Tuesday, September 28, 2010

Essence of life(जीवन का सार )

जीवन का सार
पत्ते पर बैठी जल की एक बूंद नीचे बहती नदी के जल को देख रही थी। हहर-हहर करता जल वेग से आगे बढता जा रहा था। उछलती तरंगों से निकलती अनेक बूंदे खेलती हंसती नाचती पुन: नदी के जल में विलीन हो जाती। पत्ते पर बैठी बूंद उदास थी, " ओह, मैं कितनी अकेली हूं ... कोई मेरे साथ खेलता नहीं .... मेरी सुघ नहीं लेता। "
हवा ने उसका रोना सुना। उस पर तरस आया। उसने पत्ते के हिला दिया कि बूंद फिलसकर नदी में जा मिले। बूंद अकर्मण्य थी। वह कसकर पत्ते से चिपक गई, " मुझे गिरने से डर लगता है। वैसे भी नदी के जल में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठूंगी। " नदी जल की बूंद आगे बढ हुई सागर में विलीन होकर शाश्वत में मिल गई। पत्ते पर की बूंद वहीं बैठी-बैठी सूखकर समाप्त हो गई। बूंद की सबसे बडी भूल थी कि वह स्वयं को अपने जन्मदाता जल से अलग मान बैठी। वह भूल गई कि उसका अस्तित्व जल से है। दूसरी भूल थी अर्कमण्यता। वह कर्म करने से डरती रही, अत: नष्ट हो गयी। बूंद और जल का सम्बन्घ आत्मा-परमात्मा के सम्बन्घ के समान है।
इतने बडे विश्व मे बच्चा अकेला आता है। परिवार, समाज में अन्य लोगों से मिल-जुलकर, सीखकर गुवों का विकास करते हुए उन सबका हिस्सा बन जाता है। सबके बीच रहकर भी वह अपना अलग अस्तित्व बनाये रखता है। निरन्तर अच्छे कार्य करता हुआ परमात्मा में विलीन हो जाता है, नदी की बूंदों की तरह।
कृष्ण ने कहा है कि कर्म करना मनुष्य का घर्म है। कर्म किसी इच्छा या उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। शास्त्रों में कहा गया है," ह्रदय से इच्छा रूपी विकार हो निकाल दो। " यह कथन भ्रम की स्थिति पैदा करता है क्योंकि इच्छा रहित ह्रदय सूखे मरूस्थल समान है, जिसमें कर्म रूपी पौघे की एक भी कोपल नहीं खिलती। इस भ्रम का भी कृष्ण ने गीता में स्पष्ट शब्दों में तोडा है ... मनुष्य! तू कर्म कर। कर्म अपरिहार्य है। तेरे अघिकार में सिर्फ कर्म करना है। उसका फल मिलेगा या नहीं, कैसा फल मिलेगा, इसका निर्णय तेरे अघिकार में नहीं है।
इस कथन की सच्चाई प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता है। पुरे मनोयोग से व्यापार शुरू किया, पर व्यापार में सफलता नहीं मिली, मेहनत से पढाई की लेकिन अपेक्षित अंक नही आए। ऎसे अनेक उदाहरण मिलते है। अज्ञानी व्यक्ति अपने अतिरिक्त और सबको दोष देने लगता है। ज्ञानी समझ जाता है, " फल प्राप्ति मेरे अघिकार में नहीं है। " अकर्मण्य व्यक्ति का तर्क उभरता है, " फल मेरे वश में नहीं, तो कर्म क्यों करू। जो प्रारंभ में होगा, मिल जायेगा। " यह असंतगत तर्क है। कर्म मनुष्य का घर्म है। भूखे के सामने खाना रखा है। वह हाथ बढा, निवाला तोडकर मुंह में डालने का कर्म नहीं करता कि किस्मत में होगा, तो खिला देगा। वह भूल गया कि किस्मत में भोजन प्राप्ति लिखी थी। खाने का कर्म तो स्वयं ही करना होगा।
इच्छायें जागकर मनुष्य को कर्म करने क लिए पे्ररित करती है। इच्छा नहीं, तो कर्म नहीं। इच्छाविहीन और विरक्ति, दोनों भाव मनुष्य के भीतर कर्म न करने की सुस्ती पैदा करती है।
दिवाकर के पिता के पास अपार घन-दौलत थी। उसके अक्सर पिता को यह कहते सुना कि उसके पास जितनी दौलत है, आने वाली सात पुश्तें काम न करें, बैठकर खा सकती है। उसके मन में पढ-लिखकर कुछ बनकर, घनार्जन की इच्छा ही खत्म हो गई, जीने के लिए घन चाहिये। पिता के पास इतना घन है ही। मैं क्यों पढे। खाली बैठ समय कैसे गुजरे ? आस-पास सब लोग पढाई में लगे रहते है। अकेला खेले कैसे ? पढाई छोड दी। अच्छी मनोरंजन किताब कैसे बढे ? खाली बैठे टीवी भी कब तक देखे ? पेट में भूख जागे, उससे पहले ही सामने तरह-तरह के व्यंजन परोस दिये जाते। उसकी खाने में अरूचि हो गई। इच्छाविहीन हो वह अर्कमण्य बना। अपने आपमें छटपटाता छोटी उम्र में ही मर गया। इसलिये नदी की बूंदों सरीखा जीवन जियो। नदी जल में मिलकर भी अपना अस्तित्व बचा रखो। जब लहरें उठकर गिरतीं, बूंदे अलग-अलग अठखेलियां करती, आनन्द सहसूस करती, फिर नदी के जल में मिल जाती। अच्छे कर्मो द्वारा अपनी अलग पहचान बनाकर ब्रह्य में लीन होने पर दुनिया याद भी रखती है। मोक्ष भी प्राप्त होता है।
जीवन संघर्षो से न घबराना मनुष्यता है
कई विचारकों का मत है कि अगर हम कोई जोखिम नहीं लेते है, तो वह अपने-आपमें सबसे बडा जोखिम है। यह सही भी है कि ज्यादातर लोग जोखिम लेन से डरते है। इसकी कई वजहें होती है, लेकिन जो सबसे बडी वजह है, वह संकल्प और विचार शक्ति की कमी है।
कहने को तो विचार शक्ति और संकल्प का अभाव जानवरों में होता है, पर जब कोई इंसान बिना विचारे कोई ऎसा काम कर बैठता है, तो कहा जाता है कि वह तो निरा पशु हो गया है। यानी इंसान होकर भी अगर पशुओं जैसी जिंदगी जीएं, तो जीना क्या और मरना क्या ? इसीलिए वेद में कहा गया है- " मनुर्भव, यानी मनुष्य बनो। " इसका मतलब हे कि महज इंसान के वेश में हम इंसान सही मायने में तब तक नहीं होते, जब तक हमारे अंदर इंसानियत के सद्गुण नहीं पैदा होते और जब तक हम अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते।
विज्ञान के मत में इंसान जब से घरती पर पैदा हुआ है, लगातार प्रगति कर रहा है। यह तरक्की इंसान का जानवरों में अलग करती है। घर्म भी कहता है कि इंसान का जन्म लेना, तभी सार्थक है, जब उसमें मनुष्यत्व और देवत्व के रास्ते पर बढने की इच्छाशक्ति और साघना हो। बहरहाल, जोखिम उठाना और जोखिम लेने से घबराना, दोनों ही प्रवृत्तियां हर इंसान में पशुता, मनुष्यता और देवत्व के गुण होते है। शिक्षा, संस्कार, विचार ओर संकल्प-शक्ति जिस व्यक्ति में जिस रूप में होती है, वह उसी तरह बन जाता है। दरअसल, हमारे मस्तिष्क की बनावट ऎसी है, जिसमें विचार की अनंत संभावनायें होती है। लेकिन एक आम इंसान अपनी शक्तियों का एक या दो प्रतिशत ही इस्तेमाल करता है। शक्तियों के समुचित इस्तेमाल नहीं होने के कारण ही किसी व्यक्ति के बेहतर इंसान बनने की संभावना कम होती है। यही वजह हे कि ज्यादातर लोग पूरी जिंदगी पशुओं की तरह ही सिर्फ सोने-खाने में बिता देते है।
पर यहां सवाल यह है कि क्या जोखिम उठाना हमेशा लाभदायक होता है? कभी-कभी तो तमाम जोखिम उठाकर भी लोग ऎसा कार्य कर डालते है, जो न उनके लिए लाभदायी होते है, न परिवार और समाज के लिए, इस बारे में यह कहना उचित होगा कि ऎसा जोखिम उठाना इंसानी संघर्ष का नमूना नहीं, बल्कि शैतान प्रवृत्ति का प्रतीक है। इसलिए जोखिम उठाने से पहले यह विचार जरूर कर लेना चाहिये कि वह हितकर हो सकता है या अहितकारी। मौजूदा वक्त में आतंकवादियों, नक्सलवादियों या इसी तरह की प्रवृत्ति वाले अपराघियों द्वारा हिंसा के सहारे कोई मकसद हासिल करने का काम शैतानी जोखिम के दायरे में आता है। इसके जोखिम भरे कायोंü से सभी को नुकसान ही होता है।
गांघी जी ने कहा था कि " साघ्य और साघक " की पवित्रता से ही व्यक्ति की सफलता का ठीक-ठीक मूल्यांकन हो सकता है। मौजूदा दौर में ज्यादातर लोगों के " साघ्य " और "साघन" दोनों अवित्र है। इसलिए जो कुछ हासिल हो रहा है, उसे मानवीय संघर्ष का परिणाम नहीं कह सकते है। यानी जोखिम जरूर उठायें, लेकिन साथ ही, यह भी देखा जाए कि यह जोखिम भरा काम खुद के लिए, समाज के लिए राष्ट्र और समूचे संसार के लिए सकारात्म है या नकारात्मक।
यह कैसे तय हो कि कौन सा काम सकारात्मक नतीजे वाला हो सकता है और कौनसा नकारत्मक नतीजे वाला ? यानी किस काम को किया जाए और किसे छोडा जाए ? इसका जवाब यह है कि महापुरूषों के आरचरण और वेद-पुराणों में दिए गए दृष्टांत इस काम में हमारी मदद करते है। उनके मार्गदर्शन से हम सही या गलत का फैसला कर सकते है।
अपन विवेक का इस्तेमाल करते हुए जीवन संघर्ष से घबराए बिना जब हम एक सकारात्मक नतीजे दे सकने वाले जोखिम का चुनाव करते है, तो वास्तविक अर्थ में हम हर प्रकार से दैविक, भौतिक संकट को दूर कर सकते है। यही सच्ची मनुष्यता है और मनुष्य होने के नाते हमें इसी नीति का पालन करना चाहिये।

मनीष

Monday, September 27, 2010

Master student stories (गुरु-शिष्य कथाएं)

Master student stories (गुरु-शिष्य कथाएं)
नैना अंतरि आव तूं
भारत की महान अध्यात्मिक परम्परा में श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम अमर है, और अमर है नाम उन्हीं के द्वारा प्राप्त उनके शिष्य विवेकानंद का।

स्वामी विवेकानंद किस प्रकार में गुरुत्व को उतार कर, साक्षात श्री रामकृष्ण परमहंस का 'मुख' ही कहेलाने के बाद भी अंतिम क्षणों तक केवल शिष्य ही बने रहे, इसके संदर्भ में एक घटना का विवरण रोचक रहेगा।

... प्रारम्भ के दिन थे जब स्वामी विवेकानंद, स्वामी विवेकानंद नहीं वरन नरेंद्र दत्त और अपने गुरु के लिए केवल नरेन् ही थे। नरेन् अपने गुरुदेव से मिलने प्रायः दक्षिणेश्वर आया करते थे और गुरु शिष्य की यह अमर जोड़ी पता नहीं किन-किन गूढ़ विषयों के विवेचन में लीन रहकर परमानंद का अनुभव करती थी। एक बार पता नहीं श्री रामकृष्ण को क्या सूझा, कि उन्होनें नरेन् के आने पर उससे बात करना तो दूर, उसकी ओर देखा तक नहीं। स्वामी विवेकानंद थोडी देर बैठे रहे और प्रणाम करके चले गए। अगले दिन भी यही घटना दोहराई गई और अगले तीन-चार दिनों तक यही क्रम चलता रहा। अन्ततोगत्वा श्री रामकृष्ण परमहंस ने ही अपना मौन तोडा और स्वामी विवेकानंद से पूछा

"जब मैं तुझसे बात नहीं करता था तो तू यहां क्या करने आता रहा?"
Jai Guru Geeta Gopal....MMK

प्रत्युत्तर में स्वामी विवेकानंद ने श्री रामकृष्ण परमहंस को ( जिन्हें वे 'महाराज' से सम्भोधित करते थे) कुछ आश्चर्य से देखा और सहज भाव से बोल पड़े-

"आपको क्या करना है, क्या नहीं करना है, वह तो महाराज आप ही जाने। मैं कोई आपसे बात करने थोड़े ही आता हूं... मैं तो बस आपको देखने आता हूं... "

... और गुरु को केवल देख-देख कर ही स्वामी विवेकानंद कहां पहुंच गए इसको स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में जिसे स्वामी विवेकानंद ने 'देखना' कहा वह निहारना था गुरुदेव को। जिसने गुरुदेव को 'निहारने' की कला सीख ली फिर उसे और कुछ करने की आवश्यकता ही कहां? दृष्टि भी एक पथ ही होती है जिस पर जब शिष्य अपने आग्रह के पुष्प बिखेर देता है तो गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्नता से उस पथ पर अपने पग रखते हुए स्वयंमेव आकर शिष्य के ह्रदय में समा जाते है।

मैं भक्तन को दास

एक संत थे जिनका नाम था जगन्नाथदास महाराज। वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे। वे जब वृध्द हुए तो थोड़े बीमार पड़ने लगे। उनके मकान की उपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहेते थे। रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाती थी, इसलिए "खट-खट" की आवाज करते तो कोई शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय मै ले जाता। बाबा की सेवा करनेवाले वे शिष्य जवान लड़के थे।

एक रात बाबा ने खट-खटाया तो कोई आया नही। बाबा बोले "अरे, कोई आया नही ! बुढापा आ गया, प्रभु !"
इतने में एक युवक आया और बोला "बाबा ! मैं आपकी मदत करता हूं"

बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय मै ले गया। फिर हाथ-पैर घुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया।
जगन्नाथदासजी बोले "यह कैसा सेवक है की इतनी जल्दी आ गया ! इसके स्पर्ष से आज अच्छा लग रहा है, आनंद-आनंद आ रहा है"।

जाते-जाते वह युवक लौटकर आ गया और बोला "बाबा! जब भी तुम्ह ऐसे 'खट-खट' करोगे न, तो मैं आ जाया करूंगा। तुम केवल विचार भी करोगे की 'वह आ जाए' तो मैं आ जाया करूँगा"

बाबा: "बेटा तुम्हे कैसे पता चलेगा?"
युवक: "मुझे पता चल जाता है"
बाबा: "अच्छा ! रात को सोता नही क्या?"
युवक: "हां, कभी सोता हूं, झपकी ले लेता हूं। मैं तो सदा सेवा मै रहता हूं"

जगन्नाथ महाराज रात को 'खट-खट' करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा करता। ऐसा करते करते कई दिन बीत गए। जगन्नाथदासजी सोचते की 'यह लड़का सेवा करने तुरंत कैसे आ जाता है?'

एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़कर पूछा की "बेटा ! तेरा घर किधर है?"
युवक: "यही पास मै ही है। वैसे तो सब जगह है"
बाबा: "अरे ! ये तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है?"

बाबा की सुंदर समाज जगी। उनको शक होने लगा की 'हो न हो, यह तो अपनेवाला ही, जो किसीका बेटा नही लेकिन सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है...'

बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछा "सच बताओ, तुम कौन हो?"
युवक: "बाबा ! छोडिये, अभी मुजे कई जगह जाना है"
बाबा: "अरे ! कई जगह जाना है तो भले जाना, लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ"
युवक: "अच्छा बताता हूं"

देखते-देखते भगवन जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया।

"देवधि देव ! सर्वलोके एकनाथ ! सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे ! रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना..प्रभु ! जब मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यो नही मिटा दिया ?"

तब मंद मुस्कुराते हुए भगवन बोले "महाराज ! तीन प्रकार के प्रारब्ध होते है: मंद, तीव्र, तर-तीव्र, मंद प्रारब्ध। सत्कर्म से, दान-पुण्य से भक्ति से मिट जाता है। तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवन के, संत महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है। परन्तु तर-तीव्र प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है। रामावतार मै मैंने बलि को छुपकर बाण मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बनकर मेरे पैर में बाण मारा।

तर-तीव्र प्रारब्ध सभीको भोगना पड़ता है। आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ, फिर क्या पता उसे भोगने के लिए आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्तिथि हो जाय? इससे तो अच्छा है अभी पुरा हो जाय...और मुझे आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नही होता, भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन का दास"

"प्रभु ! प्रभु ! प्रभु ! हे देव हे देव ! ॥" कहेते हुए जगन्नाथ दास महाराज भगवान के चरणों मै गिर पड़े और भावान्मधुर्य मै भाग्वात्शंती मै खो गए। भगवान अंतर्धान हो गए।

Sunday, September 26, 2010

All religions of the world, in Gayatri

दुनिया के सारे धर्म हैं, गायत्री में....

जो धर्म प्रेम, मानवता और भाईचारे का संदेश देने के लिए बना था आज उसी के नाम पर हिंसा और कटुता बढ़ाई जा रही है। इसलिये आज एक ऐसे विश्व धर्म की आवश्यकता महसूस की जा रही है, जो दिलों को जोडऩे वाला हो। हर धर्म में ऐसी बातें और प्रार्थनाएं हैं जो सभी धर्मों को रिप्रजेंट करती हैं। हिन्दुओं में गायत्री मंत्र के रूप में ऐसी ही प्रार्थना है, जो हर धर्म का सार है। तो आइये देखें:-
हिन्दू - ईश्वर प्राणाधार, दु:खनाशक तथा सुख स्वरूप है। हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दें।
ईसाई - हे पिता, हमें परीक्षा में न डाल, परन्तु बुराई से बचा क्योंकि राज्य, पराक्रम तथा महिमा सदा तेरी ही है।
इस्लाम - हे अल्लाह, हम तेरी ही वन्दना करते तथा तुझी से सहायता चाहते हैं। हमें सीधा मार्ग दिखा, उन लोगों का मार्ग, जो तेरे कृपापात्र बने, न कि उनका, जो तेरे कोपभाजन बने तथा पथभ्रष्ट हुए।
सिख - ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्य है वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष, निर्भय, र्निवैर, जन्मरहित तथा स्वयंभू है । वह गुरु की कृपा से जाना जाता है।
यहूदी - हे जेहोवा (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ-प्रदर्शन कर, मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा।
शिंतो - हे परमेश्वर, हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें परन्तु हमारे हृदय में अभद्र भाव उत्पन्न न हों । हमारे कान चाहे अपवित्र बातें सुनें, तो भी हमारे में अभद्र बातों का अनुभव न हो।
पारसी - वह परमगुरु (अहुरमज्द-परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भंडार के कारण, राजा के समान महान् है। ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकारों से मनुष्य प्रभु प्रेम का पात्र बनता है।
दाओ (ताओ) - दाओ (ब्रह्म) चिन्तन तथा पकड़ से परे है। केवल उसी के अनुसार आचरण ही उ8ाम धर्म है।
जैन - अर्हन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार तथा सब साधुओं को नमस्कार ।
बौद्ध धर्म - मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ, मैं धर्म की शरण में जाता हूँ, मैं संघ की शरण में जाता हूँ।
कनफ्यूशस - दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार न करो, जैसा कि तुम उनसे अपने प्रति नहीं चाहते।
बहाई - हे मेरे ईश्वर, मैं साक्षी देता हूँ कि तुझे पहचानने तथा तेरी ही पूजा करने के लिए तूने मुझे उत्पन्न किया है। तेरे अतिरिक्त अन्य कोई परमात्मा नहीं है। तू ही है भयानक संकटों से तारनहार तथा स्व निर्भर।

Thursday, September 23, 2010

YamaNiyama(यम-नियम )

यम-नियम
सभी संत एवं मत अहंकार के त्याग पर बल देते हैं। सभी संतों का यही कहना है कि अगर इन्सान अहंकार का त्याग कर दे, तो वह परमेश्वर को प्राप्त कर सकता है। बिना अहंकार के त्याग के परब्रह्म-परमेश्वर कि प्राप्ति कभी भी नहीं हो सकती। जब तक इन्सान का अहंकार समाप्त नहीं होगा। तब तक वह साधक बनने के लायक ही नहीं है। किन्तु आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति या साधक अहंकार में डूबा हुआ है। एक आम व्यक्ति जब साधना के पथ पर बढ़ता है, तो उसे आवश्यकता होती है गुरू की, एक शिक्षक की। जब वह गुरू द्वारा बताये हुऐ यम-नियमों का पालन करते हुऐ, जैसे-जैसे साधना करता जाता है, वैसे-वैसे उस का अहंकार बढ़ता जाता है। कभी-कभी तो अहंकार इतना अत्यधिक बढ़ जाता है, कि वह अपने सामने दूसरे व्यक्तियों एवं अन्य साधकों को तुच्छ समझने लगता है। साधक के अन्दर जहाँ, साधना करते हुऐ अहंकार समाप्त होना चाहिऐ, किन्तु वहीं इस के विपरीत अहंकार घटने कि बजाये बढ़ने लगता है। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करे तो हमे पता चलेगा कि साधक की साधना ही उसके अहंकार को बढ़ावा देती है। क्योंकि इस के मूल में जो कारण है, वह है नियम। अनेकों ही जगह देखने को मिलता है कि अगर कोई साधक साधना करते हुऐ, मात्र प्याज का भी त्याग कर देता है तो वह अनेकों ही जगह इस का बखान करने लगता है और कहता है कि, मुझे प्याज खाये इतने साल हो गये या मैं प्याज बिल्कुल नहीं खाता। मात्र एक छोटी सी वस्तु प्याज जिसका कि त्याग साधक ने कर दिया, वह उसका बखान अनेकों ही लोगों के सामने करता है, और इस प्रकार साधक साधना कि तरफ कम ध्यान देता है और अपने यम-नियमों का बख़ान अनेकों व्यक्तियों के सामने करता है। जिससे कि उसके अहंकार को बढ़ावा मिलता है। यही हाल सभी साधकों का है। किसी साधक को अगर किसी वस्तु के त्याग का अहंकार है तो, किसी को अपने वस्त्र और उपवास का अहंकार है। किसी साधक को अपनी माला तथा जाप का अहंकार है कि मैने इतना जाप कर लिया, तो किसी साधक को अपने गुरू या अपने मत का अहंकार है। यही हाल सभी साधकों का है।

यम-नियम बनाये तो इस लिऐ गये थे, कि साधक की तरक्की में चार चाँद लग जाऐं और साधक जल्दी से जल्दी सिद्धि को प्राप्त हो जाऐं। किन्तु आज का साधक सिद्धि तो बहुत दूर कि बात, उसकी परछाई तक को प्राप्त नहीं कर पाता। क्योंकि जहाँ अहंकार होगा, वहाँ सिद्धि हो ही नहीं सकती। प्रश्न वहीं का वहीं है कि क्या यम-नियमों से उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। इसको जानने के लिऐ, हमें विभिन्न धर्मों के इतिहास को समझना होगा। जैसे कि मुस्लिम-सम्प्रदाय में शराब का त्याग बताया गया है। वहीं दूसरी तरफ सिख-सम्प्रदाय में तम्बाखू के सेवन पर प्रतिबन्ध है। इसके विपरीत सिख सम्प्रदाय में शराब का सेवन होता है और मुस्लिम-सम्प्रदाय में तम्बाखू का सेवन। अगर एक आम व्यक्ति के सामने इन दोनों ही मत के नियमों को रखा जाऐं कि शराब के त्याग से वह परमेश्वर मिल सकता है। तो अब तक सभी मुस्लिमों को उस अल्लाह का दीदार हो गया होता। दूसरी तरफ अगर तम्बाखू छोड़ने से वह परमात्मा मिलता तो सभी सिखों को उस परमेश्वर के दर्शन हो गये होते। सही मायने में कोई भी चीज क्यों न हो, किसी के भी त्याग से या सेवन से वह परमात्मा किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकता। अगर आपने कोई नियम बना लिया है और उस नियम का आप के अलावा किसी को भी मालूम नहीं है, तभी वह नियम सही मायने में नियम है। अगर आप ने कोई नियम बनाया और उसका बखान लोगों के सामने कर दिया तो वह नियम, नियम नहीं रहा। अगर आपको अपने अहंकार का त्याग करना है, तो आपको एक ही नियम कि आवश्यकता है और वह यह है, कि गुरू को सम्पूर्ण रूप से पूर्ण मानना और उसके बताऐ हुऐ मार्ग पर चलना। अगर आपने कोई गुरू नहीं बना रखा हो तो आप का धर्म बनता है, कि सभी जीवों में उस परमेश्वर को ही देखें और उस परमात्मा कि बन्दगी करते हुऐ, उस परमेश्वर के ध्यान में ही खोऐ रहें। कोई भी ऐसा काम ना करें, जिससे कि किसी दूसरे व्यक्ति के मन को दुखः पहुँचे। क्योंकि सभी जीवों में वह परमेश्वर ही विराजमान है और जब आप किसी व्यक्ति को दुखः देते है या परेशान करते है, तो आप उस व्यक्ति को नहीं बल्कि उस के अन्दर विराजमान परमात्मा को ही दुखः पहुँचाते है।

अगर आप सम-भाव से सभी में उस परमेश्वर को दिखेगें, तो आपके अन्दर का अहंकार स्वतः ही समाप्त हो जाऐगा। साथ-ही-साथ आपके अन्दर किसी भी मत-विशेष या धर्म-विशेष का अहंकार पैदा न हो, इसके लिऐ आप अपने साधना कक्ष में सभी धर्मो या मतों के देवताओं या संतों के स्वरूपों को लगाऐं। जिससे कि आप को यह ऐहसास हो सके, कि आप जो भी अराधना कर रहे है या आप जो भी नियमों का पालन कर रहे हो, उससे अधिक कठोर नियमों का पालन करते हुऐ एवं कठोर साधना करते हुऐ सभी धर्मो के संतो ने उस परमेश्वर को प्राप्त किया है। इससे आप के अन्दर अत्यधिक उत्साह पैदा होगा और आप के मन में भी उन के जैसा बनने कि कामना पैदा होगी। जिस प्रकार हम इस संसार में एक दूसरे से मदद माँगते है या एक दूसरे कि मदद करते हैं, उसी प्रकार जब हम परमात्मा को प्राप्त करने के रास्ते पर बढ़ते चले जाते हैं तो, अनेकों ही दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-पुरूष हमारी अदृश्य रूप से मदद करते है और हमें ज्ञान और मोक्ष का रास्ता बताते है। ये दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-महापुरूष बिना किसी भेद-भाव के साधक कि मदद करते है। साधक चाहे किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो, इन पवित्र-आत्माओं कि नजर में सभी साधक एक समान हैं। हमें नियमों कि नहीं बल्कि परमेश्वर की आवश्यकता है। जैसे-जैसे हम साधना-मार्ग पर बढ़ते जायेंगे नियम अपने आप ही बनते व टूटते चले जायेंगे।

अगर हम बात करे बाबा नानक कि तो उन्होंने सभी नियमों का त्याग कर उस परमेश्वर से एकाकार हुऐ और अनहद् नाद रूप में ‘ॐकार’ को प्राप्त किया एवं सम्पूर्ण मानव जाति को ‘ॐकार’ का ही सन्देश दिया। जब उन्होंनें ‘अनहद-नाद’ को प्राप्त किया तो उन के श्रीमुख से जो पहला शब्द निकला वह था ‘एक ॐकार सत् नाम’ अर्थात उस परब्रह्म (सत् का अर्थ है- परब्रह्म)का केवल एक ही नाम है और वह है ‘ॐ’। सभी धर्मों के सन्तों ने ‘ॐकार’ पर ही जोर दिया है। इसलिऐ आप भी ॐकार का ही जाप करें। जैसे-जैसे आप ॐकार का जाप करते जायेंगे, वैसे-वैसे आपका मन, बुद्धि और आत्मा ॐकार में विलीन होती चली जायेगी और आप उस परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे। इस प्रकार जब कोई नियम ही नहीं होगा तो अहंकार का जन्म ही नहीं होगा और जब अहंकार नहीं होगा तो मन निर्मल हो जायेगा। मन के निर्मल होने से मन-बुद्धि में, बुद्धि-आत्मा में और आत्मा उस परमात्मा में समा जायेगी और बिना समय गँवाये, थोडे से समय में ही आप उस परमात्मा को अपने हृदय में प्रकट कर लोगे। जहाँ यम-नियमों की वजह से सालों कि तपस्या करने के बाद भी, वह परमात्मा आप को नहीं मिला। वहीं यम-नियमों का त्याग करते ही आप का अहंकार गिर जायेगा, आप कि बुद्धि पवित्र हो जाऐगी और जिस परमात्मा कि एक झलक पाने के लिए आप तरस रहें थे वह परमात्मा आप के रोम-रोम में एवं सृष्टि के कण-कण में आप को दिखाई देगा। जो अनहद-नाद कठोर नियमों का पालन करने पर भी सुनाई नहीं दिया, वह अनहद-नाद आप के रोम-रोम में प्रकट हो जाऐगा।

अनेकों ही व्यक्तियों के मन में यह प्रश्न उठता है कि यम-नियमों का त्याग करने से क्या वह परमात्मा हमें प्राप्त होगा। तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है महात्मा-बुद्ध। महात्मा-बुद्ध ने राज-पाट का त्याग करके सन्यास ले लिया और वनों में घुमने लगे। परमात्मा को प्राप्त करने कि अभिलाषा मन में थी। इसलिऐ वनों में जो भी साधू-सन्यासी मिलता, महात्मा-बुद्ध उससे परमात्मा को पाने का रास्ता पूछते और सामने वाला साधू जो भी रास्ता बताता वह उससे भी ज्यादा कठोर नियमों के साथ साधना करते। किन्तु ॠद्धि-सिद्धियाँ तो प्राप्त होती चली गई, किन्तु उस परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। महात्मा-बुद्ध को अनेकों ही साधुओं ने साधना बताई और महात्मा-बुद्ध ने सभी साधनाऐं पूर्ण-विधान के साथ सम्पन्न कि किन्तु मन में साधना का अहंकार होने कि वजह से सिद्धियां तो अनेकों प्राप्त हुई किन्तु परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। किन्तु आखिर में बौद्धि-वृक्ष के नीचे बैठ कर महात्मा-बुद्ध ने सभी नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त हो गये। जैसे ही नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त हो गये। जैसे ही नियमों और सिद्धियों का त्याग हुआ वैसे ही अहंकार तिरोहित हो गया और महात्मा-बुद्ध बौद्धित्व को प्राप्त हो गये अर्थात् उन्हें पूर्ण-परब्रहम्-परमेश्वर कि प्राप्ति हो गई और वे स्वयं उस परमात्मा का रूप बन गये। आवश्यकता यम-नियमों कि नहीं है, बल्कि उस परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की है। जब तक आप यम-नियमों मे बंधे हुऐ है, तब तक आप उस परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो ही नहीं सकते। क्योंकि बंधा हुआ इन्सान एक गुलाम के समान होता है और गुलाम उसका होता है, जिसने उसको बांध रखा हो। सम्पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हो कर ही आप उस परमेश्वर को प्राप्त कर सकते है। क्योंकि परमात्मा न तो स्वयं बंधा हुआ है और न ही वह किसी को बन्धनों में बांधता है।

वह परमात्मा तो सर्व-व्यापक और स्वतन्त्र है। इसलिऐ स्वतन्त्र साधक ही उस परमात्मा को प्राप्त करके सर्व-व्यापक बन सकता है। बंधा हुआ व्यक्ति कभी भी अपनी सीमा से बाहर नहीं निकल सकता। इसलिऐ वह कभी भी सर्व-व्यापक नहीं बन सकता। कहने का तात्पर्य यही है कि बन्धन-युक्त व्यक्ति कभी उस परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि बन्धन-मुक्त साधक ही उस परमेश्वर को अपने हृदय में प्रकट कर सकता है और उसका साक्षात्कार कर सकता है। अधिकतर साधक विशेष रंग के वस्त्र, विशेष माला, विशेष आसन आदि पर ही टिके रहते हैं, कि हमारे गुरू ने हमें वस्त्र, माला और जिस आसन के लिये कहा है, हम उसी का इस्तेमाल करेंगे। किन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि वस्त्र, माला और आसन गुरू के अनुसार नहीं अपितु इष्ट के अनुसार होते हैं। जिसका जैसा इष्ट होगा, उसका वस्त्र, माला और आसन भी उसी के अनुसार होगें। जैसे कि गायत्री उपासकों के लिये श्वेत वस्त्र, रूद्राक्ष की माला और कुशा का आसन अनिवार्य है, वहीं पर काली के उपासकों हेतु लाल वस्त्र, काले हकीक की माला और कम्बल का आसन होना अनिवार्य है। दुर्गा एवं हनुमान के उपासकों के लिये लाल वस्त्र, लाल चंदन कि माला और लाल रंग का आसन आवश्यक है।

आज के समय में जिन यम नियमो की आवश्यकता है, उनको तो मानने व करने के लिये कोई भी तैयार नहीं है। सभी संतो ने जिन यम-नियमो के लिये, साधकों को कहा उनको तो साधक समझ नहीं पाऐ, अपितु उल्टे-सीधे नियमों में उलझ कर रह गये। जिसका परिणाम यह हुआ कि सिद्धि तो प्राप्त हुई ही नहीं, उल्टे साधक अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठे। आज के समय में साधक के लिये, जो यम-नियम जरूरी है, वह यह है कि साधक किसी से घृणा न करें, किसी से द्वैष न रखें, काम क्रोध और अहंकार पर काबू रखें, किसी से ईर्ष्या न करें एवं स्वयं सहित सबके अन्दर उस परमपिता-परमात्मा का आभास करते हुऐ उस परमात्मा के ध्यान में आनंदित रहें। इस प्रकार यदि कोई साधक यम-नियमों का पालन करता है, तो आठों सिद्धियाँ उस साधक की गुलाम होती हैं और वह साधक आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करता हुऐ एवं अनहद-शब्द को सुनते हुऐ पूर्णता को प्राप्त हो जाऐगा और कह उठेगा ‘सोऽहं-सोऽहं’ अर्थात् ‘मैं वही हूँ, मैं वही हूँ’।

Thursday, September 16, 2010

Cremation Silence(श्मशान साधना)

श्मशान साधना

इस दुनिया में सबसे ज्यादा अजीब कुछ है तो, खुद इंसान ही है। पहाड़ों पर, हसीन वादियों के बीच, समुद्र की लहरों पर, चांद पर.....हर जगह इंसान अपना आसियाना बनाना चाहता है। किन्तु इसी दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनकी पंसदीदा जगह श्मशान है। दुनिया में जितने धर्म-संप्रदाय हैं, उतने ही साधना मार्ग हैं। किन्तु एक बात की समानत सभी साधनाओं में देखने को मिलती है। समस्त भोगेन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करना या मन को जीतना सभी साधना पथों का लक्ष्य होता है।

साधना की पराकाष्ठा भी तभी होती है जब पूर्ण इन्द्रीय जय या मनोविकारों पर जय सिद्ध हो जाता है। इस शरीर में नौ द्वार होते हैं । 2 आँखें, 2 कान, 2 नाक, 1 मुँह, 1 शिश्न या योनि तथा 1 गुदा । इनको वश में कर लेने से आध्यात्मिक उन्नति की गति तीव्र हो उठती है । श्मशान क्रियाओं के द्वारा इनपर विजय पाना सरल हो जाता है ।

आज भी ऐसा देखा जाता है कि श्मशान के विषय में लोगों में भय, संकोच और रहस्य की भावना पाई जाती है। श्मशान साधना भारत में अघोरियों के अलावा अन्य कई सम्प्रदायों में भी की जाती है । इसका चलन पूर्वी भारत में ज्यादा दिखता है। आसाम, पूर्वी बिहार या मैथिल प्रदेश, बंगाल तथा उड़ीसा के पूर्वी भाग में, आमावश्या की निशारात्री में अनेक साधक महाश्मशानों में साधनारत रहते हैं । अन्य क्षेत्रों में भी छिटपुट रुप से श्मशान साधक फैले हुए हैं। ये तांत्रिक और अघोरी स्वयं जितने रहस्यमयी हैं, उतनी ही आश्चर्यजनक इनकी दुनिया भी है।

आसाम को ही पुराने समय में कामरूप प्रदेश के रूप में जाना जाता था। कामरुप प्रदेश को तन्त्र साधना के गढ़ के रुप में दुनियाभर में बहुत नाम रहा है। पुराने समय में इस प्रदेश में मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था प्रचलित थी, यानि कि यंहा बसने वाले परिवारों में महिला ही घर की मुखिया होती थी। कामरुप की स्त्रियाँ तन्त्र साधना में बड़ी ही प्रवीण होती थीं। बाबा आदिनाथ, जिन्हें कुछ विद्वान भगवान शंकर मानते हैं, के शिष्य बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी भ्रमण करते हुए कामरुप गये थे। बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी कामरुप की रानी के अतिथि के रुप में महल में ठहरे थे। बाबा मत्स्येन्द्रनाथ, रानी जो स्वयं भी तंत्रसिद्ध थीं रानी के साथ लता साधना में इतना तल्लीन हो गये थे कि वापस लौटने की बात ही भूल बैठे थे। बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी को वापस लौटा ले जाने के लिये उनके शिष्य बाबा गोरखनाथ जी को कामरुप की यात्रा करनी पड़ी थी। 'जाग मछेन्दर गोरख आया' उक्ति इसी घटना के विषय में बाबा गोरखनाथ जी द्वारा कही गई थी।

कामरुप में श्मशान साधना व्यापक रुप से प्रचलित रहा है। इस प्रदेश के विषय में अनेक आश्चर्यजनक कथाएँ प्रचलित हैं। पुरानी पुस्तकों में यहां के काले जादू के विषय में बड़ी ही अद्भुत बातें पढऩे को मिलती हैं। कहा जाता है कि बाहर से आये युवाओं को यहाँ की महिलाओं द्वारा भेड़, बकरी बनाकर रख लिया जाता था।

आसाम यानि कि कामरूप प्रदेश की तरह ही बंगाल राज्य को भी तांत्रिक साधनाओं और चमत्कारों का गढ़ माना जाता रहा है। बंगाल में आज भी शक्ति की साधना और वाममार्गी तांत्रिक साधनाओं का प्रचलन है। बंगाल में श्मशान साधना का प्रसिद्ध स्थल क्षेपा बाबा की साधना स्थली तारापीठ का महाश्मशान रहा है। आज भी अनेक साधक श्मशान साधना के लिये कुछ निश्चित तिथियों में तारापीठ के महाश्मशान में जाया करते हैं। महर्षि वशिष्ठ से लेकर बामाक्षेपा तक अघोराचार्यों की एक लम्बी धारा यहाँ तारापीठ में बहती आ रही है।

अघोर साधना के मूल तत्वः गोप्य पूजाः श्मशान क्रिया श्मशान शब्द से ही जलते हुए शव से चतुर्दिग फैलती चिराँध, श्रृगालों के द्वारा खोदकर निकाली गई मानव अँगों को चिचोड़ते गिद्धों की टोलियाँ, यहाँ वहाँ
हवा के हाथों बिखरे जले हुए मानव तन की भष्मी के अँश, यत्र तत्र पड़े हड्डियों और माँस के छिन्न खंड, रह रहकर आती ऊलूकों के धूत्कार, आदि दृष्य अनायास ही आँखों के सामने आकर जुगुप्सा जगाने लगते हैं । श्मशान मानव मनोविकार द्वय "भय" और "घृणा" के चरमोत्कर्ष की स्थली है । लोग अपने प्रियजनों की शव यात्रा में अन्य अनेक सम्बन्धियों के साथ श्मशान में कम समय के लिये आते हैं और प्राण रहित देह को अग्नि या धरती के सिपुर्द कर लौट जाते हैं । जन सामान्य का श्मशान से इतना ही सम्बन्ध है । यही श्मशान अघोर पथ के साधकों, सिद्धों, अघोराचार्यों, साधुओं की साधना स्थली, निवास स्थली रहती रही है । बहुत काल तक जंगल के भीतर निर्मित किसी मंदिर के गर्भगृह के शून्यायतन में या किसी महाश्मशान के भीतरी भाग में किसी समाधी को शय्या बनाकर औघड़ साधक साधना में निमग्न रहते आये हैं ।

" औघड़ के नौ घर, बिगड़े तो शव घर ।"

साधना की पराकाष्ठा तभी होती है जब पूर्ण इन्द्रीय जय या मनोविकारों पर जय सिद्ध हो जाता है । इस शरीर में नौ द्वार होते हैं । २ आँखें, २ कान, २ नाक, १ मुँह, १ शिश्न या योनि तथा १ गुदा । इनको वश में कर लेने से आध्यात्मिक उन्नति की गति तीव्र हो उठती है । श्मशान क्रियाओं के द्वारा इनपर विजय पाना सरल हो जाता है ।

कमोवेश श्मशान साधना भारत में अघोरियों के अलावा अन्य कई सम्प्रदायों में भी की जाती है । इसका चलन पूर्वी भारत में ज्यादा दिखता है । आसाम, पूर्वी बिहार या मैथिल प्रदेश, बंगाल तथा उड़ीसा के पूर्वी भाग में, आमावश्या की निशारात्री में अनेक साधक महाश्मशानों में साधनारत रहते हैं । अन्य भू भाग में भी छिटपुट रुप से श्मशान साधक फैले हुए हैं ।

बंगाल में श्मशान साधना का प्रसिद्ध स्थल क्षेपा बाबा की साधना स्थली तारापीठ का महाश्मशान रहा है । आज भी अनेक साधक श्मशान साधना के लिये कुछ निश्चित तिथियों में तारापीठ के महाश्मशान में जाया करते हैं । महर्षि वशिष्ठ से लेकर बामाक्षेपा तक अघोराचार्यों की एक अविच्छिन्न धारा यहाँ तारापीठ में प्रवहमान रही है ।

आनन्दमार्ग बिहार और बंगाल की मिलीजुली माटी की सुगन्ध है । प्रवर्तक श्री प्रभातरंजन सरकार उर्फ आनन्दमूर्ति जी थे । आनन्दमार्ग के साधु जो अवधूत कहलाते हैं श्मशान साधना करते हैं । इनकी झोली में नरकपाल रहता ही है । ये अमावश्या की रात्री में साधना हेतु श्मशान जाते है । श्मशान साधना से इन साधुओं को अनेक प्रकार की सिद्धी प्राप्त है ।

श्मशान के बारे में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने शिष्यों को बतलाया थाः
" श्मशान से पवित्र स्थल और कोई स्थान हो ही नहीं सकता । न मालूम इस श्मशान भूमि में प्रज्वलित अग्नि सदियों से कितने जीवों के प्राणरहित देहों की आहुति लेती आ रही है । न मालूम कितने महान योद्धाओं, राजाओं, महाराजाओं, सेठ साहूकारों, साधुओं सज्जनों, चोरों मुर्खों, गर्व से फूले न समाने वाले नेताओं और विद्वतजनों की देहों की आहुतियाँ श्मशान में प्रज्वलित अग्नि के रुप में महाकाल की जिव्हा में भूतकाल में पड़ी हैं, वर्तमान काल में पड़ रही हें और भविष्य काल में पड़ती रहेंगी । कितने घरों और नगरों की अग्नि शाँत हो जाती है किन्तु महाश्मशान की अग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है, प्राणरहित लोगों के देहों की आहुति लेती रहती है । जिस प्रकार योगियों और अघौरेश्वरों का स्वच्छ और निर्मल हृदय जीवों के प्राण का आश्रय स्थल बना रहता है, ठीक उसी प्रकार श्मशान प्राण रहित जीवों के देह को आश्रय प्रदान करता है । उससे डरकर भाग नहीं सकते । पृथ्वी में, आकाश में, पाताल में, कहीं भी कोई स्थान नहीं है जहाँ छिपकर तुम बच सकते हो ।"

अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी की एक कथा में जो , उनके प्रथम शिष्य बाबा बीजाराम द्वारा लिखी गई तथा श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित ग्रँथ " औघड़ रामकीना कथा" में संगृहित है श्मशान साधना का विवरण दिया गया है । कथा कुछ इस प्रकार हैः

" मुँगेर जनपद में गंगा के किनारे श्मशान के पास एक कुटी में बाबा कीनाराम वर्षावास कर रहे थे । मध्यरात्रि की बेला थी । पीले रंग के माँगलिक वस्त्र और खड़ाऊँ पहने, सुन्दर केशवाली एक योगिनी ने आकाश की ओर से उतरती हुई अघोराचार्य महाराज कीनाराम जी के निकट उपस्थित होकर प्रणाम निवेदन किया । महाराज श्री के परिचय पूछने पर योगिनी ने बतलाया कि वह गिरनार की काली गुफा की निवासिनी है । प्रेरणा हई, आकर्षण हुआ और वह आकाशगमन करते हुए महाराज जी की कुटी पर आ पहुँची । योगिनी ने अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी से निवेदन किया किः " जो साध्य है मेरा, उसे आप क्रियाओं द्वारा क्रियान्वित करें, जिससे मुझमें जो कमी है उसकी पूर्णता को प्राप्त करुँ ।"

श्मशान में एक शव के, जिसे परिजन अत्यधिक बर्षा के कारण उपेक्षित छोड़ गये थे, गंगा की कछार में मूँज की रस्सियों से, खूंटी गाड़कर, हाथ , पाँव को बाँध दिया गया । शव को लाल वस्त्र ओढ़ाकर मुख खोल दिया गया । योगिनी और बाबा कीनाराम आसनस्थ हुए । महाराज मन्त्र उच्चारण करते रहे और योगिनी अभिमंत्रित कर धान का लावा शव के खुले मुख में छोड़ती रहीं । थोड़े ही काल तक यह क्रिया हुई होगी कि बड़े जोर का अट्टहास करके पृथ्वी फूटी और नन्दी साँढ़ पर बैठे हुए सदाशिव, श्मशान के देवता, उपस्थित हुए । बड़े मधुर स्वर में बोलेः " सफल हो सहज साधना । दीर्घायु हो । कपालालय में, ब्रह्माण्ड में सहज रुप से प्रविष्ठ होने का आप दोनों का मार्ग प्रशस्त है । याद रखना, अनुकूल समय में मैं उपस्थित होता रहूँगा ।" योगिनी और महाराज श्री कीनाराम जी ने शव से उतरकर प्रणाम किया । श्मशान देवता देखते देखते आकाश में विलीन हो गये । एक कम्पन हुआ और शव पत्थर के सदृश हो गया । योगिनी तृप्त हुई और महाराज श्री को प्रणाम कर आकाशगमन करते हुए पश्चिम दिशा की ओर चलीं गई ।"

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Tuesday, September 14, 2010

Radha Ji(राधा जी)

राधा जी
राघाजी भगवान श्री कृष्ण की परम प्रिया हैं तथा उनकी अभिन्न मूर्ति भी। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को बरसाना के श्री वृषभानु जी के यहां राघा जी का जन्म हुआ था। श्रीमद्देवी भागवत में कहा गया है कि श्री राघा जी की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य श्री कृष्ण की पूजा का अघिकार भी नहीं रखता। राघा जी भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अघिष्ठात्री देवी हैं, अत: भगवान इनके अघीन रहते हैं। राघाजी का एक नाम कृष्णवल्लभा भी है क्योंकि वे श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली हैं।

माता यशोदा ने एक बार राघाजी से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा। राघाजी ने उन्हें बताया कि च्राज् शब्द तो महाविष्णु हैं और च्घाज् विश्व के प्राणियों और लोकों में मातृवाचक घाय हैं। अत: पूर्वकाल में श्री हरि ने उनका नाम राघा रखा। भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं—द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप में वे बैकुंठ में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी के साथ वास करते हैं परन्तु द्विभुज रूप में वे गौलोक घाम में राघाजी के साथ वास करते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि एक को कष्ट होता तो उसकी पीडा दूसरे को अनुभव होती। सूर्योपराग के समय श्रीकृष्ण, रूक्मिणी आदि रानियां वृन्दावनवासी आदि सभी कुरूक्षेत्र में उपस्थित हुए। रूक्मिणी जी ने राधा जी का स्वागत सत्कार किया। जब रूक्मिणी जी श्रीकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं। बहुत अनुनय-विनय के बाद श्रीकृष्ण ने बताया कि उनके चरण-कमल राधाजी के ह्वदय में विराजते हैं। रूक्मिणी जी ने राधा जी को पीने के लिए अधिक गर्म दूध दे दिया था जिसके कारण श्रीकृष्ण के पैरों में फफोले पड गए।

राधा जी श्रीकृष्ण का अभिन्न भाग हैं। इस तथ्य को इस कथा से समझा जा सकता है कि वंदावन में श्रीकृष्ण को जब दिव्य आनंद की अनुभूति हुई तब वह दिव्यानंद ही साकार होकर बालिका के रूप में प्रकट हुआ और श्रीकृष्ण की यह प्राणशक्ति ही राधा जी हैं।
श्री राधा जन्माष्टमी के दिन व्रत रखकर मन्दिर में यथाविधि राधा जी की पूजा करनी चाहिए तथा श्री राधा मंत्र का जाप करना चाहिए। राधा जी लक्ष्मी का ही स्वरूप हैं अत: इनकी पूजा से धन-धान्य व वैभव प्राप्त होता है।

राधा जी का नाम कृष्ण से भी पहले लिया जाता है। राधा नाम के जाप से श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और भक्तों पर दया करते हैं। राधाजी का श्रीकृष्ण के लिए प्रेम नि:स्वार्थ था तथा उसके लिए वे किसी भी तरह का त्याग करने को तैयार थीं। एक बार श्रीकृष्ण ने बीमार होने का स्वांग रचा। सभी वैद्य एवं हकीम उनके उपचार में लगे रहे परन्तु श्रीकृष्ण की बीमारी ठीक नहीं हुई। वैद्यों के द्वारा पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि मेरे परम प्रिय की चरण धूलि ही मेरी बीमारी को ठीक कर सकती है। रूक्मणि आदि रानियों ने अपने प्रिय को चरण धूलि देकर पाप का भागी बनने से इनकार कर दिया अंतत: राधा जी को यह बात कही गई तो उन्होंने यह कहकर अपनी चरण धूलि दी कि भले ही मुझे 100 नरकों का पाप भोगना पडे तो भी मैं अपने प्रिय के स्वास्थ्य लाभ के लिए चरण धूलि अवश्य दूंगी।

कृष्ण जी का राधा से इतना प्रेम था कि कमल के फूल में राधा जी की छवि की कल्पना मात्र से वो मूर्चिछत हो गये तभी तो विद्ववत जनों ने कहा

राधा तू बडभागिनी, कौन पुण्य तुम कीन।
तीन लोक तारन तरन सो तोरे आधीन।।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Shiva(शिव)

शिव
शिव पुराण - कथा: अवतारों की कथा
सागर-मंथन की कथा से शिव (shiva) का रूप निखरता है। ऋग्वेभद में जहॉ सूर्य, वरूण,वायु, अग्नि, इंद्र आदि प्रा‍कृतिक शक्तियों की उपासना है वहीं ‘रूद्र’ का भी उल्लेख है। पर विनाशकारी शक्तियों के प्रतीक ‘रूद्र’ गौण देवता थे। सागर- मंथन के बाद शायद ‘रूद्र’ नए रूप में ‘शिव’ बने। ‘

शिव’ तथा ‘शंकर’ दोनों का अर्थ कल्यापणकारी होता है। अंतिम विश्लेषण में विध्वंसक शक्ति कल्यामणकारी भी होती है – यदि वह न हो तो जिंदगी भार बन जाय और दुनिया बसने के योग्यथ न रहे। आखिर कालकूट पीनेवाले ने समाज का महान् कल्यागण किया।

शिव का रूप विचित्र अमंगल है। नंग – धड़ंग, शरीर पर राख मले, जटाजूटधारी, सर्प लपेटे, गले में हडिडयों एवं नरमूंडों की माला और जिसके भूत – प्रेत, पिशाच आदि गण हैं। ये औघड़दानी सभी के लिए सुगम्यध थे। देव तथ असुर सभी को बिना सोचे – समझे वरदान दे बैठते। एक बार भस्मायसुर ने वरदान प्राप्त कर लिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखे वह भस्मा हो जाय। तब यह सोचकर कि शिव कहीं दूसरे को ऐसा वरदान न दें, वह उन्हींय पर हाथ रखने दौड़ा । शिव सारे संसार में भागते फिरे। अंत में भगवान् सुंदरी ‘तिलोत्तरमा’ का रूप धरकर नृत्यं करने लगे। भस्मा सुर मोहित होकर साथ में उसी प्रकार नाचने लगा। तिलोत्तरमा ने नृत्य की मुद्रा में अपने सिर पर हाथ रखा, दूसरा हाथ कटि पर रखना नृत्य की साधारण प्रारंभिक मुद्रा है। भस्माकसुर ने नकल करते हुए जैसे ही हाथ अपने सिर पर रख, वह स्वरयं वरदान के अनुसार भस्म हो गया। शायद किसी असुर ने अग्नि के ऊपर यांत्रिक सिद्धि प्राप्तच की और उससे संहारक शक्ति को नष्ट् करने की सोची। पर संहारक शक्ति को नष्टु करने की सोची। पर संहारक शक्ति को इस प्रकार नष्टा नहीं किया जा सकता और वह स्वपयं नष्टर हो गया। शिव का उक्तह रूप उस समय के सभी अंधविश्वापसों से युक्तत सामान्य लोगों का प्रतीक है। असुर भी शिव के उपासक थे। संभ्व तया समाज – मंथन के समय साधारण लोगों को तुष्टक करने के लिए उनके रूप में ढले ‘रूद्र’ को ‘महादेव’ तथा ‘महेश’ कहकर पुकारने लगे। इस प्रकार ‘महा’ उपसर्ग लगाकर संतुष्ट’ करने का एक एंग है। कुछ पुरातत्व ज्ञ यह मानते हैं कि शंकर दक्षिण के देवता थे, इसीलिए घोषित किया गया कि वह कैलास पर रम रहे। पार्वती उत्तदर हिमालय की कन्याय थी। उसने शिव की प्राप्ति के लिए कन्यादकुमारी जाकर तपस्याल की। आज भी कुमारी अंतरीप में, जहॉ सागर की ओर मुंह करके खड़े होने की स्वा भाविक प्रवृत्ति होती है, उनकी मूर्ति उत्त र की, अपने आराध्यक देव कैलास आसीन शिव की ओर मुंह करके खड़ी है। यह भरत की एकता का प्रतीक है। मानो शिव – पार्वती की विवाह से दक्षिण – उत्त र भारत एक हो गया।

शिव का चिन्ह मानकर शिवलिंग की पूजा बुद्ध के कालखंड के पूर्व आई । वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यगक्ति जिस चिन्हद की पूजा कर सकें,उस पत्थसर के ढेले, बटिया को शिव का चिन्हध माना। विक्रम संवत् के कुछ सहस्राब्दी् पूर्व उक्का पात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रूद्र का आविर्भाव दिखा। शिव पुरण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योरति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया । यही उल्काह पिंड बारह ज्योीतिर्लिंग कहलाए। इसी कारण उल्काल पिंड से आकार में मिलती बटिया रूद्र या शिव का प्रतीक बनी।

किंवदंती है कि शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था। प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष ने घमंड में शाप दिया,
'अब इंद्रादि देवताओं के साथ इसे यज्ञ का भाग न मिले।'
और क्रोध में चले गये। तब नंदी (शिव के वाहन) ने दक्ष को शाप देने के साथ-साथ यज्ञकर्ता ब्राम्हणों को, जो दक्ष की बातें सुनकर हँसे थे, शाप दिया,
'जो कर्मकांडी ब्राम्हण दक्ष के पीछे चलने वाले हैं वे केवल पेट पालने के लिए विद्या, तप, व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इंद्रिय-सुख को ही सुख मानकर इन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख मांगते भटकें।'
इस पर भृगु ने शाप दिया,
'जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्वि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हों वे ही शैव संप्रदाय में दीक्षित हों, जिनमें सुरा और आसव देवता समान आदरणीय हों। तुम पाखंड मार्ग में जाओ, जिनमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं।'
जैसे कर्मकांडी ब्राम्हण या जैसी तांत्रिक क्रियाएँ शैव संप्रदाय में बाद में आई, ये शाप उनका संकेत करते है।

अधिक समय बीतने पर दक्ष ने महायज्ञ किया। उसमें सभी को बुवाया, पर अपनी प्रिय पुत्री सती एवं शिव को नहीं। सती का स्त्री-सुलभ मन न माना और मना करने पर भी अपने पिता दक्ष के यहाँ गई। पर पिता द्वारा शिव की अवहेलना से दु:खित होकर सती ने प्राण त्याग दिए। जब शिव ने यह सुना तो एक जटा से अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हजारों भुजाओं वाले रूद्र के अंश-वीरभद्र –को जन्म दिया। उसने दक्ष का महायक्ष विध्वंस कर डाला। शिव ने अपनी प्रिया सती के शव को लेकर भयंकर संहारक तांडव किया। जब संसार जलने लगा और किसी का कुछ कहने का साहस न हुआ तब भगवान ने सुदर्शन चक्र से शव का एक-एक अंश काट दिया। शव विहीन होकर शिव शांत हुए। जहाँ भिन्न-भिन्न अंक कटकर गिरे वहाँ शक्तिपीठ बने। ये १०८ शक्तिपीठ, जो गांधार (आधुनिक कंधार और बलूचिस्तान) से लेकर ब्रम्हदेश (आधुनिक म्याँमार) तक फैले हैं, देवी की उपासना के केंद्र हैं।

सती के शरीर के टुकड़े मानो इस मिटटी से एकाकार हो गए-सती मातृरूपा भरतभूमि है। यही सती अगले जन्म में हिमालय की पुत्री पार्वती हुई (हिमालय की गोद में बसी यह भरतभूमि मानो उसकी पुत्री है)। शिव के उपासक शैव, विष्णु के उपासक वैष्णव तथा शक्ति (देवी) के उपासक शाक्त कहलाए। शिव और सती को लोग पुसत्व एवं मातृशक्ति के प्रतीक के रूप में भी देख्ते हैं। इस प्रकार का अलंकार प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में आता है। यह शिव-सती की कहानी शैव एवं शाक्त मतों का समन्वय भी करती है। शैव एवं वैष्णव मतों के भेद भारत के ऎतिहासिक काल में उठे हैं। इसकी झलक रामचरितमानस में मिलती है। शिव ने पार्वती को राम का परिचय 'भगवान' कहकर दिया,राम के द्वारा रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना हई। दोनों ने कहा कि उनका भक्त दूसरे का द्रोही नहीं हो सकता। यह शैव एवं वैष्णव संप्रदायों के मतभेद (यदि रहे हों) की समाप्ति की घोषणा है।

शिव को तंत्र का अधिष्ठाषता कहा गया है। इसी से शैव एवं शाक्त संप्रदायों में तांत्रिक क्रियाऍं आईं। तंत्र का शाब्दिक अर्थ ‘तन को त्राण देने वाला’ है, जिसके द्वारा शरीर को राहत मिले। वैसे तो योगासन भी मन और शरीर दोनों को शांति पहुँचाने की क्रिया है। तंत्र का उद्देश्ये भय, घृणा, लज्जा आदि शरीर के सभी प्रारंभिक भावों पर विजय प्राप्तय करना है। मृत्युर का भय सबसे बड़ा है। इसी से श्मंशान में अथवा शव के ऊपर बैठकर साधना करना, भूत-प्रेत सिद्ध करना, अघोरपंथीपन, जटाजूट, राख मला हुआ नंग-धड़ंग, नरमुंड तथा हडिड्ओं का हार आदि कल्प नाऍं आईं। तांत्रिक यह समझते थे कि वे इससे चमत्कामर करने की सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। देखें – बंकिमचंद्र का उपन्यारस ‘कपाल-कुंडला’। यह विकृति ‘वामपंथ’ में प्रकट हुई जिसमें मांस-मदिरा, व्यबसन और भोग को ही संपूर्ण सुख माना। ययाति की कहानी भूल गए कि भोग से तृष्णां बढ़ती है, कभी शांत नहीं होती। जब कभी ऐसा जीवन उत्पोन्नं हुआ तो सभ्यढता मर गई। शिव का रूप विरोधी विचारों के दो छोर लिये है।
मनीष

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Monday, September 13, 2010

The mysterious science instruments(यंत्रों का रहस्यमय विज्ञान)

यंत्रों का रहस्यमय विज्ञान
साधना विज्ञान में विशेष कर वाममार्गी तांत्रिक साधनाओं में यंत्र-साधना का बड़ा महत्व है । जिस तरह देवी-देवताओं की प्रतीकोपासना की जाती है और उनमें सन्निहित दिव्यताओं, की अवधारणा की जाती है, उसी तरह 'यंत्र' भी किसी देवी या देवता के प्रतीक होते हैं ।
इनकी रचना ज्यामितीय होती है । यह बिन्दू, रेखाओं, वक्र-रेखाओं, वर्गों, वृत्तों और पद्ददलों से मिलाकर बनाये जाते हैं और अलग-अलग प्रकार से बनाये जाते हैं । कई का तो बनाना भी कठिन होता है । इनका एक सुनिश्चित उद्देश्य होता है । इन रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और यहाँ तक कि कोण, अंश का भी विशेष अर्थ होता है ।
जिस तरह से देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । उसी तरह यंत्रों में भी गंभीर लक्ष्य निहित होते हैं । इनका निर्माण पत्थर, धातु या अन्य वस्तुओं के तल पर होता है । रेखाओं और त्रिभुजों आदि के माध्यम से बने चित्रों को 'भण्डार' कहा जाता है, जो किसी भी देवता के प्रतीक हो सकते हैं, किन्तु 'यंत्र' किसी विशिष्ट देवी या देवता के प्रतीक होते हैं ।
तंत्र विद्या विशारदों के अनुसार यंत्र अलौकिक एवं चमत्कारिक दिव्य शक्तियों के निवास स्थान है । ये सामान्यतता स्वर्ण, चाँदी एवं ताँबा जैसी उत्तम धातुओं उत्तम माने जाते हैं । ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगे उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं । उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रायः इन्हीं से बने यंत्र प्रयुक्त होते हैं ।
ये यंत्र केवल रेखाओं और त्रिकोणों आदि से बने ज्यामिति विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं होते, वरन् उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की जाती है । जिस प्रकार से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यंत्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं । इन यंत्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है ।
भारतीय दर्शन का मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सारी देव शक्तियाँ पिण्ड अर्थात् मानवीकाया में भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं । मानवी काय-पिण्ड उस विराट् विश्व-ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है, अतः उसमें सन्निहित शक्तियों को यदि जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो वे भी उतनी ही समर्थ एवं चमत्कारी हो सकती है ।
यंत्र साधना में साधक यंत्र का ध्यान करता है और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अपनी पिण्ड चेतना को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है । एक समय आता है जब दोनों में कोई अंतर नहीं रहता और वह अपनी ही पूजा करता है । उसके ध्यान में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐक्य हो जाता है । वह भगवती महाशक्ति को अपना ही रूप समझता है, फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है । वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता । वह अद्वेत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक रूप ही लगने लगते हैं । साधक की चेतना अब अनंत विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर देती है । यंत्र पूजा में यही भाव निहित है ।
'यंत्र' का अर्थ 'ग्रह' होता है । यह 'यम' धातु से बनता है जिससे ग्रह का ही बोध होता है, क्योंकि यही नियंत्रण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है यों तो सामान्य-भौतिक अर्थ में यंत्र का तात्पर्य मशीन से लिया जाता है जो मानव से अधिक श्रम साध्य और चमत्कारी कार्य कर सकती है और हर कार्य में सहायक सिद्ध होती है ।
उदाहरण के लिए मोटर-कार, रेलगाड़ी, वायुयान,सैटेलाइट आदि की उपयोगिता एवं द्रुतगामिता से सभी परिचित हैं । इसी तरह माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप जैसे सूक्ष्म एवं दूरदर्शी यंत्रों को भी सभी लोग जानते हैं कि किस तरह उनसे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं एवं दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकता है । इसी तरह विराट् ब्रह्म को देखना हो तो भी यंत्र की अपेक्षा रहती है, उसकी भावना करनी पड़ती है । तांत्रिक यंत्र को निर्गुण ब्रह्म के शक्ति-विकास का प्रतीक माना जाता है ।
अध्यात्मेत्ताओं ने यंत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा भी है-''जिससे पूजा की जाये, वह यंत्र है । तंत्र परम्परा में इसे देवता के द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त यंत्र शरीर के रूप में इसे देवता के रूप का प्रतीक है जिसकी उपस्थिति को वह मूर्तिमान करता है और जिसका कि मंत्र प्रतीक होता है ।'' इस तरह यंत्र को देवता का शरीर कहते हैं और मंत्र को देवता की आत्मा ।
इसके द्वारा मन को केन्द्रिरत और नियंत्रित किया जाता है । कुलार्णव तंत्र के अनुसार-''यम और समस्त प्राणियों से तथा सब प्रकार के भयों से त्राण करने के कारण ही इसे 'यंत्र' कहा जाता है ।

यह काम, क्रोधादि दोषों के समस्त दुःखों को नियंत्रण करता है । इस पर पूजित देव तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं । सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी सर जॉन वुडरफ ने भी अपने कृति ''प्रिसिपल्स ऑफ तंत्र'' में लिखा है कि इसका नाम 'यंत्र' इसलिए पड़ा कि यह काम, क्रोध व दूसरे मनोविकारों एवं उनके दोषों को नियंत्रित करता है ।

यंत्र-साधना का उद्देश्य ब्रह्म की एकता सिद्धि प्राप्त करना है । यंत्र द्वारा इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती है । इनका संकेत सूत्र यंत्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है । उनका चिंतन, मनन, करना होता है । विकार परिष्कृत एवं भावसाधना से ही उत्कर्ष होता है । यंत्र के बीच में बिन्दू होता है, जो गतिशीलता का, प्रतीक है । शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से सतत चक्कर काट रहा है । यह सर्वव्यापक है ।
अतः हमें भी उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, वरन हर क्षण आगे बढ़ने के लिए तत्पर और गतिशील हो सकते हैं । बिन्दु आकाशतत्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुप्रवेश भाव रहता है जो आकाश का गुण है । बिन्दु यंत्र का आदि और अंत भी होता है । अतः यह उस परात्पर परम चेतन का प्रतीक है जो सबसे परे है, जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं ।
वस्तुतः प्रत्येक यंत्र शिव और शक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कराने वाला एक अमूर्त ज्यामितीय संरचना होता है । इसमें उलटा त्रिकोण 'शक्ति' का और सीधा त्रिकोण 'शिव' का प्रतीक माना जाता है । एक-दूसरे को काटते हुए उलटे और सीधे त्रिकोणों से ही यंत्र विनिर्मित होता है ।
त्रिभुज का शीषकोण-(वर्टिकल-एंगल) जब ऊपर की ओर बना होता है तो यह अग्निशिखा का प्रतीक माना जाता है जो उन्नति का ऊपर उठने का भाव प्रदर्शित करता है । जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है तो जल-तत्त्व का द्योतक माना जाता है, क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल का स्वभाव है ।
यंत्र में त्रिकोणों के चारों ओर गोलाकार वृत-सर्किल बनाये जाते हैं जिसे पूर्णता का और खगोल का प्रतीक कहा जा सकता है । इसे वायु का द्योतक भी माना जाता है, क्योंकि वृत में वृत्ताकार गति के लक्षण पाये जाते हैं । जब एक बिन्दू दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है तो वृत बनता है वायु भी यही करती है और जिसके साथ संपर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है । अग्नि और जल के साथ यही स्थिति रहती है
यंत्र में इस गोलाकार वृत के सबसे बाहर जो चार 'द्वार' वाला चतुष्कोण या चतुर्भुज बना होता है, उसे 'भूपुर' कहते हैं । इसमें बहुमुखता का भाव है । यह पृथ्वी का, भौतिकता का और विश्व-नगर का प्रतीक माना जाता है । किसी भी दशा में इसके चारों द्वारों को पार करके ही साधक मध्य में स्थित उस महाबिन्दू तक पहुँच सकता है जहाँ परम सत्य स्थित है । यह बिन्दु यंत्र के बीच में रहता है और यह अंतिम लक्ष्य माना जाता है । वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं और एकता सधती है ।

आगम ग्रंथों के अनुसार यंत्रों में चौदह प्रकार की शक्तियाँ अंतर्निहित होती हैं और प्रत्येक इन्हीं में से किसी न किसी शक्ति के अधीन रहते हैं । इन्हीं शक्तियों के आधार पर यंत्रों की रेखायें और कोष्ठकों को निर्माण होता है ।
इन यंत्रों में २६ तत्त्वों का समावेश होता है, जिनमें पंचमहाभूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचर्कमेन्दि्रयाँ और पांच इनके विषय-रूप रस, गंध आदि तन्मात्रयें, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति पुरुष, कला, अविद्या, राग, काल, नियति, माया, विद्या, ईश्वर, शिव, शक्ति आदि आते हैं ।
जिस तरह मंत्रों में बीजाधार होते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी १ से लेकर २६ तक की संख्या बीज संख्या मानी गयी है । ये बीज संख्यायें चौदह शक्तियों पर आधारित होकर २६ तत्वों के भावों को भिन्न-भिन्न प्रकट कर रेखाओं, कोष्ठकों के आकार-प्रकार और बीजाक्षरों के अधिष्ठाता देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उन देव शक्तियों को स्थान विशेष पर प्रकट कर मानव संकल्प की सिद्धि प्रदान करती हैं । इन्हीं २६ तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी जल, वायु, अग्नि आदि जो २५ वर्ण बीजों से संबंध रखते हैं ।
यंत्र विज्ञान में १,९ तथा शून्य (()की संख्या अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है । जिस प्रकार एकाक्षरी बीज मंत्रों के अनेक अर्थ होते हैं उसी तरह प्रत्येक संख्या बीज भी अनेक अर्थों वाले होते हैं । ये अंकबीज विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के ऊपर प्रभाव डालने की अपार शक्ति रखते हैं ।
मीमांसाशास्त्र में कहा गया है कि देवताओं की कोई अलग मूर्ति नहीं होती । ये मंत्र मूर्ति होते हैं । वे यंत्रों में आवद्ध रहते हैं और उन पर अंकित अंकों एवं शब्दों का जब लयबद्ध ढंग से भावपूर्ण जप किया जाता है तो उनसे एक विशिष्ट प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसका प्रभाव उच्चारणकर्त्ता पर ही नहीं पड़ता, समूचे आकाश मंडल एवं ग्रह-नक्षत्रें पर भी पड़ता है ।
यंत्र शरीर में स्थित शक्ति केन्द्र को मंत्र एवं अंकों के शक्ति के सहकार से उद्यीप्त-उत्तेजित करता है । मानवी काया में अनेकों सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं जिन्हें देवता की संज्ञा दी जा सकती है । यंत्र वस्तुतः इन्हीं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के मानचित्र के समान हैं जिनकी साधना से साधक में तदनुरूप ही शक्तियों का विकास होता है और वह उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए आत्मोकर्ष के चरमलक्ष्य तक जा पहुँचता है ।
मंत्रों की तरह यंत्र भी बहुविध एवं संख्या में अनेकों हैं और उनका रचना विधान भी प्रयोजन के अनुसार कई प्रकार का होता है । तंत्रशास्त्रों में इस तरह के ९९० प्रकार के यंत्रों का वर्णन मिलता है जिनकी प्रतीकात्मकता की विशद व्याख्या भी की गयी है इनमें से कुछ यंत्रों को 'दिव्य यंत्र' कहा जाता है । ये स्वतः सिद्ध माने जाते हैं और दैवी शक्ति संपन्न होते हैं ।

उदाहरण के लिए बीसायंत्र, श्री यंत्र, पंचदशी यंत्र आदि की गणना दिव्य यंत्रों में की जाती है । इसमें 'श्री यंत्र' सबसे प्रसिद्ध है । इसकी उत्पति के संबंध में 'योगिनी हृदय' में कहा है कि ''जब परम्परा शक्ति अपने संकल्प बल से ही विश्व-ब्रह्मण्ड का रूप धारण करती है और अपने स्वरूप को निहारती है तभी 'श्री यंत्र' का आविर्भाव होता है ।''
'श्री यंत्र' आद्यशक्ति का बोधक है । इसका आकार ब्रह्मण्डांकार है जिसमें ब्राह्मण्ड की उत्पति और विकास का प्रदर्शन किया गया है । यह कई चक्रों में बँटा होता है जिनमें से प्रत्येक की अपने महिमा-महत्ता है ।
इस यंत्र के सबसे अंदर वाले वृत्त के केन्द्र में बिन्दू स्थित होता है जिसके चारों ओर नौ त्रिकोण बने होते हैं । इनमें से पाँच की नोंक ऊपर की ओर और चार की नीचे की ओर होती है । ऊपर की ओर नोंक वाले त्रिभुजों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है और शिव युवती की संज्ञा दी जाती है । नीचे की ओर नोंक वाले शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्हें 'श्री कंठ' कहते हैं ।
उर्ध्वमुखी पाँच त्रिकोण, पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्दि्रयाँ, पाँच कमेन्दि्रयाँ, पाँच तन्मात्रयें और पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं । शरीर में यह अस्थि, माँस, त्वचा आदि के रूप में विद्यमान हैं । अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्ज् के प्रतीक हैं और ब्रह्मण्ड में मन, बुद्धि चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं । ये सभी नौ त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
त्रिकोण के बाहर या पश्चात जो वृत्त होते हैं वे शक्ति के द्योतक हैं । इस यंत्र में पहले वाले वृत्त के बाहर एक आठ दल वाला कमल है तथा दूसरा सोलह दलों वाला कमल दूसरे वृत्त के बाहर है । सबसे बाहर चार द्वारों वाला 'भूपुर' है जो ब्रह्मण्ड की सीमा होने से शक्ति गति-क्षेत्र है ।
इस यंत्र में उर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नितत्व के, वृत्त वायु के, बिन्दु आकाश का और भूपुर पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है । यह यंत्र सृष्टिक्रम का है । ''आनन्द लहरी'' में आद्य शंकराचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है । वे स्वयं इसके उपासक थे । उनके हर मठ में यह यंत्र रहता है ।
योगिनी तंत्र में भी इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि आध्यात्मिक उन्नति के विशेष स्तर पहुँचने पर ही साधक इसकी पूजा का अधिकारी होता है । सिद्धयोगी अंतर पूजा में प्रवेश करते हुए यंत्र की पूजा से प्रारंभ करता है जो ब्रह्म विज्ञान को संकेत है ।
यंत्रों में बिन्दु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामितीय विज्ञान का असाधारण प्रयोग होता है । इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए प्रख्यात यूनानी तत्वज्ञ प्लेटो ने अपनी पाठशाला के बाह्मकक्ष पर यह घोषणा लिखवा दी थी कि जो विद्यार्थी ज्योमिती से अपरिचित हों वह इस पाठशाला में प्रवेश के लिए प्रयत्न न करें । आधुनिक विज्ञानवेत्ता-भी यंत्र रचना पर गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं और उसकी मेटाफिजीकल पावर एवं अद्भूत स्थापत्य को देखकर आश्चर्यचकित हैं ।
मास्को विश्वविद्यालय रूस के मूर्धन्य भौतिकी विद् एवं गणितज्ञ डॉ. अलेक्सेई कुलाई-चेव ने प्राचीन भारतीय कर्मकाण्डीय आकृतियों विशेषकर 'श्री यंत्र' के बारे में गहन खोज की है और पाया है कि यह एक जटिल आकृति है जो वृत्त में अंतनिर्हित नौ त्रिभुजों से बनी है । उच्च बीज गणित, सांख्यिक-विश्लेषण, ज्यामिती एवं कम्प्यूटर आदि की मदद से ही वे इस आकृति को बनाने में सफल हुए
‍उनका कहना है कि विश्व प्रपंच से संबंधित तंत्र की धारणायें बहुत कुछ विश्वोत्पति की 'विग-बैग' वाली वैज्ञानिक मान्यताओं तथा 'तप्त विश्व' के सिद्धान्तों से मिलती-जुलती हैं । यंत्र रचना का रहस्य वैज्ञानिक एवं गणितज्ञों के लिए अभी एक चुनौती बना हुआ है । यंत्रों के अर्थ, उद्देश्य एवं उनमें अंतनिर्हित प्रेरणाओं को यदि समझा और तदनुरूप साधना की जा सके तो सिद्धि अवश्य मिलती है, इनमें कोई संदेह नहीं ।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Choiceless awareness(समाधि)

समाधि Choiceless awareness।

यह बताना जरूरी नहीं कि कब कहाँ कैसे यह अनुभव हुआ। मगर समाधि निश्चय ही एक विरल घटना है। हमें नींद का पता है, हमें यह भी पता है कि कई बार आँख खुली होती है। दृश्य भी होता है तो भी देखना नहीं होता ! आवाज़ें आती हैं सुनना नहीं होता। जब मन में कोई याद नहीं होती तो अतीत नहीं होता। जब भीतर कोई योजना या विचार नहीं होता तो भविष्य नहीं होता। जब कोई शब्द, राग, विराग, विकार नहीं होता, सिर्फ़ एक कोरापन होता है, खालीपन-तो यह हुई Choiceless awareness। जे. कृष्णमूर्ति ने अपनी बात यहीं तक कही है मगर समाधि के बारे में रामकृष्ण परमहंस कहते हैं-नमक से बनी एक गुड़िया को अगर समुद्र में छोड़ दिया जाय और कहा जाय कि लौटकर आना और गहराई के बारे में बताना, तो न वह कभी लौटेगी और न समाधि के अनुभव के बारे में कभी किसी को कुछ ज्ञात होगा।

जो भी हो, दक्षिणेश्वर में यह विचार मन में कभी आया कि कभी विवेकानन्द पर कुछ लिखा जा सकता है। सब लेखक किन्हीं अंशों तक चित्त की एकाग्रता को जानते हैं। असल में रचना होती ही तब है जब एकाग्रता केन्द्रीभूत होकर इतनी-प्रगाढ़ हो गई होती है कि स्वयं अपना होना भी याद नहीं रहता। इसलिए भीतर-ही-भीतर यह प्रतीक्षा फलती रही कि कभी-न-कभी जिन्दगी में एक अवधि ऐसी आयेगी जब इस युवा संन्यासी पर कुछ लिखना बन पायेगा। सबकुछ चलता रहा। समय के हिसाब से आयु सरकती रही, मगर विवेकानन्द पर लम्बी रचना लिखने की घड़ी नहीं आयी।
एक दिन सुबह-सुबह वासु भट्टाचार्य द्वार पर आ गये। शायद उन्होंने परमहंस रामकृष्ण पर बनाया वह वृत्तचित्र या तो दूरदर्शन पर देख लिया था या फिर उन्हें किसी ने वृत्तचित्र के बारे में बताया था। बड़ी देर तक उनसे विवेकानन्द जी के विषय में बातें होती रहीं, जिनसे निष्कर्ष यह निकला कि कहानी को नाटक और फ़िल्म-निर्माण विधि को ध्यान में रखकर लिखा जाये।

विवेकानन्द का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे साधक, चिन्तक, योगी, परिव्राजक, वेदान्ती सभी कुछ एक साथ हैं। वे शंकर से प्रेरित होते हुए भी शंकर जैसे नहीं। शंकर का ‘अद्वैत’ भी ठीक से समझा तभी जा सकता है जब द्वैत समझ में आ जाये। द्वैत का मतलब दूसरेपन की समझ या भाव। यानी एक ओर आप और दूसरी ओर कोई और। तो यह दूसरी ओर वाला अगर न रहे तो द्वैत गिर जाय। मगर दूसरा दूसरा लग ही तब सकता है जब आप में ‘मैं पन’ हो, लेकिन यदि किसी तरह ‘मैं पन’ न रहे, तिरोहित हो जाये तो दूसरा वहाँ कहाँ ठहरेगा ? क्योंकि दूसरा, दूसरा है ही इसलिए कि आपको अपने होने का एहसास है। तो अद्वैत की स्थापना में दूसरा तो ग़ायब होती ही है, आप भी नहीं रहते। यह एहसास, कहते हैं, सबसे पहले जनक को हुआ था। कोई भी दृश्य निरर्थक है अगर देखने वाला न हो। कोई भी देखनेवाला बेमानी है अगर दृश्य न हो। याकि दृश्य दृश्य कहलायेगा ही तब जब द्रष्टा हो। इसलिए जनक ने कहा-जो दिखाई दे रहा है और उसे जो देख रहा है दोनों के बीच जो संबंध है वह स्वप्न है और जागे हुए आदमी के लिए उतनी ही बेमानी है जितनी कि मुर्दें के लिए लोरी।

मगर विवेकाननेद का वेदान्त प्रत्येक जीव को ब्रह्य मानता हुआ भी, मानव विमुख नहीं। वह मानव-देह मन्दिर में प्रतिष्ठित मानव-आत्मा को ही एकमात्र पूजा की इकाई मानता है। उनके लिए सेवा ही सबसे बड़ा कर्म है। ग़रीब और दुखी लोग ही मुक्ति की ओर ले जाने वाले मार्गचिह्व हैं। विवेकानन्द का एक वाक्य मूल्यवान है। वे जब कहते हैं, ‘मैं उसी को महात्मा कहता हूँ जिसका हृदय गरीबों के लिए रोता है, अन्यथा वह दुरात्मा है’ तो एकाएक यह सत्य हर रचनाकार को सोचने के लिए विवश करता है कि आखिर इस तमाम सारी समृद्धि, भागदौड़ या ज्ञान का अर्थ क्या है ?

हम जिसे विकास कहते हैं क्या वह सही विकास है ? हम सब दोहरी जिन्दगी जीते हैं। एक संसार वह है जो हमें मिला है-स्वयं सृष्टि। इसी के समानान्तर एक और दुनिया है जो आदमी ने बनाई है-पंख और पहियों और तारों पर भागती, भोग के लिए उकसाती, परिचय को निर्वैयक्तिक करती, एक आयामवाले लोगों को जन्म देती, खाली और खोखली। सच है कि जिन्दगी आज जितनी सुविधापरक और रंगीन है पहले कभी नहीं थी, मगर इसी के साथ यह भी सच है कि आज आदमी जितना बेचारा और गम़गीन है पहले कभी नहीं था। कदाचर सहज और लड़ाई पहले से भी बहुत ज्यादा भोली मगर खूँख़्वार हो गई है। पूर्व हो या पश्चिम दुख लगातार बढ़ रहा है। कितने उपदेशक आये-गये, क्रान्तियाँ हुई लेकिन आदमी जहाँ था वहीं सड़ रहा है। ऐसे वक्त में विवेकानन्द जैसे संन्यासी, कर्मयोगी, बहुत अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।

असल में यह कृति एक तरह की रूपरेखा है। इसका प्रारूप कुछ ऐसा है जो पाठकों से एक विशिष्ट मनोभूमि की अपेक्षा करता है। इसके रचना शिल्प में एक अच्छी फिल्म के सूत्र निहित हैं। यह कृति लिखी भी इसी उद्देश्य से गयी थी।
मनीष

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Thursday, September 9, 2010

World's 7 Sin(दुनिया के सात पाप)

दुनिया के सात पाप
यह सवाल हमेशा कौंधता रहा है कि पाप क्या है और पुण्य क्या है? इससे भी बढ़कर कि पापों में भी महापाप क्या हैं। हर धर्म ने इसकी अपनी व्याख्या की है।
जब से मनुष्य ने होश संभाला है तभी से उसमें पाप-पुण्य, भलाई-बुराई, नैतिक-अनैतिक पर मंथन करते आध्यात्मिक विचार मौजूद हैं। सारे धर्म और हर क्षेत्र में इन पर व्यापक चर्चा होती है। आइए जानें, कि पश्चिमी सभ्यता और क्रिश्चियनिटी में सेवन डेडली सिन्स कहे जाने वाले दुनिया के सात महापापों में किन किन बातों को शामिल किया गया है। गौर करके देखें तो इन सारे महापाप की, हर जगह भरमार है और हम में से हर एक इसमें से किसी न किसी पाप से ग्रसित है।
अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध नाटककार क्रिस्टोफर मारलो ने भी अपने नाटक 'डॉ फॉस्टस ’ में इन सारे पापों का व्यक्तियों के रूप में चित्रण किया है। ये सात महापाप हैं कामुकता, पेटूपन, लालच, आलस्य, क्रोध, ईष्या और घमंड।
कामुकता : उत्कुंठा, लालसा, कामुकता, कामवासना यह मनुष्य को दंडनीय अपराध की ओर ले जाते हैं और इनसे समाज में कई प्रकार की बुराईयां फलती है।
पेटूपन : पेटूपन को भी सात महापापों में रखा गया है। हर जमाने में पेटूपन की निंदा हुई है और इसका मजाक उड़ाया गया है। ठूंस कर खाने को महापाप में इस लिए रखा गया है कि इसमें अधिक खाने की लालसा होती है और दूसरी तरफ कई जरूरतमंदों को खाना नहीं मिल पाता।
लालच : यह भी एक तरह से लालसा और पेटूपन की तरह ही है। इसमें अत्यधिक प्रलोभन होता है। चर्च ने इसे सात महापाप की सूची में अलग से इसलिए रखा है कि इस से धन दौलत की लालच शामिल है।
आलस्य : पहले स्लौथ का अर्थ होता था उदासी। इस प्रवृत्ति में खुदा की दी हुई चीज से परहेज किया जाता है। इस की वजह से आदमी अपनी योग्यता और क्षमता का प्रयोग नहीं करता है।
क्रोध : इसे नफरत और गुस्से का मिला-जुला रूप कहा जा सकता है। जिस में आकर कोई कुछ भी कर सकता है। यह सात महापाप में अकेला पाप है जिसमें हो सकता है कि आपका अपना स्वार्थ शामिल न हो।
ईष्र्या : इसमें डाह, जलन भी शामिल है। यह महापाप इस लिए है कि इसमें किसी के गुण या अच्छी चीज को व्यक्ति सहन न कर पाता है। ईष्र्या से मन में संतोष नहीं रहता है।
घमंड : अभिमान को सातों महापाप में सबसे बुरा पाप समझा जाता है। हर धर्म में इसकी कठोर निंदा और भत्र्सना की गई है। इसे सारे पाप की जड़ समझा जाता है क्योंकि सारे पाप इसी पेट से निकलते हैं। इसमें खुद को सबसे महान समझना और खुद से अत्यधिक प्रेम शामिल है।
जरा सात महापुण्य भी देख लें। ये इस प्रकार हैं-पवित्रता, आत्म संयम, उदारता, परिश्रमी, क्षमा, दया और नम्रता।
भगवान बुद्ध का पंचशील
बुद्ध ने बनारस के एक धनी व्यापारी यश को शील, सदाचाप के बारे में बताया। जब उसका मन शांत हो गया तो भगवान ने उसे पंचशील का उपदेश दिया।
बुद्ध ने कहा था-
प्राणी हिंसा से विरत रहो।
चोरी मत करो।
अनैतिक व्यवहार मत करो।
व्यभिचार, मिथ्याविचार से विरत रहो।
प्रमादकारी पदार्थों और नशीली चीजों के सेवन से बचो।
कौशल

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Shiva's Appearance(शिव का स्वरूप)

शिव का स्वरूप
शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अर्द्ध नारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अर्द्ध भागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। 

शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। 

सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। 

शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। 

दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया। इसीलिए महाशिवरात्रि अथवा काल रात्रि पर्व के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन है।


बहुत कम लोग जानते हैं भगवान शिव के इन 19 अवतारों के बारे में
1- पिप्पलाद अवतार
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता 24/61
अर्थात ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर सुवर्चा के पुत्र का नाम पिप्पलाद रखा।

2- नंदी अवतार
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

3- वीरभद्र अवतार
यह अवतार तब हुआ था जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-
क्रुद्ध: सुदष्टोंष्ठïपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिïसटोग्ररोचिषम्।
उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥  
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं।                   
श्रीमद् भागवत  -4/5/1

शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।

4- भैरव अवतार
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखुन से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया।
ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।

5- अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं। शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

6- शरभावतार
भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार- हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था।

हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पुंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।

7- गृहपति अवतार
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की।

एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।

8- ऋषि दुर्वासा
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए जो देवताओं के द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया। 

शास्त्रों में इसका उल्लेख है-
अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मïसम्भवान्॥        
-भागवत 4/1/15

अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।

9- हनुमान
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया।
सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।

10- वृषभ अवतार
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।

11- यतिनाथ अवतार
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी जिसके कारण भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा।

इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।

12- कृष्णदर्शन अवतार
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे।

तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13- अवधूत अवतार
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों  के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा।

इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

14- भिक्षुवर्य अवतार
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची।

तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।

15- सुरेश्वर अवतार
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा।

शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।

16- किरात अवतार
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा।

अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर का बाण चलाया। शिव के माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है यह कहने लगा। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरव पर विजय का आशीर्वाद दिया।

17- सुनटनर्तक अवतार
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया  कि सभी प्रसन्न हो गए।

जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।

18- ब्रह्मचारी अवतार
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी  को देख उनकी विधिवत पूजा की।

जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें शमशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।

19- यक्ष अवतार
यक्ष अवतार  शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं।

देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Wednesday, September 8, 2010

Goga ji(गोगा जी)

गोगा जी महाराज(सिद्धनाथ वीर गोगादेव)

राजस्थान के सिद्धों के सम्बन्ध में एक चर्चित दोहा है : ‘‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा।
पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी जेहा''
सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा (ददरेवा) में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं।

नाथ परम्परा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्‍था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।

मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।

लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।

जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्‍था टेककर मन्नत माँगते हैं।

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं।

''गोगा पीर'' व ''जाहिर वीर'' के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि ''गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा'' वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।
विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Guru Gorakhnath ji(गोरखनाथ )

महायोगी गुरु गोरखनाथ

सिद्ध गोरक्षनाथ को प्रणाम
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।

गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।

गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।

गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।

गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।

जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।'

गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।

नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
गोरखनाथ
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।

गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथ बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।

कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।

गोरखनाथ जी की जानकारी

Om Siva Goraksa Yogi
गोरक्षनाथ जी

नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।
1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था।

इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।
3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए।

सतयुग में वो लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार हरभुज में और कलियुग में गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।
6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।
8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।
9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।
10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। "गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी " में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पुरान पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे।



जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK