Monday, May 25, 2015

Jeene Ki Rah5 (जीने की राह)

सद्कर्मों के लिए है जीवन
जीवन में बिना कर्म किए हम रह ही नहीं सकते। इसलिए क्रिया मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक साथ रहती है। हममें और पशुओं में फर्क ही यह हो जाता है कि कर्म मनुष्य भी करेगा, लेकिन व्यवस्थित होकर। और यही उसकी पहचान है। कर्म के पीछे जो विचार काम करता है, यह मनुष्य की उपलब्धि है। इस संसार को जिस ढंग से भगवान ने बनाया है, उसमें मनुष्य को सद्कर्म करने के लिए बहुत सारे अवसर दिए हैं। अगर अवसर नहीं दिए होते तो मनुष्य भी आरोप लगा सकता है कि हम क्या करें? शास्त्रों में तो लिखा है कि परमात्मा इतना पूर्ण है कि तुम पूर्ण में से पूर्ण निकाल सकते हो, तब भी पूर्ण बचा रह जाएगा और उस पूर्ण में कुछ डाल दें तब भी पूर्ण बना रहेगा। इसलिए ईश्वर कम्प्लीट है। आप उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकते। मनुष्य जन्म का सबसे बड़ा उपयोग ही यह होगा कि परमात्मा ने जो हमें करने के लिए मौका दिया है, उसमें अच्छे काम जरूर करते चलें।

जो गलत है, उसे मिटाइए। जिनको जरूरी चीजों का अभाव है, उनकी मदद कीजिए। इसके लिए साहस की जरूरत पड़ती है। जब आप कोई साहसी काम करेंगे तो हो सकता है लोग आलोचना करें। ऐसे में या तो मन मारकर बैठ जाइए या फिर हट जाइए। दोनों ही गलत हैं। अगर भगवान ने अच्छे काम के मौके दिए हैं, तो वह मदद भी करेगा। इसलिए कुछ ऐसे काम हाथ में जरूर लीजिए जिससे अपने मनुष्य होने पर गर्व हो। जितने महापुरुष हुए हैं, उनकी जीवनी में एक बात देखने को मिलती है कि उन्होंने अपनी प्रसिद्धि के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कुछ अच्छे काम हाथ में लिए। भगवान बहुत खुश होंगे कि जिसे मैंने इस पृथ्वी पर भेजा था उसने वह काम कर दिया जो मेरी पसंद का था। इसलिए सेवा कीजिए, सेवा के अवसरों को जीवन से जोड़िए।

सहज व्यवहार से कम क्रोध
अलग-अलग लोगों से बातचीत करते समय विषय की प्रस्तुति भले ही बदल जाए, लेकिन मुखौटा न ओढ़िए। हमें पता भी नहीं चलता और हम अपने चेहरे पर मुखौटा ओढ़ना शुरू कर देते हैं। मित्रों से बात करेंगे तब हमारे चेहरे के भाव कुछ और होंगे। बॉस या अधीनस्थ से बात करेंगे तब हमारे मुखौटे का ढंग बदला हुआ होता है। पत्नी से, पति से या बच्चों से चर्चारत होने पर हम लोगों की आदत सी हो गई है मुखौटा ओढ़कर बात करने की। जहां गंभीर नहीं होना है, वहां गंभीर हो जाते हैं। जहां मुस्कुराने की इच्छा नहीं है, वहां हंसने लगते हैं और धीरे-धीरे यह आदत बन जाती है। 

हमारे भीतर कुछ बीमारियां ऐसी हैं जो हमें मुखौटा ओढ़ा ही देती हैं। हम बहुत कुछ छिपाने लगते हैं। जिन बातों को प्रकट करना है, उन्हें बाहर नहीं आने देते और जिन्हें बाहर आना चाहिए, उन्हें रोकने लगते हैं। भावनाओं को सही समय पर प्रकट नहीं किया जाए या अकारण रोक लिया जाए या जहां नहीं प्रकट करना है, वहां बाहर फेंक दिया जाए तो वह बीमारी बन जाती है और उस बीमारी का नाम है क्रोध। क्रोध प्रकट तो बाहर होता है और जहर भीतर फैलाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन क्षणों में हम क्रोध में डूबे हुए होते हैं, वे क्षण हमारे व्यक्तित्व में पागलपन के होते हैं। क्रोध हमें पागल बना देता है। उस समय हम भूल जाते हैं कि हम कौन हैं। इसलिए मुखौटा न ओढ़ें। इसका मतलब सहज और सरल रहें। ढोंग व्यवहार और रिश्तों में न निभाएं। आप सहज और सरल होंगे तो भावनाएं ठीक ढंग से व्यक्त होंगी। इससे क्रोध के अवसर कम हो जाएंगे और जैसे ही क्रोध के अवसर कम हुए आपका पागलपन चला जाएगा। सहज होने के लिए भावनाओं का उपयोग सही ढंग से करना होगा।

बदलाव से डरें नहीं, लाभ उठाएं
प्रकृति एक तयशुदा गति से परिवर्तन करती है। मनुष्य जब प्रकृति से जुड़ता है तो वह पहला काम करता है लाभ के लिए अपने तरीकों से प्रकृति की गति को कम करना, बढ़ाना या रोकना। जब प्रकृति असंतुलित होती है तो इसका दुष्परिणाम सबसे ज्यादा मनुष्य ही उठाता है। हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हैं, क्योंकि हमें सिखाया गया है तेजी से परिवर्तन करो और प्रकृति का स्वभाव है अपनी गति से चलने दो। बोया गया बीज अपने समय पर ही उगता है, लेकिन मनुष्य तुरंत उसे बड़ा पेड़ बनाना चाहता है। यह शीघ्रता हमें तनावग्रस्त कर देती है। इन दिनों हमारे देश में परिवर्तन शब्द को लेकर उत्साह और भय दोनों है। एक वर्ग कह रहा है देखना देश ऐसा बदलेगा कि पूरी दुनिया देखेगी। दूसरा वर्ग कहता है कुछ नहीं होने वाला, हालात और भी बदतर हो जाएंगे। चलिए इस विषय को अध्यात्म की दृष्टि से देखते हैं।

सामान्य आदमी की तरह सोचें तो यह परिवर्तन हमें भय से जोड़ रहा है। मुझे बड़े-बड़े व्यवसायी यह बताते हैं कि पूंजी केे मामले में एक डर बैठ गया है। यदि सक्षम लोग भी भयभीत हैं तो सामान्य का क्या होगा। सीधा सा इलाज है, अपने भीतर की आध्यात्मिकता को जाग्रत कीजिए। परिवर्तन को भय से मुक्त करिए। चौबीस घंटे में पांच मिनट तीन काम करें और यह आपको अकेले ही करना है। पहला शरीर को ढीला छोड़ दें और बैठ जाएं। ऐसे ढीला छोड़िए जैसे बर्फ की शिला पिघलती है। कल्पना करिए कि हमारा मस्तक ऊपर से पिघलकर नीचे बह रहा है। दूसरा आंख बंद कर अपने ही भीतर मन को देखिए। यहां से आप शांत होने लगेंगे। तीसरा अपनी भीतर-बाहर आती-जाती सांस को गहरा लीजिए और महसूस कीजिए। ये तीन काम करिए, दुनिया में हो रहे बदलाव से भयमुक्त रहेंगे। परिवर्तन का लाभ उठाना है, उससे डरना नहीं है।

सत्कर्म से मिलती है लोकप्रियता
इस दौर में प्रसिद्धि पाना नशे की तरह हो गया है। पहले कुछ लोग थे जो परदे के पीछे होते थे और बाहर दृश्य का संचालन करते थे, लेकिन आज सभी मंच पर आना चाहते हैं। परदे के पीछे रहने को कोई तैयार नहीं है। ज्यादातर लोगों की आकांक्षा है कि कम करें, अधिक दिख जाए। बहुत ज्यादा लोग हमें जानने लगें। लोकप्रियता बीमारी बन गई है। आज इसी पर विचार करें कि लोकप्रियता क्यों जरूरी है? लोकप्रियता दो तरह की होती है। पहली आप कोशिश करके हासिल करते हैं और दूसरी आप कर्म कर रहे होते हैं और अपने आप मिल जाती है। क्योंकि दुनिया के सबसे लोकप्रिय देवताओं में हनुमानजी का क्रम काफी ऊपर है। कितनी लोकप्रियता उन्होंने अर्जित की और कितनी उन्हें परमात्मा से मिली, यह हमारे लिए समझने का विषय है। हमें यह सीखना चाहिए कि अच्छे और भले काम में परमात्मा की उपस्थिति बनाए रखें। लोकप्रियता, प्रसिद्धि आपके आसपास अपने आप मंडराएगी। लंका जाने के पहले दुनिया हनुमानजी को सुग्रीव के सचिव के रूप में जानती थी। लेकिन जैसे ही वे श्रीराम से मिले, उन्हें लंका भेजा गया, लौटकर आए और एक रात में अद्‌भुत लोकदेवता बन गए। हनुमानजी जानते थे कि मुझे एक सद्कार्य करना है लंका जाकर। पूरे कर्म में उन्होंने अपने साथ भगवान को रखा था। परमात्मा की उपस्थिति हमसे ऐसे काम करवा लेती है जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। विश्वविजेता रावण की लंका जलाने के बाद हनुमानजी की लोकप्रियता अचानक बढ़ गई। यही सूत्र हम भी उठा लें। खूब काम कीजिए, अच्छा काम कीजिए, परमात्मा से जुड़े रहिए। हमारा लक्ष्य सत्कर्म होना चाहिए। लोकप्रियता बाय प्रोडक्ट बनकर अपने आप आएगी।

आदत से न जिएं निजी जीवन
अगर आपकी मेलजोल में रुचि है। मित्रों की बड़ी सूची आपके पास है। आप इस बात के लिए लोकप्रिय हैं कि संबंध बहुत अच्छे से निभाते हैं तो एक बात को लेकर सावधान हो जाइए। देखा जाता है कि मित्रों के लिए समर्पित ऐसे लोग जीवनसाथी के प्रति उदासीन या अनुचित व्यवहार करने लगते हैं। वे इसे स्वीकार भी नहीं करते, क्योंकि वे मानते हैं कि जैसे समर्पित और सक्रिय वे मित्रों के लिए हैं, ऐसे ही जीवनसाथी के प्रति भी हैं और यहीं भूल हो जाती है।

आप स्त्री हों या पुरुष, अपने जीवनसाथी के प्रति व्यवहार के मामले में फर्क रखना ही होगा। मित्रों से मतभेद होने पर, असहमत होने पर उनकी हेंडलिंग बिल्कुल अलग किस्म की होती है। जीवनसाथी के साथ पहला महत्वपूर्ण बिंदू यह होता है कि उसका जेंडर भिन्न रहता है, इसलिए जब आप जीवनसाथी को मित्र भी बनाते हैं तो मित्रों जैसा व्यवहार नहीं कर सकते, क्योंकि जीवनसाथी के साथ हमारा संबंध पूर्ण वयस्क बनने के बाद बना है।

दोनों के बीच कोई समस्या आ जाए तो उसकी गोपनीयता बड़ी महत्वपूर्ण है। आपके बीच की घटनाएं आप दूसरों को हू-ब-हू नहीं बता सकते। अध्यात्म कहता है जब जीवन में निजता का मामला हो, तब स्वभाव में जिएं, आदत से जिंदगी न बिताएं। सांसारिक मित्रता आदत का मामला है और आदत से जीवनसाथी के साथ जिंदगी नहीं गुजारी जा सकती। यदि ऐसा करते हैं तो आप कलह की तैयारी कर लेंगे।

हम अपने घरों में भी आदत से तैयार किए गए हैं। आदत से हम शाकाहारी हैं। आदत से सुबह जल्दी उठते हैं या देर से और आदत से ही शादी कर लेते हैं, जबकि यह नितांत स्वभाव का मामला है। जिस दिन अपने जीवनसाथी के साथ स्वभाव में जीने लगेंगे आपको वैकुण्ठ कहीं ओर नहीं ढूंढ़ना पड़ेगा।

भीतरी फालोअप देता है शांति
आधुनिक प्रबंधन में फालोअप का महत्व बढ़ता जा रहा है। लक्ष्य और ऊंचे होते जा रहे हैं। आदमी की इच्छाओं का गजब का विस्तार हुआ। इस फैलाव के बीच में यदि कुछ नहीं फैला है तो वह है चौबीस घंटे। इसी चौबीस घंटे में हमें ज्यादा से ज्यादा काम निपटाकर अधिक से अधिक लक्ष्य प्राप्त करना है, इसलिए फॉलोअप महत्वपूर्ण है। देशी भाषा में कहें तो पीछे पड़ जाना। इसकी जब अति हो जाती है, तब दोनों पक्ष दुखी हो जाते हैं। आपको फॉलोअप करना हो या कोई अापका फॉलोअप कर रहा हों, ऐसे में तनाव-चिड़चिड़ेपन से बचना चाहें तो इसे अपने ऊपर लागू कर दें। फॉलोअप का आध्यात्मिक ढंग यह है कि खुद के भीतर जाकर अपने उस स्वरूप को पकड़ना, जिसे दूसरे नहीं जानते। वह दुश्मन वृत्ति का, गलत इंसान है जो हम ही हैं और जिसे हम ही पकड़ सकते हैं।

यह छुपा होता है मन की गुफाओं में। वहां से इसे निकालना और पकड़ना कठिन काम है। इसको तपस्या, साधना, जप-तप, ध्यान कहा गया है। जब आप खुद का फॉलोअप कर रहे होते हैं तो इनमें से कोई एक विधि आपको अपनानी पड़ेगी। भीतर का लक्ष्य परमात्मा हैं और बाहर का लक्ष्य संसार। यदि भीतर का लक्ष्य नहीं पाया और केवल बाहर का पा लिया तो सफलता के साथ तनाव जरूर आएगा, लेकिन यदि दोनों ही पा लिए तो फिर तनाव-अशांति को दूर होना ही होगा। हम भीतर खुद का फॉलोअप करें, हमारे भीतर जो भी व्यर्थ पड़ा है उसको हटाएं। चूंकि परमात्मा वहीं होता है, तो वह हमें आसानी से मिल जाएगा। परमात्मा की एक शक्ल का नाम आत्मविश्वास है, प्रसन्नचित्त परिश्रम है। और इस भीतरी फॉलोअप के साथ अब बाहरी फॉलोअप करें। काम का काम होता रहेगा, मस्ती की मस्ती बनी रहेगी।

सुमिरन के जरिये ईश्वर से जुड़ें
कभी इस पर ध्यान दीजिएगा कि खाली वक्त में हम क्या सोच रहे होते हैं। हमारे चिंतन में कौन लोग रहते हैं। काम करते समय भी दिमाग में कुछ और चल रहा होता है। गाड़ी चलाते वक्त अनेक इंसान दिमाग में से गुजर रहे होते हैं। आप पाएंगे कि शायद ही कोई ऐसा वक्त होता होगा, जिसमें सिर्फ हम अपने बारे में सोचते हैं, खुद से ही जुड़ते हैं। जैसे ही हम खुद से बात करने के लिए भीतर उतरते हैं, हमारे साथ कई लोग आ जाते हैं। बाहर से अकेले होने का मतलब है केवल हमारा शरीर और आस-पास कोई न रहे, जबकि भीतर से अकेले होने का मतलब है हम अपनी आत्मा के पास बैठकर उसे जानने का प्रयास करें, लेकिन ऐसा कर नहीं पाते। फकीरों ने एक क्रिया बताई है- सुमिरन। हम न चाहते हुए भी दूसरों के बारे में सोचते हैं।

कुल-मिलाकर सोचना हमारी मजबूरी हो जाती है। सुमिरन का अर्थ है दो सिरे की डोरी। इसे आत्म-स्मरण भी कहा गया। दो सिरे की डोरी इसलिए कि इसके एक भाग पर हम स्वयं को लपेट लें और दूसरे सिरे पर परमात्मा को बांध लें। है मुश्किल काम, लेकिन करिएगा जरूर। बिना बंधे हम रह नहीं सकते। बाहर की स्थितियों और व्यक्तियों से हम बंधते ही रहते हैं। यह एक लत की तरह है, लग गई तो लग गई। नशा है, चढ़ गया तो चढ़ गया और इसीलिए खुद के साथ भगवान को बांध लें। अब एक तरफ परमात्मा हैं व दूसरी तरफ हम और हमारा शेष संसार। डोरी का एक सिरा दूसरे को जरूर प्रभावित करेगा। परमात्मा की उपस्थिति धीरे-धीरे हमें संसार से काटेगी और यहीं हम अपने आप से जुड़ेंगे, लोगों और परिस्थितियों के बिना। संसार से कटने का मतलब यह नहीं है कि संसार को छोड़ देना। जब चाहा जुड़े, जब चाहा कटे इसे कहेंगे सुमिरन।

ईश्वर से कीजिए गुरु की मांग
हम कितने ही हुनरमंद हों, सक्षम हों, लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी आ जाती हैं जो हमारी सीमा के पार रहती हैं। हम उनसे जूझ नहीं पाते तथा थकान और निराशा घेर लेती है। जैसे आप बहुत बड़े डॉक्टर, नौकरशाह या व्यवसायी हैं। खूब दक्ष हैं अपने काम में। बहुत प्रतिष्ठा है आपकी। आपको देखकर लोग कहते हैं ये चाहें जो कर सकते हैं, सफलता इनकी दास, अवसर इनके गुलाम हैं। धन हाथ का मैल है। किंतु आपके जीवन में कुछ अवसर ऐसे आते हैं, जब आपको लगता है कि हम कमजोर पड़ रहे हैं, किसी परमशक्ति की जरूरत है। खासतौर पर निजी जीवन में ऐसा हो जाता है। 

ऐसे में आप किसी को बता भी नहीं सकते, क्योंकि आप जी रहे होते हैं छवि में। ऐसी छवि जो जितनी आपने बनाई है उससे ज्यादा दूसरों ने आपके बारे में बना दी है। दो ही शक्तियां ऐसी हैं जो हमारी मदद करेंगी। परमात्मा की मदद लें, जिन्हें पाना आसान नहीं है। वरना परमात्मा ने हमें गुरु नामक सुलभ व्यवस्था दी है। जीवन में कोई गुरु अवश्य ढूंढ़ लें। यहां एक और समस्या आ सकती है कि यदि आप गुरु के सामने भिखारी की तरह गए तो हो सकता है सामने भी आपको भिखारी मिल जाए। और दो भिखारी जब आमने-सामने होंगे तो कोई क्या किसको देगा। इसलिए आप श्रद्धा बलवती करिए और परमात्मा से मांगिए कि जीवन में कोई गुरु भेज दे। हम ढूंढ़ेंगे तो चूक जरूर करेंगे। वह भेजेगा तो श्रेष्ठ ही होगा। तब गुरु हमारे लिए केवल मार्गदर्शक नहीं, अभिभावक भी बन जाएगा। उसकी रुचि न सिर्फ हमारी परेशानी से छुटकारा दिलाने में होगी, बल्कि हमें इस लायक बनाने में भी होगी कि जब कभी ऐसी स्थिति आए तो हम गुरु की अनुपस्थिति में भी सक्षम होकर निपट लेंगे, क्योंकि वह हमारे पास गुरुमंत्र छोड़ देता है।

परिवार से चर्चा में आत्मीयता हो
घर-परिवार में आपसी व्यवहार में वाणी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। बोलचाल के ढंग ने कई घरों को जोड़कर रखा और अनेक को तोड़ दिया। रिश्ते निभाने में शब्द अमृत भी बन सकते हैं और जहर भी। घर में बोले गए शब्द का बौद्धिक महत्व उतना नहीं है, जितना आत्मिक है। शब्दों में अक्ल भले ही न लगाएं, पर भावनाएं जरूर उड़ेलें, क्योंकि जब आप परिजनों से बात कर रहे होते हैं तो शब्दों के पीछे के अर्थ केवल शाब्दिक नहीं होते, उसमें अनुभूति भी होती है। आप हृदय से बोलें और सामने वाला हृदय से ही सुने। औपचारिकताओं का पुट कम से कम रखें। हमेशा सजग रहें कि हमारे शब्दों से दूसरा आनंदमय हो रहा है या नहीं। गपशप जरूर करें पर बकवास बिल्कुल न करें। यदि आप श्रोता हैं तो सामने वाले को महसूस होना चाहिए कि आप जागृत हैं। अनेक लोगों को श्रवण के अभिनय की शिकायत होती है।

अगर सुनने वाले से पूछें तो वह कहेगा बोलने वाला भी नाटक कर रहा है। केवल अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए शब्द फेंके जा रहे हैं। सुनने और बोलने के बीच में एक क्रिया और काम कर रही होती है, वह है खामोशी। कई बार आपको मौन धारण करना पड़ेगा, लेकिन ध्यान रखिए घरों में खामोशी भी खतरा बन सकती है। अत: हर खामोशी के पीछे बातचीत को पेंडिंग रखिए। अभी नहीं बोलेंगे या सुनेंगे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि खामोशी के साथ रिश्ते को पैक कर दिया है। केवल आगे बढ़ाया गया है। तनाव या विपरीत का समय गुजर जाए, फिर बातचीत शुरू हो जाएगी। घर-परिवार में बातचीत किसी भी हाल में बंद न करें, क्योंकि यही एक माध्यम है जो गलतफहमी बढ़ा भी सकता है और मिटा भी सकता है। गलतफहमी गृहस्थी के लिए धीमा जहर है।

धन कमाएं पर सेवाभाव भी हो
इन दिनों जिन शब्दों के अर्थ को लेकर खूब भ्रम फैला हुआ है उनमें से एक शब्द है सेवा। जैसा भ्रम प्रेम को लेकर है, ऐसा ही सेवा के साथ हुआ है। सेवा में यदि त्याग न हो, तो वह सौदा बन जाती है और सौदा हानि-लाभ पहले देखता है। आज जिन लोगों को सेवा करते हुए देखा जाता है वे ज्यादातर सौदा ही कर रहे हैं। समाजसेवा के क्षेत्र में अहंकार काम कर रहा है। राजनीति में निजहित की कामना समा गई है। घर-परिवार की सेवा में मजबूरी की गंध आ रही है। सेवा को सही समझना हो, तो भक्ति के माध्यम से समझा जा सकता है। शास्त्रों में भक्ति के नौ प्रकार बताए गए हैं। उन सभी में सेवा की प्रधानता है। जिन्हें सेवा करना हो उन्हें भक्त पहले होना चाहिए। 

पिछले दिनों एक बहुत बड़े समाजसेवक मुझे मिले थे। वे चिंता व्यक्त कर रहे थे कि नई पीढ़ी सेवा के क्षेत्र से गायब हो गई है। कोई सेवा नहीं करना चाहता। सब स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। पहले परिवार बड़े हुआ करते थे, तो घर के एक-दो सदस्यों को सेवा के लिए स्पेअर कर दिया जाता था। अब परिवार छोटे हो गए। सबको अपना-अपना कमाना है। सेवा के लिए जिस त्याग और दानवृत्ति की जरूरत थी वह मूलरूप से ही गायब है। जब त्याग और दान का भाव चला जाता है तो लोग अहंकार की भाषा बोलने लगते हैं। अहंकार की आदत होती है सिर्फ मैं बोलूंगा, बाकी सब श्रोता रहें। मैं बोलूंगा और सबको करना है और इसीलिए सेवा गायब हो जाती है। सेवा का मतलब है विनम्र होकर सामने वाले व्यक्ति या परिस्थिति के अनुसार काम करना है। हर हाल में ही सर्वहितकारी दृष्टिकोण। नई पीढ़ी का पहला लक्ष्य है धन कमाना जो होना भी चाहिए, लेकिन इसमें से जब सेवाभाव चला जाएगा, तो धन का भी दुरूपयोग होने लगेगा।

वैराग्य का सही अर्थ जानिए
वैराग्य शब्द भी बड़ा अनूठा है। भारतीय संस्कृति में जिन शब्दों की व्याख्या में लोग खूब भ्रम में पड़े हैं, उनमें से एक है वैराग्य। इसकी लोगों ने अपनी-अपनी व्याख्याएं कर रखी हैं। किसी ने कहा संपूर्ण त्याग का मतलब वैराग्य है। कोई कहता है अतिरिक्त संतोष वैराग्य है। किसी का मानना है अपना काम जितने में चल जाए, और अधिक की आकांक्षा न रहे, इसका नाम वैराग्य है। भजन-पूजन के क्षेत्र में तो इस शब्द को खूब उछाला जाता है। सुग्रीव भी ऐसा ही कर रहे थे। बात चल रही है किष्किंधा कांड की। सुग्रीव श्रीराम के सामने बालि का नाम लेकर वैराग्य की नई व्याख्या कर रहे थे। बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।। हे श्रीरामजी, बालि तो मेरा परम हितकारी है जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे मिले। अब प्रभु कृपा करहु एहि भांती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।।सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहंसि रामु धुनपाती।। हे प्रभु, अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूं। सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर हाथ में धनुष धारण करने वाले श्रीरामजी मुस्कुराकर बोले। यहां उनका हंसना बड़ा महत्वपूर्ण है। श्रीराम जैसे व्यक्ति किसी पर व्यंग्य नहीं करते, लेकिन जैसे बच्चे की नादानी पर माता-पिता को हंसी आ जाती है, ऐसे ही सुग्रीव के वैराग्य दर्शन को सुनकर श्रीराम मुस्कुरा दिए, क्योंकि यह क्षणिक वैराग्य था। इसको लोक भाषा में श्मशान वैराग्य भी कहते हैं। बहुत सारे लोगों को ऐसा ही घटता है। अपनी सुविधा से चीजों को छोड़ा तो वैराग्य नाम दे दिया। अपनी इच्छा से चीजों को प्राप्त कर लिया तो भी वैराग्य नाम दे दिया। आगे की पंक्तियों में श्रीराम वैराग्य की बड़ी सुंदर व्याख्या करेंगे, जो हमारे लिए बहुत काम की होंगी।

योग से मृत्यु भी आनंददायी
जन्म और मृत्यु किसी और के हाथ में है। आप चाहे इसे ईश्वर कह लें, माता-पिता या प्रकृति की घटना, लेकिन हमारे वश से बाहर है। हमारे हाथ में अगर कुछ है तो वह है जीवन। लेकिन अब तो जीवन पर भी अधिकार नहीं रह गया है। हम स्थितियों और व्यक्तियों से इतना बंध गए हैं कि बहुत कम लोग ही खुद की इच्छा से जीवन जी पाते हैं। कर्तव्य कहें या मजबूरी, जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरों के लिए गुजर जाता है और एक दिन मृत्यु द्वार पर आ जाती है। मृत्यु पर हमारा वश नहीं चलता। तो क्या ऐसे ही समय बीत जाएगा। चलिए, एक प्रयोग किया जा सकता है। हम अपनी मृत्यु पर पूरा नियंत्रण रख सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है मरते समय हम पूरी तरह होश में रहेंगे। इस समय कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा। हम और हमारी मृत्यु, जब इन दोनों के बीच कोई नहीं रहेगा, तब प्रवेश होता है परमात्मा का और परमात्मा के आते ही मृत्यु पर हमारा पूरा अधिकार हो जाएगा। इसे इच्छामृत्यु कहेंगे।

इच्छामृत्यु की कानूनी परिभाषा अलग है और आध्यात्मिक परिभाषा अलग। कानून इसे अपराध ठहराएगा, लेकिन अध्यात्म कहता है जिस दिन मृत्यु आए उस दिन मृत्यु से ज्यादा आपकी इच्छा काम करे। हम जिस तरह शरीर के कष्ट उठाते हैं, सुख भोगते हैं, हम भूल जाते हैं कि हमारे पास शरीर से हट कर उससे भी ऊंची स्थिति आत्मा है। जैसे ही हम आत्मा के निकट जाते हैं, हमारे लिए मृत्यु के अर्थ बदलने लग जाएंगे, क्योंकि मृत्यु का अधिकार शरीर पर है, आत्मा स्वतंत्र है। बात गहरी है, लेकिन समझ में आ जाए तो इच्छामृत्यु के अर्थ बदल जाएंगे। इसके लिए उम्र का कोई-सा भी दौर हो ध्यान जरूर करिए। मेडिटेशन करने वालों को मृत्यु किसी भी उम्र में आए, आनंद में कोई फर्क नहीं रहेगा।

शुरुआत विज्ञान के आधार पर करें
अप्राप्त को प्राप्त करने की तीव्र आशा हर मनुष्य की कमजोरी है। सभी को सब नहीं मिलता। जब हम पूरी ताकत लगाते हैं कि हमें कुछ मिल जाए और यदि नहीं मिलता है तब इस स्थिति को लोग अलग-अलग ढंग से लेते हैं। कुछ भाग्य से जोड़कर बैठ जाते हैं, कुछ अपनी कमजोरी मान लेते हैं और कुछ बहुत ज्यादा निराश हो जाते हैं। फिर शुरू होता है ईर्ष्या का काम। हमें मिला नहीं और जिनके पास है उसे देखकर हमारा मन मचलने लगता है। अनियंत्रित और मचलता हुआ मन दो काम करवाता है। ईर्ष्या हमें डुबोती है और गलत रास्ते पर ले जाती है। मन की रुचि तुलना में होती ही है। वह तर्क करता है। कई बार आज के दौर के लोगों को मन, हृदय और मस्तिष्क का फर्क समझ में नहीं आता। मन वैज्ञानिक की तरह है, हृदय ऋषि की तरह है और मस्तिष्क इन दोनों से संचालित होकर सामान्य मनुष्य की तरह काम करता है।

विज्ञान का आरंभ भी संदेह से होता है। विज्ञान चीजों को तोड़कर देखता है। जब तक उसे प्रमाण नहीं मिल जाए, तब तक गहराई में उतरता जाता है। मन यही करता है। हृदय ऋषि की तरह होता है। वह वैज्ञानिक की तरह संदेह से शुरुआत नहीं करता। ऋषि श्रद्धा और विश्वास से अपना काम आरंभ करते हैं। इसलिए मिले तो संतोष, न मिले तो संतोष, यह ऋषि की प्रणाली है। इसमें ईर्ष्या का भाव नहीं है। यह पूरी तरह विश्वास पर टिका है और वहां शुरुआत संदेह से होती है। इसलिए जब हम दुनिया में कोई चीज प्राप्त करना चाहें तो शुरुआत बेशक विज्ञान के आधार पर करें, लेकिन न मिलने पर या मिल जाने पर फिर ऋषि प्रणाली अपनाई जाए। भरोसा रखिए, नहीं मिला है तो विचलित न हों। और मिल जाए तो अहंकार में न डूब जाएं। हृदय पूरी तरह प्रेमपूर्ण होता है, वह भरोसे में जीता है।

अहंकार में न बदले आत्मविश्वास
खुद पर भरोसा अच्छी बात है। जब तक यह आत्मविश्वास का मामला होगा हितकारी रहेगा, लेकिन आत्मविश्वास को अहंकार में बदलने में देर नहीं लगती। जिन्हें अपने अलावा भगवान पर भरोसा है वे आस्तिक हैं और जिन्हें अपने ऊपर जरूरत से ज्यादा भरोसा है, वे नास्तिक कहलाते हैं। किंतु संभव है कि ये नैतिक हो और आस्तिक अनैतिक, इसलिए हम अहंकार को आधार बनाकर बात कर रहे हैं। अपने ऊपर ज्यादा भरोसा करने से अहंकार आएगा ही। नास्तिक कहते हैं परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता। ऐसे लोग प्रकृति में चार तत्व की कल्पना करते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। इनका मानना है कि इन चार तत्वों से हम जो चाहें वसूल कर सकते हैं। आस्तिक जब सफलता की यात्रा पर निकलते हैं, तो कहते हैं, हमें भी इन चार तत्वों के सहारे सफल होना है, लेकिन वे पांचवां तत्व और जोड़ देते हैं।

उसका नाम है आकाश। इन लोगों ने एक क्रम निर्धारित किया है। सबसे पहले परमात्मा, फिर आकाश, आकाश से वायु, फिर वायु से अग्नि, फिर अग्नि से जल, फिर जल से पृथ्वी। और इसका संचालन कर रहा है ईश्वर। यह पांचों उसी की झलक हैं। सच्चा आस्तिक कहता है, ‘मैं माध्यम हूं, करवाने तथा देने वाला कोई और है।तब आत्मविश्वास कर्म के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकता है, लेकिन अहंकार का कारण नहीं बनेगा। नास्तिकों के साथ खतरा यह है कि आत्मविश्वास उनके पास भी वही है। प्रकृति का यह लोग भी वैसा ही उपयोग कर रहे हैं, लेकिन इन्हें अहंकार आएगा ही और अहंकार धीरे-धीरे अशांति में बदलता है, इसलिए नास्तिक जल्दी अशांत होंगे। यदि आस्तिक अशांत हो रहे हैं तो उन्हें अपनी आस्तिकता की शुद्धता की परीक्षा कर लेना चाहिए।

बाहर-भीतर जोड़ती हैं आंखें
किसी को दिल की गहराई से महसूस करना हो तो उसके लिए आंखें बड़ी मदद करती हैं। मनुष्य शरीर की इंद्रियों में आंखें मुकुट की तरह हैं। परमात्मा ने आंसू निकलने के लिए ही आंखों का उपयोग किया, जो सुख और दुख दोनों में निकल आते हैं। भगवान के सामने यदि आप खड़े हों और परेशान हों तो आंसू निकल आते हैं। धन्यवाद देने गए हों तब भी अश्रु प्रवाहित होने लगते हैं। हृदय अपनी अभिव्यक्ति इन्हीं के माध्यम से करता है, इसीलिए आंखों का बहुत अच्छा उपयोग करना सीखिए। आनंद के क्षणों में जब हम नेत्र बंद कर लेते हैं तो इसका मतलब है अपने से जुड़ने का प्रयास करते हैं। किसी भी मनुष्य में और किसी अंग में दोष आ जाए या कमी रह जाए तो हमें उतनी दया नहीं आती, लेकिन जब हम किसी नेत्रहीन को देखते हैं तो लगता है इसके लिए दुनिया है ही नहीं।

सिर्फ इस इंद्रिय में संभावना है कि वह बाहर और भीतर दोनों तरफ से मदद करती है। जब आप बाहर देख रहे होते हैं तो यह सिर्फ आंख है और भीतर उतरते ही चक्षु बन जाती है। बाहर यह दृश्यों से जुड़ती और भीतर चेतना से संबंध बना लेती है। अध्यात्म में आंख को लेकर एक सुंदर शब्द कहा गया है और वह है दृष्टा। श्री हनुमान चालीसा में एक चौपाई आई है - जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। पढ़ा आंख से ही जा सकता है। बोला या सुना नहीं लिखा है। परमात्मा का सबसे सुंदर स्वाद देखने में ही है यानी दृष्टा होने में। मनुष्य की भावदशा का झरोखा है आंख। एक प्रयोग करिएगा। जब कभी आप बेचैन हों, आंखों के ऊपर बंद होती और खुलती पलकों पर टिक जाइए। अभी पलकें खुद उठती हैं और खुद गिरती हैं। आपका इसमें कोई योगदान नहीं होता। अब आप करने लगें और बहुत धीरे-धीरे करिए। थोड़ी देर में शांति महसूस करेंगे।

शास्त्रों का पढ़ा व्यर्थ नहीं जाता
शास्त्रों में जो कुछ भी लिखा होता है क्या वह सदैव सही होता है। तर्क और विज्ञान की कसौटी पर धर्म को कसने वालों के मन में यह सवाल जरूर उठता है। धर्म के मामले में ज्यादातर लोग शास्त्रों को प्रमाण मानते हैं। शास्त्र में लिखा उनके लिए ब्रह्मवाक्य है। किंतु एक वर्ग ऐसा भी है जो कहता है कि यदि शास्त्रों में लिखी हर बात सही है तो जो बात शास्त्रों में नहीं लिखी है क्या वह गलत हो जाएगी। यह भी संभव है कि शास्त्रों में लिखा उस काल में सही हो। आज के दौर में शायद वह बात उतनी सही न बैठे, इसीलिए ऐसा भी देखा गया है कि किसी एक प्रसंग पर एक ही लेखक ने जब उसका वर्णन दो अलग-अलग शास्त्रों में किया, तो कथानक बदल गया। विद्वानों का तर्क है कि लेखक की मानसिक स्थिति लिखते समय अलग रही होगी। जाहिर है शास्त्रों पर पूरी तरह से रुका नहीं जा सकता।

हमें जीवन-यात्रा के दौरान अनुभव में आई स्थितियों को भी समझना चाहिए, क्योंकि समय के साथ मनुष्य के चिंतन में बदलाव आता जा रहा है, इसलिए शास्त्र को निर्णायक न माना जाए। किंतु उसके प्रभाव को नकारा भी नहीं जा सकता। साहित्य पर विश्वास करने में कोई बुराई नहीं है। उसकी अनुभूति नुकसानदायक भी नहीं है। जैसे अश्लील साहित्य पढ़ा जाता है तो वह भी अपना प्रभाव छोड़ता है। उसके शब्द उत्तेजना, क्रोध और काफी हद तक अपराध की ओर प्रेरित कर सकते हैं। पहले के जमाने में साहित्य में अश्लीलता दुभर थी। अब आंखों को ऐसे दृश्य और शब्द आसानी से मिल जाते हैं, इसीलिए मानसिक पतन की आशंका बढ़ गई है। अत: हर आदमी को कोई एक पुरानी पुस्तक जो किसी भी धर्म की हो, जीवन में जरूर पढ़नी चाहिए। पढ़ा हुआ असर करता ही है और वह व्यर्थ नहीं जाएगा।

विवाह का लाभ-हानि से संबंध नहीं
विवाह किया जाए या नहीं, पुराने समय से यह बहस का विषय रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि विवाह के पश्चात दुख के दिन आरंभ हो जाते हैं, लेकिन जिन्होंने विवाह नहीं किया, जरूरी नहीं है कि उनको भी सुख प्राप्त हो जाए। यदि आदमी सुख और दुख के समीकरण से विवाह करने की सोच रहा है, तो वह एक गलत निर्णय होगा। इन दिनों समाज में जब लिव-इन-रिलेशन की चर्चा चल रही है तो विवाह जैसी संस्था के पक्ष और विपक्ष में खुलकर चर्चा होनी चाहिए। अगर नई पीढ़ी के बच्चे विवाह का गलत अर्थ निकाल लेंगे तो परिवार के ढांचे में बहुत बड़ी दरार आएगी। भारत में विवाह का मतलब स्त्री-पुरुष के देह मिलन की घटना नहीं है। भारत की संस्कृति कहती है कि विवाह में जब स्त्री-पुरुष पति-पत्नी का संबंध स्वीकार करते हैं, तो इसका महत्व यह है कि कुछ समय बाद उनको माता-पिता बनना है। यदि विवाह जैसा बंधन संस्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो माता-पिता का भाव भी स्त्री-पुरुष में नहीं आएगा। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष को एक साथ रहने का अवसर तो दे देगी, लेकिन उनके भीतर माता-पिता बनने की संभावना को खत्म कर देगी। 

ऋषि-मुनियों ने विवाह की परंपरा स्त्री जाति की रक्षा की दृष्टि से भी गठित की थी। विवाह यदि लंबे समय के लिए है तो स्त्री सुरक्षित रहेगी और यदि छोटे समय के लिए है तो पुरुष का सुख अधिक होगा। लिव-इन-रिलेशनशिप छोटे समय का विवाह है। इसमें आगे-पीछे औरत को ही दुख उठाना है। संस्कार के रूप में विवाह करने से स्त्री अधिक सुरक्षित है। यदि इस समय ठीक से विचार नहीं किया गया तो नई पीढ़ी के बच्चे केवल आदमी और औरत होकर अपना वैवाहिक जीवन शुरू करेंगे और इसी पर जीवन खत्म हो जाएगा।

गलत व्यक्ति से दूर रहें तो बेहतर
क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है कि अापके निकट आने वाले लोगों की कितनी जानकारी आपको है। पांच तरह से लोग आपके जीवन में प्रवेश करते हैं। वे जो सिर्फ टाइमपास करने के लिए आपसे जुड़े हैं। ‌िफर वे जो सचमुच आपके लिए कुछ करना चाहते हैं। तीसरे वे जो आपका सहारा बन सकते हैं या बने हुए हैं। चौथे वे लोग जो आपके मार्गदर्शक होंगे। पांचवें, वे जिन्हें अाप सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए अपने से जोड़कर रखते हैं। आप जानते हैं कि वे सिर्फ इसलिए अच्छे लगते हैं कि जब भी आप कुछ कहते हैं वे तसल्ली से सुनते हैं। अब ऐसे लोगों की सूची बनाइए और सबसे पहले इस बात पर गौर करिए कि इस तरह के लोग यदि आपसे जुड़े हैं तो क्या आपके पास उनकी व्यक्तिगत जानकारी है। उनका निजी आचरण कैसा है, इस पर पैनी नजर रखिएगा।

यदि आप उनसे रिश्ता नहीं तोड़ना चाहते और व्यक्तिगत आचरण में उनमें दोष है तो आप तुरंत वह दोष दूर करने में जुट जाइए। आपको उन्हें सुधारना होगा, लेकिन यदि आप संबंध विच्छेद कर सकते हों, तो गलत लोगों से तुरंत दूरी बना लीजिए। भले ही वे कितने ही प्रतिभाशाली और योग्य हों, लेकिन गलत, गलत ही होता है। प्रतिभाशाली व्यक्ति जब गलत मार्ग पर जाता है तो सामान्य से भी ज्यादा घातक हो जाता है। हमने उससे संबंध इसीलिए बनाए कि वे योग्य हैं, आपके लिए उपयोगी हैं। अगर वे भीतर से गलत आचरण कर रहे हैं, तो जितना फायदा आप उठा चुके हैं या उठाने वाले हैं, आप उससे भी बड़े नुकसान की तैयारी कर रहे हैं। उनका गलत आचरण आपके लिए महंगा साबित हो सकता है। इसलिए सीधी-सी बात है, जिनसे भी संबंध रखें उनके व्यक्तिगत आचरण की जानकारी जरूर रखी जाए।

परमात्मा के संकेत को समझिए
हमारी सामर्थ्य के बाहर परमात्मा की सीमा आरंभ होती है। जब कभी जीवन में ऐसा मौका आए कि अपने से अधिक सक्षम और बलशाली से मुकाबला करना हो, तो अपनी सारी ताकत जरूर झोंकनी चाहिए, लेकिन साथ में परमात्मा की कृपा बनी रहे यह भाव जरूर बनाइए। रामकथा का प्रसंग है, भाई बालि से परेशान सुग्रीव श्रीराम से मैत्री कर चुके थे। श्रीराम ने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा, जाओ बालि से युद्ध करो। 
इसी भरोसे में सुग्रीव अपने बड़े भाई बालि से भिड़ जाते हैं, लेकिन बालि सुग्रीव की जमकर पिटाई करता है। सुग्रीव भगवान के पास आकर कहते हैं, आपने तो कहा था, मेरी रक्षा करेंगे। लेकिन जब बालि मुझे मार रहा था, तब आपने धनुष-बाण नहीं उठाए। इस पर जो बात श्रीराम ने उस समय कही, वह हमारे भी बड़े काम की है। श्रीराम कहते हैं- सुग्रीव, दूर से तुम और तुम्हारा भाई एक जैसे दिखते हो, तो मेरे सामने समस्या यह थी कि अगर मैं तीर चलाऊं और वह तुमको लग गया ताे? इसका एक आध्यात्मिक अर्थ भी है। भगवान कह रहे हैं कि अच्छे और बुरे का भेद बनाकर रखो, ताकि मुझे समझ में तो आए कि कौन मेरा है और कौन नहीं। मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला। तब श्रीराम ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डालकर फिर बालि से युद्ध के लिए भेजा। सुग्रीव के गले में माला डालकर भगवान ने बालि को भी संदेश दिया कि सावधान हो जाओ, सुग्रीव अब मुझसे संरक्षित है। बालि ने गलती की कि वह भगवान की भाषा समझ नहीं पाया। हमारे जीवन में भी कई बार परमात्मा अपने संकेत हमें भेजता है और हम बालि की तरह अहंकार में डूबे होने के कारण संकेतों को समझ नहीं पाते और परिणाम में बालि की तरह दंडित हो जाते हैं।

अपनी क्षमता को खुद पहचानें
कहते हैं लिमिट जब भी क्रॉस की जाएगी नुकसान होकर रहेगा। शरीर के सुख को भी जब अति से जोड़ेंगे तो वह भोग रोग बन जाएंगे। धन की अति भी दुख का कारण हो जाएगी। अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि अति की क्या सीमा है। हरेक के लिए अति की सीमा अलग-अलग हो जाती है। जैसे कोई दो रोटी खाकर भूखा रहता है और कोई दो रोटी खाकर बीमार भी हो जाता है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि हमारी सीमा क्या है। हमारी सीमा तय होगी हमारी क्षमता से और अपनी क्षमता को हमारी उपयोगिता से जोड़ना चाहिए।

सीधी भाषा में कहें कि हमारे लिए जो आवश्यक है उतना प्राप्त करने के लिए पूरी ताकत लगाई जाए, लेकिन हम अनावश्यक को प्राप्त करने में ताकत लगाते हैं। यहां से अति शुरू हो जाती है। इन दोनों का तालमेल यदि बैठ जाए तो न हम अपनी अति को क्रॉस करेंगे और न ही लिमिट के नीचे आलसी हो जाएंगे। अध्यात्म में एक शब्द है माया। माया वह होती है जो संसार रचती है, पर किसी को दिखती नहीं और यदि किसी को माया दिख जाए तो समझ लीजिए वह माया नहीं कुछ और ही मामला होगा। संसार में कुछ ऐसा भी है जो दिखता है पर होता नहीं है। हमारी जो क्षमता है, हमारी जो आवश्यकताएं हैं वे कभी-कभी माया की तरह हो जाती हैं। दिख रही हैं, पर होती नहीं और होती हैं पर दिखती नहीं हैं। अपनी क्षमता को जानने के लिए अपने से जुड़ना जरूरी है।

हम ज्यादातर मौकों पर दूसरों से तय कराते हैं कि हम कितने सक्षम हैं। कोई हमें प्रेरित करता है तब हम कुछ कर पाते हैं। इसका मतलब हुआ कि दूसरे हमें सक्षम बना रहे हैं, जबकि हमें अपनी क्षमता को खुद पहचानें। जो भी करें अपनी सीमाओं में करें। अति बिलकुल न करें। अति के नुकसान की भरपाई कोई नहीं कर पाता।

मन पर नियंत्रण करना जरूरी
बहुत कम लोग होते हैं जो स्वीकार करते हैं कि हमारे मन में गलत बातें चलती रहती हैं। गलत बात का मतलब केवल वासना या शरीर के दुष्कर्म ही नहीं हैं। बहुत से लोग तो यह भी नहीं समझ पाते कि मन होता क्या है। वे इसी में परेशान रहते हैं कि हम भीतर से ऐसे नहीं हैं जैसे बाहर से दिखते हैं। तो क्या सारी जिंदगी इसी उलझन में बिता दी जाए। हमें अपने मन को पकड़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस दिन मन समझ में आ जाए, उसी दिन से उसका नियंत्रण शुरू हो जाता है। जैसे कोई छात्र पीएचडी करते समय किसी विषय का अध्ययन करता है, शोध करता है। ऐसे ही हमारे भीतर मन की बहुत ही सूक्ष्म स्टडी करनी होगी।

मन को देखने का एक तरीका है। शांत बैठ जाइए। यदि एक भी विचार चला तो मन पकड़ में नहीं आएगा। विचारशून्य होकर बैठिए। जितना अधिक विचारशून्य बैठेंगे उतनी ही जल्दी मन पकड़ में आ जाएगा। सोचिए कि आप नदी किनारे बैठे हैं और जल बिलकुल शांत है। आपने एक पत्थर जल में फेंका, तो जल की तरंगें फैल गईं। जैसे ही पत्थर डूबा, तरंगें सिकुड़ीं और जल वापस वैसा ही हो गया। बस, मन ऐसा ही है। वह तरंगों के रूप में फैलता है और सिकुड़ जाता है। यदि आप मन का फैलाव और सिकुड़ना देख लें तो वह पकड़ में आ जाएगा। यहीं से आपका दोहरा व्यक्तित्व समाप्त होने लगेगा। मीरा ने इस मन के लिए बड़ी आक्रामक पंक्ति लिखी हैं। एक जगह वे लिखती हैं - यो मन मेरो बड़ो हरामी।यहां हरामी शब्द का अर्थ है धोखेबाज। कभी कुछ सोचेगा तो कभी कुछ। इसका नियंत्रण बस इसी में है कि इसके फैलाव को देखो, इसका सिकुड़ना देखो। थोड़ा सा विचारशून्य हो जाइए, मन पकड़ में आ जाएगा और जीवन की बहुत बड़ी समस्या का निदान निकल आएगा।

सही समय पर योग्य वारिस चुनें
पिछले दिनों संत समाज में एक देखने, सोचने और समझने वाली घटना घटी। सबकुछ साधु-कृत्य था लेकिन मामला संपत्ति से जुड़ा है, इसलिए गृहस्थों के लिए एक बड़ा संदेश बन गया। दायित्व प्रदान उत्सव में सत्यमित्रानंदगिरिजी ने अपनी संस्थाओं के सारे दायित्व अवधेशानंदगिरिजी को सौंप दिए। इस समय भारत की संन्यास परंपरा के वरिष्ठ, श्रेष्ठ और मान्य पुरुष हैं सत्यमित्रानंदगिरिजी। अपनी जीवन यात्रा में उन्होंने सभी को अपने आचरण से स्पष्ट संदेश दिया है कि संपत्ति यदि परमात्मा के मार्ग में सहयोगी हो, तो उसका भी सात्विक संचय किया जा सकता है।

संपत्ति का वारिस तो मिल सकता है, लेकिन एक संन्यासी के पुरुषार्थ से अर्जित संसार का दायित्व किसे दिया जाए, यह मंथन भी सत्यमित्रानंदजी के भीतर हुआ होगा। उनके विचार सही जगह जाकर रुकना ही थे और वे रुके अवधेशानंदगिरिजी पर। जिस संपत्ति और संस्था के सत्य का सत्यमित्रानंदजी ने जो सृजन किया उसके अस्तित्व को अवधेशानंदजी और परिष्कृत रूप में गति देंगे, इसमें लेश-मात्र संदेह नहीं है। श्रेष्ठ अब सर्वश्रेष्ठ बनने जा रहा है। इसे केवल बाबाओं की बातों की अदला-बदली न समझा जाए।

संसारभर के गृहस्थों के लिए संदेश है कि परिवार में विरासत सही ढंग से समय रहते योग्य को सौंप दी जाए। किसे कितना योग्य मानें, यह बहुत बड़ी परीक्षा होती है। सम्पत्ति यदि योग्य व्यक्ति के हाथ न जाए, तो दान, भोग और नाश की तीन गतियों के अनुसार उसका परिणाम आना है। आज भारतीय परिवारों में टूटन-बिखराव का एक कारण विरासत का सही ढंग से स्थानांतरण नहीं होना भी है। इन दोनों संतों के आचरण से परिवार बचाने का यह प्रबंधन सूत्र लिया ही जा सकता है।

परमात्मा पर भरोसा बनाए रखें
जीवन में संघर्ष के अवसरों पर जब हम अपनी पूरी ताकत लगा चुके होते हैं तब परमशक्ति अज्ञात रूप से हमरीमदद कर रही होती है। हमारी सीमा के बाद फिर उसका प्रवेश होता है। किष्किंधा कांड में एक प्रसंग आता है किश्रीराम ने प्रेरणा देकर सुग्रीव को बालि से युद्ध करने के लिए भेजा था। एक बार पिटकर भगवान के पास आ चुका था और श्रीराम ने कहा था इस बार मैं तेरी रक्षा करूंगा। गले में माला भी डाल दी। यहां एक पंक्ति लिखी है तुलसीदासजी ने जिसके अनुसार सुग्रीव ने बालि से युद्ध करते समय अपना छल और बल दोनों उपयोग में लिए। यह मनुष्य का सहज स्वभाव है।

जब जीतना ही हैकी जिद पर उतर आता है तो कुछ न कुछ छल जरूर करता है जो सुग्रीव ने भी किया होगा, लेकिन बालि के सामने उसकी एक न चली तो उसने हृदय से हार मानी। जैसे ही वह हृदय पर उतरा, परमात्मा समझ गए इसकी सीमा पूरी हुई, मुझे प्रवेश लेना ही होगा। बहु छल बल सुग्रीव कर हियं हारा भय मानि। मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।। सुग्रीव ने बहुत से छलबल किए, किंतु अंत में भय मानकर हृदय से हार गया। तब श्रीराम ने तानकर बालि के हृदय में बाण मारा। बालि को भ्रम होना निश्चित था और दूसरी बात बालि के कारण संसार को भी यह प्रश्न मन में आ सकता है कि श्रीराम ने छुपकर मारा।

श्रीराम कभी किसी को भ्रम में नहीं रखते, इसीलिए वे बालि को मारने के बाद उसके पास पहुंचे। वे बालि पर भी समान रूप से दया करना चाहते थे। उनका मानना था कि मेरा तीर लगने के बाद अब बालि वह नहीं रहा जो पहले अवगुणों के साथ था। हम यदि सुग्रीव की तरह हैं तो भरोसा न छोड़ें और यदि बालि की जगह हैं तो भी विश्वास रखें। हमारी गलतियों पर परमात्मा पूरी तरह सही में उत्तर देगा।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष


Friday, May 15, 2015

Katha Gyan1 (कथा ज्ञान)

अपने अंहकार को सम्भालें नहीं तो...
कभी कभी आदमी अपने अहंकार के मद में इतना खो जाता है कि उसे अपने अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता। वह खुद को सबसे बड़ा और श्रेष्ठ समझने लगता है। वह चाहता है दुनिया में जो कुछ भी हो उसी की मर्जी से हो।

एक रानी को अपने राजा की शक्तियों पर बड़ा घमण्ड था रानी सुन्दर थी इसलिए राजा को अत्यन्त प्रिय भी थी। एक दिन वह जेठ की दोपहरी में किसी काम से आंगन में गई तेज धूप के कारण उसका शरीर झुलस गया वह तिलमिला कर राजा के पास पहुंची और बोली कि आप तो सबसे समर्थ राजा हैं फिर भी आपके शासन में सब अपनी मनमानी करते हैं। राजा ने रानी से गुस्से का कारण पूछा तब रानी बोली कि सूरज ने मेरे साथ धृष्टता की है आप जब तक इसे अपने राज्य से बाहर नहीं निकालेगे तब तक मैं आप से बात नहीं करूंगी।

राजा रानी से बहुत प्यार करता था रानी की इस अजीब सी मांग से राजा वह सोच में पड़ गया। राजा समझदार था उसने अपने सेनापति को बुलाया और आदेश दिया कि तोपों से इतने गोले दागो कि सूरज दिखाई न दे। राजा के आदेश का पालन किया गया और चारों ओर धुंआ ही धुंआ छा गया सूरज भी दिखाई नहीं दे रहा था। रानी को तब कहीं जाकर तसल्ली हुई। कथा कहती है कि अंहकार में इंसान प्रक्रति को भी चुनौती देने को तैयार रहता है लेकिन प्रक्रति के नियम किसी के लिए नहीं बदलते।

जरुरत है खुद को बदलने की...
इंसान को अगर खुद को बेहतर बनाना है और अपनी किसी बुराई को छोडऩा है तो उसे इस बात की शुरूवात खुद से ही करनी होगी। किसी और के भरोसे आप अपनी किसी बुराई को नहीं छोड़ सकते। बस जरूरत है तो केवल दृढ़ विश्वास की । एक बार भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे के पास एक शराबी युवक आया और हाथ जोड़कर कहने लगा कि गुरूजी मैं बहुत परेशान हूं । यह शराब मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। आप कुछ उपाए बताइए जिससे मुझे पीने की इस आदत से मुक्ति मिल सके।विनोबाजी ने कुद देर तक सोचा और फिर बोले- अच्छा बेटा तुम कल मेरे पास आना, किंतु मुझे बाहर से ही आवाज देकर बुलाना, मैं आ जाऊंगा युवक खुश होकर चला गया।

दिन वह फिर आया और विनोबाजी के कहे अनुसार उसने बाहर से ही उन्हें आवाज लगाई। तभी भीतर से विनोबाजी बोले- बेटा। मैं बाहर नहीं आ सकता। युवक ने इसका कारण पूछा, तो विनोबाजी ने कहा- यह खंबा मुझे पकड़े हुए है, मैं बाहर कैसे आऊं। ऐसी अजीब सी बात सुनकर युवक ने भीतर झांका, तो विनोबाजी स्वयं ही खंबे को पकड़े हुए थे। वह बोला- गुरुजी। खंबे को तो आप खुद ही पकड़े हुए हैं। जब आप इसे छोडेंगे, तभी तो खंबे से अलग होंगे न।युवक की बात सुनकर विनोबाजी ने कहा- यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि शराब छूट सकती है, किंतु तुम ही उसे छोडऩा नहीं चाहते। जब तुम शराब छोड़ दोगे तो शराब भी तुम्हें छोड़ देगी।उस दिन के बाद से उस युवक ने शराब को हाथ भी नहीं लगाया।वास्तव में दृढ़ निश्चय या इच्छाशक्ति, संकल्प से बुरी आदत को भी छोड़ा जा सकता है।

यदि व्यक्ति खुद अपनी बुरी आदतों से मुक्ति पाना चाहे और इसके लिए मन मजबूत कर संकल्प हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत उसे अच्छा बनने से नहीं रोक सकती।

हर सिक्के के दो पहलु होते हैं
हम में से अधिकांश लोग सिर्फ अपने अवगुण या दूसरों के अवगुणों को देखने या गिनाने में लगें रहते हैं, इसलिए हमारा ध्यान किसी की अच्छाई पर जाता ही नहीं। क्योंकि हमें तो बुराई देखने की आदत हो चुकी है। हम हर जगह बुराई ढुंढने में इतने मशगुल हैं, कि किसी के बुरे पहलु में हम अच्छाई ढूंढने की सोच भी नहीं पाते जबकि यह बात हम सब जानते हैं कि हर बुराई के पीछे कोई ना कोई अच्छाई छुपी होती है।

एक गांव में किसान रहता था। उस गांव में उसे पानी भरने अपने घर से बहुत दूर जाना पड़ता था। उसके पास पानी लेकर आने के लिए दो बाल्टियां थीं। उनमें से एक बाल्टी में छेद था। किसान रोज उस कुएं से पानी भरकर जब तक अपने घर तक लाता था। वह पानी सिर्फ डेढ़ बाल्टी रह जाता था, क्योंकि छेद वाली बाल्टी का पानी आधा ही रह जाता था। अब वो बाल्टी जिसमें कोई छेद नहीं था। उसे धीरे-धीरे घमंड आने लगा। वह उस छेद वाली बाल्टी से बोली तुम में छेद है। तुम किसी काम की नहीं मालिक बेचारा तुम्हे जब तक भरकर घर लेकर आता है, तुम्हारा आधा पानी खाली हो जाता है। यह सुनकर वह बाल्टी दुखी हो जाती उसे दूसरी बाल्टी रोज ताना मारती थी।

एक दिन उस बाल्टी ने दुखी होकर अपने मालिक से कहा: मालिक आप मुझसे यदि परेशान हो गये हैं तो मेरे इन छेदों को बंद क्यों नहीं कर देते या फि र आप मुझे छोड़कर नई बाल्टी क्यों नहीं खरीद लेते तो किसान मुस्कुराते हुए बोला तुम इतनी दुखी क्यों हो तुम जानती हो कि तुम्हे मैं जिस रास्ते से भरकर यहां तक लाता हूं। उस रास्ते के एक ओर हरियाली है वहां कई छोटे-छोटे सुन्दर पौधे उग आए हैं। दूसरी ओर जहां से बिना छेद वाली बाल्टी को लेकर निकलता हूं। वहां हरियाली नहीं है सिर्फ सूखा है तो अगर वो बिना छेद वाली बाल्टी मेरे घर के सदस्यों की प्यास बुझा रही हो तो तुम भी तो कई नन्हे पौधों को जीवनदान दे रही हो बाल्टी यह सुनकर खुश हो गई उसे अपनी अहमियत का एहसास हो गया।

लगातार कोशिश ही आपको ऊंचाईयों पर पहुंचाएगी...
आज आदमी कामयाब होने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। और असफलता के डर से कोई भी गलत कदम उठा लेते हैं। सफलता यूं ही नहीं मिल जाती उसके लिए धैर्य और हर परेशानी से लडऩे की क्षमता का होना जरूरी है।कभी कभी देर से ही सही लेकिन लगातार प्रयास करने से सफलता जरूर मिलती है।

कौरवों से युद्ध में जीतने के लिए युधिष्ठिर ने अर्जुन को दिव्यास्त्र प्राप्त करने का आदेश दिया। तब अर्जुन इन्द्रकील पर्वत पहुंचे और इन्द्र से मिले। तब इन्द्र ने अर्जुन को भगवान शंकर की उपासना करने को कहा। तब अर्जुन एक घने वन में जाकर शंकर भगवान का प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या करने लगे। पहले एक महीने तक व तीन रात के बाद फलाहार करते। दूसरे महीने छ: रात के बाद फलाहार करते। तीसरा महीना पन्द्रह दिन में एक बार फलाहार किया, चौथे महीने केवल वायु पीकर रहने लगे। दौनों हाथ ऊपर कर बिना किसी सहारे के एक पैर पर खड़े होकर अर्जुन ने तपस्या की।

तब भी अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव ने किरात का रूप धारण कर युद्ध के लिए आमंत्रित किया। अर्जुन ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। भगवान शंकर अर्जुन की इस कठिन परीक्षा में सफल हो गए तब भगवान शिव ने खुश होकर अर्जुन को एक दिव्यास्त्र प्रदान किया। बाद में महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त की।

स्वभाव से आदमी बनता है बड़ा
व्यक्ति के हृदय में अहंकार आते ही उसे नष्ट होते देर नहीं लगती। अहंकारी को हर जगह उपेक्षा ही मिलती है। जबकि विनम्र को न केवल अपने जीवन में बल्कि परमात्मा के यहां भी यश और सम्मान मिलता है।
महाभारत का प्रसंग है। युद्ध अपने अंतिम चरण में था। भीष्म पितामह शैय्या पर लेटे जीवन की अंतिम घडिय़ां गिन रहे थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था और वे सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर जानते थे कि पितामह उच्च कोटि के ज्ञान और जीवन संबंधी अनुभव से संपन्न हैं। इसलिए वे अपने भाइयों और पत्नी सहित उनके समक्ष पहुंचे और उनसे विनती की- पितामह। आप विदा की इस बेला में हमें जीवन के लिए उपयोगी ऐसी शिक्षा दें, जो हमेशा हमारा मार्गदर्शन करें।

तब भीष्म ने बड़ा ही उपयोगी जीवन दर्शन समझाया। नदी जब समुद्र तक पहुंचती है, तो अपने जल के प्रवाह के साथ बड़े-बड़े वृक्षों को भी बहाकर ले आती है। एक दिन समुद्र ने नदी से प्रश्न किया। तुम्हारा जलप्रवाह इतना शक्तिशाली है कि उसमें बड़े-बड़े वृक्ष भी बहकर आ जाते हैं। तुम पलभर में उन्हें कहां से कहां ले आती हो? किंतु क्या कारण है कि छोटी व हल्की घास, कोमल बेलों और नम्र पौधों को बहाकर नहीं ला पाती। नदी का उत्तर था जब-जब मेरे जल का बहाव आता है, तब बेलें झुक जाती हैं और उसे रास्ता दे देती हैं। किंतु वृक्ष अपनी कठोरता के कारण यह नहीं कर पाते, इसलिए मेरा प्रवाह उन्हें बहा ले आता है। इस छोटे से उदाहरण से हमें सीखना चाहिए कि जीवन में सदैव विनम्र रहे तभी व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है।सभी पांडवों ने भीष्म के इस उपदेश को ध्यान से सुनकर अपने आचरण में उतारा और सुखी हो गए।

मिलेगी मंजिल...लक्ष्य पर रखो नजर

अगर आपको जीवन में सफल बनना है तो अपने लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है। आपकी पूरी नजर आपके लक्ष्य पर होनी चाहिए। तभी आपकी सफलता निश्चित हाती है।

एक मोबाइल कम्पनी में इन्टरव्यू के लिए के लिए कुछ लोग बैठै थे सभी एक दूसरे के साथ चर्चाओं में मशगूल थे तभी माइक पर एक खट खट की आवाज आई। किसी ने उस आवाज पर ध्यान नहीं दिया और अपनी बातों में उसी तरह मगन रहे। उसी जगह भीड़ से अलग एक युवक भी बैठा था आवाज को सुनकर वह उठा और अन्दर केबिन में चला गया। थोड़ी देर बाद वह युवक मुस्कुराता हुआ बाहर निकला सभी उसे देखकर हैरान हुए तब उसने सबको अपना नियुक्ति पत्र दिखाया । यह देख सभी को गुस्सा आया और एक आदमी उस युवक से बोला कि हम सब तुमसे पहले यहां पर आए हैं तो तुम्हें अन्दर कैसे बुला लिया। युवक बोला कि आप सब नाराज न हों आप सभी के लिए संकेत आया था पर आप सभी अपनी बातें में मशगूल थे। उन लोगों को जिस जगह पर किसी की आवश्यकता थी वे सारे गुण मेरे अन्दर मौजूद मिले इस लिए उन्होंने मुझे रख लिया।

कहानी बताती है कि सफलता के लिए आपका लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है तभी आपको सफलता प्राप्त हो सकती है।

अगर आपको खुशी की तलाश है तो..

अक्सर लोग भविष्य के सुख की चाह में अपने आज से इस तरह समझौता करते हैं कि आने वाला कल भी उनका आज जैसा ही होता है।सुख और शांति से जीने की चाह में आदमी अपने आज में इतना खो जाता है कि आने वाले कल में सुख और शांति की परिभाषा ही जाता है । खुशी शांति जैसे शब्द केवल सुनने मात्र को रह जाते हैं। एक होटल चलाने वाले व्यापारी ने अपने दोस्त से कहा कि मैं पचपन साल तक कमा लूं फिर शांति से जीऊंगा ।

जब वह आदमी पचपन साल का हो गया तब अपने दोस्त से फिर मिला तब उस दोस्त ने उससे पूछा कि क्या चल रहा है तब वह बोला कि मैं बड़ा परेशान हूं घर में मन नहीं लगता । मुझे मेरे काम की याद आती है होटल की याद आती है पत्नी को शिकायत रहती है कि जैसा व्यवहार होटल वालों के साथ करते थे वैसा ही हुकुम घरवालों पर चलाते हैं ।इस पर घर में रोज झगड़ा होता है इसलिए मैंने दोबारा होटल आना शुरु कर दिया। दोस्त बोला तुमने कल जीने की सोच में अपना अच्छा खासा आज बरबाद कर दिया सब चीजों से फ्री होकर जब तुमने शांति से जीना चाहा तो तुम्हें वो भी अच्छा नहीं लगा। अब तुम खुद सोचो कि तुमने क्या पाया और क्या खोया।

ऐसा होता है सबसे अच्छा समय

अक्सर हम देखते हैं कि लोगों के पास बहुत कुछ होने के बाद भी वे खुश नहीं होते। आपके पास पैसा हो, परिवार हो,धन दौलत सबकुछ हो लेकिन मन का सुकून न हो तो सब बेकार है। और आज के समय में सभी कहीं न कहीं ऐसी ही परिस्थितियों से गुजर रहे है। अगर मन से खुश हैं तो कोई भी समय अच्छा हो सकता है।

एक पिता ने अपने बेटों को बुलाया आर पूछा कि बताओ कौनसा मौसम सबसे अच्छा है। सबसे बड़ा बेटा बोला कि पिताजी मेरी नजर में तो सर्दी का मौसम सबसे अच्छा है, न पसीना आता है, न लू चलती है,धूल भरी आंधियां। दूसरे बेटे ने कहा कि नहीं मेरी नजर में गर्मी का मौसम सबसे अच्छा होता है, सर्दी में ढ़ेर सारे कपड़े पहनने पड़ते हैं, बिना पर्याप्त इंतजाम के बाहर भी नहीं जा सकते। इतने में तीसरा बेटा बोला कि मुझे तो बरसात का मौसम सबसे अच्छा लगता है नज्यादा गर्ती और न ज्यादा सर्दी चारों ओर बादल और बारिश की नन्हीं फुहारे हर किसी का मन मोहती हैं। चारों ओर हरियाली पानी से लबालब भरे नदी और तालाब कितने अच्छे लगते हैं। इसलिए बरसात से अच्छा मौसम और कोई नहीं।

फिर उसने अपने सबसे छोटे बेटे से पूछा कि तुम बताओ कि सबसे अच्छा मौसम कौनसा है। उसने जवाब दिया जो सुकून से गुजर जाए वही मौसम सबसे अच्छा है। जो समय सुकून और शांति से भरा हो वही सबसे अच्छा समय होता है।

हर दिन कुछ सिखाती है जिदंगी...

मनुष्य का पूरा जीवन एक पाठशाला है यहां हर वक्त किसी न किसी पहलु पर हमें कुछ न कुछ सीखने को जरूर मिलता है। जिदंगी का हर क्षण हमें कुछ न कुछ सीख जरूर देता है।

स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे।एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।

यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है? स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है।स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।

समस्याओं के बारे में नहीं, उनका समाधान सोचें
जब आप पर किसी काम की जिम्मेदारी सौंपी जाती है तो कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मामूली समस्या के कारण वह काम ठीक से या फिर समय पर नहीं हो पाता। काम में देरी होना यह दर्शाता है कि आप अपने काम के प्रति जिम्मेदार नहीं है क्योंकि परेशानी तो जिंदगी का एक हिस्सा है लेकिन जिम्मेदारी उससे कही बढ़कर है। काम के प्रति आपकी लग्न एक ओर जहां लक्ष्य उपलब्धि की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करती है, वहीं दूसरी ओर वह लोकप्रियता दिलाकर शानदार सफलता प्राप्ति का माध्यम भी बनती है।

किसी देश में एक बहुत बड़े नेता हुए। वे बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार थे। उनके इन्हीं गुणों को देखकर जनता ने उन्हें अपना नेता चुना। उन्होंने कई कल्याणकारी योजनाएं चलाईं और काफी निर्माण कार्य कराए। एक समय उस देश के किसी क्षेत्र में एक विशालकाय बांध का निर्माण किया जाना था। इस कार्य के लिए कुछ विशिष्ट सामग्री विदेश से आनी थी किंतु वह समय पर नहीं पहुंच पाई।

यह देखकर मुख्य इंजीनियर ने सामग्री की और अधिक प्रतीक्षा न करते हुए कार्य शुरू कर दिया। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि कार्य निर्धारित अवधि में ही पूर्ण किया जाएगा। जब इस बात की खबर उन ईमानदार नेता को लगी तो वे भी एक दिन अवलोकन करने निर्माण स्थल पर जा पहुंचे। उन्होंने देखा कि वास्तव में निर्माण कार्य तेजी से हो रहा है और मुख्य इंजीनियर अपने पद की महत्ता और गौरव को एक ओर रखकर सामान्य मजदूर की भांति काम में सक्रिय है। विदेश से समय पर सामग्री न आने के बाद भी वह काम में जुटा हुआ है।

इंजीनियर के दृढ़ मनोबल और दायित्वबोध से वह नेता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने तत्काल उस इंजीनियर को उसकी नैतिकता, सूझबूझ व दायित्व के प्रति वफादारी से प्रभावित होकर निर्माण विभाग काउपसचिव बना दिया।

जिदंगी जियो कुछ इस तरह कि...
जिनकी जिन्दगी में मुस्कुराहट नहीं होती वे कभी अपने जीवन को पूर्णता के साथ नहीं जी पाते। इसलिए जिन्दगी के हर पल को मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कीजिए। तभी जिन्दगी को आनंद के साथ जी पाएंगे।

तीन बहुत गहरे दोस्त थे। तीनों बहुत खुश मिजाज और जिन्दगी को खुलकर जीने में यकीन रखते थे। जहां भी वे जाते वहां खुशी और हंसी की लहर फैल जाती। उन तीनों से जो भी मिलता, उसे वे इस तरह मिलते की मिलने वाले के मन में खुशी की लहर दौड़ जाती। अक्सर लोग उनसे पूछते कि आप इतना खुश कैसे रह लेते हैं। उन्होने कहा जो जीवन में हंसी को स्वीकार कर लेते हैं। तो जीवन अपने आप ही खुशियों से भर जाता है। मुस्कुराहट ही वह रास्ता है जिससे भगवान को भी पाया जा सकता है।

बीतता गया तीनों बूढ़े हो गए । उन तीनों में से एक दिन एक की मौत हो गई। लोगों ने सोचा अब तो ये रोएंगे जरुर, अब तो दुखी होंगे जरुर, आज तो हम उनकी आंखों मे आंसू देख लेंगे। उनकी पहचान के सारे लोग इकठ्ठे हो गए, लेकिन वो दोनो हंसते हुए अपने मरे हुए दोस्त को लेकर बाहर निकले और उन्होने गांव के लोगों से कहा कि आओ और देखो, कितना अद्भुत आदमी था। लोगों ने देखा जो उस आदमी की लाश पड़ी है लेकिन उसके होंठ मुस्कुरा रहे हैं। वह आदमी जो मर गया है वह हंसते हुए ही मर गया। वह अपने मित्रो को कह गया कि मैं मर जाऊं तो एक कृपा करना, मेरी लाश को स्नान मत करवाना और नए कपड़े भी मत पहनाना । दोनो दोस्तों ने उसकी अंतिम इच्छा का पालन किया। अब सारे परिचित लोग उसकी लाश को लेकर शमशान पहुंचे। वहां जैसे ही उसकी चिता को आग दी गई। आग लग गई ,लोग उदास खड़े हैं लेकिन फिर एकदम धीरे-धीरे भीड़ में हंसी छुटने लगी, लोग हंसने लगे। हंसी फैलती चली गई,जैसे ही लाश में आग लगी, लोगों को पता चला कि वह आदमी अपने कपड़ो के भीतर पटाखे और फुलझड़ी छिपा मर गया ह

लोग हंसने लगे और वे कहने लगे कि अद्भुत था। वह आदमी वह मरा हंसता हुआ, जीया हंसता हुआ और मरने के बाद भी लोग हंसते ही विदा दें इसकी व्यवस्था, इसका आयोजन कर गया। उन सभी लोगों को पता चल गया था कि हंसते हुए जीया जा सकता है। हंसते हुए मरा भी जा सकता है। मरने के बाद भी हंसी की संभावना पैदा की जा सकती है।

कोई भी अच्छा काम कभी बेकार नहीं जाता

आज लोग जो भी अच्छा काम करते हैं वे कभी न कभी उन्हें अच्छा फल जरूर देते हैं। कहते हैं कि किसी के लिए किया गया अच्छा काम आपको कहीं न कहीं अच्छा फल जरूर देता है। रामबाबू रेल्वे में स्टेशन मास्टर के पद पर काम करते थे। रेलवे की तरफ से उन्हें एक सरकारी मकान मिला था। रामबाबू को बागवानी का बड़ा शौक था इसलिए उन्होंने अपने मकान आम, अमरूद,पपीता, अनार जैसे कई तरह के पेड़ पौधे लगा रखे थे।

एक दिन उनका ट्रांसफर किसी दूसरे सहर में हो गया और रमबाबू को मकान खाली करना पड़ा। सभी ने उनसे कहा कि इतनी मेहनत से उन्होने इस बगीचे को बनाया था लेकिन उन पेड़ों के फल वे नही खा सकेगें। धीरे धीरे यें बातें धुंधली हो गई। किस्मत से उनकी बेटी की शादी भी एक रेल्वे अधिकारी से हो गई। कुछ सालों उनकी बेटी के पति का ट्रांसफर भी उसी शहर में हो गया और वे उसी मकान में रहने जहां सालों पहले वे अपने पिता के साथ रहा करती थी। अब वे पेड़ इतने बड़े हो गए थे कि उनमें फल लगने लगे थे। उन फलों का स्वाद रामबाबू के नाती बड़े मजे से ले रहे थे। इसलिए कहते हैं कि आपके द्वारा किया गया कोई भी अच्छा काम कभी न कभी आपके काम जरूर आता है।

अगर खुश रहना चाहते हो तो...
हर किसी के जीवन में परेशानियां आती हैं। जो लोग धैर्य के साथ उनका सामना करतें हैं वे इन परेशानियों को जीत लेते हैं।जो लोग उन्हीं के बारे में सोच सोच कर परेशान होते हैं वे जीवन में कभी सुखी नहीं हो पाते। एक संत नदी के किनारे अपने शिष्यों के साथ बैठा था।सर्दी के दिन थे और सबको बहुत ठण्ड लग रही थी। अचानक एक शिष्य ने देखा कि नदी में एक कम्बल बह के जारहा है। उसने अपने गुरु को बोला आपको ठण्ड लग रही है नदी में कूदकर उस कम्बल को ले आइए। उस फकीर ने नदी में छलांग लगा दी। जैसे ही फकीर ने उस कम्बल को पकड़ा तो उसने पाया कि वो कम्बल नहीं बल्कि एक भालू है जो अपना सिर अन्दर करके पानी में तैर रहा है। जैसे ही वह उसे छोडऩे लगा तो रीछ ने उसे पकड़ लिया और वह उसके साथ बहने लगा। शिष्यों ने कहा कि अगर कम्बल में ज्यादा वजन है, आप उसे खींच के नहीं ला सकते तो उसे छोड़ दो। फकीर बोला अब इसे छोडऩा मुश्किल है क्योंकि मैने कम्बल को नहीं बल्कि कम्बल ने मुझे पकड़ रखा है और ये मुझे नहीं छोड़ रहा है। ऐसे ही अगर आप मुसीबतों के बारे में जितना सोचोगे वे आपको उतना ही परेशान करेंगी। क्यों कि हम उन्हें याद कर करके जीवन्त बना देते हैं जो फिर हमारा पीछा नहीं छोड़ती।

कण कण में छुपा है उसका अस्तित्व
कहते हैं भगवान हर जगह है। उनके निवास का कोई निश्चित स्थान नहीं है। उसे देखने के लिए उसे पाने के लिए बस आवश्यकता है आपके विश्वास और श्रद्धा की। एक बार गुरुनानक देव मक्का में गए। सफर की लम्बी थकान के बाद वे एक पेड़ के नीचे सो गए।उस समय उनके पैर काबा की ओर थे। तभी वहां से दो आदमी गुजरे यह देख उन्होने नानकदेव को जगाया और कहा कि तुम्हारे पैर काबा की तरफ हैं दूसरी तरफ पैर करके सो जाओ। नानक देव बोले भाई मुझे तो सभी जगह काबा नजर आ रहा है। उन दोनों ने नानक देव की बात अनसुनी कर नानकदेव के पैर पकड़े और घुमाकर दूसरी तरफ कर दिए।

नानक हंसने लगे और बोले मुझे तो इस तरफ भी काबा नजर आ रहा है। दौनों लोगों ने देखा कि सच में काबा उसी तरफ दिखाई दे रहा था जिस तरफ नानक के पैर थे। उन्होनें फिर नानक देव के पैर उठाऐ और दूसरी ओर कर दिए ।लेकिन अभी भी काबा उसी ओर दिखाई देने लगा जिस तरफ नानक के पैर थे। तब दोनों आदमी नानक जी के पैरों में गिरकर माफी मांगने लगे। तब नानक देव ने समझाया कि ईश्वर हर दिशा में बसता है हर कण मे बसता है। मन मे सच्ची श्रद्धा रखो तो उसके दर्शन सभी जगह हो जाते हैं।

याद रखें...न भटके आपका कोई अपना
हमारे जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब हमारा कोई परिचित या परिजन गलत रास्ते पर चल पड़ता है और हम भी यह सोचकर चुप रह जाते हैं कि हमें क्या करना? उस स्थिति में हम भी उसके भटकने के उतने ही बड़े दोषी होते हैं जितना वह स्वयं। क्योंकि हमारा भी यह कर्तव्य होता है कि हम उसे सही रास्ता दिखाएं।
एक पिता के दो बेटे थे। बड़ा बेटा समझदार था जबकि छोटा थोड़ा चंचल था। पिता के पास बहुत संपत्ति थी। जब दोनों बेटे बड़े हुए तो उनके स्वभाव को देखते हुए उनके पिता ने सोचा कि अब इन्में संपत्ति का बंटवारा कर देना चाहिए। छोटे बेटे के हिस्से में जो संपत्ति आई उसे वह ले जाकर शहर में ठिकाने लगा आया और एक दिन कंगाल हो गया। जो बड़ा बेटा था वह गांव में रहा और मेहनत कर अपनी सम्पत्ति को दोगुना कर लिया। एक दिन जब पिता को मालूम हुआ कि छोटा बेटा कंगाल हो गया है तो उसे वापस बुलाया कि अपने पास बहुत संपत्ति है तू वापस आ जा।

बेटा जब वापस आने लगा तो पिता ने उसके स्वागत की बड़ी तैयारी की। जब यह बात बड़े बेटे को पता चली तो उसने कहा पिताजी यह आप क्या कर रहे हैं? मैंने जीवनभर आपकी सेवा की और उसने सारा पैसा खत्म कर दिया। फिर भी आप उसे इतने सम्मान के साथ वापस बुला रहे हैं। तब पिता ने अपने बड़े बेटे से कहा- बेटा जब तू भेड़ चराने जाता है और जब कोई एक भेड़ रास्ता भटक जाती है तो तू उसे ढूंढता है और कंधे पर बैठाकर लाता है। दूसरी भेड़ों को कंधे पर नहीं उठाता क्योंकि वो तो सही रास्ते पर चल रही हैं। बस यही बात है कि वो भटक गया था आज लौट कर आ रहा है इसलिए मैं उसका स्वागत कर रहा हूं।

समझें अपने साथी के दर्द को...
आजकल देखा जा रहा है किसी भी व्यक्ति का शादीशुदा जीवन शुरु होते ही उनके इस रिश्ते में खटास आने लगती है। इसका एक मात्र कारण है एक दूसरे को न समझ पाना। जब पति-पत्नी एक-दूसरे की भावनाओं और परेशानियों को नहीं समझ पाते तो दोनों एक दूसरे को नजर अंदाज करने लगते हैं। ऐसे में स्थिति बिगड़ती है और फिर रिश्ता टूटने तक की नौबत आ जाती है।

अगर दाम्पत्य को जीवनभर खुशहाली भरा रखना है तो इसके लिए एक-दूसरे की परिस्थिति, परेशानी को समझना और उसे महसूस करना बहुत जरूरी है। महाभारत का यह प्रसंग इस ओर इशारा करता है।

धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे। जब वे जवान हुए तो उनकी दादी सत्यवती और भीष्म को उनकी शादी की चिंता सताने लगी। भीष्म हस्तिपुर से काफी दूर गंधार देश गए, जहां की राजकुमारी गांधारी काफी सुंदर थीं। गांधारी के पिता ने भीष्म को यह कहकर रिश्ते के लिए मनाकर दिया कि वे एक अंधे राजकुमार से अपनी बेटी की शादी नहीं कर सकते। यह बात गांधारी तक पहुंची। गांधारी ने इस बात को बहुत गहराई से लिया, उसने सोचा कि धृतराष्ट्र को अंधे होने के कारण कितना अपमानित होना पड़ रहा है। लेकिन कोई उनकी परेशानी को समझ नहीं सकता। उसने धृतराष्ट्र से ही विवाह करने की ठान ली। गांधारी ने धृतराष्ट्र की परेशानी को महसूस करने के लिए अपनी आंखों पर कपड़े की मोटी पट्टी बांध ली। जो तमाम उम्र बंधी रही।

अगर आप बड़ा बनना चाहते हैं तो...
कभी कभी आदमी के पास धन, दौलत, बंगला, गाड़ी ये सब कुछ तो होता है पर उसका दिल बहुत छोटा होताहै। उसके तन में नतो किसी के प्रति कोई संवेदना होती है और नही किसी के लिए सम्मान । लेकिन जिन लोगों का दिल बड़ा होता है वे अभाव में भी सम्मान के हकदार होते हैं। एक राजा ने गुरु बनाने का विचार किया।

उसने घोषणा करवाई कि जिसका आश्रम सबसे बड़ा होगा उसी को वह गुरु बनाएगा। राजा के गुरु बनने के लालच में बहुत से साधु इक्कठा हुए। राजा बोला महाराज कहिए तब एक साधू ने कहा कि मेरा आश्रम पचास एकड़ मे फैला है, दूसरा साधू बोला कि मेरा आश्रम सौ एकड़ में फैला है । तीसरा साधू बोला कि मेरा आश्रम दो सौ एकड़ मैं फैला है। चौथा साधू बोला मेरा आश्रम एक हजार एकड़ में फैला है। इसी तरह सब अपना अपना बखान कर रहे थे। वहीं एक साधु चुपचाप बैठा सब की बातें सुन रहा था। राजा ने उससे कहा महाराज आप बताऐं आपका आश्रम कितना बड़ा है। तब साधु बोला राजन मैं यहां नहीं बता सकता इसके लिए आपको मेरे साथ चलना होगा राजा साधु के साथ चल दिया। साधु एक जंगल में पहुंचा और एक पेड़ के नीचे बैठ गया। राजा बोला आपका आश्रम कहां है तब साधू बोला यही मेरा आश्रम है जितना ऊपर आकाश और जितनी नीचे धरती है उतना बड़ा है मेरा आश्रम। राजा साधू के पैरों में गिर गया और उसे ही अपना गुरु बना लिया। जरुरी नहीं कि जिसके पास पैससा हो वही सबसे बड़ा हो। बड़ा बनने के लिए दिल और भावनाओं का शुद्ध होना जरूरी होता है।

सीखो खुद को बचाने का तरीका
एक सफल आदमी की पहचान है कि उसे हर परिस्थिति का सामना करना आना चाहिए। किसी मुसीबत में फंसने पर वहां से बच निकलने की कला हर आदमी को सीखनी चाहिए। और जिसे ये कला आती है वह दुनिया को जीतने का दम रखता है।

एक आदमी अपने वाक चातुर्य के लिए बड़ा जाना जाता था। एक बार वो कोई गलती करते पकड़ा गया और पुलिस के हत्थे चढ़ गया। उसे जज के सामने ले जाया गया। उसकी बहस सुनकर जज को गुस्सा आने लगा जज ने उस आदमी से कहा कि तुम बहुत चतुर मालूम होते हो, हर बात को अपनी बातों में उलझा देते हो।

जज ने उससे कहा कि तुम अब हर बात का जवाब हां या न में देना।वह व्यक्ति बोला जज साहब अगर आपको आपकी हर बात का जवाब हां या न में चाहिए तो आपने जो मुझे कसम दिलाई है कि मुझे यहां सब सच बोलना है उसे वापस ले लें। जज ने आश्चर्य से पूछा कि ऐसी कौनसी बात है जिसका उत्तर तुम मुझे हां या न में नहीं दे सकते। दौनों अपनी बात पर अड़ गए तब वह व्यक्ति जज से बोला कि ठीक है अगर आप मेरी बात का जवाब हां या न में दे पाए तो मैं आपके हर सवाल का जवाब हां या न में दे दूंगा।

जज बोला ठीक है। वह व्यक्ति बोला कि आप ये बताए कि आपने अपनी पत्नी को पीटना बन्द कर दिया। जज दुविधा में फंस गया हां कहने का मतलब था कि वह पहले अपनी पत्नी को मारता था। न कहने का मतलब की अब भी पीटता है।उससे कोई जवाब देते नहीं बना। जज ने उस आदमी को छोड़ दिया। अपने वाक चातुर्य के बल से वह आदमी जेल जाने से बच गया।

जीतना है दुनिया को तो... अपनी भूख को बढ़ाओ
मन की शक्ति ही वह ताकत है,जो किसी को भी वो हर काम करने की हिम्मत देती है जिसे कोई इंसान ये सोचता है कि ये मुझसे नही होगा। हर व्यक्ति हर काम कर सकता है सिर्फ जरुरत है तो अपनी पूरी आंतरिक शक्ति से लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करने की।राघव क्रिकेट की प्रेक्टिस करने लगातार जाता था। बहुत प्रेक्टिस करने के बाद भी वह टीम में सिलेक्ट नहीं हो पाया। जब वह प्रेक्टिस करता तो उसकी मां मैदान में बैठकर उसका इंतजार करती रहती थी। इस बार जब नया प्रेक्टिस सीजन शुरु हुआ, तो वह चार दिन तक प्रेक्टिस पर नहीं आया। क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल मैच के दौरान भी नहीं दिखा। राघव फाइनल मैच के दिन आया। उसने अपने कोच के पास जाकर कहा आपने मुझे हमेशा रिजर्व खिलाडिय़ों में रखा और कभी क्रिकेट टीम में खेलने नहीं दिया लेकिन आज मुझे खेलने दीजिए। कोच ने कहा बेटा मुझे दुख है। मैं तुम्हे यह मौका नहीं दे सकता। फाइनल मैच है कालेज की इज्जत का सवाल है। मैं तुम्हें खिलाकर अपनी इज्जत दांव पर नहीं लगा सकता। राघव ने खूब मिन्नतें की। कोच का दिल पिघल गया।

कोच ने कहा ठीक है जाओ खेलो लेकिन याद रखना कि मैंने यह निर्णय अपने कर्तव्य के विरुद्ध लिया है, ध्यान रखना मुझे शर्मिंदा ना होना पड़े। मैच शुरु हुआ लड़का तूफान की तरह खेला उसने छ: गेंद पर छ: छक्के मारे। उस मैच का हीरो बन गया। उस मैच मैं टीम को शानदार जीत मिली। मैच खत्म होने के बाद कोच उस राघव के पास जाकर पूछा मैंने तुम्हे कभी इस तरह खेलते हुए नहीं देखा। यह चमत्कार कैसे हुआ?राघव बोला कोच आज मेरी मां मुझे खेलते हुए देख रही थीं। कोच ने उस जगह मुड़कर देखा जहां उसकी मां बैठा करती थीं। कोच ने कहा बेटा तुम जब भी मैच की प्रेक्टिस करने आते थे। तब तुम्हारी मां हमेशा उस जगह बैठा करती थीं लेकिन आज मै वहां किसी को नहीं देख रहा हूं। राघव ने बताया कि कोच मैनें आपको यह कभी नहीं बताया कि मेरी मां अंधी थीं। पांच दिन पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। आज पहली बार वो मुझे ऊपर से देख रही हैं।

आपकी माफी किसी को इंसान बना सकती है
कहते हैं कि गलत काम करने वाले व्यक्ति को सजा देना देना जरूरी होता है। यही सजा उसके लिए सबक बनकर उसे सुधरने में मदद करती है। लेकिन हर बार ऐसा हो ये जरूरी नहीं। कभी-कभी हमारा क्षमादान भी उसे उसकी गलती का एहसास कराके इंसान बनने में मदद करता है।

जापान में एक संत थे। लोग उन्हें जापान का गांधी कहा करते थे। वे न कभी किसी के लिए बुरा बोलते, न कभी बुरा सोचते और न कभी किसी का बुरा करते इसलिए लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। वहीं एक आदमी उनसे बड़ी घृणा करता था और चारों ओर संत की प्रशंसा देख उसे बड़ी जलन होती। एक दिन उसने संत को मारने का विचार किया।

एक रात वह चुपके से उस संत के घर में जा घुसा। संत को मारने के लिए उसने जैसे ही तलवार निकाली वैसे ही संत की नींद खुल गई। वह बुरी तरह से डर गया और डर के मारे कांपने लगा। उसे लगा कि अब संत शोर मचाऐंगे और सबको इक्कठ्ठा कर लेंगे और ये सब लोग मिलकर मुझे मार डालेगें।लेकिन उसने देखा कि संत हाथ जोडकर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि हे ईश्वर मेरे इस भाई को सद्बुद्धि दो और इसकी गलती क्षमा करो। यह देख उसे अपने किए पर पछतावा होने लगा। वह संत के पैरों में गिरकर माफी मांगने लगा। संत ने उसे गले लगाया और कहा कि गलती इंसान से ही होती है। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं अब तुम एक अच्दे इंसान बनने की कोशिश करो।

जानिए ज्ञान के महत्व को...

इंसान को कभी अपनी शक्तियों और सम्पत्ति पर अभिमान नहीं करना चाहिए क्यों कि माया व्यक्ति को बुद्धिहीन कर देती है। और बुद्धिहीन लोग जीवन में कभी ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते।

एक बार एक जानश्रुति नाम का राजा था उसे अपनी सम्पत्ती पर बड़ा घमंड था एक रात कुछ हंस राजा के कमरे की छत पर आकर बात करने लगे एक हंस बोला कि राजा का तेज चारों ओर फैला है उससे बड़ा कोई नहीं तभी दूसरा हंस बोला कि तुम गाड़ी वाले रैक्क को नहीं जानते उनके तेज के सामने राजा का तेज कुछ भी नहीं है। राजा ने सुबह उठते ही  बाबा को ढूढ़कर लाने के लिए कहा राजा के सेवक बड़ी मुश्किल से  बाबा का पता लगाकर आए। तब राजा बहुत सा धन लेकर साधू के पास पहुंचा और साधू से कहने लगा कि ये सारा धन में आपके लिए लाया हूं कृपया कर इसे ग्रहण करें और आप जिस देवता की उपासना करते हे उसका उपदेश मुझे दीजिए साधू ने राजा को वापस भेज दिया।

अगले दिन राजा और ज्यादा धन और साथ में अपनी बेटी को लेकर साधू के पास पहुंचा और बोला हे श्रेष्ठ मुनि मैं यह सब आपके लिए लाया हूं आप इसे ग्रहण कर मुझे ब्रह्मज्ञान प्रदान करें तब साधू ने कहा कि हे मूर्ख राजा तू तेरी ये धन सम्पत्ति अपने पास रख ब्रह्मज्ञान कभी खरीदा नहीं जाता। राजा का अभिमान चूर चूर हो गया और उसे पछतावा होने लगा।कथा बताती है कि जहां अभिमान होता है वहां कभी ज्ञान नहीं होता ज्ञान को पाने के लिए इंसान को अपना अहंकार को छोडना पड़ता है।

जल्दबाजी में न खोऐं अपनी मंजिल को...
अगर मनुष्य चाहे तो संयम और धैर्य से समुद्र भी लांघ सकता है। लेकिन कभी कभी व्यक्ति अपनी जल्दबाजी के कारण हाथ आए हुए लक्ष्य को भी खो देता है। एक बूड़ा व्यक्ति था वह लोगों को पेड़ पर चढऩे व उतरने की कला सिखाता था जो उनको मुसीबत के समय और जंगली जानवरों से रक्षा के काम भी आती थी। एक दिन एक लड़का उस बूड़े व्यक्ति के पास आया और विनम्रता पूर्वक निवेदन करते हुए बोला कि उसे इस कला में जल्द से जल्द निपुण(परफेक्ट)होना है।बूड़े व्यक्ति ने उसे यह कला सिखाते हुए बताया कि किसी भी काम को करने के लिए धैर्य और संयम की बड़ी आवश्यकता होती है। लड़के ने बूड़े की बात को अनसुना कर दिया।एक दिन बूड़े व्यक्ति के कहने पर वह एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गया। बूड़ा व्यक्ति उसे देखता रहा और उसका हौसला बढ़ाता रहा पेड़ से उतरते उतरते जब वह लड़का आखिरी डाल पर पहुंचा तब बूड़े व्यक्ति ने कहा कि बेटा जल्दी मत करना सम्भलकर कर उतरो। लड़के ने सुना और धीरे धीरे उतरने लगा।

नीचे आकर लड़के ने हैरानी के साथ अपने गुरु से पूछा कि जब में पेड़ की चोटी पर था तब आप चुपचाप बैठे रहे और जब मैं आधी दूर तक उतर आया तब आपने मुझे सावधान रहने को कहा ऐसा क्यों। तब बूड़े व्यक्ति ने उस लड़के को समझाते हुए कहा कि जब तुम पेड़ के सबसे ऊपर भाग पर थे तब तुम खुद सावधान थे जैसे ही तुम अपने लक्ष्य के नजदीक पहुंचे तो जल्दबाजी करने लगे और जल्दी में तुम पेड़ से गिर जाते और तुम्हें चोट लग जाती।कथा बताती है कि अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने के लिए कभी भी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए क्यों कि कई बार की गई जल्दबाजी ही लक्ष्य को पाने में परेशानी बन जाती है।

न भागें अपनी जिम्मेदारी से...
अक्सर लोग अपनी जिम्मेदारियों से परेशान होकर उनसे भागने लगते हैं। कभी कभी तो वे किसी दूसरे रास्ते का रुख ही कर लेते हैं। लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाला कभी खुश नहीं रह पाता है। एक राजा को शासन करते करते लम्बा समय बीत गया। एक दिन वो एक दिन वो सोचने लगा कि इतने लम्बे राज्यकाल में मैंनें क्या पाया।जनसेवा में ही सारा जीवन बीत गया। यह सोचते-सोचते वह जंगल की ओर निकल लिया। जंगल में सारे पशु पक्षी आंनद से आजाद घूम रहे थे। वहीं दूसरी ओर राजा चिंता में बैठा हुआ था।

वह पशु पक्षियों को देख सोचने लगा ये कितने खुश हैं राजा सोच ही रहा था कि एक तेज हवा का झोंका आया और एक पेड़ भरभरा के गिर गय और सारे पक्षी उड़ गए। राजा बोला इस संसार में सब अपने लाभ के लिए ही साथ देते है। तभी उधर से गुजर रहे एक साधु ने राजा का अकेले उदास बैठे देखा। वह राजा के पास गया और बोला कि तुम इस जंगल में क्या का रहे हो। वह साधु से बोला कि महात्मा जी मेरा मन अब संसार में नहीं लगता मैं अभी थक गया हूं।अब मैं भगवान की भक्ति करना चाहता हूं।

राजा की बात सुनकर साधु हंसने लगा और बोला आप राजा हैं और राजा का काम है राज काज देखना न कि फकीरी करना। अपने कर्तब्य से मुहं फेर कर आपको शांति नहीं मिलेगी। आप अपनी प्रजा की देखभाल करो अपको सच्चा सुख उसी में मिलेगा। क्यों कि जो अपना कर्तव्य पालन को ही अपना धर्म मानते हैं सच्चा सुख उन्हीं को मिलता है।

सच बोलने के होते हैं कई फायदे
आजकल लोग कई बातों को छुपाने के लिए अक्सर झूठ बोलते हैं। उन्हें लगता है कि अगर उनकी किसी गलती पर उन्होने सच बोला तो वे मुसीबत में फंस जाऐंगे। लेकिन ऐसा नहीं होता सच बोलने के कई फायदे होते हैं। एक बार सच बोलने से आप कई बार के झूठ बोलने से बच जाते हैं।

एक बार एक डाकू अपने क्षेत्र में बड़ा प्रसिद्ध था। वह डाकू अमीरों का धन लूट कर गरीबों की मदद करता इसलिए वहां के गरीब लोग उसे बहुत मानते थे। एक बार उस गांव में एक संत पधारे वे सभी को अच्छे अच्छे उपदेश देते। उनके उपदेशों को सुनने के लिए सभी तरह के लोग आते वह डाकू भी संत के प्रवचनों से काफी प्रभावित हुआ।

एक दिन वह साधु के पास गया और बोला कि महाराज मेरा भी कल्याण कैसे हो सकता है। साधु ने कहा अगर तुम सच का रास्ता अपनाओगे तो तो तुम्हारा कल्याण जरूर होगा। तब से वह डाकू हमेशा सच बोलने लगा। एक रात वह डाकू राजा के महल में चोरी करने पहुंचा। सोना, चांदी और बहुत सारे जेवर लेकर जब वो महल से भागने लगा तो राजा के सिपाहियों ने उसे पकड़ कर पूछा कि तुम कौन हो। डाकू ने सोचा कि अगर वह सच बोलेगा तो ये लो उसे पकड़ कर जेल में डाल देगें। और झूठ न बोलने की उसने कसम खाई थी। उसने सोचा मैं झूठ नहीं बोलूंगा जो होगा देखा जाऐगा।उसने सिपाहियों से कहा कि मैं डाकू हूं। सिपाही उसकी बात सुनकर हंसने लगे और बोले भाई जाओ अच्छा मजाक करते हो कोइ डाकू अपने मुंह से बोलता है कि वह डाकू है।
डाकू खुशी खुशी वहां से चला गया। वह बड़ा खुश हुआ कि उसके सच बोलने का परिणाम बड़ा सुखद मिला।

इरादा हो पक्का तो संभव है सबकुछ...
आज अगर कोई भी व्यक्ति अपने ध्यान या मन को एक जगह केन्द्रित कर ले तो किसी भी काम को करना उसके लिए मुश्किल नहीं होगा। एक बार स्वामी विवेकानंद अपने एक विदेशी दोस्त के यहां गए हुए थे। रात के समय दोनों मित्र आपस में किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। तभी स्वामीजी के मित्र को कहीं जाना पड़ा। अब स्वामीजी घर में अकेले थे, उन्हें एक किताब दिखाई दी और उन्होंने किताब पढऩा शुरू कर दी। कुछ देर बाद उनका दोस्त उनके सामने आकर खड़ा हो गया। परंतु स्वामीजी का ध्यान उनके दोस्त की ओर नहीं गया वे किताब पढऩे में लगे रहे।

जब स्वामीजी ने किताब पूरी पढ़ ली तो उन्होंने देखा कि उनका दोस्त उनके सामने ही खड़ा था। स्वामीजी ने माफी मांगते हुए कहा कि मैं किताब पढऩे में इतना खो गया था कि तुम कब आए पता ही नहीं चला। उनका दोस्त मुस्करा दिया। दोनों फिर से चर्चा करने लगे। इस बार स्वामीजी ने अभी-अभी जो किताब पढ़ी थी उसकी बातें बताने लगे। उनके विदेशी मित्र ने कहा आपने यह किताब पहले भी कई बार पढ़ी होगी, तभी आपको इस किताब की सारी बाते ज्यों की त्यों याद है।

स्वामीजी ने कहा नहीं मैंने यह किताब अभी ही पढ़ी है। उनके दोस्त को विश्वास नहीं हुआ कि 400 पेज की किताब कोई इतनी जल्दी कैसे पढ़ सकता है? तब स्वामीजी ने कहा कि यदि हम अपना पूरा ध्यान किसी काम में लगा दे और दूसरी सारी बातें छोड़ दे तो यह संभव है कि हम 400 पेज की किताब भी थोड़े ही समय में पढ़ सकते हैं और उस किताब की सारी बातें आपको याद रहेंगी।

फैसला लेने से पहलें जानें पूरे सच को
जीवन में अक्सर ऐसे अवसर आते हैं जब बिना सच्चाई जानें ही किसी एक निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं जबकि सच्चाई कुछ और ही होती है। जो हमें दिखता है हम उसी पर यकीन कर लेते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि जो दिख रहा है उसमें कितनी सच्चाई है पहले इस पर विचार किया जाए। तभी हम सही सही निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं।

दो मित्र व्यापार करने के लिए रेगिस्तान के रास्ते से दूसरे स्थान पर जा रहे थे। जब काफी दूर निकल आए तो मालूम हुआ कि रास्ता भटक गए हैं। उनके पास जो पानी था वह भी खत्म हो गया। दोनों प्यास के मारे बेहाल हो गए। ढूंढते-ढूंढते उन्हें एक झरना मिल गया और वहीं एक बर्तन भी। दोनों मित्र बहुत खुश हुए। उन्होंने जैसे ही उस बर्तन में झरने का जल भरा और पीया तो वह बहुत कड़वा निकला। पीने लायक नहीं था वह पानी।दोनों उस झरने को छोड़कर दूसरे झरने की तलाश में निकले। उस पात्र को साथ में ले लिया। जब दूसरा झरना मिला तो वहां भी उसी बर्तन से पानी भरा और पीया तो वह भी कड़वा था। उनकी हालत और खराब हो गई।

कंठ सूख रहा था आगे फिर एक झरना मिला लेकिन वहां का पानी भी कड़वा था।उस झरने के पास एक फकीर बैठे थे। उन्होंने उस फकीर से पूछा कि क्या यहां के सारे झरनों का पानी कड़वा है। उस फकीर ने उन्हें देखा और कहा कि यहां के सभी झरनों का पानी पीने लायक है। क्योंकि में तो इन्हीं झरनों पर जी रहा हूं। फकीर ने जब उनके हाथ में उस बर्तन को देखा तो वह समझ गया कि इस बर्तन में ही कुछ है जिससे झरने का पानी कड़वा लग रहा है। उन दोनों मित्रों से कहा कि तुम झरने से सीधे हाथों में लेकर पानी पीयो। उन्होंने बिना पात्र के ही पानी पिया। पानी एकदम मीठा था। तो तय हुआ कि उन झरनों में तो पानी अच्छा था लेकिन वह बर्तन ही गंदा था।

अच्छाई या बुराई...अपने नजरिये को बदलें
हम में से अधिकांश लोग सिर्फ अपने अवगुण या दूसरों के अवगुणों को देखने या गिनाने में लगें रहते हैं, इसलिए हमारा ध्यान किसी की अच्छाई पर जाता ही नहीं। क्योंकि हमें तो बुराई देखने की आदत हो चुकी है। हम हर जगह बुराई ढुंढने में इतने मशगुल हैं, कि किसी के बुरे पहलु में हम अच्छाई ढूंढने की सोच भी नहीं पाते जबकि यह बात हम सब जानते हैं कि हर बुराई के पीछे कोई ना कोई अच्छाई छुपी होती है।

एक गांव में किसान रहता था। उस गांव में उसे पानी भरने अपने घर से बहुत दूर जाना पड़ता था। उसके पास पानी लेकर आने के लिए दो बाल्टियां थीं। उनमें से एक बाल्टी में छेद था। किसान रोज उस कुएं से पानी भरकर जब तक अपने घर तक लाता था। वह पानी सिर्फ डेढ़ बाल्टी रह जाता था, क्योंकि छेद वाली बाल्टी का पानी आधा ही रह जाता था। अब वो बाल्टी जिसमें कोई छेद नहीं था। उसे धीरे-धीरे घमंड आने लगा। वह उस छेद वाली बाल्टी से बोली तुम में छेद है। तुम किसी काम की नहीं मालिक बेचारा तुम्हे जब तक भरकर घर लेकर आता है, तुम्हारा आधा पानी खाली हो जाता है। यह सुनकर वह बाल्टी दुखी हो जाती उसे दूसरी बाल्टी रोज ताना मारती थी।

एक दिन उस बाल्टी ने दुखी होकर अपने मालिक से कहा मालिक आप मुझसे यदि परेशान हो गये हैं तो मेरे इन छेदों को बंद क्यों नहीं कर देते या फि र आप मुझे छोड़कर नई बाल्टी क्यों नहीं खरीद लेते तो किसान मुस्कुराते हुए बोला तुम इतनी दुखी क्यों हो तुम जानती हो कि तुम्हे मैं जिस रास्ते से भरकर यहां तक लाता हूं। उस रास्ते के एक ओर हरियाली है वहां कई छोटे-छोटे सुन्दर पौधे उग आए हैं। दूसरी ओर जहां से बिना छेद वाली बाल्टी को लेकर निकलता हूं। वहां हरियाली नहीं है सिर्फ सूखा है तो अगर वो बिना छेद वाली बाल्टी मेरे घर के सदस्यों की प्यास बुझा रही हो तो तुम भी तो कई नन्हे पौधों को जीवनदान दे रही हो बाल्टी यह सुनकर खुश हो गई उसे अपनी अहमियत का एहसास हो गया।

हम में से अधिकांश लोग सिर्फ अपने अवगुण या दूसरों के अवगुणों को देखने या गिनाने में लगें रहते हैं, इसलिए हमारा ध्यान किसी की अच्छाई पर जाता ही नहीं। क्योंकि हमें तो बुराई देखने की आदत हो चुकी है। हम हर जगह बुराई ढुंढने में इतने मशगुल हैं, कि किसी के बुरे पहलु में हम अच्छाई ढूंढने की सोच भी नहीं पाते जबकि यह बात हम सब जानते हैं कि हर बुराई के पीछे कोई ना कोई अच्छाई छुपी होती है।

किस्मत पर भरोसा करोगे तो पछताना पड़ेगा
कुछ लोग होते हैं जो पूरी तरह से भाग्य पर ही निर्भर रहते हैं। न तो वह कभी अपने काम में सुधार लाते हैं और न ही कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं। उन्हें हमेशा यही लगता है कि जब जो चीज किस्मत में होगी मिल जाएगी। और यदि किस्मत में नहीं होगी तो नहीं मिलेगी। उनकी यही सोच उन्हें तरक्की नहीं करने देती और वे हर बात के लिए अपनी किस्मत को दोष देते हैं।

एक गांव में दो दोस्त रहते थे। एक का नाम मोहन था और दूसरे का सोहन। मोहन मेहनती था। वह हमेशा अपने खेतों में काम करता। खाली समय में भी वह कुछ न कुछ करता ही रहता था। जबकि सोहन आलसी था। वह भाग्य पर अधिक भरोसा करता था। उसने खेतों में काम करने के लिए नौकर रखे थें। वह सोचता था जितना किस्मत में लिखा है उतना तो मिल ही जाएगा। वह कभी-कभी ही खेतों में जाता था। पूरा दिन घर में रहता या फिर इधर-उधर घुमते रहता।वह मोहन से भी यही कहता था कि खेतों में काम करने के लिए नौकर रख ले और खुद आराम करो। भाग्य में जो लिखा है उतना ही मिलेगा। लेकिन मोहन हमेशा यही कहता कि कर्म भाग्य से भी ऊपर है। काम करेंगे तो उसका फल अवश्य ही मिलेगा।

सोहन कई-कई दिनों तक खेत पर नहीं जाता तो नौकर भी खेतों का ध्यान ठीक से नहीं रखते और अपनी मनमर्जी से काम करते। न तो ठीक से बुआई करते और न ही सिंचाई। जबकि मोहन दिन-रात खेतों में काम करता। थोड़े दिनों बाद जब फसल कटने का समय आया तब सोहन खेत पर गया। उसने वहां देखा कि समय पर सिंचाई न होने के कारण फसल मुरझा गई है। उसने अपन नौकरों को बहुत डांटा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वहीं दूसरी ओर मोहन के खेत में शानदार फसल लहलहा रही थी।

यह देखकर सोहन को मोहन की बात याद आने लगी। वह मोहन के पास गया और उससे माफी मांगी और वादा किया कि वह आगे से भाग्य पर निर्भर नहीं रहेगा। क्योंकि भाग्य भी उन्हीं लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं।

सम्भालें अपने अहंकार को
कुछ लोगों को अपने शक्तियों पर बहुत अहंकार होता है। अपने ताकत के नशे में किसी का सम्मान नहीं करते और सभी का उपहास उड़ाते रहते हैं या अपमान करते हैं। इन लोगों के पतन का कारण इनका अहंकार ही बनता है। इसलिए ध्यान रखें कि यदि आप बलशाली हैं या आपके पास कोई विशेष योग्यता है तो इसका दुरुपयोग न करें तथा किसी अन्य का अपमान न करें।

श्रीराम के पूर्वज सूर्यवंशी राजा सगर की दो पत्नियां थीं केशिनी और सुमति। केशिनी का एक ही पुत्र था जिसका नाम असमंजस था, जबकि सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमंजस बहुत ही दुष्ट था। उसको देखकर सगर के अन्य पुत्र भी दुराचारी हो गए। उन्हें अपने बल पर बहुत ही घमंड था। घमंड में चूर होकर वे किसी का सम्मान नहीं करते थे।एक बार सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। तब इंद्र ने उस यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में कपिलमुनि के आश्रम में छुपा दिया। जब अश्व नहीं मिला तो सगर के पुत्रों ने पृथ्वी को खोदना प्रारंभ किया। तब पाताल में उन्हें कपिलमुनि के आश्रम में यज्ञ का घोड़ा दिखाई दिया।

यह देखकर घमण्ड में चूर सगर के सभी पुत्रों ने समाधि में लीन कपिल मुनि को भला-बुरा कहा। सगर पुत्रों की बात सुनकर जैसे ही कपिल मुनि ने आंखें खोली सभी सगर पुत्र वहीं भस्म हो गए।

जो होता है वो अच्छे के लिए होता है
अक्सर इंसान को भगवान से शिकायत होती है कि वह उसके साथ हमेशा बुरा ही करता है। मानव की प्रवृति ही ऐसी होती है कि वह बुरे को देख कर हमेशा याद करता है लेकिन उसके पीछे छुपी अच्छाई को वह नहीं देख पाता और अपनी किस्मत को कोसने लगता है। लेकिन नियति के हर फैसले के पीछे कुछ न कुछ अच्छा छुपा हुआ जरूर होता है।

एक राजा के यहां उसका मंत्री भगवान का बड़ा भक्त था कि सी भी बात पर वो यही कहते भगवान भली करेगें।एक दिन राजा का बेटा मर गया मंत्री को जब पता चला तो उसने कहा प्रभु भली करेंगें राजा को यह बात सुनकर बहुत बुरा लगता लेकिन उसने मंत्री को कुछ नहीं कहा कुछ समय बाद राजा की रानी की मृत्यू हो गई मंत्री ने फिर कहा प्रभु भली करेंगें। राजा फिर चुप रहा उसने मंत्री को कुछ नहीं कहा।

राजा एक दिन अपनी तलवार की धार को उंगली से देख रहा था और उसकी उंगली कट गई।मंत्री ने फिर वहीं वाक्य दोहराया राजा को इस बार बहुत गुस्सा आया और उसने मंत्री को देश से बाहर निकाल दिया। वह मंत्री अपने घर न जाकर जंगल की ओर की चल दिया। एक दिन राजा जंगल में शिकार खेलने गया वहां वह जंगल में डाकुओं के बीच फंस गया। उस समय वहां काली उपासना का पर्व मनाया जा रहा था और इस पर्व पर काली मां को नर बलि चढाने की प्रथ थी।

डाकुओं ने सोचा की राजा की ही बलि चढा दी जाए। बलि चढ़ाते समय पुरोहित ने पूछा कि तुम्हारे परिवार में कौन कौन है राजा ने कहा कोई नहीं। तभी पुरोहित ने देखा कि राजा की अंगुली कटी है उन्होंने तुरन्त मना किया कि इस आदमी की बलि नहीं दी जा सकती क्यों कि एक तो इसके परिवार में कोई नहीं है और इसका अंग भी भंग है। राजा वहां से वापस महल में गया और सोचने लगा कि मंत्री ठीक कहता था कि जो होता है अच्छे के लिए होता है।

हर मुसीबत की जड़ है लालच
मनुष्य के जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं जब उसे तुरंत निर्णय लेने पड़ते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि वह लालच में आकर गलत निर्णय ले लेता है जो परेशानी का कारण बन जाते हैं। इसलिए जब भी विपरीत समय में कोई निर्णय लेने का अवसर आए तो उसके उसके दूरगामी परिणाम के बारे में भी अवश्य सोचें।

किसी गांव में एक लालची व्यापारी रहता था। वह अपने गांव से दूर देश समुद्र की यात्रा करते हुए व्यापार करने जाता था। एक दिन उसके दोस्तों ने उससे पूछा कि क्या तुम्हें तैरना आता है? तो व्यापारी ने कहा- नहीं। दोस्तों ने कहा तुम समुद्र में यात्रा करते हो तो तैरना तो आना ही चाहिए। व्यापारी ने भी सोचा कि सभी ठीक कहते हैं। उसने सोचा क्यों न तैरना सीख लिया जाए लेकिन काम-काज में व्यस्तता के कारण उसके पास समय नहीं रहता था।

इस कारण जब वह तैरना नहीं सीख सका तो उसने अपने दोस्तों से पूछा कि अब क्या करुं? उसके दोस्तों ने उसे सुझाव दिया कि जब वह कश्ती में जाए तो अपने साथ खाली पीपे (डिब्बे) रख ले और अगर कभी तुफान में कश्ती डुबने लगे तो खाली पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद जाए। ऐसा करने से उसकी जान बच जाएगी। व्यापारी ने ऐसा ही किया। अपनी कश्ती में खाली पीपे रख लिए। संयोग से उसी यात्रा के दौरान समुद्र में तुफान आ गया।

जिन लोगों को तैरना आता था वे तो कूद गए।कुछ ने उससे भी कहा कि खाली पीपे बांधकर कूद जाओ पर व्यापारी सोच रहा था कि अगर में खाली पीपे बांधकर समुद्र में कूद गया तो ये जो दूसरे पीपे जिनमें धन रखा है ये भी सब डूब जाएंगे। धन के लालच में व्यापारी खाली पीपे के स्थान पर धन से भरे पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद गया। इस तरह धन के लालच में उसने अपने प्राण गवां दिए।

समझें शब्दों के पीछे छुपे अर्थ का
संसार में कई महापुरुष हुए जिन्होंने दुनिया में सत्य का प्रकाश फैलाया। महापुरुषों की हर बात के पीछे एक उद्देश्य होता है। हमें उस बात पर न टिक कर उसके अर्थ को समझना चाहिए तथा उसका अनुसरण करना चाहिए।

गुरुनानकजी एक बार अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक गांव आया। किसी ने गुरुनानकदेव से कहा कि यह गांव बदमाशों का गांव है। गुरुदेव जब वहां रुके तो वहां के लोग उन्हें प्रणाम करने आए। गुरुनानकजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि यही बस जाओ। सबको अच्छा लगा। फिर गुरुनानकजी आगे चले तो एक दूसरा गांव आया तो किसी ने बताया कि यहां के लोग बड़े सज्जन व विद्वान है। वहां के लोग भी गुरुनानक के दर्शन करने आए तो गुरुनानक ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि उजड़ जाओ।

सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये कैसा आशीर्वाद दिया गुरुजी ने । थोड़ी देर बाद उनके एक शिष्य ने गुरुनानकदेवजी से पूछा कि आपने बुरे लोगों को तो कहा कि यही बस जाओ और भले लोगों को उजडऩे का आशीर्वाद क्यों दिया? तो गुरुनानकदेव बोले- बुरे लोग जहां भी जाएँगे बुराई ही फैलाएंगे और भले लोग जहां भी जाएंगे सत्य का प्रकाश ही फैलाएंगे इसलिए मैंने उन्हें यह आशीर्वाद दिया।

तारीफ चाहिए तो... तारीफ करना सीखिए
आज कोई भी इंसान किसी की तारीफ बर्दाश्त नहीं करता। लेकिन बदले में वह यह जरूर चाहता है कि सब उसकी प्रशंसा करें। हमें प्रशंसा तभी मिल सकती है जब हम दूसरों के लिए अच्छा बोलेंगे। कभी-कभी दूसरों की बुराई करते समय इंसान ये भूल जाता है कि कहीं न कहीं इन बातों से उसकी छवि भी खराब हो रही है।

एक बार एक यजमान ने दो पंडि़तों को अपने घर भोजन के लिए बुलाया। यजमान एक पंडि़त के पास गया और बोला पंडि़त जी आपके साथी तो परम विद्वान और ज्ञानी नजर आते हैं। तब पंडि़त ने अपने साथी के लिए बोला कि वह आपको कहां से ज्ञानी नजर आता है वह तो निरा बैल है। सेठ जी चुपचाप वहां से चले हैं। फिर वह दूसरे पंडि़त के पास के पहुचें और उससे भी यही कहा कि आपके साथी तो बड़े ही ज्ञानी नजर आते हैं। पंडि़त ने अपनी ईष्र्या जताते हुए कहा कि वह कहां का ज्ञानी है वह तो एक नम्बर का गधा है।

शाम को खाने के वक्त सेठ ने एक के सामने घास और दूसरे के सामने फूस रखवा दिया। दौनो पंडि़त ये देखकर आग बबूला होकर सेठ से बोले तुम हमारा अपमान कर रहे हो ये कोई हमारे खाने का सामान है। तब सेठ हाथ जोड़कर बोला महानुभावों में तो आप दौनों को परम ज्ञानी और विद्वान समझता था। आप दौनों ही एक दूसरे को गधा और बैल बता रहे थे इसलिए उनके खाने योग्य खुराक मेंनें आपके सामने रखवा दी है।सेठ की यह बात सुनकर दौनो पंडि़तों को अपनी बातों पर पछतावा होने लगा। वास्तव में जो लोग दूसरों की तारीफ नहीं सुन सकते या कर सकते वे असल में खुद भी किसी प्रतिष्ठा के लायक नहीं होते।

गलत हमेशा गलत नहीं होता...
सुख और दुख दोनो ही जीवन के ऐसे अंग है जो हर इंसान के जीवन में एक बार जरूर आते है। कई बार अच्छा काम करते-करते भी परिणाम बुरा हो जाता है, कई बार हमारे साथ बुरा होने पर भी परिणाम सुखद होता है। हम परिणाम कैसा चाहते हैं, ये हमारे ऊपर ही निर्भर होता है। अगर हम सही रास्त पर सच्चाई और ईमानदारी से चलें तो उसका परिणाम हमेशा अच्छा ही होता है।

ऐसा ही एक उदाहरण है महाभारत में। बात पांडवों के वनवास की है। जुए में हारने के बाद पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और एक साल का अज्ञातवास गुजारना था। वनवास के दौरान अर्जुन ने दानवों से युद्ध में देवताओं की मदद की। इंद्र उन्हें पांच साल के लिए स्वर्ग ले गए। वहां अर्जुन ने सभी तरह के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा हासिल की। गंधर्वों से नृत्य-संगीत की शिक्षा ली। अर्जुन का प्रभाव और रूप देखकर स्वर्ग की प्रमुख अप्सरा उर्वशी उस पर मोहित हो गई। स्वर्ग के स्वच्छंद रिश्तों और परंपरा का लोभ दिखाकर उर्वशी ने अर्जुन को रिझाने की कोशिश की। लेकिन उर्वशी अर्जुन के पिता इंद्र की सहचरी भी थी, सो अप्सरा होने के बावजूद भी अर्जुन उर्वशी को माता ही मानते थे। अर्जुन ने उर्वशी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। खुद का नैतिक पतन नहीं होने दिया लेकिन उर्वशी इससे क्रोधित हो गई। उर्वशी ने अर्जुन से कहा तुम स्वर्ग के नियमों से परिचित नहीं हो। तुम मेरे प्रस्ताव पर नपुंसकों की तरह ही बात कर रहे हो, सो अब से तुम नपुंसक हो जाओ। उर्वशी शाप देकर चली गई। जब इंद्र को इस बात का पता चला तो अर्जुन के धर्म पालन से वे प्रसन्न हो गए। उन्होंने उर्वशी से शाप वापस लेने को कहा तो उर्वशी ने कहा शाप वापस नहीं हो सकता लेकिन मैं इसे सीमित कर सकती हूं। उर्वशी ने शाप सीमित कर दिया कि अर्जुन जब चाहेंगे तभी यह शाप प्रभाव दिखाएगा और केवल एक वर्ष तक ही उसे नपुंसक होना पड़ेगा। यह शाप अर्जुन के लिए वरदान जैसा हो गया। अज्ञात वास के दौरान अर्जुन ने विराट नरेश के महल में किन्नर वृहन्नलला बनकर एक साल का समय गुजारा, जिससे उसे कोई पहचान ही नहीं सका।

भागने से मुसीबतें कम नहीं होती
हर किसी के जीवन में सुख और दुख दोनों होते हैं। जो दुखों से डर जाते हैं वे हार जाते हैं,इसलिए अगर जिदंगी में मुसीबतों से छुटकारा पाना है तो उनका सामना करना सीखिए। आप जितना परेशानियों से दूर भागेंगे वे उतना ही आपके पीछे दौड़ेगी। एक बार स्वामी विवेकानन्द मंदिर से लौट रहे थे रास्ते में कुछ बन्दर उनके पीछे पड़ गए। बन्दरों को पीछाकरते देख वे जोर जोर से चलने लगे। बन्दर भी उनके पीछे तेज चलने लगे ये देखकर वे डर के मारे दौडऩे लगे स्वामी जी को दौड़ते देख बन्दर उनके पीछे दौडऩे लगे। दौड़ते दौड़ते अब उनकी सांस फमलने लगी लेकिन बन्दरों ने उनका पीछा करना नहीं छोड़ा।

संयोग से उसी रास्ते से एक संत गुजर रहे थे।उन्होने जब स्वामी जी को भागते हुए देखा तो आवाज लगाकर बोले नौजवान रुक जाओ भागो नहीं रुको और बन्दरों की ओर मुंह करके खड़े हो जाओ। स्वामी जी रुके और बन्दरों की ओर मुंह करके खड़े हो गए। स्वामी जी ने वैसा ही किया थोड़ी ही देर में सारे बन्दर भाग गए स्वामी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब संत ने समझाया कि तुम मुसीबत से जितना भागोगे वो तुम्हारे पीछे उतनी ही तेजी से आएगी। अगर तुम डटकर सामना करो तो भाग जाएगी। स्वामी ने स्वीकृति से सिर हिला दिया।

आपका आईना है आपकी संगत
कहते हैं इंसान का स्वभाव उसका आईना होता है। आपका दूसरों के प्रति व्यवहार ही आपके स्वभाव को बताता है। जो लोग अच्छी संगत मे रहते हैं वे हमेशा नीतीगत बातों में विश्वास करते है। और जिन लोगों की संगत गलत होती है वे हमेशा गलत रास्ते को ही अपनाते है।

एक पिता के दो बेटे थे वह उन दोनों को बचपन में ही छोड़कर व्यापार के लिए चला गया। कुछ दिनों बाद जब वे थोड़े बड़े हुए तो राज्य के राजा ने दौनों को अकेला जानकर अपने साथ सेवा के लिए महल ले गया। दोनों भाई महल पहुचें और राजा की सेवा करने लगे। बड़ा भाई राजा को रोज सुबह नए-नए भजन सुनाता अच्छी अच्छी बातें बताता और राजा का खूब मनोरंजन करता।

बहुत दिनो बाद राजा ने उसके छोटे भाई को अपनी सेवा के लिए बुलाया। वह जब राजा के पास आया तो एक दम उल्टा था उसका छोटा भाई देर तक सोता, अपशब्द कहता। एक दिन उसने गुस्से में आकर राजा को ही गाली दे दी राजा को बहुत गुस्सा आयाऔर उसने सैनिको को बुलाकर उसे मारने के आदेश दे दिए।

जब इस बात का पता बड़े भाई को लगा तो वह राजा से विनती करने लगा कि उसे माफ कर दें यह सब उसने अपनी संगत के कारण किया है। बचपन में मैं साधू के पास रहता था इसलिए मैने अच्छी बातें सीखी औ उसे एक मछुआरा ले गया था इसलिए उसने कोई नीतीगत बात नहीं सीखी। राज ने उसकी बात सुनकर उसके छोटे भाई को माफ कर दिया और उसे सुधार गृह भेज दिया। इसलिए कहते हैं आपकी संगत ही आपकी पहचान बनाती है।

हर परेशानी का हल होता है
अक्सर हम जब परेशानी में होते हैं तो कई बार दूसरों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन अगर हम कोशिश करें तो ऐसे समय में कुछ संकेत हमें उन मुसीबतों से निजात दिला सकते हैं लेकिन जरुरत है उन्हें समझने की और सही मौके पर उनके उपयोग की। हर समस्या का हल वहीं आस-पास ही होता है जरुरत है सिर्फ उसे तलाश करने की।

एक व्यक्ति को पक्षी पालने का बड़ा शौक था। उसने अपने पिंजरे में कई तरह के पक्षी पाल रखे थे। वह व्यक्ति पक्षियों की भाषा जानता था तथा और अधिक सीखने का प्रयास करता था। एक बार वह किसी दूसरे देश जा रहा था तो उसने पिंजरे में बंद पक्षियों से कहा कि मैं दूसरे देश जा रहा हूं। वहां मैं दूसरे परिंदों से उनकी भाषा सीखने का प्रयास करूंगा। अगर तुम्हें कोई संदेश वहां के अपने रिश्तेदारों को देना हो तो बता दो।

परिंदों ने कहा कि तुम दूसरे देश के हमारे रिश्तेदारों से मिलो तो कहना कि हम स्वतंत्रता के लिए छटपटा रहे हैं। हम स्वतंत्र होना चाहते हैं।यह सुनकर वह दार्शनिक यात्रा पर निकल गया। एक दिन वह घूमते-घूमते दूसरे देश के जंगल में पहुंच गया। वहां के पक्षियों को देखकर उसने वही संदेश जो पिंजरे में बंद परिदों ने उसे कहा था उन्हें सुनाया। यह सुनकर उन्होंने कहा कि ठीक है जैसा जिसका भाग्य। फिर उन्होंने कहा कि हमारे यहां एक संत प्रवृत्ति का पक्षी भी है आप उसे यह बात बताईए। और उस व्यक्तिने वह संदेश उस संत प्रवृत्ति वाले परिंदे को भी सुनाई।वह परिंदा गिरा और मर गया। दार्शनिक को बड़ा आश्चर्य हुआ।

थोड़े दिनों बाद जब दार्शनिक वापस अपने घर लौटा तो उसने यह घटना पिंजरे में बंद परिंदों को सुनाई। यह सुनकर पिंजरे में बंद पक्षी भी नीचे गिर गए। उस व्यक्तिने उन्हें निकालने के लिए जैसे ही पिंजरा खोला तो वे सभी पक्षी उड़कर भाग गए। तब दार्शनिक को समझ आया कि परदेश में जो परिंदा गिर कर मर गया था वह वास्तव में मरा नहीं था उसने इनके लिए एक संदेश दिया था।

अपनी खुशी को आज में तलाश करें...

अक्सर लोग भविष्य के सुख की चाह में अपने आज से इस तरह समझौता करते हैं कि आने वाला कल भी उनका आज जैसा ही होता है सुख और शांति से जीने की चाह में आदमी अपने आज में इतना खो जाता है कि आने वाले कल में सुख और शांति की परिभाषा ही भूल जाता है और खुशी शांति जैसे शब्द केवल सुनने मात्र को रह जाते हैं।

एक होटल चलाने वाले व्यापारी ने अपने दोस्त से कहा कि मैं पचपन साल तक कमा लूं फिर शांति से जीऊंगा जब वह आदमी पचपन साल का हो गया तब अपने दोस्त से फिर मिला तब उस दोस्त ने उससे पूछा कि क्या चल रहा है तब वह बोला कि मैं बड़ा परेशान हूं घर में मन नहीं लगता मुझे मेरे काम की याद आती है। होटल की याद आती है पत्नी को शिकायत रहती है कि जैसा व्यवहार होटल वालों के साथ करते थे वैसा ही हुकुम घरवालों पर चलाते हैं। इस पर घर में रोज झगड़ा होता है इसलिए मैंने दोबारा होटल आना शुरु कर दिया।

दोस्त बोला तुमने कल जीने की सोच में अपना अच्छा खासा आज बरबाद कर दिया सब चीजों से फ्री होकर जब तुमने शांति से जीना चाहा तो तुम्हें वो भी अच्छा नहीं लगा। अब तुम खुद सोचो कि तुमने क्या पाया और क्या खोया।

सीखिए मौके का फायदा उठाना
कहते हैं मौके का लाभ उठाने वाला ही अपनी मंजिल को पाता है। जो लोग अवसर का लाभ उठाना नहीं जानते वे जीवन में बहुत कुछ खो देते हैं। इसलिए हर आदमी को मौके का लाभ उठाना सीखना चाहिए। एक गरीब बुढिय़ा के तीन बेटे थे। वह अक्सर बीमार रहने लगी एक दिन उसने अपने बेटों को अपने पास बुलाया और सारे बेटों को एक एक हजार अशर्फियां देकर बोली कि मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं है। तुम ये अशर्फियां लेकर अपना कुछ काम धंधा शुरू करो। चारों बेटे मां का आदेश पाकर अशर्फियां लेकर दूसरे शहरों को चले गए। सबसे बड़े बेटे ने सोचा कि मरो मां ने ये पैसे बड़ी मेहनत से जोड़े हैं मैं इनसे कोई व्यापार शुरू करूगां और खूब मेहनत करूंगा। सह सोचकर उसने नमक का व्यापार शुरू किया। कुछ ही महीनों में उसकी मेहनम रंग लाई और उसे खूब मुनाफा हुआ। इधर उसका दूसरे बेटे ने सोचा कि मेरी मां ने अपना पेट काट काट कर ये पैसे जमा किये होंगें मैं कोई ऐसा काम शुरू करता हूं कि मूलधन सुरक्षित बना रहे और बाकी खर्चा भी चलता रहे।उसने उन पैसों से कपड़े का व्यापार शुरु किया। धीरे धीरे उसका व्यापार भी खूब फलने लगा। वहीं बुढिय़ा का सबसे छोटा बेटा भी एक शहर में पहुंचा और सोचने लगा। मेरी मां गरीब होने का ढ़ोग करती है उसके पास और भी धन होगा। उसने वहां कोई काम नहीं किय और उन पैसों से खूब मौज मस्ती की। कुछ समय बाद तीनों बेटे घर वापस लौटे तो उन्होंने अपनी मां को मरा हुआ पाया। अब क्या था दोनों बड़े बेटे अपना अपना काम संभाल रहे थे और सबसे छोटा बेटा उन दोनो की चाकरी करने लगा। इसलि कहते है मौका रहते जो संभल जाता है वही इंसान अपनी मंजिल को पाता है।

बस हिम्मत चाहिए...आप दुनिया बदल सकते हैं
व्यक्ति के जीवन में परिस्थितियां कैसी भी हों पर जब मन में अटूट विश्वास और अपने आप पर भरोसा हो तो उसकी जीत निश्चित हो जाती है। और दुनिया भी उसके कदम चूमने लगती है। 1960 के ओलम्पिक खेलों में ऐसी ही एक मिसाल बनी इटली की राजधानी रोम की बीस वर्षीय विल्मा रोड़ोल्फ। जो अपने आत्मविश्वास के कारण ही विश्व की सबसे तेज धाविका बनी। विल्मा चार वर्ष की उम्र से ही डबल निमोनिया और काला बुखार के कारण पोलियोग्रस्त थी। लेकिन बचपन से उसका ही सपना रहा कि वह विश्व की सबसे तेज धाविका बनना चाहती थी।

ड़ाक्टरों ने विल्मा को कभी न दौडऩ की सलाह दी लेकिन विल्मा के सपने ने उसके आत्मविश्वास को इतना ऊंचा बना दिया कि उसने असंभव को भी संभव कर दिखाया। ड़ाक्टर के मना करने के बाद भी विल्मा ने अपने ब्रेस उतार दिए और 1960 के ओलम्पिक खेलों में भाग लिया और दौड़ में 126 लोगों से आगे निकल कर विश्व कीर्तिमान बनाया। विल्मा के अपने आत्मविश्वास ने उसकी अपंगता को हरा दिया और उसका मनोबल पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बन गया।

जब बुरा होता है तो अच्छा भी होता है
कभी-कभी इंसान के जीवन में ऐसा समय आता है कि वह चारों ओर से परेशानियों का शिकार होने लगता है। और समय लगातार उसकी सोच के विपरीत ही चलता है। लेकिन जो ईश्वर पर विश्वास रखता है उनके साथ बुराई में भी अच्छाई छुपी होती है। एक बार एक गांव में बाढ़ आने से एक किसान का सब कुछ नष्ट हो गया। परिवार का पेट पालने के लिए उसके पास कुछ न था। वह काम की तलाश में दूसरे गांव गया और एक धनी व्यक्ति के यहां खेतों पर काम करने लगा। उस वर्ष उस व्यक्ति को और सालों की अपेक्षा ज्यादा अच्छी फसल मिली और दाम भी। वह उस किसान से बहुत खुश हुआ। उसने उससे पूछा कि वह ईनाम में क्या चाहता है तो किसान बोला कि आप मुझे जमीन का थोड़ा सा टुकड़ा मुझे खेती के लिए दे दीजिए।

उस साहूकार ने वैसा ही किया। अब किसान ने एक साथी किसान से बैलों की जोड़ी खेत जोतने के लिए उधार ले ली।खेत जोतने के बाद वह उन्हें लौटाने के लिए वापस गया तो साथी किसान ने कहा कि वह उन्हें आंगन में बांध दे। किसान ने वैसा ही किया और चला गया। घर जाकर वह जैसे ही खाना खाने बैठा वैसे वह किसान आया और उसे बोलने लगा कि मेरे बैल कहां हैं तुम्हारी नीयत में खोट आगया है तुम मेरे बैल लौटाना नहीं चाहते हो। मैं राजा से तुम्हारी शिकायत करूंगा।

वह उसे राजा के पास ले गया और राजा से शिकायत करते हुऐ बोला कि इसने मेरे बैल चुराए है मुझे न्याय दिलाऐं। राजा ने दोनों की बात सुनी और शिकायत करने वाले किसान से पूछा कि जब यह तुम्हारे पास बैल लौटाने आया था तब तुमने अपने बैल देखे उसने कहा हां तब राजा ने उस किसान को छोड़ दिया क्यों कि उस किसान ने खुद स्वीकार किया कि उसने खुद अपनी आखों से अपने बैलों को अपने घर में देखा था।

जरूरत से ज्यादा चाह हमेशा दुख देती है
कभी-कभी जरूरत से ज्यादा धन भी घर-परिवार में अशांति फैला देता है। धन का अपना स्वभाव है, वह सीमित मात्रा में मिलता रहे, जरूरत के काम पूरे होते रहें तो कभी परेशानी नहीं आती लेकिन जब अचानक बड़ी मात्रा में पैसा मिल जाता है तो वह परिवार में कहीं-न-कहीं लालच फैलाने का काम करता है। व्यक्ति धन संग्रह करने वाला और लालची होने लगता है यही स्वभाव उसके दु:ख का कारण बनता है।

एक गांव में एक सेठ और बढई पड़ोसी थे। सेठ बड़ा पैसे वाला था लेकिन उसे कोई संतान नहीं थी। उसके घर में केवल पत्नी और बूढ़ी मां थी। इतना धनवान होने के बाद भी उसके घर में शांति नहीं थी। वे दोनों अक्सर झगड़ते रहते थे। वहीं दूसरी ओर बढ़ई के घर में उसकी पत्नी और दो बच्चे थे, वे गरीब थे मगर बड़े प्रेम से रहते थे।एक दिन सेठानी ने सेठ को अपने पास बुलाया और बढई के घर में झांकते हुए कहा कि ये लोग गरीब हैं मगर फिर भी कितने खुश हैं। सेठ ने पत्नी से कहा कि संतोषी को झोपड़ी भी महल लगती है।

सेठानी सेठ जी की बात को समझ नहीं पाई। तब सेठ ने सेठानी को समझाने के लिए एक उपाय किया।सेठ ने अगले दिन पैसों से भरी एक पोटली बढ़ई के घर में फेंक दी। जब बढ़ई ने सेठ से पूछा कि ये पोटली तुम्हारी है तो सेठ ने साफ इंकार कर दिया। बहुत दिनों के इन्तजार के बाद बढ़ई ने सोचा कि इतने पैसों का क्या किया जाए। उसकी पत्नी का दिमाग घूमने लगा।उसने पति को समझाते हुए कहा कि इन पैसों को हम अपनी बेटियों की शादी के लिए रख लेते हैं लेकिन बढ़ई राजी न था, बस अब क्या था बढ़ई के घर में रोज झगड़े होने लगे। अब उनके मन में पहले की तरह संतोष न था। सेठ ने सेठानी से कहा कि जब इनके पास पैसे नहीं थे। तब ये लोग कितने संतोष पूर्वक रहा करते थे पैसों से भरी पोटली मिलने के बाद इनकी जिंदगी में क्लेश हो रहा है।

नफरत का फल कभी अच्छा नहीं होता...
कहते हैं हम जो लोगों को देते हैं वही हमें वापस मिला है। अगर हम किसी को प्यार देगें तो ही हमें बदले में प्यार मिल सकता है और अगर किसी से नफरत करेंगें तो बदलें में प्यार की उम्मीद करना बेकार है। सीता और गीता नाम की दो बहनें थी सीता की शादी सम्मपन्न परिवार में हुई और गीता की एक गरीब परिवार में। एक दिन एक साधू ने गीता को अपनी गरीबी दूर करने के लिए मां वैभव लक्ष्मी का व्रत और पूजन करने को कहा। वह पूरे मन से मां वैभव लक्ष्मी का व्रत करने लगी एक दिन उसके सपने में मां ने दर्शन देकर कहा कि मैं तुम्हारी पूजा से खुश हूं आज से तुम्हारे दुख दूर हो जाऐंगे तुम जिस चीज के बारे में सोचोगी वो तुम्हें मिल जाएगी।सुबह गोबर पाथते हुए उसे सपने की बात याद आई और उसने मन में विचार किया कि ये कण्डे हीरे मोती के हो जाऐं।

जैसे ही उसने मन में विचार किया वे कण्डे हीरे मोती के हो गए। उसने उन हीरे मोतियों से व्यापार शुरु किया और व्यापार उसका व्यापार चल निकला उधर जब यह बात उसकी बहन सीता को मालूम हुई तो वह अपनी बहन से मिलने आई। उसने गीता से पूछा कि इतना सारा पैसा तुम्हारे पास कैसे आया। गीता ने सारा सच अपनी बहन को बता दिया। फिर तो सीता ने भी सोचा कि मैं भी लक्ष्मी जी का व्रत करूंगी। वह भी पूरे मन से वैभव लक्ष्मी का व्रत व उपवास करने लगी। उसे भी मां ने दर्शन देकर आर्शीवाद दिया कि वह जो मांगेगी वह उसे मिलेगा। सीता ने कहा कि गीता जो भी सोचे उसका दोगुना मेरे पास आ जाए। बस फिर क्या था। जो गीता मांगती सीता के पास उसका दोगुना हो जाता। यह सब देख गीता को गुस्सा आने लगा वह सोचने लगी कि मेरी बहन को मेरी सम्मपन्नता हजम नहीं हुई इसलिए उसने मां से ऐसा वरदान मांगा। लेकिन वह भी कम पडऩे वाली नहीं थी वह गुस्से से पागल हो रही थी। उसने अपनी बहन को सबक सिखाने की ठान ली। उसने सोचा कि मेरी एक आंख फूट जाऐ तभी सीता की दोनों आखें फूट गई। फिर उसने सोचा कि मेरा एक पैर टूट जाए वहीं दूसरी तरफ सीता के दोनों पैर टूट गए। गुस्से में गीता को ये भी होश नहीं था कि जाने अनजाने में वह अपना भी बुरा कर रही है। तभी आकाशवाणी हुई और आवाज आई कि तुम दोनों ने अपनी शक्तियों का गलत उपयोग किया है। तुमसे अब इन शक्तियों को वापस ले रही हूं। तब दोनों बहनों को अपनी गलती का एहसास हुआ और दोनों पछतावा करने लगी लेकिन तब तक उनका सब कुछ खत्म को चुका था।

माफी देने वाला होता है सबसे बड़ा
कहते हैं कि गलत काम करने वाले व्यक्ति को सजा देना देना जरूरी होता है। यही सजा उसके लिए सबक बनकर उसे सुधरने में मदद करती है। लेकिन हर बार ऐसा हो ये जरूरी नहीं। कभी-कभी हमारा क्षमादान भी उसे उसकी गलती का एहसास कराके इंसान बनने में मदद करता है।जापान में एक संत थे। लोग उन्हें जापान का गांधी कहा करते थे। वे न कभी किसी के लिए बुरा बोलते, न कभी बुरा सोचते और न कभी किसी का बुरा करते इसलिए लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। वहीं एक आदमी उनसे बड़ी घृणा करता था और चारों ओर संत की प्रशंसा देख उसे बड़ी जलन होती। एक दिन उसने संत को मारने का विचार किया। एक रात वह चुपके से उस संत के घर में जा घुसा। संत को मारने के लिए उसने जैसे ही तलवार निकाली वैसे ही संत की नींद खुल गई। वह बुरी तरह से डर गया और डर के मारे कांपने लगा। उसे लगा कि अब संत शोर मचाऐंगे और सबको इक्कठ्ठा कर लेंगे और ये सब लोग मिलकर मुझे मार डालेगें।

लेकिन उसने देखा कि संत हाथ जोडकर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि हे ईश्वर मेरे इस भाई को सद्बुद्धि दो और इसकी गलती क्षमा करो। यह देख उसे अपने किए पर पछतावा होने लगा। वह संत के पैरों में गिरकर माफी मांगने लगा। संत ने उसे गले लगाया और कहा कि गलती इंसान से ही होती है। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं अब तुम एक अच्छे इंसान बनने की कोशिश करो।

जरूरी है एक दूसरे को समझना
जिदंगी में कुछ रिश्ते बड़े ही नाजुक होते हैं इसलिए उन्हें सहेजना और सम्भालना बड़ा मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही एक रिश्ता है प्रेम का चाहे वो पति पत्नी का हो या प्रेमी प्रेमिका का। एक दूसरे की भावनाओं को न समझ पाना और कभी अपनी भावनाओं को अपने प्रेमी के सामने न रख पाना और उसका आपकी भवनाओं को न समझ पाना दोनों ही स्थिति में रिश्ते गलतफहमी के शिकार होने लगते हैं, नतीजन रिश्तों में दरार आने लगती है। ऐसा ही एक किस्सा है मिर्जा और साहिबा का। दोनों एक दूसरे से बेहद प्यार करते लेकिन साहिबा के भाईयों को दोनों का रिश्ता बिल्कुल पसंद नहीं था इसलिए वे लोग उसकी शादी किसी दूसरी जगह करना चाहते थे।मिर्जा युद्धकला में माहिर था वो साहिबा से जी जान से प्यार करता था इसलिए जिस जगह साहिबा की शादी हो रही थी उसी वक्त वो मण्डप में से ही साहिबा को उठा लाया। दोनों भागते भागते जब थकने लगे तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगे मिर्जा को नींद आ गई तभी साहिबा ने देखा की उसके भाई दोनों को मारने के लिए आ रहे हैं। साहिबा ने सोचा कि अब तो उसके भाई उन दोनों को अपना लेंगें और अपने भाईयों को वह मना सकती है वह यह भी जानती थी कि अगर लडाई हुई तो मिर्जा उसके भाईयों को मार डालेगा इस डर से उसने मिर्जा के सारे तीर तोड़ दिए जैसे ही साहिबा के भाईयों ने धावा बोला अचानक मिर्जा की नींद खुली और वह अपने तीर कमान ढूढऩे लगा जब उसे अपने सारे तीर टूटे हुऐ जमीन पर दिखे तो वह समझ गया कि यह सब साहिबा ने ही किया है और साहिबा के भाईयों ने उसे मार डाला मिर्जा ने सोचा कि साहिबा ने उसे धोखा दिया है लेकिन साहिबा की भावना कुछ और थी जो साहिबा मिर्जा को बता नहीं पाई।इसलिए प्यार में भावनाओं को प्रदर्शित करना और समझना दोनों ही जरूरी हैं।

जीत उसी की होती है जो मुश्किलों से डरता नहीं
जीवन में कई बार ऐसा होता है कि एक साथ कई समस्याएं जीवन को मुश्किल कर देती है। ऐसे समय में हम मुश्किलों से भागने की कोशिश करते हैं। हम जीतना भागते हैं मुश्किलें उतना हमारे पीछे भागती हैं। अगर हम उस मुश्किल हालात में मुसीबतों का डंटकर सामना करें तो एक समय ऐसा आता है जब मुश्किल खुद-ब-खुद आसान हो जाती है।

एक बार एक स्वस्थ आदमी पागलखाना देखने के लिए गया। वहां उसने एक पागल को देखा जो बहुत मोटा-तगड़ा था। उसने सोचा इसे परेशान करता हूं तो उसने जो पागल था उसके पेट पर एक अंगुली रख दी। ऐसा करने से पागल भड़क गया और जो निरिक्षण करने गया था उस आदमी के पीछे दौड़ा लगा दी। इस घटना से वह आदमी एकदम डर गया क्योंकि पागल लगातार उसके पीछे दौड़ता हुआ आ रहा था। दौड़ते-दौड़ते हुए वह आदमी एक पहाड़ी पर चढ़ गया। पहाड़ी के आगे खाई थी।

अब उस आदमी को लगा कि एक कदम आगे बढ़ा तो खाई में गिर जाऊंगा और यहीं खड़ा रहा तो यह पागल मुझे छोड़ेगा नहीं। डर के मारे उसने आंखे बंद कर ली। तब तक पागल उसके पास आ गया था और जैसे ही पागल ने हाथ उठाया तो ये डर के मारे नीचे बैठ गया। पागल ने एक अंगुली ली और उसके आदमी के पेट पर रखी और उल्टे पैर भाग गया।

बेहतर सफलता चाहिए तो यह चीज जरूरी है
काम का जल्दी और ज्यादा परिणाम की आकांक्षा आज के युवाओं की सबसे बड़ी कमजोरी है। जब भी कोई काम करते हैं तो उसके परिणाम ज्यादा-से-ज्यादा चाहते हैं। कई बार जल्दबाजी, लालच और अधैर्य हमारे लिए जोखिम भरा हो सकता है। अच्छे और बेहतर परिणाम के लिए जरूरी है कि हम जो भी काम करें उसमें थोड़ा सब्र कर परिणाम का इंतजार करें। विपरित परिस्थितियों से घबराएं नहीं।

किसी गांव के एक मंदिर में दो भाई पुजारी थे। दोनों ने समय-समय की पूजा आपस में बांट रखी थीं। बड़ा भाई थोड़ा असंतोषी था, जल्दबाज था सो हमेशा कुछ अतिरिक्त करने के चक्कर में लगा रहता। सोचता मंदिर में ज्यादा से ज्यादा समय मैं ही बैठूं ताकि दक्षिणा का बड़ा हिस्सा मुझे मिले। छोटा भाई बड़े की हरकतों का कोई प्रत्युत्तर नहीं देता, वो सिर्फ उसे भगवान की मर्जी मानकर स्वीकार कर लेता। उसे विश्वास था कि भगवान सब देख रहे हैं और एक दिन उसे उसके सब्र का फल अवश्य मिलेगा।

मंदिर के पास ही एक नदी बहती थी। बारीश का मौसम था, एक दिन सुबह से मूसलाधार बारीश शुरू हो गई। दोनों भाई मंदिर में भगवान की प्रतिमा और कुछ मूल्यवान आभूषण को बाढ़ से बचाने के लिए गए। धीरे-धीरे बाढ़ का पानी मंदिर को डूबो रहा था और दोनों भाई शिखर की ओर चढ़ रहे थे। थोड़ी देर में बाढ़ का प्रवाह और बढ़ गया। दोनों भाइयों का विश्वास था कि भगवान उनकी रक्षा करेंगे।

दोनों नाम जप करने लगे। आंखें मूंद लीं, होठों से भगवान का नाम बुदबुदाने लगे। बाढ़ का पानी तेजी से मंदिर के शिखर को छू रहा था। बड़े भाई की बेचैनी बढ़ रही थी, कैसे जान बचाए। छोटे ने धीरज बंधाया भइया, धैर्य रखों भगवान आते ही होंगे। नाम जप और ज्यादा ध्यान लगा कर करो। फिर आंखें मूंद ली, दोनों भाई नाम जपने लगे। लेकिन बड़े से रहा नहीं गया आंखें खोलकर देखा तो बाढ़ का पानी शिखर को आधा डूबो चुका था।

छोटे ने फिर समझाया कि भइया धैर्य रखो अभी तो पानी काफी नीचे है। ध्यान लगाओ और भगवान को पुकारो, वो ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। दूर-दूर तक अथाह पानी है और नदी का बहाव भी तेज है, हम तैर नहीं पाएंगे। अब पानी उनके पैरों को छूने लगा था, कुछ ही क्षणों में शिखर भी डूबने वाला था। छोटा आंखें बंदकर ध्यान में लगा हुआ था लेकिन बड़े से रहा नहीं गया। उसने आंखें खोली और देखा पानी उनके पैरों तक आ गया है तो बोला छोटे तू बैठा रह यहां, कोई भगवान आने वाला नहीं है, मैं तो जैसे तैसे तैर कर प्राण बचा लूंगा।

इतना कहकर उसने शिखर को छोड़ दिया और पानी में कूद पड़ा। बहाव इतना तेज था कि पानी में कूदते ही वह बह गया। छोटे ने फिर आंखें बंद की जप शुरू किया, तभी एक नाव वाला गुजरा, उसने उसे अपनी नाव में शरण दी और सुरक्षित किनारे पर उतार दिया। बड़ा भाई अधैर्य के चलते प्राण गवां बैठा।

दोस्त वो...जो बुराइयों को मिटाए
कबीरदास जी ने कहा है कि निंदक नियरे राखिये आंगन कुटि छवाय बिन साबुन बिना निर्मल करे सुभाय कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ के साथ साथ आपकी बुराईयों को सामने लाकर उनको दूर करने में आपकी मदद करता है। ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती काद्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए। अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा।

जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नीयती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती।

संस्कार और गुण कभी छिपते नही

संस्कार, स्वभाव या आदतें व्यक्ति को भीड़ से अलग पहचान दिलाते हैं। संस्कार या आदतें सिर्फ इसी जन्म की नहीं होती बल्कि पिछले जन्मों से भी साथ में आती हैं। इसीलिये तो कुछ लोग बहुत छोटी उम्र यानी बचपन से ही अपनी अलग पहचान बनाने लगते हैं। जो बच्चा अच्छे संस्कारों को साथ में लेकर जन्म लेता है वह छोटी उम्र से ही श्रेष्ठ और महान कामों को करने लगता है। शायद इसीलिये समाज में यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि -पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। तो आइये चलते हैं ऐसी ही एक छोटी सी घटना की तरफ जो आश्चर्यजनक संस्कारों की नायाब उदाहरण है-

यह एक ऐतिहासिक और पौराणिक कथा है, जिसकी प्रामाणिकता पर भी किसी को संदेह नहीं है। हुआ यह कि बालक शुकदेव चार-पांच वर्ष की उम्र में ही घर छोड़कर ब्रह्म ज्ञान को पाने के लिये चल दिया। शुकदेव के पिता महर्षि व्यासजी ने उन्हें रोका कि अभी तो तुम्हारी उम्र मां की गोद में बैठकर लाड़-प्यार पाने की है, अभी से तुम कहां चले? लेकिन बालक शुकदेव के इरादे पक्के थे, उसने कहा कि पिताजी आप मुझे जाने से नहीं रोकें क्योंकि एक बार अगर इस संसार में फंस गया तो फिर कभी भी आत्मज्ञान प्राप्त नही कर सकूंगा। हर तरह से समझाने और रोकने के बाद भी इरादों का पक्का बालक शुकदेव नहीं माना ओर आत्म ज्ञान की खोज मे अकेला ही घर-बार छोड़कर घर से निकल पड़ा। बुलंद इरादों और अटूट संकल्प का मालिक यह शुकदेव ही आगे चलकर ब्रह्म ज्ञानी शुकदेवजी के नाम से जगत में विख्यात हुए। मतलब साफ है कि जिसके इरादों में चट्टानों जैसी दृढ़ता होती है वह अपनी मंजिल को हर हाल में पा कर रहता है।

रास्ते की कोई भी रुकावट उसे रोक नहीं सकती...

हर व्यक्ति का कोई न कोई सपना अवश्य होता है। अपने सपने को हकीकत में बदलने या मंजिल को हांसिल करने के लिये इंसान हर कोशिश करता है। इंसान ऐसी कोई भी कसर या कमी छोडऩा नहीं चाहता जो आगे चलकर उसकी सफलता में रोड़ा बन जाए। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि संयोग या दुर्भाग्य से एक के बाद एक कई रुकावटें या बाधाएं आती ही जाती हैं। यहां तक कि अच्छे काम को करने में तो और भी ज्यादा रुकावटे आती हैं। लेकिन इंसान यदि सच्चा है और भगवान की नजरों में योग्य है तो उस इंसान की सारी बाधाएं या कठिनाइयां अपने आप ही दूर हो जाती हैं। आइये चलते हैं ऐसी ही एक कहानी में जो हमें बहुत कीमती सबक सिखाती है.......

एक बार एक व्यक्ति भगवान को देने के लिये तलवार और राजमुकुट का उपहार लेकर गया। वह भगवान से एकांत में मिलना चाहता था। लेकिन द्वारपालों ने उसे बाहर ही रोक दिया और मिलने का कारण पूछा। उस व्यक्ति ने तलवार और मुकुट का उपहार देने की बात बताई। लेकिन द्वरापालों ने यह कहकर उसे अंदर जाने से रोक दिया कि भगवान को तुम्हारे इन उपहारों की कोई आवश्यकता ही नहीं है। भगवान का कोई शत्रु नहीं है, इसलिये उन्हें इस तलवार से क्या काम? तथा मुकुट तो धरती के छोटे-छोटे राजा लोग लगाते हैं, भगवान तो इस पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, मालिक हैं उन्हें मुकुट से क्या लेना-देना। यह चर्चा चल ही रही थी कि पास में ही एक बूढ़ा आदमी अचानक ठोकर खाकर गिर गया। उसे देखते ही वह व्यक्ति बात करना बंद करके तुरंत उस बूढ़े को सहारा देकर उठाने के लिये दोड़ा। बूढ़े व्यक्ति की हालत देखकर उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसकी आवश्यक मदद करने के बाद जब वह लोटा तो उसने देखा कि रास्ता रोकने वाले द्वारपाल अब वहां से जा चुके थे। अब वह बगैर किसी रुकावट के सीधा भगवान से मिलने जा सकता था। शायद उस बूढ़े के रूप में भगवान उस व्यक्ति की परीक्षा ले रहा था। उस व्यक्ति के मन में ओरों के लिये दया और करुणा की भावना थी इसीलिये वह परीक्षा में उत्तीर्ण हो सका।

दिल ने बनाया उसे सबसे बड़ा मगर कैसे ?
कभी कभी आदमी के पास धन, दौलत, बंगला, गाड़ी ये सब कुछ तो होता है पर उसका दिल बहुत छोटा होताहै। उसके मन में नतो किसी के प्रति कोई संवेदना होती है और नही किसी के लिए सम्मान । लेकिन जिन लोगों का दिल बड़ा होता है वे अभाव में भी सम्मान के हकदार होते हैं।

एक राजा ने गुरु बनाने का विचार किया। उसने घोषणा करवाई कि जिसका आश्रम सबसे बड़ा होगा उसी को वह गुरु बनाएगा। राजा के गुरु बनने के लालच में बहुत से साधु इक्कठा हुए। राजा बोला महाराज कहिए तब एक साधू ने कहा कि मेरा आश्रम पचास एकड़ मे फैला है, दूसरा साधू बोला कि मेरा आश्रम सौ एकड़ में फैला है । तीसरा साधू बोला कि मेरा आश्रम दो सौ एकड़ मैं फैला है। चौथा साधू बोला मेरा आश्रम एक हजार एकड़ में फैला है। इसी तरह सब अपना अपना बखान कर रहे थे।

वहीं एक साधु चुपचाप बैठा सब की बातें सुन रहा था। राजा ने उससे कहा महाराज आप बताऐं आपका आश्रम कितना बड़ा है। तब साधु बोला राजन मैं यहां नहीं बता सकता इसके लिए आपको मेरे साथ चलना होगा राजा साधु के साथ चल दिया। साधु एक जंगल में पहुंचा और एक पेड़ के नीचे बैठ गया। राजा बोला आपका आश्रम कहां है तब साधू बोला यही मेरा आश्रम है जितना ऊपर आकाश और जितनी नीचे धरती है उतना बड़ा है मेरा आश्रम। राजा साधू के पैरों में गिर गया और उसे ही अपना गुरु बना लिया।
जरुरी नहीं कि जिसके पास पैसा हो वही सबसे बड़ा हो। बड़ा बनने के लिए दिल और भावनाओं का शुद्ध होना जरूरी होता है।

प्यार गर सच्चा हो तो मिलन होकर रहता है

एक बड़ी सुन्दर लाइन है जो सच्चे स्नेह और प्यार की ताकत को बयान करती है। वो पंक्ति कुछ इस तरह है कि -जाकर जापर सत्य सनहू, सो ताहि मिलहिं न कछु संदेहू , यानी जिस भी किसी का किसी के प्रति सच्चा प्यार होगा, तो उसका उससे मिलन होकर रहेगा। कई प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वे समाप्त ही हो गईं हैं। गर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की। तो आइये चलते हैं उस अमर प्रेम कथा की ओर.........

एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।

लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रुके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्यार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है।

सुखी कौन? दुखी कौन, सोचें मगर गौर से...

दुनिया में हर कोई सुखी होना चाहता है। मगर समस्या यह है कि इंसान जिसे सुख समझता है, असल में वह सुख होता ही नहीं। इतना ही नहीं इंसान सुखी होने के जिन रास्तों को अख्तियार करता है, वो उसे सुख की तरफ नहीं बल्कि आखिर में दु:ख के दलदल में ही धकेल देते हैं। इस बात की गहराई को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं, एक सुन्दर कथा की ओर......

एक संत की सभा में एक आदती ने पूछा महाराज आपकी सभा मे सबसे सुखी है। महात्मा ने पीछे बैठे एक आदमी की ओर इशारा किया तब वह आदमी बोला कि इसका प्रमाण क्या है कि सही सबसे सुखी है। संत ने सभा में बैठे राजा से पूछा कि राजन आपको क्या चाहिए राजा बोला मेरे पास तो सबकुछ है बस राज्य को चलाने वाला एक पुत्र चाहिए। फिर एक धनपति से पूछा तुम्हें क्या चाहिए तब धनपति बोला मैं इस नगर का सबसे ज्यादा धनी व्यक्ति बनना चाहता हूं। इस प्रकार सभी ने अपनी अपनी इच्छाऐं महात्मा जी को बता दी ।

आखिर में महात्मा जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए? तब वह व्यक्ति बोला कि मुझे तो कुछ नहीं चाहिए। अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो कृपा करके बस मुझे इता आर्शीवाद दीजिए कि मेरे जीवन में कोई चाह नहीं हो तब पूरी सभा में मौन छा गया और महात्मा जी बोले कि है महानुभावों इस दुनिया में सबसे सुखी वही है जिसने अपनी चाहतों को खत्म कर दिया है।

बड़ी जीत के लिये जरूरी है बड़ी सोच...
मन की शक्ति ही वह ताकत है,जो किसी को भी वो हर काम करने की हिम्मत देती है जिसे कोई इंसान ये सोचता है कि ये मुझसे नही होगा। हर व्यक्ति हर काम कर सकता है सिर्फ जरुरत है तो अपनी पूरी आंतरिक शक्ति से लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करने की।

राघव क्रिकेट की प्रेक्टिस करने लगातार जाता था। बहुत प्रेक्टिस करने के बाद भी वह टीम में सिलेक्ट नहीं हो पाया। जब वह प्रेक्टिस करता तो उसकी मां मैदान में बैठकर उसका इंतजार करती रहती थी। इस बार जब नया प्रेक्टिस सीजन शुरु हुआ, तो वह चार दिन तक प्रेक्टिस पर नहीं आया। क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल मैच के दौरान भी नहीं दिखा। राघव फाइनल मैच के दिन आया। उसने अपने कोच के पास जाकर कहा आपने मुझे हमेशा रिजर्व खिलाडिय़ों में रखा और कभी क्रिकेट टीम में खेलने नहीं दिया लेकिन आज मुझे खेलने दीजिए। कोच ने कहा बेटा मुझे दुख है। मैं तुम्हे यह मौका नहीं दे सकता। फाइनल मैच है कालेज की इज्जत का सवाल है। मैं तुम्हें खिलाकर अपनी इज्जत दांव पर नहीं लगा सकता। राघव ने खूब मिन्नतें की। कोच का दिल पिघल गया।कोच ने कहा ठीक है जाओ खेलो लेकिन याद रखना कि मैंने यह निर्णय अपने कर्तव्य के विरुद्ध लिया है, ध्यान रखना मुझे शर्मिंदा ना होना पड़े।

मैच शुरु हुआ लड़का तूफान की तरह खेला उसने छ: गेंद पर छ: छक्के मारे। उस मैच का हीरो बन गया। उस मैच मैं टीम को शानदार जीत मिली। मैच खत्म होने के बाद कोच उस राघव के पास जाकर पूछा मैंने तुम्हे कभी इस तरह खेलते हुए नहीं देखा। यह चमत्कार कैसे हुआ?राघव बोला कोच आज मेरी मां मुझे खेलते हुए देख रही थीं। कोच ने उस जगह मुड़कर देखा जहां उसकी मां बैठा करती थीं। कोच ने कहा बेटा तुम जब भी मैच की प्रेक्टिस करने आते थे। तब तुम्हारी मां हमेशा उस जगह बैठा करती थीं लेकिन आज मै वहां किसी को नहीं देख रहा हूं। राघव ने बताया कि कोच मैनें आपको यह कभी नहीं बताया कि मेरी मां अंधी थीं। पांच दिन पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। आज पहली बार वो मुझे ऊपर से देख रही हैं।

दोस्त सच्चा है कि बनावटी, ऐसे पहचाने ! !
हमारे मन का स्वभाव ऐसा है कि वह मीठा बोलने वालों को ही ज्यादा पंसंद करता है। अच्छे-बुरे से मन को कुछ लेना-देना नहीं। असली दोस्त की पहचान में भी इसी कारण से इंसान से भूल हो जाती है। व्यक्ति मीठा बोलने वाले मनोरंजक व्यक्ति को ही अपना पक्का दोस्त समझ बैठते हैं, जबकि असलियत में ऐसा कुछ होता नहीं। इस विषय में कबीरदास जी ने बहुत सही बात कही है- निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटि छवाय।
बिन साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।। इसीलिये कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ के साथ साथ आपकी बुराईयों को सामने लाकर उनको दूर करने में आपकी मदद करता है।

ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती का द्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए।

अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा।
जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नियती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती।

अपनी नजर को बदलें, नजारे तो खुद-ब खुद बदल जाएंगे

इंसान को अगर खुद को बेहतर बनाना है और अपनी किसी बुराई को छोडऩा है तो उसे इस बात की शुरूवात खुद से ही करनी होगी। किसी और के भरोसे आप अपनी किसी बुराई को नहीं छोड़ सकते। बस जरूरत है तो केवल दृढ़ विश्वास की।

एक बार की घटना है, भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे के पास एक शराबी युवक आया और हाथ जोड़कर कहने लगा कि गुरूजी मैं बहुत परेशान हूं । यह शराब मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। आप कुछ उपाए बताइए जिससे मुझे पीने की इस आदत से मुक्ति मिल सके।विनोबाजी ने कुद देर तक सोचा और फिर बोले- अच्छा बेटा तुम कल मेरे पास आना, किंतु मुझे बाहर से ही आवाज देकर बुलाना, मैं आ जाऊंगा युवक खुश होकर चला गया।

दिन वह फिर आया और विनोबाजी के कहे अनुसार उसने बाहर से ही उन्हें आवाज लगाई। तभी भीतर से विनोबाजी बोले- बेटा। मैं बाहर नहीं आ सकता। युवक ने इसका कारण पूछा, तो विनोबाजी ने कहा- यह खंबा मुझे पकड़े हुए है, मैं बाहर कैसे आऊं। ऐसी अजीब सी बात सुनकर युवक ने भीतर झांका, तो विनोबाजी स्वयं ही खंबे को पकड़े हुए थे। वह बोला- गुरुजी। खंबे को तो आप खुद ही पकड़े हुए हैं। जब आप इसे छोडेंगे, तभी तो खंबे से अलग होंगे न।युवक की बात सुनकर विनोबाजी ने कहा- यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि शराब छूट सकती है, किंतु तुम ही उसे छोडऩा नहीं चाहते। जब तुम शराब छोड़ दोगे तो शराब भी तुम्हें छोड़ देगी।

उस दिन के बाद से उस युवक ने शराब को हाथ भी नहीं लगाया।वास्तव में दृढ़ निश्चय या इच्छाशक्ति, संकल्प से बुरी आदत को भी छोड़ा जा सकता है। यदि व्यक्ति खुद अपनी बुरी आदतों से मुक्ति पाना चाहे और इसके लिए मन मजबूत कर संकल्प हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत उसे अच्छा बनने से नहीं रोक सकती।

बदले से अधिक सुकून देती है माफी
लोगों को अक्सर यह कहते सुना होगा कि जब तक मैं बदला नहीं ले लेता मेरे कलेजे को ठंडक नहीं पहुंचेगी। मेरा जितना अपमान और नुकसान हुआ है, जब तक सामने वाले का उतना ही बिगाड़ नहीं कर लूं मुझे चैन से नींद नहीं आएगी। ये ऐसी बातें हैं, जिनसे पता चलता है कि इंसान बदले की आग में खुद ही जल रहा है। कभी कभी बदले की भावना में आदमी इतना अंधा हो जाता है कि उसे ये ध्यान भी नहीं होता कि ऐसी भावना कहीं न कहीं उसे ही नुकसान पहुंचाएगी क्योंकि किसी के लिए प्रतिशोध की भावना कभी अच्छा फ ल नहीं देती। आइये चलते हैं ऐसी ही कथा की ओर जो बदले की भावना के नतीजों से रूबरू करवाती है......

एक आदमी ने बहुत बड़े भोज का आयोजन किया परोसने के क्रम में जब पापड़ रखने की बारी आई तो आखिरी पंक्ति के एक व्यक्ति के पास पहुंचते पहुंचते पापड़ के टुकड़े हो गए उस व्यक्ति को लगा कि यह सब जानबूझ करउसका अपमान करने के लिए किया गया है । इसी बात पर उसने बदला लेने की ठान ली।

कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति ने भी एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया और उस आदमी को भी बुलाया जिसके यहां वह भोजन करने गया था। पापड़ परोसते समय उसने जानबूझकर पापड़ के टुकड़े कर उस आदमी की थाली में रख दिए लेकिन उस आदमी ने इस बात पर अपनी कोई प्रतिक्रि या नहीं दी। तब उसने उससे पूछा कि मैने तुम्हें टूआ हुआ पापड़ दिया है तुम्हें इस बात का बुरा नहीं लगा तब वह बोला बिल्कुल नहीं वैसे भी पापड़ को तो तोड़ कर ही खाया जाता है आपने उसे पहले से ही तोड़कर मेरा काम आसान कर दिया है। उस व्यक्ति की बात सुनकर उस आदमी को अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ।

क्षमता को बढ़ाकर पाएं मन चाही तरक्की
कई बार ऐसा होता है कि हम मन लगाकर ईमानदारी से अपना काम करते हैं इसके बाद भी हमारी तरक्की नहीं होती। जबकि जो व्यक्ति हमारे बाद कंपनी में आता है उसकी तरक्की जल्दी हो जाती है। ऐसी स्थिति में हम खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं और अपने मालिक को दोषी ठहराते हैं। आखिर ऐसा हुआ क्यों? इस विषय पर हमारा ध्यान नहीं जाता। जबकि होना यही चाहिए कि सबसे पहले हमें उस व्यक्ति तथा खुद की तुलना करें फिर खुद में बदलाव लाएं और अपनी कार्यक्षमता बढ़ाएं। जब हम ऐसा कर लेंगे तो आपकी तरक्की की बाधा खुद ही हट जाएगी।

किसी गांव में हरिया नाम का एक लकड़हारा रहता था। वह अपने मालिक के लिए रोज जंगल से लकडिय़ां काटकर लाता था। यह काम करते हुए उसे पांच साल हो चुके थे लेकिन मालिक ने न तो कभी उसकी तारीफ की और न ही वेतन बढ़ाया। थोड़े दिनों बाद उसके मालिक ने जंगल से लकडिय़ां काटकर लाने के लिए बुधिया नाम के एक और लकड़हारे को भी नौकरी दे दी। बुधिया अपने काम में बड़ा माहिर था। वह हरिया से ज्यादा लकडिय़ां काटकर लाता था। एक साल के अंदर ही मालिक ने उसका वेतन बढ़ा दिया। यह देखकर हरिया बहुत दु:खी हुआ और मालिक से इसका कारण पूछा।

मालिक ने कहा कि पांच साल पहले तुम जितने पेड़ काटते थे आज भी उतने ही काटते हो। तुम्हारे काम में कोई फर्क नहीं आया है जबकि बुधिया तुमसे ज्यादा पेड़ काटकर लाता है। यदि तुम भी कल से ज्यादा पेड़ काटकर लाओगे तो तुम्हारा वेतन भी बढ़ जाएगा। हरिया ने सोचा कि बुधिया भी उतनी ही देर काम करता थे जितनी देर मैं। तो भी वह ज्यादा पेड़ कैसे काट लेता है। यह सोचकर वह बुधिया के पास गया और उससे इसका कारण पूछा। बुधिया ने बताया कि वह कल काटने वाले पेड़ को एक दिन पहले ही चुन लेता है ताकि दूसरे दिन इस काम में वक्त खराब न हो। इसके अलावा रोज कुल्हाड़ी में धार भी करता है इससे पेड़ जल्दी कट जाते हैं और कम समय में ज्यादा काम हो जाता है।

मुसीबत कोई भी हो बचना आना चाहिये

एक सफल आदमी की पहचान है कि उसे हर परिस्थिति का सामना करना आना चाहिए। किसी मुसीबत में फंसने पर वहां से बच निकलने की कला हर आदमी को सीखनी चाहिए। और जिसे ये कला आती है वह दुनिया को जीतने का दम रखता है। एक आदमी अपने वाक चातुर्य के लिए बड़ा जाना जाता था। एक बार वो कोई गलती करते पकड़ा गया और पुलिस के हत्थे चढ़ गया। उसे जज के सामने ले जाया गया। उसकी बहस सुनकर जज को गुस्सा आने लगा जज ने उस आदमी से कहा कि तुम बहुत चतुर मालूम होते हो, हर बात को अपनी बातों में उलझा देते हो।

जज ने उससे कहा कि तुम अब हर बात का जवाब हां या न में देना।वह व्यक्ति बोला जज साहब अगर आपको आपकी हर बात का जवाब हां या न में चाहिए तो आपने जो मुझे कसम दिलाई है कि मुझे यहां सब सच बोलना है उसे वापस ले लें। जज ने आश्चर्य से पूछा कि ऐसी कौनसी बात है जिसका उत्तर तुम मुझे हां या न में नहीं दे सकते। दौनों अपनी बात पर अड़ गए तब वह व्यक्ति जज से बोला कि ठीक है अगर आप मेरी बात का जवाब हां या न में दे पाए तो मैं आपके हर सवाल का जवाब हां या न में दे दूंगा। जज बोला ठीक है। वह व्यक्ति बोला कि आप ये बताए कि आपने अपनी पत्नी को पीटना बन्द कर दिया। जज दुविधा में फंस गया हां कहने का मतलब था कि वह पहले अपनी पत्नी को मारता था। न कहने का मतलब की अब भी पीटता है।उससे कोई जवाब देते नहीं बना। जज ने उस आदमी को छोड़ दिया। अपने वाक चातुर्य के बल से वह आदमी जेल जाने से बच गया।

सीखें, कठिन समय में सही निर्णय लेना?

मनुष्य के जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं जब उसे तुरंत निर्णय लेने पड़ते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि वह लालच में आकर गलत निर्णय ले लेता है जो परेशानी का कारण बन जाते हैं। इसलिए जब भी विपरीत समय में कोई निर्णय लेने का अवसर आए तो उसके उसके दूरगामी परिणाम के बारे में भी अवश्य सोचें।

किसी गांव में एक लालची व्यापारी रहता था। वह अपने गांव से दूर देश समुद्र की यात्रा करते हुए व्यापार करने जाता था। एक दिन उसके दोस्तों ने उससे पूछा कि क्या तुम्हें तैरना आता है? तो व्यापारी ने कहा- नहीं। दोस्तों ने कहा तुम समुद्र में यात्रा करते हो तो तैरना तो आना ही चाहिए। व्यापारी ने भी सोचा कि सभी ठीक कहते हैं। उसने सोचा क्यों न तैरना सीख लिया जाए लेकिन काम-का में व्यस्तता के कारण उसके पास समय नहीं रहता था।इस कारण जब वह तैरना नहीं सीख सका तो उसने अपने दोस्तों से पूछा कि अब क्या करुं? उसके दोस्तों ने उसे सुझाव दिया कि जब वह कश्ती में जाए तो अपने साथ खाली पीपे (डिब्बे) रख ले और अगर कभी तुफान में कश्ती डुबने लगे तो खाली पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद जाए। ऐसा करने से उसकी जान बच जाएगी। व्यापारी ने ऐसा ही किया। अपनी कश्ती में खाली पीपे रख लिए। संयोग से उसी यात्रा के दौरान समुद्र में तुफान आ गया। जिन लोगों को तैरना आता था वे तो कूद गए।

कुछ ने उससे भी कहा कि खाली पीपे बांधकर कूद जाओ पर व्यापारी सोच रहा था कि अगर में खाली पीपे बांधकर समुद्र में कूद गया तो ये जो दूसरे पीपे जिनमें धन रखा है ये भी सब डूब जाएंगे। धन के लालच में व्यापारी खाली पीपे के स्थान पर धन से भरे पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद गया। इस तरह धन के लालच में उसने अपने प्राण गवां दिए।

छोटी सी गलतफहमी जिसने ली रिश्ते की जान...
जीवन की गहरी समझ रखने वाले अनुभवियों का कहना है कि कई बार आंखों देखा और कानों सुना भी झूंठ हो सकता है। इसलिये किसी भावनात्मक समस्या के मौके पर आवेश में आकर या जल्दबाजी में कोई भी निर्णय नहीं लेना चायिये। जिदंगी में कुछ रिश्ते बड़े ही नाजुक होते हैं इसलिए उन्हें सहेजना और सम्भालना बड़ा मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही एक रिश्ता है प्रेम का चाहे वो पति पत्नी का हो या प्रेमी प्रेमिका का। एक दूसरे की भावनाओं को न समझ पाना और कभी अपनी भावनाओं को अपने प्रेमी के सामने न रख पाना और उसका आपकी भावनाओं को न समझ पाना दोनों ही स्थिति में रिश्ते गलतफहमी के शिकार होने लगते हैं, नतीजन रिश्तों में दरार आने लगती है।

ऐसा ही एक किस्सा है मिर्जा और साहिबा का। दोनो एक दूसरे से बेहद प्यार करते लेकिन साहिबा के भाईयों को दोनों का रिश्ता बिल्कुल पसंद नहीं था इसलिए वे लोग उसकी शादी किसी दूसरी जगह करना चाहते थे। मिर्जा युद्धकला में माहिर था वो साहिबा से जी जान से प्यार करता था इसलिए जिस जगह साहिबा की शादी हो रही थी उसी वक्त वो मण्डप में से ही साहिबा को उठा लाया। दोनों भागते भागते जब थकने लगे तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगे मिर्जा को नींद आ गई तभी साहिबा ने देखा की उसके भाई दोनों को मारने के लिए आ रहे हैं । साहिबा ने सोचा कि अब तो उसके भाई उन दोनों को अपना लेंगें और अपने भाईयों को वह मना सकती है वह यह भी जानती थी कि अगर लडाई हुई तो मिर्जा उसके भाईयों को मार डालेगा। इस डर से उसने मिर्जा के सारे तीर तोड़ दिए जैसे ही साहिबा के भाईयों ने धावा बोला अचानक मिर्जा की नींद खुली और वह अपने तीर कमान ढूढऩे लगा जब उसे अपने सारे तीर टूटे हुऐ जमीन पर दिखे तो वह समझ गया कि यह सब साहिबा ने ही किया है और साहिबा के भाईयों ने उसे मार डाला मिर्जा ने सोचा कि साहिबा ने उसे धोखा दिया है लेकिन साहिबा की भावना कुछ और थी जो साहिबा मिर्जा को बता नहीं पाई। इसलिए प्यार में भावनाओं को प्रदर्शित करना और समझना दोनों ही जरूरी हैं।

ऐसा विलक्षण मौका बार-बार नहीं आता...
सामान्यत: सभी को जीवन में सफलता और सुख के लिए कई मौके मिलते हैं। कुछ लोग सही अवसर को पहचान कर उससे लाभ प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ लोग मूर्खतावश सही मौके को समझ नहीं पाते और सफलता, सुख-समृद्धि से मुंह मोड़ लेते हैं।

एक लड़का था, नाम था उसका सुखीराम। वह बहुत परेशान और दुखी था। सुखीराम के पास कोई खुश होने की कोई वजह नहीं थी। वह शिवजी का भक्त था। उसने भगवान की भक्ति से अपनी किस्मत बदलने की सोचा। अब वह दिन-रात भगवान की भक्ति में डूबा रहता। कुछ ही समय में परमात्मा उसकी श्रद्धा से प्रसन्न हो गए और उसके समक्ष प्रकट हो गए।

भगवान को अपने सामने देखकर सुखीराम ने अपने दुखी जीवन की कहानी सुनाना शुरू कर दी। वह विनती करने लगा कि उसे सभी सुख और ऐश्वर्य के साथ-साथ सुंदर और गुणवान पत्नी भी मिल जाए। इस पर शिवजी ने उसे अपनी किस्मत बदलने के लिए तीन मौके देने की बात कही। शिवजी ने कहा कि कल तुम्हारे घर के सामने से तीन गाय निकलेगी। किसी भी एक गाय की पूंछ पकड़ कर उसके पीछे-पीछे चले जाना तुम्हें सभी सुख प्राप्त हो जाएंगे। ऐसा वर पाकर सुखीराम खुश होकर अपने घर लौट आया। वह सुबह उठकर अपने घर के बाहर गाय के निकलने की प्रतिक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में एक सुंदर सुजसज्जित गाय निकली, उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा कि दो गाय और आना है, शायद अगली गाय और ज्यादा धन, वैभव और सुख-समृद्धि देने वाली हो। इतना सोचते-सोचते वह पहली गाय उसके सामने से निकल गई। दूसरी गाय आई, वह बहुत ही गंदगी लिए हुए थी, उसके पूरे शरीर पर गोबर लगा हुआ था। उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा इतनी गंदी गाय के पीछे कैसे जा सकता हूं? और वह तीसरी गाय का इंतजार करने लगा। तीसरी गाय आई तो उसकी पूंछ ही नहीं थी। सुखीराम सिर पकड़कर बैठ गया और अपनी किस्मत को कोसने लगा।

कहानी का सारंश यही है कि सही मौका मिलते ही उसका लाभ उठाने में ही समझदारी है, अन्य अवसरों की प्रतिक्षा करने से अच्छा है जो भी मौका मिला है उसका फायदा उठा लेना चाहिए।

तरक्की और कामयाबी उन्हें ही मिलती जो...
कई बार ऐसा होता है कि हम मन लगाकर ईमानदारी से अपना काम करते हैं इसके बाद भी हमारी तरक्की नहीं होती। जबकि जो व्यक्ति हमारे बाद कंपनी में आता है उसकी तरक्की जल्दी हो जाती है। ऐसी स्थिति में हम खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं और अपने मालिक को दोषी ठहराते हैं। आखिर ऐसा हुआ क्यों? इस विषय पर हमारा ध्यान नहीं जाता। जबकि होना यही चाहिए कि सबसे पहले हमें उस व्यक्ति तथा खुद की तुलना करें फिर खुद में बदलाव लाएं और अपनी कार्यक्षमता बढ़ाएं। जब हम ऐसा कर लेंगे तो आपकी तरक्की की बाधा खुद ही हट जाएगी।

किसी गांव में हरिया नाम का एक लकड़हारा रहता था। वह अपने मालिक के लिए रोज जंगल से लकडिय़ां काटकर लाता था। यह काम करते हुए उसे पांच साल हो चुके थे लेकिन मालिक ने न तो कभी उसकी तारीफ की और न ही वेतन बढ़ाया। थोड़े दिनों बाद उसके मालिक ने जंगल से लकडिय़ां काटकर लाने के लिए बुधिया नाम के एक और लकड़हारे को भी नौकरी दे दी। बुधिया अपने काम में बड़ा माहिर था। वह हरिया से ज्यादा लकडिय़ां काटकर लाता था। एक साल के अंदर ही मालिक ने उसका वेतन बढ़ा दिया। यह देखकर हरिया बहुत दु:खी हुआ और मालिक से इसका कारण पूछा।

मालिक ने कहा कि पांच साल पहले तुम जितने पेड़ काटते थे आज भी उतने ही काटते हो। तुम्हारे काम में कोई फर्क नहीं आया है जबकि बुधिया तुमसे ज्यादा पेड़ काटकर लाता है। यदि तुम भी कल से ज्यादा पेड़ काटकर लाओगे तो तुम्हारा वेतन भी बढ़ जाएगा। हरिया ने सोचा कि बुधिया भी उतनी ही देर काम करता थे जितनी देर मैं। तो भी वह ज्यादा पेड़ कैसे काट लेता है। यह सोचकर वह बुधिया के पास गया और उससे इसका कारण पूछा। बुधिया ने बताया कि वह कल काटने वाले पेड़ को एक दिन पहले ही चुन लेता है ताकि दूसरे दिन इस काम में वक्त खराब न हो। इसके अलावा रोज कुल्हाड़ी में धार भी करता है इससे पेड़ जल्दी कट जाते हैं और कम समय में ज्यादा काम हो जाता है।

भागने वालों को समस्याएं अधिक घेरती हैं...
हर किसी के जीवन में सुख और दुख दोनों होते हैं। जो दुखों से डर जाते हैं वे हार जाते हैं,इसलिए अगर जिदंगी में मुसीबतों से छुटकारा पाना है तो उनका सामना करना सीखिए। आप जितना परेशानियों से दूर भागेंगे वे उतना ही आपके पीछे दौड़ेगी।

एक बार स्वामी विवेकानन्द मंदिर से लौट रहे थे रास्ते में कुछ बन्दर उनके पीछे पड़ गए। बन्दरों को पीछाकरते देख वे जोर जोर से चलने लगे। बन्दर भी उनके पीछे तेज चलने लगे ये देखकर वे डर के मारे दौडऩे लगे स्वामी जी को दौड़ते देख बन्दर उनके पीछे दौडऩे लगे। दौड़ते दौड़ते अब उनकी सांस फूलने लगी लेकिन बन्दरों ने उनका पीछा करना नहीं छोड़ा।

संयोग से उसी रास्ते से एक संत गुजर रहे थे।उन्होने जब स्वामी जी को भागते हुए देखा तो आवाज लगाकर बोले नौजवान रुक जाओ भागो नहीं रुको और बन्दरों की ओर मुंह करके खड़े हो जाओ। स्वामी जी रुके और बन्दरों की ओर मुंह करके खड़े हो गए। स्वामी जी ने वैसा ही किया थोड़ी ही देर में सारे बन्दर भाग गए स्वामी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब संत ने समझाया कि तुम मुसीबत से जितना भागोगे वो तुम्हारे पीछे उतनी ही तेजी से आएगी। अगर तुम डटकर सामना करो तो भाग जाएगी। स्वामी ने स्वीकृति से सिर हिला दिया, और वाकई ऐसा ही हुआ।

किस्मत के भरोसे रहोगे तो रोना पड़ेगा क्योंकि...
किसी ने सत्य ही कहा है कि किस्मत और कुछ नहीं बल्कि कामचोर लोगों का पसंदीदा बहाना है। कुछ लोग होते हैं जो पूरी तरह से भाग्य पर ही निर्भर रहते हैं। न तो वह कभी अपने काम में सुधार लाते हैं और न ही कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं। उन्हें हमेशा यही लगता है कि जब जो चीज किस्मत में होगी मिल जाएगी। और यदि किस्मत में नहीं होगी तो नहीं मिलेगी। उनकी यही सोच उन्हें तरक्की नहीं करने देती और वे हर बात के लिए अपनी किस्मत को दोष देते हैं।

एक गांव में दो दोस्त रहते थे। एक का नाम मोहन था और दूसरे का सोहन। मोहन मेहनती था। वह हमेशा अपने खेतों में काम करता। खाली समय में भी वह कुछ न कुछ करता ही रहता था। जबकि सोहन आलसी था। वह भाग्य पर अधिक भरोसा करता था। उसने खेतों में काम करने के लिए नौकर रखे थें। वह सोचता था जितना किस्मत में लिखा है उतना तो मिल ही जाएगा। वह कभी-कभी ही खेतों में जाता था। पूरा दिन घर में रहता या फिर इधर-उधर घुमते रहता।वह मोहन से भी यही कहता था कि खेतों में काम करने के लिए नौकर रख ले और खुद आराम करो। भाग्य में जो लिखा है उतना ही मिलेगा। लेकिन मोहन हमेशा यही कहता कि कर्म भाग्य से भी ऊपर है। काम करेंगे तो उसका फल अवश्य ही मिलेगा।

सोहन कई-कई दिनों तक खेत पर नहीं जाता तो नौकर भी खेतों का ध्यान ठीक से नहीं रखते और अपनी मनमर्जी से काम करते। न तो ठीक से बुआई करते और न ही सिंचाई। जबकि मोहन दिन-रात खेतों में काम करता। थोड़े दिनों बाद जब फसल कटने का समय आया तब सोहन खेत पर गया। उसने वहां देखा कि समय पर सिंचाई न होने के कारण फसल मुरझा गई है। उसने अपन नौकरों को बहुत डांटा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वहीं दूसरी ओर मोहन के खेत में शानदार फसल लहलहा रही थी।

यह देखकर सोहन को मोहन की बात याद आने लगी। वह मोहन के पास गया और उससे माफी मांगी और वादा किया कि वह आगे से भाग्य पर निर्भर नहीं रहेगा। क्योंकि भाग्य भी उन्हीं लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं।

मनचाही मंजिल उन्हें ही मिलती है जो...
बड़े खुशनसीब होते हैं वे जिनका सपना पूरा हो जाता है। वरना तो ज्यादातर लोगों को यही कह कर अपने मन को समझाना होता है कि- किसी को मुकम्मिल जंहा नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आंसमा नहीं मिलता। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। मंजिल के मिलने के पीछे लक का हाथ तो होता है, पर एक सीमा तक ही, वरना चाह और कोशिश अगर सच्ची हो तो कायनात भी साथ देती है। अगर आपको जीवन में सफल बनना है तो अपने लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है। आपकी पूरी नजर आपके लक्ष्य पर होनी चाहिए। तभी आपकी सफलता निश्चित हाती है। आइये चलते हैं एक वाकये की ओर...

एक मोबाइल कम्पनी में इन्टरव्यू के लिए के लिए कुछ लोग बैठै थे सभी एक दूसरे के साथ चर्चाओं में मशगूल थे तभी माइक पर एक खट खट की आवाज आई। किसी ने उस आवाज पर ध्यान नहीं दिया और अपनी बातों में उसी तरह मगन रहे। उसी जगह भीड़ से अलग एक युवक भी बैठा था। आवाज को सुनकर वह उठा और अन्दर केबिन में चला गया। थोड़ी देर बाद वह युवक मुस्कुराता हुआ बाहर निकला सभी उसे देखकर हैरान हुए तब उसने सबको अपना नियुक्ति पत्र दिखाया । यह देख सभी को गुस्सा आया और एक आदमी उस युवक से बोला कि हम सब तुमसे पहले यहां पर आए हैं तो तुम्हें अन्दर कैसे बुला लिया। युवक बोला कि आप सब नाराज न हों आप सभी के लिए संकेत आया था पर आप सभी अपनी बातें में मशगूल थे। उन लोगों को जिस जगह पर किसी की आवश्यकता थी वे सारे गुण मेरे अन्दर मौजूद मिले इस लिए उन्होंने मुझे रख लिया।

कहानी बताती है कि सफलता के लिए आपका लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है तभी आपको सफलता प्राप्त हो सकती है।

वक्त उन्हीं का होता है, जो वक्त के साथ चलते हैं
समय के साथ-साथ हमारी सोच में परिवर्तन भी आवश्यक है क्योंकि जीवन का हर पल हमारे लिए कुछ नया लेकर आता है। ऐसे में पुराने विचारों के सहारे हम हमारे जीवन को सार्थक कर पाने में प्राय: असफल ही होंगे। सफल होने के लिए हमें अपनी सोच में कुछ परिवर्तन लाना जरुरी हैं। जब भी हम किसी कार्य में असफल हों इस बात पर विचार अवश्य करें कि इस असफलता का कारण क्या है और इसमें नया क्या किया जा सकता है जिससे कि हमें सफलता मिले।

एक व्यापारी अपने गांव से शहर में जाकर टोपी बेचने का धंधा करता था। वर्षों से उसका एक क्रम था कि वह जब जाता तो रास्ते में एक पेड़ के नीचे भोजन करके कुछ देर विश्राम करता। उस पेड़ पर बहुत सारे बंदर थे वो उसके झोले में से टोपियां निकाल लेते और खेलते थे। व्यापारी जानता था कि बंदर नकलची होते हैं तो वह अपने सिर की टोपी निकालकर फेंकता और इसी तरह बंदर भी अपनी टोपियां निकालकर फेंक देते थे। व्यापारी उन्हें समेटता और चला जाता। यह क्रम सालों तक चलता रहा।

जब व्यापारी बूढ़ा हो गया और उसने उसके बेटे से कहा कि यह धंधा अब तुझे करना है। व्यापारी ने बंदर वाली बात उसे बताई और उपाय भी बताया कि किस तरह बंदरों के सामने अपनी टोपी फेंकना और वे भी टोपी फेंक देंगे। तो पहली बार जब व्यापारी का बेटा गया तो वैसा ही हुआ बंदरों ने उसके झोले से टोपी निकाली और खेलने लगे तो व्यापारी के बेटे ने अपनी टोपी फेंक दी। इस बार बंदरों ने अपनी टोपी नहीं फेंकी बल्कि व्यापारी के बेटे की भी टोपी उठाकर चल दिए।

व्यापारी के बेटे ने अपने पिता की सोच का ही अनुसरण किया जबकि उसे कोई युक्ति सोचनी थी।

इशारों की जुबान समझो और हर संकट से बच जाओ
भविष्य में घटने वाली हर घटना का संकेत घटना के घटित होने से पहले ही मिलने लगता है। जरूरत है तो बस ऐसी पारखी नजरों की जो उन गुप्त संकेतों को वक्त रहते समझ जाए। पूरा ज्योतिष विज्ञान इन्हीं संकेतों, अनुमानों और संभावनाओं पर खड़ होता है।

कई बार ऐसा होता है हम किसी मुसीबत में होते हैं और दूसरों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। ऐसे समय में कुछ संकेत हमें उन मुसीबतों से निजात दिला सकते हैं लेकिन आवश्यकता है उन्हें समझने की और सही मौके पर उनके उपयोगी की। हर समस्या का हल वहीं आस-पास ही होता है जरुरत है सिर्फ उसे तलाश करने की।

एक व्यक्ति को पक्षी पालने का बड़ा शौक था। उसने अपने पिंजरे में कई तरह के पक्षी पाल रखे थे। वह व्यक्ति पक्षियों की भाषा जानता था तथा और अधिक सीखने का प्रयास करता था। एक बार वह किसी दूसरे देश जा रहा था तो उसने पिंजरे में बंद पक्षियों से कहा कि मैं दूसरे देश जा रहा हूं। वहां मैं दूसरे परिंदों से उनकी भाषा सीखने का प्रयास करूंगा। अगर तुम्हें कोई संदेश वहां के अपने रिश्तेदारों को देना हो तो बता दो। परिंदों ने कहा कि तुम दूसरे देश के हमारे रिश्तेदारों से मिलो तो कहना कि हम स्वतंत्रता के लिए छटपटा रहे हैं। हम स्वतंत्र होना चाहते हैं।

यह सुनकर वह दार्शनिक यात्रा पर निकल गया। एक दिन वह घूमते-घूमते दूसरे देश के जंगल में पहुंच गया। वहां के पक्षियों को देखकर उसने वही संदेश जो पिंजरे में बंद परिदों ने उसे कहा था उन्हें सुनाया। यह सुनकर उन्होंने कहा कि ठीक है जैसा जिसका भाग्य। फिर उन्होंने कहा कि हमारे यहां एक संत प्रवृत्ति का पक्षी भी है आप उसे यह बात बताईए। और उस व्यक्तिने वह संदेश उस संत प्रवृत्ति वाले परिंदे को भी सुनाई।

सुनकर वह परिंदा गिरा और मर गया। दार्शनिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। थोड़े दिनों बाद जब दार्शनिक वापस अपने घर लौटा तो उसने यह घटना पिंजरे में बंद परिंदों को सुनाई। यह सुनकर पिंजरे में बंद पक्षी भी नीचे गिर गए। उस व्यक्ति ने उन्हें निकालने के लिए जैसे ही पिंजरा खोला तो वे सभी पक्षी उड़कर भाग गए। तब दार्शनिक को समझ आया कि परदेश में जो परिंदा गिर कर मर गया था वह वास्तव में मरा नहीं था उसने इनके लिए एक संदेश दिया था।

ज्यादा प्रेक्टिस भी हो सकती है हार का कारण
किसी नगर के एक गुरुकुल में चित्रांगद नाम का छात्र था, पूरे गुरुकुल को उस पर गर्व था। वो हमेशा नया सीखने के लिए तैयार रहता, कोई भी नया दांव सीखता और जमकर उसका अभ्यास भी करता। उसके गुरु उससे बहुत खुश थे। कुछ दिनों बाद वहां विश्वजयी नााम का एक और विद्यार्थी आया। वो चित्रांगद से थोड़ा अलग था। हमेशा कुछ नया सोचता था।

उसने भी कम समय में कई सारी विद्याएं सीख लीं लेकिन वो चित्रांगद की तरह अभ्यास नहीं करता था। दोनों में एक अनकही सी प्रतिस्पर्धा होने लगी। एक बार गुरुकुल में प्रतिस्पर्धा का आयोजन किया गया। चित्रांगद और विश्वजीत दोनों इसमें प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे। शर्त थी कि तीन दिन बाद दोनों को जंगल में जाना है और एक-एक शेर का शिकार करके लाना है। चित्रांगद की नींद उड़ गई। पहली परीक्षा थी, सामने विश्वजीत जैसा प्रतिद्वंद्वी।

वो जमकर अभ्यास में भिड़ गया। खाना-पीना भूलकर दिन रात बस कभी धनुष बाण से तो कभी तलवार से अभ्यास करता ही रहता। जबकि विश्वजीत ने इन तीन दिनों में कोई अभ्यास नहीं किया। केवल खूब खाया-पीया और जमकर सोया। गुरुकुल में चित्रांगद की जीत को लेकर लोग आश्वस्त हो गए। फिर प्रतियोगिता का दिन भी आ गया। प्रतियोगिता में अपनी भावी जीत की खुशी को लेकर चित्रांगद को नींद भी नहीं आई। दोनों सुबह अपने गुरुओं का आशीर्वाद लेकर निकल पड़े। जंगल में शेर की तलाश में दोनों अलग-अलग दिशाओं में निकल पड़े।

विश्वजीत ने थोड़ी ही देर में एक शेर का शिकार कर लिया और उसे अपने रथ में लादकर गुरुकुल की ओर चल पड़ा। इधर चित्रांगद पर शेर ने हमला कर दिया। तीन दिन तक लगातार अभ्यास और रातभर जागरण के कारण उसके शरीर में इतनी शक्ति ही नहीं रह गई की वो शेर से मुकाबला कर सके। उसे जान बचाकर भागना पड़ा। शर्मिंदा होकर गुरुकुल लौट आया। उसकी इस हार से सभी आश्चर्य चकित रह गए।

 ज्यादा अभ्यास भी हमारे लिए हानिकारक होता है। सारी विद्या और ज्ञान का महत्व उसके उपयोग में है न कि केवल उसके अभ्यास में। जिस काम के लिए जितने अभ्यास की जरूरत हो उतना ही करना चाहिए। ज्यादा सीखने और ज्यादा परफेक्ट बनने का जुनून भी कभी-कभी हमारी हार का कारण बन जाता है।

स्वार्थ में आदमी इंसान से हैवान बन जाता है!
सही क्या है और गलत क्या है यह लगभग सभी लोग जानते हैं। धर्म किस ओर है तथा अधर्म का साम्राज्य कहां है, यह बात भी उजागर हो ही जाती है। कौन अपने हक की खातिर संघर्ष कर रहा है और कौन अन्याय और अनीतियों के दम पर दूसरों का हक भी हथियाने के मंसूबे बना रहा है, यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं रहता है। फिर आखिर ऐसा कौनसा कारण है कि सब कुछ देखते हुए भी व्यक्ति गलत, अधर्म और अन्याय का ही साथ देता है। आइये इस गंभीर प्रश्र का हल एक रोचक घटना के द्वरा जानते हैं...

एक नगर में एक बहुत प्रसिद्ध विद्यालय था। दूर-दूर के राज्यों के विद्यार्थी वहां पढऩे आया करते थे। इस विद्यालय की प्रसिद्धि के पीछे आचार्य वेदानंद का प्रमुख योगदान था। आचार्य वेदानंद के पढ़ाने का तरीका ऐसा था कि विद्यार्थी उनके बताए सबकों को सदैव के लिय अपने दिल में उतार लेते थे। विद्यार्थियों में उनकी लोकप्रियता को देख कर विद्यालय के सारे साथी शिक्षक मन ही मन उनसे ईष्र्या-द्वेष करते थे। यहां तक कि विद्यालय के प्राचार्य के मन में भी आचार्य वेदानंद के प्रति गहरी जलन की भावना थी। प्राचार्य को लगने लगा था कि यदि आचार्य वेदानंद के गुणों की प्रसिद्धि इसी तरह फैलती रही तो एक दिन प्राचार्य का पद भी उन्हें ही मिल जाएगा।

प्राचार्य रात-दिन इसी उधेड़-बुन में लगा रहता कि किसी तरह से आचार्य वेदानंद को परेशान किया जाए कोई झूंठा और मनगढंत आरोप लगाकर लोगों की नजरों में उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई जाए। लेकिन आचार्य वेदानंद के ज्ञान का प्रकाश इतना प्रखर था कि उसे प्राचार्य की काली योजनाओं का धूंआ और कोहरा रोक नहीं पा रहा था। अब तो प्राचार्य ने हेवानियत की हदें पार कर दी्रं। वह पशुता और नीचता पर उतर आया और एक घ्रणित कार्य कर बैठा। प्राचार्य को किसी भी तरह से अपनी कुर्सी बचानी थी इसलिये वह अपने अंदर से उठने वाली आत्मा की आवाज को हमेशा दबा देता और मन को समझा देता कि आगे बढऩे के लिये किसी को कुचलना पड़े तो भी जायज है। उस नीच प्राचार्य ने आचार्य वेदानंद से जलने वाले सभी शिक्षकों को अपनी तरफ मिला लिया और लालच और डर की घुट्टी पिलाकर पूरी तरह से अपना गुलाम बना लिया।

इंसानियत खो चुके उस प्राचार्य ने चुपके से आचार्य वेदानंद के भोजन में जहर मिलाकर मोत के घाट उतार दिया। आश्चर्य की बात यह थी कि आचार्य वेदानंद से जलने वाले सभी साथी कर्मचारियों को इस नीच योजना की पहले से ही जानकारी थी।

इस तरह उस स्वार्थी और विवेकहीन प्राचार्य ने कुछ समय के लिये अपनी प्राचार्य की कुर्सी सुरक्षित कर ली तथा साथी कर्मचारियों ने कुछ लाभ और छूट प्राप्त कर ली। लेकिन यह अटल सच्चाई दोनों ही भूल गए कि जो फसल उन्होंने आज बोई है वह उन्हीं को काटना पड़ेगी। क्योंकि कार्य-कारण के कर्मफल सिद्धांत से ब्रह्मा जी भी किसी को छुटकारा नहीं दिला सकते।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष