Thursday, September 26, 2013

Ramayana (रामायण ) Part 1

क्या है रामचरित मानस के सात कांड में?
हम आपको बताने जा रहे हैं कि रामायण के किस कांड में राम के जीवन की कौन सी घटना का वर्णन है।
रामचरितमानस की में कुल सात अध्याय यानी कांड हैं।

1.बालकांड- इसमें रामचरितमानस मानस की भूमिका, राम के जन्म के पूर्व घटनाक्रम, राम और उनके भाइयों का जन्म, ताड़का वध, राम विवाह का प्रसंग आदि।
2. अयोध्या कांड- राम का वैवाहिक जीवन, राम को अयोध्या का युवराज बनाने की घोषणा, राम को वनवास, राम का सीता लक्ष्मण सहित वन में जाना, दशरथ की मौत, राम-भरत मिलन आदि।
3. अरण्य कांड- राम का वन में संतों से मिलना, चित्रकुट से पंचवटी तक सफर, शुर्पनखा का अपमान, सीता हरण।
4.किष्किंधा कांड- राम लक्ष्मण का सीता को खोजना, राम व सुग्रीव की मैत्री, बालि का वध, वानरों के द्वारा सीता की खोज।
5. सुन्दर कांड- हनुमान का समुद्र लांघना, विभीषण से मुलाकात, अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट, रावण के पुत्रों से हनुमान वाटिका में हनुमान का युद्ध हनुमान का वापस लौटना, हनुमान द्वारा राम को सीता का संदेश सुनाना, लंका पर चढ़ाई की तैयारी, वानरसेना का समुद्र तक पहुंचना, राम का समुद्र से रास्ता मांगना।
6. लंका कांड- नील द्वारा समुद्र पर सेतु बनाना, वानर सेना का समुद्र पार कर लंका पहुंचना, अंगद को शांति दूत बनाकर रावण की सभा में भेजना, राम व रावण की सेना में युद्ध, रावण व कुंभकरण द्वारा रावण का वध।
7. उत्तर कांड- राम का सीता लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटना, अयोध्या में राम का राजतिलक, अयोध्या में रामराज्य, आदि घटनाओं का वर्णन।

यह देखकर माता सती का मन संदेह से भर गया...
गोस्वामी तुलसीदासजी की सबसे श्रेष्ठ रचना रामचरितमानस की शुरुआत श्री गणेश वंदना से होती है। रामचरितमानस का पहला कांड बालकांड है। बालकांड में श्री रामजी के जीवन की कहानी माघ स्नान से शुरू होती है। जब सूर्य मकर राशि में जाता है। तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग आते हैं। इसी प्रकार एक बार याज्ञवल्क्य और भारद्वाज दोनों ही माघ स्नान के लिए पहुंचे। दोनों की भेंट हुई। भारद्वाज मुनि ने याज्ञवल्क्य जी से श्री रामजी की कथा सुनाने की प्रार्थना की। तब याज्ञवल्क्य जी ने कहा मन लगाकर सुनो मैं श्री राम जी की कथा सुनाता हूं।

एक बार की बात है। शिवजी त्रैतायुग में अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ सतीजी भी थी। ऋषि ने उन्हें सम्पूर्ण जगत जानकर उनका पूजन किया। उन्होंने मुनि श्री से रामकथा सुनाने का निवेदन किया। अगस्त्य ऋषि ने उन्हे रामकथा सुनाई। श्री रघुनाथ जी की कथा कहते-सुनते शिव जी कुछ दिनों तक वहां रहे। फिर वहां से विदा मांगकर। शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर को चले। शिव जी यह सोचते हुए जा रहे थे कि भगवान के दर्शन मुझे किस प्रकार हों? प्रभु ने गुप्तरुप से अवतार लिया है मेरे जाने से सब लोग जान जाएंगे। शंकर जी के मन में इस बात को लेकर बड़ी खलबली थी। लेकिन सती जी ये नहीं जानती थी।

शिव जी के मन में डर था लेकिन उनके नेत्र दर्शन को ललचा रहे थे। रावण ने अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से मांगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं मैं उनके पास नहीं जाता हूं तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार महादेव जी चिन्ता के वश में हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारिच को साथ लिया और वह तुरंत कपटमृग बन गया। मुर्ख रावण ने कपट से सीता जी को हर लिया। मृग को मारकर लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम आये उसे खाली देखकर उनकी आंखों में आंसु भर आए। विरह में व्याकुल दोनों भाई सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। शिव जी ने उसी अवसर पर श्रीराम को देखा तो उन्हें बहुत आनंद हुआ लेकिन अवसर ठीक ना जानकर उन्होने परिचय नहीं दिया।शिव जी बार-बार राम को देख कर प्रसन्न हो रहे थे और सतीजी के साथ चले जा रहे थे।

सतीजी ने उनकी यह दशा देखी तो उन्हें बड़ा संदेह हुआ कि शिवजी ने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद कहकर प्रणाम किया और उनकी शोभा देखकर उन पर मुग्ध हो गए। उन्हे संदेह हुआ की जो सर्वव्यापक, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है, और जिसे वेद भी नहीं जानते क्या वह देह धारण कर सकता है ? उन्होंने सोचा कि जो भगवान विष्णु स्वयं शिव के समान है वे क्या एक अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे। यह सोचकर माता सती के मन में अपार संदेह उठ खड़े हुए

क्यों सती बन गई सीता?
सतीजी का संदेह देखते हुए। शिवजी सब कुछ समझ गये। उन्हें समझाने लगे की देखो सती जिनकी कथा अगस्त्य जैसे महान ऋषि ने हमें सुनाई है। ज्ञानी, मुनि, योगी सभी जिनका ध्यान करते हैं तुम उन पर संदेह कर रही हो। शिवजी ने उन्हें बहुत बार समझाया फिर भी सती नहीं मानी तो शिव जी बोले अगर तुम्हारे मन में संदेह हो तो जाकर परीक्षा क्यों नहीं ले लेती?

जब तक तुम लौटकर आओगी। मैं तुम्हें यहीं पेड़ के नीचे बैठा हुआ मिलूंगा।इधर शिवजी ने मन ही मन यह सोचा कि इसमें सती का कल्याण नहीं है। शिवजी इतना सोचकर ध्यान मग्र हो गए। सती श्री राम की परीक्षा लेने के लिए उस मार्ग पर सीता का रूप धारण कर आगे-आगे चलने लगी। जिस पर राम जा रहे थे। माता सती के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मण आश्चर्य चकित हो गए। वे बहुत गंभीर हो गए लेकिन कुछ ना बोल सके। राम के सामने सती अपने आप को छुपाने का प्रयास करने लगीं। प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को अपना परिचय देकर प्रणाम किया और पूछा कि हे देवी आप अकेली इस वन में क्यों घूम रही हैं, भगवान वृषकेतु शिव कहां हैं?

राम की रहस्यमय बाते सुनकर सती घबरा गई और शिवजी के पास लौटने लगी। शिवजी के पास जाते समय उन्हें चिंता सताने लगी कि मैंने शिवजी की बात नहीं मानी। राम के विष्णु का अवतार होने पर संदेह किया। राम ने जान लिया की सती दुखी हैं। राम ने उस समय अपना कुछ प्रभाव प्रकट कर उन्हें दिखलाया। सती को उस समय सीता, राम व लक्ष्मण अपने आगे चलते हुए दिखाई दिए। वे जिधर भी देखती उन्हें राम ही दिखाई देने लगे।

उन्होंने सभी देवताओं को राम की सेवा करते हुए देखा। यह सब देखकर माता सती अपनी सुध खो दी। उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली। जब आंखें खोली तो कुछ भी नहीं था। सती ने सीता का वेश धारण किया यह जानकर शिव बहुत दुखी हुए। तब शंकर जी ने यह निश्चय कर लिया कि सती के शरीर से मेरी भेंट नहीं हो सकती। शिव का रुख देखकर सतीजी को अपनी गलती का एहसास हुआ। शिवजी ने सती को चिंतित देखकर। उन्हें कुछ अच्छी कहानियां सुनाई। जब दोनों कैलाश पर्वत पर पहुंचे

तो शिव ने समाधि लगा ली। माता सती कैलास पर रहने लगी। सती का एक-एक दिन युग के समान बीतने लगे। शिव ने सत्तासी हजार साल बाद अपनी समाधि खोली।

और सती ने दे दी खुद की आहूति
शिवजी ने सत्तासी हजार साल पूरे होने के बाद अपनी समाधी खोली। शिवजी समाधी से उठकर राम नाम का जप करने लगे। सती समझ गई कि शिवजी समाधी से जाग गए हैं। उसके बाद उन्होंने शिवजी को प्रणाम किया। सती शिव के सामने आसन लगाकर बैठ गई। शिवजी सती को कहानियां सुनाने लगे। इधर दक्ष प्रजापति बनाए गए। दक्ष को इतना बड़ा अधिकार पाकर अभिमान आ गया। एक बार दक्ष ने बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने ब्रहा्र, विष्णु, और महेश को छोड़कर सभी देवताओं और ऋषियों को आमंत्रित किया। सभी देवता अपनी पत्नीयों सहित विमान सजाकर दक्ष के यहां जा रहे थे।

सती ने देखा कि कई सुन्दर विमान आकाश में जा रहे हैं। सती ने पूछा तब शिव ने उन्हें बतलाया की उनके पिता के घर यज्ञ हो रहा है। पिता के घर यज्ञ की बात सुनकर सती ने वहां जाने की आज्ञा शिव जी से मांगी। तब शिवजी ने निमंत्रण ना दिए जाने की बात कही। लेकिन सती बोलने लगी की मेरे पिता के घर पर इतना बड़ा उत्सव है। अगर आप आज्ञा दें तो मैं भी देखना चाहती हूं। तब शिव ने बोला कि एक बार ब्रहा्र की सभा में आपके पिता अप्रसन्न क्या हुए? उसी कारण वे अभी भी हमारा अपमान करते हैं और उन्होंने तुम्हे भी भुला दिया।

इस बात में संदेह नहीं हैं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जा सकते हैं। लेकिन आपका वहां जाना हमें उचित नहीं लगता। शिवजी ने उन्हे बहुत समझाया लेकिन सती नहीं रूकी। सती जब अपने पिता के घर पहुंची तो पिता ने उनकी कुशलता के समाचार नहीं पूछे। सिर्फ उनकी माता ने ही उनकी कुशलता का समाचार लिया। सती ने जब यज्ञ में शिव का भाग ना देखा तो उन्हें बहुत दुख हुआ। शिवजी का अपमान उनसे देखा नहीं गया और उन्होंने योगाग्रि में अपना शरीर भस्म कर डाला।

नारद ने की थी भविष्यवाणी, कैसा होगा पार्वती का पति?
जब सती के खुद को योगाग्रि में भस्म कर लेने का समाचार शिवजी के पास पहुंचा। तब शिवजी ने वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहां जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल दिया। सती ने मरते समय शिव से यह वर मांगा कि हर जन्म मे आप ही मेरे पति हों। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती का जन्म लिया। जब से पार्वती हिमाचल के घर में जन्म तब से उनके घर में सुख और सम्पतियां छा गई। पार्वती जी के आने से पर्वत शोभायमान हो गया। जब नारद जी ने ये सब समाचार सुने तो वे हिमाचल पहुंचे। वहां पहुंचकर वे हिमाचल से मिले और हंसकर बोले तुम्हारी कन्या गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशील और शांत है। यह कन्या सुलक्षणों से सम्पन्न है। यह अपने पति को प्यारी होगी। अब इसमें जो दो चार अवगुण है वे भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिता विहीन, उदासीन, लापरवाह। इसका पति नंगा, योगी, जटाधारी और सांपों को गले में धारण करने वाला होगा।

यह बात सुनकर पार्वती के माता-पिता चिंतित हो गए। उन्होंने देवर्षि से इसका उपाय पूछा। तब नारद जी बोले जो दोष मैंने बताए मेरे अनुमान से वे सभी शिव में है। अगर शिवजी के साथ विवाह हो जाए तो ये दोष गुण के समान ही हो जाएंगे। यदि तुम्हारी कन्या तप करे तो शिवजी ही इसकी किस्मत बदल सकते हैं। तब यह सुनकर पार्वतीजी की मां विचलित हो गई। उन्होंने पार्वती के पिता से कहा आप अनुकूल घर में ही अपनी पुत्री का विवाह किजिएगा क्योंकि पार्वती मुझे प्राणों से अधिक प्रिय है। पार्वती को देखकर मैंना का गला भर आया। पार्वती ने अपनी मां से कहा मां मुझे एक ब्राहा्रण ने सपने में कहा है कि जो नारदजी ने कहा है तु उसे सत्य समझकर जाकर तप कर। यह तप तेरे लिए दुखों का नाश करने वाला है। उसके बाद माता-पिता को बड़ी खुशी से समझाकर पार्वती तप करने गई।

तब पार्वती का तप देखकर आकाशवाणी हुई कि...
तब उनका यह फैसला सुनकर उनके माता-पिता विचलित हो गए। उन्होंने अपने माता-पिता को समझाया और उनसे आज्ञा लेकर तप करने गई। उनके सभी रिश्तेदार चिंतित हो गए। तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाया। पार्वती वन में जाकर तप करने लगी। तप में पार्वती का ऐसा मन लगा कि वे अपने शरीर की सुध भूल गई। उन्होंने कई वर्ष फल, कंद व मुल खाकर बिताए। कुछ दिन सिर्फ हवा का ही भोजन किया। लगभग तीन हजार साल तक सिर्फ पेड़ से गिरे बिलपत्र ही खाए। फिर सुखे पत्ते भी छोड़ दिए इसीलिए उनका नाम अर्पणा भी पड़ा। पार्वतीजी का कठिन तप देखकर एक दिन आकाशवाणी हुई।

पार्वती तेरी मनोकामना पूरी होगी। अब तु कठिन तप का त्याग कर दे। तुझे शिव मिलेंगे। जब तेरे पिता तुझे बुलाने आये तो घर चली जाना। आकाश से ब्रहा् जी की वाणी सुनकर सती खुश हो गई और घर को लौट चली। जब सती ने जाकर शरीर त्याग दिया।तब से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया था। वे रामजी का नाम जपने लगे और राम की कहानियां सुनाने लगे।

शिव का तप देखकर भगवान श्रीराम प्रकट हुए। उन्होंने शिवजी से कहा की आपके जैसा कठिन व्रत कौन निभा सकता है। रामजी ने शिवजी को समझाया और पार्वती का जन्म सुनाया। पार्वती की कथा सुनाने के बाद रामजी ने शिवजी से कहा कि आप से मेरी विनती है कि आप पार्वती से विवाह कर लें। इस प्रकार शिव से बात करके रामजी अंर्तध्यान हो गए। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आये। शिवजी ने उनसे कहा की आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए।

जब सप्तर्षि पार्वती की परीक्षा लेने गए तो...
सप्तर्षि ने पार्वती से जाकर पूछा तुम किस के लिए इतना कठिन तप कर रही हो। तब पार्वती ने सकुचाते हुए कहा आप लोग मेरी मुर्खता को सुनकर हंसेंगें। मैं शिव को अपना पति बनाना चाहती हूं। पार्वती की बात सुनकर सभी ऋषि हंसने लगे और बोले की तुमने उस नारद का उपदेश सुनकर शिव को अपना पति माना है जो सब कुछ चौपट कर देता है। उनकी बातों पर विश्वास करके तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन निर्लज्ज, बुरे वेषवाला , बिना घर बार वाला , नंगा और शरीर पर नागों को धारण करने वाला है।ऐसे वर के मिलने से कहो तुम्हे क्या सुख मिलेगा।

अब हमारा कहा मानो हमने तुम्हारे लिए बहुत अच्छा वर चुना है। हमने तुम्हारे लिए जो वर चुना है वह लक्ष्मी का स्वामी और वैकुंठपुरी का रहने वाला है। तब पार्वती उनकी बात सुनकर बोली कहा है कि मेरा हठ भी पर्वत के ही समान मजबूत है। मैं अपना यह जन्म शिव के लिए हार चुकी हूं। मेरी तो करोड़ जन्मों तक यही जिद रहेगी। पार्वती की यह बात सुनकर सभी ऋषि बोले आप माया हैं और शिव भगवान है। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता है। यह कहकर सप्तर्षि पार्वती को प्रणाम करके वहां से चले गए।

क्यों कर दिया शिवजी ने कामदेव को भस्म?
पार्वती की परीक्षा लेने के बाद सप्तर्षि भगवान शंकर के पास आए और उन्होंने पार्वती से हुई बातचीत शिवजी को सुनाई। शिवजी सारी बात सुनकर बहुत खुश हुए। बातें सुनने के बाद वे फिर से शिवजी श्रीरामजी के ध्यान में मग्र हो गए। उसके बाद एक बार की बात है कि तारका नाम का एक असुर हुआ उसने सभी देवताओं को हराकर तीनों लोकों को जीत लिया। वह अमर था। इसीलिए देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। आखिर सभी देवता उसके आतंक से परेशान होकर ब्रह्मजी के पास पहुंचे। तब ब्रह्मजी ने देवताओं को बताया कि इस असुर का संहार सिर्फ शिव पुत्र के द्वारा ही हो सकता है। तब सभी देवता चिंतित हो गए क्योंकि सती के देह त्याग के बाद से शिव समाधि में बैठे थे। तब ब्रहा्रजी बोले कि सती ने देह त्याग के बाद हिमाचल के यहां जन्म लिया है।

उन्होंने पार्वती के रूप में शिव को पाने के लिए बहुत तप किया लेकिन वे तो समाधि लगाकर बैठे हैं। इसलिए आप लोग जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो ताकि उनके मन में काम का भाव उत्पन्न हो। इसके अलावा कोई उपाय नहीं है। देवताओं ने जब कामदेव को जाकर सारी बात बताई। तब कामदेव फूलों का धनुष लेकर निकल पड़े। उनके प्रभाव से सभी पशु-पक्षी काम के बस में हो गए। लेकिन जब कामदेव शिव के पास पहुंचे तो वे डर गए। उन्होंने शिव को मनाने के लिए बसंत को भेजा लेकिन शिव की समाधि नहीं टूटी। जब कामदेव सारी कोशिश कर हार गए। तब उन्होंने शिव पर काम के पांच बाण चलाए। क्रोध के कारण शिव का तीसरा नेत्र खुल गया और जैसे ही उन्होंने कामदेव को देखा तो वे जलकर भस्म हो गए।

क्या हुआ, जब कामदेव की पत्नी पहुंची शिव के पास?
शिव के क्रोध से जब कामदेव भस्म हो गए। तब पूरे संसार में हाहाकार मच गया। देवता और दैत्य डर गए। योगी निष्कंटक हो गए। कामदेव की पत्नी रति अपने पति की दशा सुनकर बेहोश हो गई। वह रोती हुई शिवजी के पास पहुंची। रोती और विलाप करती हुई शिव से कामदेव के लिए प्रार्थना करने लगी। तब रति को देखकर शिव को दया आ गई।

शिवजी ने कहा तुम्हारे पति का नाम अनंग होगा। वह बिना शरीर के ही रहेगा। अब वह अगला जन्म विष्णु अवतार कृष्ण के पुत्र के रूप में लेगा। उसका नाम प्रद्युम्र होगा। शिवजी की बात सुनकर रति वहां से चली गई। उसके बाद सभी देवताओं ने जब देखा कि कामदेव को शिव ने भस्म कर दिया है तो सभी देवता उन्हें मनाने के लिए उनके पास पह़ुंचे। उनसे प्रार्थना कि और बोले हे!शिव हम सभी देवताओं के मन में आपके विवाह को लेकर बहुत उत्साह है। हम सभी अपनी आंखों से आपको विवाह के बंधन में बंधते देखना चाहते हैं

शिवरात्रि: ऐसा अद्भुत दृश्य था शिव की बारात का
ब्रह्माजी के लग्र पढ़कर सुनाने के बाद देवताओं का सारा समाज प्रसन्न हो गया। आकाश से फूल बरसने लगे। शिवजी विवाह के श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाया और सांपों से उसे सजाया। सांपों के कुंडल पहनें और शरीर पर भभूति लगायी। एक हाथ में त्रिशुल और दुसरे में डमरू है। वे बैल पर चढ़कर चले बाजे बज रहे हैं। सभी देवता अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर बारात में शामिल हुए।

तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हंस कर कहा - सब लोग अलग-अलग चलो। हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है।शिवजी उनकी बात सुनकर मुस्कुराते हैं उनका व्यंग्य भी उन्हें बुरा नहीं लगता। शिवजी ने श्रृंगी को भेजकर अपने सभी गणों को बुलवाया। शिवजी का आदेश समझकर सब चले आए। किसी की आंखें नहीं हैं। किसी का मुख नहीं है किसी के कई हाथ -पैर हैं। बारात में प्रेतों और पिशाचों की भी जमात है।सब कुछ अदूभुत है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है।

यह बारात है या यमराज की सेना?
जैसा दुल्हा अब वैसी ही बारात बन गई। उस समय हिमाचल द्वारा बनवाया गया शादी का मण्डप भी अद्भुत था। जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। हिमाचल ने अपनी पुत्री की शादी में सभी नदियों, वनों और तालाबों को बुलाया था। सभी अपने इच्छा के अनुसार मनुष्य का शरीर धारण करके विवाह में शामिल हुए। हिमाचल ने अपना पूरा घर सजवा रखा था। साथ ही सारा नगर दुल्हन की तरह सजाया गया था। जिस नगर में साक्षात जगदम्बा ने अवतार लिया हो उसका वर्णन करना बहुत ही कठीन है।

बारात नगर के निकट आई।यह खबर सुनकर पूरे नगर में चहल-पहल मच गई। अगवानी करने वाले सभी लोग बारात की अगवानी करने पहुंचे। देवताओं के समाज को देखकर भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए
लेकिन जब सभी ने शिव की बारात को आते देखा तो वे भाग गए। जब वे सभी लोग भागते हुए घर को पहुंचें। उन्हें देखकर पार्वती के माता-पिता घबरा गए। जब उन्होंने पूछा क्या हुआ? तब उन लोगों ने कहा क्या कहें यह बारात है या यमराज की सेना? दुल्हा पागल है और बैल पर सवार है।

दुल्हे को देख सारी महिलाएं डर गई क्योंकि?
अब शिवजी की बारात पार्वती के यहां आ पहुंची। चारों तरफ खुशी का माहौल था। पार्वती की माता आरती की थाली लेकर आयी। सभी महिलाएं मंगलगीत गा रही थी। जैसे ही उन्होंने दुल्हे को देखा सभी महिलाएं डर गई। वे सभी डर के कारण वह से भागकर घर में आ गई। शिवजी का जहां जनवासा था। वे वहां चले गए। यह देखकर पार्वती की मां को बहुत दुख हुआ।

उन्होंने पार्वती को अपने पास बुलाया और उन्हें गोद में बैठा लिया। उनसे कहने लगी विधाता ने तुमको कितना सुन्दर रुप दिया है।उस मुर्ख ने तुम्हारे दुल्हे को बावला कैसे बना दिया। जो फल कल्पवृक्ष में लगाना चाहिए वो बबुल में क्यों लगाया? मैं तुम्हें लेकर समुद्र में कुद जाऊंगी। चाहे इससे संसार में हमारी बदनामी हो लेकिन मैं इस बावले से तुम्हारा विवाह नहीं करूंगी। मैंना को देखकर सभी महिलाएं व्याकुल हो गई। वे कहने लगी मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था। जिनके कहने पर तुमने इस बावले के लिए तप किया।

नारद को ना तो किसी का मोह है ना माया। इसलिए वो एक मां के दर्द को क्या जाने? अपनी मां को परेशान देखकर पार्वती बोली जो मेरे भाग्य में ऐसे पति लिखें है तो उसमें किसी का क्या दोष। इधर यह बात मालुम होते ही हिमाचल सप्तऋषि के साथ घर पहुंचे। तब परिस्थिति को समझते हुए नारद जी ने सभी को पार्वती के पूर्व जन्म की कहानी सुनाई। उन्होंने सभी को बताया की माता पार्वती साक्षात जगदम्बा का रूप है। तब नारद की बात सुनकर मैंना के मन को शांति हुई। उसके बाद विवाह की सभी रस्में निभाना फिर से शुरू की गई।

ऐसा था पार्वती की बिदाई का दृश्य...
जब पार्वती की बिदाई का समय आया। तब उनकी माता व्याकुल हो गई। उनकी परेशानी समझकर शिव ने अपनी सास को बहुत समझाया। फिर पार्वती की माता ने उनसे कहा शिवजी के चरणों की हमेशा पूजा करना औरतों का यही धर्म है। इस तरह पार्वती को समझाते हुए उसकी आंखों में आंसु आ गए। उन्होंने पार्वती को गले लगा लिया। इस तरह सबसे मिलकर पार्वती ससुराल चली। सभी ने उन्हें योग्य आर्शीवाद दिया।

इस तरह शिव व पार्वती सभी से विदा लेकर कैलाश को चल दिए। सभी देवताओं ने फूलों की वर्षा की और आकाश में नगाड़े बजने लगे। उसके बाद शिवजी कैलाश पर्वत पर पहुंचे और सभी देवता अपने-अपने लोक चलें। शिव-पार्वती हर तरह का सुख भोगते हुए कैलाश पर रहने लगे। समय बीतता गया तब उनके पुत्र कार्तिकेय का जन्म हुआ। जिसने तारकासुर का वध किया। शिवजी के चरित्र का वर्णन करने के बाद भारद्वाज जी बहुत खुश हुए।शिवजी के समान रामजी की भक्ति करने वाला कौन है। जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री का त्याग कर दिया। ऐसा करके उन्होंने राम के प्रति अपनी भक्ति दिखा दी।

तब दोनों भाइयों ने शाप के कारण राक्षस का जन्म लिया
शिवजी की कथा सुनने के बाद याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज मुनि को कहा कि मैं अब आपको श्रीराम जी की कथा सुनाता हूं। एक दिन शिवजी की पत्नी पार्वती उनके पास पहुंची। शिवजी ने उनकी पत्नी को आदर से अपनी बांयी ओर बैठने के लिए आसन दिया। जैसे ही वे शिवजी के पास बैठी उन्हें पिछले जन्म की कथा याद आ गई। तब पार्वती जी ने शिव जी से कहा मैं आपके चरणों की दासी हूं।

मैं आप से रामजी की कथा सुनना चाहती हूं। पार्वती द्वारा बहुत विनती करने पर शिवजी उन्हें रामजी की कहानी सुनाने लगे। पार्वती से उन्होंने कहा सुनों पार्वती में तुम्हें रामजी की वही कहानी सुनाता हूं। जो काकभुशुण्डि ने पक्षियों के राजा गरुडज़ी को सुनाई थी। जितनी मेरी समझ में है मैं तुम्हे उतनी कहानी सुनाती हूं। जब धर्म की हानि होती है और राक्षस बढ़ जाते हैं।

वे लोगों पर बहुत अत्याचार करते हैं तब देवता अवतार लेते हैं। मैं उनके एक-दो जन्मों का वर्णन करता हूं। भगवान विष्णु के दो जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण के शाप से राक्षस के रूप में जन्म लिया। एक का नाम था हिरण्यकश्यपु और दूसरा हिरण्याक्ष। वे युद्ध में विजय पाने वाले विश्वविख्यात थे। इनमें से एक को भगवान ने वराह अवतार लेकर मारा, दूसरे का नरसिंह रूप लेकर वध किया।

राक्षस की पत्नी ने दे दिया भगवान विष्णु को शाप...
उन दोनों ने ही रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया।ब्राह्मण के शाप के कारण उन दोनों ने राक्षस के रूप में तीन जन्म लिए थे। वहां एक जन्म में कश्यप और अदिति भगवान के माता-पिता हुए। जो अगले जन्म में दशरथ और कौशल्या के नाम से प्रसिद्ध हुए।

एक कल्प में सभी देवताओं के जलंधर राक्षस से युद्ध हार जाने से दुखी होकर शिवजी ने उससे बहुत युद्ध किया लेकिन वह राक्षस नहीं मरा। उस राक्षस की पत्नी सती थी। भगवान ने धोखे से उसका स्त्रीव्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उसे यह बात मालूम हुई की उसके साथ धोखा हुआ है तो उसने गुस्से में भगवान को शाप दिया और भगवान ने उसके शाप को स्वीकार किया।

उसी राक्षस ने रावण के रूप में जन्म लिया। सभी कवियों ने भगवान के अवतारों के बारे में कई प्रकार का वर्णन किया है। एक बार नारद ने भगवान विष्णु को शाप दिया जिसके कारण उनका अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वती जी बहुत आश्चर्य चकित हुई। तब महादेवजी ने उनसे कहा इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है रामजी जैसा चाहते हैं उसी समय वैसा होने लगता है।

कामदेव ने कैसे की नारदजी की तपस्या भंग?
हिमाचल पर्वत में एक गुफा थी। उसके पास गंगा बहती थी। वह गुफा नारदजी को बहुत अच्छी लगी। दक्ष प्रजापति के शाप के कारण वे वैसे तो एक जगह अधिक समय तक नहीं रह सकते थे। लेकिन भगवान को याद करने के कारण उनका ध्यान लग गया।

मन की गति स्वाभाविक होने के कारण उनकी समाधी लग गई।नारद मुनि की स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर आदर सत्कार किया। कहा मेरे लिए तुम नारद की समाधी को भंग कर दो क्योंकि उस समय इन्द्र के मन में यह डर था कि वह नारद मुझ से मेरा इन्द्रलोक छिनना चाहते हैं। अब कामदेव उस आश्रम की तरफ निकल पड़े।जब कामदेव उस आश्रम में गए, तब उसने अपनी माया से वहां वसन्त का मौसम ला दिया। काम को भड़काने वाली हवाएं चलाई।

रम्भा आदि अप्सराएं जो सभी कामकला में निपुण थी। वे गाने लगी। लेकिन कामदेव की कोई भी कला नारदजी पर असर नहीं कर सकी। तब कामदेव को अपने सर्वनाश की चिंता सताने लगी। इसलिए कामदेव नारदजी से क्षमा मांगने लगे।

नारद मुनि को क्यों हो गया अभिमान?
कामदेव की कोई कला नारदमुनि पर असर नहीं कर सकी। अप्सराओं की सुन्दरता भी नारदजी को रिझा नहीं पाई। नारदजी को कामदेव के इतना करने पर भी गुस्सा नहीं आया। कामदेव को उनकी भूल का अहसास हुआ तब उन्होंने नारदजी से माफी मांगी। उसके बाद इन्द्र की सभा में जाकर कामदेव ने इन्द्र को सारी बात बताई। सभी ने कामदेव की बात सुनकर नारदजी के सामने सिर नवाया।

तब नारदजी शिवजी के पास गए। उनके मन में इस बात का घमंड हो गया कि उन्होंने कामदेव को जीत लिया। तब शिवजी से जाकर उन्होंने कहा जिस तरह ये जो सारी बात आपने मुझे सुनाई। उस तरह शिवजी को कभी मत सुनाना। शिवजी ने यह शिक्षा नारदजी को उनके भले के लिए ही दी लेकिन उन्हें शिवजी की यह बात अच्छी नहीं लगी। एक बार नारदजी घुमते हुए विष्णु भगवान के लोक पहुंचे। विष्णु जी ने बड़े ही आदर से उन्हें आसन पर बिठाया। नारदजी ने शिवजी के मना करने के बाद भी विष्णु जी को अपने साथ घटित हुई सारी कथा सुनाई।

तब भगवान समझ गए कि नारदजी के मन में घमंड का अंकुर पैदा हो गया है। भगवान ने सोचा मुझे इनके मन से ये अंकुर तुरंत उखाड़ फेंकना चाहिए। तब विष्णुजी ने अपनी माया से एक नगर रचा। वह नगर विष्णु भगवान के नगर से ज्यादा सुन्दर था। उस नगर में कई सुन्दर पुरुष और स्त्रियां रहते थे। उस नगर का वैभव इन्द्र की नगरी की तरह था। उस नगर में एक रूपवती कन्या थी।जिसके रूप को देखकर लक्ष्मी जी भी मोहित हो जाए। वह राजकुमारी सब गुणों की खान थी। उसके स्वयंवर के लिए दूर-दूर से कई राजकुमार आए हुए थे। नारदजी जी उस समय नगर में गये।

नारदजी अपना वैराग्य भूल गए क्योंकि...
उस नगर का ऐश्वर्य अद्भुत था। वहां विश्वमोहिनी नाम की एक कन्या थी। जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाए। वह राजकुमारी स्वंयवर करना चाहती थी। इसलिए वहां अगणित राजा आए हुए थे। तभी नारदजी भ्रमण करते हुए उस नगर में पहुंचे। वहां के राजा से बात की। राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद को दिखाया और पूछा कि नारद मुनि आप इस कन्या के गुण व दोष बताएं।

उसके रूप को देखकर नारद मुनि अपना वैराग्य भूल गए। बड़ी देर तक उसकी तरफ देखते रहे। उसके लक्षण देखकर उन्हें बहुत खुशी हुई। वे मन ही मन खुद से कहने लगे कि जो इसे ब्याहेगा वह अमर हो जाएगा। रणभूमि में उसे कोई जीत न सकेगा। यह कन्या जिससे भी शादी करेगी सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। राजा से यह कहकर कि आपकी लड़की सुलक्षणा है नारदजी वहां से चल दिए। लेकिन उनके मन की चिंता यह थी कि मैं जाकर सोच-समझकर कुछ ऐसा करूं जिससे ये कन्या मुझसे ही शादी करे। इस समय तो सबसे पहले मुझे सुन्दर रूप की आवश्यकता है। तब नारदजी ने सोचा कि क्यों ना मैं भगवान से विनती करके सुन्दरता मांगू क्योंकि इस समय सिर्फ वही मेरी मदद कर सकते हैं।

विवाह के लिए नारदजी भी पहुंच गए स्वयंवर में...
नारदजी को मन में अपने आप से मोह हो रहा था क्योंकि...नारदजी उस सुन्दरी के रूप को देखकर मोहित हो गए। नारदजी ने सोचा कि उन्हें उस कन्या के स्वयंवर को जीत कर उसका वर बनना है तो इसके लिए उन्हे रूपवान बनना होगा। यह सोचकर नारदजी भगवान विष्णु के पास पहुंचे। वे विष्णु भगवान से विनती करने लगे उन्होंने विष्णु भगवान को सारी कहानी सुनाई। कहानी सुनाने के बाद वे विष्णुजी से बोले आप अपना सौन्दर्य मुझे दे दीजिए।

तब भगवान विष्णु नारदजी से बोले की मैं वही करूंगा जो आपके लिए कल्याणकारी होगा। मैंने तुम्हारा हित करने की ठान ली है। अब नारदजी को अपने रूप का अभिमान हो गया। वहीं शिवजी के दो गण बैठे थे। वे दोनों गण ब्राह्मण का वेष बनाकर घुमते थे। वे बहुत मनमौजी थे। ब्राह्मण का स्वरूप होने के कारण कोई उन्हें पहचान नहीं पाते थे। वे दोनों नारदजी पर व्यंग्य करने लगे।

वे कहने लगे भगवान ने इन्हे अच्छी सुन्दरता दी है। इनकी सुन्दरता देखकर वह कन्या रीझ जाएगी। नारदजी को मन में अपने आप से मोह हो रहा था क्योंकि उनका मन दूसरों के हाथ में था। मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे। जब वह कन्या स्वयंवर के लिए तो नारदजी का वह रूप जो केवल उसी ने देखा उसे देखकर उस कन्या को बहुत गुस्सा आया। वह राजकुमारी अपने हाथों में वरमाला लेकर चल रही थी। वह सभी राजाओं को देखते हुए वहां घुमने लगी। नारदजी बार-बार उचकते और छटपटाते।

तब नारदजी ने भगवान विष्णु को शाप दे दिया...
जब उस कन्या ने नारदजी को देखा तो उसे गुस्सा आ गया। नारदजी का वह स्वरूप केवल उस कन्या ने ही देखा। मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गर्यी थी। जब शिव के गणों ने उन्हें मुस्कुराकर कहा नारदजी जरा अपना मुंह तो दर्पण में देखिए। ऐसा कहकर वे दोनों डर कर भाग गए।

नारदजी ने जल में अपना मुंह देखा। अपना रूप देखकर उनका गुस्सा बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिवजी के उन दोनों गणों को शाप दिया कि जाओ तुम दोनों जाकर राक्षस हो जाओ। इतना कहने के बाद नारदजी ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना असली रूप प्राप्त हो गया।इतना होने के बाद भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे उनका मन गुस्से से भरा था। वे मन ही मन सोचते हुए जा रहे थे।

मैं जाकर या तो शाप दूंगा या अपने प्राण दे दूंगा उन्होंने मेरा मजाक बनाया है। उन्होंने सारे संसार में मेरी हंसी उड़वाई है। उन्हें भगवान विष्णु बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मीजी ओर वही राजकुमारी थी। तब नारदजी का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया। तब नारदजी भगवान विष्णु से कहा कि जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है ठीक उसी तुम भी वही शरीर धारण करो, यही मेरा शाप है।

तब नारदजी को हुआ अपनी गलती का एहसास...
नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा तुम सबको ठग कर निडर हो गए हो। इसी के कारण तुम्हारे मन में हमेशा उत्साह रहता है। अब तक तुम्हे किसी ने ठीक नहीं किया है। इसलिए जाओ जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है। तुम भी वही शरीर धारण करो यह मेरा शाप है।

तुमने मेरा रूप बंदर सा बना दिया था। इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। जिस स्त्री को चाहता था। उससे मेरा वियोग कराकर तुम खुश हो रहे हो इसलिए तुम भी स्त्री के वियोग में दुखी होओगे। नारदजी का शाप सुनकर भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे। जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया। तब वहां ना लक्ष्मी रह गई न राजकु मारी। यह देखकर नारदजी ने भगवान विष्णु के चरण पकड़ लिए।

कहने लगे हे भगवान मेरा शाप झूठ हो जाए। आप मुझे क्षमा कर दीजिए। भगवान विष्णु मुस्कुराए और उन्होंने हर तरह से नारदजी को समझाने का प्रयास किया। जब शिव के दोनों गणों ने देखा कि नारदजी का गुस्सा शांत हो गया है तो वे उनके पास पहुंचे। वे बोले नारदजी हमने जो अपराध किया है। उसका दंड हमने पा लिया है। आप हम दोनों का शाप दूर करने की कृपा कीजिए।

तब नारदजी बोले तुम दोनों राक्षस तो बनोगे लेकिन तुम्हे तेज व बल की प्राप्ति होगी। तुम अपने बल से विश्व जीत जाओगे। तब भगवान विष्णु मनुष्य शरीर धारण करेंगे। तब युद्ध में भगवान विष्णु के हाथों ही तुम्हारी मृत्यु होगी। वे दोनों समय पाकर राक्षस हुए। उन दोनों के उद्धार के लिए भगवान विष्णु ने अवतार लिया था। इस तरह भगवान ने हर कल्प में अनेकों जन्म लिए। कहते हैं जब-जब भगवान ने जन्म लिया। तब-तब मनुष्यों ने उनके बारे में काव्यों की रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है।

कैसे जन्म हुआ मनुष्य जाति का?
नारदजी की कथा समाप्त होने के बाद याज्ञवल्क्य जी भारद्वाज मुनि से बोले कि शंकर जी की बात सुनकर पार्वती जी मुस्कुराई। फिर शिवजी पार्वती जी को भगवान के अवतार की दूसरी कहानी सुनाने लगे। मनु और शतरूपा जिनसे मनुष्यो की उत्पति हुई दोनों आचरण में बहुत अच्छे थे। राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे। जिनके पुत्र ध्रुव थे। उनके छोटे लड़के का नाम प्रियवृत था। देवहूति उनकी पुत्री थी।

जो कदम मुनि की पत्नी बनी। उन्होंने आदिदेव कपिल मुनि को जन्म दिया। राजा मनु ने बहुत समय तक राज्य किया। उसके बाद उम्र ढलने के साथ उन्होंने सन्यास लेने का मन बना लिया। वे सारा राज्य जबरदस्ती अपने पुत्रों को देकर वे वन चले गए।चलते-चलत वे गोमती के किनारे जा पहुंचे। जहां बहुत से सुन्दर तीर्थ थे। मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए।

उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों जैसे ही वस्त्र धारण करते थे। दोनों राजा और रानी साग फल और कन्द का आहार करते थे। इस प्रकार जल का आहार करते छ: हजार वर्ष बीत गए। ऐसे उन्होंने कई वर्षो तक तपस्या की। दस हजार वर्षो तक केवल वायु के आधार पर जीवित रहे और उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कुछ वर मांगो। लेकिन वे बिना डिगे तप करते रहे।

तब राजा अपना रास्ता भटक गया...
शिवजी ने कहा पार्वती अब तुम भगवान के अवतार लेने की एक और कथा सुनो। एक बहु्त मशहूर देश कैकय था। वहां सत्यकेतु नाम का एक राजा रहता था। वह बहुत धार्मिक, तेजस्वी, प्रतापी और बलवान था। उनके राज्य का उत्तराधिकारी जो उनका बड़ा लड़का था। उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था। जिसकी भुजाओं में बहुत बल था।

दोनों भाइयों में बहुत प्रेम था।राजा ने अपने बड़े पुत्र को राज्य सौंप दिया। वह अच्छे से अपने प्रजा का पालन करने लगा। वेदों में राजा के जो भी धर्म बनाए गए है। उसके अनुसार वह प्रजा का पालन करने लगा। उसने बहुत सी बावड़ी और कुएं खुदवाए। वह राजा बुद्धिमान और ज्ञानी था। एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब समान सजाकर विन्ध्याचल घने जंगल में गया और वहां उसने बहुत से सुन्दर हिरन मारे। राजा ने वन घूमते सुअर को देखा। मानों राहु वन में आ छूपा हो। उसका शरीर बहुत बड़ा था। तभी राजा के घोड़े्र के आने की आवाज सुनकर वह घुर्राने लगा।

उस सुअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तू नहीं बच सकता। घोड़े को आता देखकर सूअर हवा के वेग से भागने लगा। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया। वह सूअर दौड़ता हुआ घने जंगल में चला गया। राजा को बहुत धैर्यवान देखकर सूअर भागकर गुफा में जा घुसा। उस गुफा में राजा को जाना कठिन लगा तो उसने वापस लौटने का फैसला किया लेकिन वह रास्ता भटक गया।

राजा का दुश्मन उसे आश्रम ले गया क्योंकि...
राजा वन में घुमते हुए अपना रास्ता भटक गया। वह भुख-प्यास के कारण बेहाल था। उसे घने जंगल में एक आश्रम दिखाई दिया। वहां मुनि का वेष बनाये एक राजा रहता था। जिसका देश प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना छोड़कर युद्ध से भाग गया था। इससे वह न तो घर गया और अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही नहीं मिला। गुस्से के कारण वह युं ही गरीबों की तरह दिन बीताने लगा। राजा उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है। राजा प्यासा होने के कारण उसे पहचान ना सका।

सुन्दर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतरकर नमस्कार किया। राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया। सारी थकावट मिट गई। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने आसन दिया। फिर वह तपस्वी राजा से बोला तुम कौन हो? सुन्दर युवक होकर, जीवन की परवाह किए बिना वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा जैसे लक्षण देखकर मुझे बहुत दया आ गई। तब राजा बोला प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूं। शिकार के लिए घुमते हुए मैं अपना रास्ता भटक गया हूं। बहुत भाग्य से मुझे आपके आश्रम का रास्ता मिला है।इससे जान पड़ता है कि कुछ भला होने वाला है। तब मुनि ने कहा अंधेरा हो गया है आपका शहर यहां से सत्तर योजन की दूरी पर है। इसलिए आप रात को यहीं विश्राम करें और सुबह होते ही चले जाएं।

जो होना होता है वही होता है
वह राजा उसे साधु समझकर उससे आदर के साथ मिलता है। वह उसे कहता है कि मैं राजा प्रतापभानु का मंत्री हूं। मैं जंगल में शिकार करने आया था लेकिन अपना रास्ता भटक गया हूं। वह साधु का वेष धारण किए हुए राजा का दुश्मन उसे पहचान जाता है। वह शत्रु राजा प्रतापभानु से कहता है कि अंधेरा हो गया है आप आज रात यही रुक जाए। बहुत अच्छा ऐसा कहकर और घोड़े को पेड़ से बांधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था।

राजा के मन में तो कोई छल नहीं था लेकिन तपस्वी के मन में कपट था। राजा ने उससे पूछा आप कौन है वो तपस्वी बोला हमारा नाम भिखारी है क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत है। राजा ने कहा जो आपके जैसे अभिमान रहित लोग होते हैं वे अपने स्वरूप को हमेशा छुपाए रखते हैं। इसी कारण तो आप लोगों को संत और वेद कहकर पुकारते है। आप जैसे गरीबों और बेघर लोगों को देखकर तो शिव को भी संदेह हो जाता है। आप जो हों सो हों मैं आपको प्रणाम करता हूं।

तपस्वी बोलता है राजा अभी तक ना तो मुझसे कोई मिला है और ना मैं किसी से मिला हूं क्योंकि इस संसार में जो प्रतिष्ठारूपी अग्रि है मेरे अनुसार वह तप रूपी वन को भस्म कर देती है। इसी कारण मैं जगत से छिपकर रहता हूं। तपस्वी कहता है मेरा नाम एकतनु है। तपस्वी से इस तरह की बातें सुनकर राजा उस पर विश्वास कर लेता है। उससे प्रभावित होकर पूछता है आपके नाम का अर्थ क्या है। तब वह कहता है जब सृष्टी की उत्पति हुई तभी मेरी भी हुई।

ये कैसा वरदान मिला राजा को?
अब वह तपस्वी राजा को अपनी पुरानी कहानी कहने लगा। कर्म, धर्म आदि की कहानियां कहकर अपने ज्ञान का बखान करने लगा। राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा राजन् मैं तुम को जानता हूं। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा। तुम्हारी चतुराई से मुझे बड़ा प्रेम हो गया है। तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। गुरू की कृपा से मैं सब जानता हूं। तुम्हारे स्वभाव के सीधेपन व प्रेम से मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गयी है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कहानी सुनाता हूं। अब मैं प्रसन्न हूं तुम इसमें अपने मन में कोई संशय मत रखना। तब राजा ने कहा- मुनि सिर्फ आपके दर्शन से ही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मेरी मुठ्ठी में आ गए तो भी आपको खुश देखकर यह वर मांगना चाहता हूं कि मेरा शरीर वृद्धवस्था मृत्यु और दुख से रहित हो जाए और मुझे युद्ध में कोई ना जीत पाए। तब तपस्वी ने कहा राजन ऐसा ही हो पर एक बात कठिन है उसे भी सुन लो। केवल ब्राह्मण कुल को छोड़कर काल भी तुम्हारे चरणों में सिर झुकाएगा एवमस्तु। कपटी मुनि फिर बोला- तुम मेरे मिलने की या राह भूल जाने की बात किसी से कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं। अगर यह बात किसी और के कान में पड़ गई तो तुम्हारा नाश हो जाएगा।

क्या किया राजा ने शाप से बचने के लिए?
जब राजा तपस्वी की बात सुनकर भयभीत हो गया। तब उस कपटी तपस्वी ने राजा से कहा तुम्हारे पास शाप से बचने का एक उपाय जरूर है। वह यह की मेरा जाना तो तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूं, तब से आजतक मैं किसी के घर नहीं गया।

अगर मैं नहीं जाता हूं तो तुम्हारा काम बिगड़ जाएगा। आज मैं बड़ा असमंजस में हूं। तब राजा ने कहा मुनि श्री आप मेरी मदद कीजिए। ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए और कहा कि अब आप मुझ पर कृपा कीजिए क्योंकि आप ही मेरी मदद कर सकते है। तब वह तपस्वी बोला मैं तुम्हारा काम जरूर करूंगा। तुम मन वाणी और शरीर से मेरे भक्त हो लेकिन तुम्हे ये बात गुप्त रखनी होगी। रोज नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना।

मैं रोज भोजन बना दिया करूंगा। इस तरह थोड़ी सी मेहनत से ही सारे ब्राह्मण तुम्हारे पक्ष में आ जाएंगे। मैं एक और बात बता देता हूं मैं तुम्हारे यहां रूप बदलकर रहूंगा। मैं तुम्हारे पुरोहित का रूप धरकर तुम्हारा काम सिद्ध करूंगा। उसके बाद राजा उस तपस्वी की बात मानकर सो गया। राजा थका हुआ तो था ही उसे नींद आ गई लेकिन वह कपटी कैसे सोता उसे तो बहुत चिंता हो रही थी। उसी समय वहां कालकेतु नाम का राक्षस आया। जिसने सुअर बनकर राजा को भटकाया था। वह राक्षस तपस्वी का मित्र था। इसलिए तपस्वी उसे देखकर खुश हो गया।

शत्रु को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए
राजा प्रतापभानु ने कालकेतु के अति शक्तिशाली सौ पुत्रों और दस भाइयों को युद्ध में मार डाला था। राजा से अपने पुत्रों और भाइयों की हत्या का बदला लेने के लिए पाखंडी तपस्वी के साथ मिलकर यह पूरा षडय़ंत्र रचा। प्रतापभानु तपस्वी और कालकेतु की योजना समझ नहीं सका और उनके जाल में फंस गया। कालकेतु ने ही राजा को सुअर बनकर वन में भटकाया था। इसी राक्षस की वजह से प्रतापभानु रास्ता भूल बैठा।

तपस्वी और राक्षस कालकेतु ने मिलकर योजना बनाई और सोचा कि तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो उसे कमजोर नहीं समझना चाहिए। शत्रु से हमेशा सावधान रहना चाहिए। जिस प्रकार राहु का केवल सिरमात्र बचा था और वह आज भी सूर्य और चंद्र को दुख देता है। उसी प्रकार प्रतापभानु को भी छोटा या कमजोर नहीं समझना चाहिए।

राक्षस ने तपस्वी से कहा कि हे राजन। आपने इतना प्रतापभानु को बुरी तरह अपने जाल में फंसा लिया है जैसे विधाता ने ही हमारा रोग बिना दवा के ठीक कर दिया। दोनों ने योजना बनाई कि प्रतापभानु को कुल सहित नष्ट करके चौथे दिन फिर मिलेंगे। इस प्रकार षडय़ंत्र रचकर मायावी राक्षस कालकेतु वहां से चला गया।
उन्होंने माया के प्रभाव से प्रतापभानु को नींद में घोड़े सहित पलभर में महल पहुंचा दिया। राजा को रानी के पास सुला दिया और घोड़ों को घुड़साल में पहुंचा दिया।

और ब्राह्मणों ने राजा को राक्षस बनने का दे दिया श्राप
कपटी तपस्वी ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार प्रतापभानु के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि भ्रम में डाल दी। अब तपस्वी पुरोहित का रूप बना लिया। सुबह जब राजा ने खुद को राजमहल में देखा तो उसने तपस्वी का उपकार माना।

राजा प्रतापभानु चुपचाप फिर से वन में चला गया और कुछ समय पर पुन: नगर में लौट आया ताकि किसी को शंका न हो। राजा के सकुशल लौट आने पर नगर में काफी खुशियां मनाई गईं। उसी समय पुरोहित के वेश में वह तपस्वी राजा ने मिला और राजा ने उसे पहचान लिया।

राजा ने तपस्वी गुरु की आज्ञा पाकर एक लाख ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रण दे दिया। पुरोहित ने माया से वेदों के अनुसार भोजन बनाया। भोजन में अनेक प्रकार के पशुओं का मांस भी पकाया जिसमें कपटी तपस्वी ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। प्रतापभानु इस कपट को समझ नहीं सका।

निमंत्रण पाकर सभी ब्राह्मण वहां आ पहुंचे। राजा ने भोजन परोसना शुरू किया उसी समय मायावी राक्षस कालकेतु ने आकाशवाणी की और बता दिया कि इस भोजन में ब्राह्मणों का मांस मिला हुआ है। यह सुनते ही सभी ब्राह्मण क्रोधित हो गए और राजा प्रतापभानु को श्राप दे दिया कि वह पूरे परिवार सहित राक्षस बन जाएगा।

वही होता है जो होना है
राजा ने कोई अपराध नहीं किया है। कुछ समय बाद फिर यह आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहां गया, जहां भोजन बना था। उसने देखा तो न तो वहां रसोइयां था और ना ही भोजन।
उसने आकर ब्राह्मणों को सब बात बताई।वह व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़ा। यहां राजा का दोष नहीं है फिर भी जो होना होता है वही होता है। ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों को जब यह समाचार मिला तो वे चिन्ता करने और विधाता को दोष देने लगे। जिसने हंस बनाते-बनाते राजा को कौआ बना दिया। पुरोहित उसके घर पहुंचाकर असुर ने कपटी तपस्वी को खबर दी।

उसने जहां-तहां पत्र भेजे, जिससे सब राजा सेना सजा-सजाकर दौड़े। उन्होंने डंका बजाकर नगर को घेर लिया। रोज लड़ाईयां होने लगी। सत्यकेतु के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था। राजा के जितने भी दुश्मन थे वे सभी उसके राज्य पर विजय प्राप्त कर अपने-अपने राज्य चले गए। विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं तब उसके लिए धुल सुमेरु पर्वत के समान , पिता यम के समान और रस्सी सांप के समान हो जाती है।

तब कुंभकरण ने वरदान में मांगी छ:महीने की नींद
राजा प्रतापभानु ने ही रावण नामक राक्षस के रूप में जन्म लिया। उसके दस सिर और बीस भुजाएं थीं। वह बहुत शुरवीर था। अरिमर्दन नाम का उस राजा का छोटा भाई था जिसने कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। उसका जो मंत्री धर्मरुचि था वह रावण का सौतेला भाई हुआ। उसका नाम विभीषण था। वह विष्णु भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। जो राजा के पुत्र और सेवक थे उन सभी ने राक्षस के रूप में जन्म लिया।
वे सभी बहुत ही भयानक और सभी को दुख पहुंचाने वाले साबित हुए। वे पुलत्सय ऋषि के कुल में उत्पन्न हुए। तीनों भाइयों ने अनेक प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तप देखकर ब्रह्मजी उनके सामने प्रकट हुए और बोले मैं प्रसन्न हूं वर मांगो। रावण ने उनसे वर मांगा कि वानर और मनुष्य इन दो जातियों को छोड़कर हम और किसी के मारे ना मरे।

शिवजी कहते हैं कि मैंने और ब्रह्म ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्मजी कुंभकर्ण के पास गए । उसे देखकर उन्हें मन ही मन बड़ा आश्चर्य हुआ। जो यह दुष्ट रोज भोजन करेगा तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। सरस्वती ने ब्रह्मा की प्रेरणा से उसकी बुद्धि फेर दी उसने छ: महीने की नींद मांगी फिर ब्रह्मजी विभीषण के पास गए और बोले वर मांगो। उसने भगवान के चरण में निर्मल प्रेम मांगा। उनको वर देकर ब्रह्मजी वहां से चले गए।

ऐसे जीती रावण ने लंका...
मय नाम का एक राक्षस था। मय दानव की मन्दोदरी नाम की एक कन्या थी। मन्दोदरी बहुत सुन्दर और स्त्रियों में शिरोमणि थी। उससे शादी करके रावण प्रसन्न था। फिर उसने विवाह कर दिया क्योंकि उसे पता था कि यह राक्षसों का राजा होगा। उसके बाद रावण ने अपने दोनों छोटे भाइयों का भी विवाह कर दिया। समुद्र के बीच में त्रिकूट नाम का एक बड़ा भारी किला था। मय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे।

जैसे नागकुल की पाताल में भोगावतीपुरी है और इन्द्र के रहने की अमरावती पुरी है उनसे भी अधिक सुन्दर वह दुर्ग था। वही दुर्ग संसार में लंका नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे चारों और से समुद्र की बहुत गहरी खाई घेरे हुए है। भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प जो राक्षसों का राजा होता है वही शूर, प्रतापी अतुलित बलवान अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है।

वहां बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्ध में मार डाला। अब इन्द्र प्रेरणा से वहां कुबेर के एक करोड़ रक्षक रहते हैं। रावण को कहीं ऐसी खबर मिली तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उसे बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष वहां से भाग गए। तब रावण ने घूम फिरकर सारा नगर देखा, उसकी चिन्ता मिट गयी। रावण ने उस नगर को अपनी राजधानी बनाया। योग्यता के अनुसार रावण ने सभी राक्षसों को लंका में घर बांट दिए। एक बार उसने कुबेर से युद्ध करके पुष्पक विमान भी जीत लिया।

जानिए रावण से जुड़ी कुछ रोचक बातें...
पौराणिक पात्रों में रावण एक ऐसा पात्र है जिसे जो हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है। कोई भी ऐसा व्यक्ति जो थोड़ा क्रूर या क्रोधी स्वभाव का हो, उसकी तुलना हम रावण से कर देते हैं। रावण जितना दुष्ट था, उसमें उतनी खुबियां भी थीं, शायद इसीलिए कई बुराइयों के बाद भी रावण को महाविद्वान और प्रकांड पंडित माना जाता था। रावण से जुड़ी कई रोचक बातें हैं, जो आम कहानियों में सुनने को नहीं मिलती। विभिन्न ग्रंथों में रावण को लेकर कई बातें लिखी गई हैं। फिर भी रावण से जुड़ी कुछ रोचक बातें हैं, जो कई लोगों को अभी भी नहीं पता है।

आइए हम चर्चा करते हैं ऐसी ही कुछ बातों की।
- वाल्मीकि रामायण के मुताबिक सभी योद्धाओं के रथ में अच्छी नस्ल के घोड़े होते थे लेकिन रावण के रथ में गधे हुआ करते थे। वे बहुत तेजी से चलते थे।

- रावण संगीत का बहुत बड़ा जानकार था, सरस्वती के हाथ में जो वीणा है उसका अविष्कार भी रावण ने किया था।

- रावण ज्योतिषी तो था ही तंत्र, मंत्र और आयुर्वेद का भी विशेषज्ञ था।

- रावण ने शिव से युद्ध में हारकर उन्हें अपना गुरु बनाया था।

- बालि ने रावण को अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी।

- रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि रावण के दरबार में सारे देवता और दिग्पाल हाथ जोड़कर खड़े रहते थे।

- रावण के महल में जो अशोक वाटिका थी उसमें अशोक के एक लाख से ज्यादा वृक्ष थे। इस वाटिका में सिवाय रावण के किसी अन्य पुरुष को जाने की अनुमति नहीं थी।

- रावण जब पाताल के राजा बलि से युद्ध करने पहुंचा तो बलि के महल में खेल रहे बच्चों ने ही उसे पकड़कर अस्तबल में घोड़ों के साथ बांध दिया था।

- रावण जब भी युद्ध करने निकलता तो खुद बहुत आगे चलता था और बाकी सेना पीछे होती थी। उसने कई युद्ध तो अकेले ही जीते थे।

- रावण ने यमपुरी जाकर यमराज को भी युद्ध में हरा दिया था और नर्क की सजा भुगत रही जीवात्माओं को मुक्त कराकर अपनी सेना में शामिल किया था।

वहां भगवान खुद चले आते हैं जहां...
रावण और उसके भाइयों ने पुरी पृथ्वी पर तांडव मचा रखा था पराये धन और परायी स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे। साधुओं से सेवा करवाते थे। जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना चाहिए। यह सब देखकर पृथ्वी व्याकुल हो गई। वह सोचने लगी कि पर्वतों नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं पड़ता जितना भारी मुझे ये पापी लगते हैं। पृथ्वी देख रही है कि सबकुछ धर्म के विपरित हो रहा है पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं रही है। उसका दिल सोच- विचारकर, गौ का रूप धारण कर धरती वहां गयी, जहां सब देवता और मुनि थे।

पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुख सुनाया, पर किसी से कुछ काम ना बना। तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्मजी के लोक को गए। भय और शोक से व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गौका शरीर धारण किए हुए थे। ब्रह्मजी सब जान गए । उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलेगा। इसलिए ब्रह्मजी ने कहा धरती मन में धीरज रखो। हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं।

ये तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे। सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहां ढूंढे। कोई वैकुण्ठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीर समुद्र में निवास करते हैं। जिसके दिल में जैसी भक्ति और प्रीति होती है। प्रभु वहां सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। पार्वती उस समय में भी वहां उपस्थित था। मैं तो यह जानता हूं कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं। प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं। प्रभु तो हर जगह है।

क्यों बन गए सारे देवता वानर?
सभी देवताओं की पूकार सुनकर आकाशवाणी हुई डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण कर लूंगा। कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूं।वे ही दशरथ और कौशल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर प्रकट हुए। उन्हीं के घर जाकर मैं राम के घर में अवतार लूंगा। आप सभी निर्भय हो जाओ।

आकाश की बात को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट आए। ब्रह्मजी ने पृथ्वी को समझाया। तब उसका डर खत्म हो गया।देवताओ को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धारण करके आप लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्मजी अपने लोक को चले गए। सब देवता अपने-अपने लोक को गए। सभी के मन को शांति मिली। ब्रह्मजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत खुश हुए और उन्होंने देर नहीं की।

पृथ्वी पर उन्होंने वानर का शरीर धारण किया। उनमें बहुत बल था। वे सभी भगवान के आने की राह देखने लगे। वे जंगलों में जहां तहां अपनी-अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गए। अवध में रघुकुलशिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे बहुत ज्ञानी थे। उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियां सभी पवित्र आचरण वाली थी वे पति के अनुकूल थी और श्री हरि के प्रति उनका प्रेम बहुत दृढ़ था।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Ramayana (रामायण ) Part 2

किसने किया भगवान का नामकरण?
राजा दशरथ पुत्र के जन्म की खबर सुनकर बहुत खुश हुए। उन्होंने उनके पुत्र को देखते हुए कहा जिनका नाम सुनने से ही कल्याण हो जाता है। वे प्रभु मेरे घर आए हैं। गुरु वसिष्ट जी के पास बुलावा गया वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने जाकर बालक को देखा जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते। फिर राजा ने नन्दीमुख श्राद्ध करके सभी को दान दिया। पूरा नगर सजाया गया।

स्त्रियां झुंड में उन्हें देखने आने लगी। राजा ने सबको भरपूर दान दिया है। जिसने पाया है उसने भी नहीं रखा लुटा दिया। कैकयी और सुमित्रा दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। अवधपुरी इस तरह शोभित हा रही है जैसे मानों रात्रि सूर्य को देखकर सकुचा गई हो। उनके जन्म के उत्सव का उल्लास इतना था। अबीर व गुलाल इतना उड़ाया गया जिससे लगने लगा कि सूरज की रोशनी धुंधली हो गई है। महीना भर बीत गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रूक गए, फिर रात कैसे होती? इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए पता ही नहीं पढ़ रहे थे। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा ने मुनि वसिष्ट को बुलाया।

मुनि की पूजा करके राजा ने कहा मुनिश्री अब आप मेरे पुत्रों का नामकरण करें। तब मुनि जी ने कहा कि आपने जो भी नाम सोचे होंगे राजन वे सभी नाम अद्भुत होंगे। फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूंगा। ये जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि है, जिस के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन का नाम राम है। जो सभी लोकों को शांति देने वाले हैं। जो संसार का भरण पोषण करते हैं उनका नाम भरत होगा। जिनके स्मरण मात्र से सारे शत्रुओं का नाश हो जाता है। उनका नाम शत्ऱुघ्र होगा। जो शुभ लक्षणों वाले हैं उनका नाम लक्ष्मण होगा।

ऐसा था रामजी का बचपन
भगवान ने बहुत सी बाल लीलांए की और अपने सेवकों को अत्यंत आनन्द दिया। कुछ समय बीतने पर चारो भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने लगे। तब गुरुजी ने जाकर चूड़ाकर्म संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पायी। जो अगोचर हैं वही प्रभु दशरथजी के आंगन में घुम रहे हैं। भोजन करने के समय जब दशरथ उन्हें बुलाते हैं तो वे अपने दोस्तो को छोड़कर भोजन करने नहीं आते। कौसल्या बुलाने जाती है तब प्रभु ठुमक-ठुमक कर भागने लगते हैं। शिवजी ने जिनका अंत नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकडऩे के लिए दौड़ती है। वे शरीर में धूल लपेटे हुए आये और राजा ने हंसकर उन्हें गोद में बैठा लिया। अवसर पाकर मुंह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले।

रामचन्द्रजी की बहुत ही सहज और सुन्दर बाललीलाओं का वर्णन रामायण में मिलता है। कौसलपुर में रहने वाले हर एक व्यक्ति को रामजी की बाललीलांए बड़ी प्रिय लगती है। जिस प्रकार लोग सुखी हों रामजी उसी तरह की लीला करते हैं। सुबह उठकर माता-पिता और गुरु का को मस्तक नवाते हैं। ये तो थी रामजी की बाललीलांए अब आगे की कहानी सुनों उस समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षसों से सभी ऋषि-मुनि बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे उपद्रव मचाते थे। जिससे मुनि दुख पाते थे। विश्वामित्रजी के मन में चिंता छा गई कि पापी राक्षस भगवान के मारे बिना नहीं मारेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि के मन में विचार किया कि प्रभु ने राक्षसों को मारने के लिए अवतार लिया है। वे ही इन राक्षसों का संहार कर सकते हैं।

विश्वामित्र ने दशरथ से क्या मांगा?
विश्वामित्रजी के मन में चिंता छाई हुई थी उन्होंने अयोध्या जाने का फैसला किया। सरयु के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुंचे। राजा ने जब मुनि के आने का समाचार सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत करके मुनि सम्मान करते हुए, उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया। चरणों को धोकर बहुत पूजा की ओर कहा मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उन्हें प्रेम से भोजन करवाया फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि से मिलने के लिए बुलाया।

चारों पुत्रों ने मुनि को प्रणाम किया। विश्वामित्र रामजी की शोभा देखने में ऐसा मग्र हो गए मानो चकोर ने चांद को देखा। तब राजा खुश होकर बोले किस कारण से आपका शुभागमन यहां हुआ है। मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊंगा। तब विश्वामित्र ने कहा राजन राक्षसों के समुह मुझे बहुत सताते हैं। इसलिए मैं तुमसे कुछ मांग ने आया हूं। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सुरक्षित हो जाऊंगा।

इस अत्यंत अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का दिल कांप उठा और उनके मुख की कांति फिकी पड़ गई। उन्होंने कहा मुनि आप मुझ से खजाना मांग लीजिए, मैं बड़ी खुशी से अपना सबकुछ आपको सौंप दूंगा। मेरे पुत्र अभी किशोर अवस्था में है वे कहां उन क्रुर व डरावने राक्षसों निपट पाएंगे। तब विश्वामित्र ने दशरथ को बहुत प्रकार से समझाया और बताया कि उन राक्षसों का नाश केवल राम के हाथों ही संभव है।

और रामजी ने किया ताड़का का वध
मुनि के बहुत समझाने राजा दशरथ मान गए। राजा ने बहुत प्रकार से आर्शीवाद देकर पुत्रों को विश्ववामित्र के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चल दिए। दोनों भाई प्रसन्न होकर चल दिए। भगवान के लाल नेत्र हैं चौड़ी छाती और विशाल भुजाएं हैं। कमर में पीतांबर और सुन्दर तरकश कसे हुए दोनों के हाथ में धनुष और बाण है। श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाइयों की जोड़ी बहुत सुन्दर लग रही है।

रास्ते में चलते हुए उन्हें ताड़का दिखाई दी। उन्हें देखते ही वह गुस्सा करके दौड़ी। रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण ले लिए। तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर उन्हें ऐसी विद्या दी जिससे भुख व प्यास न लगे शरीर में असंतुलित बल और तेज का प्रकाश हों। तब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु को अपने आश्रम में ले आये और उन्हें बड़े प्यार से भोजन करवाया। सुबह रामजी ने विश्वामित्रजी से कहा आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए।

पत्थर की मुर्ति कर रही थी स्पर्श का इंतजार क्योंकि...
मुनि आश्रम आने के बाद उन्होंने कहा श्री रामजी ने उनसे कहा आप निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह समाचार जब मारिच को मिला की रामजी विश्वामित्र के हवन की रक्षा कर रहे हैं तो वह अपने सहायकों को लेकर वहां पहुंच गया। रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा। जिससे वह समुद्र के पार जाकर गिरा। फिर सुबाहु ने अग्रिबाण चलाया। इधर छोटे भाई लक्ष्मण ने राक्षसों की सेना का संहार किया।

इस तरह रामजी कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों को निडर कर दिया। मुनि ने रामजी से वहां से चलने को कहा। दोनों भाई और विश्वामित्र वहां से चल पड़े। मार्ग में एक आश्रम दिखाई दिया। वहां पशु-पक्षी कोई भी जीव जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला देखकर प्रभु ने पूछा कि मुनि श्री इस शिला की कथा सुनाईये। तब उन्होंने यह कथा सुनाई।

गौतम मुनि की पत्नी अहिल्या शापवश पत्थर की देह धारण कि ए बड़े ही धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। इस कृपा कीजिए।रामजी के चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमुर्ति अहिल्या प्रकट हो गई। उनका शरीर पुलकित हो गया। उनके मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। अहिल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई।

रामजी को देखकर सब मोहित हो गए जब...
रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहां गए, जहां जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी थी। महाराज गाधि के पुत्र विश्चामित्र जी ने वह सब कथा कह सुनाई। जिस तरह गंगा पृथ्वी पर आई थी। उसके बाद ऋषियों ने स्नान किया। फिर विश्वामित्र के साथ वे खुश होकर जनकपुरी के निकट पहुंचे।

रामजी ने जब जनकपुरी की शोभा देखी। तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित बहुत खुश हुए। नगर की सुन्दरता देखते हीं बनती थी। राजा जनक का महल बहुत सुन्दर और ऐश्वर्यमय है। आमों के बाग सहज ही सबका ध्यान अपनी और आकर्षित करते है। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण सहित जनक के दरबार में पहुंचे।

राजा जनक ने उनका बहुत स्वागत किया और उनके चरणों मे झुककर उन्हें प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने खुश होकर आर्शीवाद दिया। उसी समय दोनों भाई आ पहुंचे। जो फुलवाड़ी देखने गए थे। रामजी व लक्ष्मणजी को देखकर सभी सुखी हो गई। राजा सभी को एक सुन्दर महल में ले गए और वहां ठहराया। हर तरह के आदर-सत्कार के बाद वे अपने महल को चले गए। उसके बाद लक्ष्मण जी ने रामजी से कहा कि भैया हम जनकपुरी देखना चाहते हैं।

रामजी की इच्छा भी कुछ ऐसी थी लेकिन वे विश्चामित्रजी से पूछने में सकुचाते हैं। रामजी ने छोटे भाई की मन की बात समझ ली। तब रामजी ने विश्वामित्रजी से पूछा कि लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं क्या मैं उन्हें नगर दिखाकर ले आऊं। तब विश्वामित्र जी से आज्ञा लेने के बाद दोनों भाई जनकपुरी देखने के लिए निकल पड़े। रामजी जब जनकपुरी देखने के लिए गए तब सभी जनकपुरवासी उन पर मोहित हो गए।

रामजी भी चकित हो गए क्योंकि....
दोनों भाई नगर के पूर्व की ओर गए। जहां धनुषयज्ञ के लिए भूमि बनाई गई थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुन्दर ढाला हुआ पक्का आंगन था। चारों और सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे। जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके चारों और गोलाकार घेरे मे सामान्य

लोगों को बैठना था। उन्हीं के पास विशाल और सफेद रंग के मकान अनेक रंगों के बनाये हुए हैं। जहां अपने-अपने कुल के अनुसार सब महिलाएं बैठेंगी। जनकपुरी के छोटे-छोटे बच्चे रामजी को धनुषयज्ञ की तैयारी दिखा रहे है। सब बच्चे इसी बहाने प्रेम के वश होकर श्रीरामजी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर खुश हो रहे हैं। रामजी ने सब बच्चों की प्रेम से बात की। रामजी धनुषयज्ञशाला को चकित होकर देख रहे हैं।

रात होते ही विश्वामित्रजी ने सबको आज्ञा दी। तब सब ने संध्यावंदन किया। दुसरे दिन सुबह दोनों भाई विश्वामित्रजी की आज्ञा से बगीचे में गए। बगीचे के बीचों बीच में सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढिय़ां विचित्र ढंग से बनी है। बगीचे की सुंदरता देखकर रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी बहुत खुश हुए। तभी सीताजी वहां आई। सीताजी सरोवर पर स्नान करके प्रसन्न मन से मंदिर गई।

उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुन्दर वर मांगा। सीताजी की एक सहेली फुलवाड़ी देखने चली गई। उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा और बड़ी विहृल होकर सीताजी के पास आई। सीताजी ने उसकी प्रसन्नता का कारण पूछा तो वह बोली बाग में दो राजकुमार आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब बहुत सुंदर है। यह सुनकर सीताजी अपनी सहेली से उनके रूप का वर्णन सुनकर बोली शायद ये वही राजकुमार है जो विश्वामित्रजी के साथ आए हैं।

जब सीताजी ने रामजी को देखा तो...
जिन्होंने अपने रूप से नगर के स्त्री पुरूषों को अपने वश में कर लिया है। उन्हें देखना चाहिए वे देखने ही योग्य है। नारदजी ने भी रामजी के स्वरूप की सीताजी से बहुत प्रशंसा की। हाथों के कड़े करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर रामजी दिल में विचारकर लक्ष्मण से कहते हैं मानों कामदेव ने दुनिया जीतने का संकल्प कर लिया। ऐसा कहकर श्रीरामजी ने मुड़कर उस ओर देखा तो सीताजी जैसे ही उन्हें दिखाई दी तो वे पलकें झपकाना भुल गए। सीताजी की सुन्दरता देखकर दिल में वे उनकी सराहना करते है लेकिन मुंह से शब्द नहीं निकल रहे हैं।

रघुवंशियों का यह सहज स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। रामजी के छोटे भाई से बातें कर रहे हैं और उनसे कह रहे हैं कि सीताजी उनके मन को भा गई हैं। सीताजी पत्तियों और लताओं की ओंट में से श्रीरामजी को देख रही हैं। सीताजी की सारी सहेलियां मोहित होकर रामजी को देख रही है। एक चतुर सहेली ने सीताजी को कहा गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेती। तब सीताजी ने सकुचाकर अपनी खोले और रामजी की तरफ देखा तो वे क्षुब्ध रह गई।

जब सीताजी ने आंखे खोली तो...
जब सीताजी ने अपनी आंखें खोली और रामजी की ओर देखा। उनकी शोभा देखकर सीताजी देखकर मंत्रमुग्ध हो गई। जब सहेलियों ने सीताजी को परवश देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगी। बड़ी देर हो गई। कल इसी समय फिर आयेंगी, ऐसा कहकर एक सहेली हंसी। सहेली की ऐसी बात सुनकर सीताजी सकुचा गई। उन्हें लगा देर हो गई। यह सोचकर उन्हें डर लगा। वे रामजी की सांवली सूरत को भूलाए नहीं भूल पा रही हैं। उनकी छबि जैसे सीताजी के मस्तिष्क से हटने का नाम ही नहीं ले रही है। उसके बाद सीताजी फिर से भवानीजी के मंदिर गई और उनके चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर बोली- हे मां पार्वती आपका ना आदि है ना अंत है।

आपके महिमा असीम है। मां आप मेरे मनोरथ को अच्छे से जानती हैं ऐसा कहकर सीताजी ने उनके चरण पकड़ लिए तब गिरिजाजी उन पर प्रसन्न होकर बोली- सीता हमारी बात सुनो तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। जिसे तुम पति रूप में चाहती हो वही तुम्हे मिलेगा। रामजी ने भी अपने गुरु विश्वामित्र को जाकर सबकुछ बोल दिया क्योंकि उनका स्वभाव सरल है। वे अपने मन में कोई छल नहीं रखते। फिर दोनों भाइयों को विश्वामित्रजी ने आर्शीवाद दिया कि तुम अपने मनोरथ में सफल हो। जानकी जी ने शतानन्दजी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्रजी के पास भेजा। उन्होंने आकर सीताजी की बात सुनाई।

ऐसा था राम-सीता के स्वयंवर का दृश्य?
दोनो भाई रंग भूमि में आ गए हैं, यह खबर जब सब नगरवासियों को मिली। तब सभी अपने घर से निकलकर कामकाज भुलाकर चल दिए। जब जनकजी ने देखा कि भारी भीड़ जमा हो गई है, तब उन्होंने सब विश्वास पात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा-तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य आसन दो।

उन सेवकों ने सभी को अपने-अपने यथायोग्य स्थान पर बैठाया। उसी समय राजकुमार राम और लक्ष्मण वहां आए। वे राजाओं के समाज में ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो तारों के बीच दो पूर्ण चंद्रमा हो। स्वयंवर में दूर-दूर से राजा आए हैं कुछ राक्षस भी राजाओं का वेश बनाकर आए हैं। सभी लोग उन्हें देख रहे हैं। रानियां उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं। उनके प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता है। उन्हें देखकर सब लोग सुखी हो रहे हैं। राजा जनक दोनों को देखकर बहुत खुश हुए और उन्होंने विश्वामित्रजी को अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि दिखाई। रामचन्द्रजी को देखकर सभी को विश्वास हो गया कि धनुष यज्ञ तो वे ही जीतेंगे।

स्वयंवर शुरु हुआ सभी राजाओं ने अपने-अपने स्तर पर कोशिश की लेकिन कोई भी शिवजी धनुष को हिला भी ना पाया। जब सभी राजा उपहास योग्य हो गए। सीताजी की आंखों में आंसु भरे हैं। तभी रामजी अपने स्थान पर से उठे और उन्होंने सीताजी की ओर ऐसे ताका है, जैसे गरूड़ की तरफ सांप ताकता है। रामजी ने मन ही मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया तो धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश मंडलाकार सा हो गया।

सीताजी जब वरमाला लेकर रामजी के समीप पहुंची तो..
जैसे ही रामजी ने धनुष तोड़ा सारे ब्रह्माण्ड में जयजयकार की ध्वनि छा गई। सभी लोग आपस में प्रसन्न होकर कह रहे हैं श्रीरामजी ने धनुष तोड़ दिया। सब लोग घोड़े, हाथी, धन मणि, वस्त्र न्यौछावर कर रहे हैं। बहुत तरह के बाजे-बज रहे हैं। युवतियां मंगलगीत गा रही है। सभी सहेलियों और सीताजी बहुत खुश हुई। धनुष के टूट जाने पर राजा लोग निस्तेज हो गए।

रामजी को लक्ष्मणजी इस प्रकार देख रहे हैं जैसे चंद्रमा को चकोर का बच्चा देख रहा है। शतानन्दजी ने आज्ञा दी और सीताजी रामजी के पास गई। उनके साथ में चार सहेलियां मंगल गीत गाती हुई चल रही है। सहेलियों के बीच में सीताजी चल रही है। सीताजी का शरीर संकोच में है, पर मन में बहुत उत्साह है। रामजी के पास जाकर सीताजी पलके झपकाना भूल गई।

तभी एक चतुर सहेली ने सीताजी की दशा देखकर समझाकर कहा सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से जयमाला उठाई लेकिन प्रेम और झिझक के कारण उन्हें पहना नहीं पा रही हैं। सीताजी ने जयमाला रामजी के गले में पहना दी। नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग आदि। जयजयकार करके आर्शीवाद दे रहे हैं। पृथ्वी पाताल व तीनों लोकों में यह बात फैल गई कि रामजी ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी का वरण कर लिया है।

क्या हुआ जब स्वयंवर में पहुंच गए परशुराम?
उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटने की बात सुनकर उस जगह परशुरामजी भी आए। उन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए। परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा डर गए व्याकुल होकर उठ खड़े हुए। परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर प्रणाम किया और सीताजी ने भी उन्हें नमन किया।

परशुरामजी ने सीताजी को अर्शीवाद दिया। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण छूने को कहा। दोनों को परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। फिर सब देखकर, जानते हुए भी उन्होंने राजा जनक से पूछा कहो यह इतनी भीड़ कैसी है? उनके मन में क्रोध छा गया।

जिस कारण सब राजा आए थे। राजा जनक ने सब बात उन्हें विस्तार से बताई। बहुत गुस्से में आकर वे बोले- मुर्ख जनक बता धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो आज जहां तक तेरा राज्य है, वहां तक की पृथ्वी उलट दूंगा। राजा को बहुत डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं दे पा रहे थे। सीताजी की माताजी भी मन में पछता रही थी कि विधाता ने बनी बनाई बात बिगाड़ दी।

तब श्रीरामजी सभी को डरा हुआ देखकर बोले- शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका ही कोई दास होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर परशुरामजी गुस्से में बोले सेवक वह है जो सेवक का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करना चाहिए। जिसने शिवजी का धनुष तोड़ा है वह मेरा दुश्मन है। तब लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले- हमने आज तक बहुत से धनुष तोड़े। आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजास्वरूप परशुरामजी क्रोधित होकर कहने लगे।

क्यों गुस्सा आ गया परशुरामजी को?
लक्ष्मणजी की बात सुनकर परशुरामजी गुस्से से भर गए और बोले कि काल के वश में होने के कारण तुझे कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष भी क्या सामान्य धनुष के ही समान है। लक्ष्मण जी ने हंसकर कहा सुनिए मुझे तो सारे धनुष एक जैसे ही लगते है। पुराने धनुष को तोडऩे से क्या हानि और क्या लाभ? फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें श्रीरामजी का कोई दोष नहीं है।

आप बिना ही कारण किस लिए गुस्सा कर रहे हैं? परशुराम जी ने उनकी ओर देखा और बोले तू मेरे स्वभाव से शायद परिचित नहीं है। मैं बालब्रह्मचारी और बहुत क्रोधी हूं। क्षत्रिय कुल के नाश के लिए विश्वविख्यात हूं।अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजा रहित कर दिया। तब यह सब सुनकर लक्ष्मण ने कोमल वाणी में कहा मुनि तो अपने आप को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं।

भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवित देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूं। देवता, ब्राह्मण, भगवान भक्त और गाय इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अकीर्ति होती है। इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर पडऩा चाहिए। तब गुस्से से भरकर परशुरामजी ने कहा यह लड़का मुर्ख है और अभी यह क्षण भर में काल का ग्रास हो जाएगा। तब लक्ष्मणजी ने कहा शुरवीर तो युद्ध में कर्म करते हैं वे डींग नहीं हांकते। तब विश्वामित्र जी ने कहा यह तो बालक है और बालकों के दोष और गुण की को साधु लोग नहीं गिनते।

परशुरामजी श्रीरामजी के हाथ में धनुष देने लगे तो...
श्रीरामजी ने कहा- मुनि गुस्सा छोडि़ए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है। जिस तरह आपका क्रोध शांत हो जाए आप वही कीजिए। स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? गुस्सा त्याग दीजिए। आपका वेष देखकर ही बालक ने यह सब कह दिया इसमें उसका कोई दोष नहीं है। आपको कुठार व बाण धारण किए देखकर वीर समझकर बालक को गुस्सा आ गया। वह आपका नाम तो जानता नहीं था। उसने आपको पहचाना नहीं।

अपने वंश के स्वभाव के अनुसार ही उसने उत्तर दिया। अगर आप मुनि की तरह आते तो वह आपके सामने अपना सिर झुकाता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए। ब्राह्मण के दिल में तो दया की भावना होनी चाहिए। हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए ना कहा चरण और कहा मस्तक । हमारा तो एक ही गुण धनुष है और आप में पूरे नौ गुण हैं। हम तो हर तरह से आप से हारे हैं। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कुराकर सिर नवाया और कहा मुनि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है तो क्रोध होने पर शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे। तब परशुरामजी ने कहा यह बालक हठी और मुर्ख है।

उन्होंने राम जी से कहा तू शिवजी का धनुष तोड़कर उल्टा हमें ही ज्ञान सीखाता है।

तेरा यह भाई मुझे उल्टी-सीधी बातें बोल रहा है और तू छलिया मुझ से छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। तू मझे निरा ब्राह्मण ही समझता है। मेरा प्रभाव तू अभी जानता नहीं है। तब राम जी ने कहा मेरी भूल बहुत छोटी है और आपका क्रोध बहुत अधिक पुराना धनुष था। छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूं? हम क्षत्रिय हैं युद्ध से नहीं डरते। रामजी की रहस्यपूर्ण बात सुनकर परशुरामजी ने कहा धनुष को हाथ में लीजिए और खींचिए, जिससे मेरा संदेह मिट जाए। जब परशुराम धनुष देने लगा तो वह खुद ही चला गया। तब उन्होंने श्रीरामजी का प्रभाव जाना।

तब परशुरामजी ने मांगी माफी

जब परशुरामजी ने रामजी का प्रभाव जाना तो वे हाथ जोड़कर बोले आपकी जय हो। मैं अपने एक मुंह से आपकी क्या प्रशंसा करूंमैंने अनजाने में आपको जो भी बात कही उसके लिए मुझे माफ कीजिए। ऐसा कहकर परशुराम जी वन को चले गए। देवताओं ने नगाड़े बजाए वे रामजी के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए। सभी महिलाएं मंगलगीत गाने लगी। सीताजी का डर भी चला गया। वे वैसा ही सुख महसूस कर रही हैं जैसा चंद्रमा के उगने पर चकोर महसूस करता है।

जनकजी ने विश्वामित्र को प्रणाम किया और कहा आपकी कृपा से रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। अब आप कहिए आप का क्या कहना हैतब विश्वामित्र जी बोले धनुष टूटते ही विवाह हो गया। अब तुम जैसा भी तुम्हारे कुल में रिवाज हो या वेदों में जो भी नियम हो वैसा करो। अयोध्या दूत भेजो जो राजा दशरथ को बुला लाए। तब राजा जनक ने उसी समय दूतों को अयोध्या भेजा।

रामजी के स्वयंवर जीतने का संदेश अयोध्या पहुंचा तो...
राजा दशरथ को अयोध्या बुलाने के बाद राजा जनक ने सभी महाजनों को बुलाया और सभी ने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर झुकाया। राजा ने कहा आप लोग मंडप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर सभी ने अपना काम शुरू कर दिया। सोने के केले के खंबे बनाए। रत्नो से जड़ा मंडप बनाया। बहुत ही सुन्दर बंदरवार बनाए।

उस समय जिसने उस मंडप को देखा उसे बड़े से बड़े महल भी तुच्छ लगे।उधर जनकजी का दूत राजा दशरथ के पास आयोध्या पहुंच जाता है। राजा ने उस चिठ्ठी को लेकर उसे पढऩा शुरू किया तो उनकी आंखें भर आई।  भरतजी अपने दोस्तों के साथ जहां खेलते थे। वहां जैसे उन्हें ये बात पता चली वे तुरंत राजमहल लौट आए। जब राजा ने पूरा पत्र पढ़ लिया उसके बाद दूतों को कहा मेरे दोनों बच्चे कुशल से तो है ना।

जिस दिन से वे मुनि विश्वामित्र के साथ गए तब से आज ही हमें उनकी सच्ची खबर मिल रही है। तब दूतों ने कहा आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं है वे तीनों लोकों के लिए प्रकाश के समान है। सीताजी के स्वयंवर में बहुत से योद्धा आए थे। लेकिन शिवजी के धनुष कोई भी नहीं हटा सका। धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी को क्रोध आ गया। उन्होंने बहुत प्रकार से आंखें दिखाई। लेकिन रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया।

ऐसी थी श्री रामजी की बारात....
राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़ेहाथी और रथ सजाओजल्दी रामजी की बारात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। भरतजी ने घोड़े तैयार करने का आदेश दिया। सब घोड़े बहुत ही सुंदर और चंचल के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहे पर रखते हों। उन सभी की चाल हवा से भी तेज है। उन सभी घोड़ों पर भरतजी के समान अवस्था वाले सभी राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुंदर है और सब आभुषण धारण किए हुए हैं। सभी के कमर पर भारी तरकश बंधे हुए हैं। सारथियों ने ध्वजापताकामणि और आभुषणों को लगाकर रथों को बहुत विलक्षण बना दिया है। ,

रथों पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी। जो जिस काम के लिए जाता हैसभी के साथ कोई ना कोई शुभ शकुन हो रहा है। ब्राह्मणवैश्यमागधसूतभाटऔर गुण गाने वाले सभी जो जिस योग्य थेवैसी ही सवारी पर चढ़कर चले। राजा दशरथ भी उनके लिए सजाए गए रथ पर चढ़ गए। उन्होंने पहले वशिष्ठजी को पहले रथ पर चढ़ाया और फिर खुद शिवगौरी व गणेश का ध्यान करके रथ पर चढ़े। बारात देखकर देवता प्रसन्न हुए और फूलों की वर्षा करने लगे। जब बारात जनकपुरी के करीब पहुंची ढोल-नगाड़ों की आवाज सुनकर राजा जनक हाथी रथ व पैदल यात्री लेकर बारात लेने चले।

और सोलह श्रृंगार से सज गई सीताजी
जब सारे देवताओं ने दशरथ जी का वैभव देखा तो वे दशरथजी की सराहना करने लगे। सभी नगाड़े बजाकर फूल बरसाने लगे। शिवजी ब्रह्माजी आदि टोलियां बनाकर विमानों पर चढ़े और प्रेम व उत्साह से भरकर श्री रामचंद्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे। सभी शादी का विचित्र मण्डप आलौकिक रचनाओं को देखकर चकित हो रहे हैं।

तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में ये मत भूलो। धीरज से विचार तो करो कि यह सीताजी का और ब्रह्माणों के परम ईश्चर साक्षात श्री रामचंद्रजी का विवाह है। जिनका नाम लेते ही जगत में सारे की जड़ कट जाती हैये वही श्रीसीतारामजी है। इस तरह सभी देवताओं को रामजी ने समझाया और फिर नंदीश्चर को आगे बढ़ाया।

देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न हो रहे हैं। रामजी का सुंदर मुख चंद्रमा के समान है। जिस घोड़े पर रामजी विराजमान हैं वह भी इतना सुंदर लग रहा है मानो कामदेव ने ही घोड़े का रूप धारण कर लिया है। चारों और से फूलों की वर्षा होने लगी। दशरथजी अपनी मण्डली के साथ बैठे। आकाश और नगर में शोर मच रहा है।श्रीरामचंद्रजी मण्डप में आए और अघ्र्य देकर आसन पर बैठाए गए। सुंदर मंगल का साज सजाकर स्त्रियां और सहेलिया सीताजी को लेकर चली। वे सोलह श्रृंगार में बहुत सुंदर लग रही है। इस तरह सीताजी मंडप में आई और मंत्रोच्चार शुरू हो गया।

जब सीताजी मंडप में आयीं तो...
सीताजी के मंडप में आने के बाद कुलगुरू ने मंत्रजप शुरू किया गया। गौरीजी व गणेशजी की स्थापना की गई। सभी देवताओं ने प्रकट होकर पूजा ग्रहण की। सीताजी व रामजीएक-दूसरे को इस तरह देख रहे हैं। जिससे दूसरों को कुछ पता नहीं चल रहा है। चारों और से देवता फूल बरसा रहे हैं। महिलाएं मंगलगीत गा रही है। तभी जनक जी श्री रामजी के चरणों को धोने लगे। उनके चरण धोते हुए जनकजी फूले नहीं समा रहे है। जिनके स्पर्श से गौतम मुनि की स्त्री अहिल्या ने परमगति प्राप्त हुई।

दोनों कुलों के गुरू वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर मंत्रोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर देवतामनुष्य मुनि आदि सभी आनन्द से भर गया। रामजी व सीताजी के सिर में सिंदूर भर रहे हैं। उसके बाद रामजी और जनकजी आसन पर बैठे। उन्हें देखकर दशरथजी मन ही मन आनंदित हुए। जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उनसे लक्ष्मणजी का ब्याह कर दिया गया। सीताजी की एक ओर बहन जिनका नाम श्रुतकीर्ति है जो सुंदर नेत्रोंवालीसुन्दर व कमल के समान चेहरे वाली और वे सब गुणों की खान है उनसे शत्रुघ्र का विवाह कर दिया गया। दहेज इतना अधिक है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।

कुछ ऐसा था रामजी की शादी के बाद का दृश्य
सभी दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे को देखकर मन ही मन खुश हो रहे हैं। सभी लोग उनकी सुंदरता की सराहना कर रहे हैं। जोडिय़ां कितनी सुंदर लग रही हैं। आपस में वहां उपस्थित लोग ऐसी चर्चा कर रहे हैं। अपने सभी पुत्रों को बहुओं के साथ देखकर दशरथजी बहुत खुश हो रहे हैं। जब सभी राजकुमारों का विधि-विधान से विवाह हो गया। तब पूरा दहेज व मंडप दहेज से भर गया।

बहुत से कंबलवस्त्र व रेशमी कपड़े दास-दासियां हाथीघोड़ेअनेक वस्तुएं हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती।दशरथजी ने सारा दहेज याचको कोजो जिसे जो अच्छा लगा उसे दे दिया। जनकजी ने हाथ जोड़कर दशरथजी से कहा आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सभी प्रकार से बड़े हो गए। उन्होंने दशरथजी से कहा आप हमें अपना सेवक ही समझिएगा। इन लड़कियों से कोई भी भूल हो तो इन्हें क्षमा कर दीजिएगा। रामचंद्रजी का सांवला शरीर है वे पीले रंग कि धोती पहनकर व पीली जनेऊं उन पर बहुत सुंदर लग रही है।

उनके हाथ की अंगुठी और ब्याह के सारे साज जो उन पर सजे हैं उनकी शोभा को और बड़ा रहे हैं।उनके ललाट पर तिलक बहुत सुंदर लग रहा है। पार्वतीजी रामजी को लहकौर यानी वर-वधु को एक-दूसरे को ग्रास देना सिखाती हैं व सीताजी को सरस्वतीजी सिखा रही हैं। रानिवास में सभी लोग आनंद में डूबे हुए हैं। उसके बाद वर-वधु को जनवासे ले जाया गया। नगर में हर और आनंद छाया हुआ है। सभी नगरवासी भी यही चाहते हैं कि सभी जोडिय़ा सुखी और चिरंजीवी हों।

जब बारात विदा हुई तो...
राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह व ऐश्वर्य की हर तरह से सराहना करते हैं। प्रतिदिन उठकर दशरथजी विदा मांगते हैं। जनकजी उन्हें प्रेम से उनसे रूकने के लिए कहते हैं और उन्हें जाने नहीं देते हैं। इस तरह बहुत दिन बीत गएमानो बाराती प्रेम की डोरी से बंध से गए। तब विश्वामित्रजी और शतानंदजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा- आप स्नेह नहीं छोड़ सकतेतो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। तब जनकीजी ने कहा राजा दशरथ अब जाना चाहते हैं।भीतर यह खबर दो। जनकपुरी के लोगों ने सुना कि बारात जाएगी। तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से पूछने लगे। जनकपुरी के सभी लोग उदास हो गए। आते समय जहां-जहां बाराती ठहरे थे। वहां बहुत प्रकार का रसोई का समान भेजा गया। दस हजार हाथीभैसगायएक लाख घोड़े आदि कई चीजे जनकजी ने असिमित मात्रा में दहेज में दी। इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी भेज दिया। बारात अब विदा होगी यह सुनकर सभी रानियां दुखी हो गई।

वे सीताजी को गले से लगाकर समझाने लगी सासससुर की सेवा करना। पति का रूख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। आदर के साथ सभी पुत्रियों को समझाकर रानियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। उसी समय रामजी व उनके सारे भाई विदा करवाने के लिए जनकजी के महल पहुंचे। रानियों ने सीताजी को रामचंद्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा सीता हमें प्राणों से ज्यादा प्रिय है आप इनका ध्यान रखिएगा। राजा ने शुभ मुर्हूत निकलवाकर कन्याओं को पालकी में बैठाया।

जब हुआ बहुओं का गृहप्रवेश...
रामजी की बारात जनकपुरी से विदा होने के बाद रास्ते में कुछ सुंदर पड़ावों पर रूकी। उसके बाद बारात जब वापस अयोध्या पहुंची।

तब अयोध्यावासियों ने ढ़ोल-नगाड़ो के साथ बारात का स्वागत किया। नगर की स्त्रियां आनंदित होकर आरती करने लगी। सभी चारों राजकुमारों को देखकर कर प्रसन्न हो रहे हैं। बहुओं सहित अपने चारो पुत्रों को देखकर माताएं आनंदित हो गई। पूरे विधि-विधान से बहुओं को गृहप्रवेश करवाया गया। याचक लोगों ने जो मांगा राजा ने सभी को वही दिया। वसिष्ठजी ने जो आज्ञा दी उसी के अनुसार राजा ने सारी रस्में निभाई।राजा ने सभी ब्राह्मणों के चरण धोकर सबको स्नान करवाया।

सभी का पूजन किया उन्हें भोजन करवाया। उन्हें महल के भीतर ठहरने के लिए स्थान दिया। फिर उचित समय देखकर राजा ने सभी को विदा किया। राजा ने सभी को विदा कर रानियों से कहा बहुएं अभी बच्ची हैंपराए घर से आई है। इनको इस तरह रखना जैसे आंखों को पलके रखती हैं। जैसे पलके नेत्रों की हर तरह से रक्षा करती हैं और उन्हें हर तरह से सुख पहुंचाती है वैसे ही इनको सुख देना। सभी राजकुमार भी थक गए हैं। इन्हें भी ले जाकर शयन करवाओ। इतना कहकर राजा विश्राम भवन में चले गए।

और राजा दशरथ ने श्रीराम के राजतिलक की घोषणा कर दी
जब से रामजी विवाह करके घर आएतब से अयोध्या में नित नए मंगल हो रहे हैं। नगर का ऐश्चर्य कुछ कहा नहीं जा सकता। पूरी अयोध्या की जनता सुखी है।एक बार की बात है। राजा के दशरथ अपने सिहांसन पर बैठे थे। राजा ने उस समय अपने हाथ में दर्पण ले लिया। उसमें अपना मुंह देखकर मुकुट सीधा किया। उन्होंने देखा कि कानों के पास के बाल सफेद हो गए हैं। मानों बुढ़ापा उपदेश दे रहा है कि रामजी को अब युवराज पद सौंप देना चाहिए। राजा ने अपने दिल की बात वसिष्ठजी को सुनाया।

राजा ने कहा- वसिष्ठजी रामजी अब सब प्रकार से योग्य है। अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। वह भी आप के ही अनुग्रह से पूरी होगी। आप अगर आज्ञा दें तो तैयारी कि जाए। मेरे जीते जीये उत्सव हो जाए। अब मेरी सारी लालसा पूर्ण हो गई है। अब मेरे मन सिर्फ यही लालसा रह गई है। वसिष्ठजी ने उनकी बात सुनकर कहा-राजन् अब आप देर मत कीजिए। राजा खुश होकर महल में आये और उन्होंने सेवकों को बुलवाया और कहा अगर पंचों को मेरा मत सही लगे तो आप लोग श्रीराम का राजतिलक करें।

इसलिए सरस्वतीजी ने मंथरा की बुद्धि फेर दी
मुनि ने वेदों के अनुसार सभी को आज्ञा दी नगर में बहुत से मंडप सजवाओ। आमसुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों और रोप दो। सारे बाजारों को तुरंत सजाने को कह दो। कुल देवता की पूजा करो और ब्राह्मणों की सेवा करो। ध्वजापताकाघोड़ेहाथी आदि सभी सजाओ। वसिष्ठजी ने जिसे जैसा काम बताया। उसने वैसा काम किया।

सबसे पहले जाकर रानिवास में जिन्होंने यह समाचार सुनायाउन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाए। रानियों ने रामजी व कौसल्याजी ने ब्राह्माणों को बुलाकर बहुत दान दिया। लेकिन देवता यह सब देखकर चिंतित हैं। इसलिए उन्होंने माता सरस्वती को बुलाकर कहा माता हम बहुत बड़ी परेशानी में है आज आप वही कीजिए। जिससे सभी का कल्याण हो।

देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतीजी खड़ी-खड़ी पछता रही हैं। यह देखकर देवता बोले आपको ऐसा करने से किसी तरह का कोई दोष नहीं लगेगा। आप देवताओं के हित के लिए अयोध्या जाओ। मंथरा नाम की एक मंदबुद्धि दासी थी। सरस्वती माता उसकी बुद्धि फेरकर चली गई। मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है।

मंथरा यह देख तुरंत कैकयी के पास पहुंची क्योंकि...
मन्थरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव हैश्रीरामजी के राजतिलक की बात सुनते ही उसे जलन हुई। वह दुर्बद्धि वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात ही रात में बिगड़ जाए। वह उदास होकर रानी कैकयी के पास गई। कैकयी ने हंसकर कहा-तू उदास क्यों हैमंथरा कुछ उत्तर नहीं देतीकेवल लंबी सांस लेने लगी और रोने लगी। रानी ने डरकर उससे पूछा तू रो क्यों रही हैक्यों इतनी गहरी सांसे ले रही है।

उसने कहा आज कौसल्या पर विधाता प्रसन्न हुए हैं। तुम स्वयं जाकर शोभा क्यों नहीं देख लेतीजिसे देखकर मेरा मन घबरा रहा है। तुम्हारा बेटा परदेस में है तो क्या उसे भूल गई हो तुम। उसके बारे में क्यों नहीं सोच रही हो। उसकी बात सुनकर रानी ने कहा घरफोड़ू कहीं की। अब तुने अगर ऐसी बात कही तो मैं तेरी जीभ खींच लुंगी।

बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक के समान होता है। यह सूर्यवंश की सुहानी रिति ही है। यदि सचमुच कल श्रीराम का तिलक है तो जो तेरे मन को अच्छी लगे वह चीज मांग ले। वैसे भी राम मुझ पर विशेष प्रेम रखते हैं। मैं तो उनके प्रेम की परीक्षा भी कर ली है। तुझे भरत की सौगंध तु खुशी के समय ऐसी बातें क्यों कर रही है। मुझे इसका कारण बता।

इसलिए कैकयी को मंथरा की बातें सही लगने लगी
मंथरा ने कहा मुझे सीता-राम प्रिय है और राम को तुम प्रिय हो यह बात सच्ची है। यह बात पहले थी वे दिन अब बीत गए। समय बीत जाने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। तुम्हारी सौत कौशल्या तुम्हारी जड़ उखाडऩा चाहती है। तुम बहुत भोली हो राजा मन के मैले और मुंह के भोले हैं। राम की माता बहुत चतुर और गंभीर हैं। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली।

राजा ने भरत को तो ननिहाल भेज दियाउसे आप बस राम की ही सलाह समझिए। कौसल्या को तो तुम सालों से बहुत खटकती हो। राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। कौशल्या तुम्हारी सौत होने के कारण ऐसा होते नहीं देख सकती। इसीलिए वह चाहती है भरत की अनुपस्थिति में राम का राजतिलक हो। इस तरह उल्टी-सीधी बाते करके मंथरा ने कैकयी को समझा दिया।

तब कैकयी के मन में विश्वास हो गया। रानी फिर सौगंध दिलाकर पूछने लगी। तब मंथरा ने कहा क्या पूछती होअरे तुमने अभी भी नहीं समझाअपने भले बुरे को तो पशु भी पहचान लेते हैं। तब कैकयी की बुद्धि कुचाल हो गई। उसने मंथरा से कहा सुन तेरी बात सच है। मेरी दाहिनी आंख रोज फड़कती है। अशुभ सपने आते हैं लेकिन मैंने यह बात तुझे नहीं बताई।

जब कैकयी जा बैठी कोप भवन में तो...
तब मंथरा ने कहा राजा के पास दो वरदान तुम्हारी धरोहर है। आज उन्हें राजा से मांगकर अपनी छाती ठंडी करो। पुत्र को राज्य और राम को वनवास दो अपनी सौत का सारा आनंद तुम ले लो। जब राजा राम की सौगंध खा ले तब वर मांगनाजिससे राजा वचन को टाल ना पाए। मंथरा ने रानी से कहा तुम कोप भवन में जाओ।

सब काम बड़ी सावधानी से करना। राजा दशरथ की बातों में मत आना। कैकयी कोप का सब साज सजाकर जा सोई। राजमहल और नगर में धूम-धाम मच रही है। सभी लोग खुश हैं। राजद्वार पर बहुत भीड़ हो रही है। राजा दशरथ जब शाम के समय कैकयी के महल में गए। तब उन्हें पता चला कि रानी कोप भवन में है।

कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनके पांव आगे नहीं बढ़ रहे थे। राजा डरते-डरते अपनी प्यारी रानी के पास गए। उसकी दशा देखकर उन्हें बड़ा दुख हुआ। राजा ने कैकयी के पास जाकर पूछा - तुम किस लिए रूठी हुई हो। यह कहकर राजा ने कैकयी को स्पर्श किया तब कैकयी ने उनके हाथ को झटक दिया। वह राजा की तरफ इस तरह देखने लगी माने को क्रोध से भरी नागिन हो। राजा उसे समझाने लगे। वे बोले कैकयी जब तक मेरे पुत्र हैं तब तक मेरे प्राण हैं। अगर मेरे मन में थोड़ा सा भी छल हो तो मेरे प्राण चले जाएं। मुझे राम की सौगंध है। तब कैकयी ने राजा से कहा आप हमेशा कहते हैं कि कुछ मांग-मांग पर देते कुछ नहीं है। आपने दो वरदान देने को कहा था उनके मिलने में संदेह है।

तब कैकयी ने मांगे दशरथ से ये दो वचन....
राजा ने कैकयी कि बात सुनकर कहा अब मैं तुम्हारा मतलब समझा। तुमने उन वरों को रखकर फिर कभी मांगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी याद नहीं आया। मुझे झूठा दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार मांग लो। रघुकुल में हमेशा यही रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएपर वचन नहीं जाता । उस पर मैंने राम की शपथ ली है।

तब कैकयी बोली मुझे मेरी इच्छा के अनुसार एक वर तो दीजिए भरत को राजतिलक। दूसरा वर है कि राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। राजा कैकयी की बात सुनकर जैसे सहम गएउनसे कुछ कहते नहीं बना। राजा दशरथ ने अपना हाथ माथे पर रखकर दोनों आंखें बंद कर ली। राजा का ऐसा हाल देखकर कै कयी मन ही मन मे गुस्से से भर गई। कैकयी बोली क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं। क्या आप मुझे आप दाम देकर खरीद लाए हैंआपको मेरा वचन सुनते ही इतना बुरा लगा तो सोच-समझकर बात क्यों नहीं करते हैं।

आपने ही वर देने को कहा था अब भले ही मत दीजिए। सच का साथ छोड़ दीजिए। राजा ने जब देखा कि कैकयी का स्वरूप बड़ा ही भयानक और कठोर है।

तब उन्होंने कहा कैकयी मैं शंकरजी को साक्षी मानकर सच कहता हूं कि मैं जरूर सुबह दूत भेज दूंगा। भरत व शत्रुघ्र दोनों तुरंत आ जाएंगे। मैं भरत का राजतिलक कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ दो । कुछ ही दिनों में भरत युवराज हो जाएंगे। अब ये क्रोध छोड़कर विचार करके कोई और दूसरा वर मांगो क्योंकि राम के बिना मेरा जीवन नहीं है।

जब रामजी दशरथ के बुलावे पर महल पहुंचे तो...
मैंने आपसे जो वर मांगा है वो मुझे दीजिए या अपयश ले लीजिए। राम साधु हैं। राम की माता भी बहुत भली हैं। मैंने सबको पहचान लिया है। सबेरा होते ही मुनिका वेष धारण कर यदि राम वन नहीं जाते हैं तो मैं अपने आप को खत्म कर लुंगी। ऐसा कहकर कैकयी खड़ी हो गई। राजा समझ गए कि कैकयी नहीं मानने वाली है। राजा व्याकुल हो गए। उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया।

कैकयी की बात सुनकर राजा ने यह कहा तू चाहे जो बोल या कर पर राम को वनवास भेजने की बात मत कर। मैं हाथ जोड़कर तुझसे विनती करता हूं। राजा को विलाप करते-करते सवेरा हो गया। राजद्वार पर भीड़ लग गई। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन सा विशेष कारण हैं कि अवधपति दशरथ अभी तक नहीं जागे। राजा रोज ही रात के पहले ही पहर में ही जाग जाया करते हैं लेकिन आज हमें बहुत

आश्चर्य हो रहा है। जाओ जाकर राजा को जगाओ। तब सुमन्त राजमहल में गए। जहां राजा और कैकयी थे। सुमन्त ने देखा कि राजमहल में बहुत सन्नाटा है। पूछने पर कोई जवाब नहीं देता। राजा के चेहरे पर व्याकुलता है वे जमीन पर पड़े हैं।

मंत्री से डर के मारे कुछ नहीं पूछ सकते। तब कैकयी बोली। राजा को रातभर नींद नहीं आई। तुम जल्दी राम को बुलाकर लाओ। फिर कुछ पूछना। राजा का रूख जानकर सुमंतजी समझ गए कि वे रानी की किसी बात से दुखी हैं। जब सुमंतजी रामजी को बुलाने पहुचे तो वे तुरंत ही उनके साथ चल दिए। जब श्रीरामजी ने जाकर देखा कि राजा बहुत बुरी हालत में पड़े हैं। उनके ओंठ सुख रहे हैं। उनके पास ही उन्होंने गुस्से में बैठी कैकयी को देखा।

जब राम ने दशरथ के दुख का कारण पूछा तो कैकयी बोली...
रामचन्द्रजी ने ऐसा दुख कभी पहले देखा भी नहीं था और ना ही सुना था। फिर उन्होंने कुछ समय सोचा और कैकयी से पूछा माता पिताजी के दुख का कारण क्या हैतब कैकयी ने कहा तुमसे प्रेम ही तुम्हारे पिता के दुख का कारण है। जिससे उस दुख का निवारण हो वही काम करो। सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत प्रेम है। इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था। मुझे जो कुछ अच्छा लगावही मैंने मांगा। मेरे वर सुनकर राजा दुखी हो गए क्योंकि वो तुम्हारा साथ नहीं छोड़ सकते।

एक तरफ तो पुत्र का प्यार और दुसरी तरफ उनकी प्रतिज्ञा। राजा धर्मसंकट में हैं। कैकयी बेधड़क बैठी ऐसी ही कड़वी बातें किए जा रही थी। रामजी मुस्कुराकर बोले माता सुनो वही पुत्र भाग्यवान है। जो अपनी माता-पिता की आज्ञा का पालन करने वाला हो। माता-पिता को संतुष्ट करने वाले पुत्र इस संसार में दुर्लभ होते हैं। भरत राज्य पाएंगे। आज विधाता सब प्रकार से मेरे अनुकूल है। यदि ऐसे काम के लिए मैं वन ना जाऊं तो मुर्खों के समाज में मेरी गिनती सबसे पहले की जाएगी।

मेरा प्रिय भाई भरत राज्य पाएंगा तो इससे ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है। माता मुझे इतनी सी बात को लेकर पिताजी का इस तरह व्याकुल होना ठीक नहीं लग रहा है। महाराज तो बहुत ही धीर बुद्धि वाले हैं वो मुझसे कुछ नहीं कहते तो यह मेरा ही कुछ अपराध है। रानी कैकयी रामजी का रूख देखकर बहुत प्रसन्न हो गई। उन्हें कपटपूर्ण प्रेम दिखाकर बोली-तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंधइसके अलावा राजा के दुख का कोई और कारण नहीं है।

क्यों पड़ गई रानी कौशल्या धर्मसंकट में?
कैकयी दुखी हो रही है वे अपनी सखियों को दुख और शोक के कारण जवाब नहीं दे रही है। नगर में सारे स्त्री पुरूष इस तरह विलाप कर रहे हैं। सभी दुख की आग में जल रहे हैं। रामजी माता कौसल्या के पास गए। उनका मन प्रसन्न है क्योंकि रामजी को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को छोड़कर बड़े भाई को ही राजतिलक क्यों किया जाता है?

अब माता कैकयी की आज्ञा पाकर और पिता की मौन सहमति से वह सोच मिट गई। रामजी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दियाउसे अपने गले से लगा लिया और उन पर गहने और कपड़े न्यौछावर किए। रामजी ने इसे अपना धर्म जानकर माता से बहुत कोमल वाणी में कहा पिताजी मुझको वन का राज्य दिया हैजहां सब तरह से मेरा बड़ा काम बनने वाला है।

चौदह वर्ष वन में रहकर पिताजी के वचन को प्रमाणित करके। तेरे चरणों के दर्शन करूंगा। उस प्रसंग को देखकर वे गूंगी जैसी रह गई। उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। धर्म और स्नेह दोनों ने ही कौसल्याजी को बुद्धि से घेर लिया। वे सोचने लगी अगर मैं पुत्र को रख लेती हूं और भाइयों का विरोध होता है। यदि वन को जाने को कहती हूं तो बड़ी हानि होती है। इस तरह सोचकर रानी धर्म संकट में पड़ गई।

ये सुनकर तो सीताजी की पायल भी दुखी हो गई
कौसल्या ने कहा यदि पिताजी की आज्ञा हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकार वन को मत जाओ। यदि माता-पिता दोनों ने वन जाने को कहा हो तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या के समान है। वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे। वन देवियां तुम्हारी माताएं होंगी। वहां के पशु पक्षी तुम्हारे चरणों के सेवक होंगे। राजा के लिए अंत में तो वनवास करना उचित ही है। केवल तुम्हारी अवस्था देखकर हृदय में दुख होता है। वन बड़ा भाग्यवान है और यह अयोध्या अभागी है जिसे तुमने त्याग दिया। यदि मैं कहूं कि मुझे भी साथ ले चलो तुम्हारे हृदय में संदेह है। ऐसा विचारकर वही उपाय करना जिसमें सबके जीते जी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूं। आज सबका पुण्य पूरा हो सकेगा। उसी समय समाचार सुनकर सीताजी घबरा गई। सास के पास आकर उनके चरण छूकर सीताजी उनके नजदीक बैठ गई।

सास ने मीठी वाणी से आर्शीवाद दिया। वे सीताजी को देखकर व्याकुल हो गई। सीताजी अपने पैरों के नाखून से पैर कुरैदती हैं। ऐसा करते समय पैरों की पायल छनक रही है। मानों पैरों की पायल यह विनती कर रही है। सीताजी के पैर कभी हमारा त्याग ना करें। सीताजी की आंखों से आंसु बह रहे हैं। उनकी यह दशा देखकर रामजी की माता कौशल्या बोली सुनों सीता अत्यंत ही सुकुमारी है और सासससुर कुटुंब सभी को प्यारी है। ये सुंदरगुण वाली प्यारी पुत्रवधु है। हमें अपने प्राणों से अधिक प्रिय हैं।

जब सीता ने जताई राम के साथ वनवास जाने की इच्छा तो...
कौशल्या माता को पता चला कि सीताजी भी रामजी के साथ वन जाना चाहती है। तब उन्होंने रामजी से कहा सीता पिता जनकजी राजाओं में शिरोमणि है। वे सुंदर गुणों वाली और शीलवाली प्यारी पुत्रवधु है। ये बहुत ही लाड़ प्यार में पाली गई है। सीता ने कभी पृथ्वी पर पैर भी नहीं रखा। वही सीता वन में राम के साथ जाना चाहती है। राम तुम ही बताओ क्या सुंदर संजीवनी बूटी कभी वन में शोभा पा सकती हैतुम हर तरह से विचारकर मुझे आज्ञा दोमैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूं।

माता कहती है सीता से घर में मुझे बहुत सहारा हो गया है। रामजी माता के सामने सीताजी के बारे में कुछ कहने में सकुचाते हैं। मन में यह समझकर की यह समय ऐसा ही है। वे सीताजी से कहते हैं जो अपना ओर मेरा भला चाहती हो तो मेरा वचन मानकर घर रहो। मेरी आज्ञा का पालन होगासास की सेवा बन पड़ेगी। आदरपूर्वक सास ससुर की पूजा करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है। जब-जब माता मुझे याद करेगी वे अपने आप को भूल जाएंगी। तब तुम उन्हें अपनी कोमल वाणी से कथा सुनाकर इन्हें समझाना। मेरे आज्ञा मानकर घर पर रहने से तुम्हे बिना क्लेश धर्म का फल मिल जाता है। अगर प्रेमवश जिद करोगी तो तुम दुख पाओगी। पर्वतों और गुफाओं में रहना।

जमीन पर सोनापेड़ों की छाल में वस्त्र पहनना और कन्द मूल का भोजन करना होगा। वे भी कहां हर दिन मिल पाएगा। मनुष्यों को खाने चाले निशाचर फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। वन में भयानक पक्षी और स्त्री पुरूषों को चुराने वाले राक्षसों के झुंड के झुंड रहते हैं। वन की याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते है। तुम वन में रहने के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे।

और तब मान गए राम-सीता को वन ले जाने के लिए
सीताजी से रामजी ने कहा तुम वन में रहने योग्य नहीं हो। तुम वन के कष्टों को सहन नहीं कर पाओगी। रामजी के मुंह से ये सारी बातें सुनकर सीताजी की सुंदर आंखों में पानी भर आया। उनसे कुछ भी कहा नहीं जा रहा है। वे यह सोचकर व्याकुल हो गई कि मेरे पवित्र स्वामी मुझे छोड़ देना चाहते हैं। सीताजी सास के पैर लगकर और हाथ जोड़कर कहने लगी। माता मेरी ढिठाई को माफ कीजिए। लेकिन मेरे मन को यही लगता है कि पति के वियोग के समान संसार में कोई दुख नहीं है। जिस बिना आत्मा के शरीर होता है वैसे ही बिना पति के स्त्री होती है। सीताजी श्रीरामजी से कहती हैं आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुंबी होंगे।

वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही मेरे लिए निर्मल वस्त्र होंगे। वनदेवी और वनदेवता सास-ससुर के समान मेरी साज-संभाल करेंगे। वन में चाहे कितनी ही परेशानियां हो लेकिन वे सभी पति के वियोग से बढ़कर नहीं हैं। हर क्षण आपके पैरों के दर्शन करके मैं सभी प्रकार से आपकी सेवा करूंगी और मार्ग चलने से होने वाली सारी थकावट को दूर करूंगी। ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गई। वे बातों में भी वियोग को सहन नहीं कर पा रही हैं। तब रामजी ने उनकी दशा देखते हुए कहा सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो। आज दुख करने का अवसर नहीं है तुरंत वनगमन की तैयारी करो।

इतना कहकर रामजी ने लक्ष्मणजी को गले लगा लिया
रामजी ने माता सीता को समझाया। फिर उन्होंने माता कौशल्या से आर्शीवाद लिया। तब माता कौशल्या ने उन्हें आर्शीवाद दिया बेटा जल्दी लौटकर प्रजा के दुख को मिटाना। जब वन जाने की सब तैयारी हो गई तब सीता ने अपनी सास से आशीर्वाद लिया। जब लक्ष्मणजी ने ये समाचार पाये तब वे व्याकुल हो गए। उनका शरीर घबराहट से कांपने लगा। उन्होंने जाकर रामजी के पैर पकड़ लिए वे कुछ कह नहीं पाए क्योंकि उन्हें ये लगा कि रामजी क्या कहेंगे। घर पर रखेंगे या साथ चलेंगेतब रामजी ने लक्ष्मण के हाथ जोड़े और शरीर घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा।

तब रामजी ने लक्ष्मण को समझाया कहा भरत व शत्रुघ्र घर पर नहीं है। महाराज वृद्ध है और उनके मन में मेरे लिए दुख है। ऐसी स्थिति में अगर तुम्हें मैं वन ले जाऊंगा तो अयोध्या का नाश हो जाएगा। तुम यही रहो सबके संतोष के लिए यही जरूरी है। तुम मेरी बात मानों घर जाओ यह सुनते ही लक्ष्मणजी बहुत व्याकुल हो गए। इन शीतल वचनों जैसे सुख गए। राम के चरण पकड़कर बोले मैं आपका दास हूं। आप मेरे स्वामी हैं मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है। आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है। मैं तो आपके प्यार में पला हुआ छोटा बच्चा हूं। कभी हंस भी सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं। आप विश्वास करें मैं आपको छोड़कर गुरुपितामाता किसी को भी नहीं जानता।

रामजी लक्ष्मणजी की ऐसी बातें सुनकर उन्हें गले से लगा लिया और कहा जाकर माता से विदा मांग लाओं और जल्दी वन चलो। वे हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास गए। उन्होंने जाकर अपनी माता के चरण स्पर्श किए। उनका आशीर्वाद लिया तब माता ने उन्हें उदास देखा तो पूछने लगी। जब लक्ष्मणजी ने सारी कहानी विस्तार से सुना दी। पहले तो सुमित्रा लक्ष्मणजी की बातें सुनकर सहम गई। लेकिन फिर थोड़ा धैर्य धारण करने के बाद उन्हें वन जाने की आज्ञा दे दी।

जब रामजी वनवास पर जाने लगे तो...
अब सुमित्रा से आज्ञा लेने के बाद राम लक्ष्मण और सीता तीनों ही वनगमन के लिए माता कौशल्या व दशरथजी के पास विदाई के लिए पहुंचे। रामजी मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिए। राजमहल से निकलकर रामजी वसिष्ठजी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा। सब लोग विरह की अग्रि में जल रहे हैं। उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया। फिर रामजी ने ब्राह्मणों की मंडली को बुलवाया। सभी को वर्षभर का भोजन दान में दिया। दास दासियों को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौंपा। इस तरह रामजी सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेशजी व महादेवजी को मनाकर रामजी चल दिए। रामजी के चलते ही लंका में बुरे शकुन होने लगे।

यह सब देखकर दशरथ ने सुमन्त को बुलाकर कहा- सुमन्त तुम राम से जाकर कहना कि उसके वन चले जाने से मेरे शरीर में प्राण नहीं रहे हैं। इससे अधिक बलवती और कौन सी व्यथा होगी। तुम रथ लेकर राम के साथ जाओ। दोनों राजकुमार व सीता को रथ मे चढ़ाकर वन ले जाओ। चार दिन बाद लौट आना। यदि दोनो भाई ना लौटें क्योंकि वे नियम के पक्के हैं तो सीता को विनती करके वापस ले आना। जब सीता वन को देखकर डरें तो मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारी सास और ससुर ने ऐसा संदेश भेजा है कि तुम लौट चलो वन में बहुत क्लेश है।

रामजी जब विदा होने लगे तो...
इतना कहकर राजा बेहोश हो गए। रामजी अयोध्या से विदा हो गए। राम के पीछे आयोध्यावासी चलने लगे। यह स्थिति देखकर रामजी असमंजस में पड़ गए। जब दो पहर बीत गए तब रामजी ने अपने मंत्री से कहा आप इस तरह रथ को हांकिए कि पहिए के चिन्ह पता न चलें। शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर रामजीलक्ष्मणजीऔर सीताजी रथ पर सवार हुए। सुबह होते ही सब लोग जागेतो बड़ा शोर मचा रामजी चले गए। रथ के पहियों के निशान न होने के कारण कोई भी उनके चिन्हों को नहीं ढूंढ पा रहा था।

सब लोग रामजी को ढ़ूंढ रहे हैं। वे लोग अपनी निंदा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं। रामजी के बिना हमारे जीने को धिक्कार है। विधाता ने यदि प्यार का वियोग ही रचा तो फिर उसने मांगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी। सभी स्त्री-पुरुष रामजी के दर्शन के लिए नियम और व्रत करने लगे। सीताजी मंत्रीसहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर पहुंचे। वहां गंगाजी को देखकर श्रीरामजी रथ से उतर पड़े। लक्ष्मणजीसुमन्त और सीताजी ने भी गंगाजी को प्रणाम किया। इसके बाद सबने स्नान कियाजिससे मार्ग का सारी थकान दूर हो गई। पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जब निषादराज गुहने को यह खबरे मिली तो वे बहुत खुश हुए उन्होंने अपने भाई बंधुओं को बुला लिया।

रामजी को ऐसे देख निषादराज दुखी हो गया क्योंकि....
निषादराज ने रामजी से भेंट करके उन्हें दण्डवत प्रणाम किया। वह प्रेम से प्रभु को देखने लगा। आज में भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया हूं। अब कृपा करके पुर में पधारिए। मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूं। इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाएं। जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बढ़ाई करें। रामचंद्रजी ने कहा-तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है। पिताजी ने मुझको आज्ञा दी है। मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का वेष धारण करकेवन का आहार करते हुए वन में ही बसना है।

गांव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। रामजीलक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गांव के लोग चर्चा करते हुए कहते है। वे माता-पिता कैसे हैंजिन्होंने ऐसे बालकों को वन में भेज दिया। कोई कहता है राजा ने अच्छा कियाइसी बहाने हमें भी नेत्र लाभ हो गया। पुरवासी लोग वंदना करके अपने-अपने घर लौटे और रामजी संध्या करने पधारे। उसके बाद सीताजीसुमन्तजी और लक्ष्मण सहित कन्द मूल फल खाकर रामजी लेट गए। भाई लक्ष्मण उनके पैर दबाने लगे। रामजी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणी से सुमन्तजी को सोने के लिए कहकर वहा से कुछ दूर पर धनुष बाण से सजकर वीरासन में बैठकर जागने लगे।

निषादराज गुहने ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर बहुत प्रेम से जगह-जगह नियुक्त कर दिया। वह खुद कमर में तरकस बांधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा। रामजी को जमीन पर सोते देख निषादराज के हृदय में विषाद हो गया। उसका शरीर पुलकित हो गया। नैत्रों से जल बहने लगा।

जब मंत्री लेकर आए दशरथ का संदेश तो...
वे सोचने लगे महाराज दशरथजी का महल तो बहुत सुंदर है। सुंदर मणियों के बने हुए वे महल जिन्हें रति के पति कामदेव ने अपने हाथों सजाकर बनाया है। जो पवित्र और बड़े ही विलक्षण व सुंदर है। जहां अनेकों वस्त्र तकिये और गद्दे हैं। वहां सीताजी और रामचंद्रजी रात को सोया करते थे। वही सीताजी और रामजी आज घास-फूस पर सो रहे हैं। ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते। कैकयराज की लड़की नीच बुद्धि कैकयी बड़ी ही कुटीलता कीजिसने रघुनंदन व जानकीजी को सुख के समय दुख दिया। यह सब देखकर निषादराज दुखी हो रहे हैं। तभी वहां सुमंतजी आए और उन्होंने महाराज दशरथ का संदेश रामजी को सुनाया।

सुमंतजी ने कहा- राम वही कीजिए जिससे अयोध्या अनाथ न हो। रामजी ने मंत्री को धैर्य बंधाते हुए समझाया कि आपने तो धर्म के सभी सिद्धातों को छान डाला है। राजा हरिशचंद्र ने धर्म के लिए करोड़ों कष्ट सहे थे। वेद और पुराणों में भी कहा गया है कि सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। इस का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश फैल जाता है। प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश मिलना करोड़ो बार मरने के समान है। आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ हाथ जोड़कर विनती करिएगा कि आप मेरी किसी बात की चिंता न करें।

इसलिए केवट ने रामजी के सामने रख दी शर्त
आप भी पिताजी के समान ही मेरे हितैषी हैं। मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूं। आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुख: न पावे। सुमन्त और रामजी का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुंबियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही। रामजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया। रामजी ने सकुचाकर अपनी सौगंध दिलाकर सुमंतजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह संदेश पिताजी को जाकर मत सुनाइयेगा। सुमंत ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन में आने वाली परेशानियों में नहीं रह सकेंगी। जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें तुमको और रामजी को वही उपाय करना चाहिए। रामजी ने कहा सीता के मायके और ससुराल में सब सुख हैं। जब तक यह विपत्ति दूर नहीं होती तब तक वे जब जहां जी चाहे वहीं सुखी रहेंगी। जो तुम घर लौट जाओ तो सासससुरगुरुप्रियजन व कुटुंबी सबकी चिंता मिट जाएगी। पति की बात सुनकर सीताजी बोली जिस तरह चांदनी कभी चंद्रमा के बिना सुखी नहं रह सकती ठीक उसी तरह मैं प्रभु से अलग नहीं रह सकती। सुमन्तजी ने रथ को हांका और वहां से चले गए। उसके बाद रामजी गंगा के तट पर आए।

रामजी ने केवट से नाव मांगीपर वह नाव नहीं लाया और वह कहने लगा-मैं तुम्हारा भेद जानता हूं। तुम्हारे छूते ही पत्थर की शीला सुंदर स्त्री हो गई। मेरी नाव उड़ जाएगी मैं लुट जाऊंगा। जिससे आप पार ना हो सकेंगे। मेरी रोजी मारी जाएगी। मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन पोषण करता हूं। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु यदि आप नदी के पार जाना चाहते हों तो मुझे पहले अपने चरण धो लेने दो। मैं चरण धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा। मैं आपसे उतराई कुछ नहीं चाहता। आपको दशरथजी की सौगंध है। मैं सब सच-सच कहता हूं। लक्ष्मणजी भले ही मुझे तीर मारे लेकिन जब तक में आपके पैरों को ना पखार लूं। मैं पार नहीं उतारूंगा।

रामजी ने जब केवट से लौट जाने को कहा तो...
केवट की अटपटी बात सुनकर रामजी और सीताजी लक्ष्मण की तरफ देखकर हंसे। रामजी केवट से बोले भाई तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धोले। देर हो रही है पैर उतार दे। रामजी की आज्ञा पाकर वह कठौती में जल ले आया। बहुत आनंद से भगवान के चरण धोने लगा। सब देवता फूल बरसाने लगे। निषादराज और लक्ष्मणसहित सीताजी और रामचंद्रजी उतरकर गंगाजी की रेत पर खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दंडवत की। रामजी को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया ही नहीं। तब पति को समझने वाली सीताजी ने अपनी रत्न जडि़त अंगुठी ने उतारकर केवट को दे दी। केवट से कहा नाव उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर उनके चरण पकड़ लिए। आज मैंने क्या नहीं पाया मेरे दोष दुख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समयतक मजदुरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूर दे दी।

रामजीलक्ष्मणजीसीताजीने बहुत आग्रह कियापर केवट कुछ नहीं लेता।करुणा के धाम भगवान श्रीरामजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा करना चाहा पर केवट अभी विदा नहीं होना चाहता था। फिर रामजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा मेरी मनोकामना पूरी कीजिए। उसके बाद रामजी ने निषादराज से कहा तुम घर जाओ। यह सुनते ही उसका मुंह सुख गया। हाथ जोड़कर वह बोला मेरी विनती सुनिए। मैं आपके साथ रहकर रास्ता दिखाकर कुछ दिन और आपकी सेवा करना चाहता हूं। जिस वन में आप जाकर रहेंगे वहां में सुंदर कुटिया बना दूंगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे मैं वैसे ही करुंगा। उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर रामजी ने उसे साथ लिया।

जब रामजी ने यमुना में स्नान किया तो....
रामजी सीताजी व लक्ष्मण निषादराज सहित भारद्वाजजी के पास आए। वहां मुनिराज के साथ कुछ समय रूके। मुनि भारद्वाज भी उनके दर्शन पाकर धन्य हो गए। रामजी ने रात को वहीं विश्राम किया। उसके बाद सुबह होते ही प्रयागराज में स्नान करके वे रामजी सीताजी व लक्ष्मणजी और सेवक गुह के साथ चले। बड़े प्रेम से रामजी ने मुनि से कहा बताइए हम किस मार्ग से जाएं। मुनि मन से हंसकर रामजी से कह कि आपके लिए सभी मार्ग सरल है। फिर उनके साथ के लिए मुनि ने शिष्यों को बुलाया। तब मुनि ने चार ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया। जब वे किसी गांव के पास से होकर निकलते हैं। तब स्त्री पुरुष दौड़कर उन्हें देखने लगते हैं। यमुनाजी के किनारे रहने वाले स्त्री-पुरूष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते हैं। रामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया। वे मनचाही वस्तु पाकर लौटे। यमुनाजी के पार उतरकर सब ने यमुनाजी के जल में स्नान किया। जो रामजी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था।

यमुनाजी किनारे पर रहने वाले सभी लोग अपना अपना काम भुलकर दौड़े और लक्ष्मणजीरामजीसीताजी का सौन्दर्य देखकर अपने भाग्य की बढ़ाई करने लगे। उन्होंने सब कथा सब लोगों को सुनाई कि पिता की आज्ञा पाकर ये वन को चले हैं। यह सुनकर लोगों को बहुत दुख हो रहा है। उसी अवसर पर वहां एक तपस्वी आया। उसके चेहरे पर बहुत तेज था। वह वैरागी वेष में था। रामजी का प्रेमी था। अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जलभर आया। रामजी ने भी प्रसन्न होकर उसे गले से लगा लिया। फिर उसने लक्ष्मणजी के चरणों को छुआ। माता सीता ने भी उन्हें अपना छोटा बच्चा समझकर आर्शीवाद दिया। निषादराज ने उसे प्रणाम किया। उसके बाद रामजी ने निषादराज को समझाकर घर जाने को तैयार कर लिया। रास्ते में जाते हुए दोनों भाइयों को बहुत से लोग मिले। सीताजी और लक्ष्मणजी सहित रघुनाथजी जब किसी गांव के पास जा निकलते है।

सभी गांव वाले भगवान को दोष दे रहे हैं क्योंकि...
रामजी सीताजी व लक्ष्मणजी जहां से भी गुजरते हैं वहां सभी लोग उन पर मोहित हो जाते हैं। सीताजी के पास आकर गंाव की महिलाएं कहती हैं तुम्हारे साथ यह सुंदर पुरुष कौन हैवह मन ही मन मुस्कुराई। सीताजी उनको देखकर जमीन की तरफ देखती हैं। वे दोंनो ओर के संकोच से सकुचा रही हैं। ये तो सहजस्वभाव वाले सुंदर और गौरे मेरे देवर लक्ष्मण है। फिर सीताजी ने अपने सुंदर नेत्रों से रामजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये मेरे पति हैं। वे बहुत प्रेम से सीताजी के पैरों पकड़कर बहुत आशीर्वाद देती हैं। उन्होंने सीताजी से कहा जब आप वापस लौटें तो इसी रास्ते से लौटे। हमें अपनी दासी मानकर दर्शन दें।

उसी समय रामजी का रुख जानकर लक्ष्मणजी ने लोगों से रास्ता पूछा। यह सुनते ही वहां मौजुद सभी स्त्री-पुरुष दुखी हो गए। उनके शरीर पुलकित हो गए और नेत्रों में जल भर आया। उनका आनंद मिट गया। मन उदास हो गए। लेकिन इसे कर्म की गति समझकर सभी ने धैर्य धारण किया। तब लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित रामजी वहां से चले और सब लोगों से बात कर उन्हें वहां से लौटाया। लौटते हुए सभी स्त्री-पुरुष बहुत निराश है। वे एक-दूसरे से कह रहे हैं कि परमात्मा निष्ठुर है इसीलिए उन्होंने समुद्र को खारा बनाया और चांद की सुंदरता पर दाग दे दिए और इन राजकुमारों को वन भेजा। जब विधाता ने इन्हें वन में भेजा तो उन्होंने व्यर्थ ही भोग-विलास बनाए।

तो इसलिए सीताजी को जंगल के सारे दुख भी सुख लगने लगे
रामजी चित्रकुट में आ बसे हैंयह समाचार सुन-सुनकर बहुत से मुनि आए। रघुकुल के चंद्रमा रामजी ने दण्डवत प्रणाम किया। मुनिगण रामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिए आशीर्वाद लेते हैं। रामजी ने यथायोग्य सम्मान करके मुनि मण्डली को विदा किया। यह समाचार जब कोल-भीलों ने पाया तो वे ऐसे हर्षित हुए मानों नवों निधियां घर पर आ गई। वे दोनों में कंदमूलफल भरभरकर चले। उनमें से दोनों भाइयों को पहले देख चुके थे। उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं कि क्या उन्होंने रामजी की सुंदरता के दर्शन किए। भेंट आगे रखकर वे लोग जोहर करते हैं। वे मुग्ध हुए जहां के तहां मानो चित्रलिखे से खड़े हैं।

उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है। रामजी ने उन सबको प्रेम में मग्र जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। जहां-जहां आपने अपने चरण रखे हैं वे पृथ्वीवनमार्ग पहाड़ धन्य हैवे वन में विचरने वाले पक्षी और पशु धन्य हैं जो आपको देखकर सफल जन्म हो गए। हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं। आपने बड़ी अच्छी जगह विचार कर निवास किया है।

यहां सभी ऋतुओं में आप सुखी रहिएगा। हम लोग सभी जंगली जानवरों से बचाकर आपकी सेवा करेगी। हम आपको शिकार खिलवाएंगे और तालाब आदि जलाशय को दिखावेंगे। हम आपके सेवक हैं। इसलिए हमें आज्ञा देने में संकोच कीजिएगा। रामजी को केवल प्रेम प्यारा है जिसको जानना है वो जान ले। फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले प्रभु के गुण कहते सुनते घर आए।

इस प्रकार देवता मुनियों को सुख देने वाले भाई वन में निवास करने लगे। रामजी सीताजी अयोध्यपुरी कुटुंब के लोग और घर की याद भुलकर बहुत सुखी रहती है। रामजी का प्रेम उन्हें ऐसा लगता है जैसे दिन में चकवी। उन्हें अपने पिया की पर्णकुटी अवध के महल से ज्यादा प्रिय लगता है। मृग और पक्षी कुटुंबियों के समान लगते हैं। स्वामी के साथ कुश और पत्तों की सेज भी सैकड़ों कामदेवों के समान सुख देने वाली है।

क्या हुआ जब मंत्री ने रामजी के न लौटने की खबर सुनी?
जब-जब रामजी आयोध्या को याद करते हैं। तब उनकी आंखों में आंसु आ जाते हैं। फिर वे इस को बुरा समय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। रामजी को दुखी देखकर सीताजी व लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं। जैसे किसी मनुष्य की परछाही उस मनुष्य के समान ही कोशिश करती है। रामजी उन दोनों को दुखी देखकर पवित्र कथाएं सुनाने लगे।

रामचंद्रजी को पहुंचाकर जब निषादराज लौटातब आकर उसने रथ को मंत्री सहित देखा। निषाद को अकेले आए हुए देख मंत्री सुमन्त व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। तब निषादराज बोले सुमंतजी आप विषाद को छोडि़ए। आप पंडित और परमार्थक को जानने वाले हैं। ऐसा कहकर समझाते हुए निषाद ने जबर्दस्ती सुमंत को रथ पर बैठाया। जो कोई राम लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता घोड़े हिकर-हिकरकर उसकी और प्यार से देखने लगते हैं। मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज भी विषाद में डूब गए।

जानिएस्वर्ग में जाने के लिए क्या करना पड़ता है?
हिन्दू संस्कृति के अनुसार यह माना जाता है कि मौत के बाद मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग और नर्क में भेजे जाने का विधान है। शुभ काम करने वाले को स्वर्ग मिलता है और बुराक काम करने वालों को नर्क में जाना पड़ता है। लेकिन किन लोगों को स्वर्ग में जाना पड़ता है और किन्हें नर्क में इस बात का सपष्ट उल्लेख हमारे धर्म ग्रंथों में मिलता है।

एक श्लोक के अनुसार

तेषां में वैष ब्रह्मलोको येषांतपो ब्रह्मचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् ।

जिनमें तप ब्रह्मचर्य हैसत्य प्रतिष्ठित हैउन्हें ब्रह्मलोक मिलता है । जिनमें न तो कुटिलता है और न मिथ्या आचरण है और न कपट हैउन्हीं को विशुद्ध ब्रह्मलोक मिलता है। गरुड़ पुराण के अनुसार

सचतपस्याक्षमादान और वेदशास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा धर्म का अनुष्ठान करते हैं। वे स्वर्ग में जाते हैं।

कुआंबावड़ीतालाबप्याऊआश्रम व देवमंदिर बनाने वाले।

होमजपस्नानऔर देवताओं के पूजप में सदैव लोग रहते हैं। ऐसे लोग स्वर्ग में जाते हैं।

ऐसे लोग जो शत्रुओं के दोष भी कभी नहीं कहते है बल्कि उनके गुणों का ही वर्णन करते हैं।

जो लोग मन और इन्द्रियों के नियमन में लगे रहते हैं। शोक भय व क्रोध से रहित।

जो प्राणिमात्र पर दया करते हैं। जिन पर सब विश्वास करते हैं।

एकांत स्थान पर किसी को देखकर जो कामवासना मन में नहीं लाता।

गृहअन्नऔर रस आदि को जो स्वयं उत्पन्न कर दान करते हैं।

ऐसे लोग जो सोने कागाय का अन्न व वस्त्र का दान देते हैं।

जो परधन का लालच नहीं रखते हैं।

धर्म से प्राप्त धन का उपयोग कर जीविका चलाते हैं। वे स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।

जब रामजी को विदा करके मंत्री वापस अयोध्या लौटे तो....
सुमंतजी आयोध्या जाने से पहले यह सोच रहे हैं।जब दौड़कर अयोध्या के लोग पूछेगें तब में दिल पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूंगा। जब दीन-दुखी सब माताएं पूछेंगी तब मैं उन्हें क्या कहूंगा। जो भी पूछेगा मुझे उसे उत्तर देना होगा। अब मुझे यही दुख लेना है। जब दुख से दीन महाराजजिनका जीवन रामजी के दर्शन के अधीन है वे मुझसे पूछेंगे तो मैं क्या कहूंगा।

नगर में प्रवेश करने में मंत्री ऐसे घबरा रहे हैं मानो गुरूब्राह्मणया गाय को मारकर आए हों। अंधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या नगरी में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे महल में घुसे। जिन-जिन लोगों ने यह समाचार सुन पायावे सभी रथ देखने राजद्वार पर आए। रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर उनके शरीर गले जा रहे हैं। नगर में स्त्री-पुरूष कै से व्याकुल हैं। जैसे जल के घटने पर मछलियां। जब सभी रानियां पूछती हैं तो सुमन्त को कुछ उत्तर नहीं आतावो चुप हो जाते हैं। न कानों से सुनाई पड़ता है। उनके दिल में रामजी से बिछडऩे की बहुत तीव्र वेदना है।

जब राम वनवास न लौटे तो दशरथ का क्या हाल हुआ?
जब वे राजा के पास पहुंचते हैं तो देखते हैं उनकी दशा ऐसी है मानो सम्पाति पंखों के जल जाने पर गिर पड़ा हो। राजा राम-राम कहते हैं फिर हे रामहे लक्ष्मणहे जानकी कहते हैं। मंत्री ने आते ही उन्हें प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले-सुमंत कहो कहां राम हैं?

राजा ने सुमन्त को गले से लगा लिया। उनकी आंखों में आंसु थे। उन्होंने पूछा वे वन को चले गए। श्रीराम की कुशल कहो। बताओ श्रीरामलक्ष्मणऔर जानकी कहां हैंश्रीराम जानकी और लक्ष्मण जहां है मुझे भी वहां पहुंचा दो। नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूं मेरे प्राण चलना ही चाहते हैं। राजा यही बात बार-बार मंत्री से बोलते हैं। मंत्री धीरज धरकर कहा महाराज आप पंडित और ज्ञानी हैं।

आप शुरवीर और धैर्यवान हैं। जन्म-मरणसुख-दुख के भोग लाभ व हानि काल और कर्म के अधीन होते हैं। मुर्ख लोग ही दुख मे रहते हैं पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए।

और राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिए
रामजी के बारे में पूछने पर सुमंत ने वन की सारी बातें बताई। उन्होंने कहा है कि पिताजी को जाकर मेरा संदेश देना उनसे कहना कि चिंता न करें। वसिष्ठजी को मेरा प्रणाम कहना। भरत के आने पर उनको मेरा संदेश कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना। सब माताओं का समान जानकर उनकी सेवा करना। माता-पिता सभी को ऐसे रखना कि कोई मेरे बारे में न सोचे। लक्ष्मणजी ने कुछ कठोर वचन कहे। लेकिन रामजी ने मुझे कसम दिलाई कि लक्ष्मण का लड़कपन वहां न कहना। सुमंत की बातें सुनकर राजा जमीन पर गिर पड़े। सब रानियां विलाप करने लगी। उस विपत्ति का कै से वर्णन कीजिए। राजा के रावले शोर सुनकर अयोध्या में कोहराम मच गया। राजा के प्राण कण्ठ में आ गए। कौसल्या जी ने बहुत दुखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य का अस्त हो चला।

तब रामजी की माता कौसल्या धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोली। उन्होंने राजा दशरथ से कहा आप धीरज रखिए। नहीं तो सारा परिवार डूब जाएगा। कौसल्या की बात सुनकर राजा ने आंखें खोली और विलाप करने लगे। इस तरह बहुत दिन बीत गए। राम-राम कहकरफिर राम कहकरउनका शरीर विरह की आग में जलता रहा और उन्होंने ने अपना देह त्याग दिया। सब रानियां शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही है। उसके बाद वसिष्ठजी ने तेल एक बड़े पात्र में भरवाकर राजा का शरीर उसमें रखवा दिया। फिर दुतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा तुम लोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। लेकिन राजा की मौत का समाचार किसी से मत कहना।

क्यों लगने लगी भरत को अपनी मां ही दुश्मन?
जब से अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआतभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर सपने देखते थे। जागने पर करोड़ों तरह की बुरी-बुरी कल्पनाएं किया करते थे। वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से रूद्राभिषेक करते थे। भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुंचे। जब उन तक अयोध्या पहुंचने का संदेश पहुंचा तो वे मन में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुंच जाएं। एक-एक - पल बरसों की तरह बीत रहा था। नगर में प्रवेश करते समय अनेक अपशकुन होने लगे। रामजी के वियोगरूपी बुरे रोग से सताए हुए पशु और पक्षी देखे नहीं जाते। नगर के लोग मिलते हैं पर कुछ बोलते नहीं है। बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। अपने बेटों की खबर वह आरती सजाकर आनंद में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर भरत और शत्रुघ्र को महल में ले आई। एक कैकयी ही इस तरह हर्षित दिखती है।

भरतजी ने सबकी कुशल सुनाई। कैकयी ने भरत के कान में मन को घायल करने वाली बात कही। उसने कहा मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। विधाता ने बीच में जरा सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक पधार गए। भरत ये सुनते ही दुख के कारण बेहाल हो गए। फिर धीरज-धरकर वे संभल उठे। रामजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया। पुत्र को व्याकुल देखकर कैकयी समझाने लगी। मानों जले पर नमक लगा रही हों। कैकयी ने कहा जीवनकाल में ही जन्म लेने के संपूर्ण फल पा लिए और अंत में वे इंद्रलोक चले गए। राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए। उन्होंने कहा यदि तेरी ऐसी ही अत्यंत बुरी रूचि थी तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डालातूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है।

राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लियाविधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी। उसे देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्रजी गुस्से से भर गए। मानो जलती हुई आग को घी की आहूति मिल गई। जब उन्हें पता चला कि ये सारी आग मंथरा की लगाई हुई है तो उन्होंने जोर से मंथरा की कुबड़ पर एक लात जमा दी। वह चिल्लाती हुई गिर पड़ी। उसका कुबड़ टूट गयादांत टूट गएमुह से खून बहने लगा। कराहती हुई वह बोली मैंने क्या बिगाड़ा हैजो भला करता बुरा फल पाया। उसकी बात सुनकर शत्रुघ्रजी उसके बाल पकड़कर उसे घसीटने लगे।

शोक में डूबे भरत ने क्या पूछा माता कौशल्या से?
कौशल्या जी मेले वस्त्र पहने हुए हैं चेहरे का रंग बदला हुआ है। व्याकुल हो रही हैं। दुख के मारे उनका शरीर सुख गया है। भरत को देखते ही माता कौशल्या दौड़ पड़ी पर चक्कर आ जाने पर वे मुच्र्छित होकर गिर पड़ी। यह देखते ही भरतजी बहुत व्याकुल हो गए। शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले माता सीताजी और मेरे दोनों भाई राम-लक्ष्मण कहां हैंकैकयी जगत में क्यों जन्मीअगर जन्मी तो बांझ ही क्यों न हुई।

तीनों लोको में मेरे जैसा अभागा कौन है जिसे उसके जैसी मां मिली। जिसने पूरे कुल को कलंकित किया। पिताजी स्वर्ग में है और भैया राम और लक्ष्मण वन में हैं और इसका कारण मैं हूं। भरतजी के कोमल वचन सुनकर कौशल्या ने उन्हें गले लगा लिया। वो कहने लगी तुम अब धीरज करो। बुरा समय सुनकर शोक मत करो। पिताजी की आज्ञा से राम ने घर त्याग दिया। लेकिन उनके मन में गुस्सा नहीं था न आसक्ति। यह सुनकर कि वे वन जा रहे हैं लक्ष्मण भी उनके साथ चल दिए।

क्या हुआ दशरथ के दाह संस्कार के बाद?
कौशल्याजी की बातों को सुनकर भरतसहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानों शोक का निवास बन गया। भरत शत्रुघ्र दोनों भाई विलाप करने लगे। माता कौशल्या ने उनको गले लगा लिया। भरतजी ने भी सब माताओं को पुराण और वेदों की सुंदर कथा कहकर समझाया। माता कौशल्याजी भरतजी के सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगी तुम तो राम के प्यारे हो रामजी तुम्हें अपने प्राणों से अधिक प्यार करते हैं। ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरत को गले से लगा लिया। तब वासुदेव और वसिष्ठजी आए। उन्होंने सब मंत्रियों और महाजनों को बुलवाया। फिर भरत को उपदेश दिए। वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा। इस तरह दाह क्रिया की गई। विधिपूर्वक स्नान करके तिलांजली दी।

फिर वेदसमृति और पुराण सबक मत निश्चय करके उसके अनुसार भरत ने पिता का दस दिनों का कृत्य किया। वसिष्ठजी ने जहां जैसी आज्ञा दी। भरतजी ने वहां वैसा ही किया। अनेक प्रकार की चीजों का दान किया। उसके बाद मुनि ने भरत को धर्मउपदेश दिए और कहा सब विधाता के हाथ है। ऐसा विचारकर किसे दोष दिया जाएऔर व्यर्थ किस पर क्रोध किया जाएमन में विचार करो राजा दशरथ सोच करने के योग्य नहीं हैं। राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। यह सुनकर और समझकर सोच त्याग दो। राजा ने राजपद तुमको दिया है। तुम्हे पिता के वचन को सच करना चाहिए। जिन्होंने वचन के लिए ही श्रीरामचंद्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्रि में अपने शरीर की आहुति दे दी। राजा को वचन प्रिय थे प्राण प्रिय नहीं थे। तुम राजा की आज्ञा का पालन करो इसी में सभी की भलाई है।

क्या हुआ जब भरत ने राजतिलक से इंकार कर दिया?
तुम राजा की आज्ञा का पालन करो इसी में सभी की भलाई है।परशुरामजी ने पिता की आज्ञा रखी और माता को मार डाला। सब लोक इस बात के साक्षी हैं। राजा ययाति ने पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी। तुम राजा की बात सच करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा संतोष पाएंगे। इस बात को सुनकर रामजी और जानकी सुखी हो जाएंगी। मंत्री हाथ जोड़कर कहने लगे गुरूजी की आज्ञा का पालन जरूर करो। कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही है। उसका  आदर करना चाहिए। भरतजी ने सबकी बात सुनी और कहा मेरा कल्याण तो रामजी की चाकरी में है। मैं राजतिलक कैसे करवा सकता हूं। मुझे आज्ञा दीजिएमैं रामजी के पास जाऊं। सभी से आज्ञा प्राप्त करने के बाद भरत ने सभी माताओं के दुख को समझते हुए । उनके लिए पालकी सजाने को कहा। सबसे पहले वसिष्ठजी और उनकी पत्नी अग्रिहोत्र का सामान लेकर रथ पर सवार हुए। नगर के सभी लोगों का रथ सजाकर चित्रकुट चल पड़े। विश्वासपात्र सेवकों को नगरसौंपकर सबको आदरपूर्वक रवाना किया।

उसके बाद माता से आज्ञा लेकर दोनों भाई रथ पर सवार होकर चल दिए। क्या कारण जब निषादराज के ये पता चला तो वे भी वहां पहुंचे। निषादराज ने अपना नाम बताकर मुनि वसिष्ठ को दूर से प्रणाम किया। वसिष्ठजी ने भरतजी को कहा यह श्रीराम का मित्र है। इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। रामजी के सखा निषादराज से मिलकर भरतजी ने उनकी कुशल पूछी। उसके मन में संकोचप्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा-खड़ा भरतजी को टक-टकी लगाए देखता रहा।

क्या हुआ जब भरत मिले निषादराज से?
भरतजी ने गुह को बहुत प्रेम से गले लगा लिया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैयुग युगांतर से यही रीति चली आ रही है। रामसखा निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशलमंगल पूछी। भरतजी का प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया। उसके मन में संकोचप्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा-खड़ा टकटकी लगाए। भरतजी को देखता रहा। फिर धीरज धरकर भरतजी के चरणों की वंदना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा। इस प्रकार भरतजी ने सब सेना को साथ में लिए हुए। जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के दर्शन किए। मानों उन्हें रामजी मिल गए हो। आपकी रज सबको सुख देनेवाली सेवक के लिए तो कामधेनु ही हैं। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान मांगता हूं। सीतारामजी के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो। प्रेम कुछ थोड़ा नहीं है। जिससे उनका शरीर शिथिल हो रहा है। भरतजी सखा से पूछते हैं कि मुझे वह स्थान दिखलाओं और नेत्र और मन की जलन कुछ ठंडी करो। जहां सीताजीरामजी और लक्ष्मण रात को सोए थे।

ऐसा कहते ही उनके नेत्रों के जल भर आया। भरतजी के वचन सुनकर निषाद को बड़ा विषाद हुआ। वह तुरंत ही उन्हें वहां ले गया। भरतजी ने दो-चार स्वर्ण विन्दु देखे तो उनको सीताजी के समान समझकर सिर पर रख लिया। उनके नेत्र जल से भरे हैं। उसके बाद भरतजी चित्रकूट की ओर चल पड़े। न तो उनके पैरों में जूते हैं न सिर पर छाया हैं। उनका प्रेमनियमव्रत और धर्म निष्कपट है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी ,रामचंद्रजी और सीताजी की बातें पूछते हैंऔर वह कोमल वाणी से कहता है। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। रास्ते में उन्हें देखने वाले सभी लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं।

जब हुआ राम और भरत मिलाप तो कैसा था दृश्य?
अब भरत और निषादराज तेजी से चित्रकूट की ओर बढऩे लगे। आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दुख और दाह मिट गया। रामजी के सिर पर जटा है। कमर मे मुनियों का वस्त्र बांधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण और कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है। सीताजी रहित रामजी बैठे हैं। छोटे भाई शत्रुघ्र और सखा निषादराज सहित भरतजी का मन प्रेम में मग्र हो रहा है। खुशीशोकसुख-दुख आदि सब भूल गए। रक्षा कीजिए ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े।

प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। लक्ष्मणजी ने प्रेमसहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- रामजी भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही रामजी प्रेम में अधीर होकर उठे। भरतजी और रामजी का मिलने का ढ़ंग देखकर देवता भयभीत हो गए। फिर रामजी प्रेम के साथ शत्रुघ्र से मिलकर तब केवट से मिलें। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बहुत ही प्रेम से मिले। तब लक्ष्मणजी छोटेभाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को दिल से लगा लिया। फि र भरत-शत्रुघ्र दोनों भाइयों ने मुनि को प्रणाम किया। सीताजी ने मन ही मन आर्शीवाद दिया क्योंकि वे स्नेह में मग्र हैंउन्हें देह की सुध बुध नहीं है। रामजी ने सब को दुखी जाना और जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था। उन्होंने लक्ष्मणजी सहित सबके संताप को दूर किया।

उसके बाद रामजी सबसे पहले कैकयी से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया। फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित जो भरतजी के साथ आई थी और साथ ही गुरूमाता की वंदना की। दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानों किसी बहुत दरिद्र की सम्पति से भेंट हो गई। फिर दोनों भाई कौसल्या के चरणों में गिर पड़े।

भरत नहीं समझ पा रहे हैं कि राम को कैसे मनाएं क्योंकि....
उसके बाद वसष्ठि जी ने उचित मौका देखकर रामचंद्रजी से कहा पहले भरत की विनती आदर पूर्वक सुन लीजिए। फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत लोकमत राजनीति और वेदों का निचोड़ निकालकर कुछ निर्णय कीजिए। पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिएफिर उस पर विचार कीजिए। भरतजी गुरू का स्नेह देखकर रामचंद्रजी के हृदय में विशेष आनन्द हुआ।भरत ने कहा रामजी गुरू की आज्ञा के अनुकूल आपको सौगंध और पिताजी के चरणों की दुहाई। उसके बाद भरतजी का रुख अपनाकर गुरू और स्वामी को अपने अनुकूल समझकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ नहीं कह सकते। वे विचार करने लगे। शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान आंखों में प्रेमअश्रुओं की बाढ़ आ गई। मेरा कहना तो मुनिनाथ ही निभा सकते हैं?

इससे ज्यादा मैं क्या कहूंअपने स्वामी का स्वभाव में जानता हूं। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। बचपन से ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते थे। मैंने प्रेम और संकोच के कारण कभी उनके सामने मुंह नहीं खोला। प्रेम के प्यार से मेरे नेत्र आजतक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए। विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने मुझे कैकयी जैसी माता दी। यह कहना मुझे शोभा नहीं देता है।

मैं अपने दिल में सब ओर खोजकर हार चूका हूं। मैं ही सारे अनर्थों का मूल हूं। यह सुन और समझकर मैंने सब दुख सहा है। अब यहां आकर मैने सब आंखों से देख लिया। मैं अपनी माता का पुत्र हूं यही मेरे लिए सबसे बड़ा दुख हूं। तब वसिष्ठजी ने भरत से कहा तुम व्यर्थ ग्लानि करते रहो। जीव गति को ईश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में तीनों काल और तीनों लोकों में सब पुण्यात्मा तुम से नीचे हैं। देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना बनाया काम बिगडऩा ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन ही मन रामजी की शरण में गए।

भरत जी ने कुछ इस तरह की रामजी से अयोध्या लौटने की विनती....
फिर वे विचारकर आपस में कहने लगे कि श्री रघुनाथजी तो भक्ति के वश में है अंबरीश और दुर्वासा की घटना याद करके तो देवता और इंद्र बिल्कुल निराश हो गए। पहले देवताओं ने बहुत समय तक दुख सहे। तब भक्त प्रहलाद ने नृसिंह भगवान को प्रकट किया था। सब देवता सिर धुनकर कहते हैं कि अब देवताओं का काम भरतजी के हाथ है। रामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को मानते हैं अपने गुण और शील से रामजी को वश में करने वाले भरतजी का ही सब लोग अपने मन में स्मरण करो।

देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा अच्छा विचार किया है आप लोगों ने। तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मंगलों का मूल है। श्रीरामजी के सेवक की सेवा से भी जीवन सफल हो जाता है। भरतजी रामजी से कहते हैं कि आपने हर तरह से मुझे अनुग्रहित किया है। आप मेरी एक विनती सुनकरफिर जैसा उचित हो वैसा ही करें। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई। भरत ने कहा छोटे भाई शत्रुघ्र समेत मुझे वन में भेज दीजिए और सबको सनाथ कीजिए। नहीं तो किसी तरह भी।

लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिए और मैं आपके साथ चलूं। हम तीनों भाई वन चले और आप श्रीसीताजी सहित लौट जाइए। जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न होवही कीजिए। भरतजी की बात सुनकर सारे देवता साधु-साधु कहकर सराहना करने लगे। संकोची रामजी चुप ही रह गए। उनकी मौन स्थिति देखकर सब संकोच में पड़ गए। यह सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले-स्वामी आपका आदर के साथ पूछना यही कुशल का कारण हो गया।

तब राजा जनक को कुछ नहीं सुझ रहा था क्योंकि...
राजा जनकजी तक जब तक यह समाचार पहुंचा कि भरत राम को लेने वन गए हैं तो उन्हें को कुछ सुझ न पड़ा। राजा विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा कि विचार करके बताइए। तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर अयोध्या भेजे। दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरुकुटुंबीमंत्रीऔर राजा सभी सोच और स्नेह से बहुत व्याकुल हो गए। फिर जनकजी ने धीरज धरकर और भरतजी की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं को बुलाया। घरनगर और देश में रक्षकों को रखकर घोड़ेहाथीरथआदि बहुत सी सवारियां सजवाई। जनक जी अयोध्या पहुंचे।

कैकयी मन ही मन ग्लानि से गली जाती है। इस तरह वह दिन भी बीत गया। रामजी के गुणसमुहों को कहते-कहते सब लोग प्रेम से भर गए। सभी रामजी के दर्शन करने के लिए लालायित है। जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं। रामजी ने सभी के साथ आदर पूर्वक मिले। उसके बाद दोनों ने वहां बैठे मुनियों के पैर छूए। उसके बाद रामजी सभी को अपने भाइयों समेत आश्रम लेकर गए। दोनों ओर के राज समाज के लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी दशरथजी के गुणों के बारे में चर्चा करते हुए शोक के समुद्र में डुबकी लगा रहे हैँ।

स्त्री-पुरुष सभी शोक पूर्ण थे। जनक जी और रामजी दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास हैं। तब रघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कल सभी बिना जल पिए ही रह गए थे। तब विश्वामित्रजी ने कहा आप ठीक ही कह रहे हैं। उनका रूख देखकर जनक जी ने कहा यहां अन्न खाना उचित नहीं है। उसके बाद सब लोगों के लिए वनवासी लोग फल-फूल ले आए।

फैसला करते समय ये याद रखें तो हर काम में मिलेगी सफलता
जानउं सदा भरत कुलदीपा। बार-बार मोहि कहेउ महीपा कसे कनकु मनि पारिखि पाएं।

पुरुष परिखिअहिं समयं सुभाएं। अनुचित आजु कहब अस मोरा।

सोक सनेहं सयानप थोरा। सुनि सुरसरि सम पावनि बानी।

भई सनेह बिकल सब रानी। सोना कसौटी पर कसे जाने पर रत्न पारखी।

सोना कसौटी पर कसे जाने पर रत्न पारखी के मिलने पर और वैसे ही किसी भी इंसान की पहचान परीक्षा के समय पर ही होती है। बात एकदम सही भी है क्योंकि प्यार और दुख में अच्छे-अच्छे लोग भी अपना सयानापन या विवेक भूल जाते हैं। तुलसीदासजी ने बहुत ही सुंदर बात कही है कि असली टैलेंट की या धैर्य की परीक्षा हमेशा विपरीत समय में ही होती है क्योंकि कहा जाता है कि प्रतिभा के प्रसुन हमेशा विपरीत परिस्थितयों में ही खिलते है। जो इंसान परिस्थितियों की दुहाई देकर हार नहीं मानता है।

कठोर परिस्थितयों में भी धैर्य के साथ निर्णय लेता है वही अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है। यहां कौसल्या जी भरत जी के शीलगुण आदि की प्रशंसा करते हुए कह रही हैं कि ये भरतजी की परीक्षा का समय है उन्हें धैर्य से काम लेना चाहिए। तुलसी लिखते हैं कि कौसल्याजी सीताजी की मां से दुख भरे हृदय से कहती है। राम-लक्ष्मण और सीता वन में जाएं। इसका परिणाम तो अच्छा ही होगाबुरा नहीं। मुझे तो भरत की चिंता है। ईश्वर के अनुग्रह और आपके आर्शीवाद से मेरे पुत्र और बहुए गंगा के समान पवित्र है। मैं राम की कसम खाकर सत्य भाव से कहती हूं। भरत के शीलगुणनम्रताबड़प्पनभाईपन बहुत ज्यादा है। उनके अच्छेपन का वर्णन करने में सरस्वतीजी की बुद्धि भी हिचकती है। सीप से कहीं समुद्र उलीचे जा सकते हैं। लेकिन यह समय भरत की परीक्षा का समय है। यह सुनकर सभी रानिया दुखी हो गई। कौसल्याजी ने फिर धीरकर कहा सुनिए जनकजी की प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है। लेकिन आप मौका पाकर राजा को अपनी ओर से जहां तक संभव हो सके। समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएं। यदि यह राय राजा के मन में जंच जाए।

अच्छी तरह से सोचकर यह काम करें। मुझे भरत की अत्याधिक सोच है। भरत के मन में बहुत प्रेम है। कौसल्याजी का ऐसा व्यवहार देखकर सारा रानिवास चौंक गया। सुमित्राजी ने यह देखकर कहा कि रात बीत गई है। कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनकी बातें सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए और कहा आप राजा दशरथजी की रानी और रामजी की मां हैं। इसीलिए आपकी ऐसी नम्रता होना तो उचित ही है।

कैकयी की यह बात सुनकर राजा स्वर्गवासी हो गए...
रावण के वध के लिए रामजी के रूप में श्रीविष्णु भगवान ने जन्म लिया। रामजी और रावण के जन्म की पूरी कथा सुनने के बाद युधिष्ठिर ने कहा आप अब मुझे रामजी के वन जाने की कथा सुनाएं। अपने पुत्रों के जन्म से राजा दशरथ को बहुत प्रसन्नता हुई। तब मार्केण्डेय मुनि युधिष्ठिर को आगे की कथा सुनाने लगे। अपने पुत्रों के जन्म से राजा दशरथ को बहुत प्रसन्नता हुई। राम जब युवा हुए तो दशरथ ने सोचा कि अब अपना राज्य उन्हें राम को सौंप देना चाहिए। इस विषय में उन्होंने अपने मंत्रियों और पुरोहितों से सलाह ली।

सभी की सहमति से राजतिलक की तैयारियां होने लगी। पूरी अयोध्या में खुशी की लहर दौड़ गई। मन्थरा ने जब यह बात सुनी तो वह कैकयी एकान्त में अपने पति राजा दशरथ के पास गई। प्रेम जताती हुई हंस-हंसकर मधुर शब्दों में बोली। आप बड़े सत्यवादी हैंपहले जो मुझे एक वर देने को कहा था उसे दीजिए। राजा ने कहा लो अभी देता हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो मांग लो। कैकयी ने राजा को वचनबद्ध करके कहा आपने राम के लिए जो राज्यभिषेक का समान तैयार कराया है। उससे भरत का अभिषेक किया जाए और राम वन में चले जाएं।

कैकयी की यह अप्रिय बात सुनकर राजा को बड़ा द़ुख हुआवे मुंह से कुछ भी न बोल सकें। राम को जब यह मालूम हुआ कि पिताजी कैकयी को वरदान देकर मेरा वनवास स्वीकार कर चुके हैं। उनके सत्य की रक्षा के लिए वे स्वयं वन की ओर चल दिए। लक्ष्मण भी हाथ में धनुष लिए भाई के पीछे हो लिए तथा सीता ने भी राम का साथ दिया। राम के वन चले जाने पर राजा दशरथ ने शरीर त्याग दिया। कैकयी ने भरत को बुलवाया और कहा- राजा स्वर्गवासी हो गए।

इसलिए काट दिए लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक कान
कैकयी ने भरत को बुलवाया कहा- राजा स्वर्गवासी हो गए । राम-लक्ष्मण वन में है अब यह विशाल सम्राज्य निष्कंठक हो गया है। तुम इसे ग्रहण करो। भरत बड़े धर्मात्मा थे। वे माता की बात सुनकर बोले कुलघातिनी- धन के लालच में तूने कितनी क्रुरता का काम किया है। पति की हत्या की और इस वंश का नाश कर डाला। मेरे माथे पर कलंक का टीका लगा दिया। यह कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने सारी प्रजा के निकट अपनी सफाई दी। इस षडयंत्र में मेरा बिल्कुल हाथ नहीं है। फिर वे रामजी को लौटाने की इच्छा से कौसल्यासुमित्राऔर कैकयी को आगे करके वन चले गए। चित्रकूट पर्वत पर जाकर भरत ने लक्ष्मणसहित राम को धनुष हाथ में लिए तपस्वी वेष में देखा। भरत के अनुनय-विनय करने पर भी रामजी लौटने को राजी न हुए। पिता की आज्ञा का पालन करना था। इसलिए उन्होंने भरत को समझा-बुझाकर वापस कर दिया। भरतजी अयोध्या में न जाकर नंदीग्राम में रहने में लगे। राम ने सोचा यदि यहां रहूंगा तो नगर और प्रांत के लोग बराबर आते जाते रहेंगे। इसलिए वे शरभंग मुनि के आश्रम के पास घने जंगल में चले गए। शरभंग ने उनका आदर सत्कार किया। वहां से पास ही जनस्थान नामक वन का एक भाग था। जहां खर राक्षस रहता था। शूर्पणखा के कारण राम का उसके साथ वैर हो गया। रामचंद्रजी ने वहां के तपस्वियों की रक्षा के लिए चौदह हजार राक्षसों का संहार किया।

महाबलवान खर और दूषण का वध करके राम ने पूरे जंगल को निर्भय बना दिया। शूर्पणखा के नाक और होंठ काट लिए गए थे। इसी के कारण ये सारा विवाद हुआ। बाद में दुख के कारण शूर्पणखा लंका में गई। दुख से व्याकुल होकर रावण के चरणों में गिर पड़ी। उसके मुख पर अब भी लहू के दाग बने हुए थे जो सूख गए थे। अपनी बहिन को इस विकृत दशा में देखकर रावण क्रोध से विह्ल हो उठा और दांत कटकटाता हुआ सिंहासन से कूद पड़ा।

ऐसे तैयार किया रावण ने मारीच को हिरण बनने के लिए
शूर्पणखा ने जाकर रावण को सारी बात बताई। रावण ने उसे संत्वना दी। उसके बाद रावण ने महासागर पार कियाफिर ऊपर ही ऊपर गोकर्ण तीर्थ में पहुंचा। वहां आकर रावण अपने भूतपूर्व मंत्री मारिच से मिला। जो रामचंद्रजी के ही डर से वहां छिपा तपस्या कर रहा था। रावण को आया देखकर उसने उनका सत्कार किया। उसके बाद उसने कहा मुझसे यदि आपका कोई कठिन से कठिन कार्य भी होने वाला हो तो उसे नि:संकोच बताएं। राक्षसराज ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी जो आपको मेरे पास आना पड़ा।

तब रावण गुस्से से भरा हुआ था उसने बताया की राम व लक्ष्मण ने शूपर्णखा के नाक-कान काट दिए। मारीच ने कहा- रावण श्रीरामचंद्रजी के पास जाने से तुम्हारा कोई लाभ नहीं है। मैं उनका पराक्रम जानता हूं। भला इस जगत में ऐसा कौन है। जो उनके बाणों के वेग को सह पाए। उसकी बात सुनकर रावण का गुस्सा सांतवे आसमान पर था। उसने मारीच को डांटते हुए कहा तू मेरी बात नहीं मानेगा तो निश्चय ही तुझे अभी मौत के घाट उतार दूंगा। मारीच ने मन ही मन सोचा- यदि मृत्यु निश्चित है तो श्रेष्ठ पुरुष के ही हाथ से मरना अच्छा होगा।

फिर उसने पूछा अच्छा बताओं मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी। रावण ने कहा तुम एक सुंदर हिरण का रूप बनाओ। जिसके सिंग रत्नमय प्रतीत हो। शरीर भी चित्र-विचित्र रत्नों वाला ही प्रतीत हो। ऐसा रूप बनाओं की सीता मोहित हो जाए। अगर वो मोहित हो गई तो जरूर वो राम को तुम्हें पकडऩे भेजेगी। मैं उसे हरकर ले जाऊं गा और रामचंद्र अपनी प्यारी स्त्री के वियोग में बेसुध होकर अपनी जान दे देंगे।

क्या किया रामजी ने जब सीताजी को कौए ने मारी चोंच?
सुबह स्नान करके भरतजीब्राह्मणराजा जनकऔर सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए एक अच्छा दिन है। रामचंद्रजी ने गुरू वसिष्ठजीराजा जनकजीभरतजी और सारी सभा की ओर देखा व सोचा किन्तु फिर सकुचा गए। रामजी भरतजी से बोले तुम्हारीमेरीपरिवार कीघर की सारी चिंता गुरु वसिष्ठजी और महाराज जनकजी को है।

हमारे सिर पर जब गुरुजीमुनि विश्वामित्रऔर मिथलापति जनकजी है। तब हमें और तुम्हें स्वप्र में भी क्लेश नहीं हो सकता है। सभी लोग प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेकसहित तनमनवचन से उस प्रेम में मग्र हो गए। रामजी ने भरतजी को समझाया और शत्रुघ्र को गले लगा लिया। उसके बाद रामजी की आज्ञा लेकर लक्ष्मणजी से भेंट करके चल दिए।

सभी के चले जाने के बाद रामजीलक्ष्मणजी बड़ की छाया में बैठकर अपने प्रियजनों के वियोग में दुखी हो रहे हैं। भरतजी ने अयोध्या पहुंचकर। शुभ मुर्हूत में चरणपादुकाओं को निर्विघ्रतापूर्वक सिंहासन पर विराजित कराया। फिर रामजी की माता कौसल्याजी और गुरुजी के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्म की धुरी धारण भरतजी ने नन्दिग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसी में निवास किया। प्रभु श्रीराम और सीताजी शरीर पर जटाजुट और शरीर पर मुनियों के वस्त्र धारण करऋषियों के समान धर्म का पालन करने लगे।

गहने -कपड़े आदि त्यागकर जिस अयोध्या के राज्य को देवराज इन्द्र सिहाते थे। दशरथजी की सम्पति सुनकर कुबेर भी लजाते थे। उसी अयोध्यापुरी को छोड़कर राम सीता व लक्ष्मण निवास कर रहे हैं। नंदीग्राम में रहते हुए भरतजी का शरीर दिन पर दिन दुबला हुआ जा रहा था। एक बार की बात है देवराज इंद्र का मुर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। कौआ सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भागा। जब खुन बहने लगा और रामजी ने उनके पैर से खुन बहता देखा तो उन्होंने उस पर बाण चलाया। कौआ भागा तो उसे तीनों लोकों में कहीं भी स्थान नहीं मिला। रामजी ने उसे एक आंख से काना करके छोड़ दिया।

क्यों काट दिए लक्ष्मण ने शुर्पणखा के नाक-कान?
एक बार की बात है शूर्पणखा नाम की रावण की एक बहिन थीजो नागिन के समान भायानक और दुष्ट हृदय की थी। एक बार वह पंचवटी गई। दोनों राजकुमारों को देखकर वह काम से पीडि़त हो गई। वह सुंदर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर बहुत मुस्कुराकर रामजी से बोली- न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष हैन मेरे समान कोई स्त्री मैंने तीनों लोकों में खोजा। लेकिन तुम्हारे समान मुझे कोई नहीं मिला। मेरे योग्य पुरुष जगतभर में नहीं है। अब तुमको देखकर मेरा मन ठहरा है। सीताजी की ओर देखकर रामचंद्रजी ने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है। तब वह लक्ष्मणजी के पास गयी। लक्ष्मणजी उसे शत्रु की बहन समझकर।

प्रभु के पास जाकर बहुत मुस्कुराकर बोले- मैं तो रामजी का दास हूं। मैं पराधीन हूंकोसलपुर के राजा हैं वे जो कु छ करेंउन्हें सब फबता है। वह लौटकर फिर रामजी के पास आई। प्रभु ने फिर उसे लक्ष्मणजी के पास भेज दिया। लक्ष्मणजी ने कहा तुम्हे वही वरेगा जो लज्जा को त्याग देगा। तब वह गुस्से में रामजी के पास गई और उसने अपना भयंकर रूप दिखाया।

सीताजी को भयभीत देखकर रघुनाथजी ने लक्ष्मण की ओर इशारा देकर कहा। लक्ष्मणजी ने बड़ी फुर्ती से उसके नाक-कान काट दिए। मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दी हो। बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई। वह विलाप करती हुई खर-दूषण के पास गई। बोली हे भाई तुम्हारे पौरूष को धित्कार है। उसने शुर्पणखा से कारण पूछा और जब उसने पूरी बात बताई तब उसने सब सुनकर राक्षसों की सेना तैयार की। राक्षस के समुह झुंडों में दौड़े।

शूर्पणखा ने गुस्से में रावण को फटकारा और कही ये नीति की बात....
जब रामजी को पता चला की राक्षसों की भयानक सेना उन पर हमला करने आ रही है। तब रामजी ने लक्ष्मणजी से कहा तुम सीता को कंदराओं में लेकर चले जाओ। सावधान रहना। उसके बाद रामजी ने धनुष चढ़ाया। तभी राक्षसों की भयानक सेना वहां आ पहुंची। उन्होंने रामजी को चारों ओर से घेर लिया। प्रभु श्रीरामजी को देखकर राक्षसों की सेना चकित रह गई। वे उन बाण नहीं छोड़ सके । मंत्री को बुलाकर खर-दूषण ने कहा- यह राजकुमार कोई मनुष्यों का भूषण हैं। जितने भी लोक हैं वहा मैंने ऐसी सुंदरता कहीं नहीं देखी। इन्होंने हमारी बहिन को कुरूप कर दिया लेकिन ये अनुपम पुरुष वध करने के योग्य नहीं है। उसकी बात सुनते ही रामजी बोले हम क्षत्रिय हैं। वन में शिकार करते हैं और तुम्हारे सरीखे दुष्ट पशुओं को तो ढंूढते ही फिरते हैं। हम बलवान शत्रु को देखकर नहीं डरते। एक बार तो हम काल से भी लड़ सकते हैं। हम मनुष्य है लेकिन दैत्य कुल से मुनियों की रक्षा करने वाले हैं। दूतों ने लौटकर तुरंत सब बाते कहींजिन्हें सुनकर खर-दूषण का दिल जल उठा। उसने आक्रमण की आज्ञा दी। सभी राक्षस रामजी पर अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे। जब रामजी ने तीव्र बाणों की वर्षा की तो सभी मैदान छोड़कर भाग गए। योद्धा पृथ्वी पर गिर पड़ते हैंफिर भिड़ते हैं। एक बड़ा कौतुक हुआ जिससे शत्रुओं की सेना एक-दूसरे को रामरूप देखने लगी और आपस में युद्ध कर लड़ मरी।

सब यही राम है इसे मारो कहकर एक-दूसरे को मार रहे हैं। इस तरह खर-दूषण की पूरी सेना साफ हो गई। देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैंआकाश में नगाड़े बज रहे हैं। जब रामजी ने राक्षसों को जीत लिया तब सभी देवता प्रकट हो गए। खर-दूषण के हारने के बाद शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा गुस्सा करके रावण से बोली- तू शराब पी लेता है और दिन रात सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा हैनीति के बिना राज्य और धर्म के बिना प्राप्त धन,बिना विद्या पढऩे से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से सन्यासीसलाह से राजामान से ज्ञानमदिरापान से लज्जानम्रता बिना प्रीति और अहंकार से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

क्यों किया रावण ने सीताजी का हरण?
शूर्पणखा की बात सुनते ही रावण गुस्सा हो गया। उसने शूर्पणखा की बांह पकड़कर उसे उठाया और समझाया। उसने कहा- अपनी बात तो बताकिसने तेरे नाक कान काट दिए। तब वह बोली अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्रजो पुरुषों में सिंह के समान हैंवन में शिकार खेलने आए हैं। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहन हूं यह सुनकर वे हंसने लगे। मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण ने उनसे युद्ध किया।

उन्होंने उसका व त्रिशरा का वध कर दिया। खर-दूषण और त्रिशरा के वध की बात सुनकर रावण को गुस्सा आ गया। उसने शूर्पणखा को समझाकर बहुत प्रकार से अपने बल का बखान किया। उसे रात भर नींद नहीं आई। तभी रावण ने मन ही मन सीता हरण का संकल्प किया। वह सुबह रथ पर चढ़कर अकेला ही मारीच के पास पहुंचा। जब मारीच ने पूछा कि आप इतने गुस्से में क्यों हैतब रावण ने मारीच को सारी कहानी सुनाई। तब मारीच ने कहा हे राजन वे तो स्वयं ही चराचर ईश्वर हैं। उन्हीं के मारने से मरना और उनके जीने से जीना होता है।

यही राजकुमार विश्वामित्र के यज्ञ में उनकी रक्षा के लिए गए थे। उनसे बैर लेने में भलाई नहीं है। जिसने ताड़का और सुबाहु को मारकर शिवजी के धनुष को तोड़ दिया और खरदूषण और त्रिशरा का वध कर डाला। ऐसा प्रचण्ड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता हैजब मारीच ने रावण को ऐसा कहा तो उसने मारीच को फटकारा।

जब मारीच ने दोनों प्रकार से अपना मरण देखा तो उसने श्रीरामजी के हाथों मुक्ति पाना ही ठीक समझा। अपने मन में ऐसा निश्चय कर वह रावण के साथ चल दिया। उसने हिरण का रूप धरा। रावण जब उस जंगल के पास पहुंचा। तब मारीच कपटमृग बन गया। वह बहुत ही विचित्र था। सीताजी उसका परमसुंदर रूप देखकर उस पर मोहित हो गई।

ऐसे किया रावण ने सीता का हरण...
सीताजी रामजी से बोली वह हिरण बहुत सुंदर है। आप मुझे उसकी मृग चर्म ला दीजिए। तब रामजी ने सीताजी की प्रसन्नता के लिए धनुष धारण किया। लक्ष्मण से कहा-लक्ष्मण मैं शिकार के लिए जा रहा हूं। तुम अपनी भाभी की रक्षा करना।

उसके बाद रामजी हिरण के पीछे गए। मायरूपी हिरण दौड़ता व छल करता हुआ। कभी इधर तो कभी उधर जाने लगा। ऐसे कपट करते हुए वह रामजी को बहुत दूर ले गया। जब रामजी ने उसे तीर मारा तो वह गिर पड़ा और अपने असली रूप में आ गया। उसने उस अवस्था में पहले लक्ष्मण का नाम लिया व फिर रामजी का स्मरण किया। मारीच को मारकर राम तुरंत लौट पड़े। इधर सीताजी ने मरते समय मारीच की ''हा लक्ष्मण'' की आवाज सुनी तो वे व्याकुल हो उठी। उन्होंने लक्ष्मण से कहा तुम शीघ्र ही जाओतुम्हारे भैया संकट में है।

लक्ष्मणजी ने हंसकर कहा- माता सुनो उनमें सारी सृष्टि का विलय हो जाता है। वे श्रीरामजी क्या सभी स्वप्र में भी संकट में पड़ सकते हैंलेकिन जब बहुत समझाने के बाद भी सीताजी नहीं मानी। उन्होंने कुछ चुभने वाली बातें लक्ष्मणजी को सुनाई तो मजबूरी में लक्ष्मणजी रामजी को खोजने के लिए निकल पड़े। इधर रावण मौका देखकर सन्यासी के रूप में सीताजी के पास आया। रावण ने सीताजी के समीप आया और अनेकों तरह की कहानी सुनाकर सीताजी को भयप्रेम व राजनीति दिखलाई। जब सीता उसकी बातों में न आई तो रावण ने अपना असली रूप दिखलाया। गुस्से से भरकर उसने सीताजी को जबरदस्ती रथ पर बैठा लिया।

रावण सीताहरण के समय हो गया घायल क्योंकि....
सीताजी विलाप कर रही थी। हां लक्ष्मण तुम्हारा दोष नहीं है। मैंने जो क्रोध किया उसी का फल पाया है। प्रभु को मेरी यह विपत्ति कौन सुनाएगा। यज्ञ के अन्न को गधा खाना चाहता है। सीताजी का भारी विलाप सुनकर जड़-चेतन सभी दुखी हो गए। गिद्धराज जटायु ने विलाप करती हुई सीताजी की दुखभरी वाणी सुनकर उन्हें पहचान लिया। उसने यह देखकर कहा सीते पुत्री डर मत। मैं इस राक्षस का नाश कर दूंगा। वह पक्षी क्रोध में भरकर रावण की ओर दौड़ा। वह बोला अरे दुष्ट खड़ा क्यों नहीं रहतानिडर होकर चल दिया।

मुझे तूने नहीं जानाउसे यमराज की तरह अपनी ओर आते देख वह समझ गया कि यह गिद्धराज जटायु है। वह रावण से बोला रावण मेरी सीख सुन जानकीजी को छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। अगर तूने ऐसा नहीं किया तो तुझे प्रभु श्रीराम अपने गुस्से से भस्म कर देंगे। जब रावण नहीं माना तो तब जटायु ने रावण के बाल पकड़कर उसे रथ से नीचे उतार लिया। रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने चोंच मार-मारकर रावण को घायल कर दिया। तब रावण ने गुस्से में आकर कटार निकाली और जटायु के दोनों पंख काट दिए।

क्रमश:... 

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK