Friday, January 11, 2013

Buddhism (बौद्ध धर्म)

बौद्ध धर्म
मूलत: बौद्ध धर्म जीवन का एक दृष्टिकोण अथवा दर्शन है। संसार के प्रमुख धर्मों में से एक है बौद्ध धर्म। अपने मूल रूप में बौद्ध धर्म बुद्ध के उपदेशों पर आधारित है। महात्मा बुद्ध ही बौद्ध धर्म के संस्थापक है। उनकी शिक्षाएं व उपदेश बौद्ध धर्म ग्रंथों में संकलित है। इनके उपदेश मुख्यत: 'सुत्रपिटक में संग्रहित है। उनका प्रथम उपदेश (धर्मचक्र-प्रवर्तन) सारनाथ में हुआ था। इसमें मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया गया है। अर्थात् अधिक भोग-विलास एवं अधिक तप-त्याग के बीच का मध्यम रास्ता अपनाना ही उचित है। ईश्वर और धर्मविज्ञान के लिए कोई स्थान नहीं था। भारत ही एक ऐसा अद्भूत देश है जहां ईश्वर के बिना भी धर्म चल सकता है। ईश्वर के बिना भी बौद्ध धर्म को सद्धर्म माना गया है।

बौद्ध धर्म का उद्भव एवं इतिहास
असल में बौद्ध धर्म और उसकी विचारधारा कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यह उस विचारधारा का स्वाभाविक परिणाम था। जो कर्मकांड, हिंसायुक्त यज्ञ, आडम्बर और पुरोहितवाद के विरुद्ध पहले से ही बहती आ रही थी। वेद और उपनिषद् पढऩे का अधिकार शुद्रों को नहीं दिया गया था। शुद्रों को यज्ञ आदि धार्मिक कर्मों का करना एवं शामिल होना वर्जित था। समाज में वैमनस्यता बढ़ रही थी। धीरे-धीरे समाज के सभी प्रमुख चिंतक यज्ञ के खिलाफ होते जा रहे थे। देश में विभिन्न मत-मतांतरों, मान्यताओं एवं विचारधाराओं के बवंडर उठ रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में सामान्य जनता कोई नया एवं सहज धर्म चाह रही थी। परिष्कृत धर्मकुछ लोग ऐसा धर्म चाहते थे जिसमें यज्ञ, पशुबलि एवं कठिन कर्मकांड न हो। जिसमें अतिभोग एवं अधिक कठोर तप-त्याग की अतियां न हो। लोग त्याग और भोग के बीच का ऐसा मध्यम मार्ग चाहते थे जिस पर सभी आसानी से चल सकें।

यह सिखाता है बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं और उपदेशों में सार्थक एवं सफल जीवन का जो मार्ग बताया है, उसके आठ अंग है:

1. सम्यक दृष्टि: सम्यक दृष्टि का अर्थ है कि जीवन में अपना दृष्टिकोण ऐसा रखना कि जीनव में सुख और दुख आते-जाते रहते हैं। यदि दुख है तो उसका कारण भी होगा तथा उसे दूर भी किया जा सकता है।
2. सम्यक संकल्प: इसका अर्थ है कि मनुष्य को जीवन में जो करने योग्य है उसे करने का और जो न करने योग्य है उसे नहीं करने का दृढ़ संकल्प लेना चाहिए।
3. सम्यक वचन: इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी वाणी का सदैव सदुपयोग ही करना चाहिए। असत्य, निंदा और अनावश्यक बातों से बचना चाहिए।
4. सम्यक कर्मांत: किसी भी प्राणी के प्रति मन, कर्म या वचन से हिंसा न करना। जो दिया नहीं गया है उसे नहीं लेना। दुराचार और भोग विलास दूर रहना।
5. सम्यक आजीव: गलत, अनैतिक या अधार्मिक तरीकों से आजीविका प्राप्त नहीं करना।
6. सम्यक व्यायाम: बुरी और अनैतिक आदतों को छोडऩे का सच्चे मन से प्रयास करना। सदगुणों को ग्रहण करना व बढ़ाना।
7. सम्यक स्मृति: इसका अर्थ है कि यह सत्य सदैव याद रखना कि यह सांसारिक जीवन क्षणिक और नाशवान है।
8. सम्यक समाधि: ध्यान की वह अवस्था जिसमें मन की अस्थिरता, चंचलता, शांत होती है तथा विचारों का अनावश्यक भटकाव रुकता है।

बौद्ध धर्म और हिंदुत्व
महात्मा बुद्ध ने भारत के मूल वैदिक धर्म का विरोध नहीं किया बल्कि वैदिक धर्म में की कुरीतियां एवं कुप्रथाएं ही उनके निशाने पर रहीं। इसलिए यह कहना और मानना अनुचित नहीं होगा कि बौद्ध धर्म कोई धर्म नहीं है बल्कि 'हिंदुत्व' का ही नवीन संशोधित रूप है।

वास्तविकता यह है कि स्वयं अपनी ही कुरीतियों एवं खामियों से लडऩे के लिए हिंदुत्व ने ही बौद्ध धर्म का रूप लिया था। यही कारण है कि हिंदू आचार्यों ने महात्मा बुद्ध को भी दशावतारों में शामिल कर लिया। यह मान लिया गया कि जिस प्रकार 'विष्णु-राम और कृष्ण बनकर आए थे। वैसे ही, पशु-हिंसा को रोकने के लिए इस बार वे बुद्ध बन कर आए हैं।

बौद्ध धर्म की मान्यताएं एवं सिद्धांत
गौतम बुद्ध ने अपने द्वारा नवीन धर्म या संप्रदाय स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने धार्मिक सिद्धांतों तथा रुढिय़ों के विषय में चर्चा नहीं की। नियमों एवं विधियों के विषय में भी उन्होंने कोई बात नहीं की। उन्होंने जीवन के एक ऐसे नीवन पथ की और संकेत किया जो सबके लिए समान रूप से सहज एवं सर्वोत्तम है। सद्गुणों के इस मार्ग पर चलने से प्रत्येक व्यक्ति जीवन तथा मरण के बंधन से मुक्ति पा सकता है। उनके उपदेशों का आधार आत्मा, कार्य तथा आचार-विचार की पवित्रता है।

महात्मा बुद्ध के उपदेशों का आधार आत्मा, कार्य तथा आचार-विचार की पवित्रता है। उन्होंने वेदों की प्रामाणिकता और अपौरुषेयता (अर्थात् ईश्वर द्वारा रचित) को अस्वीकार किया। यज्ञों में पशु बलि जैसी हिंसात्मक प्रवृत्तियों की निंदा की तथा अर्थहीन धार्मिक विधियों एवं अनुष्ठानों का घोर विरोध किया। जाति-प्रथा तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व को चुनौती दी। उनके मतानुसार अपने स्वयं के विकास के लिए व्यक्तिगत श्रम और सात्विक जीवन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। जिस सात्विक तथा सदाचार पूर्ण मार्ग को उन्होंने सुझाया है, वह व्यावहारिक, नैतिक गुणों का एक समूह है। अतएव बौद्ध धर्म धार्मिक क्रांति की अपेक्षा सामाजिक क्रांति ही अधिक था।

बुद्ध के उपदेशगौतम बुद्ध के निम्नलिखित चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया।
1. इस संसार में दु:ख है।
2. इस दु:ख का एक कारण है।
3. यह कारण इच्छा या वासना है।
4. वासना को नष्ट करके इस दु:ख को दूर किया जा सकता है। आवागमन के बंधन से बचने तथा दु:खों को समाप्त करने के लिए मनुष्य को अष्टांगिक मार्ग का अनुकरण करना चाहिए।

अष्टांगिक मार्ग इस अष्टांगिक मार्ग में निम्नलिखित 8 बातें सम्मिलित है:
1. सम्यक् दृष्टि
2. सम्यक् संकल्प
3. सम्यक् वाक्
4. सम्यक् कर्म
5. सम्यक् आजीव
6. सम्यक् व्यायाम या प्रयत्न
7. सम्यक् स्मृति
8. सम्यक् समाधि।

महात्मा बुद्ध ने जीवन में सरलता एवं सादगी पर बल दिया। उनके अनुसार समाज में ऊंच-नीच की भावना का कोई महत्व नहीं है। उनका कहना था कि पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए किसी व्यक्ति का उच्च जाति में जन्म लेना आवश्यक नहीं है। इसीलिए उन्होंने बिना भेदभाव के उन सभी व्यक्तियों को बौद्ध संघ का सदस्य बनाया जो संघ में शामिल होना चाहते थे। महात्मा बुद्ध ने अपने सारे उपदेश जन-साधारण की भाषा में दिए। इसलिए वे बहुत लोकप्रिय हुए। इन सिद्धांतों को बुद्ध एवं महावीर दोनों ही मानते थे। किंतु बुद्ध और महावीर के उपदेशों में एक बहुत बड़ा अंतर भी है।

मध्यम मार्गमहात्मा बुद्ध ने मध्यम मार्ग पर बल दिया है। उनके अनुसार पवित्र और सफल जीवन बिताने के लिए मनुष्य को भोग और त्याग के क्षेत्र में अति करने से बचना चाहिए। अर्थात् मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। न तो उसे कठोर तप करना चाहिए और न ही सांसारिक भोग-विलास में पूरी तरह से डूब ही जाना चाहिए। जबकि इससे भिन्न भगवान महावीर ने कठोर तप और शारीरिक यातना पर अधिक बल दिया है। महावीर की भांति बुद्ध ने भी अहिंसा को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हुए उसका उपदेश दिया है।

धम्मपद: बौद्धधर्म की गीता
धम्मपद: यह बौद्ध साहित्य का सर्वोष्कृष्ट एवं लोकप्रिय ग्रंथ।
धम्मपद का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है: धर्म विषयक कोई शब्द, पंक्ति या पद्यात्मक वचन।
धम्मपद में बुद्ध भगवान के नैतिक उपदेशों का संग्रह है।
धम्मपद में पालि भाषा की 123 गाथाएं शामिल है।
धम्मपद की रचना उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर 300 ई.पू. से 100 ई.पू. के बीच हुई है।
बौद्ध संघ में इस ग्रंथ का अत्यधिक एवं अद्वितीय प्रभाव है।
धम्मपद में पारंगतत होना बौद्ध संघ में परिपक्वता एवं उच्चता की कसौटी माना जाता है।
धम्मपद में स्वयं कहा गया है कि अनर्थ पदों से युक्त सहस्रों गाथाओं के भाषण से ऐसा एक मात्र अर्थपद या धम्मपद अधिक श्रेष्ठ एवं श्रेयस्कर है।

बौद्ध साधु प्राय: इसी ग्रंथ की कोई गाथा या अंश लेकर अपने उपदेशों का प्रारंभ करते हैं। धम्मपद में भाषा की सरलता, सहजता एवं ग्रणणशीलता देखने को मिलती है। धम्मपद में गूढ़ एवं अति सूक्ष्म दार्शनिक एवं अध्यात्मिक तत्वों की व्याख्या एवं वर्णन सुंदर एवं ग्रहणशील रूप में हुआ है।

जीवनपथ की सुगमता के लिए धम्मपद में उतरें
धम्मपद: जीवनपथ की सुगमता के लिए हमसे कहते हैं.शुभ कर्म करने वाला मनुष्य दोनों जगह प्रसन्न रहता है। यहां भी और परलोक में भी। बुद्धिमान मनुष्य वही है जो उद्योग (परिश्रम, पुरुषार्थ), निरालस्यता, संयम और (मन पर नियंत्रण) आदि के द्वारा अपने जीवन को पूर्ण सुरक्षित एवं प्रगतिशील बना लेता है।

बुद्धिमान मनुष्य कठिनाई से वश में होने वाले मन को नियंत्रित एवं प्रशिक्षित करता है। नियंत्रित मन अत्यंत ही भला करने वाला तथा सुख देने वाला होता है। राग, द्वेष और इंद्रिय भोगों में आसक्त मनुष्य को यमराज आहत अवस्था में ही अपने वश में कर लेता है।

यदि अच्छे चरित्र के श्रेष्ठ मनुष्यों का साथ न मिले तो अकेले ही रहना चाहिए। दुराचारी, अहंकारी, मूर्ख एवं व्यसनी मनुष्य का साथ एक क्षण के लिए भी नहीं करना चाहिए।जो व्यक्ति दोष दिखाने वाले व्यक्ति को अत्यंत प्रिय एवं शुभचिंतक समझता है उसका कल्याण ही होता है। लाखों व्यक्तियों को जीतने की अपेक्षा, स्वयं को जीतना अधिक कठिन एवं महान है।

व्यर्थ और अनावश्यक शब्दों से युक्त हजारों कथाओं, वाणियों एवं उपदेशों की बजाय वह एक शब्द ही अधिक श्रेष्ठ है जो शांति और सद्ज्ञान प्रदान करें। मनुष्य अपने कर्मों के फल से कभी भी और कहीं भी बच नहीं सकता है। जिन्होंने जवानी में ब्रह्मचर्य और धन का संग्रह नहीं किया वे शेष जीवनभर पछताते ही रहते हैं।

बौद्ध धर्म में ध्यान को ही सबसे ज्यादा महत्व क्यों
बौद्ध भिक्षुओं की ध्यान क्रियाओं को लेकर हमने अनेक अचरज भरी बातें सुनी होंगी। जब बौद्ध भिक्षु ध्यान में होते हैं तो वे बाहरी संसार से लगभग अलग हो जाते हैं। अपने आसपास घट रही घटनाओं से भी दूर, न तो शोर-शराबे का उन पर असर पड़ता है और न ही किसी प्रकार की गतिविधि का। आखिर बौद्ध भिक्षु ध्यान पर इतने केंद्रीत क्यों हैं? दरअसल बौद्ध धर्म की सबसे प्रमुख उपासना पद्धति ध्यान ही है। भगवान बुद्ध ने इस धर्म की नींव रखी और आज यह धर्म दुनिया के सबसे प्रमुख धर्मो में एक है।

ध्यान हमें अपने भीतर झांकने का मौका देता है। भगवान हमारे भीतर ही बसते हैं, लेकिन उन्हें देख पाना मुश्किल है क्योंकि हमारा मन इतना अधिक चंचल होता है कि उस परमात्मा को देख या महसूस कर पाना लगभग नामुमकीन होता है। बौद्ध धर्म खास ध्यान पर इसलिए जोर देता है क्योंकि पहले हम खुद को पहचाने की हम किसके अंश हैं, इसके बाद परमात्मा को खोजें। खुद को पहचान लिया तो परमात्मा समझना आसान होगा। भगवान बुद्ध की खोज भी पहले यही थी कि मैं कौन हूं। यह खोज पूरी हुई और उन्हें न केवल परमात्मा प्राप्त हुआ बल्कि वे खुद भी अवतार के रूप में स्वीकार किए गए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Sikhism (सिक्ख धर्म)

ऐसे जन्मा सिक्ख धर्म
अर्थ एंव स्वरूप एवं इतिहासशब्दकोश में दिए दिए अर्थ के अनुसार सिक्ख शब्द का अर्थ है- शिष्य, चेला, गुरुनानक के पंथ का अनुयायी, नानकदेव के अनुयायियों का एक वर्ग (जैस- सिक्ख समूह) सिक्ख धर्म भी जैन धर्म के अनुसार हिंदू धर्म के समीपस्थ धर्मों में से से एक है, अर्थात् हिंदू धर्म से समानता या एकरूपता रखने वाला है। वास्तविकता में सिक्ख धर्म गुरुओं पर आधारित धर्म है। इस धर्म के प्रणेता गुरुनानक देव हैं गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रथम गुरु अवतार हुए है। सिक्ख धर्म में बहुदेवता वाद की मान्यता नहीं है।

अकाल पुरुष सिक्ख धर्म केवल एक अकाल पुरुष को मानता है। यह 'एक ईश्वर तथा गुरुद्वारों पर आधारित धर्म है। इस धर्म में गुरु महिमा मुख्य पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। गुरु के माध्यम ही हम अकाल पुरुष तक पहुंचते है। गुरुनानक देव जी ने अकाल पुरुष का जैसा स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार - अकाल पुरुष एक है, उस जैसा कोई नहीं है। वह सबमें एक समान रूप से एकरस रूप में बसा हुआ है। उस अकाल पुरुष का नाम अटल है।

सृष्टि निर्मातावह अकाल पुरुष ही संसार की हर छोटी और बड़ी वस्तु को बनाने वाला है। वह अकाल पुरुष ही सब कुछ बनाता है तथा बनाई हुई हर एक चीज में उसका वास भी रहता है। अर्थात् वह हर कण-कण में अदृश्य रूप से निवास करता है। वह सर्वशक्तिमान है। तथा उसे किसी का डर नहीं है। उसका किसी के साथ विरोध, मनमुटाव एवं शत्रुता नहीं है।

कालजयी उस अकाल पुरुष का अस्तित्व समय के बंधन से मुक्त है। भूतकाल, वर्तमान काल एवं भविष्य काल जैसा काल विभाजन उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। बचपन, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु का उसपर कोई प्रभाव नहीं होता । उस अकाल पुरुष को विभिन्न योनियों में भटकने की आवश्यकता नहीं है अर्थात् वह अजन्मा (जन्म-मरण से परे)है। उसको किसी ने नहीं बनाया। न उसे किसी ने जन्म दिया, वह स्वयं प्रकाशित है। ऐसा प्रभु गुरु की कृपा से ही मिलता है।

सिक्ख धर्म के संस्थापक: गुरु नानकदेवसिक्ख धर्म के प्रवर्तक आदि गुरुनानकदेव है। इनका समय सन् 1469 से 1538 रहा। इन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में खेती, दुकानदारी, व्यापार व भंडारण आदि सभी कार्य किए। जैसे-जैसे धर्म एवं भक्ति भाव में उनका मन रमने लगा। वे धार्मिक यात्राओं पर जाने लगे। उन्होंने ग्रह त्यागकर विश्वभ्रमण किया।

गुरुनानक देव का जन्म 15 अप्रैल 1469 को पंजाब के शेखपुरा जिले के तलवंडी में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्याणदास (कालू महता) था तथा माता का नाम तृप्ताजी था। नानक बचपन से ही शांत एवं तेज बुद्धि के थे। उन्होंने हिंदी के साथ संस्कृत और फारसी भी पढ़ी। उन्हें छोटी उम्र में भी भगवान के प्रति लगन लग गई। गुरुनानक ही सिक्ख धर्म के प्रणेता व आधार है। प्रमुख रचना जपुजीगुरुनानक की प्रसिद्ध रचना का नाम जपुजी है। जिस प्रकार मुस्लिम कुरान पर, हिंदू गीता और भागवत पर, पारसी गाथा पर, तथा बौद्ध धम्मपद पर श्रद्धा रखते हैं, उसी प्रकार सिख धर्म अनुयायी 'जपुजी पर श्रद्धा करते हैं। गुरुग्रंथ साहब का आरंभ जपुजी से होता है। सिक्ख धर्म के पहले गुरुनानक देवजी के सारे उपदेशों का सार इस लघु गंरथ में समाया है। सिक्ख धर्मानुयायी प्रतिदिन जपुजी का पाठ करते हैं।

सिक्ख धर्म के प्रमुख ग्रंथगुरुनानक देव के वचनों को, पहले पहल, गुरु अंगद देव ने 'गुरुमुखी लिपि में लिखा। तभी से यह लिपि प्रचलन में आई है। सिक्खों के मुख्य धर्म 'ग्रंथ साहिब का संकलन और संपादन सन् 1604 ई. में पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने किया। इस ग्रंथ में आदि के पांच गुरु और नवें गुरु तेगबहादुर जी के वचन और पद संग्रहित हैं। सिक्ख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी साहित्य के बहुत बड़े विद्वान, कवियों के प्रबल सहायक एवं संरक्षक तथा स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे। उनकी सभी रचनाओं को सिक्ख, 'दशम ग्रंथ के नाम से पुकारते हैं। गुरु गोविंदसिंह जी के मन में हिंदू धर्म एवं देवी देवताओं के प्रति भी गहरी श्रद्धा थी। उन्होंने 'रामायण ग्रंथ की रचना भी की जो कुछ ही समय पूर्व 'गोविंद-रामायण के नाम प्रकाशित हुई।

सिक्ख धर्म का प्रभाव क्षेत्र एवं अनुयायी सिक्ख धर्म मुख्य रूप से भारतीय धर्म है। इसका जन्म एवं प्रवर्तन भारत में ही हुआ है। सिक्ख धर्म के सर्वाधिक अनुयायी भारत में ही पाए जाते हैं। विश्वभर में लगभग 3 करोड़ अनुयायी हैं। भारत के अलावा यह धर्म आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण-पूर्वी एशिया, युनाइटेड किंग्डम एवं यूरोप में सिक्ख धर्म के अनुयायी है।

भगवान सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'
गुरुनानक देव का आध्यात्मिक जीवननानकदेव की दृष्टि में सारा संसार एक पवित्र स्थान है। वे इस पवित्र संसार में रहने वाले सभी निवासियों को एक समान दर्जा दिया करते थे। उनके अनुसार जो सत्य से प्रेम करता है। वही पवित्र है। भगवान स्वयं भी सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'। सत्य और शुभ आचरण से अपने आप को पवित्र बनाकर कोई भी भगवान तक पहुंच सकता है। नानकदेव अनावश्यक आडंबर और भाव रहित कर्मकांड को व्यर्थ मानते थे।

व्यापक लोकप्रियताहिंदू और मुसलमान दोनों ही वर्गों के लोग नानकदेव जी को समान रूप से चाहते एवं सम्मान देते थे। दोनों वर्गों के लोग उन्हें प्यार करते एवं संत मानते थे। मुस्लिमों से नानकदेव ने कहा कि दया को मस्जिद जानों उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ, न्याय और ईमानदारी को कुरान जानों, नम्रता को सुन्नत जानो, सौजन्य को रोजा मानों तभी तुम सच्चे मुसलमान कहलाने के लायक हो पाओगे। इतना ही नहीं नानक देव जी ने पांच वक्त की नमाज का वास्तविक अर्थ मुसलमानों को समझाते हुए कहा कि पहली नमाज सच्चाई है, दूसरी इंसाफ, तीसरी दया, चौथी नेक नियती और पांचवीं ईश्वर (अल्लाह) की पूजा (इबादत) है।

धर्म का मर्महिंदूओं को भी धर्म का मर्म (सच्चाई) समझाते हुए नानक देव ने कहा कि मैंने चारों वेद पढ़े हैं, अड़सठ तीर्थों का स्नान किया है। वनों में जंगलों में रहा हूं। सातों ऊपरी व नीचे की दुनिया का ध्यान मनन किया है। तब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वही अपने धर्म के प्रति सच्चा है जो भगवान से डरता है, बुरे काम नहीं करता, नेक काम करता है। गुरु नानक ने भेदभाव भुलाकर ईमानदारी, नेकनियती, वफादारी एवं समर्पण भाव से काम करने की शिक्षा दी। गुरुनानक का दार्शनिक सिद्धांत वेदों पर आधारित था। वे एक ओंकार, अकालपुरुष और प्रकृति को सत्य मानते थे। उन्होंने अहंकार को पाप की जड़ माना है। गुरु नानक ने कहा है कि मन कागज है, हमारे कर्म स्याही है। पुण्य और पाप इस पर लिखे लेख है, हमें मन के कागज पर लिखे पुण्य के लेख को बढ़ाना और पाप वाले लेख को मिटाना है।

यह सिखाता है सिक्ख धर्म
सिक्ख धर्म: मान्यताएं एवं सिद्धांतसिक्ख धर्म गुरु परंपरा पर आधारित धर्म है। जिसके पहले महान् गुरु आदि गुरु नानक देव जी हुए हैं। सिक्ख धर्म में दस अवतारी गुरु माने गए हैं। दश गुरुओं की सूची-
१. आदि गुरु नानकदेव जी
2. गुरु अंगददेव जी
3. गुरु अमरदास जी
4. गुरु रामदास जी
5. गुरु अर्जुनदेवी जी
6. गुरु हरगोविंद जी
7. गुरु हरिराय जी
8. गुरु हरिकृष्ण जी
9. गुरु तेजबहादुर जी
10. गुरु गोविंदसिंह जी स्थाई गुरु सिक्ख धर्म में गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोविंदसिंह जी तक 10 गुरु हुए हैं। प्रत्येक गुरु अन्त समय में अपने योग्य उत्तराधिकारी को अपना पद सौंप कर उसे सिक्ख पंथ का अगला गुरु घोषित कर दिया करते थे।

गुरु गोविंदसिंह जब स्वर्गवासी होने लगे, तब उन्होंने 'गुरु-ग्रंथ साहिब को ही सिक्ख पंथ का स्थायी गुरु घोषित कर दिया और समस्त सिक्ख अनुयायियों को आज्ञा दे दी कि आगे से कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा।सिक्ख किसको कहते हैं?
१. जो केवल एक अकालपुरुष को मानता हैं, वह सिक्ख है।
२. जो दस गुरु साहिबान (गुरुनानक देव से गुरु गोविंद सिंह तक) और गुरु ग्रंथ साहब वाणी व शिक्षा के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, वह सिक्ख है।
३. जो दशम पिता के प्रदान किए खंडे बांटे का अमृत पान करता है, वह सिक्ख है।
४. जो पांचककार केश, कंघा, कड़ा, कछिहरा और कृपाण इन पांचों को धारण करता है, वह सिक्ख है।सिक्खों के लिए वर्जित कार्य

सिक्ख धर्म चार बुराइयों से सिक्खों को दूर करने का उपदेश देता है-
१. केशों को अपमानित करना।
२. तंबाकु सेवन करना।
३. मुसलमानों द्वारा कुंठा (हलाल) मांस खाना।
४. पराई स्त्री या पराए पुरुष का संग करना।

सिक्ख धर्म: उपासना पद्धतियां एवं प्रथाएं
नित्य नियम : सिक्ख धर्म में मान्यता है कि नितनेम का रोज पाठ करना चाहिए। ये पाठ हैं- जपु, जाप और दस सवैये। इन वाणियों का पाठ प्रात: काल करना चाहिए।सोदर रहिरास: सूर्यास्त के बाद पढ़े।सोहिला: ये वाणी रात को सोते समय पढ़े।ओम्: ये पारब्रह्म वाचक शब्द है। गुरुग्रंथ साहब में ओम् के पूर्व 1 अंक का प्रयोग किया गया है इससे तात्पर्य यह है कि वह अस्तित्व जो एक है जिसके समान दूसरा कोई नहीं है।

जपु: ''आदि सचु जुगादि सचुहै भी सचु नानक होसी भी सचु।''ये गुरुमत का मूलमंत्र है। इसमें गुरुनानक देव ने परमात्मा के शाब्दिक संकल्प को प्रस्तुत किया है।सोहिला: सोहिला वाणी का नाम है। इस वाणी का पाठ सिक्ख मतानुसार रात को सोते समय किया जाता है। सोहिला का शाब्दिक अर्थ है- यश। अर्थात् वाणी से परमात्मा का यशोगान किया जाना।

अरदास: सिक्ख धर्म में अरदास का बड़ा महत्व है। अरदास का नियम है कि गुरु सिक्ख जब भी वाणी का पाठ करें, प्रवचन करें, सबसे पहले ईश्वर के चरणों में समर्पण भाव से प्रार्थना करें कि सुख शांति का व्यवहार बना रहे, एवं परमेश्वर प्रार्थी के सिर पर अपना हाथ रखे। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह कोई भी व्यवधान हो, यात्रा हो या शुभ कार्य करना हो, या कोई मंगल कार्य करना हो तो पहले अरदास (प्रार्थना) करें, तब आरंभ करें। परमात्मा अरदास करने वालों की प्रार्थना पूरी करते हैं।

अकाल तख्त: सिक्ख धर्म में पांच अकाल तख्त हैं। जिनको पूजा जाता है तथा जिन पर बैठकर सिक्खों को आदेश, करमान, सजा, न्यायिक आदेश दिए जाते हैं जो इस प्रकार हैं -
1. श्री अकाल तख्त साहब, अमृतसर (पंजाब)
2. श्री हरमंदिर साहब, पटना (बिहार)
3. श्री केसगढ़ साहिब, आनंदपुर (पंजाब)
4. श्री दमदमा साहिब, तलवंडी (पंजाब)
5. श्री हजूर साहब, नांदेड़ (महाराष्ट्र)ये पांचों तख्त सिक्खों के ऐतिहासिक तख्त हैं, जिनकी बड़ी मान्यता है।

फतह- जब कभी दो सिक्ख व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो फतह बुलवाते हैं। जो कि इस प्रकार है- ''वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह जयकार- सिक्ख धर्म में जयकार भी होती है। जो इस प्रकार है - ''बोले सो निहाल सत् श्री अकाल । सिक्ख सैनिक युद्धों के समय भी यही जयकारा बोलते हैं।मत्था टेकना- सिक्ख जब गुरुद्वारे आता है तो गुरुग्रंथ साहब को मत्था टेकता है, सिर झुकाता है। मस्तक झुकाने का अर्थ यह है कि हम गुरुग्रंथ साहब का हुक्म मानेंगे।

एक परिवार- सिक्ख धर्म कहता है कि सभी सिक्ख एक परिवार है। खालसा पंथ ही हमारा सांझा परिवार है। गुरु गोविंद सिंह पिता व साहब कौरजी माता है।वाहे गुरु: परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों - ईश्वर, खुदा, यीशू, भगवान आदि के समान ही सिक्ख धर्म में परमात्मा को वाहे गुरु (अकाल पुरुष) के नाम से पुकारा जाता है।केश: सिक्ख धर्म में केशों का बहुत महत्व है। सिक्खों का विश्वास है कि केश गुरु की निशानी है। केश सच्चे सिक्ख की पहचान है।

गुरुद्वारा: वाहेगुरु (परमात्मा) का गुणगान करने को सिक्ख लोग गुरुद्वारे जाते हैं। हिंदूओं के मंदिर और मुस्लिमों की मस्जिद के समान ही सिक्खों का सामुहिक धर्म स्थल गुरुद्वारा कहलाता है। गुरुद्वारे में 'गुरुग्रंथ साहिब को मूर्ति के स्थान पर अत्यंत आदर एवं सम्मान के साथ रखा जाता है। सिक्ख धर्म में अनुशासन की बड़ी महत्ता है। गुरु तख्त के आदेश का पालन व सजा काटना, सिक्ख अपना धर्म समझते हैं। सिक्खों का बड़े से बड़ा आदमी भी तख्त के आदेश का पालन करके गंदे जूते एवं झूठे बर्तन साफ करता है।

सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेश
सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेशसिक्ख धर्म में जिन 10 गुरुओं को मान्यता प्राप्त है, उनके द्वारा दी गई शिक्षाएं एवं उपदेशों में से प्रमुख इस प्रकार है:

1. मनुष्य स्वयं कर्म रूपी बीज बोता है तथा स्वयं ही फल खाता है।
2. जो दुष्ट कर्म हैं वो पेट के कीड़े बनते हैं। शुभ कर्म शुभ गुणों के रूप में परिवर्तित होते हैं।
3. जो परमात्मा को नहीं भजते वे आवागमन (जन्म-मृत्यु) के चक्र में पड़े रहते हैं।
4. जो तीर्थ ईश्वर की आज्ञानुसार है, उसमें स्नान करना चाहिए।
5. महात्माओं के सत्संग से जन्म -मरण की जंजीर टूटती है। सत्संग और भजन कभी भी नहीं भूलना चाहिए। 6. अहंकार से सदा दूर रहना चाहिए।
7. अपने को छोटा मानकर चलना चाहिए। किसी को दु:ख नहीं देना चाहिए।
8. जैसे मछली जाल में फंसकर पकड़ी जाती है, उसी प्रकार मनुष्य भी लोभ के जाल में फंसता है।
9. परमात्मा ही मनुष्यों को शक्ति एवं महत्व प्रदान करता है।
10. जब ज्ञान नेत्रों से प्रभु के दर्शन होते हैं। तो जन्म-जन्म के मेल (पाप) कट जाते हैं।
11. फिरत-फिरत में हारियों, फिरियो तब शरणाई। नानक की प्रभु विनती, अपनी भक्ति लाई।।
अर्थात् हे परमात्मा मैं अनेक जन्मों में फिरता-फिरता हार गया अन्त में थककर तोरी शरण आया हूं। मेरी प्रार्थना है अब तेरी भक्ति छोड़कर कहीं न जाऊं।
12. प्रभु प्राप्ति के मार्ग में सुख भोग, रोग के समान है और दु:ख प्रभु कृपा के समान। सुख में प्रभु की याद नहीं आती, दुख में ही भगवान याद आते हैं।
13. सत्संग मनुष्य का अहंकार मिटा देता है।
14. यदि कोई मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चाहता है तो गुरुमुखों की सेवा करें।
15. यदि कोई मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होना चाहता है तो संतों के चरणों में जाएं।
16. हे जीव। सुंदर राम की याद कर तुझे उसने सुंदर बनाकर दिखाया।
17. जब तक मन में झूठ, निंदा, लोभ लालच, दूर नहीं होते शांति नहीं मिलेगी।
18. गुरुभक्ति और सत्य बोलने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।
19. जिसने व्यापक प्रभु को पहचान लिया वो ही सतगुरु है।
20. सतगुरु सिक्ख की रक्षा करता है, सेवक पर कृपा करता है।
21. गुरु दर्शन कल देने वाला है, गुरु चरण छूने से पवित्रता प्राप्त होती है।
22. अभिमानी नकर को प्राप्त होता है।
23. संत की निंदा करने वाला ऐसे तड़पता है जैसे बिना जल के मछली।
24. सत्संग में प्रभु प्यार के अनमोल मोती है।
25. कंगाल के लिए प्रभुनाम धन तथा निराश्रित के लिए सहारे के समान है।

सिक्ख मत और हिंदुत्वसिक्ख धर्म और हिंदुत्व, ये दो नहीं, एक ही धर्म है। हिंदुत्व का यह स्वभाव है कि उस पर जब जैसी विपत्ति आती है। तब वह वैसा ही रूप अपने भीतर से प्रकट करता है। इस्लामी हमलों से बचने के लिए अथवा उसका माकूल जवाब देने के लिए ही हिंदूत्व ने इस्लाम के अखाड़े में अपना जो रूप प्रकट किया, वही सिक्ख या खालसा धर्म है। सिक्ख गुरुओं ने हिंदू धर्म की रक्षा और सेवा के लिए अपनी गरदनें कटाई। अपने जीवन का बलिदान दिया तथा उन्होंने अपना जो सैनिक संगठन खड़ा किया, उसका लक्ष्य भी हिंदू धर्म को जीवित एवं जागरूक रखना था। इसी कारण सिक्ख सारे भारत वर्ष में हिंदूओं के प्रिय है।

गुरु नानक की जिंदगी का यह सच नहीं होगा आपको पता
पंजाब की भूमि वीर योद्धाओं के शौर्य गाथाओं और मानवता के लिए सर्वस्व त्याग देने वाले लोगों की कहानियों से भरी है। इसी प्रांत में सिख धर्म का उदय हुआ और यह देश- दुनिया तक फैला। इन कहानियों के स्वर्णभंडार से हम आपके लिए कुछ ऐसी कहानियां लेकर आए हैं जो सिख धर्म गुरुओं से संबंधित है। पेश है गुरु नानक के जीवन की कुछ बातें-

नानक एक असाधारण रूप से विकसित शक्तियों वाले बालक थे। बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह बटाला के मूलचंद चोना की बेटी सुलखनी से हो गया। नानक की उम्र उन्नीस साल की थी, जब उनकी पत्नी उनके साथ रहने आ गई। कुछ समय के लिए तो वह उनका ध्यान अपनी तरफ करने में कामयाब हो गई और उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, श्रीचंद को वर्ष 1494 में और लखमीदास को तीन साल बाद। उनकी शायद कोई बेटी या बेटियां भी हुईं, जो बचपन में ही मर गईं।

उसके बाद नानक का मन पुन: आध्यात्मिक समस्याओं की ओर मुड़ गया और फिर वे दर-दर भटकते साधुओं का साथ खोजने लगे। उनके पिता ने उन्हें अपने पशुओं की देखभाल करने में लगाने और उनके लिए व्यवसाय-धंधा खोलने की बड़ी कोशिश की, लेकिन कुछ भी काम न आया। उनकी बहन उन्हें अपने घर सुल्तानपुर ले आई और अपने पति के प्रभाव से उनकी नौकरी बतौर खजांची नवाब दौलत खान लोदी के यहां लगवा दी, जो कि दिल्ली के सुल्तान के कोई दूर के रिश्तेदार थे। यद्यपि नानक ने बेमन से ही यह नौकरी करना स्वीकार किया, लेकिन अपना फर्ज उन्होंने बाकायदा भली-भांति निभाया और अपने मालिकों का दिल जीत लिया।

सुल्तानपुर में एक मुस्लिम भांड मरदाना नानक के साथ हो लिया और दोनों मिलकर शहर में सबद गाने का आयोजन करने लगे। जन्मसाखी में सुल्तानपुर में बिताए उनके जीवन का ब्यौरा है, हर रात वे गुरुबानी गाते थे, जो भी आता, वे उसे भोजन कराते, सूर्योदय से सवा घंटे पहले उठ वे नदी में नहाने जाते और दिन निकलने तक दरबार में जाकर अपने काम में जुट जाते।नदी पर सुबह-सुबह ऐसे ही एक स्नान के दौरान, नानक को अपना प्रथम रहस्यवादी अनुभव हुआ। जन्मसाखी में इसे ईश्वर के साथ आध्यात्मिक संवाद कहा गया है। ईश्वर ने उन्हें पीने के लिए अमृत का भरा प्याला दिया और धर्मोपदेश देने का जिम्मा सौंपते हुए कहा नानक, मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारे जरिए मेरा नाम बढ़ेगा। जो भी तुम्हारा अनुसरण करेगा, मैं उसकी रक्षा करूंगा। प्रार्थना करने के लिए दुनिया में जाओ और लोगों को प्रार्थना का ढंग सिखाओ। दुनिया के ढंग देखकर घबराना नहीं। अपने जीवन को नाम की स्तुति में, दान, स्नान, सेवा और सिमरन में समर्पित कर दो। नानक, मैं तुम्हें अपना वायदा देता हूं। इसे अपने जीवन का लक्ष्य बन जाने दो।

रहस्यमय वाणी ने फिर कहा नानक, जिसे तुम आशीष दोगे, वह मेरे द्वारा आशीषा जाएगा, जिस पर तुम अनुग्रह करोगे, वह मेरा अनुग्रह प्राप्त करेगा। मैं परमात्मा हूं, परम- सर्जक। तुम गुरु हो, परमात्मा के परम गुरु। कहते हैं नानक को ईश्वर ने अपने हाथों से दिव्य सिरोपा दिया। नानक तीन दिन और तीन रातों तक गुम रहे और यह समझ लिया गया था कि वे नदी में डूब गए। वे चौथे दिन पुन: प्रकट हुए। जन्मसाखी में इस नाटकीय वापसी का वर्णन इस प्रकार है लोग बोले, मित्रों, ये नदी में खो गए थे, कहां से पुन: प्रकट हुए हैं? नानक घर लौटे और जो भी उनके पास था, सब लोगों में बांट दिया। उनके तन पर केवल उनकी लंगोटी बची थी, बाकी कुछ नहीं। उनके गिर्द भीड़ जुटनी शुरू हो गई। खान भी आया और पूछने लगा, नानक, तुमको हुआ क्या है? नानक मूक बने रहे। जवाब लोगों ने दिया, यह नदी में रहा है और इसका दिमाग खराब हो गया है। खान बोला, मित्रो, यह तो बड़ी परेशानी की बात है, और दुखी होकर वापस चला गया।

नानक फकीरों के साथ जा मिले। उनके साथ भाट मरदाना भी गया। एक दिन बीत गया। अगले दिन वे उठे और बोले, कोई हिंदू नहीं है, न ही कोई मुसलमान। इसके बाद तो जब भी बोलते, यही करते, कोई न हिंदू है, न ही कोई मुसलमान है। यह घटना संभवत: सन् 1499 में घटी, जब नानक अपनी उम्र के तीसवें वर्ष में थे। यह उनके जीवन के प्रथम अध्याय को चिह्न्ति करता है-सच की खोज हो चुकी थी, वे दुनिया को इसकी घोषणा करने के लिए तैयार हो चुके थे।

अन्याय के खिलाफ लडऩा भी धर्म है....
मुगल शासनकाल में लोगों को कई तरह के कष्ट देकर परेशान किया जा रहा था। उस समय धर्म-परिवर्तन के लिए सनातन धर्मियों पर अत्याचार चरम सीमा पर पहुंच गए थे। ऐसे समय में साहस और एकता के प्रतीक गुरुनानक ने लोगों का मनोबल बढ़ाया। उन्होंने अन्याय का डटकर विरोध ही नहीं किया बल्कि आक्रमणकारियों और शासकों की निंदा भी की। इसी विरोध के कारण बाबर ने उन्हें बंदी बनाया लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे। राम नाम का जप करना और लोगों को सही रास्ता दिखाना ही उनके जीवन का उद्देश्य था।

राम सुमिर, राम सुमिर .........
गुरु नानकदेव का उपदेश इसी बात पर केंद्रित है कि मानव जीवन परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है। यह संसार, मान-सम्मान और प्रतिष्ठा सब झूठे हैं। मतलब यह कि इन सांसारिक उपलब्धियों से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। ये सब चीजें तो मौत छीन लेगी। इसीलिए वे गाते थे- राम सुमिर, राम सुमिर, एही तरो काज है॥ माया कौ संग त्याग, हरिजूकी सरन लाग।

और गुरु अर्जुनदेव का दुश्मन हो गया जहांगीर
मुगलकाल का सबसे अच्छा बादशाह अकबर जिसे भारतीयों ने बहुत सम्मान दिया। अकबर बहुत रहम दिल और धर्म के मार्ग पर चलने वाला बादशाह था परंतु उसी का पुत्र जहांगीर अपने पिता से पूरी तरह विपरित स्वभाव वाला था। इसी वजह से बादशाह अकबर और गुरु अर्जुनदेवजी के बहुत अच्छे संबंध होने के बाद भी जहांगीर गुरुदेव को शत्रु मानता था।

बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी जहांगीर बादशाह की गद्दी पर बैठा। जहांगीर कट्टर पंथी था और अपने धर्म के अतिरिक्त किसी और धर्म को बिल्कुल सम्मान नहीं देता था। इसी के चलते गुरु अर्जुनदेव को अपना शत्रु समझने वाले लोगों ने बादशाह जहांगीर को उनके खिलाफ भड़काने का कार्य शुरू कर दिया। भड़काने वाले लोगों में गुरुजी के बड़े भाई पृथीचंद भी शामिल थे। जहांगीर अब अर्जुनदेवजी के खिलाफ पूरी तरह भड़क चुका था। जहांगीर की तुजुक जहांगीरी में इस बात की पुष्टि होती है कि गुरुदेव के खिलाफ उसमें कितना क्रोध भरा था। सिक्ख धर्म की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता से जहांगीर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और उसने गुरुदेव को लाहौर बुलवा लिया।

गुरुदेव समझ गए थे कि अब जहांगीर कुछ भी कर सकता है फिर भी वे लाहौर पहुंच गए। जहांगीर लाहौर से कहीं और निकल गया था परंतु जाते-जाते चंदूशाह को हुक्म दिया कि गुरु अर्जुनदेव को मार दिया जाए। चंदूशाह भी गुरुदेव से बहुत नफरत करता था इसी वजह से उसने गुरुजी को कई यातनाएं दी। इन कष्टों के झेलने पर भी गुरुदेव ने किसी से कोई शिकायत नहीं की और फिर संवत १६६३ में ज्येष्ठ सुदी के दूसरे दिन धर्म और इंसानियत की रक्षा करते-करते देह त्याग दी।

शांत और गंभीर थे गुरु अर्जुनदेवजी
ब्रह्मज्ञानी, परम विद्वान, शहीदों के सरताज गुरु अर्जुनदेवजी का जन्म गोइंदवाल साहिब में 15 अप्रैल 1563 को हुआ। उनके पिता का नाम गुरु रामदास एवं माता का नाम बीवी भानीजी था। गुरु अर्जुनदेवजी का विवाह 1579 ईस्वी में हुआ। उनके पुत्र का नाम हरगोविंदसिंह था।

वैसे तो गुरुदेव का पूरा जीवन ही लोगों की भलाई करने में व्यतीत हुआ परंतु इसके अलावा भी उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जो आज भी एक मिसाल है। उन्होंने ग्रंथ साहिब का संकलन किया। ग्रंथ साहिब पढ़कर बादशाह अकबर बहुत प्रसन्न हुआ था।

गुरुदेव शांत स्वभाव और गंभीर व्यक्तित्व वाले थे। मानव कल्याण उनके जीवन का ध्येय था। वे हमेशा प्राणियों की सेवा करना और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा सभी को दिया करते थे। उनकी वजह से सिक्ख धर्म बहुत लोकप्रिय हुआ जिसे देखकर बादशाह जहांगीर उनसे ईष्र्या करने लगा। जहांगीर की ईष्र्या इतनी बढ़ गई कि उसने गुरुदेव को मारने का षडय़ंत्र रच डाला और गुरुजी को कई यातनाएं दी। गुरुदेव उन यातयाओं को झेलते रहे परंतु किसी से कोई बैर भाव मन में नहीं लाए और देह त्याग दी।

गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। सिक्ख धर्म को मानने वाले लोग रोज सुखमनी साहिब का पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। सुखमनी साहिब चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी और सूत्रात्मक शैली की रचना है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दु:ख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुड़ी गुरु अर्जुनदेवजी यह रचना पूजनीय है।

सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुनदेवजी
सिक्ख धर्म के पांचवें गुरु हुए श्री अर्जुनदेवजी। जिन्होंने सिक्ख धर्म को एक नए शिखर तक पहुंचाया। सिक्ख धर्म की आस्था, श्रद्धा और भक्ति का केंद्र पवित्र श्रीगुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया, स्वर्ण मंदिर की नींव रखी और सभी सिक्खों से अपनी कमाई का दसवां हिस्सा निकाल कर धर्म के नाम लगाने की बात कही। इन्हीं कार्यों की वजह से सिक्ख धर्म के इतिहास में गुरु अर्जुन देवजी का स्थान सबसे अलग और सबसे खास है। सिक्खों के प्रति समर्पण की वजह से ही इन्हें पांचवें नानक के रूप में देखा जाता है।

कौन हैं सिक्ख धर्म के पंच प्यारे...?
मुगल शासनकाल में जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय गुरु गोविंद सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में सिक्ख समुदाय को आमंत्रित किया। मैदान में बड़ा सा पंडाल लगाया गया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। जब मैदान में बड़ी संख्या में सिक्ख समाज एकत्रित हो गया तब गुरु गोविंदसिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी।

गोविंदसिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी सिक्ख हतप्रभ रह गए। परंतु उस भीड़ से लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया।

गुरु गोविंदसिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार सहारनपुर के जटवाडा गांव का युवक धर्मदास खड़ा हुआ। गुरुदेव उसे भी तम्बू में ले गए। फिर थोड़ी देर खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोविंदसिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय खड़े हो गए।

गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तंबू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव फिर बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका निवासी मोहकम चंद सामने आ गए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तंबू से गुरु गोविंदसिंह केसरिया बाना पहने पांच सिक्ख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोविंदसिंह तंबू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का जन्म हुआ है।

मानवता के पक्षधर थे गुरु गोविंद सिंह
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह जी का मूल नाम गोविंद राय था। गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। इसी दौरान गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गुजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को बाला प्रीतम कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर गोविंद कहते थे। बार-बार गोविंद कहने से बाला प्रीतम का नाम गोविंद राय पड़ गया।

गुरु गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह अनेक भाषाओं जैसे फारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को मजबूत किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखा। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। खिलौनों से खेलने की उम्र में गुरु गोविंद सिंह कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे।

9 वर्ष की उम्र में गुरु बने गोविंद सिंह
जब औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का कत्ल करवा दिया तो उनकी शहादत के बाद उनकी गद्दी पर गुरु गोविंद सिंह को बैठाया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी। गुरु की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गुरु गोविंद सिंह ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।

पंच प्यारे भी गुरु गोविंद सिंह की ही देन है। केशगढ़साहिब में आयोजित सभा में गुरु गोविंद सिंह ने ही पहली बार पंच प्यारों को अमृत छकाया था।इस घटना को देश के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि उस समय देश में धर्म, जाति जैसी चीजों का बहुत ज्यादा बोलबाला था। इस सभा में मौजूद सभी लोगों ने न सिर्फ सिख धर्म को अपनाया, बल्कि सभी ने अपने नाम के आगे सिंह भी लगाया। गुरु गोविंद सिंह भी पहले गोविंद राय थे। इस सभा के बाद ही वे गुरु गोविंद सिंह कहलाए। तभी से यह दिन खालसा पंथ की स्थापना के उपलक्ष्य में बैसाखी के तौर पर मनाया जाता है।

गुरु गोविंद सिंह की देन है पंच प्यारे
गुरु तेग बहादुर सिंह जी की हत्या के बाद उनके बेटे गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरु कहलाए। इन्होंने लोगों में बलिदान देने और संघर्ष की भावना बढ़ाने के लिए 3 मार्च, 1699 को वैशाख के दिन केशगढ़ साहिब के पास आनंदपुर में एक सभा बुलाई। इस सभा में हजारों लोग इकट्ठा हुए। गुरु गोविंद सिंह ने यहां पर लोगों के मन में साहस पैदा करने के लिए लोगों से जोश और हिम्मत की बातें कीं। उन्होंने लोगों से कहा कि जो लोग इस कार्य के लिए अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार हैं, वे ही आगे आएं।

इस सभा में गुरु गोविंद जी अपने हाथ में एक तलवार लेकर आए थे। उनके बार-बार आह्वान करने पर भीड़ में से एक जवान लड़का बाहर आया। गुरु जी उसे अपने साथ तंबू के अंदर ले गए और खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए। उन्होंने लोगों से कहा कि जो बलिदान के लिए तैयार है, वह आगे आए। एक लड़का फिर आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अंदर ले गए और खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए। उन्होंने ऐसा पांच बार किया।
आखिर में वे उन पांचों को लेकर बाहर आए। उन्होंने सफेद पगड़ी और केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए थे। यही पांच युवक उस दिन से पंच प्यारे कहलाए। इन पंच प्यारों को गुरु जी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में मौजूद हर धर्म के अनुयायी ने अमृत चखा और खालसा पंथ का सदस्य बन गया।

सिख धर्म का चमत्कारिक सबद
इस भागदोड़ भरी जिंदगी में इंसान एक धर्म को ही ठीक प्रकार से नहीं जान पाता है। जबकि हर धर्म में ऐसी कई बातें हैं जो हमारे लिये बडी़ मददगार शाबित हो सकती हैं। कोई पूजा-अनुष्ठान, मंत्र-तंत्र या टोने-टोटके ऐसे होते हैं जो कठिन से कठिन समस्या को आश्चर्यजनक रूप से बहुत सीघ्र ही दूर कर देते हैं। सिक्ख धर्म में सबद के रूप में कुछ ऐसे मंत्र हैं जिनका नियम पूर्वक जप करने से वर्षों पुरानी बीमारी भी हमैशा के लिये दूर हो जाती है। किसी भी प्रकार के रोग को दूर करने के लिए निम्नलिखित सबद का 41 दिन तक नित्य 108 बार जप करना चाहिए:-

सेवी सतिगुरु आपणा हरि सिमरी दिन सभी रैणि।
आपु तिआगि सरणि पवां मुखि बोली मिठड़े वैण।
जनम जनम का विछुडि़आ हरि मेलहु सजणु सैण।
जो जीअ हरि ते विछुड़े से सुखि न वसनि भैण।
हरि पिर बिनु चैन न पाईए खोजि डिठे सभि गैण।
आप कामणै विछुडी दोसु न काहू देण।
करि किरपा प्रभ राखि लेहु होरू नाही करण करेण।
हरि तुध विणु खाकू रूलणा कहीए किथै वैण।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Jainism( जैन धर्म)

ऐसे जन्मा जैन धर्म
जैन शब्द का अर्थजैन शब्द 'जिन' से बना है। जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं (भोग प्रवृत्तियों) पर विजय प्राप्त कर ली है। अर्थात् जिसने अपने मन को जीत लिया हो तथा सांसारिक इच्छाओं पर नियंत्रण कर लिया हो। तीर्थंकर इन्हीं गुणों से पूर्ण थे, अत: इनके द्वारा चलाया गया धर्म जैन धर्म कहलाया।

जैन धर्म का प्रारंभ एवं इतिहास जैन धर्म के अनुयायियों (मानने वाले) की मान्यता है कि उनका धर्म अनादि (अनंत समय पहले का) और सनातन है। सामान्यत: लोगों में यह मान्यता है कि जैन पंथ का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखें तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुंचती है। महाभारत के युद्ध के समय, इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे, जो जैन धर्म में एक तीर्थंकर हैं। ई.पू. आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। जैन धर्म में श्रमण- संप्रदाय का पहला संगठन पाश्र्वनाथ ने किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएं बना ली। भगवान महावीरजैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर वर्धमान हुए, जिनका जन्म ई.पू. 599 में हुआ था। 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया।

महावीर स्वामी ने शरीर छोडऩे से पूर्व जैन धर्म की नींव काफी मजबूत कर दी थी। अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे जिन (जयी) कहलाये। उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम जैन हो गया। अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय, मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहनाकर रखी जाए या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन-मतावलंबी (जैन धर्म को मानने वाले) मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल श्वेतांबर कहलाया जिसके साधू सफेद वस्त्र (कपड़े) पहनते थे, और दूसरा दल दिगंबर कहलाया जिसके साधु नग्न (बिना कपड़े के) ही रहते थे।

जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ईसा की पहली शताब्दीं में क लिंग के राजा खारावेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर जैन धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे। पांचवीं से बारहवीं शताब्दीं तक दक्षिण के गंग, कदम्बु, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार -प्रसार में बहुत सहयोग एवं सहायता प्रदान की। इन राजाओं के यहां अनेक जैन कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त होती थी। ग्याहरवीं सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म बना दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। हिंदी के प्रचलन से पूर्व अपभ्रंश भाषा का प्रयोग होता था। अपभ्रंश भाषा के कवि, लेखक एवं विद्वान हेमचंद्र इसी समय के थे। हेमचंद्र कुमार पाल के दरबार में ही थे। सामान्यत: जैन मतावलंबी शांतिप्रिय स्वभाव के होते थे। इसी कारण मुगल शासन काल में इन पर अधिक अत्याचार नहीं होते थे। उस समय के साहित्य एवं अन्य विवरणों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार अकबर ने जैन अनुयाइयों की थोड़ी बहुत मदद भी की थी। मगर धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे। जैन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है। भारत के अतिरिक्त पूर्वी अफ्रीका में भी जैन धर्म के अनुयायी रहते हैं।

यह सिखाता है जैन धर्म
जैन धर्म का सारमनुष्य को सदैव सत्कर्म करना चाहिए। जीवन का हर क्षण आत्मज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति में लगाना चाहिए। सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, करुणा, परोपकार, एवं सेवा जैसे उच्च सात्विक गुणों को अवश्य ही जीवन में अपनाना चाहिए। भोग-विलास से दूर रहकर प्रत्येक कर्म पवित्र एवं सात्विक ही करना चाहिए। नैतिक जीवन अपनाकर ही मनुष्य इस माया (जन्म-मरण का चक्र) के बंधन से मुक्त हो सकता है।

जैन धर्म की प्रमुख मान्यताएं एवं सिद्धांतजैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलत: नैतिक मूल्यों पर आधारित है। इन उपदेशों में अधिकतर पाश्र्वनाथ और महावीर की शिक्षाएं हैं। पाश्र्वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत है- 1. अङ्क्षहसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय और 4. अपरिग्रह। चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर इन महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा। इस प्रकार जैन धर्म के पांच महाव्रत हो गए हैं। जैन धर्म में भिक्षुओं के लिए इन पांच महाव्रतों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। अहिंसावास्तव में जैन धर्म का मूल आधार अहिंसा ही है। मन वचन और कर्म से किसी को दु:ख या कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है। जीवधारियों को इंद्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिनकी इंद्रियां जितनी कम विकसित हैं, उनको शरीर त्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एक इंद्रिय जीवों जैसे: वनस्पति, कंद, फूल-फल आदि को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं। जैन धर्म में आचार-विचार का बड़ा ध्यान रखा जाता है। छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है।

जैन धर्म की मान्यताएं जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार विश्व सदैव से है, सदैव रहा है और सदैव बना रहेगा। जैन धर्म के अनुसार यह विश्व दो अंतिम, सनातन और स्वतंत्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं- 1. जीव और 2. अजीव। इन पदार्थों में एक जड़ है और दूसरा चेतन। जैन धर्म में अजीव के पांच प्रकार बताए गए हैं।

1. पुद्गल (प्रकृति)
2. धर्म (गति)
3. अधर्म (अगति अथवा लय)
4. आकाश (देश)
5. काल (समय)

जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार संपूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने हैं। उनमें संबंध जोडऩे वाली कड़ी कर्म है। कर्म सिद्धांतकर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हैं। कर्म के फल से जुड़े होने के कारण ही आत्मा को अनेक शरीर धारण करने पड़ते हैं, और इसी कारण आत्मा जन्म-मरण के बंधन में फंस जाता है। जैन धर्म में पाश्र्वनाथ के उपदेश को चातुर्याम सम्वर-संवाद कहते थे। ये चातुर्याम संवाद थे।

1. हिंसा का त्याग
2. असत्य का त्याग
3. स्तेय का त्याग
4. परिग्रह का त्याग।

महत्वपूर्ण बात यह है कि पाश्र्वनाथ के पूर्व, अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किंतु पाश्र्वनाथ मुनि ने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के साथ जोड़कर सभी के लिए व्यवहारिक बना दिया।

जैन धर्म का दर्शन एवं स्वरूप
जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को प्रकृति के मिश्रण से मुक्त कर उसको कै वल्य (पूर्णत: मुक्त एवं पवित्र) की स्थिति में पहुंचाना। इस कैवल्य की अवस्था में कर्म के बंधन टूट जाते हैं और आत्मा अपने को प्रकृति के बंधनों से मुक्त करने में समर्थ हो जाता है। इसी अवस्था को मोक्ष भी कहा जाता है। मोक्ष की इस अवस्था में समस्त दु:ख, भय, अभाव एवं कष्ट समाप्त हो जाते हैं और आत्मा स्थायी और अटूट परमानंद की अवस्था में पहुंच जाता है। मोक्ष के संबंध में जैन धर्म की यह मान्यता वैदिक मान्यता से भिन्न है। वेदांत के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा का ब्रह्म के साथ पूर्णत: मिलन हो जाता है और आत्मा का पृथक कोई अस्तित्व नहीं बचता।

जबकि जैन धर्म एवं दर्शन के अनुसार कै वल्य या मोक्ष की अवस्था में भी आत्मा का अपना निजी अस्तित्व एवं स्वरूप बना रहता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वभावत: निर्मल और प्रज्ञ है। प्रकृति के संपर्क के कारण ही आत्मा अज्ञानता, माया और कर्म के बंधन में पड़ जाता है। कैवल्य ज्ञानकैवल्य की प्राप्ति के लिए केवल ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इसके उपाय हैं- 1. सम्यक् दर्शन (तीर्थंकरों में पूर्ण श्रद्धा), 2. सम्यक् चारित्र्य (पूर्ण नैतिक आचरण और सम्यक् ज्ञान (शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान): जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा ही आत्म कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है। जैन धर्म एवं दर्शन ने भारतीय धर्म एवं दर्शन को भी कई प्रकार से प्रभावित किया। आचार-शास्त्र में नैतिक आचरण, विशेषकर अहिंसा को इससे नया बल मिला। जैन-दर्शन 'आस्रव के सिद्धांत में विश्वास करता है, जिसका अर्थ यह है कि कर्म के संस्कार, क्षण-क्षण प्रवाहित हो रहा है। कर्म के इन संस्कारों का प्रभाव जीव पर क्षण-क्षण पड़ता जा रहा है। संस्कारों के इस प्रभाव से बचने का यही उपाय है कि मनुष्य चित्त-तृत्तियों का निरोध (रोकथाम) करें, मन को विवेक के द्वारा काबू में लाए। योन की समाधि का अवलंबन और तपश्चर्या में लीन रहना भी जैन दर्शन की मान्यता है।

आत्म ज्ञान प्राप्ति का मार्ग कैवल्य प्राप्ति की साधना के लिए जैन धर्म एवं दर्शन में, सात सोपानों (सीढिय़ों) का उल्लेख किया गया है। ये सात सोपान ही जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामक सात तत्व है। जीव आत्मा है। अजीव वह ठोस द्रव्य (शरीर) है, जिसमें आत्मा निवास करती है। जीवन और अजीव का मिलन ही संसार है। अतएव मोक्ष साधना का मार्ग यह है कि जीव (आत्मा) को अजीव (पदार्थ) से पृथक कर दिया जाए। आत्मा और परमात्मा के बीच की माया की दीवार को गिराकर की कै वल्य या मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। किंतु जीव-अजीव से बंधा कैसे है? इसका उत्तर 'आस्रव है। विभिन्न कर्मों के करने से जो संस्कार प्रकट होते हैं, उसी के कारण जीव अजीव से बंध जाता है। अतएव इस बंधन को नष्ट करने का उपाय यह है कि जीव कर्मों से क्षरित (उत्पन्न) होने वाले संस्कारों से अलिप्त (पृथक) रहने का प्रयत्न करें। यह प्रक्रिया 'संवर कहलाती है। पर इनता प्रयास ही पर्याप्त नहीं है। आत्मा को तो पूर्व जन्मों के संस्कार भी घेरे रहते हैं, एवं प्रभावित करते हैं। इन पूर्व जन्मों के संस्कारों से मुक्त हाने या छूटने की साधना का नाम 'निर्जरा' है। जीवन रूपी नोका में छेद है। जिनसे उसमें पानी भरता जा रहा है। छेदों को बंद करना ही 'संवर' साधना है और जीवन रूपी नाव में पहले से ही जो पानी (पूर्व जन्मों के संस्कार) भरा हुआ है, उसे उलीचने का नाम निर्जरा है। संवर और निर्जरा के द्वारा जिसने अपने को 'आस्रवो' (संस्कारों) से मुक्त कर लिया वही मोक्ष का अधिकारी है।

मोक्ष की साधनाजैन दर्शनों में मोक्ष (कैवल्य) की साधना केवल सन्यासी ही कर सकते हैं। इन सन्यासियों को जैन धर्म में पांच कोटियों (श्रेणियों) में बांटा गया है। जिनका समन्वित नाम पंच परमेष्ठी है। ये पंच परमेष्ठी हैं: अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। साधुओं को उपदेश देने वाले उपाध्याय और आचार्य कहलाते हैं। सिद्ध वह है जिसने शरीर छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है और अर्हत् तीर्थंकरों को कहते हैं। अर्हत् तो चौबीस ही हुए हैं, किंतु सिद्ध कोई भी जीव हो सकता है, जिसकी सांसारिक विषय वासनाएं, भोग-विलास की लिप्साएं छूट गई हैं। जो सुख-दुख से ऊपर उठ गया, जिसकी इंद्रियां वशीभूत है वह सिद्ध है। सिद्ध की कोटि परमात्मा की कोटि है। वैदिक दर्शन एवं जैन दर्शन में यह भेद है कि वैदिक धर्म में परमात्मा का मात्र एक ही माना गया है, जबकि जैन धर्म के अनुसार जो भी व्यक्ति सिद्ध हो गया, वह स्वयं परमात्मा है।

जैन धर्म की प्रमुख शाखाएं

जैन धर्म की प्रमुख शाखाएंजैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएं हैं। पहली शाखा है दिगंबर और दूसरी शाखा श्वेतांबर कहलाती है। दिगंबर:'दिगंबर' का अर्थ है दिक् (दिशा) है अंबर (वस्त्र) जिसका अर्थ है नग्न। अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। दिगंबर स्वरूप के पीछे का दर्शन संपूर्ण त्याग है। संपूर्ण त्याग अर्थात् किसी भी प्रकार का संग्रह, यहां तक कि शरीर के वस्त्रों का भी त्याग। जैनियों की दिगंबर शाखा की मान्यता है कि स्त्रियों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णत: त्याग नहीं कर सकती। दिगंबरों के तीर्थंकरों की मूर्तियां पूर्णत: नग्न होती है। दिगंबर शाखा के अनुयायी श्वेतांबरों द्वारा मानित अंग साहित्य को भी प्रमाणिक नहीं मानते। श्वेतांबरश्वेतांबर का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसका। श्वेतांबर शाखा के अनुयायी वस्त्रों के पूर्ण त्याग अर्थात् नग्नता को अधिक महत्वपूर्ण नहीं मानते। श्वेतांबरों द्वारा स्थापित मूर्तियां नग्न नहीं होती बल्कि वे कच्छ धारण करती है। जैन धर्म में एक तीसरी उपशाखा सुधारवादी स्थानकवासियों की है, जो मूर्ति पूजा की विरोधी है। यह शाखा आदिम सरल स्वच्छ व्यवहार तथा सादगी की समर्थक है। इन्हीं की एक शाखा तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक है।

जैन धर्म में तीर्थंकर

जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने असंख्य जीवों को इस संसार से तार (उद्धार करना) दिया है। तीर्थ कहते हैं घाट को, किनारे को। धर्म तीर्थ को प्रवर्तन करने वाले 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। जो इस प्रकार है:

1. श्री ऋषभ देव
2. श्री अजितनाथ
3. श्री संभवनाथ
4. श्री अभिनंदन
5. श्री सुमतिनाथ
6. श्री पदमप्रभु
7. श्री सुपाश्र्वनाथ
8. श्री चंद्रप्रभ
9. श्री पुष्पदंत
10. श्री शीतलनाथ
11. श्री श्रेयांसनाथ
12. श्री वासुपूज्य
13. श्री विमलनाथ
14. श्री अनंतनाथ
15. श्री धर्मनाथ
16. श्री शांतिनाथ
17. श्री कुन्थुनाथ
18. श्री अरहनाथ
19. श्री मल्लीनाथ
20. श्री मुनि सुव्रत
21. श्री निमिनाथ
22. श्री अरिष्टनेमि
23. श्री पाश्र्वनाथ
24. श्री महावीर स्वामी

हमारे कर्मों का फल: सुख-दुख

मानवता की रक्षा के लिए भारतीय इतिहास में कई बार दिव्य शक्तियों का अवतरण हुआ है। समाज में जब-जब अधर्म, पाप, अनाचार, बुराइयां, कुरुतियों ने पैर पसारे हैं तब-तब इन दिव्य शक्तियों ने मानवता को इनसे बचाया है। करीब 600 ईसा पूर्व ऐसे ही एक समय आया जब चारो ओर पाप, अधर्म और बुराइयां व्याप्त हो गई। लोगों के मन से दया, करुणा की भावनाएं क्षीण होने लगी तभी जन्म हुआ भगवान महावीर का।

महावीर स्वामी का संक्षिप्त परिचयत्याग एवं तपस्या की मूर्ति महावीर का जन्म चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को वैशाली नगर (बिहार) के एक राज परिवार में हुआ। इनके पिता सिद्धार्थ एवं माता त्रिशाला थी। बालक का नाम रखा गया वद्र्धमान। ऐसा कहा जाता हैं कि जब वर्धमान के जन्म के समय उनकी माता त्रिशाला को 14 अद्भूत स्वप्न आए, जिससे माता को आभास हो गया था कि यह संतान कोई दिव्य शक्ति है।

वद्र्धमान का प्रारंभिक जीवन पूर्णतया राजसी था। फिर भी उनकी रूचि इन सुख-सुविधाओं में नहीं थी। उनका मन तो जीवन-मृत्यु क्यों, सुख-दुख क्यों जैसे रहस्यों की खोज में लगा रहता था। इसी अरूचि और जीवन के रहस्यों को खोजने के लिए वे 30 वर्ष की आयु में वन को प्रस्थान कर गए। वन में उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की। तब उन्हें केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और इसके बाद ही वद्र्धमान भगवान महावीर कहलाए। भगवान महावीर सत्य, अङ्क्षहसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य जैसे गुणों की साक्षात मूर्ति ही थे। महावीर स्वामी को जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर माना गया है। उन्होंने हिंसा, पशुबलि पर रोक लगवाई, जाति-पांति के भेदभाव को दूर किया। पावापुरी में कार्तिक मास की कृष्ण अमावस्या पर भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु निर्वाण प्राप्त किया।

महावीर स्वामी के लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र:
मानव जीवन को सरल और महान बनाने के लिए महावीर स्वामी ने कई अमूल्य शिक्षाएं दी हैं। जिनमें सत्य को अपनाना, अहिंसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य, अधर्म को त्यागना शामिल है। उन्होंने त्याग, संयम, प्रेम, करुणा, शील, सदाचार का पवित्र संदेश फैलाया। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। महावीर स्वामी की शिक्षाएं:

सत्य: सत्य ही सच्चा तत्व है। वह बुद्धिमान प्राणी है जो सत्य को अपनाता है। सत्य का साथ देने से ही मनुष्य मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।

अहिंसा: संसार में जो भी जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा नहीं और ऐसा होने से रोकना ही अहिंसा है। सभी प्राणियों पर दया का भाव रखना और उनकी रक्षा करना।

अपरिग्रह: जो मनुष्य सांसारिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता है और दूसरों को भी संग्रह की प्रेरणा देता है वह सदैव दुखों में फंसा रहता है। उसे कभी दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।

ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य ही तपस्या का सर्वोत्तम मार्ग है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करते हैं, स्त्रियों के वश में नहीं हैं उन्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य ही नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
संयम और विनय की जड़ है।

क्षमा: क्षमा के संबंध में महावीर कहते हैं 'संसार के सभी प्राणियों से मेरी मैत्री है वैर किसी से नहीं है। मैं हृदय से धर्म का आचरण करता हूं। मैं सभी प्राणियों से जाने-अनजाने में किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं और उसी तरह सभी जीवों से मेरे प्रति जो अपराध हो गए हैं उनके लिए मैं उन्हें क्षमा प्रदान करता हूं।

अस्तेय: जो पराई वस्तुओं पर बुरी नजर रखता हैं वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। अत: दूसरों की वस्तुओं पर नजर नहीं रखनी चाहिए।

दया: जिसके हृदय में दया नहीं उसे मनुष्य का जीवन व्यर्थ हैं। हमें सभी प्राणियों के दयाभाव रखना चाहिए। आप अहिंसा का पालन करना चाहते हैं तो आपके मन में दया होनी चाहिए।

छुआछूत: सभी मनुष्य एक समान है। कोई बड़ा-छोटा और छूत-अछूत नहीं हैं। सभी के अंदर एक ही परमात्मा निवास करता है। सभी आत्मा एक सी ही है।

हिताहार और मिताहार: खाना स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। खाना उतना ही खाए जितना जीवित रहने के लिए पर्याप्त हो। खान-पान में अनियमितता हमारे स्वास्थ्य के खिलवाड़ है जिससे हम रोगी हो सकते हैं।

कर्म की महिमा और सुख-दुख
पुरानी सर्वविदित कहावत है जैसी करनी, वैसी भरनी। वही बात भगवान महावीर ने कही है। कोई बहुत कम मेहनत पर भी अत्यधिक सफलता प्राप्त करता है तो कोई काफी मेहनत करने के बाद भी असफलता ही पाता है। भारतीय संस्कृति में यह सभी पूर्व में किए गए कर्मों पर ही आधारित हैं। भगवान महावीर ने मनुष्य के जीवन में सुख-दुख क्यों? इस रहस्य की खोज की और तप के बल पर उन्हें यह ज्ञान हुआ कि हम खुद ही सुख और दुख का कारण है। अन्य कोई हमें सुखी या दुखी कर ही नहीं सकता। फिर भी कोई हमारा बुरा कर रहा है, वे उस व्यक्ति के बुरे कर्म हैं। परंतु उसकी सफलता हमारे बुरे कर्मों का फल ही है।

कौन हैं भगवान ऋषभदेव ?
जैन धर्म का जन्म भारत में और विस्तार पूरी दुनिया में हुआ। वृषभनाथ को ही जैन ऋ षभदेव कहते हैं। इन्हीं से जैन धर्म या श्रमण परम्परा का प्रारम्भ माना जाता है। यह जैनियों के प्रथम तीर्थंकर हैं। इनसे पूर्व जो मनु हुए हैं वही जैनियों के कुलकर हैं। कुलकरों की क्रमश: 'कुल' परम्परा के सातवें कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋ षभ देव का जन्म चैत्र कृष्ण-9 को अयोध्या में हुआ। ऋ षभदेव स्वयंभू मनु से पाँचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फि र ऋषभ। कुलकर नाभिराज से ही इक्क्षवाकू कुल की शुरुआत मानी जाती है। जब ऋषभदेव मां के गर्भ में थे तब उनकी मां ने चौदह (या सौलह) शुभ चीजों का सपना देखा था। उन्होंने देखा कि एक सुंदर सफेद बैल उनके मुँह में प्रवेश कर गया है।

एक विशालकाय हाथी जिसके चार दाँत हैं,एक शेर,कमल पर बैठीं देवी लक्ष्मी,फूलों की माला,पूर्णिमा का चाँद,सुनहरा कलश,कमल के फूलों से भरा तालाब,दूध का समुद्र,देवताओं का अंतरिक्ष यान,जवाहरात का ढेर,धुआं रहित आग,लहराता झंडा और सूर्य। इस स्वप्र के बारे में जब विद्वान ज्योतिषियों और तत्वज्ञानियों को पता चला तो उन्होंने इनके विश्वविख्यात होने की घोषणा की।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Islam Religion (इस्लाम धर्म)

इस्लाम धर्म का जन्म
इस्लाम का अर्थइस्लाम अरबी शब्द है जिसकी धातु सिल्म है। सिल्म का अर्थ सुख, शांति, एवं समृद्धि है। कुरान के अनुसार जो सुख, संपदा और संकट में समान रहते हैं, क्रोध को पी जाते हैं और जिनमें क्षमा करने की ताकत हैं, जो उपकारी है, अल्लाह उन पर रहमत रखता है।शब्दकोश में दिए अर्थ के अनुसार इस्लाम का अर्थ है - अल्लाह के सामने सिर झुकाना, मुसलमानों का धर्म। इस्लाम को अरबी में हुक्म मानना, झुक जाना, आत्म समर्पण, त्याग, एक ईश्वर को मानने वाले और आज्ञा का पालन करने वाला कहा है। इस प्रकार संक्षिप्त में हम कह सकते हैं कि विनम्रता और पवित्र ग्रंथ कुरान में आस्था ही इस्लाम की पहचान है। वास्तव में इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ है 'शांति में प्रवेश करना होता है। अत: सच्चा मुस्लिम व्यक्ति वह है जो 'परमात्मा और मनुष्य के साथ पूर्ण शांति का संबंध रखता हो। अत: इस्लाम शब्द का लाक्षणिक अर्थ होगा वह धर्म जिसके द्वारा मनुष्य भगवान की शरण लेता है तथा मनुष्यों के प्रति अङ्क्षहसा एवं प्रेम का बर्ताव करता है।

इस्लाम धर्म का उद्भव और विकासइस्लाम धर्म के प्रर्वतक हजरत मुहम्मद साहब थे। इनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सन् 570 ई. में हुआ था। जब हजरत मुहम्मद अरब में इस्लाम का प्रचार कर रहे थे उन दिनों भारत में हर्षवर्धन और पुलकेशी का राज्य था। इस्लाम धर्म के मूल ग्रंथ कुरान, सुन्नत और हदीस हैं। कुरान उस पुस्तक का नाम है जिसमें मुहम्मद के पास ईश्वर के द्वारा भेजे गए संदेश एकत्रित हैं। सुन्नत वह ग्रंथ (पुस्तक) है जिसमें मुहम्मद साहब के कर्मों का उल्लेख है और हदीस वह किताब है जिसमें उनके उपदेशों का संकलन(एकत्रित) हैं।

संस्थापक मुहम्मद साहबमुहम्मद साहब ने इस्लाम धर्म की स्थापना किसी योजना के तहत नहीं की बल्कि इस धर्म का उन्हें इलहाम (ध्यान समाधि की अवस्था में प्राप्त हुआ) हुआ था। कुरान में उन बातों का संकलन है जो मुहम्मद साहब के मुखों से उस समय निकले जब वे अल्लाह के संपर्क में थे। यह भी मान्यता है कि भगवान कुरान की आयतों को देवदूतों के माध्यम से मुहम्मद साहब के पास भेजते थे। इन्हीं आयतों के संकलन से कुरान तैयार हुई है।

मुहम्मद साहब का आध्यात्मिक जीवनजब से मुहम्मद साहब को धर्म का इलहाम हुआ तभी से लोग उन्हें पैगम्बर, नबी और रसूल कहने लगे। पैगम्बर कहते हैं पैगाम (संदेश) ले जाने वाले को। हजरत मुहम्मद के जरिए भगवान का संदेश पृथ्वी पर पहुंचा। इसलिए वे पैगम्बर कहे जाते हैं। नबी का अर्थ है किसी उपयोगी परम ज्ञान की घोषणा को। मुहम्मद साहब ने चूंकि ऐसी घोषणा की इसलिए वे नबी हुए। तब से नबी का अर्थ वह दूत भी गया जो परमेश्वर और समझदार प्राणी के बीच आता जाता है। मुहम्मद साहब रसूल हैं, क्योंकि परमात्मा और मनुष्यों के बीच उन्होंने धर्मदूत का काम किया।

इस्लाम का मूल मंत्र'ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह यह इस्लाम का मूल है। जिसका अर्थ है-''अल्लाह के सिवा और कोई पूज्यनीय नहीं है तथा मुहम्मद उसके रसूल है। ऐसी मान्यता हैं, कि केवल अल्लाह को मनाने से कोई आदमी पक्का मुसलमान नहीं हो जाता, उसे यह भी मानना पड़ता है कि मुहम्मद अल्लाह के नबी, रसूल और पैगम्बर हैं।

इस्लाम धर्म के उपदेश
१ अल्लाह है और वह एक है, सबसे बड़ा है।
२ अल्लाह ने मनुष्यों के मार्गदर्शन को नबी भेजें।
३ मोहम्मद साहब आखिरी रसूल हैं।
४ आखरियत सत्य हैं।
५ एक दिन दुनिया मिट जाएगी। फिर खुदा दूसरी दुनिया बनाएगा। जीवन दान देगा।
६ खुदा बंदे के अच्छे बुरे कामों का बदला देगा।
७ धर्म के पाबंद लोग ही जन्नत जाएंगे।
८ धर्म न मानने वाले काफिर जहन्नुम में जाएंगे।
९ नमाज पढऩा व रोजा रखना फर्ज है।
१० कुरान की बात मानना हर मुसलमान का फर्ज है। यह खुदा की किताब है।
११ किसी पर बुरी नजर न रखो, किसी पर जुल्म मत करो, बदचलनी से बचो।
१२ जकात व कुर्बानी मानना हर मुस्लिम का फर्ज है।
१३ अन्याय के शिकार व्यक्ति की आह को अल्लाह कभी भी अनसुना नहीं करता।
१४ ईश्वर की दया काफिर व मोमिन दोनों को समान रूप।

जन्नत का रास्ताइस्लाम धर्म के अनुसार हदीस कहती है कि बंदे तू मुझे छह बातों का विश्वास दिला, मैं तुझे जन्नत बख्श दुंगा। ये छ: बातें हैं:
1. सच बोलो
2. अपना वायदा पूरा करो
3. बदचलनी से बचो
4. अमानत में पूरे उतरो
5. किसी पर बुरी नजर मत डालो
6. किसी पर जुल्म न करोइन छह बातों के अतिरिक्त हदीस का यह भी कहना है कि जिसके पड़ौसी दु:खी हो वह सच्चा मुसलमान नहीं। जो स्वार्थी है, ईश्वर को नहीं मानता, वो मुसलमान नहीं।

इस्लाम धर्म की मान्यताएं एवं परंपराएं
कुरान ही इस्लाम धर्म का प्रमुख ग्रंथ है। कुरान में मुसलमानों के लिए कुछ नियम एवं तौर-तरीके बताए गए हैं। जिनका पालन करना सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य बताया गया है। कुरान हर मुसलमान के लिए पांच धार्मिक कार्य निर्धारित करता है। वे कृत्य हैं :-

१. कलमा पढऩा- कलमा पढऩे का मतलब यह है कि हर मुसलमान को इस आयत को पढऩा चाहिए। अल्लाह एक है और मुहम्मद उसके रसूल है। 'ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह इस्लाम का ऐकेश्वरवाद (तोहीद) इसी मंत्र पर आधारित है।
२. नमाज पढऩा- हर मुसलमान के लिए यह नियम है कि वह प्रतिदिन दिन में पांच बार नमाज पढ़े। इसे सलात भी कहा जाता है।
३. रोजा रखना- अर्थात् रमजान के पूरे महीनेभर केवल सूर्यास्त के बाद भोजन करना। वर्षभर में रमजान महीना इसलिए चुना गया कि इसी महीने में पहले-पहल कुरान उतारा था।
४. जकात- इस्लाम धर्म में जकात का बड़ा महत्व है। अरबी भाषा में जकात का अर्थ है- पाक होना, बढऩा, विकसित होना। अपनी वार्षिक आय का चालीसवां हिस्सा (ढाई प्रतिशत) दान में देना।
५. हज- अर्थात् तीर्थों में जाना। इस्लाम धर्म में पहले ये तीर्थ केवल मक्का और मदीने में थे। अब संतों फकीरों की समाधियों को भी मुस्लिम तीर्थ मानते हैं।

इस्लाम के रीति-रिवाज
१. जन्नत- इस्लाम धर्म जन्नत पर यकीन करने वाला धर्म है। जन्नत स्वर्ग को कहते हैं। जहां पर अल्लाह को मानने वाले, सच बोलने वाले, ईमान रखने वाले (ईमानदार) मुसलमान रहेंगे।

२. जिहाद- इस्लाम धर्म में जिहाद से बड़ा महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जिहाद का वास्तविक मतलब है किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी जान की पूरी ताकत लगा देने वाला। जिहाद केवल लडऩा या युद्ध करना नहीं है। जिहाद का वास्तविक तात्पर्य यह है कि हर इंसान, हर घड़ी अपने उद्देश्य की प्राप्ति में पूरे दिलो-दिमाग से लगा रहे। अपनी समस्त क्षमता धन, यश, बुद्धि, वाणी व लेखनी से लगातार अपनी मंजिल को पाने की कोशिश करता रहे, अपने लक्ष्य और उद्देश्य के लिए ही पूरी तरह समर्पित हो जाए। लक्ष्य प्राप्ति तक बिना रुके जुटा रहे यही जिहाद है।

३. कुर्बानी- इस्लाम धर्म में कुर्बानी की बड़ी मान्यता है। मुस्लिम मत के अनुसार हजरत इब्राहिम की यादगार को कुर्बानी कहते हैं। हजरत इब्राहिम ने अपने बेटे इस्माइल को अल्लाह की प्रसन्नता के लिए कुर्बान करना चाहा। अल्लाह ने हजरत इब्राहीम की ये भेंट दूसरे रूप में स्वीकार की। अल्लाह ने हजरत इब्राहीम को पवित्र काबा में नियुक्त कर दिया। तब से अपनी जान के बदले जानवर की कुर्बानी करने की प्रथा बन गई।

४. आखरियत- इस्लाम धर्म में आखरियत को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। आखरियत का आशय परलोकगामी है और परलौकिक जीवन भी है। ये बात इस्लाम की मौलिक शिक्षाओं में शामिल है। इस्लाम धर्म की मान्यता है कि वर्तमान जीवन अत्यंत सीमित एवं छोटा है।एक समय आएगा जब विश्व की व्यवस्था बिगड़ जाएगी और ईश्वर नए विश्व का निर्माण करेगा जिसके नियम कायदे वर्तमान विश्व से भिन्न होंगे। जो कि वर्तमान में अप्रत्यक्ष है।

ईमान और कुफ्रइस्लाम के समग्र सिद्धांत दो भागों में बांटे जा सकते हैं। एक का नाम 'उसूल' और दूसरे का नाम 'फरु' है। कुरान सिर्फ ईमान और अमल, इन दो शब्दों को उल्लेख करता है। अब ईमान का पर्याय उसूल और अमल का फरु है। उसूल वे धार्मिक सिद्धांत है जिन्हें नबी ने बताया है। फरु उन सिद्धांतों के अनुसार आचरण करने को कहते हैं। अतएव मुहम्मद साहब के उपदेश उसूल अथवा मूल हैं और उन पर अमल करने का नाम 'फरु' अथवा शाखा है।इस्लाम धर्म की मान्यता है कि अल्लाह ही अपने में सभी को समेटे है। उसने सभी को एक समान बनाया है। न कोई छोटा है और न कोई बड़ा । इस्लाम धर्म भी अन्य धर्मों की तरह स्त्रियों को अधिकार देता है। इस्लाम धर्म की मान्यता है कि मनुष्यों की एक जाति है।

मुस्लिम लड़कियों का मॉडलिंग करना वर्जित क्यों
इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो अपने धार्मिक नियम-कायदों का कड़ाई से पालन करने में विश्वास रखता है। इस्लाम धर्म के अनुयाई यानि कि इस्लाम को मानने वाले शरई या शरियत के नियम कायदों को अटल एवं अंतिम मानते हैं। शरियत एक ऐसा कायदानामा है जिसमें प्रत्येक मुस्लिम मर्द और औरत के लिए अनियार्य नियम- कानून होते हैं।शरियत में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी प्रमुख घटनाओं में जो नियम पालने होते हैं, उनका विस्तार से वर्णन किया गया है।

इस्लाम धर्म की प्रमुख संस्थाएं दारूल उलूम देवबंद , आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और वक्फ दारूल उलूम...आदि सभी ने कुछ कार्यों को मुस्लिम पुरुषों और स्त्रियों के लिये हराम बताया है। गैर मर्दों के साथ आफिसों में काम करना, बुर्का छोड़कर मार्डन कपड़े पहनना तथा लड़कियों का माड़लिंग करना ऐसे ही कुछ वर्जित कार्य हैं।

इस्लामी शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद ने एक फ तवा जारी कर कहा है कि मुस्लिम लड़कियों का मॉडलिंग करना हराम है क्योंकि यह इस्लामिक शरई कानूनों के खिलाफ है। इनके अनुसार इस्लामी कानून में ऐसा करना हराम है।इसमें उन्होंने कहा कि महिलाओं के मॉडलिंग करने तथा उस दौरान भौंड़ेपन और बदन का प्रदर्शन करने वाले लिबास पहनना शरियत कानून के खिलाफ है। इस्लामी कानून में ऐसा करना हराम है।

बुर्का या हिज़ाब क्यों पहनती हैं मुस्लिम युवतियां
हर मुस्लिम महिला या लड़की के लिए हिज़ाब या बुर्का पहनना धार्मिक अनिवार्यता है। इसके पीछे धार्मिक महत्व तो है ही परंतु वैज्ञानिक कारण भी हैं। बुर्का पहनने की पहनने की परंपरा अरब देशों से शुरू हुई मानी जाती है। अरब देशों में गर्मी और रेतीला वातावरण रहता है। लड़कियों की त्वचा कोमल रहती है और वहां अत्यधिक गर्मी की वजह से त्वचा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही तेज हवा चलने पर रेत भी हवा के साथ उड़ती है, ऐसे में कोमल त्वचा पर रेत का लगना स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक होता है। इस बुरे प्रभाव से बचने के लिए हिज़ाब पहनने की परंपरा शुरू की गई। हिज़ाब के और भी कई फायदे हैं जैसे इसे पहनने से बुरी नजर से भी बचाव हो जाता है और लड़कियों की सुरक्षा की दृष्टि से हिज़ाब बहुत कारगर है। इन्हीं सारे फायदों की वजह से अरब देशों से शुरू हुई यह परंपरा धीरे-धीरे सभी जगह प्रचलन में आ गई।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Christianity (ईसाई धर्म)

ऐसे पड़ी ईसाई धर्म की नींव
ईसाई धर्म का प्रवर्तन ईसा मसीह (जीसस क्राइस्ट) ने किया था। ईसा मसीह यहूदी थे। ईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथों बाइबिल और 'न्यू टेस्टामेंट के आधार पर ईसा मसीह के प्रारंभिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है। इन ग्रंथों के अनुसार ईसा मसीह बचपन से ही धार्मिक स्वभाव के थे। धार्मिक ग्रंथों की टीकाएं एवं भाष्य पढऩा उनकी प्रमुख रुचियों में शामिल था। सत्य की खोज, ईश्वर की प्राप्ति एवं जीवन के उद्देश्य आदि विषयों में उनकी जिज्ञासा प्रारंभ से ही थी। अवसर मिलने पर जंगल में चले जाना और एकांत में चिंतन मनन करना, विद्वानों के साथ विचार-विमर्श करना इनकी आदतों में शामिल था।

ईशू का जन्मईसाई धर्म को मानने वालों की मान्यता के अनुसार जीसस का जन्म बेथलेहम (जोर्डन) में कुंवारी मरीयम (वर्जिन मरीयम) के गर्भ से हुआ था। उनके पिता का नाम युसुफ था जो पेशे से बढ़ई थे। स्वयं ईसा मसीह ने भी 30 वर्ष की आयु तक अपना पारिवारिक बढ़ई का व्यवसाय किया। पूरा समाज उनकी ईमानदारी और सद्व्यवहार, सभ्यता से प्रभावित था। सभी उन पर भरोसा करते थे।

उपदेशक ईसा30 वर्ष की आयु से ही ईसा मसीह ने लोगों को क्षमा, शांति, दया, करूणा, परोपकार, अहिंसा, सद्व्यवहार एवं पवित्र आचरण का उपदेश देना प्रारंभ कर दिया था। उनके इन्हीं सद्गुणों के कारण लोग उन्हें शांति दूत, क्षमा मूर्ति और महात्मा कहकर पुकारने लगे थे। इससे संबंधित जानकारी 'बाइबिल के प्रथम-भाग से प्राप्त होती है। ईसा की दिनों-दिन बढ़ती ख्याति से तत्कालीन राजसत्ता ईष्र्या करने लगी थी। उन्हें प्रताडि़त करने की योजनाएं राजसत्ता द्वारा बनने लगी थी।

ईसा के जीवन में मोड़ यहूदी विद्वान यहुन्ना से भेंट होना ईसा के जीवन की महत्वपूर्ण घटना थी। यहुन्ना जोर्डन नदी के तट पर रहते थे। ईसा ने सर्वप्रथम जोर्डन नदी का जल ग्रहण किया और फिर यहुन्ना से दीक्षा ली। यही दीक्षा के पश्चात् ही उनका आध्यात्मिक जीवन शुरू हुआ। अपने सुधारवादी एवं क्रांतिकारी विचारों के कारण यहुन्ना को तत्कालीन राजसत्ता द्वारा कैद कर लिया कर लिया गया । यहुन्ना के कैद हो जाने के बाद बहुत समय तक ईसा मृत सागर और जोर्डन नदी के आस-पास के क्षेत्रों में उपदेश देते रहे। स्वर्ग के राज्य की कल्पना एवं मान्यता यहूदियों में पहले से ही थी किंतु ईसा ने उसे एक नए और सहज रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत किया।

यह सिखाता है ईसाई धर्म- कभी भी हिंसा और हत्या को जीवन में मत अपनाओं।- ईष्र्या, द्वेष से सदैव दूर रहो।- सदैव नैतिक नियमों का पालन करों और पवित्र जीवन जीयो।- संकल्प सोच-समझ कर करो।- जो तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे उसकी ओर दूसरा भी फेर दो। हिंसा न करो।- जब दान करो चुपचाप करो, तारीफ से बचो।- कभी किसी पर दोष न लगाओ।- ज्यादा धन इकट्ठा न करो।- गरीबों की मदद करो।- विवाह करना वासना में दग्ध रहने से अच्छा है।- कोढिय़ों की सेवा करो। किसी से मुफ्त मत लो।- अपने प्राण बचाने की जगह दूसरों के प्राण बचाओ।

ईसा के जीवन की प्रमुख घटनाएं
अंतिम भोज'अंतिम भोज' के नाम से प्रसिद्ध घटना के समय भोजन के बाद वे अपने तीन शिष्यों - पतरस, याकूब और सोहन के साथ जैतन पहाड़ के'गेथ सेमनी' बाग में गए। मन की बैचेनी बढ़ते देख वे उन्हें छोड़कर एकांत में चले गए तथा एक खुरदुरी चट्टान पर मुंह के बल गिरकर प्रार्थना करने लगे। उन्होंने प्रार्थना में ईश्वर से कहा-'' दु:ख उठाना और मरना मनुष्य के लिए दु:खदायी है किंतु हे पिता यदि तेरी यही इच्छा हो तो ऐसा ही हो।''

ईसा की गिरफ्तारी ईसा ने अपने शिष्यों से कहा- ''वह समय आ गया है जब एक विश्वासघाती मुझे शत्रुओं के हाथों सौंप देगा। इतना कहना था कि (द्भह्वस्रड्डह्य) नामक शिष्य उनकी गिरफ्तारी के लिए सशस्त्र सिपाहियों के साथ आता दिखाई दिया। जैसा कि ईसा मसीह ने पहले की कह दिया था उनको गिरफ्तार कर लिया गया। अंत में न्यायालय में उन पर कई झूठे दोष लगाए गए। यहां तक की उन पर ईश्वर की निंदा करने का आरोप लगाकर उन्हें प्राणदंड देने के लिए जोर दिया गया। यूदस ने विश्वासघाती होने के कारण आत्महत्या कर ली। सुबह होते ही उन्हें अंतिम निर्णय के लिए न्यायालय में भेजा गया। न्यायालय के बाहर शत्रुओं ने लोगों की भीड़ इकट्ठी की और उनसे कहा कि वे पुकार-पुकार कर ईसा को प्राणदंड देने की मांग करें। ठीक ऐसा ही हुआ।

हत्यारों के लिए क्षमा प्रार्थना न्यायाधीश ने लोगों से पूछा इसने कौन सा अपराध किया है? मुझे तो इसमें कोई दोष नजर नहीं आता। किंतु गुमराह किए हुए और बिके हुए लोगों ने कहा'' उसे सूली दो। अंतत: उन्हें सूली पर लटका कर कीलों से ठोक दिया गया। हाथ पैरों में ठुकी कीलें आग की तरह जल रही थी। ऐसी अवस्था में भी ईसा मसीह ने परमेश्वर को याद करते हुए प्रार्थना कि-'' हे मेरे ईश्वर तुने मुझे क्यों अकेला छोड़ दिया। इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं?

फिर लौटे ईसा कुछ घंटों ईसा मसीह शरीर क्रूस पर झूलता रहा। अंत में उनका सिर नीचे की ओर लटक गया और इस तरह आत्मा ने शरीर से विदा ले ली। ईसा की मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि मृत्यु के तीसरे दिन एक चमत्कार हुआ और ईसा पुन: जीवित हो उठे। मृत्यु के उपरांत पुन: जीवित हो जाना उनकी दिव्य शक्तियों एवं क्षमताओं का प्रतीक था।

ईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथ
ईसाई धर्म के सर्वमान्य प्रमुख ग्रंथ दो ही हैं-
१.पुरानी बाइबिल
२.नई बाइबिल

पुरानी बाइबिल- पुरानी बाइबिल में हजरत मूसा के आने व हजरत नूह व उनके पुत्रों द्वारा ईसाई धर्म फैलाने का जिक्र है। यह मानती हैं कि नूह के पुत्र हेम के वंशज ही अरब यहूदी और मिश्री ईसाईयों का समूह था जो सामी परंपरा कहलाया। पुरानी बाइबिल में हजरत मूसा का कार्य-कलाप व उपदेशों का वर्णन है।

नई बाइबिल- नई बाइबिल हजरत ईसा मसीह प्रभु यीशु पर आधारित है। यह प्रभु ईसा मसीह को कुंवारी मरियम से जन्मे मानती है। कुंवारी मरीयम को पवित्र आत्मा से गर्भवती हुआ बताया गया है। इसमें बताया गया है कि आकाशवाणी ने बताया कि कुंवारी लड़की गर्भवती हागी और एक पुत्र को जन्म देगी। उसका इम्मानुएला रखा जाएगा। वह बालक बड़ा होकर लोगों को राह दिखाएगा,सब पाप मिल जाएंगे। वह सबको रोशनी देगा, इजऱाइल की रखवाली करेगा। वह प्रभू यीशु होगा, खुदा का बेटा कहलाएगा।

बाइबिल का पूर्वाद्र्ध ईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथ 'बाइबिल में कहीं भी ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक विवेचन नहीं मिलता। बाइबिल में मनुष्य के साथ ईश्वर के व्यवहार का जो इतिहास मिलता है, उससे ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप के बारे में भी जानकारी मिलती है। 'बाइबिल के पूर्वाद्र्ध में वर्णित ईश्वर संबंधी धारणा से यह अवश्य स्पष्ट होता है कि ईश्वर एक है और वह अनादि, अनंत और सर्वशक्तिमान है। ईसाई धर्म के अनुसार कोई भी स्थूल मूर्ति उस ईश्वर का वास्तविक स्वरूप व्यक्त करने में असमर्थ है। ईश्वर मनुष्य को पवित्र बनाने, ईश्वरीय आराधना करने तथा ईश्वर के नियमों के अनुसार जीवन बिताने का आदेश देता है।

बाइबिल का उत्तराद्र्ध'बाइबिल के उत्तराद्र्ध से पता चलता है कि ईसा ने ईश्वर के बारे में एक नया विचार दिया कि एक ही ईश्वर में तीन व्यक्ति हैं- पिता पुत्र और पवित्र आत्मा। तीनों ही महान एवं शक्तिमान है। तीनों समान रूप से अनादि, अनंत और सर्वशक्तिमान हैं, क्योंकि वे एक रूप के अंश है। इसीलिए ईसाई धर्म 'परस्पर प्रेम भावना पर अधिक बल देता है। ईसाई धर्म के अनुयायियों के अनुसार ' ईश्वर-पुत्र ईसा क्रू स पर मरकर मानव-जाति के सभी पापों का प्रायश्चित किया था।

बाइबिल दिखाती है प्रेम और प्रार्थना का मार्ग
परमेश्वर उनके लिए मित्र की तरह है जो उसके बताए मार्ग पर चलते हैं। जीवन परमेश्वर का दिया बेशकीमती वरदान है। इसेजानें, समझें, खोजें, संवारें और कद्र करें। क्रोध, हिंसा और हत्या से सदैव बचें। किसी के प्रति द्वेष या घ्रणा के भाव लाकर अपने तन, मन में जहर न घोले। स्त्रियों का आदर और सम्मान करें। स्त्रियों को निम्न दृष्टि से न देखें।पवित्रता से देखें और पवित्र बनें। दोषियों को क्षमा करें।

क्षमा से ही किसी का स्थाई सुधार संभव है।बात-बात में संकल्प न लें।अति आवश्यक हो तो ही संकल्प लें और हर कीमत पर अपने वचन को निभाएँ। अपनी मेहनत की कमाई का कुछ हिस्सा जरूरतमंदों को अवश्य दें। दूसरों की गलतियाँ, कमियां और दोष न देखें क्यों कि कुछ अलग तरह की कमियां और दोष तुम में भी है।उन्हें दूर करने में समय लगाओं। धन संपत्ति के संग्रह में ही जीवन न खपाओं।

जीवन में और भी कई महत्वपूर्ण कार्य है करने के लिए। विवाह करना वासना में जलते रहने से तो अच्छा ही है। किसी को छोटा, नीच, घ्रणित, पापी, आदि न समझो।इन्हें परिस्थिति और अज्ञानता ने इस अवस्था में ला पटका हैं। हो सके तो ऊपर उठने में इनकी मदद करों। अपने प्राण गंवा कर भी किसी की रक्षा कर सको तो अवश्य करों।

बाइबिल: प्रेम से भरा एक ग्रंथ
बाइबिल ईसाइयों का पवित्रतम धर्म ग्रंथ है। ऐसा धर्म ग्रंथ जो ईसाई धर्म की आधार शिला है।पे्रम और परमेश्वर से सराबोर एक अमूल्य पुस्तक। इसकी रचना 1400 ई.पू. से 900ई. तक हुई ऐसी मान्यता है।
बाइबिल में कुल मिलाकर 72 ग्रंथों का संकलन है। पूर्व विधान में 45 तथा नव विधान में 27 ग्रंथ हैं। बाइबिल दो भागों में विभक्त है। पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) और नव विधान (न्यू टेस्टामेंट) बाइबिल का पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) ही यहूदियों का भी धर्म ग्रंथ है।

माना जाता है कि बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा (इंस्पायर्ड) से रचित ग्रंथ है। किंतु उसे अपोरुषेय नहीं कहा जाता है।
बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा तथा मानवीय परिश्रम दोनों का सम्मिलित परिणाम है। बाइबिल बड़ी ही सहज है इससे गूढ़ दार्शनिक सत्यों का संकलन नहीं है।

बाइबिल यह बताती है कि ईश्वर ने मानव जाति की मुक्ति का क्या प्रबंध किया है। इंसान को प्रेम, उदारता और आत्म व्यवहार का पाठ पढ़ाती है बाइबिल। बाइबिल में लौकिक ज्ञान एवं विज्ञान संबंधी जानकारी भी मिलती है। बाइबिल के पूर्व विधान में यहूदी धर्म और यहूदी लोगों की गाथाएं, पौराणिक कहानियां आदि का वर्णन है।
बाइबिल के पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टोमेंट) की भाषा इब्रानी है।

बाइबिल के नव विधान को ईसा ने लिखा। इनमें ईसा की जीवन, उपदेश और शिष्यों के कार्य लिखे हैं।
नव विधान की मूल भाषा अरामी और प्राचीन ग्रीक है। नव विधान में चार शुभ संदेश हैं जो ईसा की जीवनी का उनके चार शिष्यों द्वारा वर्णन है।

ईसा के चार प्रमुख शिष्य: मत्ती, लूका, युहन्ना और आकुस थे। हजरत मूसा बाइबिल के सर्वाधिक प्राचीन लेखक हैं जिन्होंने 1100 ई.पू. में पूर्व विधान का कुछ अंश लिखा था। नव विधान की रचना 50 वर्ष की अवधि में हुई यानि सन 50 ई से. 100 ई. के बीच। बाइबिल में लोक कथाएं, काव्य और भजन, उपदेश, नीति कथाएं आदि अनेक प्रकार के साहित्यिक रूप पाए जाते हैं।

ईसाई धर्म : सिद्धांत और उपदेश
ईसा बहुधा ईश्वर के राज्य (किंग्डम ऑफ गॉड) की चर्चा करते थे। इसका अर्थ यह था कि पृथ्वी पर ईश्वर की सत्ता ही सबसे अधिक बलवती है। ईसा का कहना था कि पृथ्वी पर ईश्वर के राज्य की स्थापना शीघ्र ही होने वाली है। उनका कहना था कि मनुष्य, ईश्वर प्रेम से पवित्र होकर, ईश्वर में पूर्ण आस्था रखकर, ईश्वर राज्य की स्थापना कर सकता है। वे ईश्वर को पिता और स्वयं को ईश्वर का पुत्र कहते थे।

ईसाई धर्म के प्रमुख संप्रदाय एंव शाखाएंईसाई धर्म में बहुत संप्रदाय है। जिनमें से कुछ प्रमुख संप्रदाय इस प्रकार है:
१.ऐवोनिया
२.मार सियोनी
३.मानी कबीर
४.रोमन कैथोलिक
५.यौनी टैरिपन
६.यूटल केन
७.बलकानियां
८.प्रोट्रेस्टेन

ईस्टर का त्योहारप्रतिवर्ष इसी घटना की स्मृति में ईसाई धर्म के अनुयायी ईस्टर का त्योहार मनाते हैं। 'गुड फ्रायडे वह दिन समझा जाता है जिस दिन ईसा की मृत्यु हुई थी। मृत्यु के तीसरे दिन पुन: जीवित होने के बाद वे 40 दिनों तक अपने शिष्यों एवं मित्रों के साथ रहे, और अंत में स्वर्ग चले गए।

ईसाई-धर्म और जिंदगी के अनसुलझे सवाल
कई ऐसे मुद्दे हैं जो इंसान और उसकी जिंदगी के साथ प्रारंभ से ही जुड़े हुए हैं। जैसे कि ईश्वर कौन, कहां और कैसा है?, जिंदगी का मकसद क्या है? हम जन्म से पहले कहां थे और मौत के बाद कहां होगे? इन मुद्दों पर दुनिया के विभिन्न धर्मों और हिस्सों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। इन महत्वपूर्ण विषयों में ईसाई धर्म क्या कहता और मानता है, आइये देखते हैं-

- कौन है ईश्वर: एक सत्ता है पर उसके तीन रूप है। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा।

- इंसान का पतन कैसे : ईश्वर ने मानव को पूर्ण बनाया किंतु आदम ने ईश्वर का आदेश न मानने का अपराध किया। इस कारण मानव जाति ईश्वर से दूर हो गई और उसका पतन हुआ। (पुरानी बाइबिल)

- अवतार क्या है: मनुष्य औ ईश्वर के पुनर्मिलन को पुन: स्थापित करने के लिए ईश्वर ईशू के रूप में मनुष्य बनकर धरती पर अवतरित हुआ। (नई बाइबिल)

- कुंवारी से जन्मे यीशू: ईश्वर ने ईशू के रूप में चमत्कार पूर्वक कुंवारी मरीयम की कोख (गर्भ) से जन्म लिया।

- यीशू के दो रूप: ईशू एक ही समय में ईश्वर भी था और मनुष्य भी।

- प्रायश्चित क्यों: ईश्वर ने ईशू के रूप में कष्ट सहा, मनुष्य बनकर बलिदान दिया।

- पुररुत्थान कैसे : ईश्वर ने ईशू की कब्र से उठकर विश्वास वालों को अमरता प्रदान की।

- चर्च का देवी आधार: ईश्वर ने ईशू रूप में मनुष्य और ईश्वर के साम्राज्य को स्थापित पद्धति के रूप में चर्च (संघ) का निर्माण किया।

- कृपा कब और क्यों: ईश्वर अपने प्रेम द्वारा मनुष्य को पाप से बचाने के लिए सहायता देता है।

- पुरागमन : ईश्वर ईशू के रूप में फिर आएगा। भले लोग कब्र से उठ खड़े होंगे। पुण्यात्मओं की मुक्ति होगी। पापी सदा के लिए नरक में जाएंगे।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Thursday, January 10, 2013

Hinduism (हिंदू धर्म)

हिंदू धर्म
हिंदू शब्द की उत्पत्ति एवं अर्थवास्तव में यह 'हिंदू' शब्द भौगोलिक (स्थान, देश से संबंधित) है। मुसलमानों को यह शब्द फारस अथवा ईरान में मिला था। फारसी कोषों में 'हिंद' और इससे व्युत्पन्न अनेक शब्द पाए जाते हैं। जैसे हिंदू, हिंदी, हिंदुवी, हिंदुवानी, हिंदुकुश आदि। इन शब्दों के अस्तित्व से स्पष्ट होता है 'हिंद' शब्द मूलत: फारसी है और उसका अर्थ 'भारतवर्ष' है। फारसी व्याकरण के अनुसार संस्कृत का 'स' अक्षर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है। इस कारण 'सिंधु' (सिंधु नदी) शब्द 'हिंदू' हो गया। पहले हिंद के रहने वाले 'हिंदू' कहलाए। धीरे-धीरे संपूर्ण भारत के लिए इसका प्रयोग होने लगा। इसी प्रकार व्यापक रूप में भारत में रहने वाले लोगों का धर्म हिंदू धर्म कहलाया।

हिंदू और हिंदुत्व की एक परिभाषा लोकमान्य तिलक ने प्रस्तुत की थी। जो इस प्रकार है:'सिंधु नदी के उद्गम स्थान (जहां से यह निकलती है) से लेकर हिंदमहासागर तक संपूर्ण भारत भूमि जिसकी मातृभूमि तथा पवित्र भूमि है वह हिंदू कहलाता है और उसका धर्म हिंदुत्व।'विश्वविख्यात महात्मा श्री विनोबाजी भावे ने हिंदू शब्द की परिभाषा एवं लक्षण इस प्रकार बताए हैं:जो वर्णों और आश्रमों की व्यवस्था में निष्ठा रखनेवाला, गो-सेवक, श्रुतियों (धार्मिक ग्रंथों) को माता की भांति पूज्य मानने वाला तथा सब धर्मों का आदर करने वाला है,देवमूर्ति की जो अवज्ञा नही करता, पुनर्जन्म को मानता और उससे मुक्त होने की चेष्टा करता है तथा जो सदा सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को अपनाता है। वही 'हिंदू' माना गया है। हिंसा से उसका चित्त दु:खी होता है, इसलिए उसे 'हिंदू' कहा गया है।

सनातन धर्म का अमिट स्वरूप प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक अनेक जातियों, संप्रदायों, मतों, पंथों एवं वादों का भारत में आगमन होता रहा है। भारत में आदिकाल (प्रारंभ) से निवास करने वाली 'हिंदू' जाति ने अपने मूल सनातन धर्म जिसे बाद में 'हिंदू' धर्म कहा जाने लगा को सदैव सुरक्षित एवं परिपूर्ण बनाए रखा। विश्व के विभिन्न देशों में जन्मे एवं पनपे अनेक धर्मों एवं संस्कृतियों का अस्तित्व वर्तमान में लगभग समाप्त हो चुका है। जबकि हिंदू धर्म और संस्कृति उसी मूल स्वरूप में आज तक जीवित एवं नित-नवीन रूप मे विस्तारमान है।

वैदिक धर्महिंदू जाति ने अपना धर्म श्रुति-वेदों से प्राप्त किया है। उनकी धारणा है कि वेद अनादि और अनंत हैं। वेदों का अर्थ है, भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविस्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। वेदों की घोषणा है- 'मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूं, मैं शरीर नहीं हूं। शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूंगा। मैं इसमें विद्यमान (रहने वाला) हूं और जब यह शरीर नहीं रहेगा तब भी मेरा अस्तित्व बना रहेगा।

मेरा एक अतीत (पिछला जन्म) भी है।'आत्मा का अमर स्वरूप हिंदू धर्म में शरीर को नश्वर तथा आत्मा का निवास स्थान बताया गया है। आत्मा को ही मनुष्य का मूल स्वरूप मानते हुए, उसे अजर-अमर अर्थात् अनश्वर माना गया है। आत्मा की अमरता के बाद, कर्मफल की मान्यता भी हिंदू धर्म की प्रधान विशेषता है। प्रत्येक कर्म का फल या परिणाम मिलना निश्चित माना गया है। मनुष्य को उसके जीवन में मिलने वाले दु:ख, सुख, अमीरी-गरीबी एवं मान-अपमान स्वयं उसके ही पिछले और वर्तमान के कर्मों का परिणाम है। हिंदू धर्म की मान्यता है कि मनुष्य की वर्तमान अवस्था उसके ही पूर्व कर्मों का परिणाम है और भविष्य में उसकी जो भी अवस्था होगी वह उसके वर्तमान कर्मों द्वार निर्धारित होगी।

हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि मनुष्य का मूल स्वरूप उसकी 'आत्मा है न कि शरीर। उसको (आत्मा) शस्त्र काट नहीं सकते। अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती। हिंदुओं की ऐसी मान्यता है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किंतु जिसका केंद्र शरीर में अवस्थित है, और मृत्यु का अर्थ है इस केंद्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाना।सर्वव्यापी ईश्वरईश्वर के स्वरूप और गुणधर्मों के विषय में 'हिंदू' धर्म की मान्यता है कि वह परमात्मा सर्वत्र (सभी जगह रहने वाला) है।

शुद्ध व पूर्ण पवित्र है, निराकार (जिसका आकार न हो), सर्व शक्तिमान है, सब पर उसकी पूर्ण दया है, वही सबका पिता है, सबकी माता है, वही सबका परमप्रिय सखा है, वही सभी शक्तियों का मूल है, वह हमें इस जीवन के उत्तरदायित्वों, कत्र्तव्यों को वहन करने की शक्ति दे क्योंकि वह इस संपूर्ण ब्रह्मांड का भार वहन करता है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष हिंदू धर्म के आधार स्तंभ वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्य स्वरूप है, वह केवल पंच तत्वों (पृथ्वी, अग्रि, जल, वायु व आकाश) या पंचमहाभूतों के बंधनों में बंध गई है और उन बंधनों के टूटने पर वह अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेगी। इसी अवस्था का नाम मुक्ति या मोक्ष है। जिसका अर्थ है स्वाधीनता, अपूर्णता के बंधनों से छुटकारा, जन्म-मृत्यु से छुटकारा। इस प्रकार हिंदुओं की सारी साधना, प्रणाली का लक्ष्य है - बिना रुके, बिना थके, लगातार के प्रयास द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना या साक्षात्कार करना।

प्रमुख सिद्धांतबड़े-बड़े विद्वान ऋषियों के हजारों वर्षों के प्रयास के बल पर इस हिंदू धर्म का विकास किया है। हिंदू धर्म के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं।
1. वेद हिंदू धर्म के प्रामाणिक धर्म ग्रंथ।
2. ईश्वर में विश्वास और नाना रूपों में उसकी उपासना।
3. जीवन में नैतिक एंव मर्यादित आचरण पर अडिग रहना।
4. ऋषि-मुनियों द्वारा बनाई गई आश्रम व्यवस्था को मानना। जो कि पूर्णत: वैज्ञानिक प्रणाली है।
5. कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष के सिद्धांत पर पूर्ण विश्वास।

हिंदू धर्म के आधार ग्रंथहिंदू धर्म में वेदों को ज्ञान का भंडार एवं ईश्वरीय पुस्तक के रूप में मान्यता एवं सम्मान प्राप्त है। इनकी संख्या चार है जो कि इस प्रकार हैं :
1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद

धर्मग्रंथ हिंदुओं के धर्म शास्त्रों को दो भागों में बांटा गया है : श्रुति और स्मृति। श्रुति अर्थात् सुनी गई यानि ईश्वर के पास से साक्षात् सुनी गई वाणी। वेद से लेकर उपनिषद् तक श्रुतियों में आते हैं। स्मृति अर्थात् स्मरण की गई, स्मरण में रखकर याद करके और उसके बताए विषयों पर विचार करके जो शास्त्र रचे गए उनका नाम स्मृति है। स्मृतियों में छ: वेदांग, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण और नीति के ग्रंथ आते हैं। धर्म शास्त्रों में धर्म सूत्र, स्मृतियों और निबंधकारों का साहित्य आता है।

वेदांगों में कल्प का बहुत अधिक महत्व है। कल्प सूत्रों में यज्ञ भाग के संस्कारों की विधियां दी गई है। कल्प सूत्र के तीन भाग हैं: श्रौत, ग्रह्य सूत्र और धर्म सूत्र। श्रौत सूत्र में वैदिक यज्ञों का कर्मकाण्ड (पूजा पद्धति) है। ग्रह्य सूत्र में जन्म से लेकर मृत्यु तक किए जाने वाले पारिवारिक जीवन संबंधी कर्मों का विधान है, इसमें पाक यज्ञ भी है और पंच महायज्ञ भी। श्राद्ध तथा अन्य संस्कार भी धर्म सूत्रों में हैं। मुख्य धर्म सूत्र हैं : आपस्तंब,बौधायन, गौतमीय, हिरण्याकेशन। स्मृतियों की रचना भी आगे चलकर धर्मसूत्रों में से ही हुई है।

स्मृतियां :हिंदू धर्म शास्त्रों में स्मृतियों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। स्मृतियों की संख्या 18 से लेकर 56 तक बताई जाती है। मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, उशनस, अंगिरा, कात्यायन, बृहस्पति, व्यास, गौतम, वशिष्ठ और पाराशर की मुख्य स्मृतियां मानी गई हैं। मनुस्मृति या मानव धर्म शास्त्र सबसे पुरानी स्मृति मानी जाती है। मनु स्मृति में 12 अध्याय है। इसके 12 अध्यायों में व्यक्ति, परिवार एवं समाज के लिए नियम कायदे दिए गए हैं।

धर्म निबंधस्मृतियों की प्रामाणिक संख्या को लेकर जब मत-भिन्नता (मतभेद, अलग-अलग राय) उत्पन्न हो गई और स्मृतियों की संख्या बहुत बढ़ गई तब धर्म निबंधों की रचना हुई। उस समय के राजाओं ने स्मृतियों का सारांश धर्म निबंधों के रूप में तैयार करवाया। स्मृति कल्पतरू, सबसे पुराना धर्म निबंध है। मुख्य धर्म निबंध है- स्मृति चंद्रीका, चतुर्वर्ग चिंतामणि, स्मृति रत्नाकर, धर्म रत्न, निर्णय सिंधु।

हिंदू इतिहास में दो ग्रंथ माने जाते हैं रामायण और महाभारत। आदिकवि वाल्मीकि ने अयोध्या के राजा एवं विष्णु के दशावतारों में सातवें अवतार भगवान राम की पूरी कथा का वर्णन किया है। वाल्मीकि द्वारा रची गई रामायण की भाषा संस्कृत होने के कारण आधुनिक लोगों के लिए कठिन प्रतीत होती थी। तुलसीदास ने इसी रामायण को वर्तमान भाषा में रचकर सबके लिए सुलभ एवं सहज बना दिया। तुलसीकृत रामायण का नाम रामचरितमानस है। हिंदू धर्म में रामायण (भगवान राम की कथा) की अत्यधिक महत्ता है।

महाभारत महर्षि वेदव्यास की रचना है। इसमें कोरवों और पाण्डवों के युद्ध का विस्तार से वर्णन है। यह संपूर्ण ग्रंथ बहुत बड़ा है। जिसे 18 पर्वों में विभाजित किया गया है। युद्ध वर्णन के साथ-साथ महाभारत में कई अन्य कथाएं एंव प्रेरणास्पद उपदेश दिए गए हैं।

पुराणपुराण शब्द का अर्थ प्राचीन या पुराना होता है। प्राचीनता के कारण ही उक्त ग्रंथों का नाम पुराण पड़ा। वेदों, उपनिषदें, स्मृतियों आदि धर्म शास्त्रों के गूढ़ (कठिन) गंभीर तत्वज्ञान को, सरल भाषा में कथा कहानियों के रूप में जिन ग्रंथों में वर्णित किया गया उन्हीं को पुराण कहते हैं। महाभारत और श्रीमद्भागवत के रचनाकार महर्षि वेदव्यास ही पुराणों के भी रचनाकार (लेखक)माने गए हैं। प्रमुख पुराणों की संख्या 18 मानी गई है। जो कि इस प्रकार हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णु पुराण, शिव पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, हरिवंश पुराण, मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, लिंग पुराण, वाराह पुराण,स्कंद पुराण,वामन पुराण, कूर्म पुराण मत्स्य पुराण, गरुड़ पुराण, ब्रह्मांड पुराण।यदि समस्त पुराणों का अध्ययन करने पर इनका मूलभाव निकाला जाए तो वह है - परोपकार ही पुण्य है और स्वार्थ में किसी को कष्ट देना या हानि पहुंचाना ही सबसे बड़ा पाप है।

दर्शनशास्त्र जीवन और जीवन के उद्देश्य के विषय में एक विशेष दृष्टिकोण रखने वाले शास्त्र दर्शनशास्त्र कहलाते हैं। मूलत: भारतीय हिंदू दर्शन आस्तिक दर्शन है। किंतु अत्यंत कम प्रभाव व प्रसार वाले नास्तिक दर्शनों का भी अस्तित्व भारत में रहा है। अत: सुविधा की दृष्टि से हम दर्शन को दो भागों में बांटते हैं।

आस्तिक दर्शनवेदों का प्रमाण मानने वाले छ: दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाते हैं जो इसप्रकार हैं:
1. न्याय दर्शन
2. वैशेषिक दर्शन
3. सांख्य दर्शन
4. योग दर्शन
5. मीमांसा दर्शन
6. वेदांत दर्शन

नास्तिक दर्शन तीन माने गए हैं :
1. चार्वाक
2. जैन दर्शन
3. बौद्ध दर्शन

इन दर्शनों में बहुत गहरा तत्वज्ञान समाया हुआ है। मानव जीवन का उद्देश्य, जीवन का अर्थ, जीवन की सार्थकता, परमज्ञान की प्राप्ति, परमानंद एवं चिरशांति का मार्ग आदि मनुष्य जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों का बड़ा महत्वपूर्ण एवं गहन विवेचन व विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। सभी की यह मान्यता एवं अनुभव है कि आनंद प्राप्ति के लिए, मुक्ति के लिए, मोक्ष के लिए, निश्चित रूप से शुद्ध, पवित्र एवं नि:स्वार्थ जीवन जीना अनिवार्य आवश्यकता है।

नैतिक आचरण
हिंदू धर्म के भिन्न-भिन्न उपासना मार्गों में चाहे वह भक्ति मार्ग हो, ज्ञान मार्ग हो, योग मार्ग हो, चाहे तंत्र मार्ग हो सब में पवित्र नैतिक आचरण पर बल दिया गया है। पवित्र आचरण और नैतिकता हिंदू धर्म की आधार-शिला है। इसलिए हिंदू धर्म की प्रत्येक साधना का प्रारंभ यम और नियम से ही होता है। यम और नियम के बिना कोई भी साधना और धर्म कार्य सफल नहीं हो सकता। यम के भी कुछ अंग हैं:

ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा, ध्यान, सत्य, नम्रता, अहिंसा, चोरी न करना, मधुर स्वभाव, इंद्रियों पर नियंत्रण।
यम की तरह नियम के भी कुछ अंग बताए गए हैं,जो कि इस प्रकार हैं: स्नान, मौन, उपवास, यज्ञ, स्वाध्याय, इंद्रियनिग्रह, गुरु सेवा, शौच, क्रोध न करना, प्रमाद न करना।

हिंदू धर्म में नारियों का सम्मान
हिंदू धर्म में नारियों का स्थान अत्यंत उच्च एवं पूजनीय है। नारियों के लिए हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि: ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता'' हिंदू धर्म में मान्यता है कि जहां पर नारियों की पूजा एवं आदर-सम्मान होता है,वहां देवताओं (दैवीय शक्तियों) का वास होता है। जहां पर उनका सम्मान, सत्कार व सुख-सुविधा की व्यवस्था और परंपरा नहीं होती वहां दु:ख, दरिद्रता(गरीबी) अशांति, रोग-शोक एवं संकटों का वातावरण बना रहता है। जिस घर में दु:खी होकर नारियों के आंसू गिरते हैं। वहां से सुख, समृद्धि एवं शांति नष्ट हो जाते हैं।

हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ
यद्यपि हिंदू धर्म में अनेक ग्रंथ और शास्त्र हैं। जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, किंतु जो सर्वाधिक प्रचलित एवं उपलब्ध हैं, वे इस प्रकार हैं:

1. गीता
2. महाभारत
3. रामायण
4. वेद (चार)
5. पुराण
6. उपनिषद्(१०८)
7. मनुस्मृति
8. सत्यार्थ प्रकाश (आर्य समाज)

ईश्वर, (भगवान,परमात्मा) के विभिन्न रूप
वैदिक संस्कृति ही सच्ची भारतीय हिंदू संस्कृति है। वैदिक काल में, ब्रह्म, इंद्र, वरुण आदि रूप में एक ही परमेश्वर की उपासना चलती थी। बाद में जगत की सृष्टि, स्थिति और तप को लेकर भगवान के ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप की उपासना चल पड़ी। पुराण काल में इन तीनों देवों को मुख्य माना गया है। ब्रह्मा की अपेक्षा विष्णु और शिव की उपासना हिंदू धर्म में अधिक व्यापक रूप से प्रचलित है। हिंदू धर्म में ईश्वर को साकार और निराकार दोनों ही रूपों की मान्यता एवं उपासना प्रचलित है। मनुष्यों के बौद्धिक स्तर एवं रुचियों में भिन्नता के कारण ही ईश्वर को साकार एवं निराकार दोनों रूपों में परिभाषित किया गया है। ईश्वर के सगुण एवं साकार रूप की उपासना अधिक सरल, सहज एवं रुचिकर होने के कारण सुविधाजनक होती है। उच्च बुद्धि प्रधान मनुष्यों के लिए निराकार ईश्वर के प्रकाश स्वरूप परब्रह्म स्वरूप का विवेचन भी हिंदू धर्म में किया गया है।

हिंदू धर्म में अवतार परंपरा
हिंदू धर्म में ईश्वर के पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतरित होने की मान्यता है। धरती पर अधर्म, अत्याचार, एवं अव्यवस्था बढऩे पर ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। हिंदू धर्म में विष्णु पर(परमात्मा)के दस अवतार माने गए हैं ये दस अवतार इस प्रकार हैं:
1. मत्स्य अवतार
2. कूर्म अवतार
3. वराह अवतार
4. नरसिंह अवतार
5. वामन अवतार
6. परशुराम अवतार
7. राम अवतार
8. कृष्ण अवतार
9. बुद्ध अवतार
10. कल्कि अवतार

विष्णु के उपासक वैष्णव एवं शिव के उपासक शैव कहलाते हैं। कुछ लोग शिव, विष्णु, सूर्य, गणपति और अंबिका के संयुक्त पंचदेव स्वरूप की उपासना करते हैं। स्मार्त लोग किसी भी विशेष संप्रदाय की दीक्षा नहीं लेते वे केवल स्मृति में बताए धर्म का पालन करते हैं। इनके अलावा भी हिंदू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजन उपासना प्रचलित है।शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निंबार्काचार आदि धर्माचार्यों ने अद्वैव, विशिष्टता द्वेत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि कई संप्रदाय चलाए, जिसे जो संप्रदाय पसंद है वह उसके अनुसार उपासना करता है।

हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था
हिंदू धर्म में चार वर्ण माने गए हैं: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र।
1. ब्राह्मण का धर्म है: यज्ञ करना-कराना, दान लेना-देना, विद्या पढऩा-पढ़ाना।
2. क्षत्रिय का धर्म: प्रजा की रक्षा करना, यज्ञ करना, दान करना, विद्या अध्ययन करना।
3. वैश्य का धर्म: व्यापार, वाणिज्य व्यवसाय, गौ-सेवा, पशु रक्षा, दान करना।
4. शुद्र का काम: सेवा करना, स्वच्छता एवं व्यवस्था बनाए रखना।

पहले यह व्यवस्था व्यक्ति के गुण-कर्म और स्वभाव के आधार पर निर्मित हुई थी। अर्थात् व्यक्ति अपने गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर किसी भी वर्ण में शामिल हो सकता था। एक ही पिता के चार पुत्र भिन्न-भिन्न गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर चार भिन्न-भिन्न वर्ण के सदस्य हो सकते थे। किंतु बाद में इस वर्ण व्यवस्था में कुछ विकृति आ गई। गुण की बजाय इस व्यवस्था को जन्ममूलक बना दिया। वर्ण व्यवस्था मे आई इस विकृति (बुराई,खराबी)के कारण ही यह व्यवस्था जन्मजात हो गई तथा समाज कई जातियों में बंट गया।

आश्रम व्यवस्था
सुचारू रूप से समाज के संचालन के लिए आश्रम व्यवस्था बनाई गई। जिस प्रकार वर्ण व्यवस्था बनाकर समाज का विकास एवं संचालन किया गया ठीक उसी प्रकार आश्रम व्यवस्था का निर्माण किया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य के जीवन को चार भागों में विभक्त कर दिया गया -
१.ब्रह्मचर्य
२.गृहस्थ
३.वानप्रस्थ
४. सन्यास

ब्रह्मचर्य आश्रमजन्म से लेकर 25 वर्षों तक की अवस्था को ब्रह्मचर्य आश्रम के अंतर्गत रखा गया है। ब्रह्मचर्य आश्रम के अंतर्गत यह नियम है कि सादगी से रहते हुए बालक गुरु आश्रम में जाकर अध्ययन करे। ब्रह्मचारी को शराब, मांस, सुंगध, माला, रस, स्त्री, मीण प्रयोग वर्जित था तथा प्राणी की हिंसा करना भी निषेध था। शरीर पर तेल मलना, काजल लगाना, खड़ाऊ पहनना, छाता लगाना, काम क्रोध के चक्कर में पडऩा, नाचना, गाना, संगीत, जुआ, लड़ाई-झगड़ा, निंदा, असत्य बोलना, स्त्री देखना या संग करना इस ब्रह्मचर्य आश्रम में पूर्णत: वर्जित है।

गृहस्थ आश्रमब्रह्मचर्य आश्रम की सफलतापूर्वक पूर्णता पर जब व्यक्ति समस्त ज्ञान, विद्या, कुशलता, गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों की पूर्ति की शक्ति आदि प्राप्त कर गुरु आश्रम से घर लोटकर विवाह करने के बाद गृहस्थ धर्म का पालन करे। ईश्वर को अपना लक्ष्य मानकर धर्म पर चलते हुए सांसारिक सुख भोगना, अतिथि और प्राणी मात्र की सेवा, पवित्र जीवन बिताना, सदाचरण करना, सत्य, न्याय, परोपकार आदि का पालन करना एवं अपने आश्रितों, परिवारजनों, बच्चों, बूढ़ों का पालन पोषण करना गृहस्थ धर्म है।

आयु: 25- 50 वर्षवानप्रस्थ आश्रमधर्म पर चलते हुए, सांसारिक सुख भोगकर एवं समस्त कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के बाद व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम का त्याग कर वन में चले जाना चाहिए। अर्थात् बच्चों के होने एवं आत्मनिर्भर हो जाने पर मनुष्य को घर त्यागकर वानप्रस्थ आश्रम में चले जाना चाहिए। अध्ययन, तप, त्याग एवं तितीक्षा के माध्यम से आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास, समाज में धर्म एवं सद्ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना भी वानप्रस्थी के लिए अनिवार्य कर्तव्य है। आयु: 50 से 75 वर्ष।

सन्यास आश्रमवानप्रस्थ आश्रम की सफलतापूर्वक पूर्णता पर चौथे आश्रम सन्यास आश्रम का क्रम आता है। इसमें 75 वर्ष से लेकर 100 वर्ष तक की आयु वर्ग के लोग आते हैं। सन्यास आश्रम में प्रतिज्ञा करनी होती है कि आज से मैंने पुत्र की, धन की, प्रसिद्धि की कामना छोड़ दी है। मेरे द्वारा सभी प्राणियों को अभय प्राप्त हो। सब कुछ त्यागकर निकल पडऩा सन्यासी का कर्तव्य बताया गया है। सन्यासी वह है जो सब कर्मों का त्याग कर दे। भिक्षा मांग कर खाए, एक जगह न रहे, ब्रह्म का सदा चिंतन करता रहे।

कर्म और पुनर्जन्म
हिंदू धर्म में कर्मफल का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। कर्मफल का सिद्धांत अत्यंत तर्क पूर्ण एवं वैज्ञानिक सिद्धांत है। कर्मफल का सिद्धांत यह कहता है कि जैसा कर्म होता है उसका फल वैसा ही होता है। मनुष्य को अपने पूर्व कर्मों के आधार पर ही वर्तमान जन्म, परिवार एवं परिस्थितियां प्राप्त होती है। हिंदू धर्म की यह अटल मान्यता है कि मनुष्य को उसके कर्मों के आधार पर अगला जन्म मिलता है। आत्म-ज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। मनुष्य अपने भविष्य का निर्माता स्वयं है। उसके ही पूर्व कर्मों ने उसके वर्तमान जीवन को गढ़ा(तैयार किया) है, और उसके वर्तमान कर्म ही उसके भविष्य के जीवन का निर्माण करेंगे।

चार पुरुषार्थ हिंदू धर्म शास्त्रों में भारतीय ऋषियों-मुनियों ने मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ करना अनिवार्य बताया गया है। ये चार पुरुषार्थ इस प्रकार है:1. धर्म2. अर्थ3. काम4. मोक्षजिन कर्मों से समाज उन्नति करता है, समाज टिकता है, उन कर्मों का नाम धर्म है। काम यानी कामना का विषय सुख के लिए मनुष्य नाना प्रकार के काम करता है। किंतु ये सारे काम धर्मानुकूल होने चाहिए। अर्थ, अर्थात् धन, सुख पाने के लिए भी धन चाहिए पर यह धन भी धर्म के रास्ते से ही आना चाहिए। मोक्ष अर्थात् बंधन से छुटकारा। स्वार्थ एवं मोह रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना एवं अनासक्त भाव से कर्म करते हुए कर्म के फल से मुक्त होना ही मोक्ष है।

हिंदू धर्म के लक्षण
सभी को धारण करने वाला स्वयं धारण करने योग्य तथा समस्त प्राणियों को पूर्णता की ओर अग्रसर करने वाला अतिमहत्वपूर्ण कारक धर्म है। विद्वानों ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं:धृति, क्षमा, यम, नियम, चोरी न करना, मन, वाणी और शरीर की पवित्रता, इंद्रियों का संयम, सद्बुद्धि, विद्या, सत्य बोलना और क्रोध न करना।

दया, क्षमा, सत्यता, दान, अहिंसा, नम्रता, प्रीति, प्रसन्नता, प्रेम वचन और कोमलता ये दस नियम हैं। पवित्रता, यज्ञ, तप, दान, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, व्रत, मौन, उपवास और स्नान ये दस नियम है।अपना हो या पराया, भाई हो या बैरी, शत्रु हो या मित्र, चाहे जो भी हो यदि वह मुसीबत और कष्ट में हो तो उसकी सहायता और रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। मनुष्य की इसी उदार भावना को दया और करुणा कहा जाता है।

हिंदू धर्म की मान्यता है कि पाप करने वाले के साथ-साथ उसकी सहायता करने वाला और साथ देने वाला भी पाप का भागीदार बनता है। उदाहरण के लिए मांस खाने वाला ही नहीं, खाने की राय देने वाला, जीव की हत्या करने वाला,उसको लाने वाला, बचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला आदि सभी व्यक्ति पाप के समान भागीदार है।

हिंदू धर्म की मान्यता है कि ग्रहस्थ के घर चूल्हा, चक्की, ओखली, पानी के घड़े, से जीवों की हिंसा होती है। ये पांच स्थान हिंसा के हैं। इनसे मनुष्य पाप में बंधता है। गृहस्थ को इन दोषों से मुक्त करने के लिए ऋषि-मुनियों ने पंच महायज्ञ करने को कहा है। विद्या का प्रसार करना ब्रह्म यज्ञ है, माता-पिता की सेवा करना एवं पितरों का तर्पण करना पितृ यज्ञ है, हवन करना देव यज्ञ है। बलिवैश्वदेव भूत यज्ञ है, अतिथि सत्कार मनुष्य यज्ञ है। ये ही पांच महायज्ञ हैं।

गुरुजनों, माता-पिता एवं बड़ों की सेवाअज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाली गुरु सत्ता, जन्म से लेकर बड़े होने तक तप, त्याग और कष्टपूर्वक पालन-पोषण करने वाले माता-पिता तथा बड़े भाई, चाचा, ताऊ, बुजुर्ग एवं अन्य वरिष्ठ जन अत्यंत आदर एवं सम्मान के पात्र हैं। गुरु एवं माता-पिता के उपकारों से ऋण मुक्त होना तो संभव नहीं हैं किंतु इनकी सेवा, आज्ञा का पालन एवं सम्मान करना प्रत्येक हिंदू का धर्म कर्तव्य है।गुरु, माता-पिता, बड़ों, बुर्जुगों आदि का सम्मान एवं सेवा करने वालों की आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।

यह सिखाता है हिंदू धर्म
1. ईश्वर एक है, सर्वशक्तिमान है एवं सर्वसमर्थ है।
2. एक ही ईश्वर को संसार में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। कोई भगवान, कोई अल्लाह, कोई परमात्मा, कोई वाहे गुरु आदि भिन्न-भिन्न नामों से ईश्वर को पुकारता है।
3. सत्य, दया, अहिंसा, प्रेम, सेवा, परोपकार, त्याग, सादगी आदि उच्चतम मानवीय आदर्शों को जीवन में अपनाना ही हिंदू धर्म की पहचान है।
4. सभी मनुष्यों एवं अन्य जीवों में भी अपना ही रूप देखना एवं प्रेम व भाईचारे से जीवन यापन करना ही मनुष्य का धर्म है।
5. सांसारिक सुख-वैभव एवं भोग विलास को क्षणिक, नष्ट होने वाला और अस्थाई मानकर उसमें मन को न लगाना।
6. आत्मा को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानकर शारीरिक सुख-भोग में जीवन को व्यर्थ न गवाना।
7. दूसरों में दोष न देखकर अपने ही अवगुणों को खोजना एवं दूर करना।
8. आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। आत्मा अजन्मा एवं अमर है। मृत्यु में सिर्फ शरीर बदलता है, आत्मा अजर, अमर एवं अविनाशी है।
9. सेवा, परोपकार एवं सद्कर्मों के द्वारा मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य जिसे पूर्णता, मोक्ष, निर्वाण एवं आत्मज्ञान कहा जाना, को प्राप्त किया जाता है।
10. पूर्ण पवित्रता, नैतिकता, एवं सादगीपूर्ण जीवन जीते हुए जीवन के अंतिम लक्ष्य को खोजना और प्राप्त करना ही जीवन की सार्थकता एवं उपयोगिता है।
11. अपने निजी लाभ एवं स्वार्थ को भूलकर परोपकार एवं विश्व कल्याण के लिए प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है।
12. गाय, गंगा, गीता, गायत्री, वेद एवं रामायण अत्यंत पवित्र एवं हर हिंदू के लिए पूज्य हैं।
13. माता-पिता, गुरु, बड़ों, विद्वानों, संतों, महापुरुषों, ब्राह्मणों एवं आचार्यों की सेवा एवं सम्मान करना हर हिंदू का कर्तव्य है।
14. व्रत, उपवास, तप, तयाग, प्रेम, योग आदि के माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता प्राप्त करना चाहिए।
15. सांसारिक जीवन अस्थाई है। शरीर की मृत्यु निश्चित है। अत: आत्मा एवं आत्मज्ञान की खोज प्रत्येक मनुष्य के लिए परम आवश्यक है।

हिंदुओं के इष्टदेव राम
हिंदू धर्म में ईश्वर के जिन 10 अवतारों की मान्यता है उनमें से भगवान राम सातवें एवं अत्यंत लोकप्रिय अवतार हैं। संपूर्ण भारत में समान रूप से लोकप्रिय अवतार भगवान श्रीराम अयोध्या के राजा थे।श्रीराम पूर्ण धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, प्रजाहितरत, यशस्वी, ज्ञान संपन्न, सूरवीर, दूरदृष्टा, भक्ति-तत्पर, शरणागति रक्षक, परम दयालू, प्रजापति, प्रजापालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, जीव रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक शास्त्र तत्ववेत्ता, परम प्रतिभावान, सर्वप्रति, परम साधु (सज्जन) सदैव प्रसन्नचित्त, महापंडित, परमज्ञानी एवं विज्ञानी तथा निर्धनों के रक्षक, सज्जनों के सहायक विद्वानों का आदर करने वाले, परमश्रेष्ठ हंसमुख, सुख-दु:ख के सहकर्ता, प्रियदर्शन, सर्वगुणयुक्त व सच्चे पुरुष थे।

हिंदू धर्म के प्रमुख तीर्थ
1. गंगोत्री
2. जमनोत्री
3. केदारनाथ
4. ब्रदीनाथ
5. जगन्नाथ
6. रामेश्वरम्
7. द्वारिका
8. अमरनाथ

सप्तपुरी
1. अयोध्यापुरी
2. मथुरापुरी
3. मायापुरी
4. काशीपुरी
5. कांचीपुरी
6. अवंतिकापुरी
7. जगन्नाथपुरी

हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहार
हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारहिंदू धर्म में मानव जीवन को एक उत्सव के रूप में आनंद स्वरूप माना गया है। यही कारण है कि हिंदू धर्म में वर्ष भर व्रत, त्योहार, एवं उत्सव मनाए जाते हैं। हिंदुओं में प्रचलित उत्सव और त्योहार मात्र आनंद प्राप्ति के लिए ही नहीं अपितु धर्म और अध्यात्म को जीवन मे सम्मिलित करने के उद्देश्य से भी मनाए जाते हैं। हिंदुओं में प्रचलित त्योहारों एवं उत्सवों के सार्थक उद्देश्य एवं वैज्ञानिक आधार होते हैं। जो व्यक्ति और समाज को सुख, शांति, धर्म एवं भाईचारे की ओर जाते हैं। हिंदुओं के प्रमुख त्योहार इस प्रकार है:रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, विश्वकर्मा पूजा, दुर्गाअष्टमी, दशहरा, नवरात्र पूजन, वाल्मीकि जयंती, दीपावली, अन्नकूट-गोवर्धन पूजा, भाई दूज, मकर संक्रांति, नाग पंचमी, रविदास जयंती, महाशिवरात्रि, होली, दुलहंडी (फाग), रामनवमी।

हिंदू संस्कृति का संक्षिप्त रूप
हिंदू धर्म की दृष्टि में धर्म, संस्कृति, जीवन तीनों का विस्तार समान है। तीनों एक दूसरे में समाहित (घुले-मिले) है। हिंदू संस्कृति समन्वय प्रधान है। इसीलिए वसुदेव कुटुम्बकम हिंदू संस्कृति का मूल भाव माना गया है। विश्व के साथ समभाव प्राप्त करने की पद्धति समन्यव है। विश्व के अन्य प्राचीन धर्म एवं संस्कृतियां आज लुप्त हो चुके हैं, किंतु हिंदू धर्म अपनी सहिष्णुता की प्राण वायु से आज तक जीवित है। बहुलता मे एकत्व की पहचान हिंदू संस्कृति का प्रयत्न रहा है। जड़ व चेतन का अपेक्षित मुल्यांकन हिंदू धर्म व संस्कृति की विशेषता है। भौतिक जीवन की नश्वरतासांसारिक सुख-भोग क्षणिक व नश्वर है, तथा ये त्यागने योग्य है ऐसी दृढ़ मान्यता हिंदू धर्म की अपनी विशिष्ट पहचान है। लोक और परलोक का समन्वय प्राप्त करने की प्रवृति हिंदू धर्म की मूल भावना है। हिंदू धर्म व संस्कृति में साहित्य, कला, सौदंर्य और संयमित जीवन के अनेक वरदानों को प्रतिष्ठित स्थान दिया गया है।

धर्म और जीवन का मेल हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। अध्यात्म की साधना, त्याग और सच्चरित्रता हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। हिंदू धर्म और संस्कृति में कर्म पर विशेष जोर दिया गया है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने बहुत सुंदर व उत्तम उपदेश दिया है जिसे मानना हर हिंदू का धर्म कत्र्तव्य है।

आध्यात्मिक जीवनहिंदू धर्म व संस्कृति लौकिक विजय से इतनी तृप्त नहीं होती जितनी आध्यात्मिकता से प्रफुल्लित, तृप्त एवं संतुष्ट होती है। सांसारिक विजय और उपलब्धि के भीतर लोभ, स्वार्थ और ङ्क्षहसा छिपे हैं। जबकि आध्यात्मिकता केवल धर्म और आत्म ज्ञान पर आधारित है। हिंदू धर्म में निहित उपासना, साधना एवं संस्कार मनुष्य को जन्म से लेकर देहांत तक आध्यात्मिक जीवन के लिए तैयार करते हैं। हिंदू धर्म परोपकार, त्याग, संयम, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा, सत्य, प्रेम, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, सेवा, नि:स्वार्थता आदि सदुगुणों की संयुक्त मूर्ति है। जिसमें उपरोक्त सभी गुण निहित हैं। वही सच्चा हिंदू कहलाने का अधिकारी है।

हिंदू धर्म के आधार ग्रंथ वेद
हिंदू धर्म के प्रामाणिक व मूल धर्म ग्रंथ वेद है। वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा विवेक। वेद मानव रचित नहीं, अपितु ईश्वर के द्वारा सुपात्र, योग्य ऋषि-मुनियों को नि:शब्द वाणी में प्रदान की गई अनुभूतियों का लिपिबद्ध संग्रह है। वेदों की संख्या चार है। जिनके नाम इस प्रकार है: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद। इनमें ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। ऋग्वेद सर्वकल्याणकारी प्रार्थनाओं का संग्रह है। यजुर्वेद में यज्ञ के विधानों और कर्मकाण्ड का विवरण है। सामवेद में ऋग्वेद की चुनी हुई ऋचाओं को संगीतबद्ध किया गया है।

जिसका विशेष यज्ञों के अवसर पर सस्वर संगीतमय पाठ किया जाता है। सामवेद विभिन्न राग-रागनियों का भी उद्गम है। अथर्ववेद नीति संबंधी सिद्धांतों का संकलन है। उसमें आयुर्वेद विज्ञान, स्वास्थ्य, आयु एवं वृद्धि संबंधी तथ्यों का विस्तृत विवरण है।

हिंदू धर्म का विश्व विख्यात महान ग्रंथ गीता
भारतीय संस्कृति एवं हिंदू धर्म का विश्व को प्रदान किया गया अनुपम उपहार है -गीता। सारे विश्व में निर्विवाद रूप से 'गीता नामक ग्रंथ को सर्वोत्तम कृति माना जाता है। एकमात्र गीता में ही समस्त धर्मों एवं मानव जीवन का सार समाया हुआ है। इतने छोटे आकार में इतना विशाल, व्यापक एवं गंभीर शाश्वत ज्ञान प्रदान करने वाला दूसरा ग्रंथ जग में दूसरा नहीं है। गीता में संपूर्ण धर्मों एवं संपूर्ण ग्रंथों का निचोड़ समाया हुआ है। गीता से तुलना की जाए तो इसके समक्ष समस्त संसार का ज्ञान तुच्छ है।

गीता में जीवन प्रबंधनगीता एक उच्चकोटि का दर्शनशास्त्र है। मानव जीवन के सर्वोत्तम सदुपयोग को बताने वाला गीता जैसा दूसरा कोई ग्रंथ दुनिया भर में नहीं है। मानव जीवन के समस्त दु:खों, अभावों, भयों, आशंकाओं एवं जिज्ञासाओं का संपूर्ण समाधान गीता में समाया हुआ है। आज जीवन प्रबंधन, समय प्रबंधन एवं जीवन जीने की कला सीखने के लिए विश्वभर में गीता का सहारा लिया जा रहा है।

चाहे किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय को मानने वाला व्यक्ति हो, उसे जीवन में एक बार अवश्य गीता को पूरे मनोयोग से अध्ययन करना चाहिए। गीता में निश्चित रूप से मानव जीवन की समस्त समस्याओं का अंतिम व स्थायी समाधान निहित है।

उपनिषदः वेदों का मस्तक
संस्कृत साहित्य में उपनिषद नाम के ग्रंथों (पुस्तकों) का बड़ा ही महत्वपूर्ण दर्जा है। उपनिषदों में समाए हुए बहुमूल्य व उपयोगी ज्ञान के कारण ही इन्हें वेदों का सार या वेदों का मस्तक भी कहा जाता है। अध्यात्म के विषय में सर्वोच्च स्तर का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने का एक मात्र प्रामाणिक साधन उपनिषद ग्रंथ हैं।

उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में एक से अधिक मत प्रचलित हैं। वैदिक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं ज्योतिष गणित के जानकार लोकमान्य तिलक ने उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में उल्लेख किया है। तिलक ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक गीता रहस्य (पृष्ठ 552) में उपनिषदों का रचनाकाल 1500 से 2000 वर्ष ई.पू. अर्थात् आज से 3510 से 4010 साल पहले के आसपास माना है। जबकि संस्कृत साहित्य के अन्य उद्भट विद्वानों एवं इतिहासकारों का मानना है कि इन महानतम व दुर्लभ पुस्तकों को चार हजार वर्षों से भी बहुत पूर्व लिखा गया था। विद्वानों ने अपनी बात की सच्चाई के प्रमाण में ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं। जो कि काफी पुख्ता हैं। अत: निष्कर्ष के रूप में हमें यही कहना चाहिए कि हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए उपनिषद ग्रंथ अद्भुत एवं अमूल्य ज्ञान के अथाह भंडार हैं।

उपनिषदों से सीखें जीवन जीने की कला
आधुनिक मनुष्य के पास पहले की अपेक्षा अधिक सुविधा एवं सम्पन्नता है, इसके बावजूद आज का मनुष्य तनावग्रस्त, अभावग्रस्त एवं भयग्रस्त बना हुआ है। ऐसे में हमें ज्ञान के उस अद्भुत, अमूल्य एवं असीम भंडार के दरवाजे खोलना चाहिए, जिसमें सफल, सुखद एवं समृद्ध जीवन के सूत्र दिए गए हैं। उपनिषदों के ऐसे ही कुछ अनमोल सूत्र इस प्रकार हैं:

1. सदैव सच बोलो, इससे तुम्हारी अधिकांश समस्याएं स्वत: ही मिट जाएगी।
2. धर्म के मार्ग पर चलो। अर्थात् यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन और धर्म की रक्षा करोगे तो धर्म निश्चित रूप से तुम्हारी रक्षा करेगा।
3. स्वाध्याय को जीवन का अनिवार्य अंग बनाओ अर्थात् उत्तम साहित्य का नियमित अध्ययन तथा अपने जीवन के विषय में गहन चिंतन करो।
4. पूर्ण ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए पूरी एकाग्रता से ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करो तथा ज्ञान प्राप्ति के पश्चात ग्रहस्थ में प्रवेश कर कर्तव्यों का पालन करो।
5. जीवन में जब भी कोई शुभ कार्य का अवसर आए तो अवश्य करो। बाद के लिए नहीं टालो।
6. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति एवं प्रगति करने के लिए हर उचित प्रयास करो।
7. वेद, उपनिषद आदि उच्च स्तर के साहित्य का अध्ययन एवं अनुकरण अवश्य करो।
8. नियमित ईश्वर की उपासना एवं माता-पिता की सेवा में कभी भी आलस्य न करो।
9. माता-पिता एवं गुरु में ईश्वर का स्वरूप समझो।
10. अतिथि की उचित सेवा एवं सम्मान करो।
11. कोई अनैतिक, अमर्यादित अथवा अधार्मिक कर्म गलती से भी न करो।
12. अपनी कमाई का एक हिस्सा जरूरतमंद और समाज की भलाई के लिए अवश्य निकालो।
13. ज्ञानी और शक्तिशाली बनो। कमजोर रहना बड़ा भारी पाप है।
14. क्षणिक इंद्रिय सुखों के लिए आत्मसम्मान और आत्मज्ञान को मत ठुकराओ।
15. जीवन के लक्ष्य को खोजो और समय के हर एक अंश का सर्वोत्तम सदुपयोग करो।
16. सभी में एक ही आत्मा समाया हुआ है। अत: सभी के साथ समान एवं उत्तम व्यवहार ही करना चाहिए।
17. अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार व सहनशील रहना चाहिए। अर्थात् स्वयं की गलतियों के प्रति कठोरता एवं दूसरों की गलतियों के प्रति क्षमा भावना होना चाहिए।
18. आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए तप और अहिंसा अनिवार्य है।
19. इंद्रियां ओर मन हमें कभी भी जीवन के उद्देश्य से परिचय नहीं करा सकते।
20. जब तक सच्चा आत्म ज्ञान जागृत नहीं होता। तब तक जीवन में दुख, अभाव एवं अशांति बने ही रहेंगे।

सबसे पुरानी किताबों में जीवन का सार
वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ माने गए हैं। चार वेदों में जीवन के गूढ़ रहस्य छिपे हैं। ये मूलत: विचारों के ग्रंथ है, इस कारण इन्हें सारी संस्कृति विशेष रूप से आर्य संस्कृति का प्रारंभिक ग्रंथ माना गया है। वेद ज्ञान का भंडार है, विज्ञान हो या खगोलशास्त्र, यज्ञ विधि या देवताओं की स्तुति सभी चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) में है। वेद का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान या जानना। वेदों को पूरे विश्व में सबसे पुराने ग्रंथों के रूप में मान्यता मिल चुकी है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, श्रुति यानी सुनकर लिखा गया। माना जाता है ऋषि-मुनियों ने इन ग्रंथों को खुद ब्रह्मा से सुनकर लिखा था। वेदों की ऋचाओं (मंत्रों) में कई प्रयोग और सूत्र हैं।

खगोल, विज्ञान, आयुर्वेद, तकनीकी हर क्षेत्र के लिए विभिन्न मंत्र हैं। नासा ने भी वेदों में छिपे ज्ञान को प्रामाणिक माना है। उपनिषदों का रचना काल करीब 4000 साल पुराना है, इस आधार पर यह माना जाता है कि वेदों का रचना काल 5000 हजार वर्ष से भी पूर्व का है।

ऋग्वेद : ऋग्वेद सबसे पहला वेद है। इसमें धरती की भौगोलिक स्थिति, देवताओं के आवाहन के मंत्र हैं। इस वेद में 1028 ऋचाएं (मंत्र) और 10 मंडल (अध्याय) हैं।

यजुर्वेद : यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण। 40 अध्यायों में 1975 मंत्र हैं।

सामवेद : इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं (मंत्रों) का संगीतमय रूप है।
इसमें मूलत: संगीत की उपासना है। इसमें 1875 मंत्र हैं।

अथर्ववेद : इस वेद में रहस्यमय विद्याओं के मंत्र हैं, जैसे जादू, चमत्कार, आयुर्वेद आदि। यह वेद सबसे बड़ा है, इसमें 20 अध्यायों में 5687 मंत्र हैं।

पहले एक ही थे वेद
ऐसा प्रचलित है कि पहले वेद चार भागों में नहीं थे। ये एक ही थे। विद्वानों का मानना है कि महाभारत काल के बाद श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने इन्हें चार भागों में बांटा। उनके चार शिष्य जो अपने समय के महान संत हुए, पैल, वैश्यंपायन, जैमिनि और सुमंतु ने उनसे इनकी शिक्षा पाई थी। इसके बाद इन चार वेदों का ही प्रचलन हुआ। कई विद्वानों का यह भी मानना है कि वेद ब्रह्मा की मानस पुत्री गायत्री से उत्पन्न हुए हैं। गायत्री ही इन वेदों की रचनाकार भी मानी गई हैं।

स्वास्थ्य और भाग्य दोनों पर सीधा प्रभाव डालता है सूर्य
सूर्य ऊर्जा का केंद्र है। मानव जीवन को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। एक छोटे से पौधे को भी पेड़ बनने के लिए जल के साथ-साथ सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है। सूर्य के प्रकाश में विटामीन ई प्रचुरता से विद्यमान होता है। जो त्वचा के लिए उत्तम होता है। प्रात: काल सूर्योदय के समय सूर्य की जो रश्मियां निकलती है। वह स्वास्थ्यवर्धक होती है। उनसे त्वचा, सांस, कफ, पित्त, वात, अनिद्रा, हृदय आदि रोगों में रक्षा होती है।

धर्म शास्त्रों में इसलिए ही प्रात: सूर्य को जल चढ़ाने का विधान किया गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि सूर्य से कभी सीधे नजरें नहीं मिलाना चाहिए। इससे आंखे की रेटिना पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है तथा ज्यादा देर तक सूर्य की ओर देखने से भी नेत्र भी खो सकता है। सूर्यास्त के समय भी सूर्य के दर्शन नहीं करने चाहिए।

वह भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। सूर्य अपनी प्रचण्ड गर्मी से समुद्र, तालाब, झीलों के पानी को वाष्प बनाकर उड़ाता है जो बादल का रूप धकर जीवनदायिनी वर्षा करते हैं। जिससे सभी प्राणियों को अन्न एवं जल मिलता है। यही जल नदियों के द्वारा कई प्राणियों का पोषण करता है। इसी से सूर्य को प्रत्यक्ष देवता माना गया है। जो समुद्र के खारे जल को भी मीठे में परिणीत कर सभी का पोषण करता है। अपने स्वयं के प्रकाश एवं प्रभाव से भी जगत को संचारित करता है।

चौवीस अवतारों में प्रथम
सष्टि के रचनाकार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करने से पूर्व कठोर तप किया। ब्रह्म देव की इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ,सम्पूर्ण विश्व के आधार यानि कि ईश्वर ने सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार के रूप में प्रथम अवतार ग्रहण किया।

एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठनाथ श्री हरि के दर्शन करने हेतु उनके धाम पहुंचे। किन्तु जब उन्होंने जैसे ही मुख्य द्वार में प्रवेश करना चाहा तो जय-विजय नामक पार्षदों ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। वैकुण्ठनाथ के दर्शनों में आई इस रुकावट से दु:खी होकर सनकादि कुमारों ने जय-विजय नाम के उन द्वारपालों को देत्यों के वंश में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब वैकुण्ठनाथ श्रीहरि को सनकादि ऋषि के आगमन और अपमान का पता चला तो वे तत्काल वहां पंहुचे एवं सनकादि कुमारों के प्रति पे्रम एवं स्नेह प्रकट किया। वैकुण्ठनाथ श्रीहरि के अद्भुत,अनुपम एवं अलौकिक सौन्दर्य को देखकर सनकादि कुमार अत्यंत चकित एवं प्रसन्न हुए।

सनकादि ऋषियों के श्राप के कारण ही वैकुण्ठ धाम के पार्षद जय-विजय अगले तीन जन्मों में हिरण्यकश्यपु-हिरण्याक्ष,रावण-कुम्भकरण और शिशुपाल-दन्तवक्र के रूप में जन्मे। एक बार सनकादि कुमार भगवान के अंशावतार महाराज पृथु के पास पहुंचे। महाराज प्रथु ने सनकादि ऋषियों के आगमन को अपना सौभाग्य समझा तथा अत्यंत आदर सत्कार के साथ उनका स्वागत किया। जाते समय सनकादि ऋषियों ने महाराज पृथु को महत्वपूर्ण उपदेश दिया जो कि इस प्रकार है: हे महाराज पृथु सांसारिक सुख-वैभव,धन-ऐश्वर्य,भोग-विलास आदि चीजें इंसान को झूंठी और नकली जिंदगी की और घसीट ले जाती हैं। मनुष्य को हर स्थिति एवं परिस्थिति में हर प्रकार से ईश्वर की समीपता का प्रयास करना चाहिये।मन और इन्द्रियां यदि नियंत्रित एवं प्रशिक्षित नहीं हैं तो ये मनुष्य को बर्बादी के ही रास्ते पर धकेलते हैं।

चिर बालपन: सनकादि ऋषि, < हरि शरणम > मंत्र के जप प्रभाव से सदा पांच वर्ष के कुमार ही बने रहते हैं। सनकादि कुमार कहते हैं कि विद्या के समान कोई नैत्र नहीं है। सत्य के समान कोई तप नहीं है। राग के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। त्याग से प्राप्त सुख सच्चा एवं एवं स्थाई होता।

जानें, क्या है शिव का तृतीय नेत्र ?
भगवान शिव जितना अपने कर्मों से अद्भुत हैं उतने ही अपने स्वरूप में भी रहस्यमयी हैं। भक्ति से प्रसन्न हो जाएं तो उनसे ज्यादा कोई भोला नहीं। अधर्म और अनीति देख कर यदि चिढ़ जाएं तो उनसे बढ़कर कोई क्रोधी और महाकाल नहीं। जाने कितनी ही विचित्रताएं और अनोखापन देखने को मिलता है भगवान शिव में । ऐसी ही एक विचित्रता है- भगवान शिव की तीसरी आंख। दो आंखें तो सभी देवताओं की हैं। तो फिर भगवान शिव के तीसरे नेत्र का रहस्य क्या है? यहां हमे गहराई और बारीकी से चिंतन करने की जरूरत है। भगवान के चित्रों में हम जो तीसरी आंख देखते हैं वास्तव में वह एक प्रतीकात्मक नेत्र है। नेत्र का कार्य होता है रास्ता दिखाना तथा मार्ग में आने वाले संकटों और अवरोधों से हमें सावधान करना। किन्तु जीवन में कई बार कुछ ऐसे संकट भी आते जिन्हें देख पाना इन स्थूल दो नेत्रों के वश में नहीं होता। ऐसे समय में विवेक ही होता है जो एक सच्चे मार्गदर्शक की तरह हमें आने वाले अदृष्य संकटों से आगाह करता है। यह विवेक ही चित्रों में शिव के तीसरे नेत्र के रूप में दिखाया जाता है। जिसे अन्त:प्रेरणा या इन्ट्यूशन कहा जाता है वह और कुछ नहीं विवेक ही है। अब क्योंकि भगवान शिव तो विवेक के साक्षात विग्रह ही हैं इसलिए चित्रों में उन्हैं त्रिनेत्र धारी बताया जाता है । भगवान शिव के चित्रों में जहां पर तीसरा नेत्र दर्शाया जाता है वह स्थान आज्ञाचक्र का केन्दस्थान है। यह आज्ञाचक्र ही विवेकबुद्धि का स्रोत भी है।

भारतीय सनातन धर्म के संवाहक
भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति को आज निर्विवाद रूप से प्राचीनतम माना जाता है। सनातन धर्म और संस्कृति को विश्व में सर्वाधिक प्राचीन होने का गौरव और प्रमाण दिलाते हैं ये बहुमूल्य ग्र्रंथ। इन ग्रंथों में समाया हुआ अनमोल और अद्वितीय ज्ञान विश्व भर में अनूठा है और अपनी अलग पहचान रखता है। वास्तव में ये ग्रंथ ही भारतीय सनातन धर्म के संवाहक हैं। इन अद्भुत और विलक्षण ग्रंथों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं-

वेद- इसका अर्थ है ज्ञान। ये प्राचीनतम् भारतीय ग्रंथ हैं। रचनाकाल 7000 साल पुराना है। संख्या चार हैं।

उपनिषद- वेदों के ज्ञान की विस्तृत चर्चा (डिटेलिंग) उपनिषदों में है। इनकी संख्या 108 मानी जाती है।

पुराण- पुराणों का संपादन महर्षि वेद व्यास ने किया। प्रमुख पुराण 18 हैं।

रामायण- महर्षि वाल्मीकि ने लिखी। उपलब्ध कई रामकथाओं में रामायण एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसके लिखने वाले भगवान राम के समकालीन माने जाते हैं।

भागवत- महापुराण है। इसमें भगवान विष्णु के 24 अवतारों की कथा है। मुख्य रूप से कृष्ण चरित्र का वर्णन है।

गीता- गीता महाभारत का हिस्सा है। 18 अध्यायों वाली गीता भगवान कृष्ण की वाणी है।

महाभारत-कौरवों और पांडवों की कथा है। इसे वेद व्यास ने लिखा। इसमें एक लाख श्लोक माने गए हैं।
रामचरितमानस- इसकी रचना करीब 500 साल पहले गोस्वामी तुलसीदासजी ने की। इसमें भगवान राम का जीवन चरित्र है।

असीम आत्मबल पाएं त्रिकाल संध्या से
एक समय ऐसा भी था जब संध्या पूजा को दैनिक जीवन का अभिन्न एवं अनिवार्य हिस्सा माना जाता था। संध्या पूजा के प्रति इस समर्पण भाव का ही यह परिणाम था कि मनुष्य सौ वर्षों तक तन, मन और धन से सम्पन्न होकर जीवन जीता था। नियमपूर्वक संध्या करने से इंसान पाप रहित हो जाता है। पापरहित होने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

नियमित संध्या पूजा करने वाले साधक को अटूट आत्मविश्वास और असीम आत्मबल की प्राप्ति होती है। रात या दिन में जो बुरे कर्म हो जाते हैं,वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते हैं। संध्या नहीं करने से पुण्यकर्म का फल नहीं मिलता। समय पर की गई संध्या इच्छानुसार फल देती है।

प्रात:काल संध्या पूजन, मध्यान्ह संध्या पूजन व सायं संध्या पूजन एवं विनियोग के मंत्र अलग हैं। सूर्य उपस्थान की मुद्रा बदल जाती है। प्रात:काल ब्रह्मरूपा गायत्री, मध्यान्ह में विष्णुरूपा गायत्री तथा सायंकाल शिवरूपा गायत्री का ध्यान किया जाता है। सायं सांध्य पूजन में दीप-अर्चना और आरती का भी विशेष महत्व बताया जाता है। आरती से पूजन में हुई भूल की पूर्ति हो जाती है।

कौन व क्या हैं भगवान कालभैरव ?
भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना। भैरव को शिव के द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।

'रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन करता हूं।'- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप का परिचय हमें मिलता है।

कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त होती है-
एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योतिप्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने पुरुष का एक आकार देखा। तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल था, सर्प और चंद्र के अलंकार धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा। इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।

देवी-देवता, कल्पना या हकीकत?
देवता शब्द का अर्थ होता है देनेवाला। देवी-देवता संबधी मान्यता भारत में हजारों साल पहले से प्रचलित रही है। ऐसा करके प्राचीन मनुष्य ने अपनी सूक्ष्म और वैज्ञानिक बुद्धि का ही परिचय दिया है। सूक्ष्म और न दिखने वाली प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओं का प्रतीकात्मक रूप प्रदान किया गया। देवता मुख्यत: तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, पौराणिक और लोकदेवता। मोटे तौर पर लोकदेवताओं का वेद-पुराणों में या अन्य शास्त्रों में उल्लेख नहीं हुआ है। लेकिन किन्हीं का मूल वेद-पुराणों में ढूढा जा सकता है।

प्राचीनकाल में भारत में आदिवासी-अनार्य भी रहते थे। उनका धर्म आर्यों से कुछ भिन्न था। अनार्य लोग प्राय: भूत-पिशाच, यक्ष, पशु, सर्प (नाग), लिंग इत्यादि को देव मानकर उनकी उपासना करते थे। अनार्यों के ऐसे भयंकर एवं कुछ मलिन देवों का प्रभाव आर्य-देवों पर भी पड़ा। इसके उपरांत सतीप्रथा, वीर पूजा, नारीशक्ति प्रभाव,कुदरत के रहस्य समझने की अशक्ति, भय इत्यादि कारणों से सती,वीर, पीर, क्षेत्रपाल, नाग, देव-देवियों के विभिन्न ग्राम्य-स्वरूप, स्थान-देवता, ग्राम देवता, कुल देवता आदि का ख्याल अस्तित्व में आया। इसतरह ऐसे असंख्य लोक देव-देवियां भारत के सभी भूभागों में विभिन्न नामों से बहुधा सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी जातियों में, लोक समाज में व्याप्त हो गए, लोक समुदाय श्रद्धापूर्वक उनकी सीधी-सादी उपासना करने लगा। आज भी लोगों में लोकदेवताओं के प्रति प्रबल श्रद्धा है

क्यों लड़ते हैं देवता और असुर ?
परमात्मा ने सुख प्राप्ति के लिए इन्द्रियाँ बनायी हैं। इन्द्रियों के माध्यम से मन ही सुख भोगता है। स्मरण-शक्ति के कारण मन पूर्व में भोगे गये सुख को याद रखता है। इस सुख को पाने के लिए मन अनुचित साधन भी अपना लेता है। ईश्वर ने मन को देवत्व प्रदान किया है। किन्तु इन्द्रिय सुख की प्रबल कामना मन को असुर बना देती है। असुर का अर्थ है बुराई को गति देने वाला। अच्छे संस्कारमन को अच्छाई या देवत्व के गुण अपनाने को प्रेरित करते हैं। इन्द्रिय सुख का लोभ मन को बुराई की ओर ढकेल देता है जिससे कोई इंसान बलात्कार, छल, कपट आदि में संलग्न हो जाता है। दो विपरीत धाराओं में मन का जाना ही देवासुर संग्राम है। मन ही देवता है, मन ही राक्षस है। मानसिक द्वन्द्व को ही देवासुर संग्राम की प्रतीकात्मक भाषा में बताया गया है।

आखिर कहां है पाताल लोक?
जितना व्यापक और विस्तृत हिन्दू धर्म है, उसमें उतनी ही अद्भुत और विलक्षण बातें भी हैं। स्वर्ग-नर्क, आकाश-पाताल, इन्द्रलोक, देवी -देवता ये ऐसी बाते हें, जिनपर सहसा विश्वास तो नहीं होता किन्तु आश्चर्य अवश्य होता है। यदि पाताल लोक की ही बात करें तो हम देखते हैं कि हिन्दू धर्म के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात प्रकार के पाताल होते हैं। विष्णु पुराण में भी सात प्रकार के पाताल लोक बताए गए हैं। विष्णु पुराण की मान्यता है कि यह समस्त भूमण्डल पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है। इसकी ऊंचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात पाताल प्रकार के पाताल नगर हैं। ये पाताल लोक इस प्रकार से हैं:-
अतल, वितल ,नितल ,गभस्तिमान ,महातल ,सुतल ,पाताल

क्या सिखाता है महाभारत का  चित्र......
'गीतोपदेश' विहंगम दृश्य और झिंझोड़ता सबक दोनों तरफ लाखों-करोड़ों की सेना। दोनों ही पक्षों में ऐसे सेकड़ों योद्धा जो अकेले ही युद्ध का परिणाम बदल दें। युद्ध के अंतिम निर्णायक तो श्री कृष्ण ही थे। किन्तु कृष्ण के अतिरिक्त पांडव पक्ष का सारा का सारा दारोमदार अर्जुन पर ही था। वही अर्जुन अचानक मोह और कायरता से ग्रसित यानि कि संक्रमित हो गया। ऐसे में श्री कृष्ण, जो कि अधर्म का विनाश करने ही अवतरित हुए थे को सक्रीय होना पड़ा। लगभग पूरी तरह हताश हो चुके अर्जुन को विष्णु अवतार गोविंद ने इंसानी जिंदगी के जो सूत्र दिये वे आज भी कालजई हैं। महाभारत के उस अद्भुत और अद्वितीय दृश्य से जो अनमोल सबक मिलते हैं, वो इंसान को जिंदगी का महाभारत जीतने का रहस्य दे जाते है:-

- स्वयं श्री कृष्ण इंसान को विश्वास दिलाते हैं कि यदि हम न्याय और कर्तव्य के रास्ते पर हैं, तो वो खुद हमारे जीवन रथ की लगाम अपने हाथ मे ले लेंगे।

- जीवन है तो संघर्ष भी है। धर्म, न्याय और कर्तव्य की रक्षा के लिये यदि युद्ध भी करना पड़े तो जरूर करना चाहिये।

- इंसान को ईश्वर ने संघर्ष करने और शक्तिवान बनने ही भेजा है। संघर्षों से मुक्त सीधी सरल और आसान जिंदगी कोरी कल्पना के सिवाय कुछ भी नहीं।

- मोह इंसान को कायर और कमजोर बनाता है अत: इस पर सदैव नियंत्रण रखें।

- धर्म, न्याय और कर्तव्यों के लिये जो इंसान, अपनी जान हथेली पर रख कर लडऩे को तैयार हो जाता है उसे धन, मान-सम्मान और प्रसिद्धि अपने आप ही मिल जाती है।

- किस्मत हमेशा संघर्ष करने वालों का ही साथ देती हैं। यह सौ फीसदी सत्य है कि भगवान भी उसी की सहायता करता हैं जो स्वयं अपनी मदद करता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK