Wednesday, October 31, 2012

Role (भूमिका)

भूमिका
आग अर्थात् अग्नि के बार में सभी जानते हैं, इसका महत्त्व भी सभी समझते हैं। शास्त्रों के अनुसार अग्नि सात प्रकार की है, तो कुछ जगह अग्नि की सात जिह्वा मानी गई है। वेदों में अग्नि के अनेकों नाम हैं, किन्तु योग-शास्त्र के अनुसार अग्नि के नाम- क्रोधाग्नि, कामाग्नि, ज्ठराग्नि आदि। योग-शास्त्र के अनुसार सभी अग्नियों में कामाग्नि की भूमिका महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जब यह कामाग्नि ऊर्ध्वगामी हो जाती है, तो यह ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। जब यह हमारे नाभि-स्थल में स्थित मणिपुर-चक्र में पूर्ण रूप से जाग्रत हो जाती है और आज्ञा-चक्र की तरफ अग्रसर होती है, तो यही कुण्डलिनी-शक्ति होती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण भी कहते है।

(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > पराशक्ति > परब्रह्म)
या
(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > नादब्रह्म > ज्योति ब्रह्म)

कामाग्नि का ही पवित्र रूप प्रेमाग्नि है। यह प्रेम, प्यार या इश्क जब किसी विपरीत लिंगी के प्रति होता है, तो प्रारम्भ में वह प्रेमाग्नि के रूप में होता है और बाद में यह पवित्र-प्रेम कामाग्नि में बदल जाता है। जब यह इश्क या प्रेम परमात्मा के प्रति होता है, तो यह प्रेमाग्नि बाद में ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। इसलिये कहा गया है कि

ये इश्क नहीं आसाँ, इक आग का दरिया है।
डूब के नहीं, तैर के उस पार निकलना है।।

आगे कहा गया है कि
इश्क ने गालिब हमको निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी थे आदमी काम के॥
  
हम परमात्मा के प्रेम में कितने पागल है या परमात्मा के प्रति हमारे हृदय में कितनी प्रेमाग्नि प्रज्वलित है। इसी आधार पर हमें परमात्मा की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में भक्ति मार्ग को श्रेष्ठ बताया गया है, इसी भक्ति के दो पुत्र कहे गये हैज्ञान और वैराग्य। जहाँ कलयुग में भक्ति के हजारों उपासक हुऐ हैं, वहाँ ज्ञान और वैराग्य के बहुत कम उपासक हुये हैं। भक्ति की पूर्णता ज्ञान और वैराग्य के बिना असम्भव है। सही मायने में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य एक दूसरे के पूरक है। भक्ति उपासकों में जहाँ भक्ति कि प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर ज्ञान और वैराग्य अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते है। इसी प्रकार ज्ञान और वैराग्य के उपासकों में जहाँ ज्ञान और वैराग्य की प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर भक्ति अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहती है।

भक्ति, ज्ञान और वैराग्य कि परिभाषायें यों तो अनेकों ही उपासकों ने की हैं। किन्तु इन परिभाषाओं में से जो श्रेष्ठ हैं, वह परिभाषा हम सभी साधकों को समझाने की कोशिश करेंगे -

भक्ति(नवधा-भक्ति)
श्रवणं कीर्तनं विष्णों स्मरणं पाद सेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यम् आत्म निवेदनम्॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
गुर पद पंकज सेवा तिसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करई कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखई परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥

ज्ञान
शुभेच्छा अर्थात् विवेक वैराग्यकी स्थिति।
विचारणा अर्थात् श्रवण मनन की अवस्था।
मनुमानसा अर्थात् पंचभूतात्मक देह अनित्य और आत्मा नित्य-शुद्ध-बुद्ध है।
सत्त्वापत्ति अर्थात् अहं स्मिमैं ब्रह्म हूँ, इस धारणा को दृढ़ करना।
असंसक्ति अर्थात् नाना विधि सिद्धियों की ओर से अनासक्ति।
पदार्थाभाविनी- अहं ब्रह्मास्मिभी तो एक अहंवृत्ति ही है, अतः इसका भी लय होना।
तिर्यगा अर्थात् आत्मस्वरूप से न उठना।

वैराग्य
मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चौर।
मन के मत चलिये नहीं, पलक पलक मन और॥

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरू पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदग द गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ कर-उँ सदा बिश्राम॥

कलयुग के अन्दर भक्ति तो सभी करते हैं, किन्तु ज्ञान और वैराग्य ना के बराबर है। कोई भी साधक कितनी ही भक्ति कर ले, लेकिन जब तक उस के अन्दर वैराग्य नहीं होगा तब तक उसे ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, और बिना ज्ञान की प्राप्ति के परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है। इसलिये हमें भक्ति और वैराग्य का सहारा ले कर ज्ञान को पाना होगा। तभी परमात्मा की प्राप्ति है। किसी भी चीज के पाने हेतु हमारे मन में लगन की जरूरत है। किसी भी काम को हम जितनी लगन से करेंगे, उसका प्रभाव वैसा ही होगा और जिस काम को हम बे-मन से करेंगे उसका प्रभाव वैसा ही होगा। इसलिये हमें अपने अन्दर ज्ञान की आग पैदा करनी होगी।

जब तक हमारे अन्दर ज्ञान की ज्योति प्रकट नहीं होगी, तब तक हमें सही-गलत और अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होगा। आज का साधक दिन रात भक्ति में, पूजा-पाठ में लगा हुआ है, किन्तु उसके मन में, उसके विचारों में और उसकी अपनी खुद की सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। जैसे की हम अपने बच्चों को कहते हैं, कि तुम ज्यादा से ज्यादा शिक्षा को प्राप्त करो, जिससे कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो।

लेकिन बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति लगन होनी आवश्यक है। जब तक बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लगेगा, वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकता। उसी प्रकार ज्ञान रूपी शिक्षा पाने के लिये साधक के हृदय में परमात्मा के प्रति लगन अर्थात् आग पैदा होनी चाहिये। जब ये लगन रूपी आग लगती है, तो सब कुछ जला कर स्वाहा कर देती है। साधक के अन्दर परमात्मा को पाने के लिये जितनी तेजी से प्रेमाग्नि प्रज्वलित होगी, उतनी ही जल्दी साधक को परमात्मा की प्राप्ति होगी। जब यह अग्नि हमारे अन्दर पूरी तरह से धधक उठेगी, तो हमारे पूर्व जन्म और इस जन्म के सभी पाप-ताप जल कर खाक हों जायेंगे। मृत्यु उपरान्त शरीर के खाक होने पर राख बनती है, किन्तु जीते जी तमाम पाप और ताप के खाक होने पर परमात्मा रूपी ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है।

सनातन धर्म के अनुसार पुरूष, प्रकृति और जीव कि उत्पत्ति एक साथ मानी गई है। सनातन धर्म के अनुसार ये तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। पुरूष को परमात्मा, प्रकृति को शक्ति और जीव को 84 लाख योनियों में बाँटा गया है। अनादि काल से ही समय के प्रवाह के अनुसार अनेकों ही सन्तों एवं महापुरूषों का जन्म हुआ। जिन्होनें पुरूष, प्रकृति और जीव कि अलग-अलग परिभाषायें अपने-अपने समय के अनुसार अपने भक्तों या आम व्यक्तियों को समझाई। इसी प्रकार धीरे-धीरे अध्यात्मिक क्षेत्र दो भागों में बट कर रह गया। एक द्वैत-वाद और दूसरा अद्वैत-वाद्। इन दोनों में भी अनेकों ही शाखाओं ने जन्म लिया, जैसे की साँख्य-योग, ज्ञान-योग, राज-योग, हठ-योग, भक्ति-योग एवं लय-योग आदि। धीरे-धीरे समय का चक्र चलता गया और विभिन्न शाखाओं को मानने वालों ने धीरे-धीरे अपना अलग मत, पंथ या धर्म बना लिया।

हमारी कोशिश एक बार फिर से सभी धर्मों को इकट्ठा करने की है। पहली बार यह कोशिश सिख गुरूओं ने की थी, “गुरू ग्रंथ साहबकी रचना करके। गुरू ग्रंथ साहबमें सभी मतो एवं सभी धर्मों के महापुरूषों के पवित्र शब्दों को इकट्ठा करके लिखा गया। किन्तु बाद में कारण जो भी रहा हो, लेकिन आज के समय में गुरू ग्रंथ साहबपर सिखों का एकाधिकार है। शायद इसका एक मूल कारण गुरू ग्रंथ साहबका गुरमुखी भाषा में लिखा होना हो सकता है।

परमात्मा और धर्म तो एक दूसरे से बंधे हुऐ हैं और यह दोनों नित-नये हैं। चाहे हम नानक की बात करें या कबीर की, महावीर की या महात्मा-बुद्ध की, कहने का तात्पर्य यह है कि जितने भी पूर्ण-सन्त हुऐ उनकी अपनी भाषा और अपने शब्द थे। चाहे वो सन्त किसी भी जाति या धर्म से सम्बन्ध रखता हो, किन्तु फिर भी उसने उस परमात्मा कि व्याख्या या बड़ाई करते वक्त अपनी भाषा और अपने शब्दों का हमेशा इस्तेमाल किया। चाहे समाज के ठेकेदारों नें इन संतो को पत्थर मारे या सत्-गुरू अर्जुन देव जी जैसे पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी महा-पुरूष को गरम तवे पर क्यों न बिठा दिया, किन्तु ये महा-पुरूष हमेशा ही कठिन से कठिन सजा को हंसते हुऐ सह गये और हमेशा ही नित-नये परमात्मा को अपनी भाषा और अपने शब्दों में परिभाषित करते गये। पूर्ण-सन्त का काम आँखों देखी कहने का है।

सच्चा सन्त जो भी परमात्मा की लीला अपने ह्रदय में देखता है, और उसी को अपने शब्दों में बोलता है, न कि पढ़कर या इधर-उधर से सुने हुऐ शब्दों को। सन्त के अपने शब्द अपने लिऐ होते है, किन्तु कभी-कभी कुछ खास भक्तों के उद्धार के लिऐ परमात्मा की आज्ञा अनुसार वे सन्त उन शब्दों को आम व्यक्ति पर प्रकट करता है। जिन भक्तों के लिऐ या यों कहें कि जिन खास शिष्यों के लिऐ वे शब्द होते हैं, वे शिष्य तो उन शब्दों को समझ कर अपनी मंजिल अर्थात् परमात्मा को पा लेते है, किन्तु जिन व्यक्तियों के लिऐ वे शब्द नहीं होते, वे उन्हें नहीं समझ पाते और उस पूर्ण-सन्त में हजारों कमियाँ निकालते हैं।

अनादि-काल से आज तक जितने भी महापुरुष हुऐ हैं, उनकी तो दृष्टि मात्र से पापी से पापी व्यक्ति भी मुक्ति को प्राप्त कर लेता था, किन्तु आज के समय में ऐसे सन्त ना के बराबर हैं, और जो थोड़े-बहुत हैं, वे शिष्य की योग्यता के अनुसार उसके ऊपर दृष्टि-पात करते हैं। किन्तु जो अयोग्य शिष्य होते हैं, वे या तो अपने भाग्य को कोसते है या भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं। कोई भी शिष्य गुरू के अयोग्य कहने पर एकलव्य बनने की कोशिश नहीं करता। यदि कोई भी साधक एकलव्य की तरह दृढ़-निश्चय कर ले तो वह अर्जुन से भी अधिक सर्व-श्रेष्ठ धनुर्धर बन सकता है।

किन्तु आज का साधक अपने अन्दर इतना उलझ गया है, या यों कहें कि अपने आपको हीन भावना से इतना अधिक ग्रस्त पाता है कि वह स्वयं में कुछ भी करने को तैयार नहीं है। आज का साधक हमेशा ही ऐसे गुरू-रूपी कंधे की खोज में लगा रहता है, जिसके ऊपर बन्दूक रख कर निशाना साध सके, और जब किसी पूर्ण-गुरू की प्राप्ति नहीं होती तो साधक गुरूओं के ऊपर या अपने भाग्य के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप करता है। किन्तु स्वयं हिम्मत करके आगे बढ़ने कि कोशिश कोई नहीं करता। कहा गया है कि- जिन खोजा तिन पाईयाँ ॥ लेकिन आज का साधक बिना खोजे ही उस परमात्मा को पाना चाहता है।

हमारी कोशिश ऐसे ही साधकों को उस परमात्मा को खोजने पर मजबूर करने की है। जो साधक कहते है, कि हमें कोई बताने वाला या समझाने वाला नहीं है, हमें कोई सत्य का मार्ग दिखाने वाला नहीं है। हमारी कोशिश ऐसे ही अंधेरे में भटकने वाले साधकों को रास्ता अर्थात् प्रकाश दिखाने की है। हम सभी धर्मों एवं जाति के साधकों के लिये अति सहज आध्यात्मिक मार्ग दिखाने की कोशिश करेंगे, जिसके द्वारा सभी साधक परमात्मा के दिव्य-स्वरूप और उसके अनहद-नाम को देख व सुन सकें।

हम सभी धर्मों एवं जातियों व उनके महापुरुषों को कोटी-कोटी नमन् करके उनसे अपने और आप सभी के लिये यही प्रार्थना करते हैं कि वह हम सब को सत-धर्म का मार्ग दिखलाऐं और हमारे हृदय में प्रकाश करे एवं हम सभी के मानसिक, वाचिक तथा समस्त पापों का नाश करे। हम सब उन पूर्ण-महापुरुषों कि तरह उस परमपिता-परमात्मा का साक्षात्कार कर सके तथा पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करें।

हमारा उद्देश्य है कि एक ऐसे धर्म-स्तंभ की स्थापना की जाऐं, जहाँ पर किसी भी मत, पंथ, धर्म या जाति का व्यक्ति अपने-अपने धर्मानुसार पूजा-पाठ आदि कर सके। जहाँ पर किसी भी जाति या धर्म का एकाधिकार ना हो।

हमारा उद्देश्य है कि एक ही छत के नीचे और पवित्र सर्व-धर्म-स्तंभ के सम्मुख वेद-शास्त्रों के मन्त्र, कुराण की आयतें, गुरू ग्रंथ साहब की बाणी, बाईबल की प्रार्थना, कबीर के शब्द, बौद्ध-मन्त्र और जिन-वाणी आदि का एक साथ उच्चारण हो और सभी धर्मों की पवित्र-ज्योति को इस सर्व-धर्म-स्तंभ में स्थापित किया जाये। जिससे कि किसी भी धर्म या जाति का व्यक्ति किसी भी प्रकार से अपने साधारण से साधारण यम-नियमों का पालन करके उस परमात्मा की स्तुति करके आसानी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर सके।

हमारी सत-धर्म पर चलने की इस कोशिश मे आप सभी भक्त-जन हमारी मदद करेंगे ऐसा हमारा विश्वास है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Tuesday, October 23, 2012

Prakarti (प्रकृति)

प्रकृति से सीखें जीने की ये कला...
प्रकृति हमें कई चीजें सिखाती हैं। ये हमें उपहार देती भी है और लेती भी। हर मौसम, हर ऋतु, हमें जीवन का कोई अनमोल सूत्र देती है। प्रकृति से हम सबसे पहले देने की कला सीखें। बिना भेदभाव, बिना किसी पूर्वाग्रह के सबको समान रूप से बांटने का तरीका प्रकृति से सीखा जा सकता है।

जीवन में सबके अपने-अपने लक्ष्य होते हैं। लक्ष्य की पूर्ति के लिए खूब परिश्रम भी करना पड़ेगा। ऐसा करते भी हैं, लेकिन इस तेजी और दबाव में हम कुछ चीजें खोने लगते हैं। जिसका महत्व शायद आज पता न लगे, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा कि पछताना पड़ेगा।

चरम पर पहुंचने की गति इस वक्त हर कोई चाहता है, पर अध्यात्म में एक परमगति भी कही गई है। यह एक ऐसी अनुभूति है, जिसमें सारी दुनिया खूबसूरत लगती है और हम खुश रहने लगते हैं।
आज इसलिए भी इसकी चर्चा की जा रही है कि सावन माह आरंभ हो चुका है। अब प्रकृति हमें देने की तैयारी में है। चारों ओर हरियाली है। अब पूरे सावन माह सराबोर होने की तैयारी कर लीजिए। संतों ने कहा है केवल शुद्ध चित्त से ईश्वर नहीं मिलेगा, उसके लिए साधना भी करनी पड़ेगी।

शरीर विज्ञानियों का कहना है कि जब हम आवेग और आवेश में होते हैं तो हमारे भीतर एड्रिनल ग्रंथि को ज्यादा काम करना पड़ता है। क्रोध, कलह, भय इस पर दबाव डालते हैं।

हमारी यह ग्रंथियां डिस्टर्ब होती हैं और इनसे जो डिस्चार्ज होता है, वह हमारे भीतर विकृति पैदा कर देता है। डिप्रेशन का यह साइंस है, लेकिन सावन वह अवसर है, जब बाहर की हरियाली भीतर उतर सकती है। इस समय प्रकृति अपने शुद्ध और श्रेष्ठ डिस्चार्ज में रहती है और इसे हम अपने भीतर उतार लें तब पाएंगे कि एक सावन भीतर भी होता है। जल से शिव अभिषेक केवल एक कर्मकांड नहीं है। सावन माह यह संकेत दे रहा है कि ऐसा ही जलाभिषेक अपने व्यक्तित्व का करिए। प्रफुल्लित, प्रसन्न रहिए। सावन को जमकर जिएं और पिएं।

यह है भगवान तक जाने का सीधा और सरल रास्ता...
सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहना आजकल मजबूरी और फैशन दोनों हो गया है। कुछ लोगों के जीवन में काम तो इस प्रकार हो गए हैं कि कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। फिर महानगरों में तो आवागमन में ही समय का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। शरीर की दौड़-भाग के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा और उदास होने लगता है। बाहर से जो लोग उद्विग्न नजर आते हैं, दरअसल वे भीतर से उदास हैं।

ऐसे में शांतिदायक स्थितियां बाहर से जीवन में आ जाएं, ऐसी उम्मीद करनी बेकार है। तब क्या किया जाए? कामकाज छोड़ना नहीं है। चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता। नाम और दाम कमाना ही है। इसके लिए लगातार प्रकृति से जुड़ने का प्रयास करें।

सूरज को उगता हुआ देखें। उसके ढलने पर चंद्रमा के आगमन पर नजर रखें। परिंदों की हलचल पर नजर डालें। पशुओं में खासकर गाय की गतिविधि को नोटिस करें। नदी को बहता हुआ देखें और रुके हुए पहाड़ पर थोड़ा अपने चित्त को टिकाएं।

तब आप पाएंगे कि प्रकृति वो पगडंडी है, जो परमात्मा तक ले जाती है। प्रतिदिन प्रकृति से जुड़ने का अर्थ है, उस मार्ग की साफ-सफाई करना, जो उस दिव्य शक्ति तक पहुंचने का राजमार्ग है। यह रास्ता ही ऐसा है कि हमारी सुविधा की दृष्टि से पगडंडी में बदल जाएगा, कभी फुटपाथ में बदल जाएगा और कभी राजमार्ग-सा दिखेगा। इसलिए आदत बना लें कि थोड़ी देर पशु-पक्षी, नदी, पहाड़, पेड़-पौधे इत्यादि पर भी टिकें।

संसार में रोज ही नए-नए संकट पैदा होते रहते हैं। कोई एक क्षेत्र इसके लिए तय नहीं होता। इसके समाधान के लिए हमें लगातार प्रयत्न करने होंगे। जब हम एक समस्या से छुटकारा पा रहे होते हैं, तब दूसरी समस्या दस्तक देने के लिए आ रही होती है। लेकिन कई बार हम निराश हो जाते हैं।
विशाल दृष्टि रखकर सोचें। परमात्मा ने इतना बड़ा संसार बनाया, उसमें कोई न कोई संकट आता ही रहता है। इसीलिए वह परमशक्ति लगातार प्रयत्नशील रहती है। धर्मो में अवतारों की कल्पना उसी क्रियाशील शक्ति का प्रतीक है।

अपनी उस शक्ति को सूर्य के रूप में स्थापित करके हमें यह शिक्षा दी है कि अपने तेज प्रकाश को लगातार परिभ्रमण करते हुए सबमें बांटें। धरती न सिर्फ देती है, बल्कि क्रियाशील भी रहती है। धरती सूर्य का चक्कर लगाती है, बादल अपने वेग से चलते हैं। वायु कभी विश्राम नहीं करती। नदियां बाधाओं को पार कर अपने मुकाम समुद्र तक पहुंच जाती हैं।

समुद्र अपनी गहराई तक क्रियाशील है। प्रकृति के ये सारे रूप हमें संदेश दे रहे हैं कि लगे रहो, रुको मत। धर्म और अध्यात्म ने कर्म को इसीलिए तप से जोड़ा है। केवल करने के लिए काम न करें। हमारे यहां साधु-संतों ने भी तप को दो भागों में बांटा है - एक बाहरी तप और दूसरा भीतरी तप। जो कमर्कांड हम करते हैं, धार्मिक रूप से सक्रिय रहते हैं, यह बाहरी तप है, इसमें शरीर जुड़ा हुआ है। लेकिन यह कर्म नहीं, तप कहलाएगा। इसलिए आध्यात्मिक लोग अपना प्रत्येक कर्म तप में बदल देते हैं। यही तप जब भीतर उतर जाता है तो योग हो जाता है।

प्रकृति के इस रूप से सीखें विपरित परिस्थितियों में जीना..
संसार वह दलदल है, जिसमें उतरने पर आप डूबने की तैयारी रखें। जिनके पास आत्मबल होगा, वे आकंठ डूबे होंगे, लेकिन सांस लेने के लिए नाक के छिद्र बचे रहेंगे और दुनिया देखने के लिए आंखें सलामत होंगी। जो पूरे डूब जाते हैं, वे संसार का आनंद नहीं ले पाते और संसार को कोसते रहते हैं।

जब कभी आपको दुनिया काटने लगे, कमल के फूल को हाथ में लीजिए और विचार करिए इसके उगने और खिलने की क्रिया पर। जो खूबसूरत चीज आपके हाथ में है, वह सौंदर्य कीचड़ से निकलकर आया है। कीचड़ यानी संसार की विपरीत परिस्थितियां।

कीचड़ में कोई नहीं रहना चाहता, लेकिन जीवन का सौंदर्य पकड़ना हो तो विपरीत स्थितियों में जीना आना चाहिए। हमारी केंद्रीय सामथ्र्य ऐसी रहे कि हम संसार में रहकर भी संसार को अपने भीतर न आने दें। चूक यहां हो जाती है कि हम समझते हैं धन, भौतिक सफलताएं, सुख ही संसार है।

हमें यह गलतफहमी हो जाती है कि यह सब संसार में ही मिलते हैं या इन्हीं से संसार प्राप्त होता है, जबकि ऐसा है नहीं। आत्मबल का अर्थ है विवेक से ली जाने वाली क्षमता। संसार के भोग और अध्यात्म के योग में एक संतुलन के साथ जीवन में उतरना चाहिए। साधु-संतों की संगत में जब जाएं तो लगातार इस बात पर निगाह रहे कि वे संसार का उपयोग किस प्रकार कर रहे हैं।

अगर सतही तौर पर देखेंगे तो पाएंगे कि वे भी भोग रहे हैं और यहीं से चूक हो जाएगी। थोड़ा गहराई में उतरकर पूर्वग्रह से हटकर देखिए तो आप पाएंगे कि वे संसार में हैं, संसार उनमें नहीं है। इसीलिए उनके भोग में भी योग होगा और हमारे योग में भी भोग रहेगा।

प्रकृति ने यह विशेषता सिर्फ महिलाओं को ही दी है...
एक समय था जब रिश्ते दूसरों को लाभ पहुंचाने के लिए होते थे। फिर वक्त बदला, रिश्ते साझा लाभ के लिए होने लगे और अब वक्त आ गया है, जब निज हित रिश्तों पर हावी हो गया है। सार्वजनिक स्थान पर जब किसी काम के लिए कतार लगती है तो कुछ लोग बीच में घुसने की कोशिश कर रहे होते हैं और जो नियम से खड़े रहते हैं, वे आक्रोश व्यक्त करते हैं।

यह एक सामान्य दृश्य है। कतार में न लगना या पंक्ति तोड़कर आगे जाना कुछ लोगों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन जाता है। आजकल घरों में भी ऐसे कतार वाले दृश्य देखने को मिलते हैं। हर सदस्य दूसरे से जल्दी में है। वक्त आने पर धक्का भी दे रहा है।

परंपराओं की पंक्ति अहंकार के धक्के से तोड़ी जा रही है। लोगों ने घर के बाहर और घर के भीतर के शिष्टाचार की परिभाषा बदल दी है। घर के भीतर अपने ही लोगों के प्रति और उनकी जरूरतों के लिए न तो संवेदनशीलता बचाई जा रही है और न ही जिम्मेदारी निभाई जा रही है।

हमें एक बात समझनी चाहिए कि सार्वजनिक जीवन और पारिवारिक जीवन में एक फर्क होता है माताओं, बहनों की उपस्थिति। प्रकृति ने महिलाओं में ऐसे गुण और आकर्षण को मिलाया है कि उनकी मौजूदगी मात्र से ही वातावरण और हमारे आसपास एक अनदेखा सा अनुशासन आ जाता है।

कुल मिलाकर यह स्त्री की उपस्थिति का आभास है, चाहे वह पत्नी के रूप में हो या और कोई रिश्ते से। उन्हीं की मौजूदगी में घर में शिष्टाचार के अर्थ बदल जाते हैं। यह नियामत प्रकृति ने पुरुषों को नहीं दी है। हमने देखा होगा सार्वजनिक स्थल पर यदि स्त्री मौजूद हो तो लोगों के तौर-तरीके और नीयत बदल जाती है। वैसा ही घर में होता है। इनकी मौजूदगी घर में प्रेमपूर्ण वातावरण बनाती है। इसलिए परिवारों में शिष्टाचार रिश्तों की दृष्टि से निभाए जाने चाहिए।

प्रकृति से भी पाई जा सकती है सिद्धि और शांति..जानिए कैसे
अवर्षा और अतिवर्षा, असमय वर्षा ने वायु का स्वाद भी बदल दिया। सावन-भादौ माह के दौरान प्रकृति जिस रूप में होती है, उसको जीवन से जोड़कर देखिए। इस वर्षाकाल से एक सबक लें कि जब हम गुरुमंत्र प्राप्त करते हैं तो उस मंत्र के साथ भी ऐसा ही करते हैं। या तो मंत्र की अतिवर्षा करते हैं या अवर्षा होती है या असमय वर्षा में उलझ जाते हैं। कई लोग तो गुरुमंत्र इसीलिए लेते हैं कि गुरु बनाने का काम निपट जाए। 

उन्हें लगता है अब उनके जीवन के दायित्व संभालने वाला कोई और आ गया और वे गुरु के प्रति इस तरह से अवलंबित हो जाते हैं, जैसे हम प्रकृति पर। हम प्रकृति का उपयोग भी करते हैं और दुरुपयोग भी। गुरुमंत्र भी हमारे लिए ऐसा ही हो जाता है। बहरहाल, प्रकृति के जितने टुकड़े से हम संबंधित हैं, उसके प्रति ईमानदार रहें। भूगर्भ के वैभव को अपने जीवन का हिस्सा मानें। पेड़ों को कटने से बचाएं, जल को बर्बाद होने से रोकें और वायु को विषमय न होने दें।

आइए, पुन: इन्हें गुरुमंत्र से जोड़ें। गुरुमंत्र सबसे अच्छा सधता है प्राणायाम से। हर सांस के साथ अपने गुरुमंत्र को भीतर लाएं। सांस जब बाहर जाए तो गुरुमंत्र मानसिक जप के साथ बाहर निकले। जब आप सघन प्राणायाम करेंगे तब महसूस होगा कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर वायु कितनी प्रदूषित हो गई है। उसके भीतर का प्राण तत्व हम ही नष्ट कर गए हैं और इसीलिए गुरुमंत्र का प्रभाव भी हम पर नहीं पड़ पाता। प्रकृति को नाराज करके गुरु को कैसे खुश रखा जा सकता है? गुरु की प्रसन्नता उसके मंत्र के सही जप में है। इसलिए वर्षा के इस काल में प्रकृति के रक्षण का संकल्प लिया जाए।

भगवान की कृपा पानी हो तो इस बात को समझें...
उल्टे घड़े पर पानी डालने का मतलब है व्यर्थ प्रयास और जल का अपमान। परमात्मा, प्रकृति के माध्यम से लगातार अपनी कृपा बरसा रहा है, जिसे लेने के हमारे पास तीन तरीके हो सकते हैं।
पहला और सही तरीका यह होगा कि हम स्वयं को खाली रखें, तभी कृपा भर सकेगी। दूसरी बात, हम पहले से भरे हुए हों तो कुछ भरेगा, कुछ छलक जाएगा। तीसरी स्थिति है, उल्टे घड़े की तरह कुछ लेने को तैयार ही न हों।

ज्यादातर मौकों पर हम तीसरी स्थिति से गुजरते हैं। इसी कारण जीवन में जो श्रेष्ठ संग्रहणीय है, उसे बहा रहे हैं। हमारी अति महत्वाकांक्षाएं इस कृपा-जल के लिए नालियों का काम करती हैं। गंदगी नाली का स्थायी भाग्य है। हम जीवन में इस दुर्भाग्य को समझ ही नहीं पाते। परमात्मा की कृपा का हम जितना सम्मान करेंगे, अहंकार से उतनी जल्दी मुक्ति मिलेगी। उसकी कृपा हमारे व्यक्तित्व में सहज विनम्रता ला देती है।

विनम्र लोग कभी-कभी शुष्क, उदास, बोझिल भी हो जाते हैं, पर ईश्वर की कृपा से जुड़कर विनम्रता भी दिलचस्प हो जाती है। हमारी विनम्रता ऐसे में दूसरों को प्रभावित ही नहीं, संतुष्ट भी करेगी। इसलिए उस बरसती कृपा का संग्रहण करते रहें। लोग तो इतना चूक रहे हैं कि घड़े को उल्टा ही नहीं किया, फोड़ ही डाला है।

कइयों के व्यक्तित्व के घड़े में तो इतने छिद्र हो गए हैं कि प्रभु-कृपा के अलावा उनकी अपनी योग्यता भी रिस-रिसकर फिंक गई है। विनम्र व्यक्ति सब स्वीकार करता है। इसलिए प्रभु कृपा स्वीकार करने पर जगत के इनकार की भी सही समझ आ जाएगी।

भगवान कृष्ण से सीखें प्रकृति की बेजान चीजों में भी आनंद के सुर खोजना...
यदि दृष्टि कलात्मक हो, तो निर्जीव वस्तु से भी सौंदर्य पैदा किया जा सकता है। दरअसल हम अपने समूचे जीवन में जड़ वस्तुओं के प्रति अत्यधिक लापरवाह और निष्ठुर होते जाते हैं। हम उनका रख-रखाव या उनसे संबंध स्वार्थ भाव के कारण ही रखते हैं।

हमारा सारा लगाव यूटीलिटी के लिए है, इमोशन से नहीं। धीरे-धीरे यह आदत सजीव लोगों के साथ भी पड़ जाती है। इसीलिए घर-परिवार में भी लोग एक-दूसरे को यूज करने लगते हैं। कृष्ण ने बांसुरी का उपयोग कर एक बड़ा संदेश यह दिया था कि संवेदनाओं की फूंक से लकड़ी की खोखली पोंगरी भी मधुर ध्वनि दे देती है। हमें अपने आसपास पसरी रोजमर्रा की उपयोगी वस्तुओं के साथ न सिर्फ स्वच्छता वरन संवेदना के साथ व्यवहार करना चाहिए।

इनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाए, जैसे ये जीवित वस्तुएं हैं। इसके परिणाम में उनकी उम्र, सौंदर्य एवं गुणवत्ता बढ़ जाएगी। इसके लिए लगातार प्रयोग करने होंगे। एक काम एक ही समय में करें। दरअसल हम भीतर से बंटे हुए रहते हैं। भोजन करें तो सिर्फ भोजन ही करें, हो सके तो उस समय सोच-विचार भी बंद कर दें।

अधिकांश लोग भोजन करते समय वो सारे काम कर लेते हैं, जो पेंडिंग हैं। कहने का आशय यह नहीं कि मौन धारण कर लें, लेकिन फिर भी भोजन और उसकी क्रिया के प्रति ईमानदार रहें। हम भोजन के साथ जिस तरह से कामचलाऊ व्यवहार करते हैं, वैसा ही मनुष्यों के साथ करने लगते हैं। जितना हम जड़ वस्तुओं के प्रति जागरूक रहेंगे, उतने ही हम सजीव वस्तुओं के प्रति प्रेमपूर्ण होते जाएंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK





Sanskaar (संस्कार)

हनुमान से सीखें ये सबसे महत्वपूर्ण संस्कार...
दूसरे का मान रखते हुए हम सम्मान अर्जित कर लें, इसमें गहरी समझ की जरूरत है। होता यह है कि जब हम अपनी सफलता, सम्मान या प्रतिष्ठा की यात्रा पर होते हैं, उस समय हम इसके बीच में आने वाले हर व्यक्ति को अपना शत्रु ही मानते हैं।

महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मनुष्य सारे संबंध दांव पर लगा देता है। आज के युग में महत्वाकांक्षी व्यक्ति का न कोई मित्र होता है, न कोई शत्रु। उसे तो सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करनी होती है। हर संबंध उसके लिए शस्त्र की तरह हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो दूसरे की भावनाओं, रिश्ते की गरिमा और सबके मान-सम्मान को ध्यान में रखकर अपनी यात्रा पर चलते हैं। हनुमानजी उनमें से एक हैं। सुंदरकांड में एक प्रसंग है।

हनुमानजी और मेघनाद का युद्ध हो रहा था। मेघनाद बार-बार हनुमानजी पर प्रहार कर रहा था, लेकिन उसका नियंत्रण बन नहीं रहा था। तब उसने हनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार किया। हनुमानजी को भी वरदान था कि वह किसी अस्त्र-शस्त्र से पराजित नहीं होंगे। उनका नाम बजरंगी इसीलिए है कि वे वज्रांग हैं। जिसे कह सकते हैं स्टील बॉडी।

जैसे ही शस्त्र चला, हनुमानजी ने विचार किया और तुलसीदासजी ने लिखा -

ब्रह्मा अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मासर मानउं महिमा मिटइ अपार।।

अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। यहां हनुमानजी ने अपने पराक्रम का ध्यान न रखते हुए, ब्रह्माजी के मान को टिकाया। दूसरों का सम्मान बचाते हुए अपना कार्य करना कोई हनुमानजी से सीखें।

पिछले जन्मों के संस्कारों का भी हो सकता है ये परिणाम...
अक्सर पूछा जाता है कि दुख दूर करने के सरल उपाय क्या हैं? इसका उत्तर ढूंढ़ने में ही कुछ लोगों ने अपने आसपास और बड़े-बड़े दुख खड़े कर लिए हैं। हमारे शास्त्रों में भी आत्म-साक्षात्कार के जो साधन बताए गए हैं, वे दुख से मुक्ति के ही तरीके हैं। दुख की समझ ही दुख से मुक्ति है। इस समझदारी से आगमन होता है सुख, शांति और प्रसन्नता का।

भारत की संस्कृति ने दुख को समझने के लिए उसे प्रारब्ध से जोड़ा है। प्रारब्ध यानी पूर्व संचित कर्म एवं संस्कारों का परिणाम। ये भोगकर ही पूरे होते हैं। इसी को दुख माना गया है। जीवन में समझ आने पर इनके भोगने की सहनशक्ति आ जाती है। दूसरे हमारे व्यवहार से पैदा होने वाले दुख हैं। इन्हीं में बीमारियां आती हैं। रोगी काया बहुत बड़ा दुख है। तीसरे तरीके से जीवन में दुख मनुष्य द्वारा स्वनिर्मित दुख होते हैं।

डिप्रेशन इसी का परिणाम है। जीवन से दुख मिटाने के लिए अपने व्यक्तित्व को दो भागों में बांटकर देखिए। हमारा एक हिस्सा संसारी होता है और दूसरा संन्यासी। हम संसारी हिस्से पर ही ज्यादा टिके रहते हैं। संसार छोड़ना नहीं है, साथ ही संन्यास को भी पकड़ना है। संन्यास उस समझ का नाम है, जिसमें हम जान जाते हैं कि जीवन में कई ऐसी बातों से हमने स्वयं को जोड़ रखा है जो मरण धर्मा हैं, व्यर्थ हैं, छोड़ने लायक हैं।

तो कुछ ऐसी बातों से स्वयं को जोड़ा जाए जो मृत नहीं, अमृत हैं। जैसे ही हम अमृत से जुड़ेंगे, हमारा हर कार्य अमृत हो जाएगा। हमारा परिश्रम नशा नहीं, पूजा बनकर हमें दुख मुक्त कर देगा। इसलिए अपने व्यक्तित्व के संन्यासी हिस्से को जानने के लिए कुछ समय दीजिए।

अगर परिवार को सुखी रखना है तो इस संस्कार की सफलता जरूरी है....
जीवन की जिन-जिन गतिविधियों पर हमें भविष्य का संदेह बना रहता है, उनमें से एक है विवाह। वर्तमान में विवाह एक संस्कार न होकर दबाव बन गया है।विवाह करने और कराने वाले सभी इस बात को लेकर आशंकित रहते हैं कि भविष्य में शांति मिलेगी या नहीं। अब जो शादियां हो रही हैं, उनमें समूचे परिवार की जिम्मेदारी केंद्र में नहीं है। अब केंद्र में दो व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाएं हैं। सबकी अपनी-अपनी दिशाएं हैं।

इसलिए सहयोग समन्वय से ज्यादा समझ का कारक वैवाहिक जीवन में जरूरी हो गया है। आपसी समझ का उदाहरण शिव-पार्वती के दांपत्य में आया है। आज एक बड़ा समाज महेश जयंती मना रहा है। इस दिन का संदेश यह होना चाहिए कि शिव से सीख लें कि परिवार कैसे बचाया जाता है।

परिवार के तीन कोण हैं - पहला है भोग, जिसका संबंध शरीर से है। दूसरा है संतानउत्पत्ति, जो परिवार से जुड़ता है और तीसरा है भावना, जिससे परिवार में अध्यात्म जगता है। भोग दांपत्य जीवन की आवश्यक बुराई है।

इसलिए रास्ता यह निकाला जाए कि भोग भावना और अध्यात्म से जुड़ जाए। इससे यह हानिकारक नहीं रहेगा। इसलिए शादी और समझ का गठबंधन पहले होना चाहिए, फिर फेरे लगाते समय गठबंधन की बात की जाए। स्त्री और पुरुष का जुड़ाव निरपेक्ष भाव से होगा तो शादी का आनंद ही अलग होगा। पर हमारे यहां विवाह मांग से शुरू होते हैं, मांग से ही चलते हैं और मांगते-मांगते ही खत्म हो जाते हैं। जिसने वैवाहिक जीवन दान से चलाया, जो अपने जीवनसाथी को देने को तयार हो, बस वहीं से सुगंध उठेगी और वहीं से बैकुंठ जागेगा।

परिवार का निर्माण ऐसे संस्कारों की नींव पर करें...
हमने अपने विकास का ढांचा पूरी तरह से पश्चिम देशों से उठा लिया है। 15-20 साल बाद हमारे देश के पास विकास की वही स्थिति होगी, जो आज किसी भी विकसित पश्चिमी देश की है। कामयाबी के सारे शिखर हम छू चुके होंगे, पर सावधान रहना होगा। जो नुकसान पश्चिम ने उठाया, खासतौर पर पारिवारिक जीवनशैली में, कहीं वो हमें न उठाना पड़े।

हमारे पास परिवार और संस्कार ये दो बातें आज भी ऐसी हैं कि हम इनका ध्यान रखते हुए विकास करें। पश्चिम ने विकास किया और नुकसान दिखने के बाद देर हो गई। हमारे पास संभावना है कि हम उस नुकसान के प्रति अभी से सचेत हो जाएं।

हमारे यहां परिवार के केंद्र में माताएं और बहनें हैं। इनका आत्मविश्वास ही हमारे परिवार को बचाएगा। माताओं और बहनों से जुड़ा एक त्योहार है रक्षाबंधन। वे राखी का एक धागा बांधकर अपना प्रेम प्रदर्शित करती हैं, लेकिन हम उन्हें इसके एवज में न तो पूरा सम्मान दे पा रहे हैं और न ही संरक्षण।

अज्ञात भय, अकेलेपन और अवसाद में डूबी हमारी कतिपय माताएं-बहनें घर व बाहर दोनों जगह संघर्ष कर रही हैं। महिलाएं भी अपना रिश्ता भगवान हनुमान से जोड़ें। प्रेम, सेवा, बुद्धि, विवेक और बल के देवता हनुमानजी हैं। जब वे स्त्रियों से भाई, पिता, पुत्र या गुरु के रूप में जुड़ेंगे तो उनके जीवन की गरिमा ही बदल जाएगी।

ये संस्कार आपको सम्मान दिलाता है...
आप अपने ही घर में बुजुर्ग लोगों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे विश्वास से अधिक जिए हैं और नई पीढ़ी पर दृष्टि रखें तो पाएंगे कि ये लोग विचार से जीते हैं। विश्वास से जीने वालों के पास संतोष, धर्य और शांति होती है। वे तर्क के सामने निरुत्तर होते हैं।

गुजरती पीढ़ी से यदि पूछा जाए कि वे आज भी कुछ काम ऐसे कर रहे हैं, जिनका उनके पास जवाब नहीं है तो वे यही कहेंगे कि सारा मामला विश्वास का है। उन्होंने रिश्तों में विश्वास किया है, प्रकृति पर विश्वास किया है और सबसे बड़ा विश्वास उनके लिए परमात्मा है।

नई पीढ़ी विचार को प्रधानता देती है। विचार और विश्वास सही तरीके से मिल जाएं तो आनंद और बढ़ जाएगा। खाली विश्वास एक दिन आदमी को पंगु बना देगा। उसकी सक्रियता आलस्य में बदल सकती है। इस बदलते युग में वह लाचार हो जाएगा और शायद बेकार भी।

खाली विचार से चलने वाले लोग घोर अशांत पाए जाते हैं। श्रीश्री रविशंकर एक जगह कहते हैं - उदारता इसमें है कि जीवन में दोनों का संतुलन हो। विश्वास का अर्थ है स्वयं के प्रति आदरपूर्ण होना। विश्वास और विचार जुड़ते ही हम समग्र के प्रति आदरपूर्ण हो सकते हैं। जब हम कहते हैं कि परमात्मा महान है तो इसका विश्वास में अर्थ है कि सचमुच वो महान है और विचार का अर्थ होगा कि वो महान है इसलिए उसकी कृति के रूप में हम भी महान हैं। हमें उस महानता को याद रखना है और वैसे ही कार्य करने हैं।

किसी को आदर देकर हम स्वयं भी सम्मान पाते हैं। जैसे-जैसे विचार और विश्वास जीवन में मिलते जाएंगे, वैसे-वैसे विज्ञान और धर्म का भी संतुलन जिंदगी में होता रहेगा।

काम को भी सृजन से जोड़िए...संतानें संस्कारी होंगी
भारतीय संस्कृति ने जीवन की कुछ सामान्य क्रियाओं को बड़े ही अद्भुत दर्शन से जोड़ा है। हमने जीवन के हर प्रमुख कृत्य को संस्कार नाम दिया है। जिस इरादे से आप काम कर रहे हैं, वह महत्वपूर्ण है।

परिणाम क्या होगा, इसमें हमारे प्रयास और ईश्वरीय शक्ति को जोड़कर देखा गया है। मनुष्य के शरीर में जो जीवन ऊर्जा होती है, उससे सांसारिक कर्म तो पूरे होते ही हैं, लेकिन संतान उत्पत्ति भी इसी जीवन ऊर्जा का परिणाम है।

इसीलिए इसे काम ऊर्जा भी कहा गया है। जब यह काम ऊर्जा अमर्यादित हो जाती है, तो इसके भीतर की अग्नि मनुष्य के शरीर पर विपरीत असर डालती है। जीवनशक्ति का प्रवाह बड़े से बड़ा पराक्रम करा सकता है और इसी के भीतर की अग्नि काम क्रीड़ा में भी पटक देती है। काम ऊर्जा से जो दहक शरीर में आती है, उसके कारण कई आवश्यक शारीरिक धातुएं जलने और पिघलने लगती हैं।

शरीर में जो आवश्यक तत्व हैं, उनका संतुलन कामाग्नि के कारण बिगड़ने लगता है। इसके संतुलित उपयोग से बुद्धि, विचार, हृदय तीनों ही अद्भुत परिणाम देते हैं, लेकिन इसका असंयमित आचरण देह को खोखला भी बना देता है। इसलिए ऋषि-मुनियों ने काम को भी अध्यात्म से जोड़कर समझाया है।

अतिरिक्त कामाग्नि सबसे अधिक घातक असर मस्तिष्क पर करती है। आदमी की स्मरण शक्ति चली जाती है और उसके विचारों में विस्फोट होने लगता है। उसके संकल्प क्षीण होने लगते हैं। कामुक आदमी किसी भी समय अपने-पराए का बोध छोड़ देता है। इसलिए काम ऊर्जा को जीवन ऊर्जा से जोड़कर सृजन की ओर मोड़ना चाहिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
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Shareer (शरीर)

कैसे रखें दिल और दिमाग के बीच संतुलन? सीखें हनुमान से...

जो भी काम करें, उसे पूरे दिल और दिमाग से करें। इसे सुंदरकांड में हनुमानजी ने समझाया है। जब हम दिल और दिमाग के संतुलन से काम करते हैं, उस समय हमारी वाणी और विचार एक गति से चलते हैं। हमारी वाणी विचार, तर्क और तथ्यों के आधार पर प्रभावशाली बन जाती है। रावण ने अपनी सभा में हनुमानजी से पांच प्रश्न पूछे थे और हनुमानजी ने उसके दस उत्तर दिए थे। सुंदरकांड में हनुमानजी की वाक्शैली और चातुर्य का अद्भुत प्रसंग है। रावण के प्रश्नों का उत्तर देने के आरंभ में हनुमानजी कहते हैं -

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।

जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूं। अपनी बातचीत की शुरुआत में ही हनुमानजी ने रावण को यह स्पष्ट कर दिया कि मैं श्रीराम का दूत हूं। वे परमात्मा को याद करके अपने भाषण का आरंभ कर रहे थे। हम थोड़ा-सा याद करें कि जब हनुमानजी लंका की ओर उड़े थे, तब भी उन्होंने परमात्मा को याद किया था -

यह कहि नाई सबनी कहूं माता चलेउ हरषिही भयउ रघुनाथा।

सबको मस्तक नवाकर और हृदय में रघुनाथ को धारण करके हनुमानजी प्रसन्न भाव से उड़े थे। आज पुन: मैं उन्हीं का दूत हूं’, कहकर उन्होंने श्रीराम को याद किया और रावण को उत्तर देना आरंभ किया। परमात्मा का स्मरण वाणी को निर्दोष और प्रभावशाली बनाता है। एक-एक उत्तर सुनकर रावण चौंकता गया। फिर हनुमानजी तो उनमें से थे, जो अपने शब्दों की जिम्मेदारी भी उठाने को तैयार रहते हैं।

हमारी इच्छाओं के दो दरवाजें हैं एक शरीर, दूसरा मन...
जो चाहें और वह न मिले तो उदासी, निराशा स्वाभाविक है, लेकिन कभी-कभी चाहा मिल जाए, तो भी मन में खुशी नहीं आ पाती। आज तक जिन्हें मिला, उनके नजदीक जाकर देखें तो उन्हें भी मिल जाने पर परेशानी कम होती नहीं दिखी। दरअसल, चाहत का द्वंद्व अलग ही होता है।

चाहत और असंतुष्ट भाव एक साथ चलते हैं। दो द्वार हैं चाहत के, पहला शारीरिक, दूसरा मानसिक। मानसिक चाहत, शारीरिक चाहत से भी खतरनाक होती है। शरीर की चाहतें तो फिर भी पारिवारिक, सामाजिक मान-मर्यादा से नियंत्रित हो जाती हैं, लेकिन मानसिक चाहतें तो शुरू होती ही हैं अमर्यादा के साथ। विचारों में जितनी सात्विकता, सद्गुण और सद्भाव होंगे, मानसिक चाहत उतनी ही नियंत्रित हो जाएगी। भीतर की पवित्रता हमें फकीरों-सी चाहत से जोड़ देगी।

संतों की पवित्रता उनके विचारों और कार्यो में ओतप्रोत रहती है। परमात्मा को भी सैर-सपाटे, क्रीड़ा आदि के लिए मन के ऐसे आंगन पसंद हैं, जो पवित्रता से भरे हुए हों। इसलिए अपनी मानसिक चाहतों पर ज्यादा सजग रहकर उन्हें नियंत्रित करिए।

यह चाहत पसरकर एक दिन भगवान को पाने की भी चाहत में बदल जाती है, जबकि भगवान पाने की नहीं, भगवान होने की कोशिश की जाए। चौबीस घंटे में कुछ समय ऐसा बिताइए, जिसमें कोई चाहत ही न रखें। अपेक्षाहीन जीवन के क्षण। न तो कोइर् मांग रखिए, न चाहत और न ही अपेक्षा। ऐसे हो जाएं जैसे मृतवत हैं। यह शून्यकाल बाकी समय को मस्ती में बदल देगा।

सुखी जीवन की शुरुआत यहीं से होती है...
जीवन में समृद्धि आ जाए तो यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि पूरी तरह से सुख भी आ जाएगा। जैसे यह भी आवश्यक नहीं होता कि जीवन में सुख आ जाए तो शांति भी मिल जाएगी। समृद्धि तक की यात्रा जो लोग करना चाहें, उन्हें समृद्ध के साथ बहुत ध्यान देना होगा।

जितना परिश्रम हम जीवन में समृद्धि लाने के लिए करते हैं, उतनी ही मेहनत जीवन में सुद्धि बनी रहे इसके लिए भी करनी चाहिए। यहां सुद्धि का अर्थ है सदाचार। सदाचार का हमारे जीवन पर दो तरीके से असर होता है। पहला प्रभाव पड़ता है देह पर। सदाचार से शरीर सध जाता है।

आज जिनके पास समृद्धि है, वे अपने शरीर से हाथ धो बैठे हैं। और इसीलिए कई समृद्ध लोग शरीर का सामान्य सुख भी नहीं उठा पाते। सदाचार का दूसरा प्रभाव पड़ता है चरित्र पर, क्योंकि चरित्र बनाने के लिए मन पर नियंत्रण जरूरी होता है।

शरीर यदि संयमित है तो आरोग्य जीवन में आएगा और आरोग्य मन को प्रभावित करता है। बीमार व्यक्ति का मन अविचलित होने लगता है। इसलिए आहार से शरीर को संवारना चाहिए। हमारा खानपान न सिर्फ ताजा, साफ-सुथरा हो, बल्कि हिंसा शून्य भी होना चाहिए। आहार से चूकने पर शरीर और मन दोनों अपने-अपने तरीके से प्रभावित हो जाएंगे।

मन को विकार मुक्त रखने में अन्न की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि विकार युक्त मन जीवन के हर क्षेत्र में, पहलू में, गतिविधि में अकारण उत्तेजना पैदा करता है या फिर उदासीनता ले आता है। मन की सक्रियता उत्तेजना और उदासीनता दोनों से जुड़ी है। इसलिए समृद्धि सदाचार से संयुक्त हो, इसके लिए लगातार सजग बने रहें।

शरीर पर इस तरह का नियंत्रण भी आसान नहीं होता...
इस दुनिया में प्रकृति ने अपनी उपस्थिति से खूब रस भर रखा है। प्रकृति का रसपान जरूर करना चाहिए। हर स्वाद का सम्मान करें, लेकिन जब जीवन के रस अनियंत्रित होने लगें, तब थोड़ा सावधान हो जाएं। जब हम साधन-संपन्न होते हैं, तब भोग की इच्छा भी होती है। शरीर के लिए जितना जरूरी है, उतना भोग तो करना ही पड़ेगा। लगातार एक अभ्यास करते रहिए और वह है अस्वाद व्रत का।

विनोबा भावे कहा करते थे - जीभ का संबंध स्वाद से है, इसलिए जिन्हें जीवन में अस्वाद व्रत का पालन करना हो, वे जीभ को चम्मच की तरह मान लें। चम्मच में मीठी चीज रखें या नमकीन, चम्मच को इससे कोई लेना-देना नहीं होता। वह एक पात्र है, एक माध्यम है।

ऐसा ही व्यवहार और स्वभाव जीभ का बनाया जाए। जिस दिन जीभ चम्मच की भूमिका में आ जाएगी, उस दिन अस्वाद व्रत सधने लगेगा। शरीर को कई रसों की जरूरत होती है और माध्यम बनती है जीभ। इसलिए शरीर की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए जीभ के बैरियर पर कंट्रोल रखें। जिह्वा का नियंत्रण सरल भी नहीं है, इसलिए योग में जीभ के नियंत्रण की भी एक क्रिया है। आंखें बंद करके, कमर सीधी रखकर होंठ बंद कर लें और जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से लगाने का अभ्यास किया जाए। वैसे तो इसके और भी दूसरे परिणाम हैं, लेकिन इससे जिह्वा नियंत्रण में आ जाती है।

इसकी रुचि स्वाद में कम हो जाती है। अस्वाद व्रत हमारे लिए शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से बहुत उपयोगी है। अस्वाद व्रत की संभावना सिर्फ मनुष्य के पास है। इसलिए इस अस्वाद व्रत को भीतर से पैदा करना होगा।

शरीर के साथ ये संतुलन जीवन को सुखी बनाता है...
मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों से बना है, लेकिन इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप से समझना होगा। जीवन में जो भी क्रिया करें, दोनों को समझकर करें। केवल शरीर पर टिककर करेंगे तो जीवन भौतिकता में ही डूब जाएगा और केवल आत्मा से जोड़कर करेंगे तो अजीब-सी उदासी जीवन में होगी।

न बाहर से कटना है और न बाहर से पूरी तरह जुड़ना है। दोनों का संतुलन रखिए। जैन संत तरुणसागरजी दो घटनाएं शरीर से जुड़ी सुनाते हैं।

महावीर स्वामी पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे थे। बच्चों ने आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे और एक महावीर स्वामी को लगा। बच्चों ने कहा - प्रभु! हमें क्षमा करें, हमारे कारण आपको कष्ट हुआ है।

प्रभु बोले - नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। बच्चों ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों? महावीर ने कहा - पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल दिए, पर मुझे पत्थर मारा तो मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सका, इसलिए मैं दुखी हूं। यहां शरीर का महत्व बताया गया है।

आखिर इस शरीर पर किसका अधिकार है? माता-पिता कहते हैं - संतान मेरी है। पत्नी कहती है - मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आई हूं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। मृत्यु होने पर शरीर को श्मशान ले जाते हैं तो श्मशान कहता है - इस पर अब मेरा अधिकार है।
 
चिता की अग्नि कहती है - यह तो मेरा भोजन है। अब आप ही विचार करें कि इस शरीर पर आखिर किसका अधिकार है? इसलिए शरीर और आत्मा को जोड़कर, समझकर जिएंगे तो शरीर का सदुपयोग कर पाएंगे और आत्मा का भी आनंद ले पाएंगे।

विचारों को इस तरह सांस से जोड़ें कि तन और मन दोनों दिव्य हो जाएं
आभूषण कितने ही कीमती या सुंदर हों, लेकिन एक वक्त के बाद उन्हें चमकाना जरूर पड़ता है। केवल इस्तेमाल करने पर ही नहीं, रखे-रखे भी उनकी चमक फीकी पड़ जाती है। सोने को भी निखरने के लिए आग बर्दाश्त करनी पड़ती है। नग-नगीने भी पड़े-पड़े प्रभाव खोने लगते हैं। यही हाल इंसान के व्यक्तित्व और चरित्र का है।

इसे कभी-कभी नहीं, रोज मांजना पड़ेगा, क्योंकि हर सांस गंदगी और सफाई दोनों की संभावना लिए भीतर-बाहर आती-जाती है। सांस लेने का मतलब फेफड़ों में हवा भरना भर नहीं है। यह प्रकृति के प्राणतत्व के पान करने का दिव्य अवसर होता है। कुदरत ने हमें अपने व्यक्तित्व और चरित्र को संवारने के लिए सहज ही सुविधा दी है। फिर भी इंसान है कि दोहरा जीवन जीने लगता है।

बाहर से प्रतिष्ठा और भीतर से पतन, दोनों एक साथ चला लेता है। लोगों के कंधे पर चढ़ ऊंचा पद पाने वाले भीतर से पूरी तरह गिरे रहते हैं। उनकी बाहरी प्रतिष्ठापूर्ण मुस्कान भीतर वासनामयी लहरों से संचालित रहती है। लेकिन सच यह है कि ऐसा बहुत दिनों तक नहीं चल पाता। लोगों को तो धोखा दिया जा सकता है, पर स्वयं से छल कब तक करेंगे! कुछ समय बाद एक ऊब, उदासी और डर शुरू हो जाता है।

अपनी ही छवि, प्रतिष्ठा अपने को ही डराने लगती है। इसीलिए बाहर-भीतर का भेद मिटाकर जिएं। बाहर की प्रतिष्ठा को भीतर के सद्चरित्र से जोड़े रखें। आंतरिक पवित्रता बाहर कभी उदास नहीं रहने देगी। भीतर का मटमैलापन थोड़े दिन में बाहर के सुख को भी ऊब में बदल देगा।

भगवान तब मिलते हैं जब मन, शब्द और शरीर एक हो...
किसी को भी देखने के दो तरीके होते हैं। एक उसे बाहर से, सतह पर, केवल शरीर की आकृति से देखा जाता है। ऐसा हम तब करते हैं, जब हम भी स्वयं के मामले में इसी पर टिके रहते हैं। पर यदि हमने अपने भीतर जल रही ज्योति को देखा, आत्मा को जाना, निजता को निहारा तो हम दूसरों में भी वही महसूस करेंगे। यहीं से हमारा व्यवहार बदल जाएगा। तब हम हर इंसान को उसके बाहरी खोल से नहीं, भीतर के व्यक्तित्व से भी जानेंगे।

परिवार में यह प्रयोग हमें एक-दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण बनाएगा। सुंदरकांड में हनुमानजी लंका से लौटकर श्रीराम को सीताजी द्वारा दी गई चूड़ामणि देते हैं और उनका मार्मिक संदेश सुनाते हैं। श्रीराम की प्रतिक्रिया ऐसी ही है कि मनुष्य केवल बाहर से न देखा जाए।

तुलसीदासजी ने लिखा है-

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना, भरि आए जल राजिव नयना

यानी सीताजी का दुख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया। यहां तीनों पात्र प्रेम, करुणा और अपनेपन से भरे हुए हैं। सीताजी तो परेशान थी हीं, पर हनुमान ने संदेश के प्रत्येक शब्द में भाव भर दिया था। श्रीराम तो संवेदनशीलता की चरम सीमा पर जीते हैं। इसलिए हमारे परिवारों में जब भी किसी पर विपत्ति आए तो सभी को प्रेमपूर्ण होकर उसे निपटाना चाहिए।

इसीलिए श्रीराम ने आगे आश्वासन दे दिया-

बचन कांय मन मम गति जाही। सपनेहुं बूझिअ बिपति की ताही।

मन, वचन, शरीर से जिसे मेरी ही गति, आश्रय है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है!


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK