Monday, March 3, 2014

Satya (सत्य)

अहं को छोड़ो, सत्य से नाता जोड़ो
व्यक्ति के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब वह सभी तरह की सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण और वैभव-विलासिताओं से अपने आप को घिरा पाता है। तब यदि उसे अपना बीता हुआ कल या संघर्ष याद रहता है तो वह अपना जीवन, सादा जीवन-उच्च विचार की तर्ज पर ही बिताता है पर अकसर देखा गया है कि वैभव या अधिक सुख व्यक्ति में अहम पैदा कर देता है।

एक वैज्ञानिक था। उसने अपने पूरे जीवन को एक अहम खोज के लिए समर्पित कर दिया था। उसकी खोज थी अपनी ही शक्ल और हाव-भाव का एक और निर्जीव प्राणी बनाना। एक दिन उसका यह आविष्कार भी पूरा हो गया। लेकिन दैव-योग से उसे यह आभास हुआ कि वह अब ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सकता।

लेकिन वह मरना नहीं चाहता था। उसने अपनी शक्ल के दस पुतले बनाये और निश्चित दिन वह उनके साथ मिलकर खड़ा हो गया। यमदूत आये और एक ही चेहरे के ग्यारह लोगों को देखकर असमंझज में पड़ गये। काफी देर रुकने के बाद वे वापस चले गए और धर्मदेव को सब बातें कह सुनाई। सब बातें सुनकर धर्मराज खुद वहां आये और आते ही सब माजरा समझ गए। उन्होंने कहा- यद्यपि सभी पुतले काफी बढिय़ा और एक जैसे हैं पर लगता है जैसे कहीं कोई कमी रह गई हो।

इतना सुनते ही वह वैज्ञानिक सामने आ गया और अहंकार में भर कर बोला कि बताईए कहां और किस पुतले में कमी रह गई है। धर्मराज ने तुरंत उसे अपने पाश में जकड़ते हुए कहा कि इसी में कमी रह गई थी जो आज पूरी हो गई। कहानी का सार यही है कि पद, वैभव, विलासिता और सुख की अधिकता के कारण व्यक्ति को अपना कल यानि मृत्यु नहीं भूलना चाहिए। खासकर अहं को तो अपने जीवन से हटा ही देना चाहिए। आखिर अहम हो भी तो किसका ?

जो दिखता है, वह झूठ भी हो सकता है
जीवन में अक्सर ऐसे अवसर आते हैं जब बिना सच्चाई जानें ही किसी एक निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं जबकि सच्चाई कुछ और ही होती है। जो हमें दिखता है हम उसी पर यकीन कर लेते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि जो दिख रहा है उसमें कितनी सच्चाई है पहले इस पर विचार किया जाए। तभी हम सही सही निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं।

दो मित्र व्यापार करने के लिए रेगिस्तान के रास्ते से दूसरे स्थान पर जा रहे थे। जब काफी दूर निकल आए तो मालूम हुआ कि रास्त भटक गए हैं। उनके पास जो पानी था वह भी खत्म हो गया। दोनों प्यास के मारे बेहाल हो गए। ढूंढते-ढूंढते उन्हें एक झरना मिल गया और वहीं एक बर्तन भी। दोनों मित्र बहुत खुश हुए। उन्होंने जैस ही उस बर्तन में झरने का जल भरा और पिया तो वह बहुत कड़वा निकला। पीने लायक नहीं था वह पानी।

दोनों उस झरने को छोड़कर दूसरे झरने की तलाश में निकले। उस पात्र को साथ में ले लिया। जब दूसरा झरना मिला तो वहां भी उसी बर्तन से पानी भरा और पिया तो वह भी कड़वा था। उनकी हालत और खराब हो गई। कंठ सूख रहा था। आगे फिर एक झरना मिला लेकिन वहां का पानी भी कड़वा था।

उस झरने के पास एक फकीर बैठे थे। उन्होंने उस फकीर से पूछा कि क्या यहां के सारे झरनों का पानी कड़वा है। उस फकीर ने उन्हें देखा और कहा कि यहां के सभी झरनों का पानी पीने लायक है। क्योंकि में तो इन्हीं झरनों पर जी रहा हूं। फकीर ने जब उनके हाथ में उस बर्तन को देखा तो वह समझ गया कि इस बर्तन में ही कुछ है जिससे झरने का पानी कड़वा लग रहा है। उन दोनों मित्रों से कहा कि तुम झरने से सीधे हाथों में लेकर पानी पीयो। उन्होंने बिना पात्र के ही सीधा पानी पिया। एकदम मीठा पानी था। तो तय हुआ कि उन झरनों में तो पानी अच्छा था लेकिन वह बर्तन ही पात्र गंदा था।

जिंदगी पर सबसे भारी पड़ता है झूठ
आज के व्यवसायिक दौर में झूठ बोलना और झूठ के जरिए अपना काम निकालना आम हो गया है। लोग दिन में कई बार जाने-अनजाने झूठ बोलते रहते हैं लेकिन उन्हें उससे होने वाले नुकसान का अंदाजा नहीं होता। कई बार एक झूठ आपकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल बन जाता है। कई बार झूठ आपको पूरी तरह खत्म कर देता है। जीवन में जहां तक संभव हो, झूठ का प्रयोग न करें। अगर झूठ बोलना भी पड़े तो भी इससे बचने का प्रयास करें।

महाभारत के अभिन्न पात्र दानवीर कर्ण ने जीवन में केवल एक बार ही झूठ बोला और यही झूठ उनके जीवन पर सबसे ज्यादा भारी पड़ा। कर्ण ने अस्त्र विद्या भगवान परशुराम से सीखी थी, भगवान परशुराम का प्रण केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र विद्या सिखाने का था। कर्ण ब्राह्मण नहीं थे, लेकिन उन्होंने परशुराम से झूठ बोल दिया कि वो ब्राह्मण है। कर्ण की बात को सच मानकर परशुराम ने उन्हें शस्त्र की शिक्षा दे दी। एक दिन जंगल में कहीं जाते हुए परशुरामजी को थकान महसूस हुई, उन्होंने कर्ण से कहा कि वे थोड़ी देर सोना चाहते हैं। कर्ण ने उनका सिर अपनी गोद में रख लिया। परशुराम गहरी नींद में सो गए। तभी कहीं से एक कीड़ा आया और उसने कर्ण की जांघ पर डंक मारने लगा। कर्ण की जांघ पर घाव हो गया लेकिन परशुराम की नींद खुल जाने के भय से वह चुपचाप बैठा रहा, घाव से खून बहने लगा।

बहता खून परशुराम के चेहरे तक पहुंचा तो उनकी नींद खुल गई। उन्होंने कर्ण से पूछा कि तुमने उस कीड़े को हटाया क्यों नहीं। कर्ण ने कहा आपकी नींद टूटने का डर था इसलिए। परशुराम ने कहा किसी ब्राह्मण में इतनी सहनशीलता नहीं हो सकती है। तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। कर्ण ने सच बता दिया। क्रोधित परशुराम ने कर्ण को शाप दिया कि तुमने मुझसे जो भी विद्या सीखी है वह झूठ बोलकर सीखी है इसलिए जब भी तुम्हें इस विद्या की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी तुम इसे भूल जाओगे, कोई भी दिव्यास्त्र का उपयोग नहीं कर पाओगे। हुआ भी ऐसा ही, महाभारत के प्रमुख युद्ध में जब कर्ण अर्जुन से लडऩे पहुंचा तो वो अपने आप ही सारे दिव्यास्त्रों के प्रयोग की विधि भूल गया और अर्जुन के हाथों मारा गया।

सच कैसे बचा सकता है आपको मुसीबतों से?
सच को लेकर कई बातें प्रचारित की गई हैं। हर समय सच बोलने की बात को लेकर कई लोग यह भी कहते हैं कि कई बार किसी दूसरे कि भलाई के लिए झूठ बोलना पड़ता है। सारी बातों के बावजूद यह सौ फीसदी सही है कि सच का काम सच ही करता है और सच ही आपको कई परेशानियों से बचा सकता है। हममें केवल सच बोलने की हिम्मत होनी चाहिए। यह कहानी हमें जीवन सच के महत्व को बताती है।

बहुत पुरानी बात है, किसी नगर के बाहर जंगल में एक चोर रहता था। दिनभर जंगल में रहता रात को नगर में कहीं चोरी करता अपना गुजारा करता। एक दिन एक संत उसी जंगल में आकर ठहर गए। साधु के आने की बात सुन लोग भी जंगल में आने लगे। धीरे-धीरे वहां सत्संग होने लगा। एक दिन साधु प्रवचन में सच बोलने का महत्व बता रहे थे। चोर भी वहीं छुपकर उनकी बात सुन रहा था। जब सब चले गए तो वह अकेले में साधु के पास आया और बोला आप कहते हैं सच बोलने से भला होता है। अगर में सच कहूंगा तो मेरा बुरा हो जाएगा क्योंकि मैं तो चोर हूं और अगर मैं किसी को अपनी हकीकत बताऊंगा तो लोग मुझे मारेंगे। सच से मेरा भला कैसे हो सकता है। साधु मुस्कुराया और कहा तुम्हारा भी भला ही होगा, चाहे तो आजमा लो। चोर ने सोचा जिंदगी बीत गई चोरी और झूठ में, चलो एक बार सच बोलकर भी देखें। उसने सच बोलने का प्रण किया और चोरी करने निकल पड़ा।

उस दिन उसने सोचा कि राजमहल में ही चोरी की जाए। वह सीधे महल के द्वार पर पहुंचा। द्वारपालों ने रोका, उसका नाम पूछा तो चोर ने जवाब दिया मैं चोर हूं। सिपाही सोच में पड़ गए। उन्होंने सोचा कोई चोर तो ऐसा कहेगा नहीं, यह जरूर राजा का ही कोई गुप्तचर होगा। उन्होंने द्वार खोल दिया। चोर बिना किसी रुकावट के महल में पहुंच गया। रास्ते में कोई भी सिपाही या दासी रोकते, वह सब से सच कहता जाता कि मैं चोर हूं और सभी ने उसे राजा का कोई खास सचिव या गुप्तचर समझकर जाने दिया। वह राजा के कमरे तक पहुंच गया। कुछ आभूषण और सामान उठाया और चल दिया। लौटते में उसे रानी मिल गई।

रानी ने उसके हाथ में राजा के आभूषण देखे तो उसने भी रोका। चोर ने रानी से भी सच ही कहा। रानी ने सोचा कोई चोर ऐसे चोरी थोड़े ही करता है, निश्चित ही राजा का कोई खास सेवक है, जिसे राजा ने पुरस्कार दिया है और मेरे रोकने से यह नाराज हो गया है। इस तरह चोर बिना किसी परेशानी के जंगल तक आ गया। अब उसे यकीन हो गया था कि सच बोलने से किसी बुरे आदमी का भी बुरा नहीं होता, भला ही होता है।

प्राणी के शरीर में होता है भगवान का वास
परमपिता परमात्मा प्रत्येक प्राणी के कण-कण में विद्यमान है मगर उनकों पहचानने के लिए शुद्ध एवं अंतर भाव को जगाना होगा। भगवान का जन्म नहीं होता वे तो अजन्मा है और केवल लीलाएं दिखाते है। जो वस्तु पहले थी आज भी है और आगे भी रहेगी वह ईश्वर है ईश्वरीय भक्ति बिना गुरु के नहीं मिल सकती। किसी संत के पास जाकर उनके चरणों में बैठकर मन के भाव को शुद्ध करना होगा। जिस प्रकार बिजली के तारो में बिजली दिखाई नहीं देती परन्तु उसमें बिजली जरुर रहती है। उसी प्रकार श्रीमन्न नारायण कण-कण में व्याप्त है मगर उनको देखने के लिए चाहिए दिव्य चक्षु। श्रीमन्न नारायण के संकल्प मात्र से हजारों ब्रह्माड बन और बिगड़ सकते है। प्रभू तो भक्तों के आनन्द के लिए अनेन लीलाएं करते है।

भागवत कथा किसी राजा देवों की कथा नहीं यह तो भगवान का वाडमयस्वरूप है जिसके श्रवण मात्र से पानी के पापों का समन व मोक्ष स्वत: ही जाता है। यह मानव जीवन का पुरक ग्रन्थ है जिसका जितना श्रवण करो जिज्ञासा बढ़ती जाती है और परमानन्द की प्राप्ति होती है। यह आत्मा का परमात्मा से साक्षातकार करवाती है। सदगुरु ही जीव को परमात्मा का साक्षातकार करवा सकता है जिस पर गुरु की दृष्टि पड़ जाती है उसका जीवन धन्य हो जाता है।

गुरु की शिक्षा को जीवन में उतारा
राजपुत्र कौरव और पांडव गुरु द्रोणाचार्य के पास शिक्षा लेते थे। एक बार गुरु ने सबको पाठ दिया कि क्रोध कभी नहीं करना चाहिए और सदा सत्य बोलना चाहिए। उन्होंने पाठ याद करने के लिए एक दिन दिया। अगले दिन युधिष्ठिर को छोड़ सभी राजकुमारों ने पाठ सुना दिया। युधिष्ठिर को एक दिन का समय और मिला। युधिष्ठिर अगले दिन भी पाठ नहीं सुना सके। यूं ही सात दिन बीत गए। आठवें दिन गुरु द्रोण ने फिर से पाठ सुनाने को कहा। युधिष्ठिर ने फिर यही कहा कि पाठ याद नहीं हुआ। द्रोण बहुत क्रोधित हुए। वे युधिष्ठिर को पीटने लगे।

युधिष्ठिर शांत भाव से सजा सहते रहे। जब गुरु का क्रोध शांत हुआ तब युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर कहा, ‘गुरुदेव पाठ का पहला भाग है कि क्रोध नहीं करना चाहिए। अब मुझे याद हो गया है, क्योंकि आपने मुझे पीटा इस पर भी मुझे क्रोध नहीं आया। पाठ का दूसरा भाग सदा सत्य बोलना चाहिए का अभी अभ्यास कर रहा हूं। जब इसे में जीवन में उतार लूंगा तब यह पाठ भी सुना दूंगा।’कथा बताती है कि पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करना ही शिक्षा नहीं है। बल्कि ज्ञान अर्जित कर उसे व्यवहार में उतारना ही शिक्षा है।

ईश्वर सभी में दिखाई देते हैं
स्वामी विवेकानंद भारत भ्रमण के दौरान देश के विभिन्न स्थानों पर गए, जगह-जगह कई विद्वान संतों के दर्शन किए। तभी स्वामीजी एक संत से मिले। संत बहुत विद्वान और भगवान के सच्चे भक्त थे। वह संत भी विवेकानंद से मिलकर अतिप्रसन्न हुआ और उसने एक कथा सुनाई। संत ने कहा- एक प्रसिद्ध योगी बाबा गंगातट पर निर्जन वास करते थे। एक रात बाबाजी की कुटिया में एक चोर घुसा आया। कुछ बरतन, कपड़े और एक कंबल ही बाबा की कुल जमा पूंजी थी। चोर बरतनों को बांधकर जल्दी से निकल जाने का प्रयास करने लगा। जल्दबाजी में वह कुटिया की दीवार से टकरा गया और घबराहट में चोरी का सामान वहीं गिर गया और चोर वहां से भाग निकला। बाबा आसन से उठे और चोर के पीछे दौडऩे लगे। काफी दूर तक पीछा करने के बाद बाबा ने चोर को पकड़ ही लिया। भयभीत चोर कांप रहा था लेकिन बाबा उसके चरणों में गिर पड़े और आंखों में आंसू भरकर बोले- 'प्रभु आज आप चोर के वेश में मेरी कुटिया में आए पर आपने कुछ चीजें वहीं छोड़ दी थीं। कृपया इन्हें भी अपने साथ ले जाएं। वह चोर भाव-विभोर हो गया और बाबा के प्रेमपूर्वक किए आग्रह से उसे वह सामान स्वीकारना पड़ा। बाबा ने एक अपराधी में ईश्वर को देखा था।

कथा के अंत में संत ने स्वामी विवेकानंदजी से पूछा कि क्या आप जानते हैं कि वह चोर कौन था? स्वामीजी ने कहा- नहीं मैं उस चोर को नहीं जानता। तब संत ने कहा वह चोर मैं था, उस घटना के बाद मैं चोरी छोड़कर भगवान की भक्ति में लग गया।

मोनिया ने दिया सत्य का साथ
बाल्यकाल में गांधीजी को घर के लोग ‘मोनिया’ कहकर पुकारते थे। अपने समवयस्क मित्रों के साथ मिलकर कुछ न कुछ शरारत करते रहना मोनिया की दिनचर्या का अहम हिस्सा था।एक बार बच्चों ने मिलकर मंदिर के खेत में ठाकुरजी को झूला झुलाने का निश्चय किया। वैसे तो खेलने के लिए बच्चे भगवान की मिट्टी की मूर्तियां बना लेते थे, किंतु इस बार उन्होंने लक्ष्मीनारायण के मंदिर से असली मूर्तियां उठा लाने का विचार किया। यह तय हुआ कि बच्चों में सबसे छोटा चंदू सिंहासन पर से मूर्तियां उठा लाएगा और शेष सभी बालक आसपास छिपे रहेंगे।संयोग से जब बच्चे मंदिर पहुंचे, तो पुजारी जी विश्राम कर रहे थे। चंदू चुपचाप एक-एक कर मूर्तियां उठाकर अपने कुर्ते के पल्लू में रखने लगा। किंतु हड़बड़ी में मूर्तियां आपस में टकरा गई।

इस वजह से पुजारीजी की नींद खुल गई। चंदू और उसके सभी मित्र भागे। पुजारीजी ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया, किंतु असफल रहे। चोरी के आरोप से बचने के लिए चंदू ने भागते-भागते मूर्तियां दूसरे मंदिर के आंगन में फेंक दीं। पुजारी जी ने बच्चों के माता-पिता से शिकायत की। सभी बच्चों को बुलाकर मूर्ति-चोरी के विषय में जब पूछा गया, तो एक ही जवाब मिला- ‘हमें नहीं पता। हम तो मंदिर में खेल रहे थे। ये पूजारी जी तो यूं ही हम पर संदेह कर रहे हैं।’ अंत में मोनिया से पूछा गया तो उसने निर्भय होकर कहा- ‘‘हम लोग खेलने के लिए भगवान की मूर्तियां लेना चाहते थे और खेलकर पुन: मंदिर में रख देते, किंतु चंदू ने भयवश उन्हें दूसरे मंदिर में रख दिया।’’ यह सुनकर सभी बच्चों के मुख पिटाई के डर से पीले पड़ गए, किंतु मोनिया के मुंह से कभी असत्य बात न निकलती थी। सो आज भी उसने सत्य ही बोला। किंतु आश्चर्य, पुजारी जी ने सत्य का सम्मान करते हुए सभी को क्षमा कर दिया।वस्तुत: असत्य की नींव खोखली होती है और सत्य की राह कठिन। इस के बावजूद सत्य को अपनाने से न केवल व्यक्ति के सम्मान में वृद्धि होती है। बल्कि अनेक बार महत्वपूर्ण लक्ष्यों की प्राप्ति भी होती है।

सत्य का पालन कर बने महान गोपालकृष्ण गोखल
एक कक्षा में कुछ छात्रों को गणित के अध्यापक ने पढ़ाने के बाद कुछ सवाल लिखवाए, जिन्हें घर से हल करके लाना था। सभी छात्रों ने घर पहुंचकर किसी न किसी से सहायता लेकर सवाल हल किए। इन छात्रों में एक लड़का ऐसा था, जिसने सभी सवाल स्वयं हल किए, किंतु एक सवाल में वह उलझ गया। अंततोगत्वा उसने उस सवाल को हल करने के लिए अपने एक सहपाठी मित्र से सहायता ली।अगले दिन गणित की कक्षा में अध्यापक ने सभी छात्रों से कॉपी मांगी। सभी कॉपियां जांचने के बाद उन्होंने उस लड़के के सभी सवाल सही पाए, बाकी छात्रों ने कुछ न कुछ त्रुटि की थी। अध्यापक ने उस लड़के की अतीव प्रशंसा की और पूरी कक्षा को उससे प्रेरणा लेने का आग्रह किया। साथ ही उन्होंने प्रसन्न होकर अपनी कलम उस लड़के को पुरस्कार स्वरूप दी, किंतु लड़का फूट-फूटकर रोते हुए बोला- ‘‘मास्टरजी, इनमें से एक सवाल मैंने अपने मित्र की सहायता से हल किया है। फिर मैंने स्वयं सारे सवालों को हल कहां किया? मैंने तो आपको धोखा दिया। मुझे पुरस्कार नहीं दण्ड दीजिए।’’अध्यापक लड़के की सच्चई से खुश होकर बोले- ‘‘अब यह इनाम मैं तुम्हारी सत्यवादिता के लिए देता हूं।’’यही बालक आगे चलकर गोपालकृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोखले को गांधीजी ने अपना राजनीतिक गुरु माना। कथा का सार यह है कि सत्य से हम अपने चरित्र को उस ऊंचाई पर ले जाते हैं। जहां शेष समाज के लिए वह प्रणम्य हो जाता है और प्रेरणा स्तंभ का रूप ग्रहण कर लेता है। इसके अतिरिक्त सत्यपालन से हमें यह आत्मिक शांति भी मिलती है कि हम अनुचित या गलत से उपजने वाले क्लेश से सदा के लिए मुक्त हैं।

निरासक्त भाव से गृहस्थी व हरि भक्ति दोनों संभव है
रामचरितमानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास और अब्र्दुरहीम खान-ए-खाना की मित्रता विख्यात थी। भक्त शिरोमणि तुलसीदास महान रामभक्त कवि थे और रहीम तो कवि, योद्धा और राजनयिक की त्रयी थे। दोनों मित्रों के मध्य काव्य के जरिए अत्यंत दिलचस्प संवाद हुआ करता था। रहीम अपनी जिज्ञासा दोहों के रूप में लिखकर गोस्वामीजी के पास भेजा करते थे और गोस्वामीजी भी उनका उत्तर दोहों में ही लिखकर उनके पास भिजवा देते थे। जो संदेशवाहक रहीम का संदेश लेकर आता था, उसी के हाथ तुलसी अपना संदेश भेज देते।

एक बार रहीम के मन में जिज्ञासा हुई कि कोई व्यक्ति गृहस्थी के जंजाल में फंसे रहकर भी भगवद्भक्ति कैसे कर सकता है? गृहस्थी और प्रभुभक्ति तो परस्पर विपरित हैं। एक बिल्कुल लौकिक और दूसरा अलौकिक। दोनों का एक साथ निर्वाह कैसे संभव है? उन्होंने तुलसीदास को, जो उस समय चित्रकूट में थे, हरकारे के माध्यम से यह दोहा लिखकर भेजा-'चलन-चहत संसार की मिलन चहत करतार।दो घोड़े की सवारी कैसे निभे सवार?अर्थात संसारिक चलन में चलकर भी उस करतार से मिलने का प्रयास करना क्या दो घोड़े की सवारी करना नहीं है? जिसे निभाना स्वयं सवार के लिए असंभव है। हरकारा रहीम का यह पत्र लेकर आगरा से चला और चित्रकूट पहुंचकर तुलसीदास को सौंपा। तुलसी ने पहले तो अपने परम मित्र के पत्र को सम्मानपूर्वक सिर से लगाया और फिर यह उत्तर लिखा-'चलत-चलत संसार की हरि पर राखो टेक।तुलसी यूं निभ जाएंगे दो घोड़े रथ एक।अर्थात संसारिक कर्मों को करते हुए दृष्टि प्रभु पर ही रहनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, हमारे हाथ और मानसिक संसार के कर्म करें, किंतु हृदय इन सबसे निरासक्त रह प्रभु-भक्ति में लीन हो तो गृहस्थ रहकर भी हरिभक्ति संभव है। रहीम उनका उत्तर पढ़कर उनके प्रति भक्ति भाव से विनत हो गए। वस्तुत: विभिन्न सांसारिक आसक्तियों के मध्य निरासक्त भाव से रहने पर उन आसक्तियों के दुष्प्रभाव से भी बचा जा सकता है और प्रभु भक्ति भी संभव है।

दृढं संकल्प से मिलती है सफलता
यह कहानी है लंदन के वालवर्थ उपनगर, जो अपराधियों की बस्ती के रूप में जानी जाती थी। यहां के अधिकांश निवासी निर्धन और अशिक्षित थे। इसी वजह से अपराध का ग्राफ काफी ऊपर था। बस्ती के इस प्रदूषित माहौल ने बच्चों को भी अपनी चपेट में ले लिया था। छोटे-छोटे बच्चे भी गलत कार्यों में संलग्न थे।

ऐसे समय में वहां एक दिन एक युवक कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से अपनी शिक्षा पूर्ण करके आया। उसने बस्ती का माहौल देखा फिर कुछ करने का निश्चय किया। उसने पहले बस्ती के लोगों से परिचय बढ़ाया और धीरे-धीरे उनके साथ घुल-मिल गया। जब सभी उसे पसंद करने लगे, तब उसने अपने छोटे से कमरे में बस्ती के बच्चों को पढ़ाना आरंभ किया। वह उन्हें दैनिक जीवन की छोटी, किंतु महत्वपूर्ण बातें बताता और उदाहरणों से अपनी बातों की पुष्टि करता। फिर धीरे-धीरे वह उन्हें उत्तम संस्कार भी देने लगा। बस्ती के लोगों ने महसूस किया कि यह युवक उनके बच्चों को सही शिक्षा दे रहा है क्योंकि उन्होंने कार्य व आचरण दोनों स्तरों पर अपने बच्चों में काफी सुधार देखा। इससे बस्ती के लोगों में युवक के प्रति विश्वास बढ़ा। युवक ने अपने काम को आगे बढ़ाते हुए उन लोगों से सप्ताह में एक दिन कोई अपराध न करने और प्रत्येक रविवार को उसकी कक्षा में आने का आग्रह किया। युवक की अच्छाई से अभिभूत लोगों ने इसे स्वीकार किया। फिर लोगों ने स्वयं ही तय किया कि वे चार दिनों तक कोई अपराध नहीं करेंगे।

धीरे-धीरे वालवर्थ का पूर्णत: कायाकल्प हो गया और वह सभ्य समाज का एक अंग बन गया। वह समाज सुधारक युवक बाद में भारत आया, जिसे सी.एफ. इंड्रयूज (दीनबंधु) के नाम से जाना गया।
यह सत्यकथा संकेत करती है कि यदि संकल्प दृढं हो, तो मार्ग में आने वाली तमाम बाधाएं हटती जाती हैं और सफलता के द्वार खुलते जाते हैं। कार्य कितना ही जटिल क्यों न हो, यदि मन का संकल्प मजबूत हो, तो अंत में सफलता प्राप्त हो ही जाती है।

बेईमानी से यश और आत्मिक शांति नहीं
बंगाली कथा साहित्य में एक सच्ची घटना ईमानदारी की शानदार मिसाल है। दुर्गाचरण बाबू कोलकाता के विख्यात चिकित्सक थे। अधिकांश लोग उन्हें नाग महाशय के नाम से जानते थे। उन्होंने रामकृष्ण परमहंस की अनमोल शिक्षाओं को अपने आचरण में यथावत उतार लिया था और इसी वजह से वे लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गए थे।

नाग महाशय के पिता कोलकाता के एक बड़े प्रतिष्ठान में काम करते थे। एक बार प्रतिष्ठान के मालिक ने उनके पिता को बुलाकर कहा-मेरे एक घनिष्ठ रिश्तेदार गंभीर रोग से पीडि़त हैं। क्या आपका पुत्र उनका इलाज कर सकता है? उन्होंने तत्काल स्वीकृति दी और वे मरीज को अपने पुत्र के पास ले गए। मरीज की हालत वास्तव में गंभीर थी किंतु नाग महाशय के कुशल एवं लंबे उपचार से वे पूर्णत: स्वस्थ हो गए।

इससे प्रसन्न होकर उन सज्जन ने नाग महाशय को रुपयों से भरी थैली देना चाही, किंतु नाग महाशय ने उसमें से मात्र बीस रुपए रखे और थैली वापस करते हुए कहा- मेरी मेहनत का सही प्रतिफल इतना ही है। सज्जन के जाने के बाद नाग महाशय के पिता, पुत्र के इस व्यवहार से क्षुब्ध होकर बोले-जब वे प्रसन्न होकर रुपए दे रहे थे तो तुमने क्यों नहीं लिए? इस तरह से तो तुम कभी प्रगति नहीं कर पाओगे। नाग महाशय ने कहा- मेरा पारिश्रामिक इतना ही था। इसके अतिरिक्त मेरे गुरु और स्वयं आपने भी मुझे सत्य व धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी है। मैं धर्म विरुद्ध कैसे जाता। पुत्र का विवेक पूर्ण उत्तर सुनकर पिता का क्रोध शांत हो गया।
कथा सार यह है कि बिना परिश्रम और बेईमानी से हासिल धन से संपन्नता आ सकती है, किंतु यश और आत्मिक शांति नहीं। यश और शांति तो ईमानदारी से अर्जित धन से ही मिल सकती है क्योंकि ईमानदारी एक सद्वृत्ति है और सद्वृत्तियां सदैव मनुष्य को सही राह दिखाती है।

सफलता के लिए चाहिए सच्ची लगन
उन्नीसवीं सदी की घटना है। एक बार बंगाल में भीषण अकाल और महामारी का कहर टूट पड़ा। लोग दाने-दाने को तरसने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। ऐसी विकट स्थिति में एक दिन बाजार में एक असहाय बालक एक व्यक्ति से पैसे मांगने लगा-बाबूजी दो पैसे दे दो, बहुत भूखा हूं। उस व्यक्ति ने पूछा- यदि में तुम्हें चार पैसे दूं, तो क्या करोगे? बालक ने जवाब दिया-दो पैसे की खाने की सामग्री लूंगा और दो पैसे मां को दूंगा।

व्यक्ति ने फिर प्रश्न किया-अगर मैं तुम्हें दो आने दूं तो? अब बालक को लगा कि यह व्यक्ति उसका उपहास कर रहा है और वह चलने को हुआ। तब उस व्यक्ति ने बालक का हाथ पकड़ लिया और आत्मीयता से बोला- बताओ दो आने का क्या करोगे? बालके की आंखों में आंसू आ गए। वह बोला-एक आने का चावल लूंगा और शेष मां को दूंगा। मां की प्राणरक्षा हो जाएगी। तब उस व्यक्ति ने बालक को एक रुपया दिया। बालक प्रफुल्लित हो कर चला गया।

वही व्यक्ति कुछ वर्षों बाद एक दुकान के सामने से गुजर रहा था। दुकान पर बैठे युवक की दृष्टि जैसे ही उस व्यक्ति पर पड़ी, वह दौड़कर आया और उसके चरण छूकर विनम्रता के साथ उसे अपनी दुकान पर ले गया। युवक ने अपना परिचय देते हुए कहा-श्रीमान। मैं वही बालक हूं, जिसे आपने अकाल की विभीषिका में दो पैसे मांगने पर एक रुपया दिया था। उसी एक रुपए से मैं यह दुकान खड़ी कर पाया हूं। व्यक्ति ने युवक को सीने से लगाते हुए कहा-बेटे। यह सफलता तुम्हें मेरे एक रुपए के कारण नहीं बल्कि तुम्हारी लगन व परिश्रम के मिली है। वह युवक विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर थे, जिनके जीवन की यह घटना संदेश देती है कि लगन और मेहनत के बल पर कठिनतम लक्ष्यों की प्राप्ति भी की जा सकती है और सफलता की नई ईबारत लिखी जा सकती है।

सिर्फ अहंकार ही व्यर्थ होता है
नारद पुराण की इस कथा में निरभिमानता का महत्व दर्शाया गया है। एक ऋषि थे- सर्वथा सहज, निराभिमानी, वैरागी और परम ज्ञानी। दूर-दूर से लोग उनके पास ज्ञानार्जन के लिए आते थे। एक दिन एक युवक ने आकर उनके समक्ष शिष्य बनने की इच्छा प्रकट की। ऋषि ने सहमति दे दी। युवक, ऋषि के पास रहने लगा। वह ऋषि की शिक्षा को पूर्ण मनोयोग से ग्रहण करता।

एक दिन ऋषि ने कहा-जाओ, वत्स। तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। अब तुम इसका उपयोग कर दूसरों का जीवन बेहतर बनाओ। युवक ने उन्हें गुरुदक्षिणा देना चाही, तो ऋषि बोले-यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो वह चीज लेकर आओ जो बिल्कुल व्यर्थ हो।

युवक व्यर्थ चीज की खोज में चल पड़ा। उसने चलते-चलते सोचा कि मिट्टी ही सबसे व्यर्थ हो सकती है। यह सोचकर उसने मिट्टी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह बोल उठी-तुम मुझे व्यर्थ समझते हो? धरती का सारा वैभव मेरे गर्भ से ही प्रकट होता है। ये विविध रूप, रस, गंध क्या मुझसे उत्पन्न नहीं होते? युवक मिट्टी छोड़कर आगे बढ़ा, तो उसे गंदगी का ढेर दिखाई दिया। उसने गंदगी की ओर हाथ बढ़ाया तो उसमें से आवाज आई-क्या मुझसे बेहतर खाद धरती पर और कहीं मिलेगी? सारी फसलें मुझसे ही पोषण पाती है, फिर मैं कैसे व्यर्थ हो सकती हूं। युवक सोचने लगा कि वस्तुत: सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने आप में उपयोगी है। व्यर्थ और तुच्छ तो वह है जो दूसरों को व्यर्थ व तुच्छ समझता है और वह अहंकार के सिवाय और क्या हो सकता है। वह तत्काल ऋषि के पास जाकर बोला कि वह गुरुदक्षिणा में अपना अहंकार देने आया है। यह सुनकर ऋषि बोले-ठीक समझे वत्स। अहंकार के विसर्जन से ही विद्या सार्थक व फलवती होती है।

कथा का सार है कि दुनिया में व्यर्थ सिर्फ अहंकार ही होता है। जो कुछ देने के स्थान पर है , उसे भी नष्ट कर देता है। इससे सदैव बचना चाहिए।

मानवता ही सबसे बड़ा धर्म
एक दिन घनश्यामदास बिड़ला अपने दफ्तर जा रहे थे। दफ्तर जाने में देर हो गई थी। इसलिए ड्राइवर गाड़ी तेज गति से चला रहा था। जब गाड़ी एक तालाब के पास से होकर गुजर रही थी, तो वहां लोगों की भीड़ लगी दिखी। बिड़लाजी ने ड्राइवर से पूछा- क्या बात है? इतनी भीड़ क्यों है? ड्राइवर ने उतरकर देखा फिर बताया कि सर, कोई लड़का पानी में डूब रहा है।

घनश्यामदास तत्काल गाड़ी से उतरे और उस भीड़ को चीरते हुए तालाब तक पहुंचे। वहां जाकर देखा तो हैरान रह गए। एक दस वर्षीय बालक पानी में हाथ-पैर मार रहा था, किंतु किनारे पर खड़े लोगों में से कोई भी उसकी मदद के लिए आगे आने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। बस लोग खड़े होकर बचाओं, बचाओं चिल्ला रहे थे। बिड़लाजी तुरंत ही जूते पहने-पहने ही पानी में कूद गए। बालक को पकड़ा और तैरकर उसे भी बाहर ले आए। फिर उसे अपनी कार में डालकर अस्पताल पहुंचे। बच्चे के पेट में काफी पानी भर गया था। किंतु कुछ देर के इलाज के बाद वह स्वस्थ हो गया।

बिड़लाजी उसी तरह भीगे हुए अपने दफ्तर पहुंचे। उन्हें इस दशा में देखकर सभी कर्मचारी अवाक रह गए। जब उन सभी को बिड़लाजी के द्वारा बालक के प्राण बचाए जाने का समाचार मिला तो हर ओर से बिड़लाजी की प्रशंसा के स्वर उठने लगे। सभी ने कहा- सर, आप महान है। इस पर बिड़लाजी ने कहा- इसमें महानता की क्या बात है? यह तो मेरा कर्तव्य था।

सच ही है मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है और जो अपने सारे स्वार्थ व काम छोड़कर इस धर्म का पालन करता है वही सच्चा मानव है।

सावधान! आईने को मत तोड़ो
एक पागल आदमी था। वह अपने आप को बहुत सुन्दर समझता था। जैसा कि सभी पागल समझते हैं कि पृथ्वी पर उस जैसा सुन्दर दूसरा कोई नहीं है। यही पागलपन के लक्षण हैं लेकिन वह आईने के सामने जाने से डरता था और जब भी कोई उसके सामने आईना ले आता तो वह आईने को फोड़ देता था। लोग पूछते ऐसा क्यों? तो वह कहता कि मैं इतना सुन्दर हूं और आईना कुछ ऐसी गड़बड़ करता है कि मुझे कुरूप बना देता है। मैं किसी आईने को नहीं सहूंगा। वह कभी आईना न देखता।

मनुष्य भी पागल की तरह ही व्यवहार करता है, वह यह नहीं सोचता कि आईना वही तस्वीर दिखाता है, जो मैं हूं। आईने को कोई मेरा पता तो मालूम नहीं जो वह मुझे बदसूरत बनाएगा। लेकिन बजाय ये देखने के हम आईना तोडऩे में लग जाते हैं।

परेशानियों से दूर भागने वाले लोग उन्हीं आईना तोडऩे वाले लोगों की तरह होते हैं। अगर संसार आपको दुख का कारण लगने लगे, तो याद रखना संसार एक दर्पण से ज्यादा नहीं। अगर कांटे इकठ्ठे किये हैं तो दिखाई तो पड़ेगे। ये दुनिया हमारा ही अक्स है, जो हमारे अंदर है वही री-इको हो उठता है। क्या कभी कोई अपने अक्स को कैद कर पाया है, नहीं ना तो आप कैसे कर पाएंगें। अगर परेशानियों से पीछा छुड़वाना है तो खुद को बदलना होगा न कि आईने को तोडऩा।

सोचना छोड़ दो...
एक व्यक्ति ने साधु से कहा था कि मेरी पत्नी धर्म मे श्रद्धा नहीं रखती है। आप उसे थोड़ा समझा दें तो अच्छा होगा। दूसरे दिन सुबह ही वह साधु उस व्यक्ति केघर गया । घर के बाहर ही उस व्यक्ति की पत्नी मिल गई। साधु ने उस से पूछा तुम्हारा पति कहां है। पत्नी ने कहा - जहां तक मुझे पता है, इस समय वो किसी चमार की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं। सुबह का धुंधलका था। पति उपासना घर में माला फेर रहा था । उससे यह झूठ सहा नहीं गया। वह बाहर आकर बोला यह बिल्कुल झूठ है। मैं अपने मंदिर में था। पर पत्नी बोली क्या तुम सच में मंदिर में थे ? क्या माला हाथ में, शरीर मंदिर में और मन कहीं और नहीं था? पति को होश आया । सच ही वह माला फेरते हुए चमार के दुकान में चला गया था। उसे जूते खरीदने थे और रात्रि को ही अपनी पत्नी से कहा था कि मैंने चमार की दुकान पर बहुत सुंदर जोड़ी जूते देखें हैं और सुबह होते ही उन्हें खरीदने जाऊंगा । फिर विचार में ही उसका चमार से मोल-तोल पर झगड़ा हो रहा था।इस पर साधु बोला तुम्हारे हाथों में ली गई माला झूठी है। तुम्हारा मंदिर में बैठने का कोई अर्थ नही है। जो विचारों के प्रवाह बिना कोई भी काम करता है, वह जहां भी है मंदिर हो जाता है। विचार छोड़ दो तो तुम जहां हो वही प्रभु का आगमन हो जाता है ।

क्या हम से भी अधिकांश लोग ऐसे नही हैं , जो शरीर से जहां होते है आत्मा से वहां होते ही नही हैं। कर कुछ और रहे होते है और सोच कुछ और रहे होते हैं इसलिए कुछ भी प्राप्त नही कर पाते हैं।

नब्बे नहीं सौ ही चाहिये
हम में से अधिकतर लोगों के साथ यही समस्या है। जेब में नब्बे रुपए हैं, तो उसका फायदा नहीं उठाएंगें। बस इसी प्रयास में लगे रहेंगें कि दस रुपए और मिल जाए और सौ रुपए हो जाएं। नब्बे रुपए का सुख नहीं भोगेंगे। दस रुपए का दुख भोगेंगे। दस रुपए के पीछे भागते हुए सारी दुनिया भाग रही है। हम कभी अपने से छोटों को देखकर नहीं जीते हैं। हम सभी काम्पीटिशन में जी रहे हैं इसलिए दुखी हैं, अगर पड़ोसी के घर में कार हो और हमारे घर में नहीं तो यह हमारे लिए सीधी चुनौती हो जाती है। आदत हो चुकी है। हमें पड़ोसी की आवश्यकता को अपनी आवश्यकता बनाकर जीने की। इसलिए जीवन में इतने दुख इतना संघर्ष है इतनी पीड़ाएं हैं क्योंकि जीवन में केवल वही सुखी है जो दुख में भी सुख खोजकर जीना जानता है। एक बार की बात है। एक महात्मा के पास एक आदमी और उसकी पत्नी पंहुचे। बड़े परेशान से और बुझे-बुझे से लग रहे थे। महात्मा जी ने उनसे उनकी परेशानीकारण पूछा तो वे बोले मैं बहुत परेशान हंू। मुझे बिजनेस में एक लाख का घाटा हुआ है। मन बड़ा बेचैन हो गया है। उसके पीछे उसकी पत्नी बैठी थी, वह धीरे से मुस्कुराई और बोली महाराज मेरे पति झूठ बोल रहे हैं। इनकी बातों में मत आना इन्हें कोई घाटा नहीं हुआ।

महात्मा ने कहां आखिर सच्चाई क्या है तुम कहते हो घाटा, पत्नी कहती है कोई घाटा नहीं, सही क्या है। वह आदमी बोला मेरी पत्नी नहीं समझती मुझे पूरे एक लाख का नुकसान हुआ है। उसकी पत्नी बोली ये तो झूठ है एकदम सफेद झूठ। महात्मा ने उसकी पत्नी कहा सच कहो आखिर बात क्या है? उसकी पत्नी बोली दरअसल बात यह है कि इन्होने जो सौदा किया था। उसमे इन्हे इनके गणित के हिसाब से इन्हें दो लाख का फायदा होना चाहिए था। लेकिन एक लाख का ही फायदा हुआ है, इसलिए दुखी है। पत्नी सुखी है क्योकि वह एक लाख के फायदे को देख रही है। पत्नी ने दुख में से सुख को खोज लिया है। पति दुखी है क्योंकि वह जो खो गया है, उसमें ही जी रहा है। जो मिल गया उसके महत्व को नहीं समझ रहा है। मिला है उसका आनंद नही उठा रहा है, बल्कि जो नहीं मिला है उसका दुख उठा रहा है।महात्मा ने उससे कहा दुनिया की कोई चीज तुम्हें सुखी नहीं का सकती क्योंकि तुम अपने लिए नही जी रहे तुम दुनिया को दिखाने के लिए जी रहे हो। दुनिया के लिए जीने वाला कभी सुखी नही रह सकता। इसलिए तुम बिना कारण ही दुखी हो मैं तो क्या कोई भी तुम्हारी इस समस्या का हल नहीं बता सकता जब तक तुम नही चाहते तुम्हे कोई भी सुख सुखी नही कर सकता।

ज्यादा चाहत मुसीबत में डाल सकती है
किसी भी चीज की आवश्कता से अधिक चाह हमेशा इंसान को मुसीबत में डालती है। लालच ने कभी किसी को सुख नहीं दिया। जरुरत से ज्यादा किसी भी चीज की चाहत इंसान के पतन का कारण बन जाती है । सुमित और अमित दो बहुत गहरे दोस्त थे। दोनो का ख्वाब था अमीर बनने का कालेज खत्म होने के बाद दोनों को कोई ठीक ठाक नौकरी नहीं मिली कोई रास्ता नहीं मिला तो उन्होने चोरी करना शुरु कर दिया। क्योंकि चोरी के अलावा कोई रास्ता भी नहीं था सपने ही इतने बड़े थे कि छोटा - मोटा वेतन उनके सपनों को पूरा नहीं कर सकता था। चोरी का रास्ता ही एक ऐसा रास्ता था जिससे दोनो बहुत जल्दी अपने सारे सपने को पूरा कर सकते इसलिए दोनों को इस काम को करने में आनंद आने लगा । दोनों रात के अंधेरें में अपने घर से निकलते और अपने आसपास के क्षेत्र के बड़े घरों में जाकर हाथ साफ करते। रात में दोनो चुपचाप अपने घर चले जाते।

सुबह जाकर सारा सामान चोर बाजार में बेच आते। धीरे- धीरे उनकी आदत बन गई उनके मन का डर खत्म होने लगा और लालच बढऩे लगा। एक दिन दोनों एक बड़े ज्वेलरी शो रुम में चोरी करने घुसे। इतने बड़े शोरुम में अथाह ज्वेलरी देखकर दोनों का दिमाग काम नहीं कर रहा था। तभी सुमित की नजर एक कांच की पेटी में रखे एक बड़े हीरे पर गई। हीरे की झिलमिलाहट ऐसी थी कि लालच में उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। वह तुरंत उस बक्से के पास पहुंचा लेकिन जब उसने उसे खोलने का प्रयास किया तो दुकान में लगी। घंटियां गुंज उठी । अमित जोर से चिल्लाया भाग सुमित नहीं तो पकड़े जाएंगे, लेकिन सुमित के मन में तो लालच इतना घर कर गया था कि वह उस हीरे के मोह को छोड़ नहीं पा रहा था। तभी अमित ने एक बार फिर आवाज लगाई तों उसने कहा तुझे जाना हो तो तु जा मैं इस हीरे को छोड़कर नहीं जा सकता। फिर से सुमित पेटी खोलने के प्रयास में जुट गया। तभी दूकान का मालिक पुलिस को लेकर वहां पहुच गया। सुमित रंगे हाथों पकड़ा गया। जब उसकी आंखों से लालच का परदा उठा तो उसे समझ आया कि उसके लालच ने उसे कहां फसा दिया है। अपने सच्चे दोस्त की बात ना मानने का और अपने अंधे लालच ने उसे सलाखों के पीछे पहु़चा दिया है।

खुशी ढूंढने से नहीं मिलेगी
एक छोटे से घुटने के बल चलने वाले बच्चे ने एक दिन सूर्य के प्रकाश में खेलते हुए अपनी परछाई देखी। उसे एक अद्भुत वस्तु लगी क्योंकि वह हिलता तो उसकी वह छाया भी हिलने लगती थी। वह उस छाया का सिर पकडऩे की कोशिश करने लगा। जैसे ही वह छाया के सिर को पकडऩे के लिए जाता वह दूर हो जाता। वह जितना आगे जाता छाया उससे उतनी ही दूर चली जाती। उसके और छाया के बीच फासला कम नहीं होता था। थक कर और असफलता से वह रोने लगा। इतने में जब उस बच्चे की मां की नजर उस पर पड़ी तो उसने आकर उस बच्चे का हाथ उसके सिर पर रख दिया। बस फिर क्या था। वह बच्चा हंसने लगा क्योंकि उसने अपने सिर के साथ ही छाया के सिर को भी पकड़ लिया था।

हम भी उसी बच्चे की तरह हैं, जो छाया में खुशी तलाशने में लगे हैं। जिन्दगी एक छाया है और हम उसी छाया को सच मानकर उसके पीछे दौड़ रहे हैं बल्कि सच तो यही है कि हमारी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। इन्हें जितना पूरा करो ये उतनी बढ़ती जाती हैं। आज हम जिन चीजों को अपनी जिन्दगी मानकर एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हैं। ये सब सिर्फ हमें पल दो पल की खुशी दे सकती हैं। जैसे किसी घर में हमेशा टेंशन बनी रहती है। घर के सभी सदस्यों में आपसी खींचतान बनी रहती है। उस घर में अगर नई कार आ जाए तो उस जहरीले माहौल को कुछ समय के लिए जरुर खुशनुमा बनाया जा सकता है। हमेशा के लिए नहीं वो कार थोड़े समय के लिए परिस्थिति को सम्भाल जरुर सकती है पर सुधार नहीं सकती है। हमें हमेशा के लिए आनंदित रहना है, तो ये याद रखना चाहिए कि इस संसार में स्वयं के अलावा कुछ नहीं पाया जा सकता। जो अपने आप को खोजते हैं। वे पा लेते हैं। वासनाओं के पीछे भागने वाले लोग हमेशा असफल रहते हैं वे जीवन को कभी खुशी से जी ही नहीं पाते हैं क्योंकि वो असली खुशी से अनजान होते हैं। असली खुशी अपने ही अंदर हैं क्योंकि अपनी जिन्दगी को खुशी या गम से भरा आप खुद अपनी सोच से बनाते हैं, क्योंकि कोई परिस्थिति अच्छी या बुरी नहीं होती आपकी सोच और नजरिया और आपको स्वयं को न जानने की अज्ञानता ही आपको दुखी और सुखी बनाती है। जिसने इस सच को समझ लिया कि असली खुशी स्वयं के ही अंदर है वही इस जीवन को सही ढंग से जी पाता है।

जब कोई आपकी तकलीफ ना समझे
जब आपकी किसी तकलीफ को कोई समझ ना पाएं तो ये ना सोंचे की आपको कोई नहीं समझता क्योंकि आपकी तकलीफ या परेशानी को सिर्फ वही समझ सकता है जो खुद कभी उस परेशानी से गुजरा हो क्योंकि किसी की तकलीफ को कोई भी तभी समझ सकता है जब उसने भी उन विषम परिस्थितियों का सामना किया हो। एक कुत्ता बेचने वाला था। उसने कई कुत्तों को पाला ताकि वह उन्हे बेचकर अच्छा पैसा कमा सके । धीरे-धीरे कुत्तो की संख्या बढऩे लगी। बढ़ते - बढ़ते इतनी बढ़ गई की उसे उन्हे सम्भालना मुश्किल होने लगा। अब वह परेशान होने लगा उसे लगने लगा कि कोई भी उसके कुत्तों को बस खरीद ले। इसके लिए उसने कुत्तों की सेल लगा दी। उसके पास एक छोटा सा लड़का आया। उसने कहा अंकल मुझे एक कुत्ता चाहिए, लेकिन मेरे पास सिर्फ पचास रुपए ही हैं। क्या आप मुझे इतने पैसों में एक कुत्ता दे पाएंगे। उस बच्चे की मासूम शक्ल देखकर उस आदमी को उस पर प्यार आ गया। वह बोला हां जो तुम्हे पसंद आएगा में तुम्हे वो कुत्ता देने को तैयार हूं। उस बच्चे ने कहां तो ठीक है। आप जो मुझे सफेद रंग का कुत्ता सामने वाले पपी हाउस में मुझे यहां से दिखाई दे रहा दिजिए। वह बोला ठीक है। वह आदमी उस कुत्ते को लेने के लिए जाता है तभी दूसरी तरफ एक कुत्ता लुढ़कता हुआ आता है और उसके पैर मेंं आकर गिर जाता है। वह बच्चा दो मिनट तक खड़ा कुछ सोचता रहता है और अपनं पैरों में पड़े उस कुत्ते को उठाकर दूकानदार से कहता है, अंकल मुझे यही कुत्ता चाहिये। वह आदमी उस बच्चे से कहता है कि बेटा तुम इस कुत्ते को मत खरीदा। इसके पैर पूरी तरह से बेकार है, इससे ना तुम ठीक से खेल पाओगे और ना ये तुम्हारे साथ तब वो बच्चा अपने पेंट को उपर चढा़ते हुए। बोलता है अंकल यही पपी मेरा सबसे अच्छा दोस्त बन सकता है। क्योंकि ये मेरी तकलीफ को अच्छे से समझ सकता है और मैं इसकी। जब वो आदमी उस बच्चे के पैरों की तरफ देखता है तो उसके नकली पैरों को देखकर चुप हो जाता है और उसे वही कुत्ता सौंप देता है।

ऐसे लोग हमेशा दुखी ही रहते हैं जो...
एक आदमी रोज- रोज मंदिर जाता और प्रार्थना करता है, हे भगवान मैं जीवन से बहुत परेशान हूं मुझे दुखों से मुक्ति दे दो। मुझे मोक्ष चाहिये, मुझे मोक्ष दिला दो। एक दिन भगवान परेशान हो गए क्योंकि वह रोज सुबह-सुबह पहुंच जाता और गिड़गिड़ता कि मैं दुखी हूं।

एक दिन भगवान प्रकट हो गए और बोले तुझे मुक्ती चाहिए तो लो इसी वक्त लो, यह खड़ा है विमान बैठकर चलो। वह आदमी घबरा कर बोला अभी, एकदम कैसे हो सकता है? अभी मेरा लड़का छोटा है। जरा जवान हो जाए उसकी शादी हो जाए फिर चलूंगा। भगवान ने कहा फिर तू मुझे रोज-रोज परेशान क्यों करता है। सुबह से रोज चिल्लाना शुरू कर देता है।

अगर मोक्ष नहीं चाहिए तो क्यों मुझे व्यर्थ ही परेशान करता है। वह व्यक्ति बोला भगवान किसने कहा मुझे मोक्ष नहीं चाहिए लेकिन अभी नहीं आप मुझे आश्वासन दे दें। अब उस व्यक्ति का बेटा जवान हो गया और उसकी शादी हो गई। भगवान फिर प्रकट हुए और बोले चलो मेरे साथ मे तुम्हें मोक्ष के लिए लेने आया हूं। लड़के की तो अभी शादी हुई है।

कम से कम एक बच्चा हो जाए, पोते या पोती का सुख देख लूं, फिर मैं बिल्कुल तैयार हूं। भगवान फिर वापस चले गए। ऐसे करते-करते वह व्यक्ति बूढ़ा हो गया उसके हाथ पैर थक गए। अभी तक जब भी भगवान आते वह उन्हें हर बार बहाना बना कर लौटा देता। अब वह व्यक्ति बूढ़ा हो गया तो भगवान को लगा कि अब तो मुझे इसकी मनोकामना पूरी कर ही देनी चाहिये। भगवान फिर प्रकट हो गए तो अब वह आदमी झुंझला गया और बोला आप तो मेरे पीछे ही पड़ गए आपको और कोई नहीं मिलता क्या?

आप कृपया यहां से चले जाइए। भगवान बोले फिर तू मुझसे इतने सालों से क्यों रोज मुक्ति मांगता है। दरअसल वो तो मेरी पुरानी आदत है। वो तो मैं आदतन बोलता हूं। कल मैं फिर आऊंगा और वही प्रार्थना दोहराऊंगा प्रकट मत हो जाना। अक्सर लोगों के साथ आज यही समस्या है वे समझते हैं, धर्म की यही तस्वीर है। मंदिर जाते हुए उम्र कट जाती है लेकिन परमात्मा के अनुरूप नहीं हो पाता क्योंकि वह भगवान को भी अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।

अपनी शर्तों पर पूजते हैं। उनकी पूजा का लक्ष्य भगवान को पाना नहीं बल्कि सांसारिक पदार्थों और दुखों से बचना भर है। इसलिए ऐसे लोग मांगने पर ही अपना सारा जीवन बीता देते हैं जो होता है उसका आनंद नहीं उठाते हैं। इसलिए ऐसे लोगों की जिन्दगी का अभाव कभी खत्म ही नहीं हो पाता है। वे हमेशा दुखी ही रहते है, खुद भगवान प्रकट हो जाएं तब भी।

जीवन उधार नहीं मिल सकता
अपना जीवन न तो किसी को दिया जा सकता है और ना ही किसी से उसका जीवन उधार लिया जा सकता है। जिन्दगी में प्रेम का, खुशी, का सफलता या असफलता का निर्माण आपको ही करना होता है इसे किसी और से नहीं पाया जा सकता है।

बात दूसरे महायुद्ध के समय की है। इस युद्ध में मरणान्नसन सैनिकों से भरी हुई उस खाई में दो दोस्तों के बीच की यह अद्भुत बातचीत हुई थी। जिनमें से एक बिल्कुल मौत के दरवाजे पर खड़ा है। वह जानता है कि वह मरने वाला है और उसकी मौत कभी भी हो सकती है। इस स्थिति में वह अपने पास ही पड़े घायल दोस्त से बोलता है। दोस्त में जानता हूं तुम्हारा जीवन अच्छा नहीं रहा। बहुत अपराध तुम्हारे नाम है। तुमने अपने जीवन में कई अक्षम्य भूलें की हैं। उनकी काली छाया हमेशा तुम्हें घेरे रही। उसके कारण बहुत दुख और अपमान तुमने सहे हैं। तुमने जो किया वो सब जानते हैं। लेकिन मेरे विरोध में अधिकारियों के बीच कुछ भी नहीं है। तुम एक काम करो तुम मेरा नाम ले लो मेरा सैनिक नंबर भी और मेरा जीवन भी और मैं तुम्हारा जीवन ले लेता हूं। मैं तो मर रहा हूं। मैं तुम्हारे अपराधों और कालीमाओं को अपने साथ ले जाता हूं। ऐसा कहते हुए वह मर जाता है। ऐसा हो तो कुछ नहीं पाता है।

प्रेम से ये उसके कहे गए शब्द कितने प्यारे हैं। काश ऐसा हो सकता, नाम और जीवन बदला जा सकता लेकिन ये असंभव है। जीवन कोई किसी से नहीं बदल सकता न तो कोई किसी के स्थान पर जी सकता है। ना किसी की जगह मरा जा सकता है। जीवन ऐसा ही है आप चाह कर भी किसी के पाप पुण्य नहीं ले सकते और ना ही दे सकते हैं। जीवन कोई वस्तु नहीं जिसे किसी से ये बदला जा सके। उसे तो स्वयं से और स्वयं ही निर्मित करना है।

मत सोचो नेगेटीव
सभी की जिन्दगी में उतार चढ़ाव आते हैं। कदम-कदम पर मुश्किलें आती हैं। हम सब जानते हैं, मुश्किलों की सबसे बुरी आदत ये ही की वे बिना बुलाए आ जाती है और उससे भी बुरी हमारी आदत नेगेटीव सोचने की। कई बार छोटी सी मुसीबत या परेशानी को हम इतनी बड़ी मान लेते हैं कि परिस्थिति का सामना करने से पहले ही हम हार मान बैठते हैं। ऐसे में जिन्दगी एक बोझ सी बन जाती है और बेमकसद हो जाती है। हम अपने आप को दुनिया का सबसे परेशान और बदकिस्मत व्यक्ति मान लेते हैं। ऐसे में खुद को तो तनावग्रस्त कर ही लेते हैं साथ ही हमसे जुड़े लोगों की जिन्दगी को भी तनाव से भर देते हैं।

एक बच्चे से उसके माता पिता बहुत प्यार करते थे। जैसे की सभी के माता-पिता करते हैं लेकिन उसकी कहानी कुछ अलग थी। उसके पेरेन्टस का प्यार सामान्य नहीं था। असामान्य था क्योंकि वो चाहते थे कि उनके बच्चे को इस बुरी दुनिया का सामना ना करना पड़े। वो चाहते थे कि वह बड़ा होकर बहुत बड़ी शख्सियत बने।इसीलिए उन्होंने अपने बच्चे को बाहरी माहौल से दूर रखा। उसे बाहर के बच्चों के साथ खेलने नहीं देते। बाहर के लोगों से बात नहीं करने देते। किसी रिश्तेदार से उसे मिलने भी नहीं देते। स्कुल भेजने की बजाय घर पर ही उसकी पढ़ाई की व्यवस्था कर दी। अब उस बच्चे की उम्र बड़ी तो माता-पिता दोनों ने सोचा कि अब हमारा बेटा अठारह साल का हो गया है। अब हमारा सपना पूरा होने का समय आ गया है। उन्होंने उसका एडमिशन एक बड़े मेडिकल कालेज में करवा दिया।

अब वह पहली बार कालेज गया उसने अपने आप को बाहरी माहौल में बड़ा असहज महसुस किया। वह दो दिनों में ही बाहरी दुनिया और उसके लोगों से परेशान हो गया। नतीजा ये हुआ कि उसने अपने माता-पिता से कहा कि वो उसे आकर यहां से ले जाए वरना वह होस्टल की बिल्डिंग से कूद कर अपनी जान दे देगा। माता-पिता घबरा गए और उसे घर ले आए।दरअसल उस लड़के को बाहर की दुनिया और आजादी रास नहीं आ रही थी क्योंकि वह तो कैद में रहने का आदी हो चुका था। उसे अपने फैसले खुद लेने की आदत नहीं थी। वह बाहरी दुनिया का तनाव बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। उसके माता- पिता को आज अपनी भूल का एहसास हुआ लेकिन अब वक्त गुजर चुका था।

अगर हमारा नजरिया नकारात्मक होगा तो हमारी जिन्दगी सिमाओं में कैद हो जाएगी। हमारे दोस्तों की तादाद कम होगी। हम जिन्दगी का कम आनंद उठा पाएंगे। हो सकता है सकारात्मक नजरिया विकसित करने के लिए हमें थोड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़े और बदलाव के कारण अनिश्चितता महसूस हो लेकिन ये निश्चित है कि जब हम हर परिस्थिति को सकारात्मक ढंग से लेने के आदी हो जाएंगे तो एक दिन हम सफल जरुर होंगे।

हार के बाद ही जीत है
किसी भी काम में मिलने वाली हार को जिन्दगी की सबसे बड़ी हार मानकर निराश होने वाले कभी शिखर तक नहीं पहुंच सकते। जिन्दगी में मिलने वाली असफलताएं ही इस बात का पैमाना तैयार करती हैं कि व्यक्ति अपने जीवन में कितना सफल होगा क्योंकि जो अपनी जिन्दगी की हर ठोकर से कुछ नया सीखकर आगे बढ़ता है वही आसमान की बुलंदियों को छुता है। किसी ने बहुत सही कहा है कि अगर तुम्हे सफल होना है तो सिढिय़ों की जरुरत नहीं है क्योंकि सिढिय़ां उनके लिए बनी है जिन्हे छत पर जाना हो आसमान पर हो जिनकी नजर उन्हे तो रास्ता खुद ही बनाना होगा। और किसी के बनाये हुए रास्ते पर चलकर मजिल तक पहुंचना आसान होता है लेकिन रास्ता अगर खुद ही को बनाना हो तो चोट तो लगना ही है। सफलता इस बात से नहीं मापी जाती कि हमने जिन्दगी में कितनी उंचाई हासिल की है, बल्कि इस बात से मापी जाती है कि हमने कितनी बार गिर कर उठने की क्षमता दिखाई है।

मशहूर आदमी की जिन्दगी की बड़ी मशहूर कहानी है। यह आदमी इक्कीस साल की उम्र में व्यापार में नाकामयाब हो गया। बाइस साल की उम्र में वह चुनाव हार गया। चौबीस साल में वह व्यापार में असफल हो गया। छब्बीस साल की उम्र में उसकी पत्नी मर गई। सताइस साल की उम्र में उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। चौतीस साल की उम्र में वह कांग्रेस से चुनाव हार गया। पैतालिस साल की उम्र में उसे सीनेट के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। सैतालिस साल की उम्र मैं वह उपराष्ट्रपति बनने में असफल रहा। उनपचास साल की आयु सीनेट के एक ओर चुनाव में कामयाबी मिली, ओर वही आदमी बावन साल की उम्र में अमेरिका का राष्ट्रपति चुना गया। वह आदमी अब्राहम लिंकन था।

करो भावनाओं की परवाह
दुनिया हसीन हैं यही सच है क्योंकि दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है सिर्फ हमारे नजरिये के अलावा। हमारी सोच हमारा किसी भी चीज के लिए नकारात्मक नजरिया ही किसी को भी बुरा या अच्छा बना देता है। लोग कहते है किसी की परवाह मत करो। ओरों की परवाह करने में कुछ नही रखा क्योंकि आपकी परवाह किसने की, लेकिन जब दिल से आप सभी के भावना की परवाह करेगें और दुसरों के रुख में अपने प्रति सकारात्मक परिवर्तन देखेंगे।

एक छोटी सी बच्ची रेस्टोरेन्ट में गई। उसने टेबल पर बैठने के बाद वहां के वेटर को डरते हुए इशारा किया और पूछा अंकल एक पेस्ट्री की कितने की है। वेटर ने कहा 40 रुपए की। वह बच्ची उसके पास जो सिक्के थे, उन्हें गिनने लगी। वेटर को थोड़ा गुस्सा आया, उसने कहा जल्दी बोलो क्या चाहिए?वह कुछ सोचने लगी ओर थोड़ी देर बाद बोली अंकल इससे कम वाली नहीं है क्या? उसने कहा है लेकिन वो थोड़ी छोटी है। लड़की बोली कोई बात नहीं वही ला दीजिये। वेटर ने उसकी टेबल पर लाकर पेस्ट्री की प्लेट रखी।लड़की ने अपनी पेस्ट्री खाई। पैसे दिए और चली गई। वेटर ने जब उसकी प्लेट उठाई तो उसने वह देखा वह बात उसके मन को छू गई। वहां दस रुपए टीप के रखे थे। उस छोटी सी बच्ची ने संवेदनशीलता दिखाई। उसने खुद से पहले दूसरे के बारे में सोचा। उसकी ये बात वेटर के दिल को छू गई। उस बच्ची ने हमेशा के लिए उसके मन पर एक छाप छोड़ दी। दूसरों का ख्याल रखना यह दिखाता है कि आप उनकी कितनी परवाह करते हैं। कोई दूसरो की भावनाओं की कितनी परवाह करता है। उसी से उसकी इंसानीयत और संवेदनशीलता का पता चलता है।

मौके के इंतजार में...
जिंदगी सभी को मौके देती है। मौका छोटा हो या बड़ा ये बात महत्व नहीं रखती क्योंकि मौके को अपनाकर आगे बढना उस छोटे मौके को बड़ा बनाना आपके हाथ है। कहते हैं ना कुछ नहीं से तो कुछ अच्छा है तो किसी भी मौके को छोटा ना समझे जिंदगी ने जो भी मौका दिया है, उसे दिल से अपनाकर आगे बड़े यकिन मानिए आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकेगा। सही मौके के इंतजार में तो शायद आपका जीवन बीत जाए हर नया मौका। आपको पुराने वाले से छोटा और अर्थहीन लगे शायद उसी एक मौके की तलाश में जिंदगी ही खत्म हो जाए।

एक धनवान आदमी था। उसे अपना मदिरा भंडार अत्यंत प्रिय था। उसके पास अति प्राचीन मदिरा से भरा हुआ एक बर्तन था। जिसे न जाने किस अवसर के लिए उसने संभालकर रख छोड़ा था। जब भी कोई महत्वपूर्ण मौका होता, उस धनी को लगता कि आज मदिरा निकालू किंतु अगले ही क्षण उसे वह मौका बेमानी लगता और वह उस मदिरा पात्र को फिर से रख देता।

एक बार उसके घर राज्य के गर्वनर का आगमन हुआ तब उसने सोचा महज एक गर्वनर के लिए इसे क्या निकालूं?इसी प्रकार अगली बार उसके घर एक पादरी आए किंतु उसने मन में कहा नहीं, मैं वह पात्र अभी नहीं खोलूंगा। भला पादरी उसकी कद्र क्या जानें?फिर एक अवसर पर उसके यहां उस देश का राजा आया। उसने उसके साथ भोजन भी किया। किंतु तब भी उसे यही लगा कि यह मदिरा राजा की तुलना में अधिक गौरवप्रद है। यहां तक कि अपने बच्चों की शादी के अवसर पर भी उसने वह नहीं खोला। दिन गुजरते गए और एक वह व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गया।जिस दिन उसे दफनाया गया उसी दिन मदिरा के अन्य पात्रों के साथ वह अति प्राचीन मदिरा भी बाहर निकल गई और पास-पड़ौस के अशिक्षित कृषकों ने उसे छककर पिया। किंतु उसकी प्राचीनता और महत्व का ज्ञान किसी को नहीं था।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष

Prem (प्रेम)

मानवता का एक मात्र धर्म है प्रेम
नूरी रक्काम फारस के अत्यंत विख्यात सूफी संत थे। उनके बहुत सारे अनुयायी थे। ये लोग अनहलक (अर्थात् अहं ब्रह्मास्मि: मैं ही ब्रह्मा हूं) की रट लगाकर अलख जगाते थे। फारस का तत्कालीन शासक नूरी से बहुत चिढ़ता था। उनकी लोकप्रियता उसे रास नहीं आती थी।

उसने एक दिन नूरी और उनके अनुयायियों को काफिर घोषित कर सरेआम मृत्यु की सजा सुना दी। जब मृत्युदंड का दिन आया, तो पूरा नगर उमड़ पड़ा क्योंकि नूरी के प्रति बहुसंख्यक लोगों में श्रद्धा भाव था।नूरी और उनके अनुयायियों को कतार में खड़ा कर दिया गया। शासक का हुक्म था कि पहले नूरी के अनुयायियों का कत्ल कर दिया जाए और बाद में नूरी का। मगर जल्लाद ने जैसे अनुयायियों को मारने के लिए तलवार उठाई, नूरी ने उनके स्थान पर स्वयं को प्रस्तुत कर दिया। उपस्थित लोग चकित हो गए। जल्लाद बोला- ‘‘तुम्हारी बारी अभी नहीं आई है। फिर तलवार कोई ऐसे चीज नहीं है जिससे मिलने के लिए इतना उतावला हुआ जाए।’’ तब नूरी ने कहा- ‘‘मेरे गुरु की शिक्षा है कि मनुष्य का एकमात्र धर्म है- प्रेम और प्रेम दो व्यक्तियों, परिवारों या समाजों को ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता को अपने में समेटे हुए है।

सच्चे प्रेम की यही परिभाषा है और इस दृष्टि से सभी मेरे बंधु हैं और संकट में पड़े बंधुओं को उससे मुक्त करना मेरा दायित्व है।’’ नूरी का जवाब सुनकर जल्लाद के हाथ रुक गए और शासक अपने किए पर लज्जित हुआ।प्रेम की इस विराटता के आगे भला कौन टिक सकता है? यही वो प्रेम है, जो हमें ईश्वर से मिलता है क्योंकि तब द्वैत-भाव समाप्त होकर अद्वैत स्थापित हो जाता है। अर्थात् ‘लाली मेरे लाल की, जित देखूं उत लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।

शब्दों की जरूरत न पड़े, रिश्ते ऐसे होंआजकल पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव बढ़ गया है। लंबे समय तक बातें नहीं होती। एक-दूसरे की आवश्यकताओं को समझते नहीं, भावनाओं को पहचानते नहीं। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें शब्दों की आवश्यकता ही न पड़े, बिना कहे-बिना बताए आप समझ जाएं कि आपके साथी के मन में क्या चल रहा है। ऐसी समझ प्रेम से पनपती है। यह रिश्ते का सबसे सुंदर हिस्सा होता है कि आप सामने वाले की बात बिना बताए ही समझ जाएं।

दाम्पत्य के लिए राम-सीता का रिश्ता सबसे अच्छा उदाहरण है। इस रिश्ते में विश्वास और प्रेम इतना ज्यादा है कि यहां भावनाओं आदान-प्रदान के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। एक प्रसंग है वनवास के समय जब राम-सीता और लक्ष्मण चित्रकूट के लिए जा रहे थे। रास्ते में गंगा नदी पड़ती है। गंगा को पार करने के लिए राम ने केवट की सहायता ली। केवट ने तीनों को नाव से गंगा नदी के पार पहुंचाया। केवट को मेहनताना देना था। राम के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। वे केवट को देने के लिए नजरों ही नजरों में कुछ खोजने लगे।

सीता ने राम के हावभाव से ही उनके मन की बात जान ली। वे बिना कहे ही समझ गई कि राम केवट को देने के लिए कोई भेंट के लायक वस्तु खोज रहे हैं। सीता ने राम की मनोदशा को समझते हुए अपने हाथ से एक अंगुठी निकालकर केवट को दे दी। इस पूरे प्रसंग में न तो राम ने सीता से कुछ कहा और न ही सीता ने राम से कुछ पूछा लेकिन दोनों की ही भावनाओं का आदान-प्रदान हो गया।

दीर्घ जीविता का रहस्य विनम्रता में छिपा है
विनम्रता से संबंधित एक कथा पुराणों में मिलती है। जो अत्यंत प्रेरणास्पद है। एक साधु थे- अत्यंत विनम्र और मृदुभाषी। उनका शिष्य वृंद काफी विशाल था। उनके उपदेशों से कई लोगों का जीवन सुधर गया था। वे सदैव परोपकार में ही लगे रहते थे और स्वयं सादा जीवन व्यतीत करते थे। धीरे-धीरे उनकी काफी वय हो गई और वे असक्तता अनुभूत करने लगे। जब उन्हें ऐसा लगा कि अंतिम समय निकट आ गया है, तब अपने सभी शिष्यों को बुलाया और बोले-''देखों, अब भगवान का बुलावा किसी भी समय आ सकता है। जाते-जाते तुम लोगों को एक अंतिम उपदेश देना चाहता हूं। जिससे तुम्हारा जीवन प्रकाशमय हो सके।

शिष्यों ने स्वीकार में सिर हिलाए।''साधु महाराज पुन: बोले- ''मेरे मुंह में देखकर बताओ कि कितने दांत बचे हैं?शिष्यों ने उनके मुंह की ओर देखकर समवेत स्वर में कहा- ''एक भी नहीं।'' साधु पुन: बोले- ''देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।''सभी ने इस बात को स्वीकार किया। अब उन्होंने कहा- ''मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज जब मैं मृत्यु शैया पर हूं, तो भी यह बची हुई है। ये दांत बाद में पैदा हुए किंतु जीभ से पहले कैसे विदा हो गए। इसका कारण जानते हैं?'' शिष्यों ने कारण बताने का आग्रह किया, तो साधु बोले- ''इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और कोमलता थी।

इसलिए यह जन्म से लेकर आज तक मेरे पास है, किंतु दांतों में आरंभ से ही कठोरता थी, इसलिए वे बाद में आकर भी पहले समाप्त हो गए। अपनी कठोरता के कारण वे दीर्घ जीवी नहीं हो सके। यदि तुम भी दीर्घ जीवी होना चाहते हो, तो विनम्रता सीखो।''कथा सार यह है कि यदि झूठे अहंकार और कटु वाणी की कठोरता से बचकर रहा जाए और विनम्रता को अपने विचारों के साथ व्यवहार का भी अंग बना लिया जाए, तो व्यक्ति का दीर्घजीवी होना तय है। दीर्घजीवी का गूढ़ार्थ यहां आयु से नहीं बल्कि मृत्यु के बाद भी बहुसंख्यक लोगों की स्मृतियों में संबंधित व्यक्ति को सम्मानपूर्वक स्मरण किए जाने से है।

तपस्या का फल

भगवान शंकर को पति के रूप में पाने हेतु माता-पार्वती कठोर तपस्या कर रही थी। उनकी तपस्या पूर्णता की ओर थी। एक समय वह भगवान के चिंतन में ध्यान मग्न बैठी थी। उसी समय उन्हें एक बालक के डुबने की चीख सुनाई दी। माता तुरंत उठकर वहां पहुंची। उन्होंने देखा एक मगरमच्छ बालक को पानी के भीतर खींच रहा है। बालक अपनी जान बचाने के लिए प्रयास कर रहा है, तथा मगरमच्छ उसे आहार बनाने का।

करुणामयी मां को बालक पर दया आ गई। उन्होंने मगरमच्छ से निवेदन किया कि बालक को छोड़ दीजिए इसे आहार न बनाएं। मगरमच्छ बोला माता यह मेरा आहार है मुझे हर छठे दिन उदर पूर्ति हेतु जो पहले मिलता है, उसे मेरा आहार ब्रह्मा ने निश्चित किया है। माता ने फिर कहा आप इसे छोड़ दे इसके बदले मैं अपनी तपस्या का फल दुंगी। ग्राह ने कहा ठीक है। माता ने उसी समय संकल्प कर अपनी पूरी तपस्या का पुण्य फल उस ग्राह को दे दिया। ग्राह तपस्या के फल को प्राप्त कर सूर्य की भांति चमक उठा। उसकी बुद्धि भी शुद्ध हो गई। उसने कहां माता आप अपना पुण्य वापस ले लें। मैं इस बालक को यू हीं छोड़ दुंगा। माता ने मना कर दिया तथा बालक को गोद में लेकर ममतामयी माता दुलारने लगी।

बालक को सुरक्षित लौटाकर, माता ने अपने स्थान पर वापस आकर तप शुरु कर दिया। भगवान शिव तुरंत ही वहां प्रकट हो गए, और बोले पार्वती अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नहीं है। हर प्राणी में मेरा ही वास है, तुमने उस ग्राह को तप का फल दिया वह मुझे ही प्राप्त हुआ। अत: तुम्हारा तप फल अनंत गुना हो गया। तुमने करुणावश द्रवित होकर किसी प्राणी की रक्षा की अत: मैं तुम पर प्रसन्न हूं तथा तुम्हें पत्नी रूप में स्वीकार करता हूं।

कथा का साराश यही है कि जो परहित की कामना करता है। उस पर परमात्मा की असीम कृपा होती है। जो व्यक्ति असहायों की सहायता, दयालु प्रेमी करुणाकारी होता है। ईश्वर उसको स्वीकार करते हैं। यह कथा ब्रह्मपुराण में उल्लेखित है।

हमारे अंतर्मन में बसा है ईश्वर
जातक कथाओं में एक कथा आती है, जो इस तथ्य को रेखांकित करती है कि ईश्वर हमारे अंतर्मन में ही बसता है।एक धनी व्यापारी के पास अकूत संपत्ति थी, किंतु चित्त में तनिक भी शांति नहीं थी। एक बार उसके शहर में एक पहुंचे एक महात्मा आए। व्यापारी को पता चला कि उनके प्रवचन मन को काफी सुकून देने वाले होते हैं। उसने सोचा कि शायद मेरी समस्या का हल महात्माजी के पास मिल जाए।

वह अगले दिन प्रवचन सुनने गया। महात्माजी ने अन्य बातों के अतिरिक्त प्रवचन में कहा कि परमात्मा को पाने से वास्तविक शांति मिलती है इसलिए उसकी तलाश करना चाहिए। व्यापारी उनकी इस बात से बहुत प्रभावित हुआ और एक दिन अपना सब कुछ छोड़कर परमात्मा की खोज में घर से निकल पड़ा। वर्षों एक शहर से दूसरे शहर भटकता रहा। उसे जो भी जहां भी ईश्वर के मिलने की संभावना बताता, वहां वह चला जाता, किंतु उसे ईश्वर के दर्शन नहीं हुए। उसकी व्यग्रता बढ़ती गई।

वह अपना घर, शहर सब कुछ भूल गया। व्यापार चौपट हो गया। स्वास्थ्य भी गिरने लगा, किंतु शांति के लिए परमात्मा से मिलने की उसकी ललक समाप्त नहीं हुई। इस यात्रा के दौरान व्यापारी एक शहर में पहुंचा। वहां किसी महात्मा के प्रवचन चल रहे थे। वह तत्काल वहां गया। उसे आवाज जानी-पहचानी लगी। वह मंच के थोड़ा निकट गया तो देखा कि ये तो वही महात्मा हैं जिनका प्रवचन सुनकर उसने घर छोड़ा था। वह महात्मा के चरणों में गिरकर रोने लगा और बोला- आपने शांति के लिए ईश्वर की तलाश करने को कहा था।तभी से मैं शहर-दर-शहर भटक रहा हूं किंतु ईश्वर के दर्शन अभी तक नहीं हुए । तब महात्मा ने व्यापारी को समझाया- बेटा, शायद तुमने मेरी पूरी बात नहीं सुनी थी। मैंने ईश्वर को खोजने की बात कही थीं किंतु यह भी कहा था कि वह हमारे भीतर ही मिलेगा। तुम घर जाओ और वहीं रहकर अच्छे कर्म करो। ईश्वर एक दिन स्वयं तुम्हारे भीतर प्रकट हो जाएगा। कथा सार यह है कि हम स्वयं के प्रति ईमानदार रहते हुए अपने दायित्वों को भलीभांति पूर्ण करें और सभी के कल्याण हेतु कार्य करें तो ईश्वर हमें सहज ही प्राप्त हो जाएगा।

सेवा में बसा ईश्वर
उस दिन रविवार था। दीनबंधू एंड्रयूज से मिलने एक ईसाई सज्जन सवेरे ही आ पहुंचे। दीनबंधू ने उनका यथोचित सत्कार किया। उनके मध्य बातचीत होने लगी। अनेक मुद्दों पर चर्चाओं का दौर चला।थोड़ी देर बाद दीनबंधू ने घड़ी ने समय देखा और बोले-ओह। दस बज गए। क्षमा कीजिएगा, मुझे चर्च जाना है। मैं फिर किसी दिन आपसे बात करता हूं।यह सुनकर वे सज्जन तत्काल बोल पड़े-चर्च तो मुझे भी जाना है। चलिए, मैं भी चलता हूं। दोनों का साथ भी हो जाएगा और बातें भी। दिनबंधू ने कहा-किंतु मैं उस चर्च में नहीं जा रहा हूं, जहां आपको जाना है। उन सज्जन ने आश्चर्य से पूछा- तो फिर किस चर्च में जाएंगे?

तब दीनबंधू मुस्कुराकर बोले-चलिए, आज आप मेरा चर्च देख ही लीजिए।दीनबंधू उन सज्जन को लेकर एक निर्धन बस्ती में पहुंचे। वहां एक टूटी-फूटी झोपड़ी थी, जिसके भीतर चारपाई पर एक बच्चा लेटा था, जिसकी सेवा एक वृद्ध कर रहा था।दीनबंधू ने झोपड़ी प्रवेश कर वृद्ध से पंखा लेते हुए -बाबा। अब आप जाइए। जब वृद्ध चला गया, तो उन सज्जन से दीनबंधू ने कहा-यह बालक अनाथ है और ज्वरग्रस्त भी। यह वृद्ध ही इसकी देख-रेख करता है किंतु यह समय इसका ड्यूटी पर जाने का है।

दोपहर तक लौट आएगा, तब तक मैं ही इसकी सेवा करता हूं। यही मेरी पूजा है और यह झोपड़ी ही मेरे लिए चर्च है। यह सुनकर वे सज्जन दीनबंधू के प्रति श्रृद्धा से भर गए। वस्तुत: दीन-दु:खियों की सेवा ही सच्ची ईश पूजा है। यदि हम पूजास्थल न भी जाएं और किसी जरुरतमंद की सेवा कर दें तो यही सही मायनों में धार्मिकता है क्योंकि सभी धर्म एक स्वर से असहायों की सहायता करना सबसे बड़ा मानव धर्म बताते हैं।

क्षमा से सुधार और सुधार से विकास

हजरत मोहम्मद जब भी नमाज पढऩे मस्जिद जाते, तो उन्हें नित्य ही एक वृद्धा के घर के सामने से निकलना पड़ता था। वह वृद्धा अशिष्ट, कर्कश और क्रोधी स्वभाव की थी। जब भी मोहम्मद साहब उधर से निकलते, वह उन कूड़ा-करकट फेंक दिया करती थी। मोहम्मद साहब बिना कुछ कहे अपने कपड़ों से कचरा झाड़कर आगे बढ़ जाते। एक दिन जब वे उधर से गुजरे, तो उन पर कूड़ा आकर नहीं गिरा। उन्हें कुछ हैरानी हुई किंतु वे आगे बढ़ गए। अगले दिन फिर ऐसा ही हुआ तो मोहम्मद साहब से रहा नहीं गया। उन्होंने दरवाजे पर दस्तक दी, वृद्धा ने दरवाजा खोला।

मोहम्मद साहब ने देखा कि बीमारी के कारण वृद्धा अत्यंत दुर्बल हो गई है। वे तत्काल हकीम को बुलाकर लाए और उसकी दवा आदि की व्यवस्था की। उनकी देखभाल और सेवा से वृद्धा कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गई।अंतिम दिन जब वह बिस्तर से उठ बैठी तो मोहम्मद साहब ने कहा- अपनी दवाएं लेती रहना और मेरी जरूरत हो तो मुझे बुला लेना। वृद्धा उनकी बात सुनकर रोते हुए कहने लगी- मेरे दुव्र्यवहार के लिए मुझे माफ कर दोगे? मोहम्मद साहब ने बड़े प्रेम से उनके आंसू पोछे और बोले- भूल जाओ सब कुछ और अपनी तबियत सुधारों। तब वृद्धा ने कहा- मैं क्या सुधारुंगी तबियत? तुमने तबियत के साथ-साथ मुझे भी सुधार दिया है।

तुमने अपने प्रेम और पवित्रता से मुझे सही मार्ग दिखाया है। मैं जीवनभर तुम्हारी अहसानमंद रहुंगी।
घटना का संदेश यही है कि क्षमा से सुधार होता है और सुधार विकास की कई राहे खोल देता है। जिसने स्वयं को क्षमा जैसी सद्भावना में डुबोकर पवित्र कर लिया, उसने संत-महात्माओं से भी अधिक प्राप्त कर लिया।
जहां प्रेम है वहीं शांति है एक फूलों से भरी डाल ने अपने पड़ोस की टहनी से कहा आज का दिन तो बिलकुल नीरस लग रहा है।क्या तुम्हें भी ऐसा ही महसूस हो रहा है।

उस टहनी ने उत्तर दिया- यही बात मुझे भी महसूस हो रही है।उसी समय उस टहनी पर एक तोता आ बैठा और उसके पास ही एक दूसरा तोता भी आ गया। पहले तोते ने कहा आज मेरी पत्नी मुझे छोड़कर चली। मैं भी उसे मनाने नहीं जाने वाला।दूसरे तोते ने भी कहा- मेरी पत्नी भी चली गई, जो अब वापस नहीं आने वाली और मुझे भी उसकी परवाह नहीं। दोनों आपस में इस विषय पर जोर-जोर से बतियाने और शोर मचाने लगे। तभी दो मैनाएं आकाश में उड़ती हुई इन दोनों तोतों के पास आकर बैठ गई। शोर बंद हो गया और चारों और शांति हो गई। फिर वे चारों अपने जोड़े बनाकर उड़ गए।

फिर उस डाल ने टहनी से कहा- यह तो शोर का बवंडर सा था। टहनी बोली- इसे चाहे जो कहो, लेकिन अब तो सारा वातावरण शांत है। यदि ऊपरी हवा, शांत हो तो मेरा विश्वास है कि नीचे रहने वाले भी शांति बनाए रख सकते हैं। क्या तुम भी हवा के साथ झोंका लेकर मेरे पास न आओगी? उस डाल ने कहा- ओह। यह तो शांति प्राप्त करने का अच्छा अवसर है। कहीं ऐसा न हो कि बसंत बीत जाए।

उसी समय हवा का एक झोंका आया और दोनों एक दूसरे के गले लग गए। कथा का संकेत यह है कि जहां प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, वहां शांति खुद ही आ जाती है। वास्तव में प्रेम ऐसा विराट भाव है, जिससे दूरी, विवाद और शत्रुता का नामोनिशान मिट जाता है निकटता, भाईचारा और स्नेह की निराली त्रिवेणी बहने लगती है।

हजरत उमर पैदल और गुलाम ऊंट पर
बात उन दिनों की है जब हजरत उमर का अपने पड़ोसी बादशाह से युद्ध चल रहा था। युद्ध में दोनों पक्षों के जान-माल का काफी नुकसान हो चुका था। जब बादशाह को महसूस हुआ कि अब युद्ध को और लंबा खींचने का कोई फायदा नहीं है तो उसने हजरत उमर के पास एक संधि प्रस्ताव भिजवाया। हजरत उमर ने उस पढ़ा और अपने सलाहकारों से विचार-विमर्श किया। चूंकि सभी युद्ध से तंग आ चुके थे। अत: सभी ने एकमत से संधि प्रस्ताव का समर्थन किया।

हजरत उमर ने उन संधि की बात मान ली और ऊंट पर सवार होकर बादशाह से संधि करने चले। उनके साथ उनका एक गुलाम भी था, जो ऊंट की नकेल पकड़कर चल रहा था।जब मार्ग आधे से अधिक तय हो चुका, तो हजरत उमर ऊंट से नीचे उतरे और स्वयं ऊंट की नकेल पकड़कर गुलाम को ऊंट पर बैठा दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में गुलाम भी मनुष्य था। हजरत उमर पड़ोसी बादशाह की राजधानी पहुंचे। तभी बादशाह का वजीर आया और ऊंट पर सवार गुलाम को सलाम किया। तब गुलाम हड़बड़ाकर बोला- मैं तो गुलाम हूं। हजरत तो वे हैं, जो ऊंट की नकेल पकड़े हुए हैं।

गुलाम की बात सुनकर सभी लोग हैरान हो गए। बात जब बादशाह तक पहुंची तो वह हजरत उमर की महानता के आगे नतमस्तक होकर बोला- ऐसे खलीफा से कैसा युद्ध जो अपने गुलाम के साथ भी श्रेष्ठतम व्यवहार करता हो।

बादशाह ने स्वयं को हजरत का शागिर्द घोषित कर दिया। कथा का संकेत है कि पद या सामाजिक प्रतिष्ठा आदि किसी भी दृष्टि से छोटे व्यक्ति का सम्मान करना मानव धर्म है। जिसे निभाने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में बड़प्पन को जीता है।

सिकंदर हुआ शर्म से पानी-पानी
विश्व विजेता सिकंदर के नाम से हम सभी भलीभांति परिचित हैं। वह घोड़ों का बहुत शौकिन था। उसके अस्तबल में देशी-विदेशी घोड़े थे और सभी विशेषताओं से युक्त थे। सिकंदर के मंत्री और सेनापति भी उसके इस शौक से परिचित थे और उसके लिए ऊंची नस्ल के घोड़ों का प्रबंध करते थे।

इन घोड़ों में से सिकंदर को एक घोड़ा अतिप्रिय था। जो उसे अपने किसी मित्र से भेंट में प्राप्त हुआ था। एक दिन सिकंदर ने अपने राज्य के एक उच्चकोटि के चित्रकार को बुलाया और उसे अपने इस घोड़े का चित्र बनाने का निर्देश दिया। चित्रकार ने अथक परिश्रम कर घोड़े का चित्र बनाया और सिकंदर के पास ले गया। चित्र को देखते ही सिकंदर मुग्ध हो गया। चित्रकार ने वाकई अत्यंत सजीव चित्र बनाया था किंतु सिकंदर ठहरा अहंकारी, इसलिए वह चित्र में खामियां बताने लगा। तब चित्रकार बोला हुजूर। आप अपने घोड़े के सामने मेरी का मूल्यांकन करें।

घोड़े को लाया गया और घोड़ा उस चित्र को देखते ही हिनहिनाने लगा। सिकंदर ने चित्रकार से इसका कारण पूछा, तो वह बोला जहांपनाह, आपसे अधिक कला पारखी आपका यह घोड़ा है। कला की सजीवता का इससे बड़ा और क्या प्रमाण होगा कि चित्र वाले घोड़े को देखकर यह घोड़ा भी दौडऩे को बेताब हो गया।

यह सुनकर सिकंदर शर्म से पानी-पानी हो गया। कथा बताती है कि बेहतर चीज की प्रशंसा संबंधित को प्रोत्साहन देती है। जिससे और बेहतर परिणाम सामने आते हैं। प्रशंसा, प्रोत्साहन और परिणाम की यह तीनों बातें श्रेष्ठता लाती है। इसलिए जो कुछ वास्तव में अच्छा है, उसकी प्रशंसा खुले दिल से करते हुए प्रोत्साहन देना चाहिए।

आपका एटिट्युड क्या है?
एक बार की बात है एक जगह मंदिर बन रहा था और एक राहगीर वहां से गुजर रहा था। उसने वहां पत्थर तोड़ते हुए एक मजदूर से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो और उस पत्थर तोड़ते हुए आदमी ने गुस्से में आकर कहा देखते नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं आंखें हैं कि नहीं? वह आदमी आगे गया उसने दूसरे मजदूर से पूछा कि मेरे दोस्त क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से छैनी हथोड़ी से पत्थर तोड़ते हुए कहा रोटी कमा रहा हूं बच्चों के लिए बेटे के लिए पत्नी के लिए । उसने फिर अपने पत्थर तोडऩे शुरु कर दिए । अब वह आदमी थोड़ा आगे गया तो देखा कि मंदिर के पास काम करता हुआ एक मजदूर काम करता हुआ गुनगुना रहा था।

उस आदमी ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने फिर पत्थर तोड़ते उस मजदूर से पूछा क्या कर रहे हो मित्र। उस आदमी ने कहा भगवान का मंदिर बना रहा हूं । और इतना कहकर उसने फिर गाना शुरु कर दिया । ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं पत्थर तोडऩे का पर तीनों का अपने काम के प्रति दृष्टीकोण अलग -अलग है। तीसरा मजदूर अपने काम का उत्सव मना रहा है। तीनों एक ही काम कर रहें हैं लेकिन तीसरा मजदूर अपने काम को पूजा की तरह कर रहा है इसीलिए खुश है। जिन्दगी में कम ही लोग हैं जो अपने काम से प्यार करते हैं और जो करते हैं वे ही असली आनन्द के साथ सफलता को प्राप्त करते हैं। दूनिया में हर आदमी सुखी बन सकता है अगर वो अपना काम समर्पण के साथ करता है। हम जो कर रहे हैं, उसके प्रति हमारा एटिटयुड क्या है, वह सवाल है। और जब इस एटिटयुड का इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि बदल जाती है।

क्या अंतर है ध्यान और प्रार्थना में
जब ध्यान और प्रार्थना की बात आती है। हर साधारण व्यक्ति के मन यही प्रश्र उठता हैं कि आखिर ध्यान और प्रार्थना एक ही है, तो क्यों कहते हैं कि ध्यान करो उससे आपको जीवन जीने के लिए ऊर्जा मिलेगी सकारात्मक शक्ति मिलेगी। दरअसल ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्रार्थना मैं आप अपने परमात्मा से मांगते हो यानि अपनी परमात्मा को सुनाते हो लेकिन ध्यान वो है जिसमे आप मौन में परमात्मा की सुनते हो परमात्मा से रुबरु होते हो।

एक ग्वाला था यानि गाय चराने वाला वह रोज जंगल में गाय चराने जाया करता था। एक दिन वह रोज की तरह गायों को चरने के लिए जंगल में छोड़कर एक पेड़ के नीचे शांति से बैठा था। तभी उसके मन में विचार आया कि जैसे मैं यहां इस पेड़ के नीचे शांत मन से बैठकर इन गायों को चरते हुए देख रहा हूं। वैसे ही परमात्मा भी अपने बनाए इस संसार के इंसानों को देख रहा होगा। उस ग्वाले ने ऐसे परमात्मा का अनुभव करने में मजा आने लगा। अब वह जंगल में घंटों अकेला बैठा परमात्मा से बात करता रहता था। उस जंगल से एक पूजा पाठी ब्राह्मण रोज गुजरता था और रोज उस ग्वाले को ऐसे अकेले बढ़बढ़ाते हुए देखता था। एक दिन तो उससे रहा ही नहीं गया। उसने उस ग्वाले से कहा तुम्हें सभ्यता नही है कि भगवान से कैसे बात करते हैं। उसने कहा मैं तो ऐसे ही बात करता हूं। यदि तुम्हें दूसरा सही तरीका पता है तो मुझे बता दो मैं वैसे ही करुंगा। उस पंडित ने उसे लगभग दो घंटे में एक श्लोक रटवा दिया। अब वह बस वही श्लोक रटने लगा।

ईध्वर को शायद यह परिवर्तन पसंद नहीं आया। जैसे ही किसान घर पहुचा आकाशवाणी हुई कि ये तुमने ठीक नहीं किया। ब्राह्मण घबराया और बोला पर मैंने तो उसे सही तरीके से बात करने की सभ्यता सिखाई है। आकाश से आवाज आई मुझे उसके उसी भोलेपन मैं आनन्द आता था। तुमने एक श्लोक रटवाकर उसकी मुझ से जुड़ी भावनाओं को खत्म कर दिया है अब वह सिर्फ एक श्लोक को दस बार बोलकर निवृत्त हो जाता है।

जबकि पहले वह मेरे बारे में विचार करता था। मुझ से अपनी भावनाओं से जुड़ा हुआ था। पहले वह मेरे इस बनाई सुन्दर दुनिया और इससे जुड़ी चीजों के बारे में बातें करता था। जिससे मैं और वो दोनों आनन्दित थे। अब वह भी मेरे हजारों मानने वालों की तरह मुझसे मांगने में लगा है यानि प्रार्थना करने लगा तो हम दोनों ही आनंदित नहीं है। पहले वह आनंदित था और में भी क्योंकि उसे पता ही नहीं था, कि वह जो दिन रात कर रहा है वही ध्यान।

भावनाओं को बनाएं ताकत
कहते हैं भावनाए इंसान की कमजोरी होती है लेकिन कभी-कभी यही इमोशंस या भावनाए इंसान की कमजोरी नहीं उसकी ताकत बन जाती है और उसे नया इतिहास लिखने का उत्साह देती हैं। भावनाओं को अपनी कमजोरी या ताकत बनाना आपके हाथ में है और अपना भविष्य बनाना भी।

एक दिन जब महर्षि वाल्मीकि गंगा नदी में स्नान करने के लिए जा रहे थे। तब उन्होने क्रौंच के एक जोड़े को आकाश में उड़ते हुए और एक दुसरे का चुंबन करते समय देखा। महर्षि उन्हे देखकर खुश हो रहे थे लेकिन इतनी देर में एक तीर गुजरा औश्र जोड़े में से एक पक्षी मारा गया। वह जमीन पर गिर गया। तब जोड़े का दुसरा पक्षी विलाप करने लगा। वह अपने साथी के शव के चारों और मंडराने लगा। यह दृश्य देखकर कवि के मन में वेदना और करुणा उमड़ी कि उन्होंने हत्यारे शिकारी से कहा। हे निषाद तु दुष्ट है। तुझमे बिल्कुल भी दया का भाव नहीं है। तेरा हत्यारा हाथ प्रेम देखकर भी नहीं रुका। मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:, यक्रौञचमिथुनादैमवथी: काममोहितम्तभी कवि ने अपने मन में सोचा यह क्या? यह मैं क्या कह गया? इस ढंग से तो मैं इसके पहले तो मैं कभी नहीं बोला था और तब एक देववाणी सुनायी दी। डरो मत यह कविता है जो तुम्हारे मुख से निकल रही है। संसार के कल्याण के लिए राम चरित्र काव्य लिखो। इस प्रकार राम की प्रथम कविता जन्म हुआ।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष