगे हैं। धन का आदर बढ़ा तो लोग छल-कपट करके धनवान होने की होड़ में शामिल हो गये परंतु समाज की वास्तविक उन्नति तो ब्रह्मविद्या का आदर होने से ही होती है, उसीसे समाज को सही दिशा मिलती है।

जैसे बिना आँख के सारी मिल्कियत, सारा वैभव व्यर्थ हो जाता है, ऐसे ही बिना ज्ञान के आत्मवैभव व्यर्थ न हो जाय इसलिए ज्ञानसंयुक्त तपवाली जो यह गुरुपूनम है यह सभी पूनमों से महत्त्वपूर्ण है, बड़ी है। ज्ञानमय तप की प्रेरणा देनेवाली, जीवन में निखार लानेवाली, सर्वांगीण विकास करानेवाली जो पूर्णिमा है उसे ही गुरुपूर्णिमा अथवा व्यासपूर्णिमा कहते हैं।

इस पूनम से संन्यासी, तपस्वी चतुर्मास का आरंभ करते हैं। साधक संकल्प करते हैं कि ‘इस चतुर्मास में अनुष्ठान करूँगा और अपनी शक्तियों को विकसित करूँगा। ऐसा नहीं कि हमें भोगी लोग निचोड़कर फेंक दें और हम लाचार हो जायें, साधना के मार्ग से विचलित हो जायें। नहीं, हम अपने जीवन की ज्योत को जगायें, जिस स्वरूप में गुरुदेव जगे हैं उस ‘सोऽहं’ स्वरूप को जगायें। अंधकार को मिटाकर आत्मप्रकाश कराने में उत्साहित कर प्रेरणा और मार्गदर्शन देनेवाली पूनम का नाम है गुरुपूनम।

गुरु शब्द का अर्थ होता है ‘बहुत बड़ा’। बड़े-में-बड़े परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान से जो सम्पन्न हैं, ऐसे व्यासतुल्य ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों का सान्निध्य दिलाती है गुरुपूनम। बाह्य सान्निध्य के साथ-साथ जब हम उनसे श्रद्धा-भक्ति से जुड़ते हैं तो हमारा भी अंतःकरण बदलता है।

यह कहावत तो प्रसिद्ध है कि ‘खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।’ ऐसे ही गुरु को देखकर शिष्य का भी रंग बदलने लगता है, वह उन्नत होने लगता है। अभिनेता-अभिनेत्री को देखकर मनुष्य उस भाव में बहने लगता है, हीन वृत्तियों में जीनेवाले शराबी-कबाबी का संग करने से उसका रंग चढ़ता है लेकि न जब संतों का, गुरु का संग होता है तो गुरु के प्यारों का भी दिल बदलता है।

जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ निःस्वार्थता और जहाँ अहं होता है वहाँ सज्जनता, सरलता आती है। जहाँ विकारी आकर्षण होता है वहाँ निर्विकारी नारायण का आकर्षण उभरने लगता है। जहाँ नश्वर की माँग रहती है वहाँ शाश्वत की तरफ झुकाव होने लगता है।

व्यासपूनम व्यापक आध्यात्मिक प्रसाद बाँटने में बड़ी सहायता करती है, इसलिए सारे व्रत-उत्सवों से भी यह बढ़कर है। इसका आदर मनुष्य तो करते ही हैं, देवता भी करते हैं। जीवन को दिव्य बनानेवाली, सनातन सत्य से जुड़ने में सहायता करनेवाली यह पूनम है। जैसे पूनम का चाँद पूर्ण कलाओं से विकसित होता है ऐसे ही जीवन को पूर्ण ढंग से विकसित करने के लिए यह पर्व बहुत सहायक सिद्ध होता है। ईश्वर में तदाकार होने के लिए यह पर्व मनाया जाता है।

जो तेरे दीदार के आशिक हैं वे समझाये नहीं जाते।
कदम रखते हैं आगे तो फिर लौटाये नहीं जाते।

कैसे करें सुबह की शुरुआत गुरुपूनम के दिन?
इस दिन सुबह बिस्तर पर तुम प्रार्थना करना - ‘‘हे महान पूर्णिमा! हे गुरुपूर्णिमा! अब हम अपनी आवश्यकता की ओर चलेंगे। इस देह की सम्पूर्ण आवश्यकताएँ कभी किसीकी पूरी नहीं हुईं। हुईं भी तो संतुष्टि नहीं मिली। अपनी असली आवश्यकता की तरफ हम आज से कदम रख रहे हैं।’’

उसी समय ध्यान करना। शरीर बिस्तर छोड़े उसके पहले अपने प्रियतम को मिलना। गुरुदेव का मानसिक पूजन करना। वे तुम्हारे मन की दशा देख भीतर-ही-भीतर संतुष्ट होकर अपनी अनुभूति की झलक से तुम्हें आलोकित कर देंगे। उनके पास उधार नहीं है, वे तो नगदधर्मा हैं।

जानिए, जीवन में गुरु का होना क्यों जरुरी है
हिन्दू धर्म में आषाढ़ पूर्णिमा ( इस वर्ष 10 जुलाई ) गुरु भक्ति को समर्पित गुरु पूर्णिमा का पवित्र दिन भी है। भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु को सर्वोपरि माना है। वास्तव में यह दिन गुरु के रुप में ज्ञान की पूजा का है। गुरु का जीवन में उतना ही महत्व है, जितना माता-पिता का। माता-पिता के कारण इस संसार में हमारा अस्तित्व होता है। किंतु जन्म के बाद एक सद्गुरु ही व्यक्ति को ज्ञान और अनुशासन का ऐसा महत्व सिखाता है, जिससे व्यक्ति अपने सद्कर्मों और सद्विचारों से जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी अमर हो जाता है। यह अमरत्व गुरु ही दे सकता है। सद्गुरु ने ही भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया इसलिए गुरुपूर्णिमा को अनुशासन पर्व के रुप में भी मनाया जाता है।

इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास गुरु ही करता है। जिससे जीवन की कठिन राह को आसान हो जाती है। सार यह है कि गुरु शिष्य के बुरे गुणों को नष्ट कर उसके चरित्र, व्यवहार और जीवन को ऐसे सद्गुणों से भर देता है। जिससे शिष्य का जीवन संसार के लिए एक आदर्श बन जाता है। ऐसे गुरु को ही साक्षात ईश्वर कहा गया है इसलिए जीवन में गुरु का होना जरुरी है।

गुरु पूर्णिमा पर 1 आसान गुरु मंत्र बोल करें तमाम मुश्किलों का सफाया
हिन्दू पंचांग के आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि (10 जुलाई) गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है। गुरु पूर्णिमा खासतौर पर गुरु भक्ति का पुण्य काल है। दरअसल, जिस ज्ञान, बुद्धि, बल के द्वारा इंसान जीवन को सफल बनाता है, वह गुरु की ही देन होती है।

जीवन यात्रा में यह जरूरी नहीं कि यह गुरु मात्र धर्म, अध्यात्म क्षेत्र या पहनावे से जुड़ा हो या कोई एक ही व्यक्तित्व हो, बल्कि हर वह इंसान, जो दु:ख के दलदल से दूर रख खुशहाली की राह बताने का ज्ञान, कौशल, सीख और भरोसा दे, गुरु माना गया है

धर्मशास्त्रों में गुरु भक्ति के लिए ही एक आसान किंतु अपार गुरु और देव कृपा देने वाला मंत्र बताया गया है। इसमें गुरु को साक्षात् ईश्वर बताया गया है। गुरु को त्रिदेव रूपी 3 शक्तियों ब्रह्मा, विष्णु और महेश का ही स्वरूप माना गया है और उजागर किया गया है कि गुरु का ज्ञान बल त्रिदेवों की रचना, पालन व संहार शक्तियों के समान ही होता है। इस मंत्र के स्मरण से शिष्य या गुरु भक्त श्री, यश, प्रतिष्ठा, सुख और वैभव पाता है। इस मंत्र का इष्ट देव, धार्मिक या आध्यात्मिक गुरु की पूजा के वक्त स्मरण करें।

जानिए गुरु पूजा का आसान तरीका और यह खास मंत्र –
गुरु पूर्णिमा के दिन पहले खासतौर पर इष्टदेव की प्रतिमा पूजा चंदन, अक्षत, फूल, वस्त्र, श्रीफल यानी नारियल और वस्त्र समर्पित कर करें और आगे बताए जा रहे सरल मंत्र का ध्यान करें। भोग लगाकर धूप, दीप से आरती कर मंगल कामना करें। - धार्मिक या आध्यात्मिक गुरु की पूजा में गुरुदेव को मस्तक व चरणों में नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए अष्टगंध या केसर चंदन लगाएं।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

जानिए गुरु मंत्र स्मरण के बाद गुरु भक्ति या सेवा के लिए और क्या करें- गुरु मंत्र स्मरण के बाद इस तरह गुरु पूजा करें - - अक्षत व सुगंधित फूल या फूलों की माला अर्पित करें। - वस्त्र, शाल, दुपट्टा व नारियल व यथाशक्ति दक्षिणा भेंट करें। - मिठाई, फल आदि नैवेद्य समर्पित करें। - गुरु की कर्पूर या दीप आरती करें। गुरु के श्री चरणों में वंदन करें सुखी, शांत और सफल जीवन की कामना करें।

गुरु पूर्णिमा, इन उपायों से चमकाएं किस्मत
31 जुलाई को गुरु पूर्णिमा है। हिंदू धर्म में गुरु पूर्णिमा का विशेष महत्व है। इस दिन सभी लोग अपने-अपने गुरु की पूजा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि गुरु की कृपा के बिना कहीं भी सफलता नहीं मिलती। ज्योतिष के अनुसार भी गुरु पूर्णिमा का विशेष महत्व है। जिन लोगों की कुंडली में गुरु प्रतिकूल स्थान पर होता है, उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते है। वे लोग यदि गुरु पूर्णिमा के दिन नीचे लिखे उपाय करें तो उन्हें इससे काफी लाभ होता है। यह उपाय इस प्रकार हैं-

1- भोजन में केसर का प्रयोग करें और स्नान के बाद नाभि तथा मस्तक पर केसर का तिलक लगाएं।
2- साधु, ब्राह्मण एवं पीपल के वृक्ष की पूजा करें।
3- गुरु पूर्णिमा के दिन स्नान के जल में नागरमोथा नामक वनस्पति डालकर स्नान करें।
4- पीले रंग के फूलों के पौधे अपने घर में लगाएं और पीला रंग उपहार में दें।
5- केले के दो पौधे विष्णु भगवान के मंदिर में लगाएं।
6- गुरु पूर्णिमा के दिन साबूत मूंग मंदिर में दान करें और 12 वर्ष से छोटी कन्याओं के चरण स्पर्श करके उनसे आशीर्वाद लें।
7- शुभ मुहूर्त में चांदी का बर्तन अपने घर की भूमि में दबाएं और साधु संतों का अपमान नहीं करें।
8- जिस पलंग पर आप सोते हैं, उसके चारों कोनों में सोने की कील अथवा सोने का तार लगाएं।

ऐसे मनाएं गुरू पूर्णिमा का त्योहार
गुरु के पूजन का दिन है - गुरुपूर्णिमा परंतु गुरुपूजा क्या है? गुरु बनने से पहले गुरु के जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आये होंगे, अनेक अनुकूलताएं-प्रतिकूलताएं आयी होंगी, उनको सहते हुए भी वे साधना में रत रहे, ‘स्व’ में स्थित रहे, समता में स्थित रहे।

वैसे ही हम भी उनके संकेतों को पाकर उनके आदर्शों पर चलने का, ईश्वर के रास्ते पर चलने का दृढ़ संकल्प करके तदनुसार आचरण करें तो यही बढ़िया गुरुपूजन होगा। हम भी अपने हृदय में गुरुतत्त्व को प्रकट करने के लिए तत्पर हो जाएं- यही बढ़िया गुरुपूजा होगी। 

जिनके जीवन में सद्गुरु का प्रकाश हुआ है वास्तव में उन्हीं का जीवन जीवन है, बाकी सब तो मर ही रहे हैं। मरनेवाले शरीर को जीवन मानकर मौत की तरफ घसीटे जा रहे हैं। धनभागी तो वह हैं जिनको जीते-जी जीवन मुक्त सद्गुरु मिल गये... जिनको जीवन मुक्त सद्गुरु का सान्निध्य मिल गया, आत्मारामी संतों का संग मिल गया, वे बड़भागी हैं।

ऐसे शिष्यों के पास चाहे ऐहिक सुख-सुविधाओं के ढेर हों, चाहे अनेकों प्रतिकूलताएं हों फिर भी वह मोक्ष मार्ग में जाते हैं। गुरु और शिष्य के बीच जो दैवी संबंध होता है उसे दुनियादार क्या जानें? सच्चे शिष्य सद्गुरु के चरणों में मिट जाते हैं और सच्चे सद्गुरु निगाहों से ही शिष्य के हृदय में बरस जाते हैं।

गुरुपूर्णिमा का पर्व गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व है। शिष्य को गुरु से जो ज्ञान मिलता है वह शाश्वत होता है, उसके बदले में वह गुरु को क्या दे सकता है? लेकिन वह कहीं कृतघ्न न हो जाय इसलिए अपने सद्गुरुदेव का मानसिक पूजन करके गुरुपूर्णिमा के दिन गुरुचरणों में शीश नवाते हुए प्रार्थना करता है:

‘गुरुदेव! हम आपको और तो क्या दे सकते हैं। इतनी प्रार्थना अवश्य करते हैं कि आप स्वस्थ और दीर्घजीवी हों। आपका ज्ञानधन बढ़ता रहेआपका प्रेमधन बढ़ता रहे। हम जैसों का मंगल होता रहे और हम आपके दैवी कार्यों में भागीदार होते रहें।

गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ कहते हैं, क्यों?
गुरु गोविंद दोऊ खड़ेकाके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताए।।
कबीर द्वारा रचित उक्त पंक्तियों में गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है तथा गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताया गया है। हिंदू धर्म में गुरु का स्थान प्रारंभ से श्रेष्ठ है। धार्मिक ग्रंथों में गुरु की महिमा का वर्णन कई बार पढऩे में आता है। भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व में भी गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है।

उसके अनुसार गुरु के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े रहें, गुरु की आज्ञा हो तो बैठे परंतु आसन पर नहीं। वाहन पर हों तो गुरु का अभिवादन न करें, वाहन से उतर कर प्रणाम करें। शरीर त्याग पर्यंत जो गुरु की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ दर्शाने के पीछे तर्क है कि आध्यात्मिक ज्ञान सिर्फ गुरु के माध्यम से ही प्राप्त हो सकता है। यह ईश्वरीय ज्ञान है जो गुरु के माध्यम से पृथ्वी पर उतरा है।

सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं इस्लाम में भी गुरु की महिमा का वर्णन है इसीलिए गुरु को पैगंबर कहा गया है। भारत का संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-शिष्य सम्वाद के रूप में ही है जैसे- कृष्ण-अर्जुन संवाद, यम-नचिकेता संवाद, जनक-अष्टावक्र संवाद, जनक-याज्ञवल्क्य संवाद आदि। गुरु वह होता है जिसने पूर्णत्व को प्राप्त कर लिया है। धर्म के गोपनीय गुर वही बता सकता है। ऐसे गुरु को ही ज्ञानी कहते हैं।

गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं। आज गुरु पूर्णिमा यानी गुरु के पूजन का पर्व है। गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति का सबसे पुरातन पहलू है। भारतीय वैदिक परंपरा का तो आधार ही गुरु-शिष्य थे। वेदों को श्रुति कहा जाता है, यानी जो गुरु के मुख से सुन कर शिष्यों ने आत्मसात किया और पीढ़ी दर पीढ़ी उसे आगे बढ़ाया। लिहाजा गुरु पर्व का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व है। आज भी आध्यात्मिक गुरु-शिष्य परंपरा बड़े पैमाने पर हमारे यहां प्रचलित है। गुरुपूर्णिमा के दिन पूरे भारत में लोगो अपने गुरु की आराधना करते हैं। संतों के आश्रमों में शिष्यों का तांता लग जाता है। दान, स्नान और पूजापाठ का इस दिन विशेष महत्व बताया गया है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है।

गुरुपूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शाति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

हिन्दू पंचाग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा करने की परंपरा को गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आत्मस्वरूप का ज्ञान पाने के अपने कर्तव्य की याद दिलाने वाला, मन में दैवी गुणों से विभूषित करनेवाला, सद्गुरु के प्रेम और ज्ञान की गंगा में बारंबार डूबकी लगाने हेतु प्रोत्साहन देने वाला है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि भगवान वेद व्यास ने पंचम वेद महाभारत की रचना इसी पूर्णिमा के दिन की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेद व्यास जी का पूजन किया और तभी से व्यास पूर्णिमा मनाई जा रही है।

आज भी है उतना ही महत्व
भारत भर में गुरुपूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरु को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर धर्मावलंबी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रगट करता है। जीवन में सफलता के लिए हर व्यक्ति गुरु के रुप में श्रेष्ठ मार्गदर्शक, सलाहकार, समर्थक और गुणी व्यक्ति के संग की चाहत रखता है। इसलिए वह गुरु के रुप में किसी संत, अध्यात्मिक व्यक्तित्व या किसी कार्य विशेष में दक्ष और गुणी व्यक्ति को चुनना चाहता है। किंतु इस धारणा के विपरीत पुराणों में आए प्रसंग यह संदेश देते है कि अगर मन में लगन हो, इच्छा शक्ति हो, कुछ जानने, सीखने का दृढ संकल्प हो तो कोई भी व्यक्ति गुरु को कहीं भी पा सकता है। क्योंकि गुरु की महिमा ही ऐसी है कि ईश्वर की तरह गुरु हर जगह मौजूद है। सिर्फ चाहत और दृष्टि चाहिए गुरु को पाने और देखने की।

जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है
जगद्गुरु दत्तात्रेय ऐसे ही शिष्य के रुप में भी प्रसिद्ध हैं। जिनके अनेक गुरु हुए। जबकि उन्होनें किसी से गुरु दीक्षा नहीं पाई थी। आखिर यह कैसे संभव हुआ। बात वही थी-ज्ञान पाने की ललक। गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति, प्राणियों, ग्रह-नक्षत्रों को अपना गुरु माना। जिनकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनकी संख्या 24 थी। इनमें प्रमुख रुप से पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, कबूतर, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, पतंगा, हिरण, मछली, गरुड़, मकड़ी, बालक, वेश्या, कन्या, बाण प्रमुख थे। जिनसे उन्होंने कोई गुरु मंत्र और शिक्षा नहीं ली। मात्र इनकी गति, प्रकृतिगुणों को देखकर अपनी दृष्टि और विचार से शिक्षा पाई और आत्म ज्ञान पा लिया। इससे ही श्री दत्तात्रेय जगद्गुरु बन गए। गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र देहधारी कोई मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता। बल्कि पूरे जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है। यहा तक कि स्वयं के अंदर भी। जिनको देखना और जानना बहुत जरुरी है।

श्री हनुमान को गुरु बना सीखें सफलता के ये 6 गुरू मंत्र
हिन्दू संस्कृति रिश्तों और जीवन मूल्यों के प्रति विश्वास , समर्पण व सम्मान का जज्बा बनाए रखने वाले सूत्रों और महान आदर्शों का खजाना है। इसी खजाने का एक अनमोल सूत्र है - गुरु पूर्णिमा उत्सव। गुरु भक्ति और वंदना से गुरु कृपा पाकर जीवन को शांत, सुखी और सफल बनाने के मकसद से गुरु पूर्णिमा बहुत शुभ घड़ी मानी गई है।

गुरु और शिष्य का संबंध तमाम सांसारिक रिश्तों में श्रेष्ठ और ऊपर माना गया है। क्योंकि धर्म, अध्यात्म या व्यावहारिक जीवन, किसी भी रूप में गुरु की ज्ञान शक्ति की ऊर्जा व रोशनी शिष्य के चरित्र, व्यक्तित्व और व्यवहार को उजाला बनाकर जीवन के तमाम दोष, दुर्गण और विकार रूपी अंधकार को मिटाती है।

भौतिक सुख-सुविधाओं से भरे आज के माहौल में अनेक लोग अंदर और बाहरी द्वंद्व या संघर्ष से आहत हो सुख की राह पाने के लिये जूझते हैं। ऐसी मानसिक और व्यावहारिक मुश्किलों में एक श्रेष्ठ गुरु मिलना मुश्किल हो जाता है। अगर आप भी संकटमोचक गुरु की आस रखते हैं तो गुरु पूर्णिमा की शुभ घड़ी में यहां बताए जा रहे सूत्र से आप एक श्रेष्ठ गुरु पा सकते हैं।

यह अनमोल सूत्र है - संकटमोचक श्री हनुमान को इष्ट बनाकर गुरु के समान सेवा, भक्ति। पूर्णिमा तिथि पर श्री हनुमान उपासना शुभ मानी जाती है। क्योंकि श्री हनुमान का जन्म भी पूर्णिमा तिथि पर माना गया है। श्री हनुमान को गुरु मानकर उनके चरित्र का स्मरण सफल जीवन के लिए मार्गदर्शन ही नहीं करता है, बल्कि संकटमोचक भी साबित होता है। सीखें श्री हनुमान के चरित्र से कामयाबी के कुछ खास गुरु मंत्र  -

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा श्री हनुमान भक्ति के रची गई श्री हनुमान चालीसा की शुरुआत गुरु स्मरण से ही होती है। जिसमें श्री हनुमान के प्रति भी गुरु भक्ति का भाव छुपा है। ऐसे ही गुरु भाव से श्री हनुमान का स्मरण कर
विनम्रता - गुणी और ताकतवर होने पर भी हनुमान घमण्ड से दूर रहे। सीख है कि किसी भी रूप में अहं (Ego) को जगह न दें। हमेशा नम्रता और सीखने का भाव मन में कायम रखें।

मान और समर्पण - श्री हनुमान ने हर रिश्तों को मान दिया और उसके प्रति समर्पित रहे, फिर चाहे वह माता हो, वानर राज सुग्रीव या अपने इष्ट भगवान राम । संदेश है कि परिवार और अपने क्षेत्र से जुड़े हर संबंध में मिठास बनाए रखें। क्योंकि इन रिश्तों के प्रेम, सहयोग और विश्वास से मिली ऊर्जा, उत्साह और दुआएं आपकी सफलता तय कर देती है।

धैर्य और निर्भयता - श्री हनुमान से धैर्य और निडरता का सूत्र जीवन की तमाम मुश्किल हालातों में भी मनोबल देता है। इसके बूते ही लंका में जाकर हनुमान ने रावण राज के अंत का बिगुल बजाया।

कृतज्ञता - जीवन में दंभ रहित या आत्म प्रशंसा का भाव पतन का कारण होती है। श्री हनुमान से कृतज्ञता के भाव सीख जीवन में उतारे। अपनी हर सफलता में परिजनों, इष्टजनों और बड़ों का योगदान न भूलें। जैसे हनुमान ने अपनी तमाम सफलता का कारण श्रीराम को ही बताया।

विवेक और निर्णय क्षमता - श्री हनुमान ने सीता खोज में समुद्र पार करते वक्त सुरसा, सिंहिका, मेनाक पर्वत जैसी अनेक बाधाओं का सामना किया। किंतु लालसाओं में न उलझ बुद्धि व विवेक से सही फैसला लेकर बगैर डावांडोल हुए अपने लक्ष्य की ओर बढें। आप भी जीवन में सही और गलत की पहचान कर अपने मकसद से कभी न भटकें।

तालमेल की क्षमता - श्री हनुमान ने अपने स्वभाव व व्यवहार से हर स्थिति, काल और अवसर से तालमेल बैठाया। इससे ही वे हर युग और काल में सबके प्रिय बने रहे। हनुमान के इस सूत्र से आप भी अपने बोल, व्यवहार और स्वभाव में सेवा व प्रेम के रूप में मिठास घोलें। इन सूत्रों से आप सभी का भरोसा और दिल जीतकर सफलता की ऊंचाइयों को पा सकते हैं, ठीक श्री हनुमान की तरह।

भगवान से अगर कुछ मांगना ही है तो श्रेष्ठ गुरु मांगिए
वे सौभाग्यशाली होते हैं , जिनके जीवन में गुरु आ जाते हैं। सभी लोग अपनी पूजा में परमात्मा से कुछ न कुछ मांगते हैं। भगवान से मांगें या न मांगें ये एक अलग विषय है, लेकिन यदि कुछ मांगना है तो गुरु मांगिए, क्योंकि हम लोग बाजार के युग के प्रोडक्ट हैं।

हर चीज वारंटी और गारंटी से लाते हैं, लेन-देन हिसाब से करते हैं, इसीलिए गुरु भी ठोंक-बजाकर बनाते हैं। सोमवार को हम गुरुजी बनाते हैं, मंगलवार को उनमें खोट ढूंढ़ना शुरू कर देते हैं, बुधवार को गुरुजी रवाना कर दिए जाते हैं और गुरुवार से फिर नए गुरु की तलाश शुरू हो जाती है। इस चक्कर में गुरु नहीं मिल पाते। हम गुरु बनाएंगे तो अपनी पसंद खाली कर देंगे और यदि भगवान से मांगा और उन्होंने दिया तो आप पाएंगे कि एक दिन चलकर कोई गुरु आपके द्वार, आपके जीवन में आ जाएगा। परमात्मा तक सीधे छलांग लग भी नहीं पाती।

गुरु के झरोखे से ही ईश्वर में झांका जा सकता है। तुलसीदासजी ने श्रीहनुमानचालीसा में चौपाई लिखकर यह घोषणा कर दी कि यदि कोई गुरु न मिले तो हनुमानजी को गुरु बना लें - जै जै जै हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं। अब देखिए गुरु क्या करते हैं। सुंदरकांड में रावण ने हनुमानजी की पूंछ जलाने की आज्ञा दे दी थी। हनुमानजी लंका जला चुके थे, लेकिन विभीषण का घर बच गया था। हनुमानजी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया। गुरु जीवन में होते हैं तो चाहे सारी दुनिया में विपरीत स्थिति हो, हम सुरक्षित रहेंगे विभीषण की तरह। विभीषण के जीवन में हनुमानजी गुरु ही बनकर आए थे।

गुरु कृपा बिन सब सून
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकाड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानाजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को गुरु कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

मोक्ष का मूल गुरु की कृपा
एक गुरु के पास आपको न केवल आपके जीवन के कष्टों से अपितु स्वयं से भी परे ले जाने की अद्भुत क्षमता होती है। वैदिक ज्ञान के अनुसार गुरुशक्ति को सर्वोच्च स्थान और आदर दिया गया है। गुरु का अस्तित्व भौतिक शरीर तक सिमटा नहीं है, बल्कि वह एक शक्ति है जिसे दिव्य चेतना परब्रह्म से भी उच्च माना गया है।

प्रथम गुरु अथवा आदिगुरु स्वयं भगवान शिव हैं। वह शक्ति सभी विद्यमान स्वरुपों के विघटन व परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। एक साधक के लिए गुरु भगवान का रूप है। गुरु की शक्ति सीमित नहीं है। यह शक्ति अनंत है, अखंड है। शिष्य को गुरु द्वारा बोले शब्द को मंत्र समझना चाहिए।

प्राचीन ऋषियों ने कहा भी है कि गुरु की छवि वह मूल है जहां से ध्यान आता है, साधक के द्वारा की गई पूजा अथवा किसी भी प्रकार का तप गुरु के चरण कमल से आते हैं, मंत्र का मूल गुरु के द्वारा कहे गए शब्द हैं और मोक्ष का मूल केवल गुरु की कृपा ही है।

केवल सौभाग्यशाली व्यक्ति ही सीमित इंद्रियों के अंहकारी अनुभव के परे देख सकते हैं और इस शक्ति तक पहुंचने के लिए अपने मस्तिष्क का प्रयोग नहीं करते क्योंकि जो असीम है उसे सीमित दिमाग से नहीं समझा जा सकता।


व्यास जयंती गुरु पूजा मनाने का मुख्य लक्ष्य है
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मुनियों में व्यास मुनि मैं हूं। भगवान वेद व्यास जी भगवान श्री हरि विष्णु जी के अंशावतार हैं तथा भगवान के 24 अवतारों में उनकी गणना होती है। अष्ट चिरंजीवियों में शामिल भगवान वेद व्यास जी ने समस्त वैदिक सनातन साहित्य का संकलन किया। इनका प्राकट्य आषाढ़ मास की पूर्णिमा को हुआ। इनके पिता ऋषि पराशर तथा माता सत्यवती थीं।

सृष्टि के आदिकाल में एक ही वेद था। महर्षि वेद व्यास जी ने इनके चार भाग ऋक्,यजुसाम तथा अथर्ववेद किए तथा वेदों का व्यास करने से वेद व्यास कहलाए। ब्रह्मा जी द्वारा रचित पुराण जोकि भगवान की दिव्य लीलाओं का संग्रह है तथा जिसके शत कोटि मंत्र हैंभगवान वेद व्यास जी ने उस पुराण को 18 पुराणों में विभक्त कर भगवान के दिव्य लीला संग्रह को समस्त  प्राणी मात्र के लिए सुलभ कराया जिनमें श्रीमद्भागवत महापुराण तथा शिव पुराण मुख्य हैं। इन 18 पुराणों के 4 लाख मंत्र हैं। भगवान वेद व्यास जी ने ब्रह्म सूत्र काव्य तथा वेदांत सूत्र की रचना की।

भगवान वेद व्यास जी ने वेदार्थ को अपने प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ महाभारत के माध्यम से सम्पूर्ण प्राणीमात्र को सुलभ कराया जो धर्मअर्थकाम और मोक्ष को प्रदान करने वाला है। जिसे स्वयं योगीन्द्रों के महागुरु गौरीनंदनप्रथम पूज्य भगवान गणेश जी ने कलमबद्ध किया। भगवान वेद व्यास जी बोलते गए तथा गणेश जी लिखते गए। इस महान ग्रंथ में सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सारभूत ज्ञान श्रीमद् भागवद् गीता जी है जो महाभारत के भीष्म पर्व में परात्पर ब्रह्म भगवान श्री कृष्ण जी ने स्वयं युद्धभूमि में अपने कर्तव्य मार्ग से भ्रमित हुए महान धनुर्धारी अर्जुन को दिया।

भगवान वेद व्यास जी का नाम कृष्ण द्वैपायन था। श्याम वर्ण होने के कारण इनका नाम कृष्ण तथा एक द्वीप में जन्म लेने के कारण इनका नाम कृष्ण द्वैपायन पड़ा। वैदिक सनातन धर्म के विशद् साहित्य को संकलन करने का तथा एक सूत्र में पिरोने का जो महान कार्य भगवान वेद व्यास जी ने किया उसके लिए भक्ति प्रधान भारतीय समाज उन्हें शत्-शत् नमन करता है इसीलिए गुरुओं में प्रथम पूज्य भगवान वेद व्यास जी को माना गया। तभी उनकी जयंती को गुरु-पूजा के नाम से मनाया जाता है।

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।’’

अर्थात : भगवान नारायणउनके सखा नरदेवी सरस्वती तथा भगवान वेद व्यास जी का स्मरण कर ही धर्म ग्रंथों का अध्ययन प्रारंभ करना चाहिए।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
ज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कोई नहीं।

देवद्विजगुरुप्राज्ञ पूजनंसात्विक तप उच्यते।’ देवताब्राह्मणगुरु और ज्ञानीजनों का पूजन सात्विक तप कहलाता है। मानव शरीर को प्राप्त करस्वयं का उद्धार करना ही जीव का मुख्य लक्ष्य है। इस हेतु गुरु ही हमें ज्ञान प्रदान कर अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्रेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिन :।।

उस तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु हमें ज्ञानी जनोंगुरुजनों को प्रणाम करकपट भाव छोड़ उनसे प्रश्र पूछने चाहिएं तथा उनकी सेवा करनी चाहिए। तब वे तत्वदर्शीज्ञानीजनमानवजीवन से उद्धार कराने वाले तत्व ज्ञान का उपदेश करेंगेयही व्यास जयंती गुरु पूजा मनाने का मुख्य लक्ष्य है। अध्यात्म जगत में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले श्रीमद्भागवत के प्रवक्ता महामुनि शुकदेव जी व्यास मुनि जी के पुत्र हैं।

व्यास जी की कृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ही संजय ने महाभारत के युद्ध का वृत्तांत दृष्टिहीन धृतराष्ट्र को सुनाया। हस्तिनापुर के राजा विचित्रवीर्य की विधवा पत्नियों अम्बिकाअम्बालिका ने व्यास मुनि की कृपा दृष्टि प्राप्त कर ही धृतराष्ट्र तथा पांडु  को जन्म दिया। भगवान वेद व्यास जी ने सनातन धर्म के ज्ञान को आधार प्रदान किया।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Tuesday, June 10, 2025

परम पूज्य गुरुदेव स्वामी कल्याणदेव जी




ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
🙏निष्काम, कर्मयोगी, तप, त्याग और सेवा की साक्षात मूर्ति ब्रह्मलीन स्वामी कल्याणदेव जी महाराज सच्चे अर्थों में सन्त थे। उनकी जन्मतिथि एवं शिक्षा-दीक्षा के बारे में निश्चित जानकारी किसी को नहीं है। एक मत के अनुसार जून 1876 में उनका जन्म ग्राम कोताना (जिला बागपत, .प्र.) के एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री फेरूदत्त जाँगिड़ तथा माता श्रीमती भोईदेवी थीं। कुछ लोग जिला मुजफ्फरनगर के मुण्डभर गाँव को उनकी जन्मस्थली मानते हैं। उनके बचपन का नाम कालूराम था।



धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण दस साल की अवस्था में उन्होंने घर छोड़ दिया था। 1900 0 में ऋषिकेश में स्वामी पूर्णदेव जी से दीक्षा लेकर वे हिमालय में तप एवं अध्ययन करने चले गये। 1902 में राजस्थान में खेतड़ी नरेश के बगीचे में स्वामी विवेकानन्द से उनकी भेंट हुई। विवेकानन्द ने उन्हें पूजा-पाठ के बदले निर्धनों की सेवा हेतु प्रेरित किया। इससे कल्याणदेव जी के जीवन की दिशा बदल गयी।

1915 में गान्धी जी से भेंट के बाद स्वामी जी स्वाधीनता संग्राम के साथ ही हिन्दी और खादी के प्रचार तथा अछूतोद्धार में जुट गये। इस दौरान उन्हें अनुभव आया कि निर्धनों के उद्धार का मार्ग उन्हें भिक्षा या अल्पकालीन सहायता देना नहीं, अपितु शिक्षा की व्यवस्था करना है। बस, तब से उन्होंने शिक्षा के विस्तार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

स्वामी जी ने मुजफ्फरनगर जिले में गंगा के तट पर बसे तीर्थस्थान शुकताल को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। यह वही स्थान है, जहाँ मुनि शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को वटवृक्ष के नीचे पहली बार भागवत की कथा सुनायी थी। वह वटवृक्ष आज भी जीवित है। स्वामी जी ने इस स्थान का जीर्णाेद्धार कर उसे सुन्दर तीर्थ का रूप दिया। इसके बाद तो भक्तजन स्वामी जी को मुनि शुकदेव का अंशावतार मानने लगे। स्वामी जी ने गंगा तट पर बसे महाभारतकालीन हस्तिनापुर के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति स्वामी जी का प्रेम एवं आशीर्वाद जिसे भी मिला, वही धन्य हो गया। इनमें भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर पण्डित नेहरू, नीलम संजीव  रेड्डी, इन्दिरा गान्धी, डा. शंकरदयाल शर्मा, गुलजारीलाल नन्दा, के.आर. नारायणन, अटल बिहारी वाजपेयी आदि बड़े राजनेताओं से लेकर सामान्य ग्राम प्रधान तक शामिल हैं। स्वामी कल्याणदेव जी सबसे समान भाव से मिलते थे।

स्वामी जी ने अपने जीवनकाल में 300 से भी अधिक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की। वे सदा खादी के मोटे भगवा वस्त्र ही पहनते थे। प्रायः उनके वस्त्रों पर थेगली लगी रहती थी। प्रारम्भ में कुछ लोगों ने इसे उनका पाखण्ड बताया; पर वे निर्विकार भाव से अपने कार्य में लगे रहे। वे सेठों से भी शिक्षा के लिए पैसा लेते थे; पर भोजन तथा आवास सदा निर्धन की कुटिया में ही करते थे। शाकाहार के प्रचारक इस सन्त को 1992 में पद्मश्री तथा 2000 . में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

13 जुलाई 2014 की अतिरात्रि में उन्होंने अपने शिष्यों से उन्हें प्राचीन वटवृक्ष एवं शुकदेव मन्दिर की परिक्रमा कराने को कहा। परिक्रमा पूर्ण होते ही 12.20 पर उन्होंने देहत्याग दी। तीन सदियों के द्रष्टा 129 वर्षीय इस वीतराग सन्त को संन्यासी परम्परा के अनुसार अगले दिन शुकताल में भूसमाधि दी गयी।

मां सरस्वती के भक्त तथा मुजफरनगर के इस महान सपूत जय गुरुदेव..स्वामी कल्याणदेव जी....को शत शत नमन....

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष 

 🙏

Thursday, May 8, 2025

श्रद्धा (Shradha )

श्रद्धा से मिलता है अटूट आत्मिक बल’
प्रभु यीशु के अनेक शिष्य थे। यीशु उन्हें नित्य ही धर्मोपदेश देते थे। कई बार वे उनके साथ भ्रमण भी करते थे और इसी दौरान घटने वाली स्थितियों के माध्यम से वे उन्हें जीवनोपयोगी शिक्षा देते थे। एक बार यीशु अपने शिष्यों के साथ तिनेरियस झील पार कर रहे थे। शाम का शांत वातावरण था। ठंडी-ठंडी बयार बह रही थी। ऐसे सुहाने मौसम में यीशु नाव के पिछले हिस्से में आराम कर रहे थे। शिष्य अपनी सामान्य चर्चा में मशगूल थे। नाव गंतव्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही थी। एकाएक मौसम ने पलटी खाई। आसमान पर घने बादल छा गए और तेज हवाएं चलने लगीं।

नाव हिचकोले खाने लगी और इसी क्रम में उसमें पानी भरने लगा। यीशु को छोड़कर सभी शिष्य भयभीत हो गए, मगर उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया। वे लोग इस घटना में कुछ रहस्य की आशा रख शांत बने रहे, किंतु ज्यों-ज्यों डूबने का खतरा बढ़ता दिखने लगा, उन्होंने यीशु को जगाते हुए कहा- प्रभु! हम डूब रहे हैं। क्या आपको इसकी चिंता नहीं है। यीशु जागे और सहज भाव से वायु और झील को डांटते हुए बोले शांत हो जाओ, थम जाओ। उनके ऐसा कहते ही वायु मंद हो गई और जल का ज्वार थम गया। सभी शिष्य खुश होकर तालियां बजाने लगे। तब यीशु ने मुस्कुराकर कहा-‘‘तुम लोग इस तरह डरते क्यों हो? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं है? विश्वास करना सीखो। विश्वास के साथ जीवन में एक प्रशांति उपलब्ध होती है और अलौकिक शक्ति का विकास होता है। विश्वास रखने वाला मन निर्भय होता है और उसके संकल्प का सम्मान प्रकृति की शक्तियां भी करती हैं।’’सभी शिष्य यीशु से सहमत हुए और भविष्य में ऐसे ही दृढ़ विश्वास पथ पर चलने का संकल्प लिया।वस्तुत: यह विश्वास ही उस श्रद्धा को जन्म देता है, जो अखूट आत्मिक बल की सृजनकर्ता होती है और इस बल से संपन्न व्यक्ति को वह दृढ़ता प्राप्त होती है, जिससे उसके मार्ग में आनेवाली हर बाधा पराजित हो जाती है और सफलता के द्वार खुल जाते हैं।

सच्ची श्रद्धा से प्रतिकूलताओं पर विजय संभव है
उमर खैयाम अपने साथियों और शिष्यों के साथ देशाटन किया करते थे। एक दिन वे अपने एक शिष्य के साथ घने जंगल से होते जा रहे थे। चलते-चलते नमाज़ का वक्त हो गया। दोनों नमाज़ अदा करने बैठ गए। तभी शेर की जोरदार दहाड़ सुनाई दी। शिष्य घबरा गया और नमाज़ अधूरी छोड़कर एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गया। किंतु उमर बिना विचलित हुए अपनी नमाज़ अदा करते रहे।कुछ देर बाद शेर वहां आया। उसने उमर को देखा और सिर झुकाकर हट गया। थोड़ी दूर जाने पर उसने पेड़ पर चढ़े हुए शिष्य को देखा, तो जोर से दहाड़ा, जिससे वह और भी डर गया। उसे डराकर शेर वापस जंगल में चला गया। शिष्य काफी देर तक पेड़ पर ही चढ़ा रहा। जब उसे विश्वास हो गया कि शेर चला गया है, तब वह पेड़ से उतरा। उमर ने बड़े आराम से अपनी नमाज़ खत्म की और दोनों पुन: अपनी यात्रा पर चल दिए।शिष्य के मन में कई सवाल उठ रहे थे, मगर वह खामोश रहा। थोड़ी देर बाद शिष्य को जोरदार थप्पड़ मारने की आवाज आई। उसने पलटकर उमर को देखा और पूछा- ‘‘आपने अपने ही गाल पर थप्पड़ क्यों मारा?’’ उमर ने जवाब दिया- ‘‘मेरे गाल पर एक मच्छर बैठा था, जिसने मुझे काट लिया। उसे मारने के लिए मैंने चांटा मारा।’’ शिष्य ने पूछा- जब शेर आया, तो आप बगैर डरे नमाज़ पढ़ते रहे और जब आपके साथ मैं भी हूं, तब एक मच्छर से आपको इतनी परेशानी हो गई? तब उमर हंसकर बोले- ‘‘उस वक्त मैं खुदा के साथ था और इस वक्त बंदे के साथ। खुदा के साथ होने पर सच्चे भक्त को उसकी श्रद्धा के कारण किसी बात की न खबर होती है और न चिंता।’’सच ही है कि यदि ईश्वर के प्रति समर्पित भक्ति भाव हो अर्थात् सच्ची श्रद्धा हो, तो व्यक्ति निर्भय हो जाता है और संकट अपने आप दूर हो जाता है। श्रद्धा की अनन्यता सदैव सद्परिणाम मूलक होती है।

इसलिए कहते हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहते हैं मन में श्रद्धा हो तो अपने भीतर ही भगवान के दर्शन किये जा सकते है। फिर न तो आपको मंदिर जाने की जरूरत है न मस्जिद और न ही किसी तीर्थ यात्रा पर।श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु के प्रति समर्पण भाव से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।संत रैदास जूते गांठने का काम किया करते थे। जिस रास्ते पर रैदास बैठा करते थे वहां से कई ब्राह्मण गंगा स्नान के लिए जाते थे। किसी विशेष पर्व के समय एक पंडित ने रैदास से गंगा स्नान को चलने के लिए कहा तब रैदास जूते गांठते हुए बोले कि पंडि़त जी मेरे पास समय नहीं है। जब पंडि़त पैसे देने लगा तो रैदास बोले कि पंडि़त जी आप मुझे पैसे मत दीजिए पर मेरा एक काम कर दीजिए, फिर अपनी जेब में से चार सुपारी निकालते हुए कहा कि ये सुपारियां मेरी ओर से गंगा मइया को दे देना।

पंडित जी ने स्नान के बाद सोचा कि बड़े-बड़े संतों के लिए गंगा मइया को फुरसत नहीं और ये रैदास कितना घमंड़ी है फिर भी रैदास का सच जानने के पंडि़त जी ने गंगा में सुपारी ड़ालते हुए कहा कि रैदास ने आपके लिए भेजी हैं। जैसे ही पंडितजी वापस आने लगे तभी गंगा मां प्रकट हुईं और पंडित को एक कंगन देते हुए कहा कि यह कंगन मेरी ओर से रैदास को दे देना। हीरे जड़े कंगन को देख कर पंडित के मन में लालच आ गया और उसने कंगन को अपने पास ही रख लिया।

कुछ समय बाद पंडित ने वह कंगन राजा को भेंट में दे दिया। रानी ने जब उस कंगन को देखा तो प्रसन्न होकर दूसरे कंगन की मांग करने लगीं। राजा ने पंडित को बुलाकर दूसरा कंगन लाने को कहा। पंडित घबरा गया क्योंकि उसने रैदास के लिए दिया गया कंगन खुद रख लिया था और उपहार के लालच में राजा को भेंट कर दिया था। वह रैदास के पास पहुंचा। रैदास ने जब पंडित को मुसीबत में देखा तो दया आ गयी। तब रैदास ने अपनी कठौती (पत्थर का बर्तन जिसमें पानी भरा जाता है) में जल भर कर भक्ति के साथ मां गंगा का आवाहन किया। गंगा मइया प्रसन्न होकर कठौती में प्रकट हुईं और रैदास की विनती पर उसे दूसरा कंगन भी भेंट किया। रैदास ने कंगन पंडित को देते हुए राजा को दे आने के लिए कहा। रैदास ने पंडित को समझाया कि भक्ति के लिए स्नान, तीर्थ और पूजापाठ का प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं होती, अगर आपका मन साफ हो तो भगवान आप पर यूं ही प्रसन्न रहता है। आप उसे अपने भीतर ही महसूस कर सकते हैं।

भक्ति ऐसी हो कि भगवान खुद आ जाएं
गांव के बाहर पुरातन भगवान लक्ष्मीनारायण का एक सुंदर मंदिर था। एक ज्ञानी और एक भक्त वहां प्रतिदिन नियमित सेवा-पूजा करते थे।ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार भगवान का सागोपांग पूजन करता तथा भक्त जिसको ज्ञान तो कुछ न था परंतु वह भगवान की मूर्तियों की सेवा बड़ी तन्मयता से करता था। वह मंदिर जाकर बासी फूल उतारकर भगवान को चंदन युक्त जल से स्नान कराकर इत्र लगाता भगवान के अंगों पर इत्र की मालिश करता उनको नवीन पुष्पों की माला पहनाता। एक सेवक की तरह वह उनका ध्यान रखता था।

नियति के अनुसार ज्ञानी और भक्त दोनों के यहां एक साथ एक रात चोरी होने वाली थी और उसी सुबह वह ज्ञानी भगवान के पूजन के लिए गया। तब भगवान ने उसको संकेत दिया कि, आज रात तुम्हारे यहां चोरी होने वाली है। अत: सावधान रहना। ज्ञानी ने कहा, ठीक है। प्रभु मैं अपने ज्ञान के सहारे इस घटना से बच जाऊंगा। भगवान को अपना सहायक मान, प्रसन्न मन से वह घर जाकर चोरी से बचने का मार्ग खोजने लगा। उसके पश्चात् भक्त मंदिर पहुंचा। बड़ी तन्मयता से वह प्रभु लक्ष्मीनारायण की सेवा करने लगा तथा अपना पूजन कर वह घर चला गया। उसके जाते ही माता-लक्ष्मी ने भगवान नारायण से कहा, हे प्रभु यह दोनों ज्ञानी और भक्त आपकी सेवा पूजन करते हैं। आज इन दोनों के यहां चोर चोरी के लिए हमला करने वाले हैं। आपने ज्ञानी को संकेत करके तो बता दिया कि तेरे यहां चोरी का आक्रमण होगा। वह सावधान भी हो गया। परंतु आपने अपने भक्त को चोरी के हमले के बारे में कुछ संकेत नहीं दिया। वह बेचारा अभी भी इस खतरे से अंजान है। माता लक्ष्मी के इस प्रकार पूछने पर भगवान नारायण बोले, हे भगवती यह ज्ञानी और भक्त दोनों मेरी सेवा करते हैं। इनमें से ज्ञानी को तो अपने ज्ञान का भरोसा है। इसलिए मैंने उसे खतरे का संकेत दिया वह अपने ज्ञान से अपनी रक्षा करे। परंतु जो यह मेरा भक्त है इसको तो केवल मेरा सहारा है। यह तो रात्रि में आराम से विश्राम करेगा और मैं रातभर इसके घर के बाहर खड़ा होकर चोरों से इसकी रक्षा करुंगा। इसलिए मैंने उसे बताया नहीं।

जहां दुख हैं वहीं श्रीकृष्ण हैं
अब तक इतिहास में सर्वश्रेष्ठ मानव हैं श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण संपूर्ण कलाओं और विद्याओं के साथ अवतरित हुए एकमात्र भगवान हैं। श्रीकृष्ण के जीवन पर असंख्य ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। हर ग्रंथ में श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के नए-नए पहलु पर प्रकाश डाला गया है। श्रीकृष्ण भगवान थे फिर भी उन्होंने मनुष्य की तरह कई लीलाएं की। जैसे कंस से छुपकर वे गोकुल में रहे, गोकुल के ग्वालों के साथ खेलें, माता यशोदा से डांटा और मार खाई, माखन चुराया, गोपियों के साथ रास किया, वे जन्म से ही सारी विद्याओं और कलाओं के ज्ञाता थे फिर भी महर्षि सांदीपनि से शिक्षा प्राप्त की वो मात्र 64 दिनों में। उन्होंने वे सारी लीलाएं की जो मनुष्य अपने जीवन में करता है। श्रीकृष्ण से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं जो हमें जीवन जीने की कला सिखाती हैं।

जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया और पांडव को राज मिलने के बाद श्रीकृष्ण द्वारका लौट रहे थे तब सभी से श्रीकृष्ण से सुख, शांति और धन आदि की मांग की। श्रीकृष्ण ने सभी की इच्छाओं को से पूर्ण कर सभी तृप्त कर दिया, परंतु कुंती ने अब तक श्रीकृष्ण से कुछ नहीं मांगा था।यह देख श्रीकृष्ण ने कुंती से कहा बुआ आप कुछ नहीं मांगेगी?तब कुंती ने आप मुझे दुख दे दीजिए।

यह सुनकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ कि सभी सुख मांगते हैं आप दुख मांग रही हैं?कुंती ने कहा कि जब-जब हम पर दुख आया आप वहां साक्षात् उपस्थित थे और हमें संकट से मुक्ति दिलाई। परंतु सुख के समय आप नहीं रहते वही बात मुझे विचलित कर देती है। आपके दर्शन तो सिर्फ दुख में ही हो सकते हैं अत: आप मुझे दुख दे दीजिए। इस संवाद से यही शिक्षा मिलती है कि जहां दुख हैं वही ईश्वर हैं, अत: दुख के समय हमें घबराना नहीं चाहिए और प्रभु का स्मरण करते रहने से सारे दुख दूर हो जाते हैं।

श्रद्धा से मिलता है भगवान
एक विधवा अपने इकलौते पुत्र के साथ गांव में रहती थी। बड़े कष्टों से अपने व अपने बच्चे का पालन करती थी। उसने अपने बालक को पढऩे के लिए दूसरे गांव के स्कूल में भेजा था। दोनों गांवों के मध्य एक निर्जन वन पड़ता था। बालक को उस वन से गुजरने में बड़ा भय लगता था। उसने अपनी मां से कहां- मां मैं स्कूल नहीं जाऊंगा। मुझे वन से गुजरने में बड़ा भय लगता है। मां उसकी इस बात से बड़ी परेशान थी। वह खुद भी उसे छोडऩे नहीं जा सकती थी।

एक दिन उसने एक उपाय किया और बेटे से कहा बेटा जब भी तुझे डर लगे तो तेरा बड़ा भाई वन में रहता है। उसे पुकार लेना। पुत्र ने पूछा मां उनका नाम क्या है? मां ने कहां 'गोपाल।' यह सुनकर बेटा स्कूल की ओर चल दिया। रास्ते में फिर वहीं वन आया। लड़का भयभीत तो था ही डर के मारे चिख निकल गई गोपाल भइया बचाओ। उसी समय वहां एक ग्वाला आया और उसने बालक को हाथ पकड़कर स्कूल तक छोड़ दिया, तथा ले भी आया। अब रोजाना यही सिलसिला चलता रहा। मां ने एक दिन पूछा बेटा अब डर तो नहीं लगता। बेटे ने कहा नहीं मां गोपाल भइया बचा लेते हैं। मां ने समझा बच्चा बहल गया है। और अपने काम में लग गई।

एक बार स्कूल में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें सभी बच्चों को एक रुपया और एक लोटा दूध ले जाना था। बालक ने अपनी मां से कहां, मां ने कहा बेटा हम गरीब है। एक रुपया, एक लोटा दूध हम नहीं दे सकते। ऐसा कर तु अपने गोपाल भइया से मांग लेना। बालक ने कहा ठीक है। वह बालक उठकर विद्यालय की ओर चल दिया। रास्ते में उसने अपने गोपाल भइया को बुलाया और कहा आज स्कूल में एक रुपया और दूध ले जाना है।

गोपाल ने कहा रुपया तो मेरे पास नहीं है। दूध ले जाओ यह कहकर गोपाल ने एक लौटा दूध बालक को दे दिया। बालक खुशी-खुशी स्कूल आया। जब उसके लोटे का दूध बड़े बरतन में डाला गया तो वह पूरा भर गया। पर लोटा खाली नहीं हुआ। सब आश्चर्यचकित हो गए। ऐसे ही एक के बाद एक कई बरतन भर गए पर लोटे का दूध समाप्त नहीं हुआ। स्कूल के प्रिंसीपल ने बालक से पूछा यह कहां से लाए हो? वह बालक बोला गोपाल भइयां ने दिया है। किसी को विश्वास नहीं हुआ। सभी उसकी मां के पास गए। मां ने भी कहां मैं किसी गोपाल को नहीं जानती हूं। बच्चे ने कहा अरे मां वो वन में रहने वाले गोपाल भइया ने दिया है। तब सभी वन में गए और बालक ने बहुत आवाज लगाई। पर कोई गोपाल नहीं आया।

सभी ने सोचा यह बालक झूठ बोल रहा है। या कोई जादु-टोना है। बालक की बात कोई सुनने को राजी ना था। सभी उस पर नाराज हो रहे थे तथा उस दूध को अन्य कोई पदार्थ जान रहे थे। सभी बालक को संदेह की नजर से देख रहे थे। तब बालक ने करुण पुकार की हे गोपाल भइया... सुनो आप आओ नहीं तो यह सब मुझे और मेरी मां को मार देंगे। बालक की करुण पुकार सुनकर सभी को एक गंभीर वाणी सुनाई दी- पुत्र मैं तो इन सभी के सामने ही हूं। किंतु इनको दिखाई नहीं देता, क्योंकि इनकी आंखों पर मान, मद, मोह और संदेह का पर्दा पड़ा हुआ है। केवल तु मुझे इसलिए देख पाता है कि तेरा मन पवित्र है। अब इस लोटे का मधुर दुध कभी खाली नहीं होगा। तुम इसी से अपनी आजीविका चलाओ इतना कहकर वाणी मौन हो गई। सभी स्तब्ध रह गए कि यह साक्षात परमेश्वर की कृपा है। सभी एक साथ बोल उठे गोपाल भइया की जय। कथा का सार है कि भगवान को पाना है तो खुद उनके जैसे निर्मल बनों।

परमार्थ हेतु दिया गया दान श्रेष्ठ होता है
जैन धर्म साहित्य में दान के महत्व को दर्शाती एक कथा है। एक अति संपन्न व्यक्ति था, लेकिन जितना पैसा उसके पास था, उतना धैय नहीं था। यदि किसी को वह एक पैसा देता, तो सैकड़ों हजारों के गीत गाता। हर जगह, हर व्यक्ति से अपनी दानशीलता और संपन्नता का गुणगान करना उसका प्रिय कार्य था।

एक दिन उसे ज्ञात हुआ कि शहर में एक बड़े महात्मा आए हैं। उसने सोचा कि इनसे मिलकर इन्हें भी कुछ भेंट करना चाहिए। वह उनके पास पहुंचा। अभिवादन के पश्चात महात्मा ने उससे आने का प्रयोजन पूछा, तो पहले तो उसने अपनी अमीरी का बखान किया, फिर अपनी दानशीलता की प्रशंसा की। महात्मा समझ गए कि यह आदमी कितने पानी में है। स्वप्रंशसा के लंबे आख्यान के बाद उस आदमी ने एक थैली निकालकर महात्मा के सामने रखी और बोला- ''मैंने सोचा कि आपको पैसे की तंगी रहती होगी। इसलिए यह लेता आया हूं। पूरे एक हजार दीनार हैं।'' ऐसा कहते-कहते उस धनिक की आंखों में उसका अभिमान उभर आया। महात्मा ने थैली को एक और हटाते हुए कहा- ''मुझे तुम्हारे पैसे की नहीं बल्कि तुम्हारी जरूरत है अमीर मर्माहत हो गया। आखिर महात्मा की हिम्मत कैसे हुई जो उसकी दी हुई भेंट को ठुकरा दिया? आज तक यह साहस किसी ने नहीं किया।
उसका अभिमान और तीव्र हो गया। महात्मा उसकी यह अवस्था देखकर बोले- ''क्या तुम्हें बुरा लगा?'' धनिक ने कहा- ''बुरा लगने की बात ही है। इतनी बड़ी रकम को आपने ऐसे ठोकर मार दी, जैसे वह मिट्टी हो।'' तब महात्मा बोले- ''सेठ, याद रखो, जिन दान के साथ दाता अपने को नहीं देता, वह दान मिट्टी के बराबर होता है। दान का अर्थ है- सम विभाजन। दूसरे का जो हिस्सा तुमने लिया है उसे लौटाते हो तो इसमें अभिमान का अवसर कहां रहता है? यह तो चोरी का प्रायश्चित है।'' यह सुनकर धनिक का अहंकार चूर-चूर हो गया और उसके जीवन की दिशा बदल गई। वस्तुत: परमार्थ के लिए दिया गया दान ही श्रेष्ठ होता है। यदि परमार्थ में स्वार्थ शामिल हो जाए तो ऐसा दान मात्र स्वप्रशंसा बटोरने का माध्यम बन कर रह जाता है। दाता याचक दोनों को कोई सुख नहीं पहुंचता।

नि:स्वार्थ दान मोक्ष की उपलब्धि कराता है
महाभारत में एक कथा है जो सच्ची दानवीरता की मिसाल है।एक बार कुरु युवराज दुर्योधन के महल के द्वारा एक भिक्षुक आया और दुर्योधन से बोला- ''राजन, मैं अपनी वृद्धावस्था से बहुत परेशान हूं। चारों धाम की यात्रा करने का प्रबल इच्छुक हूं, जो युवावस्था के ऊर्जावान शरीर के बिना संभव नहीं है। इसलिए आप यदि मुझे दान की इच्छा रखते हैं, तो अपना यौवन मुझे दान कर दीजिए।''दुर्योधन ने कहा- ''महाराज, मेरे यौवन पर मेरी पत्नी का अधिकार है। आपकी अनुमति हो तो उससे पूछ आऊं?'' भिक्षुक ने सहमति दे दी।दुर्योधन अंत:पुर में गया और पत्नी को भिक्षुक की इच्छा बताई। उसकी पत्नी ने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया।

दुर्योधन उदास मुख लेकर बाहर लौटा, तो भिक्षुक उसके बगैर बोले ही उसकी पत्नी का नकारात्मक जवाब समझकर चला गया।फिर वह महादानी कर्ण के पास पहुंचा। कर्ण के समक्ष भी उसने वही मांग रखी। कर्ण ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा और अपनी पत्नी से अनुमति मांगने अंत:पुर में गया। यथा भर्ता तथा भार्या कर्ण की पत्नी ने संहर्ष भिक्षुक को यौवन दान कर देने को कहा। कर्ण ने बाहर आकर यौवन दान की घोषणा कर दी। तभी भिक्षुक अदृश्य हो गया और उसके स्थान पर भगवान विष्णु वहां प्रकट हुए जो दरअसल कर्ण व कर्ण पत्नी की परीक्षा लेने आए थे। दोनों ही इस परीक्षा में खरे उतरे। भगवान विष्णु ने गदगद होकर दोनों को मंगल आशीष दिए। वास्तव में दान वही श्रेष्ठ है, जो नि:स्वार्थ भाव से लेने वाले की इच्छा और आवश्यकता के अनुरूप प्रसन्न तथा उदार मन से किया जाए। इस तरह से किया गया दान ही पुण्य का मीठा फल देता है। ऐसे दानी मनुष्य को सांसारिक माया-मोह से मुक्ति मिल जाती है और वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

पुरुषार्थ से मिलती है देव कृपा
एक किसान के चार पुत्र थे। सबसे छोटा ईश्वरवादी था। वह अपनी मेहनत एवं भगवान के कर्मफल के बारे में जानता था। छोटा बेटा किसी कार्य से बाहर गया था। उसी दौरान उसके पिता की मृत्यु हो गई। तीनों बड़े भाइयों ने संपत्ति का आपस में बंटवारा कर लिया। जब छोटा भाई आया तो उसे बताया कि टीले के ऊपर जो पथरीली जमीन है पिता ने वही तेरे लिए छोड़ी है। छोटे पुत्र को अपनी मेहनत और ईश्वर पर भरोसा था। अत: वह अपनी पत्नी सहित वहां के लिए रवाना हो गया। उसकी पत्नी ने कुछ विरोध किया परंतु उसने उसे रोक दिया। दोनों पति-पत्नी ने जी तोड़ मेहनत कर उस पथरीली जमीन को खेती लायक बना लिया। टीले के नीचे से पानी ला-लाकर उसे उपजाऊ बनाया। बीज बोए। फिर वर्षा का इंतजार करने लगे। पति-पत्नी काम-काज के साथ ईश्वर आराधना भी पूर्ण मन से करते थे।

उनकी निष्काम भक्ति देखकर भगवान प्रसन्न हुए। इंद्र को आदेश दिया कि जाओ हमारे इस भक्त पर कृपा रुपी वर्षा करो और इसके जिन भाइयों ने एवं गांव वालों ने इसके साथ अन्याय किया है उन्हें जल से डूबो दो। इंद्र ने भगवान की इच्छा का अक्षरश: पालन किया। जोरदार वर्षा ने पूरे गांव को जल मग्न कर दिया। सभी रक्षा के लिए टीले के ऊपर भागे। ऊपर जाकर सभी ने देखा कि छोट पुत्र और उसकी पत्नी ने वहां का काया कल्प ही कर दिया था। जहां पत्थर ही पत्थर थे, वहां हरियाली लहलहा रही थी। बाढ़ का पानी भी टीले के ऊपर नहीं आ पा रहा था। उन दोनों की ऐसी मेहनत और लगन देखकर तथा ईश्वर की उन पर असीम कृपा देखकर सभी गांव वाले एवं उसके भाई लज्जित हुए और ईश्वर से क्षमा मांगने लगे। छोटे पुत्र और उसकी पत्नी ने भी सभी को आश्रय दिया। उनके लिए जलपान की व्यवस्था की। बड़े भाइयों ने जिस संपत्ति के लालच में अपने छोटे भाई को कष्ट दिया। वह जल मग्न हो चुकी थी। उन्होंने अपने छोटे भाई से क्षमा मांगी तथा उसको पूरा हक देने की बात कही। गांव वालों ने भी क्षमा मांगी। परंतु छोटा भाई बोला आप लोगों को शर्मिंदा होने की आवश्यकता नहीं है। आपने तो अच्छा ही करा जो आप लोग ऐसा नहीं करते तो यहां हमेशा पत्थर ही रहते। अब यह जगह सभी के लिए उपयोगी हो गई है। ऐसे भी भगवान के भक्त होते हैं। जो ईश्वर से कुछ अपेक्षा नहीं करते। वे केवल अपना कर्म करते हैं, और फल देना भगवान की मर्जी पर छोड़ देते हैं। उनको हर कार्य में सार्थकता ही नजर आती है। भगवान भी अपने प्रति किए गए अपराध को क्षमा कर देते हैं। परंतु अपने भक्त के प्रति किए अपराध को वह कतई क्षमा नहीं करते। कहानी का संदेश यही है कि अपने कार्य को पूरी निष्ठा, ईमानदारी से करो जो भी जिम्मेदारी मिले उसे पूर्ण करो तथा फल देना न देना ईश्वर पर छोड़ दे। उसकी दृष्टि सभी पर होती है।

जहां भगवान हैं, स्वर्ग वहीं है
द्वारका में एक बार कृष्ण अस्वस्थ हो गए। वैद्य ने कहा- किसी की चरणरज चाहिए, तभी उपचार होगा। चरणरज लाने की जिम्मेदारी नारद को सौंपी गई। वे रुक्मणि, सत्यभामा सहित ऋषिमुनियों के पास पहुंचे। किसी ने भी रज नहीं दी। डर था कृष्ण को अपनी चरणरज देकर नर्क कौन जाएं। थके हारे नारद कृष्ण के पास लौटे और आप बीती सुनाई। कृष्ण मुस्कुराए और कहा एक बार ब्रज जाकर देख लें, वहां किसी की रज मिल जाए। नारद ब्रज पहुंचे तो कृष्ण के अस्वस्थ होने की सूचना से सभी चिंतित हो गए। राधा और गोपियां बहुत दु:खी थीं। जब पता चला चरणरज से कृष्ण स्वस्थ हो सकते हैं तो सभी अपनी रज देने को उतावली हुईं। नारद ने पूछा- तुम्हें नर्क का डर नहीं है। जवाब मिला- यदि कृष्ण स्वस्थ हुए तो उनके साथ नर्क भी स्वर्ग बन जाएगा। नारद की खुशी और आश्चर्य का ठिकाना न रहा। राधा की चरणरज ली और कृष्ण स्वस्थ हो गए। नारद को भी पता चला भगवान का सुख बड़ा है। यदि भगवान स्वस्थ और सुखी हैं तो नर्क भी स्वर्ग बन जाता है।

सिर्फ भक्ति ही नहीं पहचनना भी जरूरी
किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था नाम था उसका देवधर। देवधर ईश्वर की बहुत भक्ति करता था। दिनभर बस भगवान का नाम ही जपते रहता। इसी वजह से गांव में उसका बहुत मान-सम्मान था। सभी गांववाले उसकी भक्ति की ही बात किया करते थे।

बारिश के दिन थे... बारिश शुरू हुई... इतनी वर्षा हुई कि गांव में बाढ़ आ गई, चारों ओर पानी ही पानी था, सभी के घर के घर पानी में बह गए और सभी जैसे-तैसे अपनी जान बचा रहे थे। देवधर को तैरना नहीं आता था। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और भगवान का नाम जपने लगा। धीरे-धीरे जल स्तर और बढऩे लगा, जब देवधर के पैर तक पानी आ पहुंचा तब उसने भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु अब मेरे प्राणों का संकट आन पड़ा है, आज आपको ही मेरे जीवन की रक्षा करनी है। इसी समय एक अनजान आदमी नाव लेकर उधर से निकला और उसने देवधर को पेड़ पर देखा। उस आदमी ने देवधर बिसे कहा भाई मेरी नाव में आ जाओ मैं तुम्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दूंगा, यहां जल स्तर बढ़ते ही जा रहा है। देवधर उस आदमी से बोला नहीं... मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता, आज मुझे बचाने के लिए स्वयं भगवान को ही आना पड़ेगा। यह सुनकर वह आदमी नाव चलाते हुए वहां से चले गया। देवधर फिर से भगवान का स्मरण करने लगा। थोड़ी देर बार उसके सामने एक गाय आई। गाय उसके सामने रुक गई। देवधर ने सोचा गाय की पूंछ पकड़कर प्राण बचा लू। परंतु उसे अपना प्रण याद आया कि आज तो मेरे प्राण स्वयं भगवान को ही बचाना होंगे। कुछ देर में वह गाय भी वहां से चले गई। अब तक जल स्तर देवधर की कमर से ऊपर तक पहुंच गया था। इतने में कहीं से एक लकड़ी बड़ा लट्ठा तैरते हुए उसके पास आ गया, परंतु देवधर ने उस लकड़ी के लट्ठे की भी मदद नहीं ली और उसे दूर धकेल दिया। कुछ ही देर में जल स्तर और अधिक बढ़ गया, जिससे देवधर पानी में बह गया और उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई।

देवधर के समक्ष बार-बार भगवान ही अलग-अलग रूप में पहुंचे परंतु वह उन्हें पहचान नहीं सका। कोरी भक्ति से भी हमारा कल्याण नहीं हो सकता। अत: भगवान की भक्ति के साथ-साथ उन्हें पहचानना और समझना भी जरूरी है। सभी प्राणी भगवान का ही अंश है यह सोचकर सभी के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए।

जब अर्जुन हो गया अहंकारी
अर्जुन, श्रीकृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे। धीरे-धीरे उनमें यह गर्व का भाव पनपने लगा कि वे ही श्रीकृष्ण के सबसे बड़े भक्त हैं। उन्हें लगता कि जो निष्ठा व समर्पण भाव उनमें है, वैसा किसी और में होना संभव नहीं है। जब श्रीकृष्ण को यह अहसास हुआ कि अर्जुन में अहंकार आ गया है तो उन्होंने उसे निर्मल करने की ठानी।एक दिन वे अर्जुन को लेकर भ्रमण हेतु निकले। चलते-चलते श्रीकृष्ण एक स्थान पर रुक गए। वहां एक ब्राह्मण बैठा सूखी घास खा रहा था। सहसा अर्जुन की दृष्टि ब्राह्मण की कमर में लटकती तलवार पर गई।

अर्जुन ने ब्राह्मण से इसका कारण जानना चाहा। तब उस ब्राह्मण ने कहा- इससे मुझे चार लोगों को समाप्त करना है। सर्वप्रथम उस नारद को, जो जब चाहे गाते-बजाते आए और मेरे भगवान श्रीकृष्ण को जगा दे। दूसरा है प्रह्लाद, उस धूर्त ने मेरे भगवान की मक्खन जैसी कोमल देह को कठोर स्तंभ के भीतर से निकलने पर बाध्य कर दिया। तीसरी वह द्रोपदी है, जिसकी इतनी हिम्मत कि जब मेरे भगवान भोजन करने बैठे, तभी उनको बुलाकर भोजन नहीं करने दिया और चौथा है अर्जुन, जिसका इतना दुस्साहस कि त्रैलोक्य के स्वामी, जगतपालक, मेरे प्रभु को अपना सारथी बना डाला। उसे तो मैं किसी हाल में नहीं छोड़ूंगा। ब्राह्मण के भक्तिभाव की गहराई देख अर्जुन का अहंकार समाप्त हो गया। कथा का मर्म यह है कि अहंकार से योग्यता उस तरह फलदायी नहीं रह पाती जैसी कि निरभिमान स्थिति में होती है। बड़ी से बड़ी उपलब्धि पर भी अहंकाररहित होकर सहज बने रहना ही सच्चे अर्थ में बड़ा बनना होता है ।

किसी भी परिस्थिति में घबराना नहीं
ईरान के सुलतान एक बार किसी कारणवश ईरान के एक कबीले कबूदजामा के सरदार नसीरुद्दीन से नाराज हो गए। उन्होंने अपने एक अन्य सरदार को हुक्म दिया कि जाकर नसीरुद्दीन का सिर काटकर ले आओ।अपने एक रिश्तेदार से नसीरद्दीन को यह समाचार मालूम पड़ा। नसीरुद्दीन को सभी ने भाग जाने की सलाह दी। किंतु वह बोला- अगर मेरी मौत मेरे पास आ रही है, तो यहां से जाने के बाद भी हर जगत मेरा पीछा करेगी। इसलिए भागने से कुछ नहीं होगा। मैं यहीं रहकर इस परिस्थिति का सामना करुंगा।

सुल्तान का भेजा सरदार नसीरुद्दीन के घर जा पहुंचा और सुल्तान का हुक्म सुनाया। नसीरुद्दीन ने हंसते हुए कहा- मेरा सिर हाजिर है लेकिन उसे यहां से काटकर दरबार तक ले जाने में परेशानी होगी। बेहतर होगा कि मैं आपके साथ दरबार तक चलूं, वहां सुल्तान के सामने आप मेरा सिर काट देना। सरदार राजी हो गया। जब दोनों दरबार पहुंचे तो सुल्तान नसीरुद्दीन को जीवित देखकर बहुत नाराज हुआ। हुक्म की तामील न करने के कारण उसने सरदार को भी मौत की सजा सुना दी। तब नसीरुद्दीन ने एक रुबाई पढ़ी, जिसका अर्थ था मैं अपनी बुद्धि के नेत्रों में तेरे द्वार के रजकणों को भरे हुए अकेला नहीं बल्कि सैकड़ों प्रार्थनाओं के साथ आया हूं। तुमने मेरा सिर मांगा था, तो मैं यह सिर दूसरे किसी को क्यों देता। इसीलिए मैं अपना सिर अपनी गर्दन पर डालकर तुम्हारे लिए ला रहा हूं। नसीरुद्दीन का यह निर्भय उत्तर सुनकर सुल्तान खुश हुआ हो गया और दोनों को छोड़ दिया।

कथा संदेश देती है कि विकट परिस्थितियों में घबराने के स्थान पर साहस से काम लिया जाए, तो सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। अत: भय को छोड़े साहस से काम लें।

प्रसन्नता से ईश्वर की प्राप्ति होती है
दो संयासी थे एक वृद्ध और एक युवा। दोनों साथ रहते थे। एक दिन महिनों बाद वे अपने मूल स्थान पर पहुंचे, जो एक साधारण सी झोपड़ी थी। जब दोनों झोपड़ी में पहुंचे। तो देखा कि वह छप्पर भी आंधी और हवा ने उड़ाकर न जाने कहां पटक दिया। यह देख युवा संयासी बड़बड़ाने लगा- अब हम प्रभु पर क्या विश्वास करें? जो लोग सदैव छल-फरेब में लगे रहते हैं, उनके मकान सुरक्षित रहते हैं। एक हम हैं कि रात-दिन प्रभु के नाम की माला जपते हैं और उसने हमारा छप्पर ही उड़ा दिया।

वृद्ध संयासी ने कहा- दुखी क्यों हो रहे हों? छप्पर उड़ जाने पर भी आधी झोपड़ी पर तो छत है ही। भगवान को धन्यवाद दो कि उसने आधी झोपड़ी को ढंक रखा है। आंधी इसे भी नष्ट कर सकती थी किंतु भगवान ने हमारी भक्ति-भाव के कारण ही आधा भाग बचा लिया।

युवा संयासी वृद्ध संयासी की बात नहीं समझ सका। वृद्ध संयासी तो लेटते ही निंद्रामग्न हो गया किंतु युवा संयासी को नींद नहीं आई। सुबह हो गई और वृद्ध संयासी जाग उठा। उसने प्रभु को नमस्कार करते हुए कहा- वाह प्रभु, आज खुले आकाश के नीचे सुखद नींद आई। काश यह छप्पर बहुत पहले ही उड़ गया होता।यह सुनकर युवा संयासी झुंझला कर बोला- एक तो उसने दुख दिया, ऊपर से धन्यवाद। वृद्ध संयासी ने हंसकर कहा- तुम निराश हो गए। इसलिए रातभर दुखी रहे। मैं प्रसन्न ही रहा। इसलिए सुख की नींद सोया।

कथा का संकेत यही है कि निराशा दुखदायी होती है। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहकर ही हम ईश्वर के समीप पहुंच सकते हैं और शांति को उपलब्ध हो सकते हैं। यह काम किसी भी प्रार्थना से अधिक शक्तिशाली है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....